शुक्रवार, मई 20, 2011

मृत्यु के घर में जीवन

अगर आप से कोई पूछे कि आप मत्यु के बारे में क्या सोचते हैं और फ़िर आप से कहे कि आप की तस्वीर खींच कर उसे कब्रिस्तान में आप के मृत्यु के बारे में विचारों के साथ लगायेंगे तो क्या आप मान जायेंगे?

विरजिनिया ने मुझसे पूछा तो मैं तुरंत मान गया. लेकिन मेरे जान पहचान वाले कुछ लोग थोड़े से चकित हो गये. बोले कि क्या डर नहीं लगता कि अपशगुन हो जाये और तुम सचमुच कब्रिस्तान पहुँच जाओ? वहाँ तो तस्वीरें केवल मरने वालों की लगती हैं, तुम जीते जी वहाँ अपनी तस्वीर लगवाओगे, लोग क्या सोचेंगे?

विरजिनया कलाकार है, तस्वीरें खींचती है, पैंटिग बनाती है, कविता लिखती है.

मई के अंतिम सप्ताह में यूरोप कमिशन की तरफ़ से प्राचीन कब्रिस्तानों के बारे में जानकारी बढ़ाने का निर्णय किया गया है. इसी सिलसिले में पुराने कब्रिस्तानों के बारे में लोगों को जानकारी देने के लिए जब यूरोप कमिशन ने बोलोनिया के सबसे प्राचीन कब्रिस्तान चरतोज़ा को भी चुना, तो विरजिनिया को एक प्रदर्शनी बनाने का विचार आया कि विभिन्न देशों सभ्यताओं में लोग मृत्यु के बारे में क्या सोचते हैं इसके साक्षात्कार तैयार किये जायें. उनका यह विचार यूरोपियन कमिशन को पसंद आया. इसके लिए उन्होंने बारह देशों के लोगों से यह बात करने की सोची जिसमें भारत की ओर से मुझे अपने विचार कहने के लिए कहा गया. इसके अतिरिक्त, घुप अँधेरे में एक टार्च की रोशमी में सब लोगों की विशिष्ठ अंदाज़ में तस्वीरें खींची गयीं जिनसे लगे कि हम अँधेरे कूँएँ से बाहर निकल रहे हैं. इसके अतिरिक्त हर व्यक्ति से कहा गया कि अपने देश की भाषा में वहीं बाते कहे और उन्हें रिकार्ड किया गया.

इन सब तस्वीरों, शब्दों, आवाज़ों, विचारों को मिला कर चरतोज़ा के कब्रिस्तान में एक प्रदर्शनी लगायी जायेगी, जिसका उदघाटन 1 जून को होगा. प्रदर्शनी का नाम है "आत्मा की यात्रा" और प्रदर्शनी के पोस्टर से विरजिनया की ली हुई कागज़ की नाव की तस्वीर प्रस्तुत है.

Mostra Trasmigrazione di Virginia Farina, Bologna Certosa, giugno 2011

मैं नहीं मानता कि कब्रिस्तान में तस्वीर लगवाने से या मृत्यु की बात करने से, हम सब 12 लोगों के पीछे कोई भूत प्रेत पड़ जायेगा, या अपशगुनी होगी. बल्कि मैंने सोचा कि कितने लोगों की किस्मत होती है कि कब्रिस्तान में जीते जी अपनी तस्वीर देखें? जब यह मौका मिल रहा है तो उसे छोड़ना नहीं चाहिये. मरना तो सबने है ही एक दिन, इसके डर से हम लोग जीना तो नहीं छोड़ सकते!

चरतोज़ा का कब्रिस्तान मुझे बहुत प्रिय है, सुंदर प्राचीन मूर्तियों से भरा. यहाँ अधिकतर लोग कब्र में दफ़न होना पसंद करते हैं. कोई जो अपने प्रियजन के शरीर को बिजली के क्रेमाटोरियम में जलवा भी ले, उनकी भी राख को मटकी में भर कर, उसकी छोटी सी कब्र बना सकते हैं. लेकिन वहाँ पर एक बहुत सुन्दर खुली जगह भी है, जहाँ जो लोग चाहते हैं उनके परिवार वाले उनकी राख को खुले खेत में मिट्टी में मिला सकते हैं. बहुत सुन्दर जगह है, सामने चीड़ के पेड़ों से भरी पहाड़ी और एक नहर जहाँ छोटे बच्चे अक्सर बतखों को रोटी के टुकड़े खिलाते हैं.

प्रदर्शनी के चित्र तो जब लगेगी, तभी दिखा सकता हूँ. अभी प्रस्तुत हैं चरतोज़ा के कब्रिस्तान की मूर्तियों की कुछ तस्वीरें.

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak

Certosa cemetry Bologna - images by Sunil Deepak


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गुरुवार, मई 19, 2011

बँटने का दर्द

लम्बी रेल यात्रा का प्रोग्राम हो तो कई दिन पहले सोचने लगता हूँ कि कौन सी किताब रास्ते के लिए साथ ली जाये. यहाँ रेल यात्रा में साथ बैठे लोगों से बातचीत करना लगभग नामुमकिन सा है, सामने कोई बैठा हो तो उससे अधिक नज़र मिलाना भी बद्तमीज़ी समझी जाती है. दुकान से सैंडविच खरीद के खाते लोग, साथ बैठने वाले से नहीं पूछते कि "आप भी कुछ लीजिये न भाईसाहब!"

ऐसे में अच्छी किताब पढ़ने के लिए होना बहुत ज़रूरी है.

हमारे यहाँ से जेनेवा जाने का अर्थ है मिलान में गाड़ी बदलना और करीब सात घँटे की रेल यात्रा. इस बार साथ ले जाने के लिए, मैंने नासिरा शर्मा की "ज़िन्दा मुहावरे" चुनी. इसे दो साल पहले दिल्ली में लगे पुस्तक मेले में खरीदा था, पर अब तक पढ़ने का मौका नहीं मिला था. एक बार पढ़ना शुरु किया तो उसमें इतना खोया कि रास्ते का पता ही नहीं चला.

Zinda Muhaware by Nasira Sharma
किताब का शीर्षक "ज़िन्दा मुहावरे" उन शब्दों की ओर संकेत करता है जिनकी मूल भाषा मर जाती है लेकिन वे शब्द किसी अन्य भाषा का हिस्सा बन कर ज़िन्दा रहते हैं. उपन्यास का विषय है पाकिस्तान के बनने से, उत्तर प्रदेश के पुराने ज़मीन्दार रहमतुल्लाह के परिवार का बँटवारा. आज़ादी रहमतुल्लाह से उनकी कुछ ज़मीन छीन लेती है, और उनका छोटा बेटा निजाम परिवार छोड़ कर पाकिस्तान जाने का फैसला करता है. गाँव में रह जाते हैं रहमतुल्लाह और उनका बड़ा बेटा, इमाम. अपना देश छोड़ कर नया देश चुनने वालों की सजा भारत में रह जाने वाले उनके परिवारों को भी देनी पड़ती है. नये देश में शरर्णार्थी बन कर आये लोगों को नये वातावरण में जीवन तो बनाना ही है, पुरानी यादों को भी भूलना है जिसमें उनके परिवार के हिस्से हैं जो भारत में ही रह गये.
"दोनो तरफ़ एक इल्ज़ाम कटी पतंग बन फड़फड़ाता है कि तुम यहाँ के नहीं हो, परदेसी हो, गैर हो. इसलिए दोनो तरफ़ के बाशिन्दों के दर्द की ज़मीन एक है. खून का रंग वही इन्सानी है, बस ज़रा सा फर्क यह है कि इधर वाले जाने वालों के गुनाह की सलीब पर टांग दिये गये हैं और उधर वाले यादों के तहखाने से गुज़र रहे हैं."
इमाम, रहमातुल्लाह का बड़ा बेटा कहता है, "इस बटवारे के बोझ से हमारी पीढ़ी आजाद नहीं हो सकती. भले ही तुम जैसे लोगों के लिए भूल जाने वाली बात हो, मगर हम जैसों के लिए ऐसी लानत है, जो चाह कर भी हम भुला नहीं सकते. जैसे मैं.. मैं सिर्फ़ मुल्क और समाज से नहीं, बल्कि अपने आप से भी जवाब तलब करता हूँ कि यह सब क्यों और कैसे हुआ? हमने ऐसा क्यों होने दिया? इसी सवाल ने हमारे आगे के रास्ते में कांटे बो दिये हैं."

बटवारे के समय घर, परिवार, देश छोड़ कर जाने वाले शायद ठीक से समझ नहीं पाये थे कि समय, जंग, राजनीति, दुश्मनी की वह खाईयाँ बना देगी, जिसमें उनका वापस लौट कर जाना संभव नहीं होगा. नये देश में अपनी जगह बनाने में लगे निजाम को शर्म आती है परिवार को बताने में कि जिसे आरामदायक इज्जतदार जीवन समझ कर वह आया था, वहाँ रहना उतना आसान नहीं, कुछ बनने के लिए उसे अपनी जान लड़ानी होगी.

उसके पीछे, उसके बूढ़े होते पिता के मन में टीस है, यह न जान पाने की कि उनका छोटा बेटा कहाँ है, किस हाल में है, ज़िन्दा है या नहीं, "कल इस घर में सारे पुरखों की रूह आयेगी. एक एक कर के सारे मुर्दों के नाम पर नज़र होगी. इस सारे इंतज़ाम के बीच ज़िन्दा और मुर्दा अपना संवाद स्थापित करेंगे, मगर उनका वहाँ कहीं ज़िक्र नहीं आयेगा, जो अपनो के बीच से चले गये. जो अब न ज़िन्दा थे न मुर्दा, न गायब थे न अगुआ हुए थे, फ़िर उनकी कब्र कहाँ ढूंढ़ कर उस पर दिया बाती जलायें."

उपन्यास में नासिरा शर्मा नये बने पाकिस्तान में निजाम और भारत में अपने पुराने गाँव में रहने वाले इमाम की जीवन कहानियों को समानान्तर बुनती हैं. यह उनकी व्यक्तिगत कहानियाँ हैं, जिनमें दोनो देशों के बीच होने वाली घटनाएँ, दोनो भाईयों के बीच की दूरी को बढ़ाती जाती है. भारत से गये निजाम जैसे लोग, पाकिस्तान में फ़लने फूलने का मौका पाते हैं और जब किसी को भारत में अपने पुराने गाँव आने का मौका मिलता है तो वे अपनी खुशहाली दिखाते हैं यह जताने के लिए कि हमने पाकिस्तान जा कर अच्छा किया, "लड़कियां इस तरह से सजी धजी सोने से मढ़ी हुई थीं कि सबको धोखा हुआ था कि वह चारों शादीशुदा हैं. बात बात पर वह लाहौर कराची का ज़िक्र कुछ इस चटखारे से करतीं कि गांव की सीधी साधी गरीब औरतें उन्हें अजीब हसरत की नज़र से देखने लगी थीं. उनके लिबास और ज़ेवरों पर उनकी नज़रें ठहरी थीं. उनके दिल व दिमाग में यह बात बिठाने की कोशिश पाचों कर रही थीं कि जो मुसलमान यहां रह गये हैं उनकी किस्मत में सिर्फ ख़ाक फांकना रह गया है."

पर समय के साथ, एक धर्मी हो कर भी, पाकिस्तान के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले लोगों के बीच झगड़े और दंगे शुरु हो जाते हैं. भारत से आये महाज़िरों को नीचा देखा जाता हैं. निजाम का एक दोस्त जो पाकिस्तान छोड़ कर कनाडा जा रहा है, कहता है, "हम बटवारे में बिहार से चटगांव जा कर बसे और वहां से भाग कर कराची आना पड़ा. यहां पर भी बिहारी होने की वजह से मार खायी ..." इधर भारत में इमाम का बेटा गयासुद्दीन पढ़ लिख कर कमिश्नर बन जाता है.

देश छोड़ने के चालिस साल बाद हिन्दुस्तान आने वाला निजाम को समझ में आता कि देश छोड़ कर उसने सच में क्या खोया, लेकिन अब उसके लिए उस रास्ते से वापस लौट आना संभव नहीं. उसके परिवार के लिए उनका वतन पाकिस्तान है, और हिन्दुस्तान की खुली हवा में उन्हें डर सा लगता है.

निजाम अपने बेटे अख्तर के लिए हिन्दुस्तानी बहु चाहता है, पर जब वह रिश्ते की बात उठाता है तो कुछ लोग स्पष्ट कह देते हैं कि वह पाकिस्तान में बेटी नहीं ब्याहेंगे. अख्तर खुद भी समझता है कि हिन्दुस्तान में बड़ी हुई लड़की पाकिस्तान में नहीं रह पायेगी, "खाने के वक्त तक नूरी भी अपने घर वालों के संग आ गई. उसे देख कर अख्तर परेशान हो गया. जीन्स पर मर्दानी शर्ट पहने वह लड़की स्मार्ट और जहीन लगी. बहस में इस तरह के तर्क दे रही थी कि अख्तर सोचने लगा कि यह न लाहौर में खप पायेगी न कराची में...वह हमारे मुल्क में घुट कर रह जायेगी... उस घुटन को जो हमें बुरी लगती है, उसका मैं आदी हो चुका हूँ. मछली को पानी से निकाल दो क्या वह जी पायेगी? उसी तरह मेंढ़क को समन्दर के गहरे पानी में डाल दो तो क्या वह जी पायेगा?"

हिन्दुस्तान में रहने वाले मुसलमानों की समस्याओं के बारे में लेखिका अंत में आशावान हैं. गयासुद्दीन का बेटा मजहर अपना नाम बदलना चाहता है, तो गयास उसे सलाह देता है कि अपना नाम "रोटा कपड़ा और मकान" रख लो. बेटा रोने लगता है तो गयास कहता है, "रोने दो यार! ...दिल हल्का हो जायेगा और आदत भी पड़ जायेगी. इस मुल्क में रहना है तो "शाक प्रूफ़" बन कर रहना पड़ेगा, छुई मुई का पौधा नहीं. यहाँ तरह तरह के लोग हैं. माली मुश्किलात है. मुकाबला है. गन्दी, पस्त सियासत है. निज़ि फायदे हैं. अकाल है, बाढ़ है. ऐसी भीड़ में सबने नार्मल रहने का ठेका तो नहीं ले रखा है?"

हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बटवारें में लाखों जाने गयीं, घर परिवार बँटे. इतिहास की किताबें उस समय के खून खराबे के बारे में कुछ लिख भी दें, उनमें वह जीवन नहीं होगा, जो लोगों की आपबीति में होता है. कला, सिनेमा और साहित्य ही उसमें उलझे मानवों की कहानियाँ सुना कर यह समझ दे सकते हैं कि सचमुच क्या हुआ, कैसे हुआ, क्यों हुआ.

उस समय के बारे में कम ही लिखा गया है, कुछ लिखा गया है तो वह भी अधिकतर पाकिस्तान से भारत आने वाले लोगों की दृष्टि से. भारत में रह जाने वाले मुसलमान परिवारों की कहानियाँ और पाकिस्तान जाने का निर्णय लेने वाले लोगों की कहानियाँ न के बराबर ही हैं. साथ्यू की "गर्म हवा" जो कई दशक पहले आयी थी, देखने के बाद इस विषय पर कुछ अधिक नहीं पढ़ा था. इस दृष्टि से नासिरा शर्मा की यह किताब बहुत सुन्दर लगी. किताब पढ़ते पढ़ते कई बार आँखें नम हो गयीं. अगर आप को मौका मिले तो इस किताब को अवश्य पढ़ियेगा (ज़िन्दा मुहावरे, नासिरा शर्मा, अरुणोदय प्रकाशन दिल्ली, 1996)

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शनिवार, मई 14, 2011

देसी गपशप

एक तरफ़ से तो सोचता हूँ कि दोस्ती तो मन मिलने की बात है, उसमें देसी विदेसी कुछ नहीं होता. लेकिन कुछ महीने बिना अपने देसी मित्रों से मिले निकल जायें तो लगता है कि जीवन कुछ फ़ीका सा रह गया. उनमें से अधिकतर सचमुच के मित्र नहीं, क्योंकि उनसे मन का कोई तार कुछ विषेश नहीं जुड़ता. यह भी नहीं कह सकते कि एक भाषा से जुड़ते हैं क्यों कि उनमें से कई लोग हिन्दी तो जानते ही नहीं थे, यहाँ अंग्रेज़ी भी भूल गये हैं और उनसे सब बात इतालवी भाषा में ही होती है. लेकिन फ़िर भी कुछ होता है जो हम देसी लोगों को जोड़ता है, जिसको समझना समझाना आसान नहीं.

"तो क्या चल रहा है? क्या नयी ताज़ी खबर?", अचानक लायब्रेरी से निकलते हुए वे दोनो मिले तो मन प्रसन्न हो गया.

"यार मन तो था कि इस बार कान्न के फ़िल्म फेस्टिवेल में जा कर अमिताभ की बहू को देख ही आते, पर छुट्टी की बात बनी नहीं. " श्रीमान हैं तो रायबरेली के लेकिन चूँकि पत्नी इलाहाबाद से हैं, इसलिए यूँ बनते हैं कि मानो बच्चन जी इनके साले हों.

"उसकी फोटो देखीं? बहुत सुन्दर लग रही थी. पर यह लड़कियाँ साड़ी या कोई इन्डियन ड्रेस क्यों नहीं पहनती? यह अरमानी या प्रादा के गाउन पहन लेती हैं, बिल्कुल बकवास!"

"अरे एश्वर्या को छोड़ो, यहाँ जो इन्डिया से एक अरबपति वेनिस में अपनी बेटी की शादी करने आये हैं, उनका सुना?" मित्र की पत्नी बोली.

कुछ साल पहले, भारतीय मूल के इग्लैंड में रहने वाले स्टील के व्यवसायी मित्तल ने अपनी बेटी की शादी पर फ्राँस में वरसाई का राजभवन किराये पर लिया था और उस शादी में जाने कितने करोड़ रुपये खर्च किये थे. वैसी ही बात है कुछ. उनका नाम है प्रमोद अग्रवाल, लोहे का बिज़नेस हैं उनका और उनकी बेटी की शादी हो रही है. सुना है कि वह वेनिस में 800 मेहमान, 30 रसोईये, और जाने क्या क्या ले कर आये हैं, पूरे के पूरे द्वीप किराये पर लिये हैं, सबके लिए कार्निवाल की मध्ययुगीन पौशाकें बनायी गयीं हैं, वगैरह वगैरह. कई सौ करोड़ के खर्चे की बात हो रही है. शादी हो भी करण जौहर स्टाईल में, यानि संगीत, मँहदी वगैरह.

Graphic design by S. Deepak

"हमारे घर में आ कर शादी कर रहे हैं, कम से कम हमें न्यौता तो देते", मित्र का कहना था.

"ताकि तुम भी शाम को वहाँ जा कर शकीरा के ठुमके देखते?" पत्नी ने पतिदेव को हलका सा ताना दिया. क्या जाने बालीवुड के सितारे बुलाये हैं या नहीं, बेटी की मँहदी में नचवाने के लिए, पर हालीवुड से शकीरा को बुलाया है.

जब हिन्दी फ़िल्में भारत में आयीं थीं, शुरु शुरु में, तब किसी अच्छे घर की लड़की फ़िल्मों में काम नहीं करना चाहती थी, तो नाचने गाने वाली औरतों को फ़िल्मों में हीरोइन बनाते थे. आज बड़े बड़े घरों की लड़कियाँ लड़के फ़िल्मों में काम करके प्रसिद्धी पाते हैं, और जब नाम और पैसा हो जाये तो शादी ब्याह में नाचने का काम भी कर लेते हैं. यानि दुनिया गोल है, हर बार बात घूम कर वहीं लौट आती है.

तभी हमें देख कर, दो लोग और आ गये. विद्यार्थी हैं, पीएचडी कर रहे हैं.

"अरे अंकल, आजकल इण्डिया तो बहुत तरक्की कर रहा है. न्यू योर्क में जो सट्टेबाजी का बड़ा घोटाला हुआ है, उसमें आधे लोग हिन्दुस्तानी ही हैं. उनका नेता राजरत्नम जो श्री लंका से हैं, और उनके साथी रजत गुप्ता, अनिल कुमार, राजीव गोयल, रूमी खान आदि. हिन्दुस्तानी, पाकिस्तानी, श्रीलंकन और बँगलादेशी, सब लोग भाई भाई की तरह थे, एक दूसरे को खबरे देते थे और करोड़ों डालर बनाते थे. रात को सीएनएन पर बता रहे थे", एक ने समाचार सुनाया.

सोचा कि बस माफिया और गुण्डागर्दी में ही कुछ पीछे रह गये हैं हम लोग. कुछ मुम्बई के भाई लोग बाहर विदेश में बिजनेस बनाये तो उसमें भी कुछ नाम हो अपना, फ़िर तो हर तरफ़ इन्डिया ही इन्डिया होगा, छा जायेंगे अपने लोग.

"अच्छा, जो हमारा इन्डियन लड़का पिछले दिनों यहाँ बाग में मर गया था", मैंने ही बात बदली, "उसकी याद में मीटिंग हुई तो कोई भी नहीं आया, क्या बात थी?"

करीब दो सप्ताह पहले, शहर के बीचों बीच, 21 साल का पँजाबी युवक, रनबीर सिंह, बाग की बैंच पर मरा पाया गया था. इल्लीगल प्रवासी था, यूरोप गैरकानूनी रहने वाला, जाने किस रास्ते से, भटक भटक कर इटली पहुँचा था. काम छूट गया था, तो सरकार ने रहने की अनुमति हटा ली. शराब बहुत पीने लगा था, मेरी एक इतालवी मित्र जो सोशल वर्कर हैं, ने मुझे बताया था. जब सर्दी बहुत थी तो रात को चर्च द्वारा चलाये जाने वाले रैन बसेरे में सोने आ जाता था.

"इतालवी भाषा ठीक नहीं बोलता. तुम उससे कुछ बात करके देखो. बहुत अकेला लगता है बेचारा", मेरी सोशल वर्कर मित्र ने मुझसे आग्रह किया था.

अच्छा मैं मिलने आऊँगा, बात करूँगा उससे, उसे समझाऊँगा, मैंने वादा किया था, पर फ़िर भूल गया था.

इतने बड़े शहर की भीड़ में अकेला रनबीर, जहाँ लोग दया से भीख तो दे देते हैं, पर प्यार से बात करने का समय किसके पास है. पार्क में जहाँ मरा था, वहीं बैंच के पास व्हिस्की की दो बोतलें मिलीं थीं, एक खाली, दूसरी अधखाली. सड़क पर रहने वाले बेघर लोगों की सहायता करने वाली एसोसियेशन ने उसकी याद में सभा आयोजित की थी, थोड़े से बेघर लोग ही आये थे. बैंच पर फ़ूल रखते हुए अपने झूठे शोक पर मन में थोड़ी शर्म महसूस हुई थी.

कुछ उत्तर नहीं दिया किसी ने. मित्र बोले कि बेटी को लेने जाना था.

"चलो, प्रोग्राम बनायेंगे, वीकएँड पर कुछ पिकनिक करते हैं, अब तो मौसम बढ़िया है, बारबेकू बनायेंगे!"

"ज़रूर! अच्छा चलो, फ़िर मिलते हैं!"

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बुधवार, मई 04, 2011

गुलाब, अँगूर और रामबाण दवा

"एक बहुत सुन्दर बाग है यहाँ, देखने चलेंगे?", मित्र ने मुझसे पूछा तो समझ में नहीं आया कि कैसे उत्तर दिया जाये, जिससे कहीं जाना भी न पड़े और उसे बुरा भी नहीं लगे. सुबह सुबह निकले थे प्रोजेक्ट देखने, दिन भर भरी धूप में घूमे थे, अब वजाय कमरे में जा कर सुस्ताने के, उसका सुझाव था कि किसी बाग को देखने जाया जाये.

"क्या है बाग में?", जब और कुछ समझ में नहीं आया तो मैंने बेवकूफ़ी वाला प्रश्न पूछा.

लेकिन मेरा प्रश्न मेरे मित्र को बेवकूफ़ी वाला नहीं लगा, उत्साहित हो कर बोला, "बहुत सुन्दर गुलाब के फ़ूल हैं. कुछ जानवर भी हैं, ऊँठ और घोड़े आदि. बहुत बढ़िया जगह है, तुम्हें अवश्य अच्छी लगेगी."

इतने उत्साह से मुझे वह बाग दिखाना चाहता था कि आखिरकार हाँ कहनी ही पड़ी. मैं बैलरी जिले में हेगड़ी बोम्मन्नाहल्ली तालुक में कुष्ठ रोग और विकलाँग पुनर्स्थान सम्बन्धी प्रोजेक्ट के सिलसिले में आया था. वह बाग वहाँ से करीब तीस मिनट की कार यात्रा पर, होसपेट जाने वाले रास्ते पर था.

जब गाड़ी एक फैक्टरी जैसे गेट से घुसी और बड़े से इन्डस्ट्रियल शैड के सामने रुकी तो थोड़ा अचरज हुआ कि यह कैसा बाग है.

दरअसल वह गुलाब के फ़ूलों का निर्यात करने वाली फैक्टरी थी. अन्दर बीसयों लोग काम में लगे थे. कोई ट्राली में रँग बिरँगे गुलाबों को इधर से उधर ले रहा था, कहीं गुलाब की टहनियाँ काट कर उन्हें गुलदस्तों में सजा कर पैक किया जा रहा था. अन्दर दो वातानुकूलित कक्ष भी बने थे जिनमें ठँडक में हज़ारों गुलाब की कलियाँ कतारों में सजी थीं. पँद्रह बीस भिन्न रँगों के गुलाब थे वहाँ.

VSL agrotech project, Bellary district

VSL agrotech project, Bellary district

यह वीएसएल कृषि-तकनीकी प्रजेक्ट का हिस्सा था जिसके मालिक है राज्य सभा के सदस्य अनिल लाड, जिनकी लोहे की खानें और अन्य कई व्यवसाय भी हैं.

शैड से बाहर निकले तो पीछे बड़े बड़े ग्रीनहाउस थे, जिनमें नियंत्रित वातावरण में गुलाब उगाये जाते हैं. हर एक ग्रीन हाउस में करीब 35 हज़ार गुलाब के पौधे हैं और सारा काम आधुनिक तकनीकों के सहारे से किया जाता है. यानि, कहने का बाग था, पर असल में विषेश प्रकार की फैक्टरी है.

VSL agrotech project, Bellary district

VSL agrotech project, Bellary district

ग्रीन हाउस वाले हिस्से से बाहर निकले तो गाय और बैलों के हिस्से में पहुँचे. फैक्टरी के इस हिस्से में अलग अलग शैड के नीचे दसियों तरह की सुन्दर गाय और बैल बँधे थे. मुझे कर्णाटकी गायों और बैलों के सीधे नुकीले सींग बहुत अच्छे लगे. हाँलाकि मुझे विभिन्न गायों और बैलों की नस्लों का पता नहीं, पर फ़िर भी अलग अलग नस्लें देखना अच्छा लगा.

VSL agrotech project, Bellary district

VSL agrotech project, Bellary district

VSL agrotech project, Bellary district

गायों के शैड के पीछे ऊँठों और घोड़ों के शैड बने थे, और सबके पीछे एक कृत्रम झील में पानी चमक रहा था, यह झील भी फैक्टरी वालों ने बनवायी है जिससे पूरी फैक्टरी को पानी मिलता है.

VSL agrotech project, Bellary district

सब जगह घूम कर अंत में हम लोग "जननी गौशाला" पहुँचे, जो एक अलग तरह की फैक्टरी है. यहाँ एक रयासन विषेशज्ञ काम कर रहे थे. उन्होंने बताया कि इस गौशाला में गौ मूत्र से एक रामबाण दवा बनायी जाती है. एक सिलिन्डर में गौ मूत्र रखा जाता है, जिसे भाप बना कर उसके स्वच्छ पानी को अलग जगह बोतलों में भरा जाता है. गौ मूत्र से बने इस पानी की रसायनिक जाँच भी की गयी है और इसमें कई तरह के रसायन पाये जाते हैं. उन सज्जन के अनुसार इस पानी में शरीर की बहुत सी बीमारियाँ, जैसे कि ब्लड प्रैशर, डायबेटीज, अस्थमा, एक्ज़ीमा आदि ठीक करने की शक्ति है, और यह एक आयुर्वेदिक दवा मानी जाती है.


VSL agrotech project, Bellary district

उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं उस पानी का स्वाद चखना चाहूँगा, तो मैंने सिर हिला दिया कि नहीं. मूत्र से बनी कोई चीज़ पीने का विचार अच्छा नहीं लगा. हालाँकि मन ही मन सोच रहा था कि यह तो स्वच्छ किया हुआ पानी है, इसमें मूत्र का स्वाद नहीं होना चाहिये. अब इस बात को सोचूँ तो थोड़ा दुख होता है कि क्यों नहीं चखा, क्या जाने फ़िर कभी इसका मौका मिले भी कि न मिले. उस तरह का स्वच्छ किया हुआ मूत्र खोज पाना आसान नहीं होगा.

आखिर में जब हम उस "बाग" से निकले तो हमारे मित्र ने कहा कि रास्ते में रुक कर अँगूर खरीदे जायें. कर्णाटक का यह हिस्सा बहुत उपजाऊ है, और आज कल यहाँ जगह जगह अँगूर, अनार जैसे फ़लों की खेती की जा रही है. जब अंगूर के खेतों के बीच पहुँचे तो हरे भरे दूर दूर तक फ़ैले खेत और अंगूर से लदी लताएँ देख कर सुखद आश्चर्य हुआ. तब तक शाम घिर आयी थी और वहाँ काम करने वाले लोग, टेम्पू या आटो में हर तरफ़ से चढ़ कर अपने गाँवों की ओर वापस जा रहे थे.

VSL agrotech project, Bellary district

VSL agrotech project, Bellary district

घूमने के बाद अँगर खाते हुए वापस हेगड़ी बोम्मन्नाहल्ली की ओर जा रहे थे तो सोच रहा था कि मित्र ने ठीक ही कहा था, यह आम बाग में घूमने वाली बात नहीं बल्कि विषेश मौका था जिसका फ़ायदा उठा कर नयी जगह देखने का मौका मिल गया था. इस घूमने फ़िरने में सारे दिन के काम की थकान और तनाव भी गुम हो गये थे.

VSL agrotech project, Bellary district

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सोमवार, मई 02, 2011

हिन्दी फ़िल्मों के बाउल गीत

अग्रेज़ी पत्रिका कारवाँ पिछले कुछ समय से अक्सर अनछुए से विषयों पर सुन्दर और लम्बे आलेख निकाल रही है, उस तरह का लेखन मेरे विचार में आजकल की अन्य किसी हिन्दी या अंग्रेज़ी की पत्रिका में नहीं दिखते. कारवाँ के नये अंक में मैंने त्रिषा गुप्ता का एक दिलचस्प आलेख पढ़ा जिसमें बात है मुम्बई के फ़िल्म जगत के बहुत से नये फ़िल्म निर्माताओं की, जो सोचते और बात तो अंग्रेज़ी में करते हैं और फ़िल्में बनाते हैं हिन्दी में.

आलेख में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे इस बेमेल व्यवस्था का प्रभाव स्पष्ट दिखता है, चूँकि अंग्रेज़ी में सोचने समझने और लिखने वाले निर्देशक अपनी फ़िल्मों के सम्वाद भी अंग्रेज़ी में ही लिखते हैं जिनका बाद में हिन्दी में अनुवाद किया जाता है. पर यह अंग्रेज़ी के वाक्यों का शाब्दिक अनुवाद होता है, जिसमें मूल हिन्दी में सोचबने बोलने वाली सहजता नहीं.

आलेख में यह बात भी उठायी गयी है कि शहरों से आने वाले इन फ़िल्म निर्माता निर्देशकों की अधिकतर गाँवों और छोटे शहरों से कोई जान पहचान नहीं, इनकी फ़िल्मों के विषय बड़े शहरों में ही केन्द्रित हैं, मध्य वर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय लोगों की सोचने समझने की दुनिया. हालाँकि अनुराग कश्यप, मनीष शर्मा जैसे निर्देशक भी हैं जिनकी मुफस्सिल भारत से जान पहचान है, पर आलेख में यही चिन्ता झलकती है कि जिस तरह से मुम्बई के फ़िल्म जगत में यह बदलाव आ रहा है, उस तरह से छोटे शहरों और गाँवों की कहानियाँ हिन्दी सिनेमा से लुप्त हो जायेंगी.

मेरे विचार में यह सच है कि बड़े शहरों में कमर्शियल मालस् और मल्टीप्लेक्स की संस्कृति का असर पड़ा है कि किस तरह की फ़िल्में बनायी जायें और ऐसे सिनेमा हालों में दिखायी जायें, लेकिन मुझे भविष्य में दूसरा बदलाव दिखता है, जिसमें आने वाले भारत के छोटे शहरों और गाँवों में बड़े होने वाले नवजवान हैं जिनमें आज अपने रहने सहने, तौर तरीकों पर बहुत गर्व है और आत्मस्वाभिमान भी. इसी बदलते भारत की व्यवसायिक ताकत हिन्दी फ़िल्म जगत में होने वाली भाषा और परिवेश को बदलेगी. पिछले कुछ वर्षों की सफ़ल फ़िल्मों के बारे में सोचें तो विदेशी परिवेश में सतही भारतीयकरण से बनी किसी भी सफ़ल फ़िल्म का नाम याद नहीं आता, जबकि छोटे शहरों और मुफ़स्सिल संस्कृति में घुली मिली सफ़ल फ़िल्मों के नाम तुरंत याद आ जाते हैं, "फ़स गये से ओबामा" से ले कर "तेरे बिन लादन" तक.

कारवाँ पत्रिका में एक अन्य आलेख है पश्चिम बँगाल के एक बाउल गायक मँडली की अमरीका यात्रा के बारे में, जिससे मुझे याद आये हिन्दी फ़िल्मों में गाये बाउल गीत.

Baul dolls from Sally Grossman's Baul Music archive

एक ज़माना था था जब डमरु या इकतारा ले कर गाने वाले साधु, हिन्दी फ़िल्मों में अक्सर दिखते थे. शायद इस तरह के गीतों के पीछे बिमल राय, ऋषीकेष मुखर्जी जैसे बँगला फ़िल्म निर्देशकों का हाथ था जिन पर बाउल और रवीन्द्र संगीत का असर था. इस तरह के गीतों के बारे में सोचूँ तो दो गीत तुरंत याद आते हैं -

1) 1955 की बिमल राय की फ़िल्म देवदास में गीता दत्त और मन्नाडे का गाया "आन मिलो, आन मिलो, आन साँवरे".

2) 1957 की गुरुदत्त की फ़िल्म प्यासा में गीता दत्त का गाया "आज सजन मोहे अंग लगालो, जन्म सफ़ल हो जाये".

इनके अतिरिक्त, हिन्दी फ़िल्मों के बाउल संगीत से प्रभावित अन्य कौन से गीत हैं, क्या आप को याद है?

आज शायद प्रभु से आत्मा मिलन के गीत के द्वारा अपने प्रेमी या प्रेमिका की विरह को व्यक्त करने का समय नहीं रहा. दूर दूर से देख कर प्यार करने के दिन गज़र गये. शायद इसलिए आज की हिन्दी फ़िल्मों में गली गली गाँव गाँव घूमने वाले बाउल भिक्षुक के गाने की जगह नहीं, लेकिन जिन मानव भावनाओं को यह गीत व्यक्त करते हैं, वह तो कभी पुराने नहीं पड़ेंगे.

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सोमवार, अप्रैल 25, 2011

मन की खोज

कल सत्य साईं बाबा का देहांत हो गया.

"साईं" शब्द से मेरी एक बहुत साल पुरानी याद जुड़ी है. तब मैं इटली में नया नया आया था और इतालवी भाषा को अच्छी तरह से नहीं जानता था. तब कई बार लोगों से बात करते हुए वाक्य के अंत में "साई" शब्द सुन कर बहुत हैरानी होती और मन में यह बात उठी कि शायद इतालवी भाषा और सिंधी भाषा में कुछ समानताएँ हैं. फ़िर इतालवी भाषा का ज्ञान बढ़ा तो समझ आया कि इतालवी "साई", लेटिन भाषा की "सपेरे" संज्ञा से बना है जिसका अर्थ है "जानना". कई इतालवी लोग बोलते समय "साईं" शब्द का प्रयोग "तुम जानते हो?" के तकिया कलाम की तरह करते हैं जैसे कि अंग्रेज़ी बोलने वाले कुछ लोग बात बात पर "यू नो?" (You know) कहते हैं. आज जब साईं बाबा की मृत्यु का समाचार सुना तो यही बात याद आयी. सोचा कि शायद भारत में प्रयोग किया जाने वाले "साईं" शब्द का मूल भी वही है, जो इतालवी भाषा में है, यानि "जानने वाला" या "ज्ञानी", चूँकि संस्कृत और लेटिन दोनो को इन्दोयूरोपीय मूल के भाषाएँ माना जाता है.

एक समय था जब सत्य साईं बाबा के इटली में भी बहुत भक्त थे. 1980 के दशक के इतालवी राजनीतज्ञ बेत्तीनो क्राक्सी (Bettino Craxi) के भाई अंतोनियो, साईं बाबा के बड़े भक्त थे और बँगलौर के पास किसी आश्रम में रहते थे. एक बार बेत्तीनो क्राक्सी भी अपने भाई से मिलने साईं बाबा के आश्रम गये थे, तब साईं बाबा ने उन्हें कहा था कि वह एक दिन इटली के प्रधानमंत्री बनेंगे. कुछ वर्षों के बाद ऐसा हुआ भी और क्राक्सी इटली के प्रधान मंत्री बने जिससे साईं बाबा की प्रसिद्धि पूरी इटली में फ़ैल गयी. 1990 के दशक में जब भी मुझे बँगलौर जाने का मौका मिलता तो हर बार मेरे इतलावी मित्र मुझसे पूछते कि क्या मैं साईं बाबा के दर्शन करने भी जाऊँगा? बाद में श्री क्राक्सी पर पैसे के घपले का आरोप लगा तो वह इटली छोड़ कर चले गये, साथ ही धीरे धीरे, साईं बाबा का नाम भी कुछ कम हो गया.

पर मेरे मन में साईं बाबा की लोकप्रिय छवि से, जो उन्हें चमत्कार करने वाला बाबा वाली छवि थी, बिल्कुल भी आकर्षण नहीं था. प्रारम्भ से ही मुझे सोचने विचारने वाली बातें करने वाले आध्यात्मिक गुरुओं में दिलचस्पी रही है, जबकि चमत्कार करने वाले और वरदान देने वाले गुरुओं के प्रति मुझे अविश्वास सा होता है, लगता है कि लोगों की सहज श्रद्धा का गलत फ़ायदा उठाया जा रहा हो.

भारत में जन्मी पनपी आध्यात्मिक परम्परा की जड़ें उपानिषिदों में हैं और उनमें मानव की अंतरात्मा की गहराईयों में छुपी जगत संज्ञा को खोजने की चेष्ठा है, यही चेष्ठा मुझे इस परम्परा की सबसे बड़ी उपलब्धी लगती है. पर योगी तपस्या से या आत्मसंयम से उड़ने लगें या चमत्कार करने लगें, इस तरह की बातों पर मेरा विश्वास नहीं है. मेरा मानना है कि भौतिक जीवन को भौतिक जगत के नियम मानने ही होंगें और उन नियमों से ऊपर उठने की बातें करने वाले लोग सच नहीं बोल रहे.

इसी तरह, आध्यात्म को धँधा बना कर पैसा कमाने लोग भी हैं, जो एक ओर माया संसार को त्यागने का मार्ग दिखाने का दावा करते हैं पर साथ ही मैनेजर भी बन जाते हैं ताकि उस पर कापीराईट बना कर सम्पति बनायी जाये. इस तरह के काम करने वाले लोग, चाहे वह दीपक चोपड़ा हों या श्री श्री रविशंकर, मुझे आकर्षित नहीं करते, आध्यात्म के व्यापारी लगते हैं.

मनोवैज्ञनिक दृष्टि से सोचूँ तो मुझे लगता है सर्वज्ञानी सर्वशक्तिमान गुरु या राजनीतिक नेता जैसी आकृतियों की खोज उन व्यक्तियों को होती है जिनके मन में असुरक्षा की भावना हो. इस तरह की आकृतियाँ हमें बचपन में पैदा होने के बाद के उन दिनों में ले जाती हैं जब हमारे लिए माता पिता सर्वज्ञानी सर्वशक्तिमान होते थे, वही हमारे सभी निर्णय लेते थे और हमें मानसिक सुरक्षा की अनुभूति देते थे. शायद इसका अर्थ है कि मानसिक दृष्टि से मैं अधिक आत्मनिर्भर हूँ और अपने ऊपर इस तरह की किसी आकृति को नहीं स्वीकारना चाहता.

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स्वाति चौपड़ा की नयी किताब "जागृत स्त्रियाँ - भारत में आधुनिक आध्यात्म की कहानियाँ" (Women awakened - stories of contemporary spirituality in India, Swati Chopra, Harper Collins publisher India, 2011) में आध्यात्म को स्त्री के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास है. इसके पीछे उनकी भावना है कि पुरुषों के मुकाबले में नारियों के लिए सन्यास लेना, घर परिवार त्यागना, जँगल में अकेले निकल पड़ना जैसे काम कठिन हैं. इसका सबसे बड़ा खतरा है कि पुरुष दृष्टि उनके जगत्याग को मान न दे कर, उन्हें यौन वासना का पात्र ही मानती है. पारम्परिक हिन्दू धर्म में साधवियों के लिए मठ या आश्रम जिसमें केवल सन्यासी औरते रहें, इसका विधान नहीं रहा है. इस सब की वजह से नारियों के लिए सन्यास मार्ग पर चलना और जगसम्मानित आध्यात्मिक गुरु बनना कठिन रहा है.

इस किताब में स्वाति चौपड़ा ने आठ नारी गुरुएँ के जीवन के बारे में लिखा है. इन आठ आकृतियों में एक हैं माँ शारदा देवी, स्वामी रामकृष्ण परमहँस की पत्नी, जिनकी जीवन कथा और सन्यास पथ को पुराने दस्तावेज़ो के माध्यम से समझने की कोशिश की गयी है. बाकी की सात आकृतियाँ आधुनिक गुरुओं की हैं - श्री आनन्दमयी माँ, माता निर्मला देवी, नानी माँ, जेत्सुनमा तेंज़िंग पाल्मो, माता अमृतानन्दामयी, खाँद्रो रिनपोछे और साध्वी भगवती.

Women spiritual gurus from contemporary India

इन सब गुरुओं से स्वाति चौपड़ा ने साक्षात्कार किये हैं, उनके जीवन को जानने की और साध्वी बनने के मार्ग को समझने की चेष्ठा की है. इन साक्षात्कारों में श्रद्धा तो है लेकिन पत्रकार का कोतूहल भी है. अक्सर गुरुओं को देवाकृति मान कर उनके बारे में लिखने वाले भक्त लोग निष्पक्ष भाव से नहीं लिख पाते, और गुरु के सामान्य मानव जीवन संबन्धी बातों को समझने के लिए ठीक से प्रश्न नहीं पूछ पाते. स्वाति चौपड़ा के लेखन में यह अंधभक्ति नहीं दिखती, बल्कि पश्चिमी तार्किक विचारधारा से प्रभावित सोचने समझने वाले प्रश्न भी हैं जो सामान्य जगत और आध्यात्मिक जगत के बीच की धँधली सीमारेखा को दोनो ओर देखने की चेष्ठा करते हैं.

इस किताब की चुनी गयी आठों नारी आकृतियाँ हिन्दु और बौद्ध धर्म से जुड़ी हैं. उनमें जैन, सिख, ईसाई आदि धर्मों की साध्वियों की कोई आकृति नहीं, जो मेरे विचार में इस किताब की थोड़ी सी कमज़ोरी है. किताब की हर आकृति से स्वाति जी प्रश्न पूछती हैं कि क्या गुरु के स्थान पर पहुँचने वाली स्त्रियों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण पुरुष गुरुओं से भिन्न होता है? इस प्रश्न का उन्हें समान उत्तर मिलता है कि, स्त्री हो या पुरुष, एक बार आत्मा के गहन में छुपे परमात्मा से मिलन हो जाये तो नारी पुरुष की भिन्नता समाप्त हो जाती है, यानि गुरु तो केवल गुरु है, लिंग से परे, पर लिंगविहीन नहीं, उसमें नारी भी है, पुरुष भी.

आध्यात्मिक मार्ग को अधिकतर जग त्याग और सन्यास के मार्ग के रूप में ही देखा समझा गया है, जोकि सामान्य रूप से पुरुष मार्ग है. पुस्तक में स्त्रियों की प्रतिदिन में काम में लगे रहते हुए भी आध्यात्मिक मार्ग की खोज करने का कुछ विवेचन है जो मुझे बहुत अच्छा लगा.

आठों आकृतियों की अलग अलग जीवन गाथाओं में, अंतरात्मा की खोज के प्रारम्भ के रास्ते कुछ अलग लग सकते हैं पर बाद में सभी रास्ते एक ही मार्ग पर आ जाते हैं. इस तरह से दो तीन नारी गुरुओं के जीवनचित्र पढ़ कर लगता है कि पुस्तक में कुछ दोहराव है. इसकी वजह से आखिरी जीवन चित्रों को मैंने उतने रोचक नहीं पाया जितने मुझे किताब के प्रारम्भ के जीवनचित्र लगे. फ़िर भी यह किताब मुझे पढ़ने योग्य लगी.

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शुक्रवार, अप्रैल 22, 2011

कबड्डी और बचपन के खेल

उत्तरी कर्णाटक की यात्रा के बाद ६ अप्रैल को शाम को बँगलौर लौटा था और हवाई अड्डे से टेक्सी ले कर होटल जा रहा था. गर्मी, धूप और गाँवों में घूमते हुए ऊबड़ खाबड़ सड़कों पर जीप के धक्के, बहुत थकान लग रही थी. होटल में पहुँच कर नहा कर तुरंत सो जाऊँगा यह सोच रहा था. टेक्सी जयानगर से गुजंर रही थी जब एक पार्क में कुछ चहलकदमी दिखी. आसपास बोर्ड पर कुछ कन्नड़ भाषा में लिखा था जो समझ नहीं आया, तो टेक्सी वाले से पूछा कि क्या हो रहा था वहाँ? उसने बताया कि भारतीय राष्ट्रीय कबड्डी प्रतियोगिता का उद्दघाटन होने वाला था जिसके लिए पूरे भारत से टीम आयी थीं.



National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak


क्रिकेट का चाहे विश्व कप हो या आई पी एल, उसमें मुझे उतनी रुचि नहीं होती जितना "कबड्डी" शब्द सुन कर हुई. मुझे तो याद भी नहीं था कि कबड्डी नाम का कोई खेल होता था. एक पल के लगा कि बचपन लौट आया हो, बचपन में खेले कबड्डी, खो खो और पिट्ठू की याद आ गयी. होटल में पहुँचा तो बस सामान रखा, नहाने और आराम करने को भूल, तुरंत उसी पार्क में लौट आया.

कोई बँगलौर के नगरपालक श्री नटराज प्रतियोगिता का उद्दघाटन करने आये थे, उनके आसपास बहुत भीड़ थी. पहले कुछ साँस्कृतिक कार्यक्रम हुआ जिसमें लोक नर्तकों ने अपनी नृत्य कला दिखायी, फ़िर विभिन्न शहरों से आयी 40 टीमों का जलूस निकला, जिनमें दिल्ली की भी एक टीम थी, जिसके लिए मैंने भी खूब तालियाँ बजायीं.

कबड्डी प्रतियोगिता 7 अप्रैल को शुरु होने वाली थीं, जब मेरे शौध प्रोजेक्ट की मीटिंग भी शुरु हो रही थी, इसलिए कोई भी मैच नहीं देख पाया, पर फ़िर भी प्रतियोगिता के उद्दघाटन समारोह में भाग लेना बहुत अच्छा लगा. इसी समारोह की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak

National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak

National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak

National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak

National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak

National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak

National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak

National kabaddi championship, Bangalore, April 2011 - images by S. Deepak

क्रिकेट, फुटबाल आदि को छोड़ कर, आप के बचपन के कौन से खेल थे जो आज खेलना चाहेंगे?

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कबड्डी के बारे में सोचूँ तो लगता है कि अमरीकी बेस बाल रगबी का खेल बिल्कुल हमारी कबड्डी से मिलता है, बस फर्क इतना है कि हम "कबड्डी कबड्डी" कहते हैं जबकि उन्हें गेंद ले कर दूसरे कौने तक जाना होता है. क्या आप को यह नहीं लगता कि शायद बेस बाल बनाते समय अमरिकियों ने हमारी कबड्डी से प्रेरणा पायी हो? या हमारी कबड्डी अमरीकी बेस बाल की प्रेरणा से बनी? क्या जाने भारत में कबड्डी के इतिहास पर कोई शौध हुआ है या नहीं, जिससे यह समझ मिल सके?

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मंगलवार, अप्रैल 19, 2011

लम्बाड़ी गाँव

बैल्लरी जिले के हूवीना हड़ागली तालुक के गाँवों में घूम रहे थे. यह जगह हड़ागली यानि चमेली के फ़ूलों के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है. विकलाँग पुनर्निवास कार्यक्रम की जाँच के करने आया था और वहाँ वह मेरा अंतिम दिन था. अचानक सड़क के किनारे शीशे और मोतियों से जड़े हुए चमकते हुए रंगीन कपड़े पहने, औरतें देख कर उत्सुकता हुई कि कौन लोग हैं? पता चला कि यह राजस्थानी मूल के बनजारे हैं जिन्हें लम्बाड़ी या थाँडा के नाम से जाना जाता है और जो दक्षिण भारत के विभिन्न राज्यों में जगह जगह बसे हैं. गाँवों में विकलाँगों संबन्धी कार्यक्रम को देखने आया था इसलिए अपने साथियों से पूछा कि क्या इन लम्बाड़ी के गाँवों में भी कोई विकलाँग कार्यक्रम है और क्या हम लोग उसे देखने जा सकते हैं?

Lambadi gypsy village Thanda, Karnataka, India, image by Sunil Deepak

हालाँकि शाम होने को आयी थी और हमें लम्बी यात्रा करनी थी, फ़िर भी मेरे साथियों ने तुरंत मुझे एक लम्बाड़ी गाँव दिखाने के लिए हाँ कर दी. उन्होंने बताया कि इन गाँवों को थाँडा कहते है और यहाँ रहने वाले लम्बाड़ी अब धीरे धीरे कर्णाटकी संस्कृति में घुलने मिलने लगे हैं. बहुत से लम्बाड़ी लोग अब जगह जगह नहीं घूमते, बल्कि एक ही जगह पर रहने लगे हैं. यह लम्बाड़ी गाँव हूवीना हड़ागली शहर के दक्षिण में करीब पाँच किलोमीटर दूर है. लेकिन वहाँ जाने वाली सड़क की हालत बहुत खराब थी इसलिए खाली सड़क होते हुए भी पहुँचने में करीब बीस मिनट लगे.

सड़क छोड़ कर गाँव की तरफ कच्चे रास्ते पर मुड़े तो तुरंत गाय के साथ एक वृद्ध औरत पारम्परिक लम्बाड़ी पौशाक में दिखी. देखने में गाँव के घरों में कोई विषेश भिन्नता नहीं दिखी. गाँव के प्रारम्भ में ही एक गूँगी युवती का घर था जिसे विकलाँग कार्यक्रम वाले जानते थे. उससे बात करने लगे तो थोड़ी देर में आसपास बच्चे जमा हो गये. उस गाँव में बाहर के लोग कम ही आते हैं, शायद इसीलिए हर कोई मेरे कैमरे को देख कर अपनी फोटो खिंचवाना चाहता था. युवती से बात करके हम लोग एक अन्य घर में गये, जहाँ एक विकलाँग युवक रहता था. इस तरह मुझे गाँव को देखने का मौका मिला.

केवल प्रौढ़ या वृद्ध महिलाएँ ही पारम्परिक लम्बाड़ी पौशाक पहने थीं जबकि युवक, युवतियाँ और बच्चे सामान्य वस्त्र ही पहने थे. लम्बाड़ी पारम्परिक पौशाक का ही हिस्सा है, सिर के दोनो ओर बालों की एक चौड़ी लट पर बँधे चाँदी के बड़े बड़े झुमके, जिनसे कान ढके से रहते हैं. हाँलाकि कुछ लोग आपस में राजस्थानी से मिलती जुलती लम्बाड़ी भाषा भी बोल रहे थे, पर अधिकतर लोग कन्नण भाषा को भी बोल समझ सकते थे. मेरे साथियों ने बताया कि बच्चे चूँकि स्कूल में कन्नण ही सीखते हैं, इसलिए लम्बाड़ी भाषा का बोलना भी कम हो रहा है. गाँव में टेलीविज़न देखने के डिश ऐंटेना और कई लोगों के पास मोबाईल फ़ोन भी दिखे.

जल्दी जल्दी करके गाँव से वापस चलने लगे तो डूबते सूरज की रोशनी में गाँवों की पीछे एक पहाड़ी पर, ऊर्जा उत्पादन के लिए लगी हवाई पनचक्कियों पर नज़र पड़ी. सदियों से अपनी भाषा, पौशाक और संस्कृति को अलग बचा कर, संभाल कर रखने वाली जनजातियाँ आज तकनीकी और आर्थिक विकास के सामने धीरे धीरे अपनी भिन्नता खो कर सामान्य जीवन में समन्वित हो रही हैं. अन्य कुछ दशकों में शायद इन लम्बाड़ी गाँवों का यह बचा खुचा पारम्परिक रूप भी खो जायेगा.

उत्तरी कर्णाटक के इस लम्बाड़ी गाँव की इस छोटी सी यात्रा की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

Lambadi gypsy village Thanda, Karnataka, India, image by Sunil Deepak

Lambadi gypsy village Thanda, Karnataka, India, image by Sunil Deepak

Lambadi gypsy village Thanda, Karnataka, India, image by Sunil Deepak


Lambadi gypsy village Thanda, Karnataka, India, image by Sunil Deepak

Lambadi gypsy village Thanda, Karnataka, India, image by Sunil Deepak

Lambadi gypsy village Thanda, Karnataka, India, image by Sunil Deepak

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शनिवार, मार्च 26, 2011

ताकत और विरोध

कुछ दिन पहले मैंने निवेदिता मेनन और आदित्य निगम की किताब, "ताकत और विरोध" (Nivedita Menon and Aditya Nigam, "Power and Contestation: India Since 1989", Halifax and Winnipeg: Fernwood Publishing; London and New York: Zed Books 2007) पढ़ी जो मुझे बहुत दिलचस्प लगी. निवेदिता जी दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र विभाग में रीडर हैं और फेमिनिस्ट विमर्ष में भी सक्रिय रही हैं, जबकि आदित्य जी दिल्ली के विकासशील समाजों के अध्ययन केन्द्र (Centre for studies of developing societies - CSDS) के संयुक्त निर्देशक हैं. यह किताब "आधुनिक विश्व इतिहास" शृँखला के अन्तर्गत छापी गयी है जिसका उद्देश्य है 1989 के शीत युग के अन्त के पश्चात बदलती हुई दुनिया के इतिहास को समझने की कोशिश करना.

Power and contestation by Nivedita Menon and Aditya Nigam
मेनन और निगम भारत के आधुनिक इतिहास के विमर्ष में उत्तर राष्ट्रीयवाद, नव वामपंथ और फेमिनिस्ट दृष्टिकोणों का उपयोग करते हैं.

निवेदता मेनन ने पहले भी अन्य जगह "फेमिनिस्म के संस्थाकरण" के बारे में अपने विचार रखे हैं. उनका कहना है कि पित्रकेन्द्रित समाज में चाहे स्त्रियों से जुड़ी कोई भी बात हो, बलात्कार या हिँसा या दहेज की, लैंगिक समता के लिए लड़ने वाले गुट अब केवल कानून बदलने की बात करने तक ही सीमित रह जाते हैं कुछ यह सोच कर कि कानून बदलने से अपने आप ही समाज बदल जायेगा. वह कहती हैं कि फैमिनिस्म और लैंगिक समता की बात सोचने वालों लोगों को फैमिनिस्ट विचार विमर्श के व्यक्तिगत सशक्तिकरण के पक्ष पर ज़ोर देना चाहिये.

"ताकत और विरोध" में मेनन और निगम बात करते हैं भारत के आर्थिक दृष्टि से विकसित, विकासशील और विकास की आकाँक्षा रखने वाले समाज की जिसने पिछले दो दशकों में उदारीकरण नीतियों से फायदा उठाया है, और जिसके बल पर राष्ट्र तथा आर्थिक ताकत में गुटबंदी बनी है. इस गुटबंदी का दो तरह के लोग विरोध कर रहे हैं. एक विरोधी वे हैं जो इस गटबंधन से बाहर हैं और इस गटबंधन का हिस्सा बनना चाहते हैं, उससे कमाना और लाभ पाना चाहते हैं, वह अपने बाहर होने से नाराज़ हैं. दूसरी ओर के विरोधी वे हैं जो इन नीतियों से सहमत नहीं और नीतियों में बदलाव चाहते हैं. यह आर्थिक विकास समाज के आधुनिकता निर्ञाण से जुड़ा है.

उनके विषलेशण में 1989 के पहले के भारत, विषेशकर साठ और सत्तर के दशक के भारत की बुनियाद थी "नेहरु सामंजस्य", जिसके वह तीन मुख्य स्तम्भ समझते हैं - (1) आत्मनिर्भर आर्थिक व्यवस्था जो देश के उद्योगीकरण से जुड़ी थी, (2) धर्म से पृथक राजनीतिक व्यवस्था और (3) किसी भी बड़ी ताकत से अलग स्वतंत्र विदेश नीतियाँ जो विषेशकर अमरीकी साम्राज्यवाद के विरुद्ध थीं. इस नेहरु सामंजस्य को इंदिरा गाधी के शासन काल में कमज़ोर किया गया. जबकि नब्बे के दशक में यह नेहरू सामंजस्य पूरी तरह से लुप्त हो गया तथा आधुनिकता और गणतंत्र में लड़ाई शुरु हुई.

वे आधुनिकता को कुछ विषेश मूल्यों के रूप में देखते हैं जैसे कि मानव अधिकार, धर्म निरपेक्षता, इत्यादि, जबकि गणतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण मूल्य मानते हैं राजनीतिक ताकत के द्वारा अपनी आकाँक्षाओं की परिपूर्ती करना. उनका मानना है कि गणतंत्र और आधुनिकता की यह लड़ाई मँडल रिपोर्ट से खुल कर सामने आयी. इसकी वजह से अन्य पिछड़े गुटों को 27 प्रतिशत का रिर्जवेशन कोटा मिला, जिसकी वजह से उनकी ताकत बढ़ी और मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव जैसे नेता उभरे. इसकी वजह से साथ ही दलितों का भी शोषण बढ़ा और दलितों ने बीजेपी जैसे गुटों के साथ मिल कर उनके विरोध में संयुक्त पक्ष बनाया.

मंडल कमिशन की रिपोर्ट लागू होने से पहले, अन्य पिछड़े गुट भारत का 60 प्रतिशत जनसंख्या बनाते थे लेकिन उन्हें सरकारी और शिक्षण कार्यक्षेत्रों में केवल 4 प्रतिशत काम मिलता था, वह भी अधिकतर निचले दर्ज़े के काम मिलते थे. उँची जात वाले लोग भारत की जनसंख्या का 20 प्रतिशत हैं और दलित भी 20 प्रतिशत हैं, इसीलिए गणतंत्र में अपना हिस्सा पाने के लिए सवर्ण और दलित मिल कर भी लड़ रहे हैं. विभिन्न पक्षों की यह लड़ाई भारत को आधुनिकता से दूर खींचने वाली लड़ाई है.

दूसरी ओर, उनका कहना है कि पंचायती राज की संस्थाओं में औरतों के लिए सीटें रिर्ज़व करने से उँची जात वालों को अधिक फायदा हुआ है जिसकी वजह से अन्य पिछड़े दल और दलित इसके विरुद्ध हैं.

मेरे विचार में सामाजिक जीवन की सच्चाईयाँ शाश्वत नहीं, देखने वाले के दृष्टिकोण पर भी निर्भर करती हैं. समाज स्थिर भी नहीं रहता, समय के साथ बदलता रहता है. इसलिए यह तो नहीं कहूँगा कि निगम और मेनन की यह किताब कुछ बिल्कुल सच और नयी बात कहती है, लेकिन फ़िर भी इस किताब को बहुत दिलचस्पी से पढ़ा, और लेखकों के विशलेषण ने बहुत कुछ सोचने को दिया.

वैसे पिछले वर्ष के बिहार चुनावों के बारे में सोचा जाये तो मेरी दृष्टि में नितिश कुमार ने शायद "अन्य पिछड़े गुटों" के भीतर बसने वाले अन्य गुटों जैसे कि औरतों की आकाँक्षाओं पर ज़ोर दे कर, इस विमर्श में नयी जटिलता जोड़ दी है. आधुनिकता अगर आर्थिक विकास और वैश्वीकरण से प्रभावित हो रही है और दूसरी ओर, गणतंत्र में ताकत पाना आधुनिकता के मूल्यों को चुनौती दे रहा है, तो अंत में इसका गणतंत्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

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शुक्रवार, मार्च 18, 2011

बीते दशक के सबसे प्रिय गीत

सुबह अचानक मन में आया कि जैसे जैसे उम्र बीतती हैं, दिन अधिक तेज़ी से गज़रने लगते हैं. लगता है कि अभी कल ही तो नव वर्ष के कार्ड भेजे थे, आज हवा में वँसत के ताज़े फ़ूलों की महक कल आने वाली गर्मी की असहनीय उमस का संदेशा दे रही है. फ़िर सोचा कि नये सहस्रयुग की पहली सदी का पहला दशक पूरा हो गया, पता ही नहीं चला. धर्मवीर भारती की कविता याद आती हैः

"दिन यूँ ही बीत गया
अँजुरी में भरा हुआ जल
जैसे रीत गया"

फ़िर सोचा कि समय के साथ तकनीकी कितनी जल्दी बदल रही है. कल की ही बात लगती है कि टेलेक्स, डोस (Dos) प्रयोग करने वाले कम्पयूटर, फाक्स, न्यूज़ग्रुप जैसी तकनीकें आयीं और चली भी गयीं. मेरे कुछ मित्र अब आईपेड का प्रयोग करते हैं पर मैं कोई चीज़, विषेशकर तकनीकी उपकरण, जल्दी नहीं बदलता.

लोग कहते हैं कि इन तकनीकों की वजह से लोग किताबें नहीं पढ़ते. मुझे नहीं लगता कि एक दिन कोई किताबें नहीं पढ़ेगा, मेरे विचार में लोग हमेशा किताबें पढ़ेंगे, फ़िल्मे देखेगे क्योंकि इनमें कहानियाँ हैं और मानव की कहानियाँ सुनने सुनाने की आदत तो आदिकाल से है. हाँ शायद कागज़ की किताब की जगह और सिनेमाहाल की जगह आईपेड या कुछ नया उपकरण ले लेगा.

फ़िल्मों की बात मन में आयी तो मन पंसद गीतों के बारे में सोचने लगा. इसी लिए लिस्ट बनाने की सोची कि पिछले दशक, यानि 2001 से 2010 के सबसे अच्छे संगीत वाली फ़िल्में कौन सी थीं? यानि वह फ़िल्में जिनमें केवल एक-दो याद रखने वाले गीत नहीं हों, बल्कि फ़िल्म का सारा संगीत मुझे पंसद होना चाहिये.

एक ज़माने में इस तरह की लिस्ट बनाते हुए यह याद करना असम्भव था कि दस साल पहले कौन सी फ़िल्में आयी थीं, पर आज गूगलदेव और विकिपीडिया देवी की मदद से हर साल की फ़िल्मों की लिस्ट खोजना आसान है. मेरी शर्त यह भी थी कि मेरी लिस्ट में शामिल होने के लिए फ़िल्म का संगीत इतना अच्छा होना चाहिये कि उस फ़िल्म का नाम सुनते ही उसके गीत अपने आप याद आ जायें, उन्हें खोजना न पड़े. तो प्रस्तुत है मेरी मन पसंद फ़िल्मों की लिस्ट जिनका संगीत मुझे सबसे अच्छा लगा.

Grafic by S Deepak on best Bollywood music 2001-2010

2001 में आयी फ़िल्मों में से कई फ़िल्मों का संगीत मुझे अच्छा लगा था जैसे कि - 'अशोका' (अनु मल्लिक), 'रहना है तेरे दिल में' (हेरिस जयराज) और 'ज़ुबैदा' (ए आर रहमान), लेकिन इतने साल बाद भी जिस फ़िल्म का संगीत दोबारा सुनने का मन करता है, वह है 'लगान' जिसमें संगीत था ए आर रहमान का. 'मितवा', 'राधा कैसे न जले', 'ओ पालनहारे' जैसे गीतों को याद करने के लिए कोई कठिनाई नहीं होती.

2002 में आयी फ़िल्मों में से मुझे संगीत अच्छा लगा था 'साथिया' (रहमान), 'देवदास' (इस्माईल दरबार), 'फ़िलहाल' (अनु मल्लिक), और 'लेजेंड आफ़ भगत सिंह' (रहमान) का. लेकिन जिस फ़िल्म का संगीत आज भी याद है वह थी 'सुर' जिसमें संगीत था एम एम करीम का. इस फ़िल्म से 'आ भी जा', 'खोया है तूने क्या ए दिल', 'क्या ढूँढ़ता है' और 'आवे मारिया', मुझे बहुत अच्छे लगे थे.

2003 में आयी फ़िल्मों से अच्छा संगीत वाली फ़िल्मों की सोचूँ तो 'कोई मिल गया', 'कल हो न हो', 'चलते चलते', 'झँकार बीटस' आदि के नाम याद आते हैं, लेकिन ऐसा कुछ नहीं जिसे आज सुनना चाहूँगा. इस साल की फ़िल्मों से 'जिस्म' में श्रेया घोषाल का गाया "जादू है नशा है" की याद है लेकिन इस फ़िल्म से भी कोई और गीत याद नहीं आता.

2004 में निकली फ़िल्मों से मुझे सबसे पहले 'मीनाक्षी', 'स्वदेश' और 'युवा' में रहमान का संगीत याद आता है. इन तीनो फ़िल्मों में कई गीत है जो मुझे अब भी सुनना अच्छा लगता है. उसके अतिरिक्त 'धूम' और 'लक्ष्य' का संगीत भी अच्छा लगा था, लेकिन अगर इस साल की एक फ़िल्म चुननी हो तो वह होगी 'चमेली' जिसमें संगीत था संदेश शाँदलिया का. इसका 'भागे रे मन' जितनी बार सुन लूँ, मन नहीं भरता.

2005 में प्रदर्शित होने वाली फ़िल्मों में इतनी फ़िल्में थीं जिनका संगीत मुझे अच्छा लगा था कि एक फ़िल्म को चुनना कठिन है. 'किसना' और 'वाटर' में रहमान का संगीत, 'पहेली' और 'रोग' में एम एम करीम का संगीत, 'परिणीता' में शाँतनु मोयत्रा का संगीत मुझे अच्छा लगा था. इसी साल हिमेश रेश्मैया ने 'आशिक बनाया आप ने' में धूम मचायी थी. 'बँटी और बबली' और 'दस' के गाने भी बढ़िया थे. बहुत सोच कर भी मैं इस साल की दो फ़िल्मों के बीच तय नहीं कर पा रहा कि मुझे सबसे अच्छी कौन सी फ़िल्म का संगीत लगा था, यह फ़िल्में थीं 'ब्लफ़ मास्टर' और 'मोर्निंग रागा'. 'ब्लफ़ मास्टर' में अभिशेख का गाया 'राईट हेयर राईट नाओ', 'से ना से ना शी डिट इट टू मी' जैसे गाने मुझे बहुत अच्छे लगे थे, जबकि 'मोर्निंग रागा' में मेरा परिचय हुआ था कर्नाटक संगीत से मिले जुले फ्यूजन संगीत से. इस फ़िल्म से 'थाये यशोधा', 'माटी' और शबाना आज़मी की गायी तान मुझे बहुत प्रिय है.

2006 में आयी फ़िल्मों में 'ओंकारा', 'कभी अलविदा न कहना', 'जानेमन' और 'रंग दे बँसती' का संगीत मुझे अच्छा लगा था. 'जानेमन' से अनु मल्लिक का 'अजनबी शहर है' सुन कर मुझे 1960 के दशक की शंकर जयकिशन की याद आती है. 'कभी अल्विदा न कहना' से शंकर एहसान लोय का 'मितवा' बहुत सुन्दर था. लेकिन इन में ऐसी कोई फ़िल्म नही़ जिसे मैं चुनना चाहूँगा.

2007 की फ़िल्मों में से मेरी प्रिय हैं प्रीतम की 'लाईफ़ इन ए मेट्रो' और 'जब वी मेट', और रहमान की 'गुरु'. 'नमस्ते लँडन' से हिमेश का 'मैं जहाँ रहूँ' बहुत अच्छा लगा था. 'तारे ज़मीन पर' का संगीत भी अच्छा लगा था. लेकिन इस साल सबसे पंसदीदा संगीत 'झूम बराबर झूम' फ़िल्म से था जिसमें संगीत था शंकर एहसान लोय का. तीन साल बाद भी इसके गाने मेरे आईपोड पर हैं.

2008 में एक बार फ़िर बहुत सी ए आर रहमान की फ़िल्मों का संगीत बहुत अच्छा था - 'गज़नी', 'जाने तू या जाने न' और 'जोधा अकबर'. इनके अतिरिक्त मुझे 'सिंग्ह इज़ किंग' और 'रेस' के गाने भी अच्छे लगे थे. पर साथ ही 'राक ओन' में शंकर एहसान लोय का संगीत बहुत अच्छा लगा था. इस साल की फ़िल्मों से सबसे पंसदीदा फ़िल्म एक फ़िल्म नहीं चुन पा रहा, 'जोधा अकबर' और 'राक आन' के बीच में फैसला नहीं कर पा रहा.

2009 में मुझे अच्छा संगीत लगा था 'लव आज कल', 'कुर्बान' और 'लंडन ड्रीमस' का, लेकिन इस साल दो फ़िल्मों का संगीत इतना अच्छा लगा कि दो साल के बाद भी, इन्हें अक्सर सुनता रहा हूँ - विशाल भारद्वाज की 'कमीने' और रहमान की 'दिल्ली 6', और इन दोनो के बीच से एक फ़िल्म को नहीं चुन पाता.

अंत में पिछले दशक के आखिरी साल 2010 में भी बहुत सी फ़िल्मों का संगीत मुझे अच्छा लगा जैसे 'खेलें हम जी जान से', 'स्ट्राईकर', 'राजनीति', 'वनस अपोन ए टाईम एइन मुम्बई', 'इश्किया', 'गुज़ारिश', 'बैंड बाजा बारात', आदि. इस साल से मेरा चुनाव है 'लम्हा' जिसमें मिथून का संगीत था. इस फ़िल्म से 'मदनों', 'साजना', 'रहमत खुदा' जैसे गाने मुझे लगता है कि कई साल बाद भी मुझे अच्छा लगते रहेंगे.

तो अगर मेरे पसंद की फ़िल्मों की लिस्ट बनायी जाये जिनका संगीत मुझे सबसे अच्छा लगा तो उसमें होंगी यह 11 फ़िल्में - लगान, सुर, चमेली, ब्लफ़ मास्टर, मार्निंग रागा, झूम बराबर झूम, जोधा अकबर, राक ओन, कमीने, दिल्ली 6 और लम्हा.

हम सब की पसंद भिन्न होती है, अगर आप से पूछा जाये कि आप को कौन सी फ़िल्म का संगीत सबसे अच्छा लगा तो आप क्या कहेंगे?

मुझे इन 11 में एक फ़िल्म चुननी हो तो मैं चुनूँगा, दिल्ली 6 को. अगर आप से पिछले दशक की एक फ़िल्म को चुनने का कहा जाये जिसका संगीत आप सबसे अच्छा लगा तो आप किस फ़िल्म को चुनेंगे?

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