गुरुवार, अगस्त 11, 2005

रात के अनौखे यात्री

कुछ वर्ष पहले तक हम लोग बोलोनिया से करीब ४० किलोमीटर दूर, इमोला शहर में रहते थे जो अपने ग्रांड प्री फोरमूला १ की कार रेस के लिए प्रसिद्ध है. तभी, कई बार देर रात को इमोला से बोलोनिया जाने वाली रेलगाड़ी में अनौखे यात्रियों को देखने का मौका मिलता था. वे अनौखे यात्री थे वेश्याएँ, औरतें भी और पुरुष भी.

अधिकतर वेश्याएँ अफ्रीका और पूर्वी यूरोप से आयीं जवान लड़कियाँ होती हैं. उनमें से कुछ तो बहुत कम उम्र की लगती हैं, बालिग नहीं लगती. जब रेल पर चढ़तीं तो आम लड़कियों की तरह ही लगतीं, आपस में हँसी मज़ाक से बातें करती हुईं. फ़िर रेल पर चढ़ते ही सभी काम के लिए तैयार होने लग जाती थीं. डिब्बे के बाथरुम की ओर भागतीं. कुछ तो वहीं डिब्बे में ही कपड़े बदलने लगतीं. साधारण रोजमर्रा के कपड़े उतार, छोटी चमकीली पौशाकें, जिनको पहनने से उनके वक्ष और जांघों के बारे में किसी कल्पना की आवश्यकता न रहे. फिर मेकअप की बारी आती. छोटे छोटे शीशों में झांक कर भड़कीली लिपस्टिक और आँखों के ऊपर लगाने के लिए नीले और लाल रंग. २० मिनट में जब रेल बोलोनिया पहुँचती, वे सभी तैयार हो चुकी होतीं थीं. लगता उनका सारा व्यक्त्तिव ही बदल गया हो. हँसी मजाक के बदले में उनके चेहरे पर गम्भीरता आ जाती.

पुरुष वैश्याओं में अगर पुरुष बन कर काम करने वाले युवक होते थे, तो मुझे मालूम नहीं क्योंकि शायद उन्हें इस तरह तैयार नहीं होना पड़ता. पर स्त्रिरुप धारण करने वाले पुरुष उन लड़कियों से किसी बात में कम नहीं थे. वह रेल में पहले से ही तैयार हो कर आते. शायद उन्हें घर से निकलते समय, अड़ोसी पड़ोसियों के कहने सुनने का कुछ भय नहीं होता ? उनके कपड़े और भी भड़लीले, मेकअप और भी चमकीला और रंगबिरंगा होता. आपस में इतनी जोर जोर से बातें करते और हँसते. देख कर लगता मानों शीशे के बने हों, जोर से कोई चोट लगे तो टूट कर बिखर जायेंगे. लगता वह शोर उनकी अपनी उदासी छुपाने का तरीका था. ऐसा बच्चा बन कर, पुरुष शरीर में स्त्री मन वाला बच्चा बन कर, बड़े होना कितना कठिन होता होगा, लोगों के खासकर अपने साथियों के मज़ाक और व्यंग के बीच, अपने घर वालों की शर्म और ग्लानी के बीच.

अपने आस पास के वातावरण से भिन्न होना कभी आसान नहीं होता. अगर कोई अंत में उनकी तरह इतना भिन्न हो जाता है कि लोग उसे समाज के हाशिये पर जगह देते हैं तो शायद उसके पास भिन्न होने के सिवा कोई अन्य चारा नहीं होता ? भारत में हिजँड़ों का भी तो यही हाल होता है.

यह सब बातें मैं मन में ही सोचता. कभी किसी अनौखे यात्री से कुछ बात करने का साहस ही नहीं जुटा पाया.

आज कि तस्वीरें जितेंद्र के भारत यात्रा ब्लोग से प्रेरित हैं, मसूरी की १९८७ में की एक यात्रा से.

बुधवार, अगस्त 10, 2005

एक और कहानी

पत्नि और बेटा छुट्टियों के लिए एक सप्ताह के लिए बाहर गये हैं. शाम को, काम से लौट कर घर में अकेला होने से, एक फायदा यह हुआ है कि लिखने के लिए समय अधिक मिल रहा है. न कुत्ते को घुमाने ले जाने का काम, न किसी से बात करने की सम्भावना. इसीलिए कल शाम को अपनी दूसरी कहानी पूरी कर डाली.

यह सब हिंदी चिट्ठे के कारण ही हुआ है जिसने मेरे लिए भूलती हुई हि्दी के और सृजन के, द्वार खोल दिये. पहले जुलाई में लिखी "अनलिखे पत्र". इससे पहले अंतिम हि्दी की कहानी लिखी थी सन् १९८३ में, जो धर्मयुग नाम की पत्रिका में "जूलिया" नाम से छपी थी. तब इटली में आये बहुत समय नहीं हुआ था. इन वर्षों में सब कुछ बदल गया. धर्मयुग को बंद हुए भी बरसों हो गये.

"क्षमा" नाम है नयी कहानी का और आज उसी का एक छोटा सा अंश प्रस्तुत हैः

"...वह आगे बढ़ ही रहीं थीं, जब नयी आयी लेडी डाक्टर उनकी तरफ मुड़ी. वसुंधरा को देख कर एक क्षण में ही उसके चेहरे का रंग उतर गया, और वसुंधरा भी पत्थर की तरह खड़ी रह गयी. इतने वर्षों के बाद मिलने के बाद भी दोनों ने एक दूसरे को तुरंत पहचान लिया था. इस तरह अचानक इतने सालों के बाद ऐसे मिलना होगा मिरियम से, यह तो कभी नहीं सोचा था.

पहले मिरियम ने ही स्वयं पर काबू किया. गंभीर मुख से बिना कुछ कहे, मुड़ कर मेज पर रखे कागज उठा कर उन्हें पढ़ने लगी, मानो उन्हें जानती ही न हो. "प्लीज सिट डाऊन मिसिज वडावन", नर्स फिर बोली तो वह चुप चाप कुर्सी पर बैठ गयीं. मिरियम यहाँ है, इस अस्पताल में! अब क्या होगा ? अगर मधुकर ने उसे देख लिया तो क्या होगा ? उनके मन में तूफान सा उठ आया था. सिर घूम गया. लगा चक्कर खा कर गिर जायेंगी.

"डाक्टर थोमस हमारी एन्स्थटिस्ट हैं, अंतिम निर्णय इनका ही है कि हम आप का आप्रेशन कर सकते हैं या नहीं !" एक डाक्टर ने हँस कर मिरियम की तरफ इशारा कर के कहा, पर वसुंधरा कुछ सुन समझ नहीं पा रही थी. बार बार एक ही विचार आता मन में, मिरियम यहाँ है, अगर मधु ने देख लिया तो अनर्थ हो जायेगा.

मिरियम ने उनकी तरफ एक बार भी नहीं देखा. कुछ देर बाकी डाक्टरों से बात कर बोली कि दाखिल होने के बाद वार्ड में जा कर देखेगी क्योंकि अभी उसे एक जरुरी काम था, और फिर चली गयी. जाते जाते भी उनकी तरफ नज़र उठा कर नहीं देखा..."

अगर कहानी को पूरा पढ़ना चाहें तो इसे कल्पना पर मेरे पृष्ठ पर पढ़ सकते हैं.

आज की तस्वीरें हैं दक्षिण अफ्रीका के केप टाऊन के टेबल माऊंटेन यानि मेज़ पहाड़ की. दूर से देखो तो सचमुच मेज़ जैसा ही लगता है हालाँकि अधिकतर इसकी सतह बादलों से ढ़की रहती है और स्पष्ट दिखायी नहीं देती.

मंगलवार, अगस्त 09, 2005

उकियो-ए का तैरता संसार

उकियो-ए यानि वैश्याओं, अभिनेताओं, कलाकारों, नटों, आदि का संसार जिसे सोलहवीं शताब्दी के एडो (आज का टोकियो) से शहर निकाला मिला था और वह लोग शहर के किनारे नदी पर नावों में रहने को मजबूर थे. कहते थे कि वे लोग शहर में गंदगी फैला रहे थे और जिनकी बजह से शहर में कानून और व्यवस्था बनाये रखने में कठिनाई हो रही थी. जापानी बादशाह का तो सिर्फ नाम था जबकि असली ताकत थी शोगुनों की जो अपने समुराईयों की तलवारों की शक्ती से राज करते थे. जापान के मध्यम युग के इस इतिहास के लिए मेरे मन में बहुत आकर्षण है. उकियो-ए में ही विकास हुआ गैइशा जीवन और काबुकी नाटक कला का. उकियो-ए कला इसी जीवन का चित्रण करती है. अगर आप उकियो-ए कला और जीवन के बारे में जानना चाहते हैं तो अमराकी संसद के पुस्तकालय के अंतरजाल पृष्ठ पर लगी एक प्रदर्शनी अवश्य देखिये, यहाँ क्लिक करके.

बचपन में बुआ के यहाँ एक विवाह में मेरी मुलाकात हुई थी एक जापानी छात्र श्री तोशियो तनाका से, जो भारत में हिंदी सीखने आये थे. बुआ दिल्ली विश्व विद्यालय में हिंदी की प्रोफेसर थीं. चालिस वर्ष पहले हुई उस मुलाकात की बहुत सी बातें मुझे आज भी याद हैं और शायद वहीं से प्रारम्भ हुआ था मेरा जापान के लिए आकर्षण. तोशियो ने बताया था सूशी के बारे में, चावल और कच्ची मछली का बना. कच्ची मछली ? सोचने से ही, मितली सी आने लगी थी. आज भी जब कभी सूशी खाने का मौका मिलता है, तो वह बात याद आ जाती है.

कुछ वर्षों के बाद पिता के एक जापानी बौद्ध भिक्षुक मित्र से मिलना हुआ. बौद्धगया में रहते थे वो और जब भी दिल्ली में घर पर आते, जापान के बारे में मेरे कौतुहल को जान कर, मुझे जापान के बारे में बताते.

देश विदेश बहुत घूमा पर कभी जापान जाने का मौका नहीं मिला. फ़िर दो वर्ष पहले जापान से एक निमंत्रण मिला भी तो मैंने बहाना बना कर मना कर दिया. मुझे प्रिय है मध्यम युग का जापान, लगा कि गगनचुंबी भवनों के आज के जापान को देख कर कहीं यह सपना न टूट जाये. कुछ बातों के लिए कल्पना में ही रहना अच्छा है.

आज प्रस्तुत है उकियो-ए की कला का एक नमूना.

सोमवार, अगस्त 08, 2005

गिरते तारों की रात

कई दिनों से अखबारें और टेलीविजन याद दिला रहे थे कि 6 और 7 अगस्त को रात को आसमान पर गिरते तारों को देखना न भूलिये. पर दोनों ही दिन, रात को बादलों ने आसमान को ढ़क दिया था, तो तारे क्या देखते!

आप को "कुछ कुछ होता है" का वह दृश्य याद है जिसमें शाहरुख और काजोल गिरते तारों को देख कर पूछते हैं कि तुमने क्या मांगा ?

क्या आप ने कभी गिरते तारों को देखा है ?

सच पूछिये तो मैंने पहले कभी गिरते तारों को नहीं देखा था. कभी देखा भी हो तो ख़ास ध्यान नहीं दिया था. पर पिछले साल इन्हीं दिनों में एक शाम अपने दो मित्रों को घर पर खाने पर बुलाया था, ज्योवानी जो मेरे साथ काम करता है और उसकी साथी, मारिया लूसिया, जो बाज़ील की हैं. पत्नी और बेटा छुट्टियों में बाहर गये थे और मैं घर में अकेला था. खाना खा कर गप्प मार रहे थे कि मारिया लूसिया ने कहा कि चलो गिरते तारों को देखें. मैं भी उनके साथ बाहर बालकनी पर गया हालाँकि मन में सोच रहा था कि क्या तारे दिखेंगे.

"वो देखो, एक वहाँ...वो देखो एक वहाँ.." दो, तीन बार सुना तो मैंने भी आसमान को ध्यान से देखना शुरु किया. तब देखा अपना पहला गिरता सितारा, फिर एक और, एक और.. पहली बार महसूस हुआ कि गिरते तारों को देखने में एक जादू सा है. इसीलिए इस बार जब गिरते तारों के बारे में सुना था तो सोचा था कि इस बार उन्हें जरुर देखूँगा.

तारों की बात से याद आती है श्रीरुप की, जो दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में मेरे साथ काम करता था. रात की ड्यूटी पर कभी बाहर निकलते तो आसमान में तारों को देख कर उनके नाम बताता. "वो वाले तीन तारे जो एक लाईन में हैं, वे ओरियोन की पेटी है, उनमें से एक तारा बूढ़ा है मर रहा है, बीच वाला नया तारा है, बादल जैसा, अभी पूरा बना नहीं है और वह दूसरे कोने वाला लाल सितारा ...". तब लगता कि तारे सिर्फ तारे नहीं, जीवन दर्शन की किताब हों.

अब रात को कभी बाग में घूमते समय कभी ओरियोन की पेटी पर नजर पड़ती है तो श्रीरुप और अन्य बिछुड़े साथियों की याद आ जाती है. कुछ वो जो अब नहीं रहे और कुछ वो जिन्हें जीवन न जाने कहाँ ले गया.

जलन होती है उन लोगों से जो जहाँ पैदा होते हैं, वहीं बड़े होते है, वहीं रहते हैं, जाने पहचाने लोगों और मित्रों के बीच. जिनका कभी कोई नहीं खोता.

***
बिछुड़े हुए लोगों की बात निकली है इसलिए आज की तस्वीरें हैं मिस्र (इजिप्ट) की एक यात्रा से, कैरो शहर की. इस यात्रा में मेरे साथ था मेरा इतालवी मित्र फ्रांको, जो अब इस दुनिया में नहीं है.

रविवार, अगस्त 07, 2005

बच्चों की रोटीः एक सुबह बोलोनिया में

मोनतान्योला की पहाड़ी टूटे घरों, दीवारों आदि से बनी है. बहुत सा मलबा बोलोनिया की प्राचीन दीवार के तोड़ने से आया था. ऊपर जाने की सीड़ियाँ श्री पिनचियो ने बनायी थीं और पहाड़ी के ऊपर बना एक बाग. नये बाग और भव्य सीड़ियों का उदघाटन करने, सन् १९३८ में इटली के राजा विक्टोरियो ऐमनूएले और तत्कालीन प्रधानमंत्री मुसोलीनी. प्रधानमंत्री की खुली कार पर चलायी गोली एक १४ वर्षीय बालक ने, सड़क के किनारे एक घर की खिड़की से पर मुसोलीनी जी बच गये और बालक को लगी फाँसी शहर के मुख्य चौबारे में, नैपच्यून की मूर्ती के सामने. मुसोलीनी की मौत को अभी ५ साल बाकी थे, उन्हें तो द्वितीय महायुद्ध के बाद इटली के फाशिस्ट शासन से लड़ने वाले स्वतंत्रता सैनानियों के हाथों मरना था.

८ अगस्त चौबारा यानि स्क्वायर ठीक मोनतान्योला के पीछे है और यहाँ पिछले तीन सौ सालों से एक बाजार लगता है. आजकल इस बाजार का दिन है शनिवार. सुबह सुबह दूर दूर से बेचने और खरीदने वाले यहाँ आ जाते हैं. बाजार का अर्थ है शोर, संगीत, विभिन्न रंग और भीड़. करीब दो साल के बाद यहाँ आया हूँ, पर इन दो सालों में इस बाजार में बहुत बदलाव आ गया है. हर तरफ भारतीय, चीनी, पाकिस्तानी, बंगलादेशी लोगों का बोलबाला है. बिकती हुई चीज़े भी बदल गयीं हैं, कहीं अफ्रीकी बाटिक और ढ़ोल, कहीं भारतीय कपड़े, कहीं तुर्की की बनियाने, कहीं चीन से स्वेटर, खिलौने और जूते. एक जगह से, जहाँ कुछ पाकिस्तानी दुकाने थीं, "चुरा के दिल मेरा, गोरिया चली" के संगीत की आवाज़ आ रही थी और उनके करीब ही बंगलादेशी दुकान बंगाली संगीत सुनवा रहे थे. एक पल के लिए लगा मानो दिल्ली के करोलबाग में हूँ.

दुकानों के बीच अचानक एक बोर्ड दिखा जिस पर एक बच्चे की तस्वीर है, हाथ में लम्बी स्थानीय रोटी और नीचे लिखा है "हमारे काम करने वालों की रोटी न छीनिये, कृपया इतालवी चीज़े ही खरीदये". कैसे बचायेंगे ये लोग अपनी रोटी ? जहाँ इतालवी स्टाल पर जो चीज़ ६ या ८ यूरो की मिलती है, पाकिस्तानी, चीनी और भारतीय उसे १ या २ यूरो में बेचते हैं. सवाल केवल रोटी का नहीं, सारा जीवन बिताने का अंदाज़ ही बदल रहा है. इतालवी दुकानदार, छुट्टी और आराम से काम करने में विश्वास करते हैं, जब पूर्व से आये नये दुकानदार सारा दिन दुकान खोले रखते हैं, कोई छुट्टी नहीं लेते, दुकान में ही सो जाते हैं, तो कैसे मुकाबला करेंगे ये लोग ?

अगर आप नैपच्यून की मूर्ती के क्लोसअप देखना चाहें या बोलोनिया के बारे में कुछ और पढ़ना चाहें तो यहाँ क्लिक कीजिये.


मोनतान्योला

शनिवार का बाजार मोनतान्योला से

शनिवार, अगस्त 06, 2005

लोकारनो में मंगल पांडे

स्विटज़रलैंड तीन भाषाओं का देश है. देश के एक हिस्से में बोलते हैं फ्रांसिसी भाषा, दूसरे में जर्मन और तीसरे में इतालवी. लोकारनो का शहर इतालवी भाषा क्षेत्र में आता है जहाँ दो दिन पहले लोकारनो फिल्म फैस्टीवल प्रारम्भ हुआ और पहले दिन की फिल्म थी केतन मेहता की "मंगल पांडे". इस अवसर पर वहाँ के इतालवी भाषी टेलीविजन ने फिल्म निर्देशक और आमिर खान से साक्षातकार तो दिखाये ही, फिल्म के कई दृश्य भी दिखाये. उस पूरे समाचार को अगर आप चाहें तो यहाँ क्लिक कर के देख सकते हैं (उस पन्ने पर सबसे नीचे SFI1 का एक लिंक है उसमें ३ अगस्त की लिंक पर क्लिक कीजिये. रियल मीडिया की फोरमेट है. पहले इस फिल्म समारोह की एक सदस्य का साक्षातकार है, अगर उसे न देखना चाहें तो माउस की मदद से आप क्लिप को आगे बढा सकते हैं. फिल्म के बारे में पूरा समाचार, करीब दस मिनट का है और इतालवी भाषा में है केवल फिल्म के दृश्यों को नहीं डब किया गया है.)

ईस्वामी ने अपने ब्लाग में एक नये सर्च इंजन "सीक" के बारे में आज़माने की सलाह दी है, जिसके बारे में कहते हैं कि शायद यह गूगल से भी बेहतर है. बेहतर है या घटिया यह तो समय ही बतायेगा पर आजंमाने में बढिया लगा. गूगल से ही जुड़ी एक और बात है जिसकी कुछ चर्चा यूरोप में हो रही है. कहते हैं कि गूगल विभिन्न विश्वविद्यालयों से सम्पर्क कर के उनकी सभी पुस्तकों और दस्तावेज़ों को डिजिटल रुप में बदल रहा है और उनका उद्देश्य है कि कम से कम डेढ करोड़ पुस्तकें इस तरह अंतरजाल पर उपलब्ध करादें. इस बात से यूरोप के कुछ देशों में चिंता हो रही है कि एक बार फ़िर इस तरह से अंग्रेज़ी में लिखी किताबों को ही प्रमुखता मिलेगी और यूरोपीय भाषाँए पीछे रह जायेंगी. इसलिये फ्राँस, इटली आदि देशों ने एक नया समझोता किया है, अपनी भाषाओं की पुस्तकों को डिजिटल रुप में अंतरजाल पर उपलब्ध कराने के लिए. गूगल के इस पुस्तक संग्रह में हिंदी की किताबों को क्या कोई जगह भी मिलेगी ?

आज की तस्वीरें दक्षिण अफ्रीका से, उस जेल की जहाँ नेलसन मंडेला १८ वर्ष तक कैद रहे. इस जेल में ही मेरा परिचय हुआ एउजेनियो से, जो केवल सोलह वर्ष का था जब जेल में कैद हो कर आया था. उसकी सुनायी जेल जीवन की कहानियों ने मेरे रौंगटे खड़े कर दिये थे. ऊपर वाली तस्वीर में एउजेनियों जेल के बारे में समझा रहा हैं.

शुक्रवार, अगस्त 05, 2005

गाँधी जी और कम्प्यूटर

पिछले दिनों इटली की टेलीफोन कम्पनी "टेलीकोम" का यहाँ के टेलीविजन पर नया विज्ञापन आया जिसने कुछ हलचल सी मचा दी है और उसके बारे में बहुत सी बहसे हुई हैं.

विज्ञापन के शुरु का दृश्य है कि गाँधी जी धीरे धीरे चल कर अपनी कुटिया की ओर जा रहे हैं. कुटिया में वह पालथी मार कर बैठ जाते हैं और बोलना शुरु करते हैं.

गाँधी जी के सामने एक वेबकैम उनकी वीडियो तस्वीर ले कर उसे सारी दुनिया में दिखा रहा है. फिर दिखाते हैं कि सारी दुनिया में लोग गाँधी जी की बात को सुन और देख रहे हैं. न्यू योर्क और क्रैमलिन में विशालकाय पर्दों पर, इटली और चीन में मोबाईल टेलीफोन पर, अफ्रीका में रेगिस्तान में एक कम्प्यूटर पर. विज्ञापन के अंत में यह वाक्य उभरते हैं "अगर सारी दुनिया ने यह संदेश सुना होता तो आज यह दुनिया कैसी होती ?"

इस विज्ञापन में गाँधी जी को अंग्रेज़ी में बोलते दिखाया गया हैं. 2 अप्रैल 1947 को दिल्ली में दिया गये उनका यह भाषण "एशिया में आपसी संबध" नाम की अंतरराष्ट्रीय सभा में दिया गया था. जो अंश विज्ञपन में दिया गया है उसमें गाँधी जी कहते हैं "अगर आप दुनिया को कोई संदेश देना चाहते हैं तो प्रेम का संदेश दीजिये, सत्य का संदेश दीजिये. मैं आप के दिलों से माँग कर रहा हूँ. अपने दिलों की धड़कनों को मेरे शब्दों के साथ एक हो कर बजने दीजिये. एक मित्र ने मुझसे पूछा कि क्या मैं "एक दुनिया" की बात में विश्वास करता हूँ? यह कैसे हो सकता है कि मैं "एक दुनिया" के सिद्धांत से अलग कुछ और सोचूँ? मैं "एक दुनिया" में विश्वास करता हूँ."

विज्ञापन के बारे में कई सारी बहसे हो रही हैं.

एक बहस तो यह कि अगर गाँधी जी का संदेश अहिंसा का संदेश था तो फिर इस विज्ञापन को बनाने का काम होलीवुड के प्रसिद्ध निर्देशक स्पाईक ली को क्यों सौंपा गया जिन्होंने "मैलकोम एक्स" जैसी हिंसावादी फिल्में बनायी हैं?

दूसरी बहस यह है कि गाँधी जी तो उपभोक्तावादी (कोनस्यूमिस्टिक) संस्कृति के खिलाफ़ थे. इसलिए उनकी छवि और शब्दों को एक विज्ञापन में कम्प्यूटर और टेलीफोन बेचने के लिए उपयोग करना उनका अपमान करना हैं.

तीसरी बहस है इस विज्ञापन के संदेश की, जो कहता है कि अगर इस दुनिया के लोगों ने गाँधी जी की बातें सुनी होती तो शायद आज यह दुनिया भिन्न होती. लोग कहते हैं कि अगर गाँधी जी को स्वयं बन्दूक की गोली से मरना पड़ा तो उनके शब्द सुनने मात्र से दुनिया में हो रही हिंसा को कैसे रुकती?

इस बहस में आप कुछ भी कहिये या सोचिये, यह तो मानना ही पड़ेगा कि यह विज्ञापन बहुत सुंदर है. अगर आप इसे देखना चाहें तो यहाँ देख सकते हैं.



***

गुरुवार, अगस्त 04, 2005

बंदर के बच्चे सा शहर

दो दिन के लिए काम से कोरतोना गया. कोरतोना एक छोटा सा शहर है रोम से करीब १०० किलोमीटर उत्तर में. कुछ अजीब सा नाम लगता है मुझे कोरतोना. "कोरता" का इतालवी भाषा में अर्थ है "छोटी". इतालवी भाषा में अगर आप किसी शब्द के साथ "ओना" जोड़ देते हैं तो उसका अर्थ होता है "बड़ी" या "मोटी". उस हिसाब से कोरताना का अर्थ हुआ "छोटी बड़ी" या "छोटी मोटी".

पूरे यूरोप में ऐसे कई शहर हैं जो मध्यम युग (तेहरंवी से सोलहंवी शताब्दी का युग) में पहाड़ियों पर किले की तरह बनाये गये थे ताकि बाहर से कोई हमला न कर सके. इटली में रोम से फ्लोरेंस के रास्ते में सड़के के दोनो तरफ ऐसे कई पुराने शहर हैं जहाँ पर ३००-४०० वर्ष पहले के घर, सड़कें इत्यादि सब कुछ अपने पुराने रुप में अभी भी बिल्कुल वैसे ही हैं. बहुत से ऐसे शहर आज भारत के फतह पुर सीकरी की तरह खाली शहर हैं जहाँ कोई नहीं रहता अब.

कोरतोना भी ऐसा ही शहर है, फर्क सिर्फ इतना है इस शहरवासियों को अपने शहर में देशी विदेशी पर्यटकों को घूमने के लिए बुलाने में सफलता मिली है, इसलिए यह शहर अभी भी आबाद है, खाली नहीं हुआ. जब कार से पहाड़ी के पास पहुँचो तो लगता है जैसे पहाड़ी के ऊपर बने घर पहाड़ी के कोने से कभी भी नीचे लुड़क सकते हैं. जाने क्यों उन घरों को देख कर मन में माँ के पेट से चिपके हुए बंदर के बच्चों की छवि उभर आती है. पहाड़ी के उपर पहुँच कर भी ऐसा ही लगता है, जैसे माँ के पेट से चिपका बच्चा हो जिसकी माँ पेड़ों के शाखाओं में, एक शाखा से दूसरी शाखा पर कूद रही हो. जिधर देखो घरों के बीच में से, पत्तों के बीच में से नीचे की वादी झलकती नजंर आती है.

नेपच्यून की मूर्ती का किस्सा अभी समाप्त नहीं हुआ लगता है. सुमात्रा से राजेश पूछते हैं कि क्या मूर्ती का क्लोसअप नहीं दिखा सकते. मेरे ख्याल से राजेश शायद शिवभक्त्त हैं इसलिए ऐसा पूछ रहे हैं. लगता है इस बार इतवार को इस मूर्ती की कुछ तस्वीरे लेने जाना ही पड़ेगा.

कुछ दिनों से कोई कविता नहीं प्रस्तुत की तो लीजिये आज महादेवी वर्मा की एक कविता की कुछ पंक्त्तियाँ:


"बीन भी हूँ तुम्हारी रागिनी भी हुँ.
नींद थी मेरी अचल निस्पंद कण कण में,
प्रथम जागृति थी जगत के प्रथम स्पंदन में.
प्रलय में मेरा पता पदचिन्ह जीवन में,
शाप हूँ जो बन गया वरदान बंधन में.
कूल हूँ मैं कूलहीन प्रवाहिनी भी हूँ."

आज की दो तस्वीरे हैं कोरतोना की.

मंगलवार, अगस्त 02, 2005

हँस कर कही बात

कुछ समय पहले फ्राँस में जनमत (रेफेरेंडम) हुआ था यूरोपीय संविधान के बारे में. इसमे जीत हुई संविधान को न कहने वालों की. जनमत से पहले कई हफ्तों तक बहुत बहस हुई फ्राँस में, यूरोप के बारे में. उनका सोचना था कि पूर्वी यूरोप में पोलैंड, हंगरी, रोमानिया, स्लोवाकिया जैसे देशों से गरीब यूरोपी लोग पश्चिम यूरोप के अधिक अमीर देशों में आ कर मुसीबत कर देंगे. कई बार उदाहरण देने के लिए कहा गया कि पोलैंड के कम पैसों में नल और पाईप ठीक करने वाले फ्राँस में आ कर फ्राँस वासियों से काम छीन लेंगे.

उस समय तो पोलैंड वालो ने अपने बारे में ऐसी बातें सुन कर कुछ नहीं कहा पर कुछ सप्ताह पहले वहाँ के पर्यटक विभाग ने इस बात पर एक नया इश्तहार निकाला जो नीचे प्रस्तुत है. इसमें नल ठीक करने वाले कपड़े पहना एक युवक कहता है "मैं तो पोलैंड में ही रहूँगा, आप भी यहाँ आईये".

बजाये गुस्सा हो कर लड़ाई करने के, इस तरह से हँस कर चुटकी ले कर अपनी बात समझाना कँही बहतर है.

अनूप ने परसों के ब्लाग में तुरंत टिप्पड़ी की कि बिना मूर्ती की तस्वीर के उसके बारे में बात करना अधूरा है. क्या करता, पास में उस मूर्ती की कोई फोटो नहीं थी. आज इंटरनैट से खोजी इस मूर्ती की एक तस्वीर प्रस्तुत है. १५६५ में बनी यह मूर्ती जानबोलोनिय ने बनायी थी, जिन्हें बोलोनिया के लोग प्यार से जानबोलोनिया कहते हैं और मूर्ती को प्यार से "फोरकेतोने" यानि बड़े फोर्क वाला (हाथ में पकड़ा त्रिशूल, फोर्क जैसा ही है) कहते हैं.



पोलैंड का बदला
बोलोनिया की नैपच्यून की मूर्ती

सोमवार, अगस्त 01, 2005

मारको पाओलीनी के नाटक

रात को "बोलोनिया इस्ताते" (ग्रीष्म ऋतु समारोह) के दौरान मारको पाओलीनी का नाटक देखने गया. पाओलीनी विषेश किस्म के कलाकार हैं. खुद लिखते हैं अपने नाटक, जिनमें वह स्वयं ही गाते, नाचते और बोलते हैं, अकेले. स्टेज पर उनके साथ केवल संगीतकार होते हैं. एक अन्य खासियत है उनकी कि सभी नाटक किसी न किसी आजकल की समस्या के बारे में होते हैं.

कुछ वर्ष पहले उनका एक नाटक इटली में हुई वेइयोन बाँध दुर्घटना पर देखा था तब से उनका प्रशंसक हो गया हूँ. दो घंटे के इस नाटक में उन्होंने सरकारी भर्ष्टाचार और लापरवाही के कच्चे पक्के चिट्ठे खोले थे, पहले बाँध के बनने के बारे में, फिर दुर्घटना की चेतावनियों को न सुनने के बारे में और फ़िर दुर्घटना से प्रभावित परिवारों के बारे में. एक अन्य नाटक था उनका भोपाल की गैस दुर्घटना के बारे में. उनके कई नाटक इतालवी टेलीविज़न के वेबपेज पर देखे जा सकते हैं पर सभी इतालवी भाषा में हैं.
कल रात के उनके नाटक का विषय था पानी और उसे प्राईवेट कम्पनियों को बेचने की कोशिश. नाटक खुली जगह पर हो रहा था, वह भी निशुल्क. इतनी भीड़ की घबराहट हो जाये. अधिकतर जवान लड़के लड़कियाँ थे जिनके बारे में अक्सर कहते हैं कि इन्हें आजकल की समस्याओं से कोइ दिलचस्पी नहीं है और ये केवल समय बिताने और आवारागर्दी की सोचते हैं. पाओलीनी का बात को कहने का अंदाज़ भिन्न है. वह रोना नहीं रोते, कहानियाँ सुनाते हैं. हँसते और हँसाते हैं और जब आप हँस हँस के बेहाल हो रहे हों तब अचानक हठौड़े की तरह कठोर शब्दों से अपनी बात कहते हैं. कल रात भी उनके नाटक में बार बार तालियों की गड़गड़ाहट गूँजती रही. (ऊपर तस्वीर में मारको पाओलीनी, कल रात को)

कल रिजु वापस चला गया. सुबह उसे बोलोनिया की पुरानी बंदरगाह दिखाने ले गया था. उसके बिना घर कुछ सूना सूना सा लगता है. अपने कम्प्यूटर से उसने परिवार की कई तस्वीरे दीं हैं. कुछ तस्वीरे प्रीता भाभी और सृष्टी की भी हैं जिनसे अभी तक नहीं मिल पाया हूँ, पर कम से कम अब उनको तस्वीरों में तो देखा !


बेलापहाड़ में विधु दादा, प्रीता भाभी और सृष्टी

रिजु बोलोनया में हम सब के साथ

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

लोकप्रिय आलेख