रविवार, अप्रैल 22, 2007

टेलीविजन की सीमाएँ

टेलीविज़न समाचारों में दिखाये गये दृष्य रौंगटे खड़े देने वाले थे. देख कर बहुत गुस्सा आया. क्या जरुरत थी वह दृष्य दिखाने की? सोचा कि उठ कर टीवी बंद कर दूँ पर इतनी भयानक लग रही वह बात कि न नज़र हटा पाया या सोफे़ से उठ पाया. बाद में यह सोच रहा था कि यह समाचार न भी बताते तो क्या हो जाता और अगर बताना ही था बिना दिखाये भी तो बताया जा सकता था?

समाचार था 12 साल के अफ़गानी लड़के का जिसके हाथ में चाकू था, फ़िर दिखाया जीप में आ रहे व्यक्ति को जिस पर अमरीकी जासूस होने का आरोप था और जिसकी आँखें डरे हिरन की तरह इधर उधर झाँक रहीं थीं. कुछ व्यस्क लोगों ने जासूस को कस कर पकड़ लिया और फ़िर बारह वर्ष के लड़के ने जासूस को मृत्यदँड सुनाया और आगे बढ़ कर चाकू से उसकी गर्दन काट दी. बस अंत के कुछ क्षण टीवी वालों ने नहीं दिखाये.

इतना धक्का लगा कि अब भी इस बात को सोच कर गुस्सा आ जाता है. बच्चे मासूम नहीं होते, सिखाया पढ़ाया जाये तो हत्यारे भी हो सकते हैं, यह नई बात नहीं है, मालूम है.

दुनिया में अत्याचार करने वाले, क्रूरता दिखाने वाले, पत्थर दिल जल्लादों की कमी नहीं. अपने गुस्से की वजह के बारे में सोच रहा था कि क्यों मुझे यह बात इतनी बुरी लगी?

यह मालूम तो है कि क्रूरता किस हद तक हो सकती है पर शायद मैं इस बारे में जानना सोचना नहीं चाहता? जब तक अपनी ही जान पर न बन आयी हो या अपने सामने ही न हो रहा हो, तो हो सके तो आँखें बंद कर लेना चाहता हूँ, भूल जाना चाहते हूँ. क्यों कि ऐसे क्रूर सच का सामना करने की मुझमें ताकत नहीं.

शायद इसे शतुरमुर्ग की तरह रेत में सर छुपाना ही कहिये, पर नहीं देखना चाहूँगा ऐसे दृष्य और सोचता हूँ कि टीवी वालों को नहीं दिखाना चाहिये था.

करीब दस साल पहले संयुक्त राष्ट्र संघ के शरणारार्थी कमीशन के साथ युगाँडा में ऐसे सुडान के बच्चों का कैंम्प देखा था जो लड़ाई में सिपाही रह चुके थे. जब वहाँ पहुँचे तो बारह चौदह साल की उम्र के वे बच्चे जो फुटबाल खेल रहे थे.

तब हाथ देखने का शौक था मुझे, सबने एक एक कर के हाथ सामने खोल दिये थे. उनमें से अधिकतर हाथों में जीवन रेखा कितनी छोटी थी, यह बात नहीं भूल पाया.

और उनकी आँखों में एक खालीपन सा दिखा था जिससे बहुत डर लगा था. हाथ देखते हुए एक दो बार नज़र उठा कर कुछ बच्चों के चेहरे की ओर देखा तो वह खालीपन दिखा था, फ़िर अन्य बच्चों से नजर बचाता रहा था. शायद बात उनकी आँखों की नहीं, मेरे अपने सोचने की थी, वह खालीपन उनकी आँखों में नहीं, मेरी कल्पना में था? कैंम्प की मनोविज्ञान चिकित्सक का कहना था कि बंदूक के साथ साथ, मौत भी बच्चों के बच्चों के लिए खेल सा बन जाती है और क्रूरता में बच्चों का सामना करना कठिन है.

दूर से गोली मारना तो अलग बात है पर उस बारह साल के बच्चे ने जब छटपटाते हुए आदमी की गरदन काटी होगी तो वह भी खेल की तरह ही देखा होगा? रात को उसके सपनों में क्या आया होगा? और बच्चों को इस तरह वहशीपन सिखाने वाले, उनके सपनों में कौन आता होगा?

****
हिंदुस्तान टाईमस पर सुश्री बरखा दत्त का लेख छपा है ब्रेक इन न्यूज़ ( "Hindustan Times Breakin News) यानी ताजा या नयी खबर. जिसमें वह बात करती हैं एक अन्य अजीब और खतरनाक खाई की जो हिंदी और अँग्रेजी इलेक्ट्रोनिक मीडिया में बन रही है.

बरखा जी का कहना है कि हिंदी की समाचार चैनल अधिक घटिया और निम्न स्तर की पत्रकारिता की ओर जा रहीं है. वह पूछती हैं कि क्या हिंदी टीवी पत्रकार यह दिखाना चाहते हें कि हिंदी में सोचने समझने वाली जनता केवल इस तरह की घटिया और बेवकूफ़ बातें ही समझ सकती है?

कितना सच है उनकी बातों में यह तो नहीं कह सकता, भारत के हिंदी अग्रेजी टीवी जगत से बहुत दूर हूँ. कभी इंटरनेट के माध्यम से कुछ समाचार देखने की कोशिश करो तो कभी कभी खीझ आती है कि समाचार चैनल भुतवा मकानों और अँधविश्वास को क्यों बढ़ावा दे रहे हैं और हर समाचार को खींच तान कर लम्बा करके दिखाते हें. जब सारी बात टीआरपी और बाज़ारी मूल्य पर टिकी हो तो यह होना आसान है.

और अगर आज समाचार पत्र और चैनल बाजार के हाथों कमजोर हो रहे हैं तो शायद जनता का विश्वास एक दिन अपने आप इनसे उठ जायेगा और वही प्तरकार, अखबार और चैनल चलेंगें जो सच और इमानदारी से अपनी बात कहते हैं. शायद आप कहें कि यह केवल आशावादी सपना है और सच्चाई से दूर है!

शुक्रवार, अप्रैल 20, 2007

शादी हो तो ऐसी

अखबार का पन्ना पलटा तो हैरान रह गया. पूरा पन्ना अभिशेख और एश्वर्या की शादी के बारे में था, बहुत सी तस्वीरें भी थीं और संगीत से ले कर शादी का सारा प्रोग्राम भी था. यहाँ के लोगों को समझाने के लिए हिंदू विवाह की विभिन्न रीतियों को विस्तार से समझाया गया था. भारतीय मीडिया तो शादी के बारे में पागल हो ही रहा था, यहाँ वालों को क्या हो गया? इतालवी समाचार पत्रों में भारत के किसी समाचार को इतनी जगह तो बड़ी दुर्घटना या दँगों के बाद भी नहीं मिलती जितनी इस विवाह को मिली है.

भारत में पर्यटन के लिए आने वाले लोगों में बदलाव आ रहा है. विश्व स्वास्थ्य संस्थान के अनुसार भारत में सस्ती और बढ़िया सर्जरी करवाना, या बीमारियों का इलाज करवाने आदि के लिए आने वाले "पर्यटकों" की संख्या तेजी से बढ़ रही है. भारतीय दूतावास इस बारे में पर्यटकों को सलाह दने के लिए बहुत काम कर रहे हैं, क्योंकि मलेशिया, सिँगापुर, थाईलैंड जैसे देश हमसे बाजी न मार लें उसका भी तो सोचना है. यह बात और है कि हर वर्ष विश्व में आम बीमारियों से, जिनका आसानी से इलाज हो सकता है, मरने वाले पाँच वर्ष से कम आयु के एक करोड़ बच्चों मे से करीब 25 प्रतिशत बच्चे भारत में मरते हैं, और प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य सम्बंधी खर्चे के हिसाब से भारत दुनिया में कई अफ्रीकी देशों से भी निचले स्थान पर है, पर विदेशी मुद्रा और प्रगति की बात करने वालों को इन बातों में दिलचस्पी कम है.

अभिशेख और एश्वर्या की शादी के समाचार इस तरह छपेंगे तो शायद इसके बाद विदेशों से भारतीय रीति से विवाह करवाने वाले पर्यटकों की भी संख्या बढ़ेगी? पर फ़िर वह सिरफिरे विदेशी भारतीय परम्परा को न समझते हुए खुले आम चुम्मा चाटी करके भारतीय संस्कृति को भ्रष्ट करेंगे, तो उसका इलाज खोजना पड़ेगा? कुछ ही दिन पहले, यहाँ के समाचार पत्रों में शिल्पा शेटी का चुम्बन लेने वाले रिचर्ड के विरुद्ध होने वाले दँगों के बारे में भी तो समाचार था.

कुछ भी कहा जाये, मार्किटिंग वालों का कहना है कि विज्ञापन होना चाहिये, चाहे लोग अच्छा कहें यहा बुरा, बस बात होनी चाहिये. इसी से ब्राँड इँडिया मजबूत होगी.

गुरुवार, अप्रैल 19, 2007

बसंती, तुम्हारा नाम क्या है?

शोले का वह दृष्य दिखायें जिसमें अमिताभ बच्चन भैंस पर बैठ कर आते हैं और गलियारे में संध्यादीप जलाती विधवा जया भादुड़ी उन्हें देखती है? या फ़िर जब धर्मेंद्र दारू की बोतल ले कर पानी की टंकी पर चढ़ कर बंसती से प्रेम की और मौसी की बनाई रुकावटों की कहानी सुनाते हैं? नहीं, कुछ दम नहीं है शोले में इस दृष्टी से, किसी और फ़िल्म का सोचा जाये. क्यों न मणीरत्नम की "बम्बई" के माध्यम से हिंदू और मुस्लिम युगल के प्रेम की कठिनाईयों को दिखाया जाये?

बहस इस बात पर हो रही है कि भारतीय एसोसियेशन के द्वारा आयोजित किये जाने वाले समारोह में कौन सी फ़िल्मों के दृष्यों को चुना जाये. सोचा कि गम्भीर बातों को भी कुछ हल्के तरीके से प्रस्तुत किया जा सकता है. "भारतीय नारी बोलीवुड के सिनेमा के माध्यम से", नाम दिया गया है इस समारोह को और हम खोज रहे हैं ऐसे दृष्य जिनसे भारत में स्त्री पुरुष के सम्बंधों के बारे में विभिन्न पहलुओं पर विचार किया जा सके. दृष्य छोटा सा होना चाहिये, और हर दृष्य के बाद उस पहलू पर बहस की जायेगी.

मुझे प्रजातंत्र में विश्वास है, यानि कुछ भी करना हो तो सबकी राय ले कर करना ठीक लगता है, लेकिन जब बात प्रिय हिंदी फ़िल्मों पर आ कर अटक जाये तो प्रजातंत्र की कमी समझ में आती है. हर किसी की अपनी अपनी पसंद है और हर कोई चाहता है कि उसी की पसंद का दृष्य दिखाया जाये.

खैर समारोह में अभी करीब दो महीने का समय है और इस समय में कुछ न कुछ निर्यण तो लिया ही जायेगा. ऊपर से चुनी फ़िल्मों के दृष्यों को काटना, जोड़ना और मिला कर उनकी एक डीवीडी बनाने की जिम्मेदारी मेरी ही है और अगर किसी निर्यण पर न पहुँचे तो अंत में मैं अपनी पसंद के दृष्य ही चुनुँगा.
****
इतना सुंदर दिन था, हल्की सी धूप बहुत अच्छी लग रही थी. तापमान भी बढ़िया था, करीब 20 डिग्री, न गरमी न ठँडी. क्यों न पिकनिक की जाये? हमारी बड़ी साली साहिबा आई हुईं थीं, पत्नी बोली कि उन्होंने खरीदारी करने के लिए जाने का सोचा है इसलिए पिकनिक के प्रोग्राम में वे दोनो शामिल नहीं होंगी पर बेटे और बहू ने तुरंत उत्साहित हो कर तैयारी शुरु कर दी.

बेडमिंटन के रैकेट, घास पर बिछाने के लिए चद्दर, पढ़ने के लिए किताबें, कुछ खाने का सामान, काला चश्मा, गाने सुनने के लिए आईपोड. यानि जिसके मन में जो आया रख लिया और हम लोग घर के सामने वाले बाग में आ गये.

बाग में पहुँचते ही मन में "रंग दे बसंती" के शब्द घूम गये. लगा कि यश चोपड़ा की किसी फ़िल्म के सेट पर आ गये हों. चारों तरफ़ पीले और सफ़ेद फ़ूल. लगा कि किसी भी पल "दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे" के शाहरुख खान और काजोल "तुझे देखा तो यह जाना सनम" गाते गाते सामने आ जायेंगे. करीब के गिरजाघर की घँटियाँ भी फ़िल्म के सेट का हिस्सा लग रही थीं.

दोपहर बहुत अच्छी बीती. बाग लोगों से भरा जो हमारी तरह ही अच्छा मौसम देख कर घरों से निकल आये थे. आसपास से बच्चों के खेलने की आवाज़ आ रही थी. हमने भी गरमागरम पराँठों जैसी यही की रोटी जिसे पियादीना कहते हें खायी और घास पर अखबार पढ़ते पढ़ते ऊँघने लगे.

थोड़े से दिनों की बात है, एक बार गरमी आयी तो धूप में इस तरह बाहर निकलना कठिन होगा. तब इस दिन की याद आयेगी जैसे भूपेंद्र ने गाया था, "दिल ढूँढ़ता है फ़िर वही फुरसत के रात दिन"!

प्रस्तुत हैं हमारी पिकनिक की कुछ तस्वीरें.






गुरुवार, अप्रैल 12, 2007

गुमनाम कलाकार

कल की अखबार में पढ़ा कि प्रसिद्ध अमरीकी वायलिन बजाने वाले कलाकार श्री जोशुआ बेल अपने लाखों रुपयों की कीमत वाले स्त्रादिवारी वायलिन के साथ वाशिंगटन शहर के एक मेट्रो स्टेशन पर 45 मिनट तक वायलिन बजाते रहे पर उन्हें किसी ने नहीं पहचाना. अपनी कंसर्ट में हज़ारों डालर पाने वाले जोशुआ ने बाद में उन्होंने सामने रखे वायलिन केस में यात्रियों द्वारा डाले सिक्के गिने तो पाया कि कुल 32 डालर की आमदनी हुई थी.

मुझे सड़क पर अपनी कला दिखाने वाले लोग बहुत प्रिय हैं और इस बारे में पहले भी कुछ लिख चुका हूँ. विषेशकर लंदन के मेट्रो में संगीत सुनाने वाले कई गुमनाम कलाकार मुझे बहुत भाते हैं. सात आठ साल पहले की बात है, एक बार पिकाडेल्ली सर्कस के स्टेशन पर जहाँ सीढ़ियाँ कई तलों तक गहरी धरती की सतह से नीचे जाती हैं, वहाँ उतरते समय एक कलाकार को इलेक्ट्रिक बासुँरी पर रेवल का बोलेरो (Bolero, Ravel) सुनाते सुना था जो इतना अच्छा लगा जितना कभी रिकार्ड या सीडी पर सुन कर नहीं लगा. स्टेशन की गहराई की वजह से शायद ध्वनि में अनौखी गूँज आ गयी थी जिसने दिल को छू लिया था.

रेलगाड़ी या मेट्रो में जब कोई इस तरह का गुमनाम सड़क का कलाकार संगीत सुनाने आता है तो बहुत से लोग नाराज हो कर भौंहें चढ़ा लेते हैं या फ़िर गुस्से से कुछ कहते हैं, तो कलाकार की तरफ से मुझे बुरा लगता है. मैं सोचता हूँ कि पैसा देने न देने की तो कोई जबरदस्ती तो है नहीं, पर किसी की कला का अपमान करना ठीक नहीं.

जोशुआ बेल का समाचार पढ़ कर और भी पक्का यकीन हो गया है कि जाने कब कहाँ अच्छा कलाकार सुनने को मिले इसका पता नहीं चलता और मन में सोचना कि कोई सड़क पर मुफ्त में संगीत सुना रहा तो अच्छा कलाकार नहीं होगा, यह गलत है. सफलता और प्रसिद्धि तो किसी के अपने हाथ में नहीं होती और कई बार जग प्रसिद्ध कलाकार भी सालों तक गुमनामी के अँधेरे में भटकते रहते हैं, जब अचानक प्रसिद्ध उनको छू लेती है और उसके बाद लोग खूब पैसा दे कर उसे सुनने देखने जाते हैं.

सच बात तो है कि अक्सर हमारे मन में लोगों की कीमत सी लगती है, अगर कोई कह दे कि फलाँ आदमी प्रसिद्ध है या वैसा पुरस्कार पा चुका है तो अपने आप मन में उसकी जगह बन जाती है और उसकी तारीफ़े करते हैं और वही आदमी बिना नाम के बाहर मिले तो उसकी तरफ़ देखते भी नहीं.

मेरे विचार में जो प्रसिद्ध कलाकार हों, लोग जिनकी तारीफो़ के बड़े पुल बाँधते हों, उन्हें इस तरह गुमनाम हो कर अवश्य जनता का सामना करते रहना चाहिये, ताकि उनके पाँव धरती पर जुड़े रहें.

लंदन के पिकाडेल्ली स्टेशन पर संगीतकार (तस्वीर कुछ वर्ष पहले की है)

बोलोनिया की सड़क पर गायक

फेरारा में सड़क पर कला दिखाने वालो का महोत्सव

सोमवार, अप्रैल 09, 2007

भारतीय सीख

रोम से एक पुस्तक प्रकाशक ने सम्पर्क किया और पूछा कि क्या मैं एक पुस्तक की समीक्षा करना चाहूँगा? बोला कि वह मेरा इतालवी चिट्ठा पढ़ता है जो उसे अच्छा लगता है और चूँकि यह किताब एक भारतीय लेखक की है, वह चाहता है कि मैं इसके बारे में अपनी राय दूँ.

अच्छा, कौन है लेखक? मैंने उत्सुक्ता से पूछा, क्योंकि इटली में रहने वाला कोई भारतीय लेखक भी है यह मुझे मालूम नहीं था. पता चला कि कोई ज़हूर अहमद ज़रगार नाम के लेखक हैं जो कि कश्मीर से हैं और पश्चिमी उत्तरी इटली में सवोना नाम के शहर में रहते हैं जिन्होंने भारतीय कहानियों पर किताब लिखी है.

जब किताब मिली तो देख कर कुछ आश्चर्य हुआ, उस पर शिव, पार्वती और गणेश की तस्वीर थी. जब नाम सुना था और यह जाना था कि ज़हूर कश्मीर से हें तो मन में छवि सी बन गयी थी कि अवश्य भारत विरोधी, कट्टर किस्म के व्यक्ति होंगे. किताब पढ़नी शुरु की तो बहुत अच्छी लगी. अहमद, किताब का हीरो लखनई रेलवे स्टेशन पर फ़ल बेचता है और माँ की चुनी लड़की से विवाह के सपने भी, पर अचानक एक दिन स्टेश्न पर उसकी मुलाकात एक व्यास गिरी नाम के साधू से होती है और वह सब कुछ छोड़ कर यात्रा पर निकल पड़ता है. अलग अलग शहरों में उसकी मुलाकात विभिन्न लोगों से होती है और यात्रा की कहानी में अन्य कई कहानियाँ जुड़ती जातीं हैं पर उसे किस चीज़ की तलाश है यह वह समझ नहीं पाता.

उनके बारे में खोज की पता चला कि वह उत्तर पश्चिमी इटली के लिगूरिया प्रदेश में मुस्लिम एसोशियेशन के अध्यक्ष हैं. ऐसी एसोशियोशनों और उनसे जुड़े लोगों के बारे में मन में जो तस्वीर थी उसमें लेखक ज़हूर फिट नहीं बैठता था. अंतर्जाल पर उनके लिखे कुछ लेख पढ़े जिसमें उनका उदारवादी, आधुनिक मुस्लिम दृष्टिकोण झलकता था तो उनसे ईमेल के द्वारा सम्पर्क किया.
परसों रात को अचानक उनका टेलीफ़ोन आया, बोले, बोलोनिया एक मीटिंग में आ रहा हूँ, क्या मिल सकते हैं?

तो कल उनसे मुलाकात भी हुई. श्रीनगर से हैं वह और भारत में उनकी सोने के गहनों की दुकाने थीं. पत्नी उनकी इटालवी हैं और जब कश्मीर में हालात बिगड़े तो वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ यहाँ इटली में आ गये और करीब बीस साल से यहीं रहते हैं. बिसनेस के साथ साथ उन्होंने लिखना भी शुरु किया और कई किताबें छप चुकीं हैं. कहते हें कि पहले उर्दू में लिख कर उसका इतालवी में अनुवाद करते थे पर अब तो सीधा ही इतालवी में लिखते हैं.

बोले कि वह बोलोनिया इतालवी राष्ट्रीय मुस्लिम एसोसियेशन की मीटिंग में आये थे और उनका ध्येय है कि वृहद मुस्लिम समाज को भारतीय ध्रमों के साथ मिल जुल कर रहने के बारे में बता सकें. "मैं बहुत धार्मिक नहीं हूँ, जिस परिवार में पैदा हुआ हमें यही सिखाया गया कि सभी धर्मों का आदर करो, साथ पढ़ने वालों में हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, सभी धर्मों के लोग थे. मुसलमान परिवार में पैदा हुआ तो मुसलमान हो गया, किसी और धर्म के परिवार में पैदा होता तो कुछ और बन जाता, तो फ़िर धर्म को ले कर इतने झगड़े क्यों? अरब देशों वाले लोगों ने सिर्फ इस्लाम देखा है, यहाँ इटली वालों ने सिर्फ कैथोलिक धर्म देखा है, इन्हें भारत जैसा अनुभव नहीं कि कैसे विभिन्न धर्म वाले साथ साथ रहें और हम भारतीयों को दुनिया को यह बताना है, अपना तरीका सिखाना है. इसीलिए मैं इस एसोशियेशन में आया हूँ और मैं सब से अपनी बात स्पष्ट कहता हूँ, कोई डर नहीं मुझे."

ज़हूर बहुत अच्छे लगे मुझे. शायद फ़िर उनसे अगली बार मिल कर उनके बारे में और जानने का मौका मिलगा. जाते जाते अगली बार मीटिंग में आने पर मिलने का वादा भी किया है उन्होंने.


रविवार, अप्रैल 01, 2007

मूल्यों की टक्कर

कोर्स में हम अठारह लोग थे. बहुत समय के बाद मुझे विद्यार्थी बनने का मौका मिला था वरना तो हमेशा मुझे कोर्सों में पढ़ाने की ज़िम्मेदारी ही मिलती है. हमारे कोर्स की शिक्षिका थीं मिलान के एक कोओपरेटिव की अध्यक्ष, श्रीमति फ्लोरियाना और कोर्स का विषय था गुट में अन्य लोगों के साथ मिल कर काम करने की कठिनाईयाँ.

बात आई सिमुलेशन की यानि यथार्थ में होने वाली किसी घटना की नकल की जाये जिससे हमें अपने आप को और अपने व्यवहार को समझने का मौका मिले. मिल कर यह निर्णय किया हमने कि घटना हमारे काम से अधिक मिलती जुलती नहीं होनी चाहिये बल्कि कालपनिक जगत से होनी चाहिये जिससे हम साथ काम करने वालों को यह न लगे कि हमारे विरुद्ध कुछ कहा जा रहा है.

घटना थी कि हम सब लोग मिल कर एक जहाज़ में यात्रा कर रहे हैं. एक दिन अचानक तेज तूफान आता है जिसमें जहाज़ को कुछ नुक्सान होता है, जहाज़ का रेडियो भी खराब हो जाता है जिससे बाहरी जगत से हमारा सम्पर्क टूट जाता है और हम समझ नहीं पाते कि हम कहाँ पर हैं. खैर तूफान के बाद रात को हम सब लोग जान बचने की खुशी कर रहे होते हैं कि अचानक दूसरा तूफान आ जाता है, जो पहले तूफान से अधिक तेज है और जिसकी वजह से जहाज़ टूटने सा लगता है, पानी अंदर आने लगता है. अब हमें अपनी जान बचाने के लिए एक छोटी सी नाव में हम सब लोग सवार हो जाते हैं. नाव में हम सब लोग तो आ जाते हें पर साथ में सामान ले जाने की जगह नहीं है और यह निर्णय लेना है कि कौन सी एक चीज अपने साथ ले जायी जाये.

हम लोगों की बहस शुरु हो गयी कि किस चीज को ले जाये. कुछ कहते कि हमें साथ खाने के सामान और पानी वाला डिब्बा साथ ले जाना चाहिये, कुछ बोले कि औजारों का डिब्बा लेना चाहिये, कुछ ने कहा कि कंबल लेने चाहिये और कुछ ने कहा कि हमें जहाज में रहने वाले एक कुत्ते को साथ लेना चाहिये. बहस करते करते, एक दूसरे से अपनी बात मनवाने में हम लोग बहुत उत्तेजित भी हो गये, कुछ लोग चिल्लाने लगे या ऊँची आवाज में बात करने लगे. बहुत देर तक बात करते करते, समय बीत गया, अगर हमें अपनी जान बचानी थी तो कुछ न कुछ निर्णय लेना था वरना नाव के साथ हम भी डूब जाते, तो सब लोग मान गये कि खाने वाले डिब्बा लेना चाहिये पर कुत्ता ले जाने की माँग करने वाले दो लोगों ने कहा कि वह कुत्ते को छोड़ कर नहीं जायेंगे और जहाज़ में ही रहना पंसद करेंगे.

जब यह सिमुलेशन समाप्त हुआ तो हमने यह समझने की कोशिश की कि किस तरह निर्णय लिये जाते हैं, कैसे हम लोग एक दूसरे पर अपनी बात मनवाने के लिए जोर डालते हैं, क्यों हम अंत में एक निर्णय पर आने में असफल रहे, इत्यादि. फ्लोरियाना का कहना था कि जब झगड़ा हमारे भीतर के आधारगत मूल्यों पर होता है तो एक दूसरे को समझना आसान नहीं होता और अपनी जिद की बात को छोड़ने में बहुत सी कठिनाई होती है. हमारे झगड़े में दो आधारगत मूल्य थे, एक तरफ मानव का अपना जीवन बचाने की जरूरत और दूसरी ओर, कुत्ते की जान के साथ सभी जीवित प्राणियों की जान की कीमत का सवाल. जब इस तरह से मूल्यों की टक्कर होती है तो कोई भी यह मानने को तैयार नहीं होता कि वह कुछ समझौता कर ले. फ्लोरियाना बोली कि धर्मों के झगड़े अक्सर इसी तरह मूल्यों की टक्कर के झगड़े होते हें उसमे हर कोई यही सोचता है कि वह ठीक है और दूसरे के सोचने की तरीके को नहीं समझ पाता.

कोर्स समाप्त हुआ तो अच्छा लगा कि मानव मन को समझने का नया तरीका मिला, पर साथ ही कुछ निराशा भी, कि अगर हमारे झगड़े इस तरह मूल्यों के झगड़े हों तो हम लोग साथ प्रेम से रहना कैसे सीखेंगे?

बुधवार, मार्च 21, 2007

कबूतर और कौए

शाम को कुत्ते के साथ सैर से वापस आ रहा था कि बैंच पर चिपके कागज़ को देख कर रुक गया. बाग में पत्थर के कई बैंच बने हैं जहाँ गरमियों में लोग शाम को बाहर बैठ कर अड़ोसियों पड़ोसियों से गप्प बाजी करते हैं.

कागज़ पर लिखा था, "मैं रोज़ यह बैंच साफ करती हूँ ताकि हम लोग यहाँ बैठ कर बातचीत कर सकें, पर कबूतरों की बीट से यह इतना गन्दा हो जाता है कि सफाई करना कठिन हो गया है. मैंने पहले भी इस बारे में कहा था पर शाँति से कोई बात की जाये तो शायद समझ में नहीं आती. तो मुझे अन्य तरीके भी आते हैं. कबूतरों को खाना देना कानूनी जुर्म है. एक औरत को इसके लिए 500 यूरो का जुर्माना देना पड़ा था. मैं भी पुलिस में रिपोर्ट कर सकती हूँ."

पढ़ कर थोड़ी सी हँसी आई. कुछ कबूतरों की बीट के लिए इतना तमाशा! अगर आप कभी अपार्टमेंट में रहे हैं तो साथ रहते हुए पड़ोसियों के झगड़े छोटी छोटी बात पर भी कितने बढ़ सकते हें, इसका अंदाज़ा आप को हो सकता है. जहाँ हम रहते हैं वहाँ भी कुछ न कुछ झगड़े चलते ही रहते हैं. अभी तक रात को शोर मचाने का, ऊपर बालकनी से कालीन झाड़ने का और नीचे वालों के घर गंदा करने का, पार्किग में बाहर के लोगों की कार रखने का, बिल्लियों को खाना दे कर बढ़ावा देने का, आदि झगड़े तो सुने थे, पर यह कबूतरों की बात अनोखी लगी.

आगे बढ़ा तो एक पेड़ पर एक और कागज चिपका था. उस पर लिखा था, "सब लोग मुझे ही दोष देते हैं. पर मैं बेकसूर हूँ और मैंने कभी कबूतरों को खाना नहीं दिया. जो भी कबूतरों को खाना देता है उससे अनुरोध है कि वह यह न करे क्योंकि बाद में सब मुझसे ही झगड़ते हैं."

यह सच है कि इटली में बहुत से शहरों में सरकार कहती है कि कबूतरों को कुछ खाने को न दें क्योंकि उनकी संख्या बढ़ती जा रही है, वह गंदगी फ़ैलाते हैं और सफाई करने वालों को बहुत दिक्कत होती है. वेनिस में रहने वाले मेरे एक इतालवी पत्रकार मित्र को कबूतरों से बहुत चिढ़ है. दफ्तर में उसकी खिड़की के पास कोई कबूतर बैठने की हिमाकत करे तो चिल्लाने लगता है, "भद्दे गंदे जानवर!"

दूसरी और पर्यटकों को इटली के कबूतर बहुत अच्छे लगते हैं और वेनिस, मिलान जैसे शहरों में कई जगह पर कबूतरों को देने के लिए मक्की के दाने के पैकेट मिलते हैं, जैसे ही आप दानों को हाथों में लेते हैं, कबूतर आप के कँधों, हाथों पर बैठ कर चोंच से दाने छीन लेते हैं. वेनिस का सन मार्को गिरजाघर और मिलान का दूओमो इसके लिए हमेशा कबूतरों की फोटो खींचने वाले पर्यटकों से भरे रहते हैं.

****

एक जर्मन पत्रिका में जापान में रहने वाले फ्लोरियन कूलमास का जापान की राजधानी टोकियो के बारे में एक लेख पढ़ा जिसमें लिखा है कि टोकियो में कौओं की बहुत मुसीबत है और टोकियोवासी बहुत परेशान हैं कि कैसे इन कौओं की संख्या कम करने का कोई उपाय खोजा जाये. वह लिखते हैं, "कोलतार की तरह काले, चाकू की तरह तेज धार वाली चोंच वाले कौए जब पँख फैलायें तो एक मीटर भी अधिक चौड़े होते हैं और देख कर ही डर लगता है. पंद्रह साल पहले टोकियो में करीब सात हजार कौए थे आज करीब पचास हजार. टोकियोवासियों में कोओं की समस्या की बहुत चिंता है. कूड़े के थैलों को चोंच मार कर खोल लेते हैं, जिसका उपाय यह निकाला गया है कि कूड़ा पीले थैलों में रखा जाये क्योंकि यह कहा जाता कि कौओं को पीला रंग नहीं दिखाई देता. फ़िर यहाँ भूचाल के डर से सभी तारें आदि ज़मीन में नहीं गाड़ी जाती बल्कि ऊपर खँबों पर लगायी जाती हैं, तो कौओं को मालूम चल गया कि तीव्रगति वाले इंटरनेट के संचार के लिए जो ओपटिकल केबल लगाये गये हैं उनमें बिजली का धक्का लगने का खतरा नहीं होता इसलिए वे चोंच मार-मार कर उस पर से प्लासटिक को उतार लेते हैं और उसे अपने घौंसलों में लगाते हें ताकि घौंसले पानी से गीले न हों, जिसकी वजह से अक्सर लोगों के इंटरनेट के क्नेक्शन खराब हो जाते हैं."

यानि कहीं कबूतरों का रोना है तो कहीं कौओं का!

****

कुछ तस्वीरें वेनिस और मिलान के कबूतरों की.








शनिवार, मार्च 17, 2007

परदे के पीछे औरत

पामबज़ूका पर कमीलाह जानन रशीद का हिजाब (मुस्लिम औरतों का सिर ढकना) के बारे में लेख पढ़ा. कमीलाह अमरीकी-अफ्रीकी हैं और मुस्लिम हैं, और आजकल दक्षिण अफ्रीका में जोहानसबर्ग में पढ़ रही हैं. कमीलाह लिखती हैं:

मुझे यह साबित करने में कोई दिलचस्पी नहीं है कि मैं स्वतंत्र हूँ या फ़िर अमरीका में हिजाब पहन कर मैं कोई बगावत का काम कर रही हूँ... लोगों को यह यकीन दिलाना कि हिजाब मेरे सिर से ओपरेशन करके चिपकाया नहीं गया है, इसमें भी मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है... मेरा काम है यहाँ वह लिखूँ जो इस बात को खुल कर समझा सकें कि जिन लोगों ने मेरी मुक्ती की ठानी है और जो सोचते हैं कि मेरा दमन हो रहा है, वही लोग कैसे मेरा दमन करते हैं. ऐसा दमन जो हिजाब से नहीं होता, उनके मेरे बारे में सोचने से होता है क्योंकि वे मुझे अपनी मानसिक जेलों में बंद नज़रों से देखते हैं. यह कह कर कि हिजाब पहनने से मैं केवल दमन का प्रतीक बनी हूँ, आप उन्हीं पृतवादी समाजों को दृढ़ कर रहे हैं, जिनसे आप नफरत करने का दावा करते हैं. आप ने मुझे अपनी कल्पना के पिंजरे में कैद किया है और बाहर निकलने का मेरे लिए केवल एक ही रास्ता है कि मैं आप की बात को स्वीकार करूँ और आप की बात को सदृढ़ करूँ कि हाँ मैं दमनित हूँ.

अगर मैं कहती हूँ कि मैं हिजाब पहन कर भी मजे में हूँ और कोई बँधन नहीं महसूस करती, तो आप मुझसे इस तरह क्यों बात करने लगते हैं मानो कि मैं कोई बच्ची हूँ? आप मुझे यह यकीन क्यों दिलाना चाहते हें कि नहीं मैं धोखे में जी रही हूँ, ऐसा धोखा जिसमें मुझे स्वतंत्रा और दमन में अंतर समझ नहीं आता? सवाल यह कभी नहीं होता कि "कमीलाह का दमन हो रहा है?", क्योंकि मुझे मालूम है कि यह प्रश्न मेरे भले बुरे को सोच कर नहीं पूछा जा रहा...

कमीलाह का लेख पढ़ कर सोच रहा था, मानव जीवन में वस्त्रों के महत्व के बारे में. जैसे बातों से, भावों से और इशारों से हम लोग औरों से अपनी बात कहते हैं, वस्त्रों के माध्यम से भी कुछ कहते हैं. चाहे धोती कुरता पहने हों, या सूट और टाई, मिनी स्कर्ट हो या साड़ी, हमारे वस्त्र बिना कुछ कहे ही लोगों को हमारे बारे में कहते हैं. और कमीलाह का गुस्सा मुझे लगता है कि इसी बात से है कि वह अपने हिज़ाब के माध्यम से जो कहना चाहती है, बहुत से लोग उसे समझ नहीं पाते या गलत समझते हैं. यानि प्रश्न यह है कि क्यों मुस्लिम युवतियों के द्वारा सिर को ढकने को दमन और मुस्लिम रूढ़ीवाद का का प्रतीक माना जाने लगा है?

हिंदुस्तानी घर में नयी दुल्हन का घूँघट या फ़िर सास ससुर के सामने सिर ढकना, क्या वह भी दमन के चिन्ह ही हैं?
धर्म के नाम पर समाज को छोड़ने वालों की बात भी अलग है. साधू और साधवियाँ जब जटा बाँध लेते हैं या सिर मुडा लेते है और गेरुआ पहनते हैं तो क्या वह भी दमन के चिन्ह हैं? क्या केथोलिक ननस का सिर ढकना और तन ढकने वाली पोशाक पहनना भी दमन हैं? और इनमे तथा मुस्लिम युवतियों द्वारा हिजाब या बुरका पहनने में क्या अंतर है?

बुरका पहनने वाली सभी औरतें क्या दमनित होती हैं? बचपन में पुरानी दिल्ली के जिस भाग में बड़ा हुआ था वहाँ बुरका पहनने वाली औरतें दूर से दिखने वाली तस्वीरें नहीं थीं बल्कि हाड़ मास की मानस थीं. उनमें से पति की मार खाने वाली औरतें भी थीं और पति से न दबने वाली भीं.

मेरे विचार में अहम प्रश्न और शायद असली फर्क की बात है अपनी स्वेच्छा से कुछ करना या फ़िर कुछ करने के लिए मजबूर होना. पर शायद विषेश समाज और संस्कृति में पलने बड़े होने से "स्वेच्छा" कम स्वतंत्र होती है?

जैसे जो बात पुरानी दिल्ली में सही लगती हो, या घर में सास ससुर के सामने सही लगती हो, वह यूरोप में अजीब लगती है. कमीलाह कुछ भी कहें, योरोप में जब गर्मियों में हर जाति और देश के बच्चे और पुरुष अधनँगे घूमते हैं, यूरोपीय लड़िकयाँ और औरतें कम से कम कपड़ों में घूमती हैं, और उनके बीच में निक्कर पहने या बिना बाजू की कमीज पहने मुस्लिम पुरुष के साथ बुरके में सिर से पाँव तक ढकी स्त्री को देख कर अजीब सा लगना स्वाभाविक सा है.

कमीलाह जब कहती हैं कि हिजाब के पीछे वह सुरक्षित महसूस करती हैं और उसे अपने धर्म का पालन करना मानती हैं तो क्या इसका अर्थ है कि उनके समाज में पुरुष अधिक असभ्य हैं, जिन पर भरोसा नहीं किया जा सकता और जिनकी वजह से औरतें सुरक्षित नहीं हैं? मुझे तस्लीमा की बात सही लगती है कि सब बुरके, हिजाब, सिर ढकने वाले कपड़े, पृतवादी समाज के द्वारा स्त्री को दबाने के अलग अलग तरीके हैं, इसलिए भी कि यह आप को क्या पहने या न पहने को चुनने की स्वतंत्रता नहीं देता. ढाका में इतालवी दूतावास में काम करने वाली एक इतालवी युवती ने मुझे बताया था कि वह एक बार घुटने तक की पैंट पहन कर दूतावास से बाहर निकलीं तो लड़कों ने उन्हें पत्थर मारे. यानी उनका कहना था कि यहाँ रहना है तो हमारे तरीके से कपड़े पहनो.

प्रसिद्ध इतालवी लेखिका ओरियाना फालाची नें अपने अंतिम वर्षों में इस बात पर बहुत बहस की थी. उनका कहना था कि, "अगर आप बँगलादेश, पाकिस्तान, साऊदी अरेबिया या ईरान जैसे देशों में जायें तो आप को कहा जाता है कि आप सिर से पाँव तक अपने को ढकिये, क्योंकि यह वहाँ की सभ्यता है. पर जब वहाँ के लोग हमारे यहाँ यूरोप में आते हें तो क्यों अपने ही वस्त्र पहनने की माँग करते हैं, औरतों को काली चद्दर के पिंजरे में बाँध कर बाहर ले जाना मुझे औरत की बेइज्जती लगती है तो वह कहते हैं कि हमें विभिन्न सभ्यताओं का सम्मान करना चाहिये और यह उनका धर्म है, तो यह विभिन्न सभ्यताओं का सम्मान अपने देशों में क्यों भूल जाते हैं? सच तो यह है कि पिछड़े हुए रूढ़िवादी मानसिकता वाले यह लोग, हमारे घर में आ कर हमें कहते हें कि हमारी सभ्यता गलत है, केवल इनकी सभ्यता सही है और हमें भी अपनी औरतों को परदे में बंद करना चाहिये." "इंशाल्लाह" जैसी किताब लिखने वाली ओरियाना मुस्लिम सभ्यता की गहन शौधकर्ता थीं पर अपने जीबन के अंतिम वर्षों में कैंसर के साथ साथ लड़ते लड़ते, उन्होने रूढ़िवादी मुस्लिम समाज के विरुद्ध लिखना शुरु किया और सभाओं में बात की.

एक बार फ्राँस में रहने वाली दो युवतियों का अखबार में साक्षात्कार पढ़ा था जिसमें उन्होंने कमीलाह जैसी बात की थी, उनका कहना था कि परदा उनकी अपनी मरजी से है, कोई जोर जबरदस्ती नहीं है. पर मेरी जान पहचान के दो पाकिस्तानी परिवार जब अपनी पत्नियों को बिना किसी पुरुष के साथ न होने से घर से बाहर नहीं निकलने देते, कहते हैं कि इन्हें काम करने की आवश्यकता नहीं, इन्हे कार चलाना सीखने की आवश्यकता नहीं, तो यह सब बातें परदा करने वाली मानसिकता से जुड़ी लगती हैं. उन्हीं से मिलता जुलता जान पहचान का दो हरियाणवी भाईयों का परिवार भी है जो बहुत सी बातों में वैसा ही सोचते हैं और उनके घर की स्त्रियाँ यहाँ यूरोप में रह कर भी वैसे ही रहती हैं मानों भारत के किसी गाँव में रह रहीं हो. वह अपने मन में दमनित महसूस करती हैं या नहीं, यह किसे मालूम होगा, और किससे कहेंगी? क्या अकेले में खुद से कह पायेंगी यह?





बुधवार, मार्च 07, 2007

बदलते हम

1966-67 की बात है, तब हम लोग दिल्ली के करोलबाग में रहने आये थे. मेरे कामों में सुबह और शाम को दूध लाने का काम की जिम्मेदारी भी थी. यह "श्वेत क्राँती" वाले दिनों से पहले की बात है जब दिल्ली में दिल्ली मिल्क सप्लाई के डिपो होते थे और काँच की बोतलों में दूध मिलता था. नीले रंग के ढक्कन वाला संपूर्ण दूध, सफेद और नीली धारियों के ढक्कन वाला हाल्फ टोन्ड यानि जिसमें आधा मक्खन निकाल दिया गया हो, और हल्के नीले रंग के ढक्कन वाली बिना मक्खन वाला दूध. गिनी चुनी दूध की बोतलों के क्रेट आते और बूथ खुलते ही आपा धापी मच जाती, थोड़ी देर में ही दूध समाप्त हो जाता और देर से आने वाले, बिना दूध के घर वापस जाते.

दूध पक्का मिले इसके लिए डिपो खुलने के कुछ घँटे पहले ही उसके सामने लाईन लगनी शुरु हो जाती. यानि सुबह चार बजे के आसपास और दोपहर को तीन बजे के आसपास. सुबह सुबह उठ कर डिपो के सामने पहले अपना पत्थर या खाली बोतल रखने जाते फ़िर, डिपो खुलने से आधा घँटा पहले वहाँ जा कर इंतज़ार करते. उसी इंतज़ार में अपने हमउम्र बच्चों के साथ खेलने का मौका मिलता. पहले जहाँ रहते थे, वहाँ सभी बच्चे हमारे जैसे ही थे, निम्न मध्यम वर्ग के, पर करोलबाग में बात अलग थी. यहाँ लोग कोठियों में रहने वाले थे, हर घर में एक दो नौकर तो होते ही थे और दूध लाने का काम अधिकतर छोटी उम्र के नौकर ही करते.

उनके साथ रोज खेल कर ही जाना बचपन में काम करने वाले बच्चों के जीवन को. किशन, राजू, टिम्पू मेरे दूध के डिपो के खेल के साथी थे. किसकी मालकिन कैसी है यह सुनने को मिलता.

एक दिन खेल रहे थे कि किशन ने मुझसे पूछा, "तुम किस घर में काम करते हो?" तो सन्न सा रह गया. मैं नौकर नहीं हूँ, सोचता था कि यह बात तो मेरे मुख पर लिखी है, मेरे कपड़ों में है, मेरे बोलने चालने में है. "मैं नौकर नहीं हूँ!" मैंने कुछ गुस्सा हो कर कहा और किशन से दोस्ती उसी दिन टूट गयी. मुझे लगा कि उसने वह प्रश्न पूछ कर मेरा अपमान किया हो. पर मन में एक शक सा बैठ गया और हीन भावना बन गयी कि शायद बाहर से मैं भी गरीब नौकर सा दिखता हूँ.

****

बात 1978-79 की होगी. मैं तब डा. राम मनोहर लोहिया अस्पताल में पढ़ रहा था. एक दिन काम से शाम को अस्पताल से लौट रहा था तो एक बच्चे को उठाये एक भिखारन समाने आ कर खड़ी गयी, भीख माँगते हुए बोली, "साहब जी, बहुत भूख लगी है."

पहली बार थी किसी ने साहब जी कहा था. अचानक मन में दूध के डिपो पर हुई किशन की बात याद आ गयी और मन में संतोष हुआ कि शायद अब बाहर से उतना गरीब नहीं लगता.

****

1982 की बात होगी, मैं इटली में रहता था और भारत आया था. रफी मार्ग से पैदल जा रहा था कि किसी ने पीछे से पुकारा, "सर, डालर चैंज, डालर चेंज! वेरी गुड रेट सर."

मन में आश्चर्य हुआ कि उसने कैसे जाना कि मैं विदेश से आया था? क्या मेरी शक्ल बदल गयीं थी या चलने का तरीका बदल गया था? सैंडल पहने हुए थे, और कँधे पर झोला टँगा था, अपने आप में तो मुझे कोई फर्क नहीं लग रहा था, पर कुछ था जो बदल गया था?

****

1996 की बात है, मैं और मेरी पत्नी हम बम्बई में चर्चगेट के पास जा रहे थे. भारत में छुट्टियों में गये थे. पेन बेचने वाला पीछे लग गया. "अँकल जी ले लो प्लीज, मेरी कोई बिक्री नहीं हुई." घूम कर देखा तो कोई बच्चा नहीं था, अच्छा खासा नवजवान. क्या मैं इतने बड़े का अंकल लगता हूँ?

मन में अजीब सा लगा. तब तक भाई साहब सुनने को तो मिलता था पर पहली बार कोई व्यस्क मुझे अंकल जी कह कर बुला रहा था.

जब वापस होटल पहुँचे तो शीशे में अपना चेहरा देखा. हाँ इतने सफेद बाल तो होने लगे थे कि अंकल बुलाया जाऊँ!

****

कल मिलान में मारियो नेग्री इंस्टीट्यूट में स्नाकोत्तर छात्रों को पढ़ाने गया था. कक्षा समाप्त होने पर वापस मिलान रेलवे स्टेशन जा रहा था जहाँ से बोलोनिया की रेल पकड़नी थी. बस में चढ़ा तो बस भरी हुई थी. जहाँ खड़ा हुआ, वहाँ बैठा लड़का खड़ा हो गया और मुझसे बोला कि यहाँ बैठ जाईये.

यह भी पहली बार ही हुआ है कि कोई बैठा हुआ मुझे अपनी जगह दे कर बैठने के लिए कहे! अब सारे बाल सफेद होने लगे हैं शायद इसीलिए उसने सोचा हो कि बूढ़े को जगह दे दो? या फ़िर पढ़ा कर बहुत थका हुआ लग रहा था?

शुक्रवार, मार्च 02, 2007

मेरी प्रिय महिला चित्रकार (2) - अमृता शेरगिल (1)

भारत की शायद सबसे प्रसिद्ध महिला चित्रकार अमृता शेरगिल, भारत से बाहर कला विशेषज्ञों में उतनी पसिद्ध नहीं हैं, पर भारतीय कला क्षेत्र में उनका प्रभाव बहुत महत्वपूर्ण रहा है. भारतीय विषयों, विशेषकर सामान्य स्त्रियों और गरीबों के जीवन पर बने उनके चित्र में पाराम्परिक पश्चिमी कला शैली को भारतीय परिवेश में ढालने का काम जब उन्होंने बीसवीं सदी के तीसरे दशक में प्रारम्भ किया तो वह भारतीय कला क्षेत्र के लिए नवीनता थी. भारतीय कला क्षेत्र में अपना नाम बनाने और प्रसिद्धि पाने वाली वह पहली महिला थीं.

अमृता का जन्म 30 जनवरी 1913 में हँगरी की राजधानी बुदापस्ट में हुआ. उनके पिता सरदार उमराव सिंह अमृतसर के पास मजीठा से थे और पंजाब के राजसी घराने से सम्बंध रखते थे. उनकी रुचि साहित्य, आध्यात्मिकता, कला आदि क्षेत्रों में थीं. 1911 में उनकी मुलाकात हँगरी की मेरी अन्तोनेत्त से हुई जो महाराजा रंजीत सिंह के पोती राजकुमारी बम्बा के साथ भारत आईं थीं. उमराव सिंह ने अन्तोनेत्त से विवाह किया और विवाह के बाद पत्नी के साथ हँगरी चले गये जहाँ उनकी दो बेटियाँ हुई, अमृता और इंदिरा. वे दिन प्रथम विश्व महायुद्ध के थे और उन वर्षों में भारत यात्रा करना कठिन था. युद्ध की वजह से ही हँगरी में परिवार की आर्थिक हालत बहुत अच्छी नहीं थी.



सरदार उमराव सिंह


मेरी अन्तोनेत्त


अमृता और इंदिरा
1921 में जब अमृता 7 वर्ष की थीं, वह पहली बार भारत आयीं.

अमृता के पिता अगर गम्भीर व्यक्तित्व के थे तो माँ लोगों से मिलने जुलने वाली, पार्टियों में जाने वाली, और पति पत्नी में अक्सर न बनती, माँ को अक्सर उदासी के दौरे पड़ते, आत्महत्या करने की धमकी देतीं, जिन सबका अमृता पर बहुत असर पड़ा.
1923 में अन्तोनेत्त की मुलाकात एक इतालवी मूर्तिकार से हुई जिनसे शायद उनके सम्बंध थे. उमराव सिंह से कहा गया कि वे अमृता को चित्रकला सिखाते हें. जब वे इटली वापस गये तो उनके पीछे पीछे अन्तोनेत्त भी बेटी अमृता को ले कर इटली आयीं, यह कह कर कि उनकी चित्रकार बेटी को कला की सही शिक्षा चाहिये. जनवरी 1924 में 11 वर्ष की अमृता ने फ्लोरेंस का सांता अनुंज़ियाता विद्यालय में दाखिला लिया. कुछ समय के बाद जब मूर्तकार और अन्तोनेत्त के सम्बंध बिगड़े तो माँ बेटी वापस भारत लौट आयीं. स्वतंत्र घूमने और अपनी मर्जी से सब काम करने वाली अमृता को इटली के नन द्वारा चलाये विद्यालय का रोक रुकाव और नियमों में बंधा जीवन बिल्कुल अच्छा नहीं लगा. उस समय तक अमृता बहुत चित्र बनाने लगीं थीं पर उनके चित्रों के विषय अधिकतर पाराम्परिक यूरोपीय शैली के होते थे.


सांता अनुंज़ियाता विद्यालय

भारत में उन्हें शिमला के एक कोनवेंट स्कूल में डाला गया, जहाँ भी वह खुश नहीं थीं और जहाँ से कुछ समय के बाद उन्हें निकाल दिया गया. 1927 में अमृता के हँगरी से माँ की तरफ के एक रिश्तेदार भारत आये, श्री एर्विन बक्टे जो चित्रकार थे और जिन्होने अमृता को जीते जागते आसपास के लोगों के चित्र बनाने की सलाह दी. इस तरह घर के नौकर चाकर, पड़ोसियों आदि से अमृता ने पहली बार भारतीय विषयों पर चित्र बनाना शुरु किया. 1929 में जब अमृता 16 वर्ष की थीं तो उनकी माँ ने उन्हें पेरिस में कला शिक्षा दिलाने की सोची. अमृता ने जल्दी ही फ्राँसिसी भाषा सीख ली और उनका व्यक्तित्व बदल गया, वह पार्टयों में जाने लगे, कलाकारों, लेखकों के साथ समय बिताने लगीं. पेरिस के कला विद्यालय से शिक्षा के साथ साथ यह उनका अपना जीवन अपनी तरह से जीने का समय था जिसे उन्होंने फ़िर दोबारा नहीं छोड़ा. पेरिस में एक पंजाबी रईस से उनका विवाह भी तय हुआ पर अमृता ने वह विवाह तोड़ दिया.

1934 में कला शिक्षा पूरी होने के बाद अमृता भारत लौट आई. तब तक उनके जीवन के बारे में बातें फैलने लगीं थीं कि वह स्वछंद किस्म की हैं, स्वतंत्र यौन सम्बंधों में विश्वास रखती हैं, विवाह नहीं करना चाहतीं, आदि और उनके पिता चाहते थे कि वे भारत न आयें बल्कि यूरोप में ही रहें, पर अमृता ने ठान लिया कि भारत ही उनका देश था और वापस आ कर उन्होंने भारतीय विषयों पर ही चित्र बनाने शुरु किये. कहा जाता है कि वह कई बार माँ बनने वाली थीं पर उन्होने बच्चा गिरा दिया. पहले कुछ दिन मजीठा की हवेली में रह कर, वह शिमला आ गयीं. इन वर्षों में वह भारत में बहुत जगह घूमीं.




1938 में वह हँगरी गयीं जहाँ उन्होंने अपने एक रिश्तेदार डा. विक्टर एगान से विवाह किया.हँगरी में उन्होंने करीब एक साल बिताया जिसके दौरान उन्होंने फ़िर से यूरोपीय विषयों पर चित्र बनाये. 1939 में जब द्वितीय महायुद्ध शुरु हो रहा था वह पति के साथ भारत लौटीं. शिमला में कुछ समय बिता कर उन्होने कुछ समय उत्तरप्रदेश के गौरखपुर जिले में बिताया और फ़िर वह लाहौर में रहने लगीं जहाँ 5 दिसंबर 1941 में 28 वर्ष की आयु में अमृता का देहांत हुआ. अमृता के जीवन के बारे में उनकी छोटी बहन इंदिरा के पुत्र विवेन संदरम ने लिखा है.

प्रसिद्ध भारतीय लेखक खुशवंत सिंह लाहोर के दिनों की अमृता को जानते थे और अपने एक लेख में अमृता के स्वछंद जीवन और स्वतंत्र यौन सम्बंध बनाने के बारे में उस समय की चर्चाओं के बारे में लिखा है और जिसमें वह अमृता के मुँहफट स्वभाव के बारे में बताते हैं. उनका कहना है कि अमृता की मृत्यु के बारे में चर्चा थी कि वह उस समय गर्भवति थीं, बच्चा नहीं चाहतीं थी और उनके पति ने घर में ही गर्भपात का आपरेश्न किया जिसमें बहुत खून बहने से वह मरीं.

अगले भाग में अमृता शेरगिल की कला के बारे में.



अमृता शेरगिल आत्मप्रतिकृति

लोकप्रिय आलेख