शनिवार, सितंबर 10, 2005

ग्रीशम बोलोनिया में

कल जाह्न ग्रीशम (John Grisham) बोलोनिया विश्वविद्यालय आये और हम भी उन्हे देखने सुनने गये. करीब एक हजार साल पुराना "सांता लूचिया हाल" जो हैरी पोटर फिल्मों का डाइनिंग हाल जैसा लगा है, ठसाठस भरा था, खड़े होने की जगह नहीं थी. ग्रीशम ने अपने नये उपन्यास "द बरोकर" (The Broker) के बारे में बात की, अपने फिल्मकार होने के अनुभव के बारे में बताया, अपने बेसबाल के कोच होने के अनुभव के बारे में कहा, अमरीकी राष्ट्रपति बुश, न्यू ओरलिओन्स के कटरीना तूफान और अमरीका में "फ्रीडम आफ एक्सप्रेशन" की बढ़ती हुई कमी आदि बातों पर अपने विचार प्रकट किये.

जो सवाल मैं उठाना चाहता था, आलोचकों का उन्हें साहित्यकार न मानने का, वह भी उठा. ग्रीशम गुस्से से बोले, "आलोचक जायें भाड़ में, मैं उनकी कुछ परवाह नहीं करता. जनप्रिय लेखन क्या होता है, उन्हें नहीं मालूम. पहले आलोचना करते थे कि मेरी हर किताब का एक जैसा फारमूला होता है, अब उन्हें यह एतराज है कि मैं फारमूला छोड़ कर भिन्न क्यों लिख रहा हूँ." यानि की भीतर भीतर से, आलोचकों के प्रति उनमें गुस्सा है हालाँकि वे परवाह न करने की कहते हैं.

एक अन्य सवाल का उत्तर देते हुए बोले "पिछले पंद्रह सालों में मैं बहुत भाग्यशाली रहा हूँ. २० करोड़ के करीब मेरी किताबें बिकी हैं और मुझे दुनिया का सबसे अधिक बिकने वाला लेखक कहते थे, जब तक हैरी पोटर नहीं आ गया ..."

पर उनकी सब बातों से अधिक तालियाँ तभी बजी जब उन्होंने हमारे शहर बोलोनिया के बारे में कहा. बोले, "पिछले साल जुलाई में पहली बार बोलोनिया आया. शहर को जानता नहीं था, पर इटली मुझे बहुत अच्छा लगता है, पहले भी कई बार आ चुका था अन्य मशहूर शहर देखने. मुझे एक ऐसे छोटे शहर की तलाश थी, जहाँ मेरा जासूस नायक छुप सके. जब मैंने नाज़ी और फासिस्ट शासन के खिलाफ लड़ने वाले शहीद हुए जवानों की फोटो से भरी दीवार देखी, उसने मेरे मन को छू लिया और मुझे इस शहर से प्यार सा हो गया."

आज की तस्वीरों में ग्रीशम और उन्हें सम्मान देते बोलोनिया के मेयस, श्री कोफेरातीः


शुक्रवार, सितंबर 09, 2005

दावत हो तो ऐसी

यह बात मुझे जितेंद्र के अझेल खाने की बात से याद आयी. मैं अक्सर यात्रा पर विभिन्न देशों में जाता हूँ. कई बार ओफिशियल खाना होता है जिसमे साथ में कोई मंत्री जी या मेयर या बड़े अधिकारी होते हैं, जिनके सामने कई बार ऐसी हालत हो जाती है कि न खाते बनता है, न उगलते. ऐसी घटनाओं का सबसे बड़ा फायदा यह है कि फिर जब कहीं गप्प बाजी हो तो मुझे सुनाने के लिए बढ़िया किस्सा मिल जाता है.

जिस दावत के बारे में सुना रहा हूँ वह १९९३ या ९४ की है. मैं विश्व स्वास्थ्य संघ की ओर से चीन मे गया था. देश के दक्षिण पश्चिम के राज्य ग्वीझू में अनशान के झरनों के पास एक छोटे से शहर में थे, जहाँ के मेयर ने हमें शाम की दावत का निमंत्रण दिया. यहाँ एक अल्पसाख्यिँक जनजाति के लोग रहते हैं. दावत के लिए एक छोटा सा नीचा गोल मेज़ था जिसके आसपास हम सब लोग घुटनों पर बैठे. मेरे बाँयीं तरफ मेयर जी थे. खाने का मुख्य भोज था एक मीट वाला सूप जिसे एक बड़े बर्तन में बीच में रखा गया. मेयर जी को मेरी बहुत चिंता थी, हाथ से चबर चबर मीट इत्यादि खा रहे थे, कोई अच्छा टुकड़ा दिखता तो उसे उन्हीं हाथों से उठा कर मेरी प्लेट में रख देते, और मुस्कुरा कर मुझे उसे चखने के लिए कहते और मेरी तरफ देखते रहते जब तक मैं उसे खाता नहीं.

सभी लोग मीट की हड्डियाँ निकाल फैंकने के चैम्पियन थे. मेज़ पर हड्डियाँ एकत्र करने के लिए कोई प्लेट नहीं थी, सभी लोग थोड़ा सा सिर घुमा कर, पीछे की तरफ हड्डियाँ थूक या फैंक रहे थे. पीछे हमारे आसपास कब्रीस्तान सा बन रहा था. जितनी बार मेयर जी पीछे मुड़ कर हड्डी फैंकते, कुछ थूक और हड्डियाँ मेरे जूतों पर गिरतीं.

खुद को बहुत कोसा कि कोई बहाना क्यों नहीं बनाया इस झंझट से बचने के लिए. पर अभी झंझट समाप्त नहीं हुआ था, जब नया पकवान आया. भुनी हूई मधुमक्खियाँ. उन्हो्ने मधुमक्खी को पूरा का पूरा, पँख समेत, ले कर भुना या तला था. देख कर बहुत जी घबराया पर सच कहुँ तो खाने में इतनी अजीब नहीं थीं, मुँह मे रखते ही घुल सी जाती थीं. दो तीन ही खायीं. मेरे साथ चीन स्वास्थ्य मंत्रालय की तरफ से सरकारी अनुवादक थे, उन्होंने ही मेरी जान बचायी, कहा कि हमें देर हो रही है और मेयर जी के चुंगल से निकाल लाये. वह स्वयं भी बेजिंग के रहने वाले थे और शायद जनजातियों के यहाँ खाये जाने वाले ऐसे पकवानों के आदि नहीं थे. आज भी उस दावत के बारे में सोचूँ तो भूख गुम हो जाती है.

आज की तस्वीरें दक्षिण पश्चिम चीन की जनजातियों की हैं.


गुरुवार, सितंबर 08, 2005

लेखक या साहित्यकार

कल अमरीकी लेखक जोह्न ग्रीशम (John Grisham) बोलोनिया विश्वविद्यालय में आने वाले हैं. उनकी नयी किताब, "द बरोकर" (The Broker), की कहानी हमारे शहर बोलोनिया में ही बनायी गयी है. लोग सोच रहे हैं कि शायद ग्रीशम की यह किताब पढ़ कर, हमारे शहर में कुछ अधिक पर्यटक आयेंगे. यहाँ रोम, वेनिस, फ्लोरेंस आदि शहरों के सामने, बेचारी बोलोनिया को कोई नहीं पूछता.

अगर मैं कोई सवाल पूछ सकूँ श्रीमान ग्रीशम से, तो वो यह होगा, "जब आलोचक आप को जनप्रिय लेखक कहते हैं पर आपको साहित्यकार नहीं मानते तो आप इस बारे में क्या सोचते हैं ?" उन्होंने इस तरह के आलोचनाओं के बाद, कुछ गम्भीर तरीके से भी लिखने की कोशिश की है, जैसे "यैलो हाऊस" (Yellow House), पर उनके ऐसे उपन्यासों को न तो सफलता मिली और न ही आलोचनों ने अपनी राय बदली. मैंने स्वयं भी, उनकी कई किताबें खूब मजे से पढ़ीं पर उनका गम्भीर "साहित्य" मुझसे नहीं पढ़ा गया.

इसी बारे में सोच रहा हूँ, क्या फर्क है आम लेखक में और साहित्यकार में ? मेरी दो प्रिय लेखिकाओं, शिवानी और आशापूर्णा देवी, को बहुत साल तक आलोचक आम लेखक, या "रसोई लेखिकाँए" कहते रहे. बचपन में मेरे स्कूल में हिंदी के एक बहुत बिकने वाले लेखक का पुत्र पढ़ता था, उन लेखक का नाम मुझे ठीक से याद नहीं, शायद दत्त भारती जी या ऐसा ही कुछ था. लेकिन अगर घर में कोई उनकी किताब पढ़ते हुए देख लेता तो कहता, "क्या कूड़ा पढ़ रहो हो". बचपन में पढ़ी गुलशन नंदा जैसे लेखकों की किताबें या फिर जासूसी उपन्यास इसी श्रेणीं में गिने जाते थे, कूड़ा. पर उन्हें पढ़ने में बहुत आनंद आता था.

तो सोच रहा था, किस बात से आम लेखन का साहित्य से भेद किया जा सकता है ? भाषा के उपयोग से ? याने साधारण लेखन सरल, आसानी से समझ आने वाली भाषा का प्रयोग करते हैं, पर साहित्यकार की भाषा अधिक कठिन होती है ? यह अंतर मुझे कुछ ठीक नहीं लगता, क्योंकि मेरे विचार में कई साहित्यकार हैं जो आसान भाषा का प्रयोग करते हैं. शायद लिखने की गहराई से साहित्यता को मापने का कोई नाता था ? या कथा के विषय से ? या लेखक किस तरह से कथा का विकास करता है ? या फिर आलोचक के अपने विचारों से ? बहुत सोच कर भी कोई सरल नियम जिससे यह आसानी से कहा जाये कि यह साहित्य है और यह साधारण लेखन है, मुझे समझ में नहीं आया. शायद मरने के बाद आम लेखक का साहित्यकार बनना अधिक आसान है.


आज हमारे शहर बोलोनिया की दो तस्वीरे

बुधवार, सितंबर 07, 2005

उन्हें क्या मिला ?

कल सुबह का चिट्ठा कुछ भावावेश में लिखा था. शाम को दुबारा पढ़ा तो लगा कि अपनी बात को ठीक से नहीं व्यक्त्त कर पाया. अनूप, जितेंद्र और नितिन के चिट्ठों की बात की पर उनके लिंक भी नहीं दिये. असल में सब कुछ अनूप के मेरे पन्ने में लिखे बाजपेयी सर के बारे में पढ़ कर शुरु हुआ. अनूप ने बहुत अच्छा लिखा है, और दिल से लिखा है. पढ़ कर सोच रहा था कि मेरा किसी शिक्षक से ऐसा संबध नहीं बना, पर अगर यह सोचूँ कि किससे मुझे क्या मिला, तो कई नाम और चेहरे याद आ जाते हैं.

मिडिल स्कूल के हिंदी के गुरु जी, प्रीमेडिकल के दौरान भौतिकी के गुरु और मेडिकल कालिज से निकलने के बाद, कर्मभूमि मे काम कर रहे गुरु जिनके साथ काम करने का मौका मिला. फिर सोचा उनके बारे में जो बिल्कुल अच्छे नहीं लगते थे, लगता था कि उन्हें किस्मत ने हमें तंग करने के लिए ही हमारे जीवन में भेजा हो. पर उनसे भी कुछ सीखने का मौका मिला और ऐसे ही एक नापसंद से गुरु की वजह से ही मेरा जीवन बदल गया. यह सब सोचा शाम को, बाग में कुत्ते के साथ सैर करते हुए.

पर फिर सोचा कि बजाय यह सोचने के मुझे क्या मिला, उन्हें क्या मिला अच्छे गुरु बन कर ? अपने एक गुरु जी के लाचारी के अंतिम दिनों की बात याद आ गयी. सारा जीवन इमानदारी और आदर्शों का जीता जागता उदाहरण थे और उनकी बहुत सी बातें मेरा हिस्सा बन गयीं हैं. यही क्षोभ और ग्लानी थे मेरे कल के चिट्ठे में, सबसे पहले स्वयं से फिर उस समाज से, जहाँ ऐसे लोग गरीबी और लाचारी मे मरते हैं. गुस्सा था उनके बच्चों पर जो पढ़ लिख कर, अच्छे पदों पर हो कर भी, उन्हें इस लाचारी में अकेला छोड़ गये थे.

अतुल ने लिखा है, "मेरे गुरुजी भी आम आदमी थे.उनके सामने तमाम मानवीय चुनौतियां थीं. वे ट्यूशन भी पढाते थे उन लड़कों को जो उनसे पढ़ने आते थे.उनकी पारिवारिक समस्यायें भी थीं .जिन्दगी बिता दी किराये के मकान में जब मकान बन पाया तो रहने के लिये वो नहीं थे.बडी़ लडकी विधवा हो गयी ४०-४५ की उमर में .यह् सदमा भी रहा.अपने छोटे बेटे के भविष्य को लेकर काफी चितित रहे.इन सारी आपा-धापी के बीच वे सदैव अपने मानस पुत्रों के उन्नयन के लिये निस्वार्थ् लगे रहे." यह समझता हूँ कि कठिनाईयाँ तो किसी भी जीवन में हो सकती हैं, चाहे आप शिक्षक हों या कुछ और. उन्हीं को याद करेंगे लोग जिसने सब कठिनाईयों के होते हुए अपने जीवक को औरों के जीवन सँवारने में लगाया हो.


आज की तस्वीरें हैं दक्षिण अमरिकी देश, गुयाना से, जहाँ ६० प्रतिशत लोग भारतीय मूल के हैं.


मंगलवार, सितंबर 06, 2005

शिक्षकों की याद

एक वह दुनिया है जहाँ हम लोग सचमुच रहते हैं और फिर अन्य कई दुनिया हैं, सपनों की दुनिया जहाँ सब कुछ सुंदर और आदर्शों से भरा हो सकता है. शिक्षकों के बारे में अनूप, जीतेंद्र और नितिन के चिट्ठे देख कर ऐसा ही अचरज हो रहा था मुझे. शिक्षक दिवस और शिक्षकों को याद करना, यह लोग सचमुच की दुनिया के लोग हैं या फिर किसी काल्पनिक, आदर्शमय दुनिया में रहते हैं ?

मैं तो सोचता था कि शिक्षकों के आदर की बात करना, कुछ मजाक सा है. कौन पूछता है और समाज में सचमुच कितना आदर है आज शिक्षकों का? क्या हममें से कोई चाहेगा कि हमारा बच्चा शिक्षक बने ? शायद मैं यह इसलिए कह रहा हूँ कि एक शिक्षिका का बेटा हूँ जो नगरपालिका के गरीब स्कूल में पढ़ाती थी.

बच्चे का भोला मन ही अपने गुरु जी के दिये ज्ञान और प्रेरणा का मान कर सकता है, पर जैसे जैसे बच्चे बड़े होते हैं दुनिया के नियम सीख जाते हैं कि पैसे से औकात मापने वाली दुनिया में शिक्षकों का स्थान बहुत नीचा है.

अनूप के बाजपेयी सर जैसे गुरु तो बहुत किस्मत से ही मिलते हैं. अच्छे गुरु के साथ आदर से बढ़ कर, पितामय स्नेह का रिश्ता बना पाना और भी कठिन है. ऐसे समाज में जहाँ पैसा ही पहला मापदंड है, आज आम स्कूलों में शिक्षक वही बनता है जिसे और कोई काम नहीं मिलता. ऐसे में शिक्षक का काम गर्व से नहीं, कुँठा से निभता है. कैसे और ट्यूशन करुँ, कैसे और पैसे बनाऊँ, यह चिंता होती है. उनमे से अगर कोई अनूप के बाजपेयी सर जैसे गुरु हों भी तो बेवकूफ कहलाते हैं, आदर्शवादी बेवकूफ जिन्हे इस समाज के नियम और इसमे ठीक से रहना नहीं आया, न खुद कुछ बनाया खाया, न औरों को खाने दिया.

शायद यह बाद बहुत कड़वी लगे पर लिखते समय मेरी आँखों के सामने एक आदर्शवादी बूढ़े का चेहरा है, गाँधी पुरस्कार मिला था उन्हें आदर्शवाद के लिए, आखिरी दिनों में एकदम अकेले रह गये थे और उनके बच्चे उनके आदर्शवाद की हँसी उड़ाते थे. शिक्षक दिवस पर उन जैसे बेवकूफ आदर्शवादी शिक्षकों के लिए ही हैं आज की तस्वीरें.


सोमवार, सितंबर 05, 2005

कुकुरमुत्ता बाग

सुबह और शाम जब गावों में गायें धूलि उड़ाती हुई, घंटियां बजाती हुई चलती हैं, शहरों में धूँआ उगलती, होर्न बजाती बस और स्कूटर पर काम से लोग लौटते हैं, हमारा कुकुरमुत्ता बाग जाने का समय हो जाता है. जिन जिन के यहाँ कुत्ते हैं वह अपने लाडलों और लाडलियों को ले कर सैर के लिए निकल पड़ते हैं. हमारे परिवार में यही नियम है कि अगर मैं घर पर हूँ तो यह मेरी जिम्मेदारी है कि मैं समय पर अपने कुत्ते को उसकी मल मूत्र (क्षमा कीजिये पर इन शब्दो के लिए पर इस बारे में बात करने का कोई अन्य तरीका भी नहीं है) आदि की जरुरतों के लिए बाहर सैर पर ले जाऊँ.

शहरों में जहाँ एक बिल्डिंग में रह कर भी, अपने पड़ोसियों को नहीं पहचानने का नियम है, कुत्ते आप की जान पहचान बढ़ाने का काम करते हैं. अन्य कुत्ता स्वामियों से पहचान तो अपने आप ही हो जाती है क्योंकि कुत्तों ने अभी "पड़ोसियों को न पहचानने" वाले नियम के बारे में नहीं सुना, और शायद सुनना ही नहीं चाहते. उनके इलावा, अन्य लोग जो अकेलेपन को महसूस करते हैं, जैसे घर के बड़े बूढ़े, उनसे भी जान पहचान कुत्तों के बहाने आसानी से हो जाती है. हालाँकि कभी कभी यह जान पहचान कुछ अजीब सी होती है, जैसे हमारे बाग में, हम सभी कुत्तों के नाम तो जानते हैं, उनके मालिकों से हमेशा हँस कर दुआ सलाम होता है पर हमें किसी का भी नाम नहीं मालूम. यानि हम लोगों को "एशिया के मालिक", "टक्की की मालकिन", "साशा की वह मोटी मालकिन", के नामों से याद रखते हैं.

इसमे गलती उनकी नहीं कि अपना नाम नहीं बताना चाहते, हमारे कुत्ते की है जो घर में गुमसुम सा भोला भाला रहता है पर बाहर निकलते ही बाकी कुत्तों को देखते ही या तो "भौंकना चैम्पियन" बन जाता है या शक्त्ति कपूर की तरह अपनी सभी सखियों के ऊपर चढ़ने की कोशिश करता है, इसलिए किसी से ठीक से बात करने का मौका नहीं मिलता.

पर जिसने भी यह सोचा कि जहाँ कुत्ते मूतते हैं वहाँ कुकुरमुत्ते निकल आते हैं, यह ठीक नहीं है. हमने अपने वैज्ञानिक जाँच से इसकी गहराई में जाँच पड़ताल की है. अगर यह सच होता तो हमारा बाग अब तक कुकुरमुत्तों का जंगल बन गया होता, पर हमारे बाग में कभी एक भी कुकुरमुत्ता नहीं दिखाई दिया.

आज हमारे कुकुरमुत्ता बाग से दो तस्वीरें:


रविवार, सितंबर 04, 2005

बचपन से जवानी का रास्ता

शाम को बेटे को लेने फोर्ली जाना था. वह लंदन से रायन एयर की उड़ान से वापस आ रहा था. फोर्ली का हवाई अड्डा हमारे शहर से ७० किलोमीटर दूर है और सस्ती उड़ाने वहीं आती हैं. रास्ते में, उड़ान आने में अभी समय था, इसलिए सोचा कि इमोला रुक कर चलेंगे. इमोला छोटा सा शहर है, करीब ३० किलोमीटर दूर, जहाँ हम करीब दस साल तक रहे थे. सात साल पहले बोलोनिया में घर लेने के बाद वहाँ वापस कभी नहीं गया था.

इमोला "ग्रान प्री फोरमूला-एक" की कार रेस के लिए मशहूर है. अप्रेल में जब कार रेस के दिन आते हैं तो देश विदेश से लाखों पर्यटक यहाँ आते हैं और एक सप्ताह के लिए वहां की जनसंख्या ३० हजार से ३० लाख हो जाती है. जब वहाँ रहते थे तो उस एक सप्ताह में बड़ी कोफ्त होती थी. इतनी भीड़ की कुछ भी काम न हो पाये. सड़कों के फुटपाथों पर लोग कार पार्क कर देते, बागों में टेंट लगा देते, और कार रेस ट्रेक से कारों की घुर घुर इतनी तेज़ होती जैसे हवाई जहाज़ की आवाज होती है.

इतने दिनों बाद वहाँ लौटना अच्छा भी लगा और अजीब भी. वही पुरानी सड़कें जहाँ से रोज गुजरता था, जानी पहचानी भी लग रहीं थीं और नयी भी. किले के पास घूम रहे थे जब अचानक पत्नी ने एक लड़के को आवाज लगायी, "रिक्की!" मैं तो पहले पहचान नहीं पाया. लम्बा, पतला सा लड़का. बिखरे गंदे बाल, पतला शरीर, बुझा चेहरा, गंदे कपड़े. धीरे धीरे पास आया तो याद आया. बेटे का स्कूल का दोस्त था, अकसर घर आता था. कई बार बेटे के साथ साथ उसे भी मैंने होम वर्क करवाया और पढ़ाया था. उसके पिता की फैक्टरी है और बहुत पैसे वाले लोग हैं. कभी कभी मिलते थे पर विषेश दोस्ती नहीं थी. इमोला से आने के बाद, जानता था कि मेरे बेटे से कभी बात होती है पर मैंने उससे या उसके परिवार से दोबारा बात नहीं की थी.

उसे देख कर हैरान हो गया. इतना कैसे बदल गया था. वह खास बोला नहीं, बस सिर हिलाता रहा. चार पाँच मिनट बात की, मेरी पत्नी ने ही बात की, घर की, परिवार के समाचार पूछे. सारे समय वह या तो नीचे देखता रहा या फिर उसकी आँखें इधर उधर अजीब ढ़ंग से घूम रहीं थीं जैसे कैद हुआ हिरन भागने का रास्ता ढ़ूंढ़ रहा हो. छोटा सा सुंदर सा हँसमुख लड़का जो मेरी याद में था वह इस गम्भीर, बीमार से नवजवान से बिल्कुल मेल नहीं खाता था. बाद में पत्नी ने कहा कि शायद नशा करता है.

सब कुछ तो था उनके पास. पढ़े लिखे शालीन माता पिता, पैसा, सभी सुख, बचपन से जवानी के रास्ते में क्या हुआ ? ऐसा कैसे हो गया?

आज की तस्वीरे इमोला सेः इमोला का किला और पुरानी कपड़े धोने की जगह, जहाँ स्त्रियाँ कपड़े धोने आती थीं और आज भी बूढ़ी औरतें कपड़े धोने के बहाने आ जाती हैं.


शनिवार, सितंबर 03, 2005

राग अनुराग

"यह क्या टें टें लगायी है, कुछ अच्छा संगीत नहीं है क्या ?", शास्त्रीय संगीत सुन कर अधिकतर लोग कुछ ऐसा ही कहते हैं. मैं भी बचपन में ऐसा ही सोचता था. फिर जब १५-१६ साल का था तब पहली बार कुमार गंधर्व के भजन सुने तो उनका प्रशंसक हो गया. "उड़ जायेगा, हँस अकेला, जग दर्शन का मेला" जैसे उनके भजन मुझे आज भी उतना ही आनंद देते हैं जितना ३५ साल पहले देते थे. धीरे धीरे उनके अन्य संगीत को जानने की इच्छा हुई. कुछ शास्त्रीय रचनाएँ सुनी उनकी पर उन्हें ठीक से नहीं समझ पाया. फिर कुछ अन्य शास्त्रीय गायकों को देखने और सुनने का मौका मिला, जैसे पंडित भीमसेन जोशी, पंडित जसराज. उनकी सरल रचनाएँ, गीत या भजन आदि तो अच्छे लगते पर पूरे शास्त्रीय राग सुन कर कोई विषेश आनंद नहीं आता था.

कुछ समय बाद मौका मिला प्रभा अत्रे जी का गाया राग कलावती में "तन मन धन तोपे वारुँ" सुनने का. पहली बार समझ में आया कि शास्त्रीय संगीत कितना अच्छा हो सकता है. आज भी उनका यह गायन सुन कर रौगंटे खड़े जाते हैं. एक बार उनके इस गायन को कमरा बंद करके, बिना शोर के या फिर इयरफोन के साथ सुनिये, कुछ कुछ समझ आ जायेगा कि शास्त्रीय संगीत में क्या आनंद हो सकता है.

मुझे गायको से गायिकाएँ अधिक पसंद हैं, जैसे किशोरी आमोनकर, श्रुती सादोलिकर, वीणा सहस्रबुद्धे, मालिनी राजुरकर, इत्यादि. अभी तक केवल उत्तर भारत के हिंदुस्तानी संगीत की बात की है, दक्षिण भारत के कर्नाटक संगीत की नहीं. शुरु शुरु में कुछ बार सुनने की कोशिश की, पर कुछ खास मजा नहीं आया. वही बात मन में आती, "क्या एक जैसी टें टें चलती रहती है". फिर एक बार एकांत में बिना शोर के, ध्यान से सुनने की कोशिश की, तब आनंद आया.

मेरे विचार में अगर आप समझना चाहते हैं कि लोगों को शास्त्रीय संगीत में क्या मिलता है, तो इसे अकेले में पूरे ध्यान से सुनिये. शुरु शुरु में अगर आप कुछ और काम करते हुए इसे साथ साथ सुनेगें तो इसमे छुपी हुई ध्यान, साधना और भक्त्ति को नहीं समझ पायेंगे. मुझे आज भी रागों के नाम या उन्हें पहचानना नहीं आता, पर उसके बिना भी शास्त्रीय संगीत को सुन कर आनंद लिया जा सकता है.

आज दो तस्वीरें उत्तरी इटली की एल्पस पहाड़ों में "त्रेसका और कोंका" वादी सेः

शुक्रवार, सितंबर 02, 2005

भाई की खोज

"२६ सितंबर, १९४४. चौदह साल का था मैं, वहाँ, उस कोने पर खड़ा था. हर पेड़ के नीचे पर एक लाश झूल रही थी", उनकी आवाज में कोई भावना नहीं झलकती. वह यह कहानी जाने कितनी बार पहले भी सुना चुके होंगे. यहाँ आने वाले पर्यटकों को. हम लोग उत्तरी इटली में एक छोटे से शहर "बसानो देल ग्रापा" में थे. शहर के प्रमुख पियात्सा (चौबारे) से घड़ी के काँटे जैसी कई सड़कें शुरु होती हैं और इस चांदाकार सड़क पर समाप्त होती हैं. लगता है जैसे किसी सिनेमा हाल की बालकनी पर खड़े हों. एक तरफ गोल घूमती सड़क और शहर की प्राचीन दीवारें और दूसरी ओर नीचे एक हरी भरी घाटी और फिर ऊँचे पहाड़. करीब ही बहती है ब्रेंता नदी जिस पर बना प्राचीन पुल द्वितीय महायुद्ध में पूरा नष्ट हो गया था पर जिसे दोबारा से अपने पुराने रुप में बनाया गया है.

जहाँ सड़क खत्म होती है और वादी शुरु होती है, वँही कतार में लगे हैं वे ३१ पेड़ जिनकी बात हमारे गाइड कर रहे हैं. हर पेड़ एक छतरी की तरह तराशा लगता है. हर पेड़ पर लगा है उस पर फाँसी चढ़ने वाले का नाम, किसी किसी की फोटो भी है. इतनी सुंदर जगह पर मौत की बात कुछ अजीब सी लगती है. "आप जानते थे, उनमें से किसी को ?", मैंने पूछा.

"जानता था ? हमारे यँही के तो लड़के थे सब. सबको जानता था", हमारे गाइड की आवाज भर्रा आयी, "बच्चे थे वे भी मेरे जैसे, सोचते थे कि जर्मन सिपाहियों और फासिस्टों से अपना देश आजाद करवाना है. जर्मन तब हारने लगे थे, फासिस्टों को डर लगने लगा था."

कुछ देर चुप रह कर वे फिर बोले, "हमारे घर के पास रहती थी एक औरत. उसने सुना कि फाँसी लगने वालों में शायद उसका भाई जिरोलामों भी है, साइकल पर आयी थी और हर पेड़ के नीचे लटकी लाश के चेहरे देख रही थी. था एक जिरोलामो फाँसी चढ़ने वालों में से, पर वह उसका भाई नहीं था. बहुत सी बातें भूल गया हूँ पर यह बात नहीं भुला पाया, उसका हर पेड़ पर लटकी लाश में अपना भाई ढ़ूंढ़ना."

बासानो देल ग्रापा के शहीद मार्ग के पेड़ और ब्रेंता नदी पर पुल



गुरुवार, सितंबर 01, 2005

यादों के रंग

मुझे काम से उत्तरी इटली जाना था, पत्नी से साथ चलने को कहा, काम के बहाने सैर हो जायेगी. वह बोली कि अगर दो दिन की छुट्टी मिल जाये तो हम लोग स्कियो भी जा सकते हैं. स्कियो, यानि हमारी ससुराल. बहुत दिन हो गये थे ससुराल गये भी तो हमने भी तुरंत हाँ कर दी. वहाँ हमारी बड़ी साली साहिबा इन दिनों घर में अकेली हैं तो प्लेन यह बना कि काम समाप्त होने पर स्कियो से उनको ले कर, आसपास के छोटे छोटे शहरों में दो दिन घूमा जाये.

छोटा सा शहर है स्कियो, उत्तरी इटली में एल्पस के पहाड़ों से घिरा हुआ. इन दिनों में वहाँ मौसम भी अच्छा है, दिन में सुहावना और रात को थोड़ी सी सर्दी. पहाड़ों के अलावा, वहाँ बहुत सी झीलें भी हैं. दो दिन कैसे बीत गये पता ही नहीं चला. बहुत से छोटे शहर देखे जहाँ पहले कभी नहीं गया था या पंद्रह बीस साल पहले गया था.

सारे रास्ते में मेरी पत्नी अपनी बड़ी बहन से बातें करती रहीं. "वो याद है जब हम लोग उस पगडंदी पर साइकल ले कर घूमने गये थे ... वहाँ से केमिस्ट की दुकान से दवाई लेने गये थे ... वहाँ आइसक्रीम कितनी अच्छी थी ... वहाँ की जो मालकिन थी, जिसे बाद में केंसर हो गया था..." उन्ही शहरों में उन्होंने शादी से पहले बहुत बार छुट्टियाँ बितायीं थीं और उनसे जुड़ी हज़ार यादें थीं. हर जगह पहुँच कर सारी कहानी सुननी पड़ती, किसका कहाँ पर क्या हुआ था. शुरु शुरू में तो ध्यान से सुना पर फिर थोड़ी देर में थक गया. मन में सोच रहा था कि ऊपर से जाने हम कितने भिन्न हों, पर अंदर से सारी दुनिया में सभी लोग एक सी होते हैं. भाई-बहन जब बहुत दिनों बाद मिलते हैं और पुरानी जगहों को देखते हैं तो हर जगह एक जैसी ही बातें करते हैं. पुराने मित्रों की, पुराने गानों की, किसकी शादी हुई, कौन मरा, कौन चला गया.

आज की तस्वीरें इसी यात्रा से.

पिछले चिट्ठे के बारे में जिसमे पुराने आने-टकों की बात की थी, स्वामी जी और अतुल ने टिप्पड़ियों में मेरी गलतियों को सुधारा है और अन्य जानकारी भी दी है, दोनो को धन्यवाद.

विचेंज़ा का घंटाघर

लावारोने की झील

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