रविवार, दिसंबर 04, 2011

मनीला में एक घँटा


केवल एक सप्ताह के लिए मनीला आया था और सारे दिन कोन्फ्रैंस की भाग-दौड़ में ही गुज़र गये थे. उस पर से यूरोप से सात घँटे के समय के अंतर की वजह से शाम होते होते नींद के मारे पलकें खुली रखना असम्भव सा लगता था, बस एक दिन रात को थोड़ी देर के लिए बाहर सैर करने को बाहर गया था, तो करीब के एक बाग में रंग बिरंगी रोशनी वाले संगीतमय फुव्वारे देखे थे, जिसमें संगीत की ताल पर पानी की धाराएँ इधर उधर डोलती हुई नृत्य करती हुई लगती थीं.

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


आखिर जिस दिन वहाँ से वापस आना था, उसी दिन सुबह जल्दी उठने का कार्यक्रम बनाया कि कम से कम मनीला छोड़ने से पहले, एक घँटे में कुछ आसपास घूम कर देखूँ. हमारा होटल शहर के मध्य में यूनाईटिट नेशन के मैट्रो स्टेशन के पास था. नक्शे में देखा कि जहाँ मैंने संगीतमय फुव्वारे देखे थे उसके करीब ही कुछ संग्रहालय और अन्य देखने वाली जगहें थी.

सुबह साढ़े पाँच बजे का अलार्म लगाया था. जब अलार्म बजा तो एक पल के लिए मन में आया कि करीब 24 घँटे की यात्रा की थकान का सामना करना था, कुछ और सोना ही बेहतर होगा. लेकिन फ़िर सोचा कि जाने कब दोबारा मनीला आने का मौका मिले, इसे खोना नहीं चाहिये. यही सोच कर मन कड़ा करके उठा और जल्दी से नहाया और सामान तैयार किया. जाने की सब तैयारी करके छः बजे होटल से सैर को निकला.

फिलीपीन्स देश करीब सात हज़ार द्वीपों से बना है जिसमें सबसे बड़े द्वीप हैं लूज़ोन, विसायास और मिन्डानाव. देश की राजधानी मनीला लूज़ोन द्वीप के दक्षिण में सागरतट पर है. इस देश का इतिहास स्पेनी साम्राज्यवाद से जुड़ा है. स्पेनी साम्राज्यवाद का प्रारम्भ हुआ 1565 में और स्पेनी शासकों ने ही इसे अपने राजा फिलिप द्वितीय के नाम से फिलिपीन्स का नाम दिया. स्पेनी शासन से पहले यह द्वीप अनेक राज्यों में बँटे थे जहाँ विभिन्न दातू, राजा और सुल्तान शासन करते थे. स्पेनी साम्राज्यवादियों के आने से पहले इन द्वीपों की सभ्यता पर हिन्दू, बुद्ध तथा इस्लाम धर्मों का प्रभाव था जबकि स्पेनी शासन में यहाँ के अधिकाँश लोगों ने ईसाई कैथोलिक धर्म को अपना लिया. स्पेनी साम्राज्य 1898 तक चला जब फिलिपीन्स गणतंत्र की स्थापना हुई. लेकिन स्पेनी शासकों ने फिलीपीन्स देश को अमरीका को बेच दिया और अमरीकी फिलीपीनो युद्ध के बाद, अमरीका ने इस देश पर कब्ज़ा कर लिया. द्वितीय महायुद्ध में जापानी फौज ने फिलीपीन्स पर कब्ज़ा किया और देश के बहुत से हिस्से इस युद्ध में बमबारी से नष्ट हो गये. द्वितीय महायुद्ध में करीब दस लाख फिलीपीन निवासियों की मृत्यु हुई. अंत में 1946 में फिलीपिन्स स्वतंत्र हुआ.

होटल से निकला तो बाहर मैट्रो स्टेशन पर काम पर जाने आने वालों की भीड़ दिखी. अभी सूरज नहीं निकला था इसलिए हवा में कुछ ठँडक थी. सड़क के किनारे खाने पीने का सामान बेचने वालों के खेमचे, सड़क पर झाड़ू लगाते सफ़ाई कर्मचारी, बैंचों और रिक्शे में सोये लोग आदि देख कर लगा मानो भारत में हों. यहाँ के रिक्शे भारत से भिन्न हैं. रिक्शा खींचने वाली साईकल रिक्शे के आगे नहीं बल्कि बाजु में लगी होती है और किसी किसी रिक्शे में साईकल के बदले मोटर साईकल भी लगी होती है. यहाँ पर अधिकतर लोग अंग्रेज़ी बोलते हैं. एक रिक्शे वाले ने बताया कि रिक्शा चलाने का लायसैंस लेना पड़ता है जिससे उस रिक्शे को केवल शहर के एक हिस्से में चलाने की अनुमति मिलती है और वह शहर के बाकी हिस्सों में नहीं जा सकते. मुझे लगा कि उनका अधिकतर काम मैट्रो से आने जाने वाले लोगों को आसपास की जगहों पर ले जाना होता है.

City life, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

City life, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

City life, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


सबसे पहले तो मैं लापू लापू स्वतंत्रता सैनानी स्मारक पर रुका. श्री लापू लापू ने स्पेनी शासन के विरुद्ध लड़ायी की थी. इस स्मारक की विशालकाय मूर्ति देख कर मुझे भारत के विभिन्न शहरों में लगी विशालकाय देवी देवताओं की मूर्तियों की याद आ गयी. स्मारक के पास बाग में रात भर काम करके, मुँह हाथ धो कर मेकअप उतारते हुए कुछ युवक दिखे. मुझे देख कर मुस्कुरा कर "गुड मार्निंग" करके अभिवादन किया. फिलीपीन्स में समलैंगिक और अंतरलैंगिक लोगों के लिए कानूनी स्वतंत्रता भी है और सामाजिक मान्यता भी. दो दिन पहले हमारी कौन्फ्रैन्स में भी देश के राष्ट्रपति के सामने, टीवी पर काम करने वाले एक प्रसिद्ध फिलीपीनी अभिनेता ने सहजता से अपने समलैंगिक होने की बात को कहा था. मैंने उनके अभिवादन का मुस्करा कर उत्तर दिया और पूछा कि क्या मैं उनकी तस्वीर ले सकता हूँ. लिपस्टिक और मेकअप लगाये एक युवक ने सिर हिला कर नहीं कहा, लेकिन उसके दो अन्य साथी जो हाथ मुँह धो कर वस्त्र बदल चुके थे, तुरंत मान गये.

Lapu Lapu monument, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

City life, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


युवकों से विदा ले कर मैं ओर्किड फ़ूलों के बाग को देखने गया. हालाँकि अभी उस बाग के खुलने का समय नहीं हुआ था फ़िर भी जब मैंने बताया कि मेरे पास समय कम था और मुझे थोड़ी देर में हवाई अड्डा जाना था तो बाहर बैठे सिपाही ने मुझे बिना टिकट ही अन्दर जाने दिया. बाग में ओर्किड के फ़ूल कुछ विषेश नहीं दिखे लेकिन जगह सुन्दर लगी.

Orchid garden, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Orchid garden, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Orchid garden, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


इसी बाग के बाहर दक्षिण कोरिया और फिलीपीनी सैनिकों की जापानी सैना से लड़ाई से जुड़े कुछ स्मारक बने हैं.

Philippine-Korea memorial, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Philippine-Korea memorial, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


बाग से थोड़ी दूर एक कृत्रिम झील में संगीतमय फुव्वारों का कार्यक्रम चल रहा था, जिसमें रात की रंगबिरंगी बत्तियाँ आदि नहीं थीं लेकिन सुन्दर लग रहा था. झील के किनारे स्पेनी साम्राज्य के विरुद्ध लड़ने वाली स्वतंत्रता सैनानियों की मूर्तियों की कतार लगी थी.

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Musical fountain, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Martyrs statues, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


झील के पास संगीतमय फुव्वारे के संगीत की ताल पर चीनी ताई छी व्यायाम करने वाले लोग दिखे. ताई छी की धीमी धीमी बदलती मुद्रायें नृत्य जैसी लगती हैं. अन्य लोगों के साथ मिल कर सुबह सुबह ताई छी का व्यायाम करना चीन में भी बहुत शहरों में देखा था.

Tai chi, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011

Tai chi, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


तब तक सूरज निकला आया था और गर्मी भी बढ़ने लगी थी. मैंने घड़ी देखी सात बज चुके थे. मैं वापस होटल की ओर मुड़ा. झील के किनारे बने जापानी और चीनी बागों को देखने का मेरे पास समय नहीं था, लेकिन होटल वापस आते समय मैं केवल एक अन्य छोटे से कृत्रिम तालाब में बने फिलीपीन्स के नक्शे को देखने के लिए रुका.

Philippines relief map, Rizal Park, Manila - S. Deepak, 2011


वापस होटल पहुँचा तो बस जल्दी से नाशता करके सामान उठाने का समय बचा था. हवाई अड्डा जाने की प्रतीक्षा में कुछ साथी तैयार खड़े थे. थोड़ी देर को ही सही, कम से कम मनीला शहर के एक छोटे से भाग को देखने में सफ़ल हुआ था.

***

बुधवार, नवंबर 16, 2011

फ़िल्मी रोग और उनके डागधर बाबू


रोग, ओपरेशन, जन्म, मृत्यु, अस्पताल, डाक्टर और वैद्य, यह सभी मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं. अधिकतर फ़िल्मों में कोई न कोई दृश्य ऐसा होता ही है जिसमें कोई डाक्टर या अस्पताल दिखे. पर कुछ फ़िल्मों का प्रमुख विषय बीमारी या अस्पताल में काम करने वाले लोग होते हैं. आज मैं कुछ ऐसी ही फ़िल्मों की बात करना चाहता हूँ. अक्सर इन फ़िल्मों को रोने धोने वाली फ़िल्में कहा जाता है, लेकिन कभी कभी गम्भीर विषय पर बनी यह फ़िल्में अपनी बात को मुस्कान के साथ कहने में सक्षम होती हैं.

सबसे पहले मेरे कुछ मन पंसद दृष्यों की बात की जाये, उन फ़िल्मों से जिनकी कहानी में डाक्टर या बीमारियों की बात थी तो छोटी सी, लेकिन फ़िर भी मेरे लिए वे यादगार दृष्य हैं.

सबसे पहला न भूलने वाला दृष्य है मनमोहन देसाई की फ़िल्म अमर अकबर एन्थनी से. वह दृष्य था जिस में तीनो भाई, अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना और ऋषी कपूर, अस्पताल में अपनी बचपन की खोयी माँ निरूपा राय को खून देते हैं. तीनों की बाहों से खून निकल कर माँ के शरीर में सीधा पहुँच रहा था, इस दृष्य ने मुझे बहुत रोमाँचित किया था, हालाँकि मालूम था कि इस तरह से खून नहीं देते. इसी फ़िल्म में एक अन्य दृष्य था जिस पर मुझे बहुत हँसी आयी थी, जिसमें विवाह के वस्त्र पहने हुए परवीन बाबी जी चक्कर खा कर गिर जाती हैं और नीतू सिंह जो डाक्टर हैं, उनकी कलाई को उठा कर कान से लगाती हैं और कहती हैं, "बधाई हो, यह तो माँ बनने वाली है". यह सच्ची बम्बईया मसाला फ़िल्म थी.

दूसरा दृष्य जो मुझे न भूलने वाला लगता है वह गम्भीर था, गुलज़ार की फ़िल्म परिचय से. इस दृष्य में अपनी बीमारी को छुपाने वाले संजीव कुमार अपने रुमाल पर लगे खून के छीटों को अपनी बेटी जया भादुड़ी से नहीं छुपा पाते तो उनकी आँखों में जो कातरता, मजबूरी और दुख की झलक दिखायी दी थी उसने मन को छू लिया था. बिल्कुल इसी से मिलता जुलता एक अन्य दृष्य था ऋषीकेश मुखर्जी की सत्यकाम में जिसमें शर्मीला टैगोर जब अस्पताल में बीमार पति धर्मेन्द्र की खाँसी में खून के छीटें देख लेती हैं तो धर्मेन्द्र की आँखों में आयी हताशा, पीड़ा और दुख बहुत सुन्दर लगे थे.

अस्पताल या बीमारी से जुड़ा कोई दृष्य है जो आपके मन को छू गया और जिसे आप कभी नहीं भुला पाये? उसके बारे में हमें भी बताईये.

Collage hindi films - S. Deepak, 2011


खैर अब न भूलने वाले दृष्यों की बात छोड़ कर, उन फ़िल्मों की बात की जाये जिनकी कहानी में बीमारी और अस्पतालों का स्थान महत्वपूर्ण था.

दिल एक मन्दिर : अगर अस्पतालों और बीमारियों से जुड़ी फ़िल्मों के बारे में सोचूँ तो सबसे पहला नाम जो मन में उभरता है वह है श्रीधर की 1963 की फ़िल्म दिल एक मन्दिर. राम (राजकुमार) को कैन्सर है, वह अस्पताल में अपनी पत्नी सीता (मीना कुमारी) के साथ आते हैं, जहाँ उनकी मुलाकात होती है डा धर्मेश (राजेन्द्र कुमार) से. धर्मेश सीता को देख कर हैरान हो जाते हैं, वही तो उनका पहला प्यार थी. राम को जब अपनी पत्नी और डाक्टर के पुराने प्रेम सम्बन्ध का पता चलता है, वह अपनी पत्नी से कहते हैं कि तुम मेरी मृत्यु के बाद डाक्टर से विवाह कर लेना.

जैसी उस ज़माने की फ़िल्में होती थीं, उस हिसाब से यह नाटकीय और ज़बरदस्त रुलाने वाली फ़िल्म है, जिससे रो रो कर डीहाईड्रेशन का खतरा हो जाये. बचपन में जब पहली बार देखी थी तो पति पत्नी के रिश्ते में पुराने प्रेमी के आने की बात को ठीक नहीं समझ पाया था लेकिन तब भी एक कैन्सर ग्रस्त छोटी बच्ची के लिए मीना कुमारी द्वारा गाया गीत "जूही की कली मेरी लाडली" दिल को छू गया था. फ़िल्म में अन्य भी कई सुन्दर गीत थे जैसे - "याद न जाये बीते दिनों की", "रुक जा रात ठहर जा रे चन्दा", "हम तेरे प्यार में सारा आलम खो बैठे हैं".

आनन्द : अस्पतालों और बीमारियों से जुड़ी मनपसंद फ़िल्मों में मेरे दूसरे नम्बर पर है हृषिकेश मुखर्जी की 1971 की फ़िल्म आनन्द, जिसमें तब के उभरते अभिनेता राजेश खन्ना के साथ अमिताभ बच्चन नये आये थे. आँतड़ियों के कैंन्सर "लिम्फ़ोसारकोमा आफ इन्टस्टाईनस" से पीड़ित आनन्द (राजेश खन्ना) बम्बई में डा. भास्कर (अमिताभ बच्चन) के पास कुछ दिन रहने आते हैं. उसे मालूम है कि उसके जीवन के चन्द महीने ही शेष बचे हैं लेकिन जीवन से भरे आनन्द को इसकी कुछ चिन्ता नहीं लगती, बल्कि वह खुशियाँ बाँटने में मग्न लगता है. भास्कर, उसका "बाबू मोशाय", अपने आसपास की गरीबी और विषमताओं से हताश है, उसे लगता है कि उसके चिकित्सक होने का क्या फायदा जब लोग भूख से मरते हैं. आनन्द उसे प्रेम, दोस्ती और जीवन का पाठ सिखाता है.

गुलज़ार के लिखे इस फ़िल्म के डायलाग बोलने वाले आज भी मिल जाते हैं. "कहीं दूर जब दिन ढल जाये", "मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने",  "न जिया लागे न" और "ज़िन्दगी कैसी है पहेली हाय" जैसे गानों में आज भी मिठास लगती है.

इसी फ़िल्म से प्रेरित थी करण जौहर की 1998 की फ़िल्म कल हो न हो जिसमें अमन (शाहरुख खान) अपनी बीमारी को छुपाते हुए न्यू योर्क आते हैं और नैना (प्रीति ज़िन्टा) तथा रोहित (सैफ़ अली ख़ान) के जीवन में सुख घोलने की कोशिश करते हैं. यूँ तो यह फ़िल्म भी बुरी नहीं थी लेकिन आनन्द की तुलना में अमन के पात्र की बीमारी का चित्रण सतही और अविश्वस्नीय सा था और फ़िल्म में उसकी बीमारी वाला भाग भी सीमित था.

इस सूची में मेरी तीसरी मनपंसद फ़िल्म है 1963 की बिमल राय की फ़िल्म बन्दिनी, जिसकी नायिका कल्याणी (नूतन) जेल में खून की सजा काट रही है. स्त्री जेल में एक तपेदिक की मरीज का इलाज करने डा देवेन (धर्मेन्द्र) आते हैं और कहते हैं कि रोगी की देखभाल के लिए उन्हें एक स्वयंसेवी-कैदी की आवश्यकता है. बाकी कैदी डरती हैं केवल कल्याणी ही इस काम के लिए आगे बढ़ती है. तपेदिक का इलाज करते करते स्वयं देवेन को कल्याणी से प्यार हो जाता है.

इस फ़िल्म में अस्पताल का हिस्सा सारी फ़िल्म में नहीं था, अधिकतर प्रारम्भ के हिस्से में था लेकिन बहुत सशक्त था. धारी वाले वस्त्रों में कैदी औरतें, नूतन का अभिनय और धर्मेन्द्र का शर्मीलापन, यह सब उस समय बहुत पसन्द किये गये थे और फ़िल्म को कई फ़िल्मफेयर पुरस्कार भी मिले थे. "ओ पंछी प्यारे, साँझ सखारे", "मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे", "अब के बरस भेज भईया को बाबुल", "मोरा गोरा रंग लैईले", "ओरे माँझी, मेरे साजन हैं उस पार" जैसे गीतों से सजी यह फ़िल्म आसानी से नहीं भुलाई जा सकती.

गुलज़ार की प्रारम्भ की फ़िल्मों में से 1973 की बनी अचानक ने मुझे बहुत प्रभावित किया था. थोड़े से फ्लैशबैक के दृष्य छोड़ कर बाकी की यह सारी फ़िल्म एक अस्पताल में ही केन्द्रित थी. कहानी थी मेजर रन्जीत (विनोद खन्ना) की जिन्हें गोली लगी है और जिनका इलाज हो रहा है. उनकी देखभाल करने वाली है नर्स राधा (फरीदा जलाल). रन्जीत के साथ उसकी यादें हैं, जिनमें पत्नी पुष्पा का प्यार भी है और उन्हीं के मित्र के साथ बेवफ़ाई भी. रन्जीत ने अपनी पत्नी का खून किया है और ठीक होने पर उन्हें फाँसी लगनी है.

फ़िल्म का ध्येय था कानून की दृष्टि पर और मृत्युदंड पर प्रश्न उठाना. गोली लगने पर पहले  मरीज़ की जान बचाने के लिए डाक्टर मेहनत करते हैं, लेकिन जब डाक्टर उस व्यक्ति की जान बचा लेने में सफल होते हैं तो उसे फाँसी की सजा में मार दिया जाता है. इस फ़िल्म में फ़रीदा जलाल बहुत अच्छी लगी थीं. इस फ़िल्म में गाने नहीं थे.

ख़ामोशी : असित सेन की 1969 की यह फ़िल्म प्रेम में निराशा से जुड़े मानसिक रोग की कहानी थी जिसकी नायिका थी नर्स राधा के रूप में वहीदा रहमान. प्रेम की हताशा को मानसिक रोग के रूप में पालने वाले नवयुवकों के इलाज के लिए मानसिक रोग के डाक्टर कर्नल साहब (नासिर हुसैन) एक नये इलाज की कोशिश करना चाहते हैं और राधा को देव (धर्मेन्द्र) से प्रेम का नाटक करने को कहते हैं. नाटक करते करते राधा को सचमुच देव से प्यार हो जाता है लेकिन देव ठीक हो कर, राधा को भूल कर अस्पताल से चला जाता है. फ़िर कर्नल साहब राधा से एक अन्य रोगी अरुण (राजेश खन्ना) से प्रेम का नाटक करने को कहते हैं. राधा इस काम को स्वीकार नहीं करना चाहती लेकिन कर्नल साहब को मना नहीं कर पाती. अरुण से प्रेम का नाटक करती है तो भी उसकी यादों में देव लौट आता है, और अरुण ठीक हो कर चला जायेगा और उसे भूल जायेगा, इसके डर से वह अपना मानसिक संतुलन खो बैठती है.

वहीदा रहमान, धर्मेन्दर और राजेश खन्ना का सशक्त अभिनय और "तुम पुकार लो", "वो शाम कुछ अज़ीब थी" जैसे गाने, यह फ़िल्म भी बहुत सुन्दर थी.

1970 की असित सेन की फ़िल्म सफ़र में एक बार फ़िर से राजेश खन्ना थे मैडिकल कोलेज में पढ़ने वाले कैंन्सर के रोगी जो सबसे अपना रोग छुपाते हैं. "ज़िन्दगी का सफ़र यह है कैसा सफ़र कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं" इस फ़िल्म का गीत बहुत प्रसिद्ध हुआ था.

तेरे मेरे सपने : क्रोनिन के प्रसिद्ध उपन्यास "द सिटाडेल" पर बनी नवकेतन की फ़िल्म "तेरे मेरे सपने" के निर्देशक थे विजय आनन्द. 1971 की इस फ़िल्म की कहानी थी एक आदर्शवादी डाक्टर आनन्द (देव आनन्द) की, जो कोयले की खान से जुड़े एक छोटे से शहर में काम करने आता है. वहाँ आनन्द को गाँव की मास्टरनी निशा (मुम्ताज़) से प्यार हो जाता है और दोनो विवाह कर लेते हैं. एक गलतफ़हमी की वजह से आनन्द को वह शहर छोड़ना पड़ता है और आनन्द बम्बई में जा कर पैसा कमाने की सोचता है. बम्बई में प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेत्री माल्तीमाला (हेमा मालिनी) से आनन्द के सम्बन्ध बनते है.

पैसे और नाम की चाह में ऊपर उठता आनन्द, छोटे शहर और प्रारम्भिक जीवन के आदर्शों को भूल जाता है. उसे होश आता है जब गर्भवती निशा उसे छोड़ कर चली जाती है. सचिन देव बर्मन के संगीत में बने इस फ़िल्म के कुछ गीत जैसे "जीवन की बगिया महकेगी", "मेरा अंतर इक मन्दिर है तेरा" और "जैसे राधा ने माला जपी श्याम की" मुझे बहुत पसन्द आये थे.

अनुराधा : 1960 की ऋषिकेश मुखर्जी द्वारा निर्देशित फ़िल्म "अनुराधा" की कहानी बहुत सीधी साधी थी. आदर्शवादी डा. निर्मल (बलराज साहनी) गाँव में रह कर लोगों की सेवा करते हैं. छोटा सा संसार है उनका, पत्नि अनुराधा और बेटी रानू. काम में व्यस्त निर्मल, अपनी पत्नी का अकेलापन और त्याग नहीं देख पाते जो प्रसिद्ध गायिका हो कर भी, गाँव में दिन भर घर में रह कर संगीत के दूर चली गयी है. पैसा कमाने में व्यस्त पति हो या शराबी पति हो, कम से कम अकेली पड़ी पत्नी को लोगों की सुहानूभूति तो मिल सकती है लेकिन अगर पति जग भलाई में व्यस्त हो और उसके पास पत्नि और घर के लिए समय न हो तो उसमें पत्नी के अकेलापन सुहानूभूति कठिनाई से मिलती है.

इस फ़िल्म में संगीत दिया था प्रसिद्ध सितारवादक रवि शंकर ने. उनके बनाये गीत जैसे "हाय रे वह दिन क्यों न आयें", "कैसे दिन बीते, कैसे बीती रतियाँ", और "जाने कैसे सपनों में खो गयी अँखियाँ" जैसे गाने आज भी उतने ही ताज़े लगते हैं.

दिल अपना और प्रीत परायी : किशोर साहू द्वारा निर्देशित 1960 की इस फ़िल्म में डाक्टर सुशील (राजकुमार) और उनकी नर्स करुणा (मीना कुमारी) का प्यार दिखाया गया था. पुराने अहसान का बदला चुकाने के लिए सुशील को कुसुम (नादिरा) से विवाह करना पड़ता है.

शंकर जयकिशन के मधुर संगीत से इस फ़िल्म में कई उम्दा गीत थे जैसे कि "मेरा दिल अब तेरा ओ साजना", "अज़ीब दास्ताँ है यह", "दिल अपना और प्रीत परायी". इसी फ़िल्म से प्रेरित थी हनी ईरानी द्वारा निर्देशित 2003 की फ़िल्म अरमान जिसने डाक्टर आकाश (अनिल कपूर) और डाक्टर नेहा (ग्रेसी सिंह) के प्यार के बीच में अमीर बाप की बेटी सोनिया कपूर (प्रीति ज़िन्टा) आ जाती है.

मौसम : गुलज़ार द्वारा 1975 में निर्देशित इस फ़िल्म की कहानी भी क्रोनिन के एक उपन्यास "द जूडास ट्री" पर आधारित थी. इस फ़िल्म में वैसे तो बीमारी का बड़ा हिस्सा नहीं था लेकिन कहानी के नाटकीय मोड़ बनाने में इसमें एक वैद्य जी का बड़ा हिस्सा था जिनकी बेटी चन्दा (शर्मीला टैगोर) से शहर से आये डाक्टर अमरनाथ (संजीव कुमार) को प्यार हो जाता है.

इस फ़िल्म की बात से यह भी मेरे ध्यान में आता है कि भारत में बहुत से लोग देसी या आयुर्वेदिक दवा में विश्वास रखते हैं और आवश्यकता पड़ने पर सबसे पहले वैद्य के पास ही जाते हैं लेकिन हमारी फ़िल्मों को वैद्य के ज्ञान को पश्चिमी ज्ञान से पढ़े डाक्टरों से नीचा माना जाता है और मेरे विचार में कभी कोई ऐसी फ़िल्म नहीं बनी जिसमें वैद्य का प्रमुख भाग हो या उसे हीरो दिखाया गया हो या उनके ज्ञान को सही गौरव से प्रस्तुत किया गया हो.

ऋषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म खूबसूरत में अशोक कुमार को होम्योपैथी का इलाज करने वाला दिखाया गया था, जोकि वह अपने असली जीवन में भी थे. हाल में ही एक पाकिस्तानी फ़िल्म बोल में पिता के रूप में वैद्य का भाग था जिनका काम शहर में पश्चिमी पढ़ायी किये डाक्टरों के आने से ढप्प सा हो जाता है. पिछले दो दशकों में भूमण्डलिकरण से इस तरह की सोच को और भी ज़ोर मिला है और हिन्दी में गाँवों के विषयों पर बनने वाली फ़िल्में और भी कम हो गयीं हैं, इस तरह वैद्यों के काम पर आधारित कहानी पर फ़िल्म बने यह और भी कठिन होगा.

1975 की ही गुलज़ार की एक अन्य फ़िल्म थी खुशबू जो शरतचन्दर के उपन्यास पर बनी थी और जिसमें जितेन्द्र ने गाँव के डाक्टर बृन्दावन का भाग निभाया था, हालाँकि फ़िल्म में बीमारियों या अस्पालों की बात कम ही थी. इसमें शर्मीला टैगोर का एक छोटा सा हिस्सा था जिसमें उनका नाम था लक्खी लेकिन उनका पात्र मौसम की चन्दा से प्रेरित था.

मिली : 1975 की ऋषीकेश मुखर्जी की इस फ़िल्म में जया भादुड़ी को हीमोफिलिया नाम की रक्त की बीमारी थी. उनके पड़ोसी शेखर के रूप में अपने परिवार के स्कैंडल को शराब में डुबा कर भुलाने की कोशिश करने वाले अमिताभ बच्चन को मिली से प्यार हो जाता है लेकिन जब उसे मिली की बीमारी के बारे में मालूम चलता है तो उसे लगता है कि वह इस तरह के दुख का सामना नहीं कर सकता.

ऊपर जितनी फ़िल्मों की बात की गयी है वे सब साठ और सत्तर के दशक में बनी. इसके बाद, अस्सी और नब्बे के दशकों में बनी फ़िल्मों के बारे में, मुझे सोच कर भी याद नहीं आया कि अस्पताल या डाक्टरी विषय पर कौन सी फ़िल्में बनी थीं. केवल पिछले दशक की इस विषय पर बनी कुछ फ़िल्में याद आती हैं, जिनमें से प्रमुख हैं:

दिल ने जिसे अपना कहा : 2004 की इस फ़िल्म के निर्देशक थे अतुल अग्निहोत्री और फ़िल्म की कहानी थी ऋषभ (सलमान खान) और परिणीता (प्रीति ज़िन्टा) की. परिणीता बच्चों की डाक्टर है, बच्चों का अस्पताल बनाना चाहती है, गर्भवती भी है जब दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो जाती है. उसका दिल मिलता है धनि (भूमिका चावला) को जो ऋषभ के बच्चों के अस्पताल बनाने के काम में उसके साथ जुड़ती है.

मुन्ना भाई एमबीबीएस : राजकुमार हिरानी की 2003 की इस फ़िल्म ने भी अस्पतालों, डाक्टरों और डाक्टरी पढ़ने वाले छात्रों की बातें हँसी मज़ाक के साथ साथ बड़ी गम्भीरता से दिखायीं थीं. डाक्टरों, नर्सों के साथ साथ, अस्पताल में और भी कितने लोग काम करते हैं जिनकी बात कभी किसी फ़िल्म में नहीं देखी थी, जैसे कि अस्पताल में सफ़ाई करने वाले. पहली बार मुन्ना भाई में उन्हें भी इन्सान के रूप में दिखाया गया था.

इसके अतिरिक्त 2003 की ही एक मराठी फ़िल्म श्वास जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया था. इसके निर्देशक थे संदीप सावंत और इसकी कहानी थी एक बच्चे की जिसकी आँख में ट्यूमर है और जिसका ईलाज कराने उसके दादा जी उसे बम्बई ले कर आये हैं. यह फ़िल्म मुझे बहुत बहुत अच्छी लगी थी और इस मैंने पहले भी लिखा था.

क्यों कि : 2005 में प्रियदर्शन द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में मानिसक रोगी (सलमान खान) और उसका इलाज करनी वाली डाक्टर (करीना कपूर) की कहानी थी. यह फ़िल्म चीखने चिल्लाने वाली अतिनाटकीयता से भरी थी.

इसके अतिरिक्त, 2009 की फ़िल्म पा जिसमें अमिताभ बच्चन ने प्रोजेरिया नाम की बीमारी से पीड़ित बच्चे का भाग निभाया था, इस दशक की अच्छी फ़िल्मों में से गिनी जा सकती है. अच्छी कहानी, विश्वस्नीय मुख्य पात्र, फ़िल्म भावपूर्ण थीं.

अंत में 2010 की करण जौहर की फ़िल्म वी आर फ़ेमिली में काजोल और करीना कपूर जैसी अभिनेत्रियों के साथ भी कैन्सर से पीड़ित माँ का अपने बच्चों के लिए नयी माँ खोज करने का विषय था. पर इस फ़िल्म में मुझे सब कुछ नकली सा लगा था. सुन्दर कपड़े, बढ़िया लोकेशन थीं फ़िल्म में लेकिन कहानी और पात्र बहुत सतही थे.

मुझे लगता है कि जिस तरह की भावनात्मक फ़िल्में तीस-चालिस साल पहले बनती थीं वह फ़िर उसके बाद नहीं बनी. अस्सी के दशक के बाद फ़िल्मों में तकनीकी सुधार हुआ, फ़िल्में रंगीन हो गयीं, लेकिन जिस तरह की भावनाएँ उनमें होती थीं वह "मुन्ना भाई" और "पा" जैसे अपवादों को छोड़ कर, बाद में बहुत सतही हो गयी. तीस-चालिस पहले कोई फ़िल्म करोड़ों के धँधे की बात नहीं कर सकती थी, न ही उस समय मल्टीप्लेक्स थे, पर उस समय उनमें जो भावनाओं की गहरायी थी उसे पुराना कह कर भूल जाने में शायद हमारा ही नुक्सान है.

अगर मेरी इस सूची में इस विषय पर बनी कोई अन्य अच्छी हिन्दी फ़िल्म छूट गयी है तो उसके बारे में मुझे बताईये. आप का क्या विचार है, क्या आज भावनात्मक फ़िल्में बने तो चलेंगी? डाक्टरी और चिकित्सा विषयों पर बनी फ़िल्मों में आप की सबसे पसन्दीदा फ़िल्म कौन सी होगी?

***

रविवार, नवंबर 13, 2011

फोटो डायरीः लंदन में एक दिन


पिछले पच्चीस सालों में हर वर्ष, किसी न किसी मीटिंग आदि के लिए दो तीन बार लंदन जाना हो ही जाता था. शहर में कई बार घूम चुका था लेकिन शहर कैसा बना है इसकी जानकारी बहुत कम थी, क्योंकि हर जगह मैट्रो से ही जाता. लंदन में मैट्रो की दस-पंद्रह लाईनों का जाल बिछा है, कहीं भी जाना हो, उसके करीब में कोई न कोई मैट्रो स्टेशन मिल ही जाता है इसलिए मुझे सुविधाजनक लगता था कि दिन भर का टिकट खरीदो और जहाँ मन हो वहाँ घूमो. लंदन मैट्रो मँहगा है, इसलिए भी दिन भर का टिकट खरीदना बेहतर लगता था.

पर दिक्कत यह थी कि मैट्रो के सारे रास्ते अधिकतर धरातल से निचले स्तर पर अँधेरी सुरंगों में गुज़रते हैं. इसकी वजह से बहुत से मैट्रो स्टेशनों के आसपास की जगहें मेरी पहचानी हुई थीं लेकिन लंदन शहर के रास्ते कैसे हैं, इसकी जानकारी कम थी. केवल पिछले दो तीन सालों में ही मैंने शहर की सड़कों को कुछ जानने की कोशिश शुरु की थी.

पिछले सप्ताह एक दिन के लिए लंदन जाना था, तो सोचा कि क्यों न इस बार रेलवे स्टेशन से मीटिंग स्थल का रास्ता पैदल ही चलने की कोशिश करूँ. गूगल मैप पर देख कर रास्ता बनाया (नीचे नक्शे में लाल रंग का निशान), तो लगा कि पैदल जाने में एक घँटे से कम समय लगना चाहिये. उसी नक्शे को छाप कर साथ रख लिया.

Central London - S. Deepak, 2011


सुबह 6.30 की उड़ान थी. लंदन के गेटविक हवाई अड्डा पहुँचा. वहाँ पहुँच कर तुरंत रेलगाड़ी से लंदन शहर के विक्टोरिया स्टेशन पहुँचा, तब समय था सुबह के आठ बज कर चालिस मिनट. बाहर विक्टोरिया स्ट्रीट खोजने में दिक्कत नहीं हुई. चलना शुरु किया ही था कि दृष्टि दायीं ओर के एक सुन्दर गिरजाघर पर पड़ी. पूर्वी बाइज़ेन्टाईन शैली से प्रभावित गुम्बजों वाले गिरजाघर का नाम है "अति पवित्र रक्त कैथेड्रल". उस समय हल्की हल्की बूँदा बाँदी हो रही थी लेकिन इतनी भी नहीं कि छतरी खोली जाये.

Central London - S. Deepak, 2011


सड़क की दूसरी ओर एक विशाल शीशे का भवन है जिसमें दुकाने और दफ़्तर हैं, उस समय वह बन्द ही दिख रहा था. आगे बढ़ा तो एक अन्य सुन्दर गिरजाघर दिखने लगा. पीछे से थेम्स नदी के किनारे बना "लंदन आई" यानि "लंदन की आँख" नाम का विशालकाय गोल झूला दिख रहा था. "अरे यह तो वेस्टमिनस्टर गिरजाघर है", मैंने आश्चर्य से सोचा. पहले वेस्टमिनस्टर कई बार देखा था पर तब यह समझ नहीं पाया था कि वह विक्टोरिया स्टेशन के इतने करीब है.

Central London - S. Deepak, 2011


पार्लियामैंट स्क्वायर पहुँचा तो आसपास बहुत सी मूर्तियाँ दिखीं लेकिन सड़क पर बसों, कारों का इतना यातायात था कि सबकी तस्वीरें लेना संभव नहीं था. सड़क के किनारे पर बनी अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की तस्वीर खींची और पार्लियामैंट स्ट्रीट पर मुड़ा.

Central London - S. Deepak, 2011


सड़क पर बहुत से लोग से मेरी तरह ही पैदल चलते हुए, या फ़िर शायद काम में देरी के डर से कुछ कुछ भागते हुए दिख रहे थे. वहीं सड़क के बीच में काले पत्थर का बना कुछ अलग सा स्मारक दिखा, जिसमें स्त्रियों के कोट और पर्स आदि टँगे बनाये गये थे. यह द्वितीय विश्वयुद्ध में स्त्रियों के योगदान का स्मारक है.

Central London - S. Deepak, 2011


कुछ और आगे बढ़ा तो सामने से धुँध के बीच में आसमान की पृष्ठभूमि पर एक जानी पहचानी मूर्ति दिखी, ट्रफाल्गर स्क्वायर पर नेलसन के खम्बे पर बनी जनरल नेलसन की मूर्ति जिनका नाव जैसा टोप दूर से ही पहचाना जाता है.

Central London - S. Deepak, 2011


घड़ी देखी, स्टेशन से चले करीब आधा घँटा हुआ था. सोचा कि अब आस पास देखने और फोटो खींचने का समय नहीं था. कम से कम आधे घँटे का रास्ता अभी बाकी था और मीटिंग में मेरा प्रेसेन्टेशन शुरु में ही था. इसलिए कैमरे को बैग में बन्द किया और तेज़ी से चैरिंग क्रास रोड की ओर कदम बढ़ाये. यूस्टन के पास लंदन स्कूल ओफ़ हाईजीन पहुँचना था, उसमें आधा घँटा लगा, और पूरे रास्ते में  बस एक बार ही किसी से दिशा पूछने की आवश्यकता पड़ी.

दोपहर को तीन बजे काम समाप्त करके मैंने मित्रों से विदा ली और वापस जाने के लिए निकला. मेरा विचार था कि पाँच बजे तक वापस विक्टोरिया स्टेशन पहुँचना चाहिये जिससे शाम के 6 बजे तक गैटविक हवाईअड्डा पहुँच जाऊँ क्योंकि वापस जाने की उड़ान 7.30 की थी. लगा कि बहुत समय है और आराम से इधर उधर देखता घूमता हुआ वापस पहुँच जाऊँगा.

टोटनहैम कोर्ट रोड से लेस्टर रोड के बीच बहुत से थियेटर हैं जहाँ नाटक, नृत्यकार्यक्रम, म्यूजि़कल आदि होते हैं. सबसे पहले दिखी एक थियेटर के बाहर "क्वीन" के प्रसिद्ध गायक फ्रेड्डी मर्करी की मूर्ति जहाँ "वी विल रोक इट" नाम का म्यूज़िकल दिखाया जा रहा था. फ्रैडी मर्करी यानि भारत में जन्मे फारुख बलसारा अपने संगीत के लिए सारी दुनिया में प्रसिद्ध हैं.

Central London - S. Deepak, 2011


फ़िर लगा कि समय है तो बजाय मुख्य सड़क पर चलने के क्यों न साथ की छोटी सड़कों और गलियों में चला जाये? यह सोच कर सैंट मार्टन स्ट्रीट पर मुड़ा तो वहाँ वह थियेटर दिखा जहाँ पिछले 59 सालों से, यानि मेरे पैदा होने से भी पहले से, अगाथा क्रिस्टी के उपन्यास माउस ट्रेप (चूहेदानी) पर आधारित नाटक को निरन्तर किया जाता है. तीस चालिस साल पहले भारत में सुना था इस बारे में, देख कर कुछ अचरज हुआ. सोचा कि यह भी एक तरह का स्मारक सा बन गया है जहाँ पर्यटक लोग बस सिर्फ़ इसीलिए आते होंगे कि चलो इसे भी देख लो, कहने को हो जायेगा कि लंदन गये तो इसे भी देखा.

Central London - S. Deepak, 2011


फ़िर मुझे आकर्षित किया दुकानो़ पर क्रिसमस की तैयारी में लगायी गई रंग बिरंगी रोशनियों ने. सोचा कि क्यों न उस और जा कर भी देखा जाये?

Central London - S. Deepak, 2011


रंगबिरंगी रोशनियों और दुकानों को देखते देखते मैं कोवेन्ट गार्डन पहुँच गया, जहाँ बाज़ार की छत पर लाल, चाँदी और सुनहरे रंग के बड़े बड़े गेंद से गोले लटक रहे थे. एक ओर रेस्टोरेंट थे, संगीतकार थे, तो दूसरी ओर दुकानें और भीड़ भाड़.

Central London - S. Deepak, 2011


कुछ देर तक वहीं दुकानों में घूमा, फ़िर बाहर निकला तो क्रिसमस के लिए बने हरे रंग के भीमकाय रैंनडियर ने ध्यान आकर्षित किया.

Central London - S. Deepak, 2011


फ़िर लगा कि अब देर हो रही है, वापस चलना चाहिये. तेज़ी से कदम बढ़ाये वापस चैरिंग क्रास जाने के लिए. आधा घँटा चल कर लगा कि कुछ गड़बड़ है. कोई जानी पहचानी सड़क नहीं दिख रही थी. वहाँ बैठी युवती की सुन्दर मूर्ति दिखी.

Central London - S. Deepak, 2011


रुक कर कुछ लड़कों से पूछा तो वह मेरी ओर हैरानी से देखने लगे, बोले कि यह तो अल्डविच है, चेरिंग क्रास तो बिल्कुल दूसरी ओर है और मुझे वापस जाना चाहिये. तब समझ में आया कि गलियों में घूमते हुए मेरी दिशा गलत हो गयी थी और मैं अपने रास्ते से बहुत दूर आ गया था. एक क्षण के लिए मन में आया कि इतनी झँझट करने से क्या फ़ायदा, वहीं से मैट्रो ले कर वापस विक्टोरिया जा सकता हूँ. लेकिन यह भी लगा कि वह मेरी हार होगी. हार न मानने की सोच कर, जिस रास्ते से आया थे, उसी पर वापस गया और जहाँ से सड़क छोड़ी थी, वहीं वापस पहुँचा.

चलना तो बहुत पड़ा लेकिन अंत में मुझे मेरी खोयी सड़क मिल गयी. अंत में जब ट्रैफ़ाल्गर स्क्वायर पहुँचा तो सोचा कि कुछ सुस्ता लिया जाये. चलते चलते टाँगे दुखने लगी थीं. उस समय दोपहर के 4.30 ही बजे थे लेकिन अँधेरा होने लगा था और बत्तियाँ जल चुकीं थीं. ट्रैफ़ाल्गर स्क्वायर में बड़ी घड़ी लगी दिखी जिस पर अगले वर्ष के ओलिम्पिक खेलों के प्रारम्भ होने में कितना समय बाकी है इसे दिखाया गया है.

Central London - S. Deepak, 2011


कुछ देर सुस्ता कर पार्लियामैंट स्ट्रीट की ओर बढ़ा तो एक सड़क के कोने पर नाम देख कर ठिठक गया, "डाउनिंग स्ट्रीट", यानि जहाँ ब्रिटिश प्रधान मंत्री का घर है. टेलीविज़न पर बहुत बार देखा था पर टीवी पर यह नहीं पता चलता कि उस सड़क पर सब लोग नहीं जा सकते क्योंकि सड़क के किनारे ग्रिल लगी है जिसके पीछे पुलिस वाले चेक करते हें कि कौन अन्दर जा सकता है, जैसा कि दिल्ली में रेसकोर्स रोड पर होता हैं जहाँ पहले इन्दिरा गाँधी रहती थी और अब सोनिया गाँधी रहती है.

Central London - S. Deepak, 2011


वेस्टमिन्सटर पहुँचा तो पुल की ओर जा कर नीली रोशनी में चमकते गोल झूले की तस्वीर लेने के लालच से खुद को नहीं रोक पाया.

Central London - S. Deepak, 2011


पुल के किनारे पर बनी बिग बैन की घड़ी और ब्रिटिश संसद का भवन रोशनी में चमक रहे थे.

Central London - S. Deepak, 2011


संसद भवन के साथ ही वैस्टमिन्स्टर के गिरजाघर में 11 नवम्बर के प्रथम विश्व युद्ध में मरने वाले सिपाहियों के स्मृति दिवस की तैयारी में पौपी यानि पोस्त के फ़ूलों से सजे क्रौस क्यारियों में लगाये गये थे, जैसा छोटा सा कब्रिस्तान बना हो.

Central London - S. Deepak, 2011


अंत में विक्टोरिया स्टेशन पहुँचा तो सामने शीशे का विशाल भवन रोशनी में जगमगा रहा था. उसके भीतर दफ़्तरों में काम करने वाले लोग किसी नाटक में काम करने वाले अभिनेता लग रहे जो सड़क पर जाने वाले लोगों को रियाल्टी शो दिखा रहे हों.

Central London - S. Deepak, 2011


आखिरकार ठीक समय पर विक्टोरिया स्टेशन पहुँच ही गया था. पैर दर्द कर रहे थे लेकिन मन में अपने पर गर्व हो रहा था कि लंदन की सारी यात्रा पैदल ही की और इस तरह से अपने जाने पहचाने शहर की बहुत सी नयी जगहों को देखने का मौका भी मिला.

***

शुक्रवार, नवंबर 11, 2011

अल्वीरा का पत्र


आखिरकार इतालवी प्रधानमंत्री श्री बरलुस्कोनी के सूर्यास्त का समय आ ही गया. सरकार में रह कर उन्होंने क्या किया और क्या नहीं किया, शायद इसे तो इतिहास भूल भी जाये, पर उनके व्यक्तिगत जीवन की बातें जैसे कि भद्दे इशारे या मज़ाक करना, नवजवान और नाबालिग लड़कियों से जुड़े हुए किस्से, बहुत समय तक याद रखे जायेंगे. उनके राजनीतिक भविष्य का क्या होगा यह तो समय ही बतायेगा. कुछ समय पहले अल्बानिया देश की यात्रा में कही उनकी कुछ बातों पर अल्बानी मूल के लेखिका अल्वीरा दोनेस (Elvira Dones) जो इटली में रहती हैं, ने उनके नाम एक चिट्ठी लिखी थी जिसका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ.

पिछले दशकों में इटली के दक्षिण में भूमध्यसागर के आसपास के देशों, टुनिज़ी, मोरोक्को, लिबिया, अल्बानिया आदि से हो कर अफ़्रीका तथा एशिया से नावों से समुद्र के रास्ते इटली में बहुत से गैरकानूनी प्रवासी आने लगे थे. बरलुस्कोनी सरकार ने प्रवासियों का हव्वा बना दिया था कि यह गुण्डे हैं, अपराधी हैं और इटली की सभ्यता को मिटा रहे हैं. इसी वजह से इन गैरकानूनी प्रवासियों को रोकने के लिए उनकी सरकार ने नये कठोर कानून बनाये. यहाँ तक कि समुद्र में डूबते हुए, मरते हुए लोगों को मदद देने को भी बुरा माना जाने लगा, मानो प्रवासी इन्सान न हों.

इसके साथ ही बरलुस्कोनी सरकार ने भूमध्यसागर के आसपास के देशों को पैसे दिये और उनसे समझौते किये कि वे अपने समुद्रतटों पर पहरेदारी करें और नाव वालों को प्रवासियों को ले कर इटली में घुसने से रोकें. जिस बात पर अल्वीरा ने चिट्ठी लिखी वह इन्हीं प्रवासियों की नावों को रोकने की बात से जुड़ी थी.
"आदरणीय प्रधानमंत्री जी, आप को उस अखबार के माध्यम से यह चिट्ठी लिख रही हूँ जिसे शायद आप नहीं पढ़ते होंगे, लेकिन बिना कुछ लिखे नहीं रह सकती थी क्योंकि पिछले शुक्रवार को आप ने हमेशा की तरह अपने क्रूर मज़ाक करने की आदत से उन लोगों की बात की जो मुझे बहुत प्रिय हैं: अल्बानिया की सुन्दर लड़कियाँ. जब मेरे देश के प्रधानमंत्री आप को भरोसा दे रहे थे कि वह इटली की ओर आने वाली प्रवासियों की नावों को रोकेंगे तो आप ने कहा कि "सुन्दर लड़कियों के लिए यह बात लागू नहीं होती".
मैं उन "सुन्दर लड़कियों" से कई बार मिली हूँ, रातों में, दिनों में, अपने दलालों से छुपते हुए, मैंने उत्तर में मिलान से दक्षिण में सिसली तक उनकी यात्रा देखी है. मुझे उन्होंने मुझे अपने तबाह, शोषित जीवनों के बारे में बताया है.
"स्तेल्ला" के पेट पर उसके मालिकों ने गरम सलाख से एक शब्द दाग़ दिया थाः वैश्या.
सुन्दर थी वह बहुत, लेकिन उसमें एक कमी थी. अल्बानिया से उठा कर इटली में लायी गयी स्तेल्ला फुटपाथ पर स्वयं को बेचने से इन्कार करती थी. एक महीने तक उसके साथ अल्बानी दल्लों और उनके इतालिवी साथियों ने मिल कर बलात्कार किये और अंत में उसे अपनी इस नियती के सामने झुकना पड़ा. वह उत्तरी इटली के बहुत से शहरों के फुटपाथों पर बिकी. फ़िर तीन साल बाद, उसके पेट पर वह शब्द दाग़ा गया, शायद यूँ ही मज़ाक में या समय बिताने के लिए. एक समय था जब वह सुन्दर थी. आज वह दुनिया के हाशिये से बाहर है. न कभी प्यार होगा उसे, न वह कभी माँ बनेगी, न कभी किसी की नानी या दादी. उस पेट पर लिखे वैश्या शब्द ने उसके भविष्य से सभी आशाओं और सपनों को छीन लिया है. पुरुषों को खिलौना बन कर उसका गर्भअंग भी नष्ट हो चुका है.
इन "सुन्दर लड़कियों" पर मैंने एक किताब लिखी थी, "सोले ब्रुचातो" (जला हुआ सूर्य). फ़िर कुछ सालों के बाद स्विटज़रलैंड के टेलीविज़न के लिए इसी विषय पर एक डाकूमैंटरी फ़िल्म भी बनायी थी. उस फ़िल्म के लिए मैं एक अन्य सुन्दर लड़की की खोज में निकली थी जिसका नाम था ब्रुनिल्दा. उसके पिता ने मुझे प्रार्थना की थी कि मैं उसकी बेटी को खोजने में मदद करूँ. वह उन अल्बानी पिताओं मे से हैं जो अपनी बेटियाँ खोज रहे हैं. उनकी बेटियाँ अल्बानियाँ से उठा कर इटली लायी जाती हैं, उन्हें कसाईघरों में उल्टा लटकाया जाता है, उनके साथ बलात्कार करते हैं, उन्हें यातना देते हैं जब तक वह वैश्या बनने को मानती नहीं. प्रधानमंत्री जी, वह भी आप के ही जैसे पिता हैं पर आप जैसा भाग्य नहीं है उनका. आज भी ब्रुनिल्दा का पिता मानना नहीं चाहता कि उसकी बेटी मर चुकी है, वह किसी चमत्कार में आशा रखता है कि उसकी बेटी कहीं छिपी है, वापस आ जायेगी.
लम्बी कहानी है प्रधानमंत्री जी, आप शायद सुनना नहीं चाहेंगे. इतना अवश्य कहूँगी कि मुझसे अगर आप अपने मज़ाक की बातें करेंगी तो उन्हें चुप नहीं सुनूँगी. हर स्तेल्ला, बियाँका, ब्रुनिल्दा और उनके परिवारों के नाम पर आप को यह पत्र लिखना मेरा कर्तव्य था. पिछले बीस सालों के बदलाव में मेरे देश अल्बानिया ने स्वयं अपने आप को बहुत से घाव और दुख दिये हैं, लेकिन अब हम लोग सिर उठा कर, गर्व से चलना चाहते हैं. बेमतलब की क्रूर टिप्पणियों को नहीं स्वीकार करेंगे.
Graphic by S. Deepak, 2011
मेरे विचार में किसी मानव जीवन की दर्दपूर्ण नियति पर अगर अपनी क्रूर टिप्पणियाँ नहीं करें तो इसमे सभी का भला होगा. आप के उन शब्दों पर किसी ने कुछ नहीं कहा. शायद सब लोग अन्य झँझटों की सोच रहे हैं. किसी के पास समय नहीं जबकि आप व आप के अन्य साथी, औरतों के बारे में इस तरह की नीची बातें हमेशा से ही करते आये हैं. इस तरह की सोच और बातें, उन अपराधियों से जो अल्बानी नवयुवतियों का शोषण करते हैं, कम नहीं हैं. आप की ओर से शर्म के साथ अल्बानी औरतों से मैं क्षमा माँगती हूँ."
***

मंगलवार, नवंबर 01, 2011

हेमन्त की एक सुबह


लगता है कि इस वर्ष सर्दी कहीं सोयी रह गयी है. नवम्बर शुरु हो गया लेकिन अभी सचमुच की सर्दी शुरु नहीं हुई. यूरोप में हेमन्त का प्रारम्भ सितम्बर से माना जाता है. अक्टूबर आते आते ठँठक आ ही जाती है. मौसम की भविष्यवाणी करने वाले कहते हैं कि इस साल बहुत सर्दी पड़ेगी और बर्फ़ गिरेगी, पर अब तक शायद सर्दी को उनकी बात सुनने का मौका नहीं मिला. लेकिन अक्टूबर के जाने का समाचार पेड़ों को मिल गया है. मौसम के रंगरेज ने पत्तों में पीले, लाल, कत्थई रंगों से रंगोली बनाना शुरु किया है, उनकी विदाई की खुशी मनाने के लिए.

मौसम और जीवन कितना मिलते हैं! बँसत जैसे कि बचपन, अल्हड़, नटखट रँगों के फ़ूलों की खिलखिलाती हँसी से भरा. गर्मी यानि जवानी, जोश से मदहोश जिसमें अचानक बरखा की बूँदें प्रेम सँदेश ले कर आती हैं. हेमन्त यानि प्रौढ़ता, जीवन की धूप में बाल पकाने के साथ साथ जीने के सबक सीखे हैं, फ़ूल नहीं तो क्या हुआ, पत्तों में भी रँग भर सकते हैं.

और आने वाला शिशिर, जब पत्ते अचानक पेड़ का घर छोड़ कर, लम्बी यात्रा पर निकल पड़ते हैं, हवा के कन्धों पर. वर्षों के गुज़रने के साथ, वापस न आने वाली यात्रा पर निकले प्रियजनों की सूची लम्बी होती जाती है. इस साल चार प्रियजन जा चुके हैं अब तक. अगली बारी किसकी होगी?

आल सैंटस (All saints) का दिन है आज. यानि "हर संत" को याद करने का ईसाई त्यौहार जिसे यूरोप, अमरीका और आस्ट्रेलिया में अपने परिवार के मृत प्रियजनों को याद करने के लिए मनाया जाता है. अमरीका में इसके साथ हेलोवीयन (Halloween) का नाम भी जुड़ा है जिसमें बच्चे और युवा आलसैंटस से पहले की शाम को डरावने भेस बना कर खेलते हैं.

हर ईसाई नाम के साथ एक संत का नाम जुड़ा होता है जिसका वर्ष में एक संत दिवस होता है. 1 नवम्बर को सभी संतों को एक साथ याद किया जाता है, जिसमें कब्रिस्तान में जा कर अपने परिवार वालों तथा मित्रों की कब्रों पर जा कर लोग फ़ूल चढ़ाते हैं, कब्रों की सफ़ाई करते हैं और उन्हें याद करते हैं.

यही सोच कर मैंने अपनी पत्नी से कहा कि चलो आज हम लोग इटली में द्वितीय महायुद्ध में मरे भारतीय सिपाहियों के कब्रिस्तान में हो कर आते हैं. उन्हें तो कोई याद नहीं करता होगा. सुबह सुबह तैयार हो कर हम घर से निकल पड़े.

Indian cemetery of Forli, Italy - S. Deepak, 2011


भारतीय सिपाहियों का यह कब्रिस्तान हमारे घर के करीब एक सौ किलोमीटर दूर है, फोर्ली (Forli) नाम के शहर में. हाईवे से वहाँ पहुँचने में करीब 40 मिनट लगे. फोर्ली जिले का नाम फास्सिट नेता और द्वितीय महायुद्ध के दौरान, हिटलर के साथी, इटली के प्रधान मंत्री बेनितो मुसोलीनी के जन्मस्थान होने से प्रसिद्ध है.

द्वितीय महायुद्ध में अविभाजित भारत से करीब पचास हज़ार सैनिक आये थे इटली में, अंग्रेज़ी सैना का हिस्सा बन कर. उनमें से पाँच हज़ार सात सौ बयासी (5,782) भारतीय सैनिक इटली में युद्ध में मरे थे, जो अधिकतर नवयुवक थे और जिनकी औसत उम्र बाइस-तैईस साल की थी. इटली में मरने वाले इन सिपाहियों में से बारह सौ पैंसठ (1,265) लोगों का अंतिम संस्कार फोर्ली के कब्रिस्तान में हुआ था. उनमें से चार सौ छयानबे (496) लोग मुसलमान थे उन्हें यहाँ दफ़नाया गया, जबकि सात सौ उनहत्तर (769) लोग हिन्दू या सिख थे, जिनका यहाँ अग्नि संस्कार हुआ था. इटली में यह भारतीय सिपाहियों का सबसे बड़ा कब्रिस्तान-संस्कार स्थल है.

यहाँ मुसलमान सैनिकों की अपने नामों की अलग अलग कब्रें है जबकि हिन्दू तथा सिख सैनिकों के नाम का एक स्मारक बनाया गया है जिसपर उन सबके नाम लिखे हैं. इसके अतिरिक्त कुछ बहादुरी का मेडल पाने वाले हिन्दू तथा सिख सिपाहियों के नाम के बिना कब्र के पत्थर भी लगे हैं. सिपाहियों के नामों की सूची में, जो नामों के एबीसी (A B C) के हिसाब से बनी है, पहला नाम है स्वर्गीय आभे राम का जो दिल्ली के रहने वाले थे और 23 वर्ष के थे, अंतिम नाम है स्वर्गीय ज़ैल सिंह का जो लुधियाना जिले के थे और 25 साल के थे.

Indian cemetery of Forli, Italy - S. Deepak, 2011

Indian cemetery of Forli, Italy - S. Deepak, 2011

Indian cemetery of Forli, Italy - S. Deepak, 2011

Indian cemetery of Forli, Italy - S. Deepak, 2011


जब भारतीय सिपाहियों की चिताएँ जलाई गयी थी, उस समय वहाँ काम करने वाले फोर्ली के रहने वाले एक व्यक्ति श्री साल्वातोरे मरीनो पारी ने 2007 में एक साक्षात्कार में उन दिनों की याद को इन शब्दों में व्यक्त किया था (यह साक्षात्कार लिया था श्री एमानूएले केज़ी ने , जिसे उन्होंने दूचेलाँदियाँ नाम के इतालवी चिट्ठे पर लिखा था):
"तब मैं 18 साल का था. 1945 की बात है, लड़ाई समाप्त हुई थी. अंग्रेजी फौज ने वायुसैना रक्षा कोलेज में अपना कार्यालय बनाया था, वहीं मुझे काम मिला था. हमारा काम था जहाँ जहाँ लड़ाई हुई थी वहाँ जा कर अंग्रेज़ी फौज के सिपाहियों की लाशों को जमा करना और उन्हें अलग अलग जगहों पर अंतिम संस्कार के लिए भेजना. सुबह ट्रक में निकलते थे, और आसपास की हर जगहों को खोजते थे. लाशों को जमा करके उनको पहचानने का काम किया जाता था, जो कठिन था. हमें कहा गया कि किसी सैनिक की एक उँगली तक को ठीक से ले कर आना है. हमारा काम था जब भी कोई भारतीय सैनिक मिलता, हम उसे फोर्ली के कब्रिस्तान में ले कर आते. हमने मुसलमानों की लाशों को दफनाया और हिन्दू तथा सिख सिपाहियों की लाशों का लकड़ी की चिताएँ बना कर, घी डाल कर उनका संस्कार किया. एक चिता पर छः लोगों का इकट्ठा संस्कार किया जाता था.
इस तरह का दाह संस्कार हमने पहले कभी नहीं देखा था. शहर से बहुत लोग उसे देखने आये, लेकिन किसी को पास आने की अनुमति नहीं थी. अंग्रेज़ी फौज ने चारों ओर सिपाही तैनात किये थे जो लोगों को करीब नहीं आने देते थे. फ़िर हमने चिताओं से राख जमा की और उसको ले कर रवेन्ना शहर के पास पोर्तो कोर्सीनी में नदी में बहाने ले कर गये. बेचारे नवजवान सिपाही अपने घरों, अपने देश से इतनी दूर अनजानी जगह पर मरे थे, बहुत दुख होता था.
मुझे उनका इस तरह से पार्थिव शरीरों को चिता में जलाना बहुत अच्छा लगा. जब मेरा समय आयेगा, मैं चाहता हूँ कि मेरे शरीर को जलाया जाये और मेरी राख को मिट्टी में मिला दिया जाये ताकि मैं प्रकृति में घुलमिल जाऊँ."
हरी घास में तरीके से लगे पत्थर, कहीं फ़ूलों के पौधे, पुराने घने वृक्ष, बहुत शान्त और सुन्दर जगह है यह भारतीय सिपाहियों का स्मृति स्थल. जाने इसमें कितने सैनिकों के परिवार अब पाकिस्तान तथा बँगलादेश में होंगे, और कितने भारत में, इस लिए यह केवल भारत का ही नहीं बल्कि पाकिस्तान तथा बँगलादेश का भी स्मृति स्थल है.

यहीं उत्तरी इटली में रहने वाले सिख परिवारों ने मिल कर एक सिख स्मारक का निर्माण करवाया है जिसमें दो सिख सिपाही हैं जोकि एक इतालवी स्वतंत्रता सैनानी को सहारा दे रहे हैं. यह स्मारक बहुत सुन्दर है.

Indian cemetery of Forli, Italy - S. Deepak, 2011

Indian cemetery of Forli, Italy - S. Deepak, 2011

Indian cemetery of Forli, Italy - S. Deepak, 2011


सड़क की दूसरी ओर, फोर्ली का ईसाई कब्रिस्तान भी है. जहाँ एक ओर भारतीय सिपाही स्मृति स्थल में हमारे सिवाय कोई नहीं था इस तरफ़ के ईसाई कब्रिस्तान में सुबह सुबह ही लोगों का आना प्रारम्भ हो गया था.

हाथों में फ़ूल लिये, या प्रियजन की कब्र की सफ़ाई करते हुए या फ़िर नम आँखों से पास खड़े हुए प्रार्थना करते हुए लोग दिखते थे.

सुन्दर मूर्तियाँ, रंग बिरँगे फ़ूल, घने पेड़ों पर चहचहाती चिड़ियाँ, और पीले कत्थई होते हुए पेड़ों के पत्ते, हर तरफ़ शान्ती ही दिखती थी.

Cemetery of Forli, Italy - S. Deepak, 2011

Cemetery of Forli, Italy - S. Deepak, 2011

***

शनिवार, अक्तूबर 29, 2011

वेरा की लड़ाई


जीवन में कब किससे मिलना होगा और कौन सी बात होगी, यह कौन बता सकता है? संयोग से कभी कभी ऐसा होता है कि इतने दूर की किसी बात से मिली कड़ी का अगला हिस्सा भी संयोग से अपने आप ही मिल जाता है. कुछ मास पहले मैंने "हाहाकार का नाम" शीर्षक से एक अर्जेन्टीनी मित्र से मुलाकात की बात लिखी थी जिसने मुझे तानाशाही शासन द्वारा मारे गये बच्चों की खोज में किये जाने वाले काम के बारे बता कर द्रवित कर दिया था. तब नहीं सोचा था कि वेरा से मुलाकात भी होगी, जिसने उसी तानाशाह शासन से अपनी बच्ची को खोजने के लिए लड़ाई लड़ी थी और सत्य की खोज में आज भी लड़ रही है.

वेरा का जन्म 1928 में इटली में हुआ था. ज्यू यानि यहूदी परिवार में जन्मी वेरा जराख (Vera Jarach) दस साल की थी, मिलान के एक प्राथमिक विद्यालय में पढ़ती थी जब इटली में मुसोलीनी शासन के दौरान जातिवादी कानून बने. वेरा को विद्यालय में अध्यापिका ने कहा कि तुम इस विद्यालय में नहीं पढ़ सकती, क्योंकि तुम यहूदी हो और नये कानून के अनुसार यहूदी बच्चे सरकारी विद्यालयों में नहीं पढ़ सकते.

Vera Jarach, desparecidos in Argentina - S. Deepak, 2011


इस बात के कुछ मास बाद जनवरी 1939 में वेरा के पिता ने निर्णय किया कि जब तक यहूदियों के विरुद्ध होने वाली बातें समाप्त न हों, वह परिवार के साथ कुछ समय के लिए इटली से बाहर कहीं चले जायेंगे. उनके कुछ मित्र अर्जेन्टीना में रहते थे, इसलिए उन्होंने यही निर्णय लिया कि कुछ समय के लिए वे लोग अर्जेन्टीना चले जायेंगे. वेरा के दादा ने कहा कि वह अपना घर, देश छोड़ नहीं जायेंगे, वह मिलान में अपने घर में ही रहेंगे. वेरा के परिवार के अर्जेन्टीना जाने के एक वर्ष बाद उसके दादा को पुलिस ने पकड़ कर आउश्विट्ज़ के कन्सनट्रेशन कैम्प में भेजा, जहाँ कुछ समय बाद उन्हें मार दिया गया. वेरा और उसका बाकी परिवार यूरोप से होने की वजह से इस दुखद नियति से बच गये.

द्वितीय महायुद्ध के समाप्त होने पर, मुसोलीनी तथा हिटलर दोनो हार गये, और अर्जेन्टीना में गये इतालवी यहूदी प्रवासी वापस इटली लौट आये, लेकिन वेरा के परिवार ने फैसला किया कि वह वहीं रहेंगे, क्योंकि तब तक वेरा की बड़ी बहन ने वहीं पर विवाह कर लिया था, और वह सब लोग करीब रहना चाहते थे. कुछ सालों के बाद वेरा को भी एक इतालवी मूल के यहूदी युवक से प्यार हुआ और उन्होंने विवाह किया और उनकी एक बेटी हुई जिसका नाम रखा फ्राँका.

फ्राँका जब हाई स्कूल में पहुँची, तब दुनिया बदल रही थी. यूरोप तथा अमेरिका में वियतनाम युद्ध के विरोध में प्रदर्शन किये जा रहे थे. तब हिप्पी आंदोलन और युवाओं के आँदोलन भी चल रहे थे. वैसे ही प्रदर्शन दक्षिण अमरीका में भी हो रहे थे. फ्राँका भी अर्जेन्टीनी युवाओं के साथ प्रर्दशनों में हिस्सा ले रही थी. तब अर्जेन्टीनी राजनीतिक स्थिति बदली. जुलाई 1974 में राष्ट्रपति पेरों की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी एवा पेरों (Eva Perone) को राष्ट्रपति बनाया गया लेकिन उस समय वामपंथी तथा रूढ़िवादि राजनीतिक दलों के बीच में झगड़े शुरु हो गये. कुछ वामपंथी दल रूसी कम्यूनिस्ट शैली के शासन की माँग कर रहे थे और रूढ़िवादि दल, मिलेट्री के साथ मिल कर उनके विरुद्ध कार्यक्रम बना रहे थे. मार्च 1976 में मिलेट्री ने एवा पेरों को हटा कर सत्ता पर कब्ज़ा किया और वामपंथी दलों के समर्थकों पर हमले शुरु हो गये.

18 साल की फ्राँका को भी मिलेट्री सरकार की खुफ़िया पुलिस विद्यालय से जुलाई 1976 में पकड़ कर ले गयी. उन दिनों से शुरु हुआ मिलेट्री शासन का अत्याचार जिसमें करीब 30,000 लोग उठा लिए गये जिनका कुछ पता नहीं चला. उनको पहले यातनाएँ दी गयीं फ़िर उनमें से कुछ लोगो को मार कर समुद्र में फैंक दिया गया, कुछ को मार कर जँगल में दबा दिया गया. आज उन लोगों को स्पेनी भाषा के शब्द "दिसाआपारेसिदोस" (Desaparecidos) यानि "खोये हुए लोग" के नाम से जाना जाता है.

जिनके बच्चे खोये थे, वे परिवार पहले तो डरे रहे, फ़िर धीरे धीरे, अर्जेन्टीना की राजधानी बोनोस आएरेस के उन परिवारों की औरतों ने फैसला किया कि वह शहर के प्रमुख स्काव्यर प्लाजा दो मायो (Plaza do Mayo), जहाँ राष्ट्रपति का भवन था, में जा कर प्रर्दशन करेंगी. उन्होंने परिवारों के पुरुषों को कहा कि तुम सामने मत आओ वरना पुलिस तुमको विरोधी कह कर पकड़ लेगी, लेकिन प्रौढ़ माँओं को पकड़ने से हिचकेगी. एक दूसरे की बाँहों में बाँहें डाल कर गुम हुए बच्चों की माँओं ने प्लाज़ा दो मायो में घूमते हुए प्रर्दशन करना शुरु किया. इस विरोध को आज "प्लाज़ा दो मायो की माओं का विरोध" के नाम से जाना जाता है.

धीरे धीरे जानकारी आनी लगी कि किसके साथ क्या किया गया था, कैसे लोगों को यातनाएँ दे कर मारा गया था, कैसे गर्भवति औरतों के बच्चे पैदा कर मिलेट्री वाले निसन्तान लोगों ने ले लिए थे और उनकी माओं को मार दिया गया था.

बहुत सालों की लड़ाई और खोज के बाद वेरा को मालूम पड़ा कि उसकी बेटी फ्राँका की मृत्यु उसके पकड़े जाने के एक माह के बाद ही हो गयी थी.

"मन में आस छुपी थी कि शायद मेरी बेटी कहीं ज़िन्दा हो", वेरा बोली, "वह आस बुझ गयी, दुख भी हुआ पर यह भी लगा कि अब इस बात को ले कर सारा जीवन नहीं तड़पना पड़ेगा. जैसा उसके दादा के साथ हुआ था, फ्राँका की भी कोई कब्र नहीं, मेरे दिल में दफ़न है वह."

पिछले 35 सालों से वेरा और उसके साथ की अन्य माएँ न्याय के लिए लड़ रही हैं. कुछ मिलेट्री वालों को पकड़ लिया गया, उन पर मुकदमें चले और उन्हें सजा मिली. कुछ लोगों की कब्रों से हड्डियों की डीएनए जाँच द्वारा पहचान की गयी और उनके परिवार वालों को उन्हें ठीक से दफ़नाने का मौका मिला.

Vera Jarach, desparecidos in Argentina - S. Deepak, 2011


वेरा ने मुझसे कहा, "उन मिलेट्री वालों ने 400 नवजात बच्चों को उनकी माओं से छीन कर मिलेट्री परिवारों में गोद ले कर पाला, हम उन्हें भी खोजती है, और उन्हें भी बताती हैं कि उनके साथ क्या हुआ था और उनके असली माँ बाप कौन थे."

वे बच्चे आज करीब तीस पैंतीस साल के लोग हैं. मैंने सुना तो मुझे लगा कि अगर अचानक कोई आप को आ कर बताये कि जिन्हें सारा जीवन आप ने अपने माँ पिता समझा है वह असल में वे लोग हैं जिन्होंने आप के असली माता पिता को मारा होगा, तो कितना धक्का लगेगा?

मैंने वैरा से कहा, "पर क्या यह करना जरूरी है? जिन लोगों को कुछ नहीं मालूम, यह भी नहीं कि वे गोद लिये गये थे, उनके जीवन में यह समाचार दे कर उन्हें कितना दुख होता होगा?"

वेरा बोली, "सोचो कि तुम हो इस स्थिति में, क्या तुम अपने जीवन की इतनी भीषड़ सच्चाई को जानना नहीं चाहोगे? मैं नहीं मानती कि झूठ में रहा जा सकता है. करीब सौ बच्चों को पहचाना जा चुका है, उनकी नानियाँ दादियाँ और मनोवैज्ञानिक इस स्थिति में उन्हें सहारा देते हैं. सच्चाई को छुपाने से जीवन नहीं बन सकता, सच जानना बहुत आवश्यक है."

पर फ़िर भी मुझे वेरा की बात कुछ ठीक नहीं लगी. लगा कि इतना भीषड़ सत्य शायद मैं न जानना चाहूँ जिसे सारा जीवन उथल पथल हो जाये.

83 वर्ष की वेरा की हँसी मृदुल है. वह अब भी घूमती रहती है, विद्यालयों में बच्चों को उन सालों की कहानी सुनाती है, अपनी लड़ाई के बारे में बताती है.

वेरा बोली, "मुझे लोग कहते हैं कि जो हो गया सो हो गया, इतने साल बीत गये, अब उनको क्षमा कर दो, भूल जाओ. मैं पूछती हूँ कि क्या किसी ने क्षमा माँगी है हमसे कि हमने गलत किया, जो मैं क्षमा करूँ? वे लोग तो आज भी अपने कुकर्मों की डींगे मारते हैं कि उन्होंने अच्छा किया कम्युनिस्टों को मार कर. उन्हें सज़ा मिलनी ही चाहिये, हाँलाकि उनमें से अधिकाँश लोग अब बूढ़े हो रहे हैं, कई तो मर चुके हैं. मेरे मन में बदले की भावना नहीं, मैं न्याय की बात करती हूँ. अत्याचारी खूनी को कुछ सजा न मिले, क्या यह अन्याय नहीं?"

वेरा कभी भारत नहीं गयी लेकिन कहती है कि उसकी एक मित्र कार्ला (Carla) अपने पति माउरिज़यो (Maurizio) के साथ दिल्ली में रहती है जिसके साथ मिल कर उसने अपने जीवन के बारे में एक किताब लिखी थी. उसने मुझसे पूछा, "यह बात केवल अर्जेन्टीना की नहीं, हर देश की है. भारत में भी तो दंगे होते हैं, विभिन्न धर्मों के बीच, क्या उनमें अपराधियों को सज़ा मिलती है?"

मैंने उसे 1984 में हुए सिख परिवारों के साथ हुए तथा 2002 में गुजरात में मुसलमान परिवारों के साथ हुए काँडों के बारे में बताया कि भारत में भी अधिकतर दोषी खुले ही घूम रहे हैं, और वहाँ भी कुछ लोग न्याय के लिए लड़ रहे हैं.

मैं चलने लगा तो वेरा ने कहा, "मैं आशावान हूँ, मैं निराशावादी नहीं. मेरे दादा नाज़ी कंसन्ट्रेशन कैम्प में मरे, उनकी कोई कब्र नहीं. मेरी बेटी भी अनजान जगह मरी, उसकी भी कोई कब्र नहीं. मेरा कोई वारिस नहीं. फ़िर भी मैं आशावान हूँ, मैं मानती हूँ कि दुनिया में अच्छे लोग बुरे लोगों से अधिक हैं और अंत में अच्छाई की ही जीत होगी. मेरी एक ही बेटी थी, वह नहीं रही, पर मैं सोचती हूँ कि दुनिया के सारे बच्चे मेरे ही नाती हैं. पर मेरा कर्तव्य है कि उन बच्चों को याद दिलाऊँ कि हमारी स्वतंत्रता, हमारी खुशियाँ, हमारे जीवन, हमारे लोकतंत्र, इनकी हमें रक्षा करनी है. अगर तानाशाह इन पर काबू करके हमें डरायेंगे तो हमें डरना नहीं, उनसे लड़ना है. अन्याय हो और हम अपनी आवाज़ न उठायें, तो इसका मतलब हुआ कि हम भी अत्याचारियों के साथी हैं."

***

सोमवार, अक्तूबर 24, 2011

विदेशी पनीर के देसी बनानेवाले


इतालवी पारमिज़ान पनीर दुनिया भर में प्रसिद्ध है. वैसे तो बहुत से देशों में लोगों ने इसे बनाने की कोशिश की है लेकिन कहते हैं कि जिस तरह का पनीर इटली के उत्तरी पूर्व भाग के शहर पारमा तथा रेज्जोइमीलिया में बनता है वैसा दुनिया में कहीं और नहीं बनता. इसकी वजह वहाँ के पानी तथा गायों को खिलायी जाने वाली घास में बतायी जाती है. पारमिज़ान पनीर को घिस कर पास्ता के साथ खाते हैं और अन्य कई पकवानों में भी इसका प्रयोग होता है. वैसे तो पिछले कुछ वर्षों से इटली के विभिन्न उद्योगों में गिरावट आयी है लेकिन लगता है कि पारमिज़ान पनीर के चाहने वालों ने इस पनीर के बनाने वालों के काम को सुरक्षित रखा है.

करीब पंद्रह बीस वर्ष पहले पारमिज़ान पनीर को बनाने वाले उद्योग को काम करने वाले मिलने में कठिनाई होने लगी. इतालवी युवक कृषि से जुड़े सब काम छोड़ रहे थे, गायों तथा भैंसों की देखभाल करने वाले नहीं मिलते थे. तब इस काम का मशीनीकरण होने लगा पर साथ ही पंजाब से आने वाले भारतीय युवकों को इस काम के लिए बुलाया जाने लगा. आज उत्तरी इटली में करीब 25 हज़ार पंजाबी युवक, जिनमें से अधिकतर सिख हैं, इस काम में लगे हैं. यहीं के छोटे से शहर नोवेलारा में यूरोप का सबसे बड़ा गुरुद्वारा भी बना है.

यानि दुनिया भर में निर्यात होने वाले इतालवी पारमिज़ान पनीर को बनाने वाले चालिस प्रतिशत कार्यकर्ता भारतीय हैं. वैसे तो इटली में भारतीय प्रवासी बहुत अधिक नहीं हैं लेकिन इस काम में केवल भारतीय पंजाबी प्रवसियों को ही जगह मिलती है.

आज सुबह इस विषय पर इटली के रिपुब्लिका टेलीविज़न पर छोटा सा समाचार देखा जिसमें भारत से सात वर्ष पहले आये मन्जीत सिंह का साक्षात्कार है. उन्हें यह काम सिखाया कम्पनी के मालिक ने जो कहते हें कि भारत से आये प्रवासी यहाँ के समाज में घुलमिल गये हैं और उनके बिना इस काम को चलाना असम्भव हो जाता.

आप चाहें तो इस समाचार को इस लिंक पर देख सकते हैं.


सोमवार, सितंबर 26, 2011

दिल लुभाने वाली मूर्तियाँ


बोलोनिया शहर संग्रहालयों का शहर है. गाइड पुस्तिका के हिसाब से शहर में सौ से भी अधिक संग्रहालय हैं. इन्हीं में से एक है दीवारदरियों (Tapestry) का संग्रहालय. दीवारदरियाँ यानि दीवार पर सजावट के लिए टाँगने वाले कपड़े जिनके चित्र जुलाहा करघे पर कपड़ा बुनते हुए, उस पर बुन देता है.

बहुत दिनों से मन में इस संग्रहालय को देखने की इच्छा थी. कल रविवार को सुबह देखा कि मौसम बढ़िया था, हल्की हल्की ठंडक थी हवा में. पत्नि को भी अपनी सहेली के यहाँ जाना था जहाँ जाने का मेरा बिल्कुल भी मन नहीं था, तो सोचा क्यों न आज सुबह साइकल पर सैर को निकलूँ और उस संग्रहालय को देख कर आऊँ.

यह संग्रहालय हमारे घर से करीब आठ या नौ किलोमीटर दूर, शहर के दक्षिण में जहाँ पहाड़ शुरु होते हैं, उनके आरम्भिक भाग में अठाहरवीं शताब्दी के एक प्राचीन भवन में बना है. इस प्राचीन भवन का नाम है "विल्ला स्पादा" (Villa Spada) जो कि रोम के स्पादा परिवार का घर था. सोचा कि पहाड़ी के ऊपर से शहर का विहंगम दृश्य भी अच्छा दिखेगा. यह सब सोच कर सुबह नौ बजे घर से निकला और करीब आधे घँटे में वहाँ पहुँच गया.

संग्रहालय के आसपास प्राचीन घर का जो बाग था उसे अब जनसाधारण के लिए खोल दिया गया है. बाग में अंदर घुसते ही सामने एक मध्ययुगीन बुर्ज बना है, जबकि बायीं ओर एक पहाड़ी के निचले हिस्से पर विल्ला स्पादा का भवन है. संग्रहालय में देश विदेश से करघे पर बुने कपड़ों के नमूने हैं.  इन कपड़ों के नमूनों में से कुछ बहुत पुराने हैं, यहाँ तक कि दो हज़ार साल से भी अधिक पुराने, यानि उस समय के कपड़े जब भारत में सम्राट अशोक तथा गौतम बुद्ध थे. कपड़ों के अतिरिक्त संग्रहालय में प्राचीन चरखे और कपड़ा बुनने वाले करघे भी हैं जैसे कि एक सात सौ साल पुराना करघा.

संग्रहालय में घूमते हुए लगा कि शायद यूरोप में कपड़ा बुनने वालों को नीचा नहीं समझा जाता था बल्कि उनको कलाकार का मान दिया जाता था. तभी उनके बनाये कढ़ाई के काम को, डिज़ाईन के काम को इतने मान के साथ सहेज कर रखा गया है. उनमें से कुछ लोगों के नाम तक लिखे हुए हैं. सोचा कि अपने भारत में हाथ से काम करने वाले को हीन माना जाता है, उनकी कला को कौन इतना मान देता है कि उनके नाम याद रखे जायें या उनके डिज़ाईनों को संभाल कर रखा जाये? पहले ज़माने की बात तो छोड़ भी दें, आज तक पाराम्परिक जुलाहे जो चंदेरी या चिकन का काम करते हैं, क्या उनमें से किसी को कलाकार माना जाता है? धीरे धीरे सब काम औद्योगिक स्तर पर मिलें और मशीने करने लगी हैं, जबकि हाथ से काम करने वाले कारीगर गरीबी और अपमान से तंग कर यह काम अपने बच्चों को नहीं सिखाना चाहते. कहते थे कि ढ़ाका की इतनी महीन मलमल होती थी कि अँगूठी से निकल जाये, पर क्या किसी मलमल बनाने बनाने का नाम हमारे इतिहास ने याद रखा?

संग्रहालय में रखे कपड़ों, करघों के अतिरिक्त घर की दीवारों तथा छत पर बनी कलाकृतियाँ भी बहुत सुन्दर हैं.

संग्रहालय देख कर बाहर निकला तो भवन के प्रसिद्ध इतालवी बाग को देखने गया. इतालवी बाग बनाने की विषेश पद्धति हुआ करती थी जिसमें पेड़ पौधों को अपने प्राकृतिक रूप में नहीं बल्कि "मानव की इच्छा शक्ति के सामने सारी प्रकृति बदल सकती है" के सिद्धांत को दिखाने के लिए लगाया जाता था. इन इतालवी बागों में केवल वही पेड़ पौधे लगाये जाते थे जो हमेशा हरे रहें ताकि मौसम बदलने पर भी बाग अपना रूप न बदले. इन पौधों को इस तरह लगाया जाता था जिससे भिन्न भिन्न आकृतियाँ बन जायें, जो प्रकृति की नहीं बल्कि मानव इच्छा की सुन्दरता को दिखाये. इस तरह के बाग बनाने की शैली फ़िर इटली से फ्राँस पहुँची जहाँ इसे और भी विकसित किया गया.

विल्ला स्पादा के इतालवी बाग में पौधों की आकृतियों को ठीक से देखने के लिए एक "मन्दिर" बनाया गया था जिसकी छत पर खड़े हो कर पौधों को ऊपर से देख सकते हैं. बाग के बीचों बीच ग्रीस मिथकों पर आधारित कहानी से हरक्यूलिस की विशाल मूर्ति बनी है. पर बाग की सबसे सुन्दर चीज़ है मिट्टी की बनी नारी मूर्तियाँ.

एक कतार में खड़ीं इन मूर्तियों में हर नारी के भाव, वस्त्र, मुद्रा भिन्न है, कोई मचलती इठलाती नवयुवती है तो कोई काम में व्यस्त प्रौढ़ा, कोई धीर गम्भीर वृद्धा. मुझे यह मूर्तियाँ बहुत सुन्दर लगी. बहुत देर तक उन्हें एक एक करके निहारता रहा. लगा कि मानो उन मूर्तियों में मुझ पर जादू कर दिया हो. दो सदियों से अधिक समय से खुले बाग में धूप, बर्फ़, बारिश ने हर मूर्ति पर अपने निशान छोड़े हैं, कुछ पर छोटे छोटे पौधे उग आये हैं. इन निशानों की वजह से वे और भी जीवंत हो गयी हैं. उनके वस्त्र इस तरह बने हैं मानो सचमुच के हों.

इस दिन को इन मूर्तियों की वजह से कभी भुला नहीं पाऊँगा, और दोबारा उन्हें देखने अवश्य जाऊँगा. प्रस्तुत हैं विल्ला स्पादा के संग्रहालय तथा बाग की कुछ तस्वीरें.


पहली तस्वीरें हैं संग्रहालय की.

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy


इन तस्वीरों में है इतालवी बाग और हरक्यूलिस की मूर्ती.

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy


और अंत में यह नारी मूर्तियाँ जो मुझे बहुत अच्छी लगीं.

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy

Villa Spada, Bologna, Italy

हैं न सुन्दर यह नारी मूर्तियाँ?

***

शुक्रवार, सितंबर 16, 2011

धँधा है, सब धँधा है


अखबार में पढ़ा कि इंफोसिस कम्पनी ने अपने व्यापार को विभिन्न दिशाओं में विकसित करने का फैसला किया है, इसलिए कम्पनी अब प्राईवेट बैंक के अतिरिक्त चिकित्सा क्षेत्र में भी काम खोलेगी. चिकित्सा क्षेत्र को नया "सूर्योदय उद्योग" यानि Sunrise industry कहते हैं क्योंकि इसमें बहुत कमाई है, जो धीरे धीरे उगते सूरज की तरह बढ़ेगी.

सोचा कि दुनिया कितनी बदल गयी है. पहले बड़े उद्योगपति बहुत पैसा कमाने के बाद खैराती अस्पताल और डिस्पैंसरियाँ खोल देते थे ताकि थोड़ा पुण्य कमा सकें, अब के उद्योगपति सोचते हैं कि लोगों की बीमारी और दुख को क्यों न निचोड़ा जाये ताकि और पैसा बने.

पिछले वर्ष फरवरी में चीन में काम से गया था जब छोटी बहन ने खबर दी थी कि माँ बेहोश हो गयी है और वह उसे अस्पताल में ले जा रही है. माँ का यह समय भी आना ही था यह तो कई महीनो से मालूम हो चुका था. पिछले दस सालों में एल्सहाईमर की यादाश्त खोने की बीमारी धीरे धीरे उनके दिमाग के कोषों को खा रही थी, जिसकी वजह से कई महीनों से उनका उठना, बैठना, चलना,सब कुछ बहुत कठिन हो गया था. मन में बस एक ही बात थी कि माँ के अंतिम दिन शान्ती से निकलें. मैं खबर मिलने के दूसरे ही दिन दिल्ली पहुँच गया. अस्पताल पहुँचा तो माँ के कागजों में उन पर हुए टेस्ट देख कर दिमाग भन्ना गया. जाने कितने खून के टेस्ट, केट स्कैन आदि किये जा चुके थे, पर मुझे दुख हुआ जब देखा कि माँ की रीढ़ की हड्डी से जाँच के लिए पानी निकाला गया था.

करीब सत्ततर वर्ष की होने वाली थी माँ. इतने सालों से लाइलाज बिमारी का कुछ कुछ इलाज उसी अस्पताल के डाक्टर कर रहे थे. यही इन्सान की कोशिश होती है कि मालूम भी हो कि कुछ विषेश लाभ नहीं हो रहा तब भी लगता है कि बिना कुछ किये कैसे छोड़ दें. मरीज़ कुछ गोली खाता रहे, तो मन को लगेगा कि हम बिल्कुल लाचार नहीं हैं, कुछ कोशिश कर रहे हैं.

कोमा में पड़ी माँ के अंतिम दिन थे, यह सब जानते थे. किसी टेस्ट से उन्हें कुछ होने वाला नहीं था. उस हाल में खून के टेस्ट, ईसीजी, ईईजी, केट स्कैन आदि सब बेकार थे, पर उन्हें स्वीकारा जा सकता था, यह सोच कर कि इतना बड़ा प्राईवेट अस्पताल चलाना है तो वह लोग कुछ न कुछ कमाने की सोचेंगे ही. पर रीढ़ की हड्डी से पानी निकालना? यानि उनकी इस हालत में जब हाथ, पैर घुटने अकड़े और जुड़े हुए थे, उन्हें खींच तान कर, इस तरह से तकलीफ़ देना, यह तो अपराध हुआ.

मुझे बहुत गुस्सा आया. छोटी बहन को बोला कि तुमने उन्हें यह रीढ़ की हड्दी से पानी निकालने का टेस्ट करने क्यों दिया? वह बोली मैं उन्हें क्या कहती, वह डाक्टर हैं वही ठीक समझते हैं कि क्या करना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये! डाक्टर आये तो मन में आया कि पूछूँ कि रीढ़ की हड्दी से पानी वाले टेस्ट में क्या देखना चाहते थे, लेकिन कुछ कहा नहीं. मैंने उन्हें यही कहा कि मैं माँ को घर ले जाना चाहूँगा. तो बोले कि हाँ ले जाईये, यही बेहतर है, इनकी हालत ऐसी है कि यहाँ हम तो कुछ कर नहीं सकते.

मैं माँ को घर ला सका था क्योंकि मेरे मन में था कि मैं स्वयं माँ का अंतिम दिनो में उपचार करूँगा. कुछ समय तक मैंने आई.सी.यू. में काम किया था, मालूम था कि उनकी देखभाल जिस तरह मैं कर सकता हूँ, उस तरह अन्य लोग नहीं कर सकते. क्योंकि मेरे उपचार में अपना लाभ नहीं छुपा था, केवल माँ के अंतिम दिनों में उनको शान्ति मिले इसका विचार था. लेकिन जिनके अपनों में कोई डाक्टर न हो जो उनका ध्यान कर सके, क्या उसके अच्छा इलाज का अर्थ यही है कि पैसे कमाने वाले "सूर्योदय उद्योग" से उसे निचोड़ सकें?


Graphic on doctor and money

भारत के डाक्टर, नर्स, फिज़योथेरापिस्ट आदि अपने काम के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं. मेरे विचार में अगर कोई चिकित्सा क्षेत्र में काम करने की सोचता है तो उसे धँधा समझ कर यह सोचे, ऐसे लोग कम ही होंगे. इस क्षेत्र में काम करने वाले अधिकतर लोग अपने मन में स्वयं को भले आदमी के रूप में ही देखते सोचते हैं कि वह लोगों की भलाई का काम कर रहे हैं. लेकिन जब अपने काम से अपनी रोटी चलनी हो और मासिक पागार नहीं बल्कि कौन मरीज़ कितना देगा की भावना हो तो धीरे धीरे लालच मन में आ ही जाता है. बिना जरूरत के आपरेशन से बच्चा करना, बिना बात के ओपरेशन करना या दवाईयाँ खिलाना, नयी बिमारियाँ बनाना, बेवजह के टेस्ट और एक्सरे कराना, जैसी बातें इसी लालच का नतीजा हैं.

हर क्षेत्र की तरह इस क्षेत्र में भी अच्छे और बुरे दोनो तरह के लोग होते हैं. भारत में चिकित्सा क्षेत्र में काम करने वाले ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूँ जो आदर्शवादी हैं और इसे सेवा के रूप में देखते हैं. भारत के चिकित्सा से जुड़े कुछ उद्योगों ने भी दुनिया में अपनी धाक आदर्शों के बल पर ही बनायी है, जैसे कि जेनेरिक दवा बनाने वाले तथा सिपला जैसी दवा बनाने की कम्पनियाँ जिन्होंने एडस, मलेरिया, टीबी जैसी बीमारियों की सस्ती दवाईयाँ बना कर विकासशील देशों में रहने वाले गरीब लोगों को इलाज कराने का मौका दिया है.

पर बड़े शहरों में पैसे वालों के लिए सरकारी अस्पतालों की तुलना में पाँच सितारा अस्पतालों में या नर्सिंग होम में लोगों को सही इलाज मिल सकेगा, इसके बारे में मेरे मन में कुछ दुविधा उठती है. वहाँ सरकारी अस्पताल सी भीड़ और गन्दगी शायद न हो, लेकिन क्या चिकित्सा की दृष्टि से वह इलाज मिलेगा जिसकी आप को सच में आवश्यकता है?

अहमदाबाद की संस्था "सेवा" के एक शौध में निकला था कि भारत में गरीब परिवारों में ऋण लेने का सबसे पहला कारण बीमारी का इलाज है. प्राईवेट चिकित्सा संस्थाओं को बीमारी कैसी कम की जाये, इसमें दिलचस्पी नहीं, बल्कि पैसा कैसे बनाया जाये, इसकी चिन्ता उससे अधिक होती है. वहाँ काम करने वाले लोग कितने भी आदर्शवादी क्यों न हों, क्या वह निष्पक्ष रूप से अपने निर्णय ले पाते हैं और वह सलाह देते हैं जिसमें मरीज़ का भला पहला ध्येय हो, न कि पैसा कमाना?

इसीलिए जब सुनता हूँ कि भारत में अब अमरीका जैसे बड़े स्पेशालिटी अस्पताल खुले हैं जहाँ पाँच सितारा होटल के सब सुख है, जहाँ सब नयी तकनीकें उपलब्ध हैं, विदेशों से भी लोग इलाज करवाने आते हैं, तो मुझे लगता है कि अगर मुझे कुछ तकलीफ़ हो तो वहाँ नहीं जाना चाहूँगा, कोई सीधा साधा डाक्टर ही खोजूँगा.

***

इस वर्ष के लोकप्रिय आलेख