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शनिवार, अगस्त 13, 2022

यादों की संध्या

संध्या की सैर को मैं यादों का समय कहता हूँ। सारा दिन कुछ न कुछ व्यस्तता चलती रहती है, अन्य कुछ काम नहीं हो तो लिखने-पढ़ने की व्यस्तता। सैर का समय अकेले रहने और सोचने का समय बन जाता है। शायद उम्र का असर है कि जिन बातों और लोगों के बारे में ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में दशकों से नहीं सोचा था, अब बुढ़ापे में वह सब यादें अचानक ही उभर आती हैं।

यादों को जगाने के लिए "क्यू" यानि संकेत की आवश्यकता होती है, वह क्यू कोई गंध, खाना, दृश्य, कुछ भी हो सकता है, लेकिन मेरे लिए अक्सर वह क्यू कोई पुराना हिंदी फ़िल्म का गीत होता है। बचपन के खेल, स्कूल और कॉलेज के दिन, दोस्तों के साथ मस्ती, पारिवारिक घटनाएँ, जीवन के हर महत्वपूर्ण समय की यादों के साथ उस समय की फ़िल्मों के गाने भी दिमाग के बक्से में बंद हो जाते हैं। इस आलेख में एक शाम की सैर और कुछ छोटी-बड़ी यादों की बातें हैं।


आज सुबह से आसमान बादलों से ढका था, सुहावना मौसम हो रहा था, हवा में हल्की ठँडक थी। सारा दिन बादल रहे लेकिन जल की एक बूँद भी नहीं गिरी। शाम को जब मेरा सैर का समय आया तो हल्की बूँदाबाँदी शुरु हुई। पत्नी ने कहा कि जाना है तो छतरी ले कर जाओ, लेकिन मैंने सोचा कि थोड़ी देर प्रतीक्षा करके देखते हैं, अगर यह बूँदाबाँदी नहीं रुकेगी तो छतरी ले कर ही जाऊँगा। पंद्रह मिनट प्रतीक्षा के बाद बाहर झाँका तो बादलों के बीच में से नीला आसमान झाँकने लगा था। इस वर्ष अक्सर यही हो रहा है कि बादल कम आते हैं और अक्सर बिना बरसे ही लौट जाते हैं। हमारे शहर का इतिहास जानने वाले लोग कहते हैं कि ऐसा पहली बार हुआ कि हमारे घर के पीछे बहने वाली नदी में करीब आठ महीनों से पानी नहीं है। पूरे पश्चिमी यूरोप में यही हाल है।

खैर मैंने देखा कि बारिश नहीं हो रही तो तुरंत जूते पहने और हेडफ़ोन लगा लिया। शाम की सैर का समय कुछ न कुछ सुनने का समय है। कभी डाऊनलोड किये हुए हिंदी, अंग्रेज़ी या इतालवी गाने सुनता हूँ, कभी हिंदी के रेडियो स्टेशन तो कभी क्लब हाऊस पर कोई बातचीत या गाने के कार्यक्रम। आज मन किया विविध भारती सुनने का। यहाँ शाम के साढ़े सात बजे थे, तो मुम्बई से प्रसारित होने वाले विविध भारती के लिए रात के ग्यारह बजे थे और चूँकि आज गुरुवार है, मुझे मालूम था कि इस समय सप्ताहिक "विविधा" कार्यक्रम आ रहा होगा, जिसमें अक्सर हिंदी फ़िल्मों से जुड़ी हस्तियों के साक्षात्कारों की पुरानी रिकोर्डिंग सुनायी जाती हैं।

मोबाईल पर विविध भारती का एप्प खोला तो कार्यक्रम शुरु हो चुका हो चुका था और पुराने फ़िल्म निर्देशक, लेखक तथा अभिनेता किशोर साहू की बात हो रही थी। उनका नाम सुनते ही मन में "गाईड" फ़िल्म की बचपन एक याद उभर आयी। तब हम लोग पुरानी दिल्ली में फ़िल्मिस्तान सिनेमा के पास रहते थे। वह घर हमने १९६६ में छोड़ा था, इसका मतलब है कि वह याद इससे पहले की थी। मन में उभरी तस्वीर में एक दोपहर थी, नानी चारपाई पर चद्दर बिछा कर, उस पर दाल की वणियाँ बना कर सुखाने के लिए रख रही थी। बारामदे के पीछे खिड़की पर ट्राँज़िस्टर बज रहा था जिस पर उस दिन पहली बार किशोर कुमार और लता मँगेशकर का गाया गीत, "काँटों से खींच के यह आँचल, तोड़ के बँधन बाँधी पायल" सुना था। एक पल के लिए मैं उस आंगन में नानी को देखता हुआ सात-आठ साल का बच्चा बन गया था, यह याद इतनी जीवंत थी।

बचपन में पापा हैदराबाद में थे और माँ अध्यापिका-प्रशिक्षण का कोर्स कर रही थी और उसके बाद उन्हें नवादा गाँव के नगरपालिका के प्राथमिक स्कूल में नौकरी मिली थी, तो मैं और मेरी बहन, हम दोनों नानी के पास ही रहते थे। नानी और माँ में केवल अठारह या उन्निस साल का अंतर था, इसलिए मेरी सबसे छोटी मौसी उम्र में मेरी बड़ी बहन से छोटी थी।

नानी जब पैदा हुई थी तो उनकी माँ चल बसी थीं, इसलिए नानी अपनी मौसी के पास बड़ी हुईं थीं और उनके मौसेरे भाई, इन्द्रसेन जौहर, अपने समय के प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता और निर्देशक बने थे। नानी की शादी करवाने के बाद उनके विधुर पिता ने नानी की उम्र की लड़की से शादी की थी, इस तरह से नानी की पहली संतानें भी उनके पिता की अन्य संतानों से उम्र में बड़ी थीं, और नानी के सबसे छोटे भाई मेरे हमउम्र थे।

नानी सुबह उठ कर अंगीठी जलाती थी। घर में एक कोठरी थी, जिसमें कच्चा और पक्का कोयला रखा होता था। अंगीठी की जाली पर नानी पहले थोड़ा सा कच्चा कोयला रखती, और उसके ऊपर पक्का कोयला। फ़िर नीचे राख वाली जगह पर कागज़ जलाती जिससे कच्चे कोयले आग पकड़ लेते। वह राख भी जमा की जाती थी, उससे बर्तन धोये जाते थे और उसे गाय या भैंस के गोबर में मिला कर उपले बनाये जाते थे।

उपलों को नानी अपनी पश्चिमी पंजाब के झेलम जिले की भाषा में "गोया" कहती थी। लेकिन उस घर में उपले कम ही बनते थे शायद क्योंकि शहर में गोबर आसानी से नहीं मिलता था। नानी का गाँव वाला घर जिस पर नाना ने "दीवान फार्म" का बोर्ड लगा रखा था, नवादा और नजफ़ गढ़ के बीच में ककरौला मोड़ नाम की जगह से थोड़ा पहले था। जहाँ नानी की रसोई थी, वहाँ अब "द्वारका मोड़" नाम के दिल्ली मेट्रो स्टेशन की दायीं सीढ़ियाँ हैं और जहाँ उनका बड़ा वाला कूँआ था वहाँ अब मेरे मामा के बनाया एक स्कूल चलता है। बचपन में वहाँ मैं अपनी छोटी मौसियों के साथ तसला ले कर गोबर उठाने जाता था। अगर आप ने कभी गोबर नहीं उठाया तो शायद आप को उसे हाथ से छूने या उठाने का सोच कर अज़ीब लगे, लेकिन बचपन में मुझे ताज़े गोबर की गर्मी को हाथ से छूना बहुत अच्छा लगता था। गाँव वाले उस घर में, दूध, दाल, सब्जी, हर चीज़ में उपलों की गंध आती थी।

आज उत्तरपूर्वी इटली में, दिल्ली से हज़ारों मील दूर, किशोर साहू के नाम और उनकी बातों से, साठ वर्ष पहले की यह सब यादें एक पल के लिए मन में कौंध गयीं, एक क्षण के लिए उपलों की गंध वाले उस खाने की वह सुगंध भी जीवित हो उठी।

किशोर साहू के बाद बात हुई पुरानी फ़िल्म अभिनेत्री मनोरमा की। उनका मुँह बना कर और आँखें मटका कर अभिनय करना मुझे अच्छा नहीं लगता था। उनकी बातें सुन रहा था तो मन में हमारे करोल बाग वाले घर की यादें उभर आयीं। तब दिल्ली में नियमित दूरदर्शन के कार्यक्रम आते थे, जिनमें मेरे सबसे प्रिय कार्यक्रम थे चित्रहार और फ़िल्में। छयासठ से अड़सठ तक हम उस घर में तीन साल रहे और उन तीन सालों में दूरदर्शन पर बहुत फ़िल्में देखीं। तब रंगीन टीवी नहीं होता था और टीवी कम ही घरों में थे। बिना जान पहचान के हम बच्चे मोहल्ले के आसपास के किसी भी टीवी वाले घर में घुस जाते थे, कभी किसी ने मना नहीं किया। हम लोग टीवी के सामने ज़मीन पर पालथी मार कर बैठ जाते।

तब रामजस रोड पर एक स्कूल में भी शाम को फ़िल्म आती तो वहाँ की एक अध्यापिका आ कर टीवी वाला कमरा खोल देती थीं, वहाँ खूब भीड़ जमती। उन सालों की दूरदर्शन पर देखी मेरी प्रिय फ़िल्मों में से वैजयंतीमाला की "मधुमति", मधुबाला की "महल", नूतन की "सीमा" और राजकपूर की "जागते रहो" थीं।

उन फ़िल्मों के बारे में सोचते हुए, उस समय सैर करते करते मैं हमारी सूखी हुई नदी के पुल पर पहुँच गया। वहाँ खड़े हो कर पहाड़ों के पीछे डूबते सूरज को देखना मुझे बहुत अच्छा लगता है, क्योंकि उस जगह पर पहाड़ों से घाटी में नीचे आती हुई बढ़िया हवा आती है। इस साल पानी न होने से पहले तो नदी के पत्थरों के बीच में लम्बी घास उग आयी थी, शायद उसे नदी के तल के नीचे की धरती में छुपी उमस मिल गयी थी। फ़िर भी जब पानी नहीं बरसा तो वह घास बहुत सी जगह पर सूख कर पीली सी हो गयी है, इस तरह से पुल से देखो तो संध्या के डूबते सूरज की रोशनी में नदी के तल पर बिछी घास के हरे और पीले रंग बहुत सुंदर लगते हैं। नदी के किनारे लगे पेड़ों के पत्ते जब सर्दी शुरु होती है तो सितम्बर के अंत में पीले और लाल रंग के हो कर गिर जाते हैं, लेकिन इस साल सूखे की वजह से अभी अगस्त के महीने में ही वह पत्ते पीले पड़ रहे हैं। बादलों से ढके आकश में प्रकृति के यह सारे रंग बहुत मनोरम लगते हैं।



पुल पर ही खड़ा था, जब विविध भारती पर आ रहे कार्यक्रम में शम्मी कपूर की बात होने लगी। उनकी एक पुराने साक्षात्कार की रिकार्डिंग सुनवायी जा रही थी। थोड़ा सा आश्चर्य हुआ यह जान कर कि वह अच्छा गाते थे। उस साक्षात्कार में उन्होंने "तीसरी मंजिल", "एन ईवनिंग इन पैरिस" जैसी फ़िल्मों के कुछ गाने गा कर सुनाये।

शम्मी कपूर के नाम से उनकी फ़िल्म "कश्मीर की कली" और फ़िर नानी के घर की याद आ गयी। घर के पास, ईदगाह को जाने वाली सड़क के पार एक फायर ब्रिगेड का स्टेशन होता था, जिसके सामने मैं सुबह स्कूल की बस की प्रतीक्षा करता था। वहीं पर फायरब्रिगेड में काम करने वाले एक सरदार जी से जानपहचान हो गयी थी। उनके पास एक छोटा सा पॉकेट साईज़ का ट्राँज़िस्टर था जिसमें इयरफ़ोन लगा कर सुनते थे। उन्होंने एक दिन मुझे वह इयरफ़ोन लगा कर रेडियो सुनवाया तो उस समय उसमें "कश्मीर की कली" फ़िल्म का गीत आ रहा था, "यह चाँद सा रोशन चेहरा, ज़ुल्फ़ों का रंग सुनहरा"। आज शम्मी कपूर जी की आवाज़ सुनी तो अचानक उस गीत को सुनने की वह याद आ गयी।

जब हम लोग करोल बाग में रहने आये, उन दिनों में मैं रेडियो पर नयी फ़िल्मों के गाने सुनने का दीवाना था, कोई भी गाना एक बार सुनता था तो उसकी धुन, शब्द, फ़िल्म का नाम, गाने वाले, लेखक, सब कुछ याद हो जाता था, इसलिए जब अंताक्षरी खेलते तो मैं उसमें चैम्पियन था। उन्हीं दिनों में दूरदर्शन पर पुरानी फ़िल्में देखने लगे थे तो सपने देखता कि जब बड़ा होऊँगा और पास में पैसा होगा तो सब फ़िल्मों को देखूँगा। आज तकनीकी ने इतनी तरक्की कर ली कि वह सारी फ़िल्में जो बचपन में देखना चाहता था और नहीं देख पाया था, अब जब चाहूँ तो यूट्यूब पर उनको देख सकता हूँ, तो क्यों नहीं देखता?

सैर से वापस घर लौटते समय सोच रहा था कि इन पचास-साठ सालों में दुनिया कितनी बदल गयी। बचपन का वह मैं, अगर उसे मालूम होता कि एक समय ऐसा भी आयेगा कि दुनिया में कहीं भी, किसी से बात करलो, जो मन आये वह संगीत सुन लो या फ़िल्म देख लो, तो उसे कितनी खुशी होती, और वह क्या क्या ख्याली पुलाव पकाता। 

अन्य दिनों में इस तरह की यादें, घर लौटने के दस मिनट में रात को देखे सपनों की तरह गुम हो जाती हैं, लेकिन आज सोचा है कि अपने ब्लाग के लिए इन्हें शब्दों में बाँध लूँगा।

शनिवार, जून 11, 2022

फ़िल्मी दुखड़े

एक समय था जब मुझे फिल्म देखना बहुत अच्छा लगता था, लेकिन फ़िर जाने क्या हुआ, मुझे फ़िल्में देखने से कुछ विरक्ति सी हो गयी है। कहते थे कि कोविड में सूंघने की शक्ति चली जाती है, वैसे ही मुझे शक है कि किसी रोग की वजह से मुझे अब फ़िल्म देखना अच्छा नहीं लगता। 


***
बचपन में सिनेमाहाल में पहली फ़िल्म देखी थी, दिल्ली के झँडेवालान में स्थित नाज़ सिनेमा पर, वह थी भारत भूषण और मीना कुमारी की "बैजू बावरा"। उस फ़िल्म से कुछ भी याद नहीं है केवल अंतिम दृश्य याद है जिसमें मीना कुमारी नदी में बह जाती है। इस फ़िल्म के बारे में खोजा तो देखा कि यह फ़िल्म 1952 में आयी थी, जब मैं पैदा नहीं हुआ था, जबकि मेरे विचार में मैं अपनी मम्मी और उनकी सहेली के साथ इस फ़िल्म को 1959-60 में देखने गया था।

तब हम लोग झँडेवालान से फिल्मिस्तान जाने वाली सड़क पर बाँयी ओर जहाँ कब्रिस्तान है उसके साथ वाली सड़क पर रहते थे, तो बैजू बावारा के बाद नाज़ पर बहुत सी फ़िल्में देखीं। उन सब फ़िल्मों में सबसे यादगार फ़िल्म थी बासू भट्टाचार्य की "अनुभव", जिसे देखने मैं अपनी मँजू दीदी और उनके बेटे मुकुल के साथ गया था, जो तब दो या तीन साल का था। बड़े हो कर वही मुकुल जाना माना फोटोग्राफर तथा डाक्युमैंटरी फ़िल्मों का निर्देशक बना, लेकिन तब उसे वह फ़िल्म समझ नहीं आयी थी और वह उसके समाप्त होने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था। "फ़िल्म कब खत्म होगी" के उसके प्रश्न पर मँजू दीदी ने कहा "जब झँडा आयेगा"। तब फ़िल्मों के अंत में झँडा आता था और राष्ट्रगान होता था, तो मुकुल जी हर पाँच दस मिनट में पूछते, "अन्ना, झँडा कब आयेगा?" उस फ़िल्म का मुझे कुछ और याद नहीं, लेकिन झँडा कब आयेगा वाला प्रश्न नहीं भूलता।

खैर, बचपन की अधिकाँश फ़िल्में तो दिल्ली में दूरदर्शन में देखीं थीं। साठ के दशक में जब टीवी पर बुधवार को चित्राहार, शनिवार रात को हिंदी फ़िल्म और रविवार दोपहर को प्रादेशिक भाषा की फ़िल्में आती थीं तो हमारे घर में टीवी नहीं था, अड़ोस पड़ोस में लोगों के घर जा कर उनके ड्राईंगरूम में सब बच्चे सामने ज़मीन पर बैठ कर यह कार्यक्रम देखते थे। इस तरह से जाने कितने लोगों से, जिनसे अन्य कोई जान पहचान नहीं थी, तब भी हम बच्चे लोग उनके घरों में घुस जाते थे, और वह लोग भी खुशी से हमको घरों में घुसने देते थे। करोल बाग वाले घर में थे तो वहाँ एक नगरपालिका के स्कूल में टीवी था, अक्सर वहाँ भी जा कर फ़िल्में देखते थे। राजेन्द्र नगर वाले घर में रहते थे तब एक दो बार किसी ने अपने घर में टीवी देखने से मना किया था तो लगता था कि कितने वाहियात और स्वार्थी लोग हैं, अगर इनके टीवी को और लोगों ने भी देख लिया तो इनका क्या चला जायेगा?

***

जब विदेश आया तो हिंदी फ़िल्मों की कमी, खाने में मिर्च मसालों की कमी से भी अधिक खलती थी। जब फ़िल्मों के वीडियो कैसेट बनने लगे तो लगा कि कोई खजाना मिल गया हो। हर वर्ष जब भारत से लौट कर आता तो सूटकेस फ़िल्मों के वीडियो कैसेटों से भरा होता था, उनसे से पुरानी फ़िल्मों के कैसेट तो अच्छे वाले मिलते थे, लेकिन नयी फ़िल्मों के कैसेट तो अधिकतर पायरेटिड होते थे, जिनमें छवि स्पष्ट नहीं होती थी। कुछ सालों के बाद उनमें जाँघियों-बनियानों की पब्लिसिटी भी आने लगी, तो टीवी स्क्रीन के ऊपर वाले हिस्से में माधुरी दीक्षित या श्रीदेवी अपने कमाल दिखातीं, और नीचे वाले हिस्से में जाँघिये बनियानें इधर से उधर फुदकतीं।

बाद में जब फ़िल्मों की वीसीडी और फ़िर उसके बाद डीवीडी आने लगीं तो फ़िल्में लाना आसान हो गया था, पर पायेरेटिड फ़िल्में देखने की समस्या का हल नहीं हुआ, हालाँकि वीडियों कैसेटों के मुकाबले में फ़िल्मों की छवि बेहतर दिखती थी।

तब यह प्रश्न उठा कि पुराने वीडियो कैसेटों का क्या किया जाये। कुछ तो मित्रों को बाँटीं लेकिन अधिकतर को कूड़े में फ़ैंका। केवल तीन वीडियो कैसेट नहीं फ़ैंके, क्योंकि वह मेरी सबसे प्रिय फ़िल्में थीं जिन्हें बीसियों बार देखा था - बँदिनी, साहिब बीबी और गुलाम और अपने पराये। बहुत सालों बाद जब घर में वीडियो कैसेट प्लैयर ही नहीं रहा तो मन मार कर उनको बेसमैंट के स्टोर रूम की अलमारी में रख दिया, कई सालों के बाद मेरी पत्नी ने उन्हें फ़ैंका, तब तक उन पर फँगस उग आयी थी।

उन दिनों में कुछ सालों के लिए लँडन में एक स्वयंसेवी संस्था का प्रैसिडैंट चुना गया था तो अक्सर वहाँ जाना होता था। तब साऊथहाल जा कर वहाँ से नयी फ़िल्मों की पायरेटेड सीडी ले कर आता था। कुछ सालों में घर में इतनी सीडी हो गयीं थीं तो उनको रखने की जगह नहीं बची थी। जब इंटरनेट से फ़िल्म डाऊनलोड करने का समय आया, तो धीरे धीरे नयी सीडी खरीदना बँद हो गया। घर में जो हज़ारों सीडी रखी थीं, फ़िर से उन्हें कुछ मित्रों में बाँटा, अधिकतर को कूड़े में फ़ैंका, लेकिन अभी भी करीब एक सौ सीडी हमारे घर के ऊपर वाले एटिक में एक बक्से में बँद रखी हैं। कभी कभी वहाँ कुछ सामान खोजते हुए जाता हूँ तो उनके कवर की तस्वीरों को देख कर पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं, बस इसी लिए उन्हें फ़ैंकने का मन नहीं करता।

आजकल फ़िल्में देखना तो और भी आसान हो गया है। अधिकतर पुरानी फ़िल्में, जिनमें तीन चार साल पहले वाली फ़िल्में भी आती हैं, वह सब यूट्यूब पर उपलब्ध हैं। नयी फ़िल्में नेटफ्लिक्स, प्राईम आदि पर मिल जाती हैं। जैसे जैसे नयी फ़िल्में देखना आसान हुआ है, मेरी फ़िल्म देखने की रुचि रास्ते में ही कहीं खो गयी है।

बहुत समय के बाद, कुछ दिन पहले क्रिकेट पर बनी एक फ़िल्म '83 एक बार में ही शुरु से अंत तक पूरी देखी। एक अन्य फ़िल्म देखी आर.आर.आर. (RRR) लेकिन एक बार में नहीं देखी, टुकड़ों में बाँट कर तीन-चार दिनों में देखी, और उसके थोड़े से हिस्सों को ही फास्टफोरवर्ड किया। दो सप्ताह पहले गँगूबाई देखनी शुरु की थी, अभी तक पूरी नहीं देखी।

***

फ़िल्मों में कुछ भी टैंशन या हिंसा की बात हो तो मेरा दिल धकधक करने लगता है, मुझसे वह फ़िल्म देखी नहीं जाती। अनिल कपूर की "थार" देखनी शुरु की थी तो बीच में ही रोक दी, लगा कि उसे आगे देखना मेरे बस की बात नहीं है। केवल नयी फ़िल्मों से ही तकलीफ़ नहीं है, पुरानी फ़िल्में देखता हूँ तो जल्दी बोर हो जाता हूँ, उन्हें फास्ट फोरवार्ड करके बीस मिनट-आधे घँटे में पूरी कर देता हूँ। यही हाल रहा तो भविष्य में शायद केवल फैंटेसी यानि काल्पनिक दुनियाँओं में आधारित कुछ फ़िल्मों को ही देख सकूँगा, क्योंकि उनमें टैंशन और हिंसा के दृश्य नकली लगते हैं इसलिए उन्हें देखने में परेशानी कम होती है।

करीब दस-बारह साल पहले, तब बोलोनिया में रहता था, मैं वहाँ होने वाले मानव अधिकार तथा अंतरलैंगिक-समलैंगिक विषयों के फ़िल्मों के फैस्टिवलों से जुड़ा था। तब फ्लोरैंस में होने वाले भारतीय फ़िल्मों के फैस्टिवल, रिवर तू रिवर, में भी जाता था। दो बार मानव अधिकारों के फ़िल्म फैस्टिवल की जूरी का सदस्य भी रहा। लेकिन धीरे धीरे उन सब फ़िल्मों को देखना बँद कर दिया है। अब मुश्किल से शोर्ट फ़िल्म देख पाता हूँ, गम्भीर विषयों बनी लम्बी फ़िल्में जो अधिकतर फैस्टिवलों के लिए चुनी जाती हैं, उनको नहीं देख पाता। इटली में कभी कोई भारत से जुड़ा फ़िल्म फैस्टिवल हो रहा हो और आयोजक मेरे इटालवी ब्लाग पर हिंदी फ़िल्मों के बारे में पढ़ कर मुझसे सम्पर्क करते हैं कि मैं उनकी जूरी का हिस्सा बनूँ या फ़िल्में चुनने में सहायता करूँ तो मैं मना कर देता हूँ, मुझे मालूम है कि यह मुझसे नहीं होगा। 



क्या फ़िल्म न देख पाने वाली कोई बीमारी होती है? क्या किसी अन्य को भी ऐसी कोई बीमारी हुई है? क्या इलाज है इस बीमारी का? शयाद उसके बारे में लिखने से उसका कोई इलाज निकल आये!

रविवार, मार्च 12, 2017

लेखकों के कुछ पुराने पत्र

परिवार के पुराने कागजों में कुछ खोज रहा था, तो उनके बीच में कुछ पत्र भी दिखे. इन पत्रों में हिन्दी साहित्य के जाने माने लेखक भी थे. उनमें से कुछ पत्र प्रस्तुत हैं।

यह पत्र मेरे पिता स्व. श्री ओमप्रकाश दीपक के नाम थे, जो कि १९५०-६० की कुछ समाजवादी पत्रिकाओं, जैसे कल्पना, चौखम्बा तथा जन, से जुड़े थे, तथा स्वयं लेखक, पत्रकार, अनुवादक व आलोचक भी थे. पत्रों को लिखने वाले थे राजकमल चौधरी, उपेन्द्रनाथ अश्क तथा शरद जोशी।



पहला पत्र, लेखक राजकमल चौधरी

वर्ष १९६१
राजकलम चौधरी, पोस्ट आफिस पुटिआरी पूर्व, कलकत्ता

प्रिय भाई,

आप का पत्र पा कर प्रसन्नता हुई, जोकि इस बात से जाहिर है कि मैं दूसरे ही दिन उसका उत्तर भेज रहा हूँ। आपने अपने पत्र में पता नहीं लिखा, खैर "जनमुख कार्यालय" से पता लगा लूँगा।

"जनमुख" में प्रकाशित मेरा लेख आपके विचारों से मतभेद रखता है। आप राजनीति में सक्रिय भाग लेते हैं, मैं लेखन कार्य (गैर राजनीतिक) में अधिक व्यस्त रहता हूँ। इसलिए ज़रूर आप ही ज़्यादा सही हैं। लेकिन मेरी रचनाओं या मेरी समीक्षाओं या मेरे साहित्यक लेखों से आपको असहमती है, तो मैं यहाँ हमेशा यही कहूँगा कि मैं ही ज़्यादा सही हूँ, और हमेशा सबसे ज़्यादा सही होने की कोशिश करता रहता हूँ - क्योंकि साहित्य मेरा पेशा है, साथ ही मेरी ज़िन्दगी भी है।

आपने "मानवी" के बारे में लिखा है। मैंने पुस्तक पढ़ी थी और जहाँ तक याद है, जगदीश भाई की "इकाई" में उसकी समीक्षा भी लिखी थी। मैं अपनी उस समीक्षा तथा आप की बात से सहमत हूँ कि "मानवी" दूसरे दर्जे का उपन्यास है। और "मानवी" की कहानी से ज़्याद, बहुत ज़्यादा बेहतर कहानियाँ आपने १९५५-५६-५७ में "ज्ञानोदय" पत्रिका में लिखी थीं।

आप क्या हमेशा दिल्ली में ही रहते हैं? मैं समझता था कि आपका स्थायी निवास हैदराबाद में है और आप वहीं रह कर "चौखम्बा" संपादित करते हैं।

आप ने "मानवी" लिखी। जबकि मुझे पूरा विश्वास है, "मानवी" के कथा विषय तथा चरित्रों से आप का अधिक परिचय नहीं है। आप का संघर्ष आप को उस जीवन क्षेत्र से दूर ही रखता होगा। "मानवी" के विषय से उर्दू में सदाअत हसन मन्तो का परिचय था, हिन्दी में राजकमल चौधरी को परिचय है ("ये कोठेवालियाँ" में अमृतलाल नागर तक रिपोर्टर बन कर रह गये हैं।) आपको राजनीतिक उपन्यास लिखने चाहिये, नहीं तो चतुरसेन (आचार्य), गुरुदत्त, सीताराम गोयल, जैनेन्द्र ("जयवर्धन" तो आपने पढ़ा ही होगा), लक्षमी नारायण लाल ("रूपजीवा" की समीक्षा आपने ही "कल्पना" में लिखी थी), आदि की गलतियाँ स्थायी ही रह जायेंगी। और हिन्दी को अपने एक अपटन सिन्क्लेयर की बड़ी ज़रूरत है। कृपया इसे आप advice unwanted नहीं मानेगे, brotherly request ही स्वीकार करेंगे।

इधर मेरी एक मामूली सी किताब "नदी बहती थी" आयी है। अगले पत्र के साथ सेवा में भेजूँगा।

इन दिनों एक प्रकाशक के लिए अंग्रेज़ी में पूर्वीय सौन्दर्यशात्र (मेरा शिक्षा का प्रधान विषय यही रहा है) पर एक बड़ी किताब लिख रहा हूँ। वैसे पत्र पत्रिकाओं में तो लिखते रहना ही पड़ता है। कलकत्ते में स्थायी (१९५८ से, और इसी साल से मैंने हिन्दी में लिखना भी शुरु किया है) रहता हूँ। पत्नी है, दो साल की एक बच्ची भी है। कहीं नौकरी नहीं करता हूँ, करने का इरादा अब तक नहीं है।

आप क्या लिख पढ़ रहे हैं, सूचित करेंगे। अनुगत,

कमल, १५.१२.६१

दूसरा पत्र, लेखक उपेन्द्रनाथ अश्क

वर्षः १९६२
उपेन्द्रनाथ अश्क, ५ खुसरो बाग रोड, इलाहाबाद

प्रिय दीपक,

आशा है तुम सपरिवार स्वस्थ और सानन्द हो।

तुम्हारा एक पत्र आया था, पर उस पर तुमने कोई पता नहीं लिखा, जिस कारण मैं उसका उत्तर नहीं दे सका। पित्ती साहब से तुम्हारा पता मिल गया है तो यह चन्द पंक्तियाँ लिख रहा हूँ।

पत्र तो तुम्हारा अब कहीं ढूँढ़े से नहीं मिल रहा। याद से ही उत्तर दे रहा हूँ।

पहली बात तो भाई यह है कि पत्र जो "कल्पना" में छपा, छपने के ख्याल से नहीं लिखा गया था। मेरा ख्याल था कि तुम कहीं राजा दुबे के पास रहते हो, मेरी बात वह तुम तक मज़ाक मज़ाक में पहुँचा देगा। छपने के लिए जो पत्र लिखे जाते हैं, वे दूसरी तरह के होते हैं। यदि उसे छापना अभीष्ट था तो उसमें कुछ पंक्तियाँ काट देनी चाहिये थीं। बहरहाल मुझे तुम्हारी आलोचनाएँ अच्छी लगी थीं। नया नाम होने के कारण तुम्हारा एक नोट पढ़ कर मैं दूसरा भी पढ़ गया था और तब जो impression था, मैंने राजा दुबे को लिख दिया था।

मेरी कहानियों के बारे में तुम जो सोचते हो, हो सकता है वह ठीक हो। गत पैंतिस वर्षों से लिखते लिखते मेरी कुछ निश्चित धारणाएँ बन गई हैं और मैं उन्हीं के अनुसार लिखता हूँ। एक आध बार सरसरी नज़र से पढ़ कर जो लोग फतवे दे देते हैं, वे प्रायः गलत सिद्ध हो जाते हैं। इधर "पलंग" की कहानियों को ले कर पत्र पत्रिकाओं में बड़ी चर्चा है। कभी कोई कहानी की गहराई को पकड़ लेता है, तब खुशी होती है, नहीं पकड़ पाता तो दुख नहीं होता, क्योंकि यह हर किसी के बस की बात नहीं है।

"सड़कों पे ढ़ले साये" की भूमिका मैंने व्यंग विनोद की शैली में ही लिखी थी। कुछ लोगों ने समझ लिया कि सचमुच में इस बात पर परेशान हुआ कि "आचार्य जी" ने मुझे "नया कवि" नहीं सकझा और मैं परेशान हुआ। हालाँकि यह लिखने का और गहरी बातों को मनोरंजक ढ़ंग से कहने का एक स्टाइल है। मैंने जो बातें अपनी भूमिका में उठायीं - इतनी आलोचनाओं में किसी लेखक ने भी उन पर बहस नहीं की। सवाल सही या गलत का नहीं है, नयी कविता के क्राइसिस का है। क्या यह सही नहीं है कि नयी कविता महज़ form पर ज़ोर दे रही है, या पश्चिम की स्थितियों और मनोभावों को अपने ऊपर नये कवि टूटन की निराशा की कविताएँ कर रहे हैं, या नया कवि शब्दों को अप्रयास समझ रहा हो, वगैरह वगैरह ... चूँकि ऐसी सभी बातें मैंने कहानी के ढ़ंग से कहीं, लोगों ने समझ लिया कि सचमुच कहीं मेरा अपमान हुआ है और मैं अपने आपको नया कवि मनवाने के लिए हाथ पैर पटक रहा हूँ।

कुछ ऐसी ही बात कहानियों के सम्बन्ध में भी है। कहानियों के माध्यम से जो मैं कहना चाहता हूँ, उसे जानने के लिए दो एक बार कहानियों को ध्यान से तो पढ़ना पड़ेगा ही। इस पर भी हर लेख की अपनी सीमाएँ होती हैं और उन्हें पार करना कई बार कठिन होता है।

पता नहीं तुमने मेरा नया कथा संग्रह "पलंग" या कविता संग्रह "सड़कों पे ढले साये" पढ़ा कि नहीं। न पढ़ा हो तो लिखना.

इधर नीलाभ से मेरी ५९वीं वर्षगाँठ पर एक बड़ी मनोरंजक पुस्तक निकली है। उसकी एक प्रति तुम्हें भेजने के लिए मैंने दफ्तर में फोन किया है, मिले तो पहुँच और राय कौशल्या को भेजना.

स. उपेन्द्र

दो पत्र, लेखक शरद जोशी

वर्षः १९६३
नवलेखन, हनुमानगंज, भोपाल

प्रिय भाई,

बहुत दिनों से नवलेखन को रचना भेजने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया है। पर ऐसा वोट आफ नो विश्वास पास न करें। नवलेखन का सातवाँ अंक निकल रहा है, आठवां प्रेस में जा रहा है। अब से हम कहानियों की संख्या बढ़ाएगे और थोड़ा बहुत पारिश्रमिक भी देंगे। बहुत अधिक तो नहीं होगा, पर कुछ अवश्य की शुरुआत हो। नवलेखन के लिए यह साहसी कदम है। दाद दीजिये और शीघ्र वैसी ही एक घाटी कहानी भेजें कि आइना देखूँ तो जिस्म अपना ही ...

मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि कुछ शीघ्र भेजेंगे। नवलेखन का विषेशाँक भी निकाला जाना है, उसके लिए कुछ सुझाव भेजो। आशा है प्रसन्न हो।

कथा संकलन उत्तर की प्रतीक्षा में,

तुम्हारा

शरद जोशी

वर्षः १९६३
भोपाल से

डीअर दीपक,

लेख दुरस्त कर दिया है, जैसा तुम चाहते थे। पत्र नहीं लिख पाया क्योंकि बुरा फँसा हूँ. इस कार्ड को भी पत्र न मानना और गालियाँ देना ही। दिवाली बाद लिखूँगा। संपादक की खसलत नहीं यह दोस्त की खसलत है कि जवाब नहीं देता। संपादक तो साले तुरंत उत्तर देते हैं "आपकी रचना प्राप्त हुई ... यों ... यों ... कृपा बनाए रखे वगैरा" + मैं अभी कहाँ हुआ संपादक। महेन्द्र कुलश्रेष्ठ के नाम कुल तीन गाली नामें अब तक प्राप्त हो चुके हैं, दो इस बार छाप रहा है। "जन" कब निकल रहा है? ओमप्रकाश निर्मल यहाँ आये थे, चर्चा कर रहे थे। प्रसन्न है न।

तु. शरद जोशी

एक आमन्त्रण कार्ड
वर्षः १९६५, दिल्ली

"कृतिकार और उसका संसार" विषय पर रविवार १९ दिसम्बर १९६५ को प्रातः साढ़े नौ बजे श्री शामलाल की अध्यक्षता में दिल्ली के सृजनात्मक कलाकारों की एक गोष्ठी आयोजित की गयी है।

आप सादर आमन्त्रित हैं।

स्थानः विट्ठल भाई पटेल भवन, रफी मार्ग, नयी दिल्ली

भवदीयः मकबूल फ़िदा हुसेन, राम कुमार, मोहन राकेश, रिचर्ड बार्थोलोम्यु, रघुबीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, ओमप्रकाश दीपक, जितेन्द्र सिंह, अम्बा दास, जे. स्वामीनाथन, श्रीकांत वर्मा

कार्यक्रम

उद्घाटन भाषणः आक्टेवियो पाँज
विषय प्रस्तावनाः अज्ञेय
प्रमुख वक्ताः देवीशंकर अवस्थी, जे. स्वामीनाथन, रिचर्ड बार्थोलोम्यु, मोहन राकेश, ओमप्रकाश दीपक, रभुवीर सहाय, कृष्ण खन्ना, इब्राहीम अलकाज़ी, सुरेश अवस्थी तथा श्रीकांत वर्मा

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मंगलवार, मार्च 01, 2016

डा. राममनोहर लोहियाः आखिरी साल

सुश्री रमा मित्र का यह आलेख समाजवादी पत्रिका "जन" के मार्च-अप्रैल १९६८ के अंक से लिया गया है।‌ इस अंक के सम्पादक मेरे पिता श्री ओमप्रकाश दीपक थे। डा. राम मनोहर लोहिया की अक्टबर १९६७ में मृत्यु के बाद यह उनका पहला "स्मृति अंक" था जिसमें उन्हें जानने वालों के उनके बारे में आलेख थे.

रमा जी का यह आलेख उसमें ४२ से ५० तक पृष्ठों में छपा था. रमा जी और डा. लोहिया ने विवाह नहीं किया था, वे जीवनसाथी थे, करीब बीस वर्ष तक साथ रहे. जब १९६७ में डा. लोहिया की मृत्यु हुई उस समय रमा जी समाजवादी दल की अंग्रेज़ी पत्रिका "मैनकाइन्ड" की सम्पादक थीं और दिल्ली विश्वविद्यालय के मिराण्डा कॉलेज में इतिहास की प्रोफेसर भी थीं.

१९७५ में मेरे पिता की मृत्यु के बाद, कई वर्षों तक रमा जी का हमारे घर आना मुझे याद है. उनके इस आलेख में डा. लोहिया के व्यक्तित्व का व्यक्तिगत रूप दिखता है.

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रमा मित्र

चौथे आम चुनाव से पहले कुछ दिन वह पूरे निखार पर थे। उन्होंने गैर कांग्रेसवाद के सिद्धांत का निरूपण कर दिया था। उनका नारा था - कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ। पर इसकी कल्पना चुनाव के मौके पर ही उन्होने नहीं की थी. काफ़ी पहले तीसरे आम चुनाव के वक्त जनवरी १९६२ में उन्होंने बताया था कि समाजवादी, राष्ट्रीयतावाद और भाषा जैसे प्रश्नों पर जनसंघ के और सम्पत्ति तथा समता जैसे प्रश्नों पर साम्यवादियों के किस तरह निकट हैं? राष्ट्रीयतावाद और भाषा के मामलों में वे जनसंघ के ज़्यादा निकट थे और सम्पत्ति और भाषा के मामलों के बारे में साम्यवादियों के, ज़्यादा। पर ऐसा कोई भी सवाल नहीं था और न ही हो सकता था कि जिस पर समाजवादी कांग्रेस के निकट हो सकते।

"कांग्रेस हटाओ" का नारा बुलंद करते हुए वह देश का अनवरत दौरा करते रहे। उनका ख्याल था कांग्रेस के हटने से हालांकि विभिन्न राज्यों में तरह तरह के मेल की खट्मिट्ठी गंगाजमुनी सरकारें बनेंगी पर बदलाव की प्रक्रिया चल पड़ेगी। वह बदलाव चाहते थे। बदलाव के लिए वह इतना व्यग्र थे कि उन्हें धीरज न था - ऐसा बदलाव जो स्थिरता के नाम पर देश में चलने वाली जड़ता को खत्म करे। आंकड़ों तथा तथ्यों से वह लैस थे। देहाती जलसों में आंकड़ों तथा अर्थशास्त्र की पेचीदगियों को एक दम आसान, सहज और बोधगम्य ढंग से रखने की उनकी प्रतिभा पर हैरत होती थी। देहाती लोग अत्याधुनिक शहरी बुद्धजीवियों के अपेक्षा उनकी बातें ज़्यादा आसानी और स्पष्टता से समझ पाते थे। कार्यक्रम को तफसील से बताते - कृषि, उद्योग, खरच, भाषा, जाति, विदेशी नीति जैसे मामलों पर। हर प्रश्न पर कांग्रेस ने देश और जनता का कैसे बंटाधार किया है, साबित करते।

Dr Ram Manohar Lohia - Jan March-April 1968 cover

पर गैरकांग्रेसवाद का उनका मार्ग आसान नहीं था। कभी कभी वह हताश और दुखी हो जाया करते थे। चुनाव समझौतों व तालमेल का उनका कार्यक्रम इस तरह अमल नहीं आ रहा था जिससे कि गैरकांग्रेसवाद को पूरा फायदा मिलता। कांग्रेस के खिलाफ एकजुट लड़ाई में कुछ पार्टियों का घमण्ड और दम्भ कि वे अकेले कांग्रेस को हरा सकती हैं और साम्प्रदायिक व जातीय विद्वेष और पूर्वाग्रह अटकाव थे। उनके अपने निर्वाचन क्षेत्र से जो खबरें आ रहीं थीं वे भी उत्साहजनक नहीं थीं - यही नहीं कि जनसंघ ने एक खास जाति के वोट जीतने की उम्मीद में उनके खिलाफ़ उम्मीदवार खड़ा किया था, जिससे कांग्रेस को मदद मिलने वाली थी और मिली भी - इसलिए भी कि उनके निर्वाचन क्षेत्र में विधान सभा के लिए जो संगी उम्मीदवार चुने गये थे उनका चयन भी काफी दुखद था। मुझे अभी भी याद है कि वह अक्सर हँसी में , जिसमें उनकी आँखें चमक उठती थीं मुझे कहा करते, "तुम जानती हो रमा, हिन्दुस्तान की राजनीति में मैं बेठीक आदमी हूँ, कोई भी चीज़ तो मेरी ठीक नहीं - मेरा कोई राज्य (प्रांत) नहीं और मेरी जाति गलत है। मैं क्या करूँ। सारे देश को आधार बना कर खुद अपने क्षेत्र का चुनाव लड़ना कितना मुश्किल है।" मैंने कहा यह सही है, आपके साथ जो हैं वे भी गलत आदमी हैं। मुझे ही लो, मध्यवर्ग की बंगालन हूँ और यही नहीं कायस्थ भी हूँ और यहाँ पर हम सब जो बाकी लोग हैं वे भी बड़ी जातियों के हैं।" "इसीलिए तो मैं तुम्हें कहता रहता हूँ कि कुछ हरिजन होने चाहिए जो हर महीने हमारे साथ कुछ दिन रहें।" उनके निर्वाचन क्षेत्र की खबरें खराब आ रही थीं और वह अपने निर्वाचन क्षेत्र को समय नहीं दे पा रहे थे। जब उन दौरों के बीच एक दिन दिल्ली में रुके तो मैंने बड़े अनुनय से कहा कि बाकी के दस दिन वह अपने निर्वाचन क्षेत्र में लगायें। इस पर वह तैश खा कर बोले, "तुम इस उम्र में मुझे राजनीति सिखा रही हो। क्या तुम इस बात को समझती हो कि मैं अपना नहीं अपनी पार्टी और विरोधपक्ष का चुनाव भी लड़ रहा हूँ।" मेरा मुँह बन्द हो गया।

चुनावों से उन पर जबरदस्त बोझ पड़ रहा था - शारीरिक और मानसिक दोनों। बिना किसी केन्द्रीय कोष के चुनाव लड़ना अतिमानवीय कार्य था. पार्टी ने एक साल पहले केन्द्रीय कोष के लिए पैसा जमा करना का शानदार कार्यक्रम बनाया था - ऐसा कोष जिसमें विभिन्न राज्यों तथा दलित उम्मीदवारों - महिलाओं, पिछड़ा वर्ग, मुसलमान तथा अन्य अल्पसंख्यक, आदिवासियों, हरिजनों, आदि - को चुनाव लड़ने का पैसा दिया जा सके। पर हुआ कुछ नहीं। फैसला करने और उस पर अमल न करने से उन्हें सबसे ज़्यादा दुख होता था। वही एकमात्र व्यक्ति थे जिन्होंने केन्द्रीय कोष के लिए पैसा इक्ट्ठा किया। वह मुझे संदेशे भेजते रहे कि उनके कोष से फलां फलां उम्मीदवार को पैसे भेजूँ। उन उम्मीदवारों में से अधिकतर पिछड़े वर्गों को होते। कुछ ऊँची जातियों के भी होते पर ऐसे जो बिना किसी कोष, गाड़ी व जीप और इश्तहार व साहित्य के चुनाव लड़ रहे थे। अपने निर्वाचन क्षेत्र के बारे में उनका कड़ा निर्देश था कि जब तक वह स्पष्ट आदेश न दें तब तक कोई पैसा न भेजा जाये। एक बार उन्होंने मुझे तार दिया कि कहीं से एक टेपरिकार्डर खरीदो और मेरे निर्वाचन क्षेत्र को भेजो ताकि मेरे भाषण उन इलाकों में सुनाये जा सकें, जहाँ मैं नहीं पहुँच पाया। चुनाव दौरों में वह थक जाते थे पर हमेशा उत्सुकता और आशा बनी रहती थी। उनकी गाड़ी बिगड़ जाती, माइक्रोफोन खराब हो जाता, वह साइकल या बैलगाड़ियों पर चल पड़ते। पर रिक्शा पर कभी नहीं, उसका सवाल ही नहीं उठता था, क्योंकि नीम जवानी के दिनों में उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि वह कभी रिक्शा पर नहीं चढ़ेंगे, किसी दूसरे आदमी पर सवार नहीं होंगे। रिक्शे का खयाल ही उनमें जुगुप्सा भर देता था। उन्होंने रिक्शा चलाने वाले को आधा इन्सान आधा जानवर कहा था, भारत के पतन का प्रतीक।

अपने निर्वाचन क्षेत्र में मतदान से चार दिन पहले वह दिल्ली आये। अपने निर्वाचन क्षेत्र से निकलने की वजह थी कि वह किसी न किसी तरह सुदूर उड़ीसा जाना चाहते थे कि अन्तिम घड़ी के प्रयत्नों से कुछ हजार मतों को किशन पटनायक के पक्ष में मोड़ सकें। दीवार पर टँगे नक्शे, हवाई यात्रा और रेलवे की पंजिकाओं को उन्होंने देखा, किराए पर विषेश विमान लेने के सिवाय समय पर उड़ीसा पहुँचने का कोई और रास्ता नहीं था। किशन उनके बहुत नज़दीक थे। वह संसद में बहुत तेज़ी से उभर रहे थे और वे चाहते थे कि किशन जरूर जीतें।

जब चुनाव के नतीजे आने लगे तो उन्हें काफ़ी आशा थी। दिल्ली आने पर उन्होंने मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज कराया और १९ फरवरी को रविवार था, ऐसा ही मुझे याद है, वह पहली मरतबा अपना मत देने गये. किसने उस समय सोचा था कि यह उनका अंतिम मतदान भी होगा। उनके कुछ दोस्त भी साथ थे। अपना मत देने के बाद मैं भी आ गयी। काफी हँसी मजाक और छींटाकसी चल रही थी। उनके कुछ दोस्त एक उम्मीदवार के पक्ष में मत देने को उनकी मनौवल कर रहे थे। वह उम्मीदवार कांग्रेसी नहीं था। मतदान के बाद हमने पूछा कि किसको मत दिया, पर वह बताने वाले नहीं थे। हंसी में उन्होंने हमें मत की गोपनीयता की याद दिलायी और हम भी हंसी में शामिल हो गये। चुनाव नतीजे तेजी से आने लगे तो आनन्दित और निराश होने का क्रम बंध गया - सारे वक्त रेडियो चलता रहता। फ़िर नतीजा सुन पड़ता, एक बड़ा कांग्रसी नेता धराशायी हो गया है या उनका कोई ऐसा साथी जिसके जीतने की पूरी उम्मीद थी, हार गया है। मुझे उनकी वह खिलखिलाहट अभी भी याद है, आधी रात बीत गयी थी कि उनके एक जवान दोस्त ने, जो अखबार में काम करता था, मुझे टेलीफोन किया। "इतनी रात बीते टेलीफोन कर आपको परेशान करने के लिए माफ़ी चाहता हूँ, पर एक मज़ेदार चीज़ हुई है - कामराज हार गये हैं।" मैं उनके कमरे में गयी - वह अभी भी पढ़ रहे थे, खबर सुनायी। उनका सारा चेहरा हंसी से भर गया, बोले "बढ़िया, बहुत बढ़िया।"

उनके खुद के चुनाव का नतीजा नहीं आ रहा था। अखबारों में कोई खबर नहीं थी, आगे हैं या पीछे। चुनाव क्षेत्र से एकदम चुप्पी थी। फ़िर उस शाम को जब हम लोग सब खाने के कमरे में बैठे चुनाव नतीजे की खबरें सुन रहे थे, उन दिनों हमारा चलन यही था, केन्द्रीय दफ्तर से फोन आया कि वह विधुना में कुछ हज़ार वोटों से आगे हैं. विधुना का विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र उनके निर्वाचन क्षेत्र में हाल में ही जोड़ा गया था। यह भी खबर आयी कि दो और जगहों में उनके मतों की गणना हो रही है। इस टेलीफोन के आधे घँटे बाद एक और टेलीफोन आया कि वह पीछे हो गये हैं। अपनी स्वाभाविक परिपूर्णता के साथ उन्होंने कागज़ और पेंसिल ली और अपने निर्वाचन क्षेत्र के सभी संसदीय उम्मीदवारों के मतों का जोड़ करने लगे। नतीजा एकदम निराशाजनक था। एक एक करके सब लोग अपने अपने घर चले गये थे और मैं ही उनके साथ अलेके रह गयी थी। मैंने कहा कि वह थोड़ी देर आराम कर लें तब तक मैं उनके लिए खाना परस दूँ। खाते हुए उन्होंने मेरी ओर देखा, "मेरे हारने से तुम्हें बहुत दुख होगा। होगा न?" उस वक्त भी जब हार जीत के बीच लगभग फर्क नहीं रहा था वह अपने बारे में नहीं दूसरों की बाबत सोच रहे थे। यह उनका स्वभाव था, उनकी बात थी। बीस साल के सान्निध्य में मैंने कभी उन्हें अपने बारे में सोचते नहीं पाया। मैंने कहा, "कोई आसमान नहीं फट रहा है यह सोचो कि आप हार गये हो। अब जा कर सो जाओ।" मैंने उन्हें दवा की गोलियाँ दीं और खुद लगभग सारी रात टेलीफोन के पास बैठी रही। आखिरकार अगले दिन दोपहर को हमारे पास खबर आयी कि वह बहुत कम वोटों से जीत गये हैं। "तुम इसे जीतना कहती हो।" मैं क्या कहती।

उनकी भविष्यवाणी कि कांग्रस कुछ राज्यों में हार जायेगी सही साबित हुई, पर कुल नतीजे से वह प्रसन्न नही हुए. नतीजों का उन्होंने विश्लेषण शुरु किया - उत्तरप्रदेश में उनके खुद के इलाके में नतीजा अच्छा रहा नहीं कहा जा सकता। बिहार काफ़ी अच्छा रहा। जैसा कि उन्होंने कहा था द्रमुक को छोड़ कर कोई भी दल उन जगहों पर जहाँ कांग्रेस हार गयी अकेला खड़ा नहीं हुआ। इस बात से वह परेशान हुए कि कुछ राज्यों में जहां जनता ने कांग्रेस को विधान सभा में अल्पसंख्यक बना दिया था, वहां उसने केन्द्र में कांग्रेस को विजयी बनाया। यह रोग का मुख्य लक्षण था। चुनावों के बाद वह हिन्दुस्तानी राजनीति के रोग - राज्यीय गैरकांग्रेसवाद और केन्द्रीय कांग्रेसवाद - के बारे में मुखर हुए। रूपक उपस्थिक करने में वह माहिर थे। उन्होंने हिन्दुस्तान की राजनीति को उच्च रक्तचाप का मरीज बताया - डायस्टोल और सायसटोल का तुलनात्मक फरक जिससे अंततः रोगी के स्वास्थ्य पर असर पड़ता है और वह खत्म हो जाता है। केन्द्र को उन्होंने कलक्टर और गैरकांग्रेसी राज्य को पटवारी की भी उपमाएँ प्रदान कीं। इसलिए चुनावों के बाद इस रोग को दूर करने के लिए उनकी मुख्य चाल यह थी कि केन्द्र में गैरकांग्रेसी सरकार हो। इस चाल का पहला दाँव राष्ट्रपति का चुनाव था।

उस वक्त वह कुछ दिनों राज्यों में गैर कांग्रेसी मिली जुली सरकारों का कार्यक्रम बनाने में व्यस्त रहे। राष्ट्रीय समिति की भोपाल में बैठक हो रही थी। उन्होंने कार्यक्रम का मस्विदा बनाया जिसमें खास तौर पर यह बताया कि सत्तारूढ़ होने के पहले ६ महीनों के भीतर यह सरकारें क्या करें और ऐसा न कर पाने पर उनकी पार्टी बेहिचक सरकार से बाहर आ जाये। लोग कांग्रेसी और गैर कांग्रेसी सरकार के बीच फरक आँक सकें। इस तरह के कार्यक्रम में एक सर्वोपरि बात थी ६॥ एकड़ भूमि पर से लगाना हटाना।

भोपाल से हम उन्हें कुछ दिनों के वास्ते कन्याकुमारी ले गये। कन्याकुमारी उनका प्रिय रमणीक स्थान था। एक बार वहां से उन्होंने मुझे लिखा था कि उन्हें यह बात रह रह कर कोंचती है कि कन्याकुमारी पर जहाँ भूमि समाप्त होती है वहाँ चट्टान पर जब विवेकानन्द ने समाधी लगायी थी तो उनका मुख भारत की ओर था या समुद्र की ओर। इस बारे में उन्होंने विवेकानन्द सोसाइटी के लोगों से पूछताछ की लेकिन कोई उन्हें उत्तर नहीं दे सका। इस प्रस्न का उन्होंने खुद अपना उत्तर प्राप्त किया। विवेकानन्द जेसे थे उसे देखते हुए वह निश्चित ही भारत की ओर उन्मुख रहे होंगे। कन्याकुमारी में ही उन्हें खबर मिली कि हमारे एक सदस्य विंध्येश्वरी मण्डल जो लोकसभा के लिए चुन लिये गये थे, बिहार सरकार में मंत्री बन गये हैं। उनका गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया, अपनी पार्टी के लोगों से इतनी जल्दी पदलोलुपता की उन्होंने उम्मीद नहीं की थी। दिल्ली पहुँचने पर प्रेस बयान दे कर इस घोर सिद्धांतहीनता पर उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की।

उन दिनों वह बहुत अनुत्साहित थे, स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। रक्तचाप की अक्सर शिकायत रहती। आँखें काफ़ी दिनों से परेशान कर रही थीं. यह भी सुझाया गया कि ग्लोकोमा के वास्ते उनकी आँखों का आपरेशन किया जाये पर यह सुझाव टाल दिया गया और आँखों में रोज दवा डालते रहने से हालत और बिगड़ी नहीं। लगातार थकान और उनींदेपन की शिकायत करते रहे। अक्सर मुझे कहा करते कि उन्हें भी वही शिकायत है जो अश्वनी को थी। अश्वनी उनके बहुत अज़ीज़ दोस्त थे जिनकी डेढ़ साल पहले मृत्यू हो गयी थी। मैं उन्हें यकीन दिलाने की कोशिश करती कि यह केवल थकान की वजह से है, उन्हें गुर्दे की कोई शिकायत नहीं जैसी कि उनके दोस्त को थी। उनके सारे बदन में दर्द होता रहता। पर शारीरिक पीड़ा से अधिक मानसिक चिन्ता व परेशानी थी।

वह कहते "क्या तुम सोचती हो कि इस देश में कभी कुछ होगा। क्या मेरी सारी कोशिशे बेकार जायेंगी?" थोड़ी देर में उनकी आशा लौट आती, "क्या पता कुछ आश्चर्यजनक हो जाये।" इसके बाद थोड़ा रुक कर अपने तईं बोलने लगते, "जनता उठेगी, इसमें मुझे कोई शक नहीं पर वह क्या हिंसा का रास्ता अख्तियार करेगी?" यह द्वन्द, यह शँका और भय कि जनता हिंसा का रास्ता अख्तियार करेगी उन्हें लगातार चिंतित करता रहता। एक पल के लिए घोर निराशा में वह अहिंसा को मानने से इंकार करते पर अन्तिम दिन तक अहिंसा में उनकी आस्था बनी रही। राष्ट्रपति चुनाव पर उनका पूरा जोर था और इसमें वह पूरी तरह जुटे हुए थे। भारतीय राजनीति की अलगाव व विघटनकारी बुराई व रोग को दूर करना ही होगा। इस कार्य का पहला कदम था कांग्रेस के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को हराना। यह ध्यान देने की बात है कि उनका प्रचार अभियान ही एकमात्र ऐसा प्रचार था जो परदे के पौछे नहीं वरन् खुल्लमखुल्ला जनता के बीच चला। सार्वजनिक प्रश्नों पर सार्वजनीन बहस-मुबाहिसा होना चाहिए - राजनीतिक अन्दोलन के लिए यही उनका नुस्खा था। चुनाव अभियान में उन्होंने सभाएँ की, अखबारों को भेंट दी और अंत में मतदाताओं से अपील की, कुछ भी उठा न रखा। यही नहीं वही एकमात्र नेता थे जिसने विरोधपक्ष के उपराष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार के लिए भी प्रचार किया। विरोधी पक्ष उम्मीदवार चुनने के बाद मौन साध गया। विरोध पक्ष हारा और बड़ी संख्या से हारा। इस हार से चौकन्ने हो कर कारणों का विश्लेषण करने बैठे। सूक्ष्म विश्लेषण की अपनी स्वाभाविक प्रतिभा से उन्होंने नतीजे के कारणों का रेशा रेशा उघाड़ लिया। गैर कांग्रेसवाद को केन्द्र में लाने का उनका पहला निशाना खाली गया - सभी विरोधी सदस्यों ने साथ जो नहीं दिया।

अप्रैल में हमने उन्हें विलिंगडन अस्पताल डाक्टरी जाँच के लिए भेजा। नवम्बर में भी जाँच के लिए वहाँ गये थे। अब डाक्टरों ने पौरुष ग्रंथि के आपरेशन की बात कही. आपरेशन की बात उन्हें नहीं भायी। वह खिन्न हो गये। मैंने उनसे कहा कि हम इसके बारे में दुबारा राय मालूम करेंगे और शल्य क्रिया के प्राध्यापक द्वारा जाँच कराने के लिए अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान ले गयी जिसकी राय थी कि आपरेशन की तात्कालिक ज़रूरत नहीं थी और इन्जेक्शनों वह दुरुस्त होने लगेंगे। वह काफी खुश हो गये और मैंने राहत महसूस की। जब वह विलिंगडन अस्पताल में थे तब भी राजनीति में एकदम बँधे हुए थे। इस बीच दिल्ली में पुलिस आन्दोलन भड़क उठा था। वह लगातार सलाह मशविरा और परामर्श देते रहते थे, अपने साथियों को भेजते और क्या कदम उठाये जायें सोचते। प्रेस वक्तव्य देते और अस्पताल के मैदान में उन्होंने एक सभा की जिसकी खबर एक दैनिक में भी छपी जिससे अस्पताल अधिकारी काफ़ी परेशान दीखे। अस्पताल से जा कर दिल्ली के मजदूर संघों की एक सभा में वह भाषण भी दे आये। दिल्ली के अधिकाँश मजदूरसंघों पर दक्षिणपंथी साम्यवादियों का नियंत्रण है। सभा में उन्होंने हड़ताली पुलिस सिपाहियों की सहानुभूति में आम हड़ताल की अपील की। उनको लगा कि यह एक ऐसा स्वर्णिम अवसर है जबकि जनता और पुलिस के बीच एका बैठाया जा सकता है। इस एक्य से दिल्ली में स्वयंमेव एक क्रांतिकारी स्थिति पैदा हो जायेगी जिसका असर देश भर पर पड़ेगा।

पर १८ नवम्बर १९६६ की छात्र कूच की तरह इस बार भी साम्यवादी यूनियन आगे नहीं बढ़े। उनके आगे बढ़ने से स्थिति बदल जाती। डा. साहब का तरीका यह नहीं था कि क्राति की बात को बहुत ज्यादा की जायेपर कोई आन्दोलन या उस पर अमल नहीं किया जाये। उनके लिए कार्य का असफल होना या उसका एकदम ही निष्प्रभाव होना कार्य न होने से बेहतर था। उन्होंने दिल्ली भर में कई सभाओं में भाषण दिये और जनता को आम पुलिस सिपाही के हाल के बारे में बताया - अफसरों और सिपाहियों के बीच की गहरी खाई और किस तरह सिपाहियों को मानवीय गुणों से च्युत कर पशु बनाया जा रहा है, बताया। साथ ही उन्होंने इन सभाओं में पुलिस जनता दोस्ती की कसम दिलवायी। वही एकमात्र नेता थे जिसने स्थिति की विस्भोटक संभावना को आंका था - केन्द्र पर प्रहार करने का एक बेहतरीन और अद्भुत मौका था. इस मौके के जाने से वह दुखी और निराश हुए थे।

मई की शुरुआत में मेरे एक आत्मीय की मृत्यू हो गयी। वह कितने कोमल और संवेदनशील थे। सार्वजनिक सभाओं में वह अक्सर भारतीय नारी की दुर्गति की चर्चा करते, भारतीय नारी जो हजारों साल से दबायी गयी। वह सभा में उपस्थित पुरुषों से कहते आप स्त्रियों की अधोगति जानने के लिए अर्धनारीश्वर बनो (उसी तरह जिस तरह वह आधा हिन्दू आधा मुसलमान होने की बात कहते), वह खुद इसी तरह थे। मैंने बार बार उनमें यह बात पायी है, ऐसी कोमलता पायी जो केवल माँ में ही मिलती है। जब भी मैं बीमार पड़ी हूँ या दुखी हुई हूँ, माँ की तरह उन्होंने मेरा जतन किया।

मई में पार्टी शिविर में वह त्रवेन्द्रम गये। वहाँ उन्होंने विभिन्न विषयों पर, जिनमें विदेश नीति भी थी, भाषण किये। व्यवहारिकता, प्रचार और दक्षिण भारतीय श्रोताओं के शोर मचा कर बैठा दिये जाने के भय जैसे कारणों ने उन्हें कभी अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा में बोलने को विचलित नहीं किया। दूसरी भाषा में बोलने के बजाय उन्हें मौन मंजूर था। जून के मध्य में मैं वाराणसी उनके साथ हो ली। रात वह गंगा में नाव पर बिताना चाहते थे। हम सभी नाव में थे। नौका ने मणिकर्णिका घाट के सामने सीध पर लंगर डाला. मणिकर्णिका घाट पर हमेशा कोई न कोई चिता जलती रहती है. मैंने पहली बार शमशान देखा। वह सोचमग्न हो गये, "मृत देह को ले कर इतना झमेला क्यों किया जाता है? प्राणों के बिना देह क्या है। मृत देह को नष्ट करने के वास्ते इतना ज्यादा खरच क्यों? मृतक के धनी होने पर कितना खरच होता होगा, यह सोचो। मृतदेह को जल्दी, आसान, स्वस्थ ढंग और कम खरच में नष्ट करना चाहिये।" मुझे याद आता है एक बार जब हम दिल्ली में रिंग रोड से गुजर रहे थे तो मैंने उनसे कहा था जब मैं मर जाऊँ आप मुझे बिजली के शमशान में ले जाइयेगा। इस पर वह हँसे, "देखो कौन किसको लाता है। मैं तुमसे बड़ा हूँ।"

वाराणसी से पार्टी विधायकों और कार्यकर्ताओं की सभा में भाषण देने लखनउ गये। अब वह गैर कांग्रेस सरकारों, कम से कम उत्तर प्रदेश की सरकार से उम्मीद हारने लगे थे। मार्च में जब उन्होंने चरणसिंह के संयुक्त विधायक दल में सामिल होने की बात सुनी तो उनके उत्साह और खुशी का कोई ठिकाना नहीं था और अपने स्वाभाविक अतिरेक में उन्होंने चरणसिंह की तारीफ के पुल बाँध दिये। उन्होंने उम्मीद की थी कि चरणसिंह जैसा पिछड़े वर्ग का आदमी जमीन पर लगाना हटाने, हिन्दी में कामकाज शुरु करने आदि जैसे कार्यक्रमों से राज्य में तुरंत बदलाव की ताकतों को बढ़ावा देगा। पर उन्हें अपनी पार्टी के विधायकों से कम निराशा नहीं थी। मेरे ख्याल में उनसे वह ज्यादा ही निराश थे। उस सभा में उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि वह अपनी पार्टी के विधायकों से क्या उम्मीद करते हैं, क्या कदम पार्टी के विधायक उठायें। उन्होंने कहा था कि आगे देखूँ कानून के मामले में वे कांग्रेस के साथ भी मत देने तक जा सकते हैं। अगर उदाहरण के लिए कांग्रेस लगान का खात्मा करने के लिए संशोधन रखे तो उसका सर्मथन करने में कोई हिचक या क्लेश नहीं होना चाहिये।

एक बार उन्होंने कहा था कि वह अच्छे काम के लिए शैतान के साथ भी मत देंगे। हालाँकि शैतान का इरादा उसके स्वाभाव के कारण शैतानियत का ही होगा। वह काम और नतीजे को महत्व देते थे। वह कभी इरादे ढूँढ़ निकालने की कोशिश न करते। काम और काम ही उनकी राजनीति की आधारशिला था।

हम दिल्ली लौट आये, अब काफी गरमी पड़ने लगी थी। वह बहुत मेहनत कर रहे थे और उनकी तबियत भी अच्छी नहीं रहती थी, पर भाषण देना, लिखना और असंख्य मुलाकातियों से मिलना और बातचीत करना जारी था। मेरे जानते वही अकेले नेता थे जो एक साथ ही जीवन का आन्नद भी लेते रहते थे - हँसते हुए, चिढ़ाते हुए, तरह तरह के काम करते हुए, ऐसे काम जो राजनीति के दायरे में नहीं आते।

गरमियों के उन दिनों में मैंने बहुत हिचकिचाते हुए कहा कि मैं एक रूम कूलर लेना चाहती हूँ। "माफ करो, मेरे कमरे के लिए नहीं। यह सुख सुविधाएँ मेरे लिए नहीं हैं हालाँकि इससे मुझे काम करने में ज्यादा मदद मिलेगी। नहीं, कतई नहीं।"

इससे काफी पहले जब वह पहली बार संसद के सदस्य चुने गये तो उनके कुछ दोस्तों ने उन्हें मोटर खरीद देने की बात रही। मोटर का आर्डर भी दे दिया गया। मैं मोटर देख कर आई और उन्हें बताया। उस बार वह नाराज नहीं हुए थे। उन्होंने मुझे बिठाया और मोटर के खर्च का अन्दाज लगाने लगे औेर फ़िर विजयोल्लास में कहा "टेक्सी सस्ती रहेगी"। उन्होंने इस संभावना की भी गवेषणा की कि ऐसे ६-७ दोस्त हो सकते हैं जो उन्हें एक महीने में चार बार मोटर देंगे, इस तरह २८ दिन मोटर वाले हो जायेंगे। पर वह एक दोस्त ही जुटा पाये और उसकी मोटर भी नियमित नहीं आ पायी। पैसों की बरबादी के बारे में वह बहुत ज्यादा आगाह रहते थे। जनता के बीच जो कहते उसी को हमेशा सबसे पहले अपने उपर लागू करते।

जुलाई के आरम्भ में इंजेक्शनों का कोर्स खत्म करने के बाद अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान में सर्जन ने उनकी फ़िर जाँच की। इस बार सर्जन की राय थी कि आपरेशन के सिवाय कोई चारा नहीं। यही नहीं, जितना जल्दी किया जाये उतना अच्छा। नहीं तो जिस तरह की ज़िन्दगी वह जीते हैं, जिसने देहातों में जाना होता है, उसमें नाना प्रकार की पेचदगियाँ पैदा हो सकती हैं, और काफ़ी पीड़ा और असुविधा हो सकती है। आपरेशन का ख्याल उन्हें खराब लगता था, वह सिद्धांततः इसके खिलाफ़ थे। आपरेशन के खयाल से ही उन्हें अरुचि थी। मैंने उनसे पूछा क्या वह छुरे से डरते हैं? यह सवाल मैंने ऐसे आदमी से किया था जिसे ज़िन्दगी में किसी तरह के डर का अहसास नहीं था. उन्होंने कहा कि "ऐसा नहीं है"।

वह चुप हो गये तो मैंने कहा क्या इसका हिंसा अहिँसा से तालुक है। उनका मुख स्नेह की अपूर्व मुस्कान में खिल गया। "तुमने बात ठीक पकड़ी। यह चीरने फाड़ने की बात मुझे पसन्द नहीं आती। मुझे समझ में नहीं आता तुम लोग किस तरह मुर्गी, मछली और जीवित जानवर खाते हो और फ़िर चटखारे भी भरते हो।" उन्हें पेड़ों की शाखाएँ काटना भी कभी नहीं भाया। बहुत दफ़े उन्होंने मुझसे शिकायत की कि माली डालें काट देता है। मैं उनसे कहा करती कि यह पेड़ों के भले के वास्ते है, काँट छाँट से वे बढ़ते हैं। "अगर तुम्हारे हाथ पाँव काट दिये जायें तो तुम्हें कैसा लगे।" आप की यह तुलना सही नहीं है, मैं कहती। जीवित प्राणी के प्रति किसी भी तरह की निर्ममता उनके स्वाभाव के प्रतिकूल थी। वही अकेले आदमी थे, जिन्होंने हिँसा को ले कर जान और माल के बीच फरक किया। माल इस देश में ज़्याद रक्षणीय रहा है, वह व्यंग में कहते, मनुष्य तो मक्खियों की तरह है सो उसके मरने की किसी को क्यों परवाह हो।

एक रात शायद अगस्त का महीना था, उन्होंने अपना हाथ मेरे आगे फैला दिया और कहा हाथ देखो। मैंने हाथ देखते हुए कहा, "आप प्रधान मंत्री नहीं बनोगे"। "तुम क्या सोचती हो मैं प्रधानमंत्रित्व की कामना करता हूँ, बस यह बताओ कि मैं क्या देश का भला, सही मायने में भला कर सकता हूँ। क्या लोग मेरी बात सुनेंगे और काम करेंगे?" इसके बाद फ़िर, "क्या जो होगा वह हिँसक होगा?", मैंने कहा, "कुछ न कुछ हो कर रहेगा। आप का आयुष्य दीर्घ है और सत्तर बरस तक जीयेंगे।" "केवल सत्तर, कुछ और बरस तो दो।"

विरोधी दलों और अपनी पार्टी पर से विश्वास उठने पर भी जनता में उनका विश्वास कभी नहीं डिगा। किस तरह जनता को, जो दो हज़ार साल से भी अधिक पशुओं जैसा जीवन जीती आ रही है, उठाया जाये, जगाया जाये। किस तरह जाति व्यवस्था का घृण्य प्रभाव दूर किया जाये. "तुम इतिहास की कैसी विद्यार्थी हो। क्या तुम्हें हमारे इतिहास की इस सचाई की पड़ताल करने की इच्छा नहीं होती। क्या हमारे प्रसिद्ध इतिहासकारों में एक भी आदमी ऐसा नहीं है जो हमारे इतिहास के बारे में वास्तविक अनुसंधान करे। एक नहीं तो इतिहासकारों की टीम ही सही। क्यों विदेशी शासन के आगे हमने बार बार आत्मसमर्पण किया। विश्व के इतिहास में इस तरह की कोई मिसाल नहीं।"

उन दिनों वह पूर्व जर्मनी के हाले स्थित मारटिन लूथर विश्वविद्यालय से मारटिन लूथर की ४५०वीं बरसी पर पूर्व जर्मनी आने का निमंत्रण पा कर उत्साहित थे। उनका उत्साह बढ़ रहा था। निमंत्रण पत्र अगस्त में उस दिन आया जिस दिन वह दिल्ली से कहीं दौरे पर जा रहे थे। "तुम क्या समझती हो, मुझे क्यों निमत्रित किया गया है। क्यों हमेशा निमंत्रण पूर्व जर्मनी से आता है, पश्चिमी जर्मनी से नहीं। तुम्हें पता है छात्रावस्था में मैंने एक बार हाले की एक सभा में भाषण दिया था. पौन घँटे के भाषण में २० बार तालियाँ बजी थीं। यूरोप के लोग तालियाँ बजाना जानते हैं। हम एशियाइयों की तरह मरी मरी ताली नहीं बजाते। अरे हमें तो ताली बजाना भी नहीं आता।" निमंत्रण से उनकी तबियत रंग पकड़ रही थी। "पूर्वी जर्मन साम्यवादियों से प्रोटेस्टैंट वाद पर बात करने में गजब का मजा आयेगा। आखिर मुझसे बड़ा प्रोटेस्टैंट है कौन। यहाँ पर मैं उस दिन कृष्ण पर बोला, वहाँ मैं लूथर पर बोलूँगा।"

दौरे से लौटने पर उन्होंने सबसे पहले पूछा कोई और उत्तर आया? "शायद वह नहीं चाहते कि मैं बोलूँ। मैं निमंत्रित अतिथि की हैसियत से वहाँ नहीं जाना चाहता। मैं बहस में भाग लेने ही जाउँगा।"

पटना, दंगाग्रस्त रांची और अन्य स्थानों का दौरा करने के बाद वह लौटे थे। वह जयप्रकाश से भी मिले थे। मैंने पूछा जे.पी. से क्या बातचीत हुई? "इस तरह की बातचीतों से कुछ होता है, हमारे देश में कुछ भी होता है क्या?" पर आखिर आप उनके साथ कई घँटे थे, आप दोनो ने एक दूसरे के चेहरे को ही तो नहीं देखा होगा और केवल मौसम के बारे में ही बातचीत नहीं की होगी। "हाँ हमने बातचीत की। जयप्रकाश ने एक लम्बा कार्यक्रम बनाया है जिसे बिहार सरकार को अमल में लाना चाहिये।" मैंने उनसे कहा बिखरे कार्यक्रम के बजाय सरकार को एक एक मामला, जैसे लगान का, लेना चाहिये और उस पर पूरी दृढ़ता से काम करना चाहिये। इसके बाद उन्होंने आन्दोलन की बात तिरस्कार व अवहेलनात्मक ढंग से कही, मुझे इस पर गुस्सा आया और मैंने उन्हें कहा, "देखो जयप्रकाश, मुझे भी आन्दोलन की खातिर आन्दोलन करना पसन्द नहीं और न ही जेल जाना पर ऐसी मजबूरियाँ होती हैं कि आन्दोलन जरूरी हो जाता है। उनके सिवाय कोई दूसरा चारा नहीं रहता। तुम कभी जेल नहीं गये हो", इस पर उन्होंने मेरी ओर आँखें चढ़ा कर देखा तो मैंने जोड़ा, "आजादी के बाद"! जयप्रकाश से यही मेरी बातचीत हुई। इस निकम्मे देश में कुछ भी नहीं होता।"

उन दिनों उनसे मिलने तरह तरह के बहुत से व्यक्ति, कांग्रेसी, साम्यवादी, स्वतंत्र, सब आया करते थे। एक बार वह लोकसभा के अध्यक्ष श्री संजीव रेड्डी के यहाँ रात दावत पर गये थे. दावत में वही अकेले मेहमान थे. मैंने दावत के बारे में और क्या बातचीत हुई, पूछा तो अनूत्साहित स्वर में उन्होंने कहा।

"एक गैर कांग्रेसी केन्द्र हो सकता था। दोनो किस्म के साम्यवादियों, जनसंघी और स्वतंत्र दल जैसे हैं, उन्हें देखते हुए मैं संजीव रेड्डी को क्या आश्वासन दे सकता था था कि मैं एक गैर कांग्रसी मिली जुली सरकार बना सकूँगा।"

अब उन्हें आपरेशन की जल्दी पड़ी थी क्योंकि डाक्टरों की यही सलाह थी। एक बार किसी बात को मान लेने पर उन्हें देर बरदाश्त नहीं होती थी। वह मुझे बार बार आपरेशन की तारीख तय करने को कहते। उनकी तबियत ठीक नहीं थी और वह जल्द चंगा होना चाहते थे, उन्हें बहुत कुछ करना था, विदेश जाना था और न जाने क्या क्या करना था। इस बात पर काफी बहस होती रही कि आपरेशन कहाँ हो और उसे कौन करे। जब वह कलकत्ता जा रहे थे तब मैंने कहा कि आप वहाँ किसी सरजन से जाँच कराना। "तुम जानती हो यह डाक्टर और सरजन कैसे एक दूसरे की बात को काटते हैं, और अपनी काटवाली बातों से आदमी को घपले में डाल देते हैं।" उनकी राय थी कि आपरेशन दिल्ली में हो या लखनऊ में। लखनऊ पर उनका मन ज्यादा था, क्योंकि उनका ख्याल था कि वहाँ आराम ज्यादा होगा। आखिर में उन्होंने विलिंगडन अस्पताल चुना। क्रूर नियति ही की बात है कि उन्हें विलिन्घडन अस्पताल के सुपरिन्टेडेंट ब्रिगेडियर लाल पर जबरदस्त भरोसा था। इससे पहले उन्होंने ब्रिगेडियर लाल को चाय पर बुलाया था और मुझे चेतावनी दी थी मैं उनसे उनके स्वास्थ्य की बात न करूँ। वह लाल को बहुत बड़ा डाक्टर मानते थे क्योंकि लाल ने एक बार हमारे एक कार्यकर्ता की जान बचायी थी। डा. साहब का स्वभाव अत्यंत उदार था और तारीफ़ व निन्दा दोनो में ही वह कंजूस न थे।

२८ सितम्बर को वह अस्पताल में दाखिल हुए, ३० को आपरेशन हुआ और ११ अक्टूबर को मध्य रात्री के थोड़ी देर बाद मृत्यू। वह हमेशा सफाई, सुथराई के कायल थे। अस्पताल आने पर उन्होंने बिस्तर की चादर देखी कि वह साफ़ है या नहीं। उन्होंने कहा कि मैं घर से तौलिये ले आऊँ पर हमें लगा कि घर के तौलिये स्वच्छता की दृष्टि से निर्दोष और निरापद नहीं रहेंगे, शायद उनसे छूत लगे। पर हुआ यह कि उनकी मृत्यू एक ऐसे घातक दोष से हुई जो ओज़ारों को निर्दोष करने की कमी के कारण छूत से पैदा हुआ। आपरेशन के मौके पर उन्होंने आपरेशन के बारे में फ़िर से पूछताछ की कि वह किस तरह होगा और कैसे होगा। जीवन में हर बात में उनका आग्रह तह तक जाने का था। इसके बाद उन्होंने कहा, "हंसी की बात है कि इस उमर में भी मुझे पता नहीं मेरा खून किस वर्ग का है।" जब मैंने कहा कि यह जानना कोई जरूरी नहीं, तो उन्होंने झिड़कते हुए कहा, "तुम्हारा पक्का एशियाई दिमाग है। हर यूरोप अमरीका वाला अपने रक्त का वर्ग जानता है।" मुझे इस पर एक घटना याद हो आयी। एक बार हमारे रसोईये ने माली को यह कह कर रसोई में नहीं घुसने दिया कि वह छोटी जात का है। जब उन्होंने यह बात सुनी तो रसोईये को बुलाया और इनसाइक्लोपीडिया की जिल्द निकाली और चित्रों के माध्यम से बड़े धीरज से रक्त रहस्य बताया - रक्त जाति से निर्धारित नहीं होता वरन उसके अंतर्निहित तत्वों से. इसके बाद रसोई बनाने वाले इस लड़के ने फिर कभी जाति की बात नहीं उठायी।

अपनी सक्षिप्त बीमारी के दौरान जब वह मौत से जूझ रहे थे मैंने देखा कि उनके दिमाग पर दो बोझ थे। इनमें अव्वल देश की हालत थी। बार बार भयानक पीड़ा और कराह में वह लगान के खात्मे, हिन्दु मुसलिम एकता, गरीब किसानों की दुर्दशा, भाषा तथा अन्य मामलों के बारे में बोलने लगते। मेरे खयाल में वह कभी भी पूरी तरह बड़बड़ाने या संज्ञाशून्य होने की स्थिति में नहीं थे। अपने आसपास के प्रति वह जागरूक दीखते थे। हममें से कुछ को उन्होंने हमेशा पहचाना - स्पर्श से या आवाज़ सुन कर या आँखें खोल कर। एक बार उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और कहा, "बताओ, तुम मुझसे कभी झूठ नहीं बोलोगी - क्या हमारे देश में कोई बड़ी चीज़ हो रही है?" "यह पहला रिहर्सल है" - इसके बाद वह भारत पाक महासंघ की बात कहने लगे। हालांकि जब वे अस्पताल में दाखिल हुए तब उनको आसन्न मृत्यु का कोई आभास नहीं था पर शायद जब उनकी हालत खतरनाक हो गयी तो उन्हें लगा कि समय बीता जा रहा है। लिहाजा देश के भवितव्य को ले कर उनकी चिंता व क्लेश मुखर हो उठा। दूसरी बात यह दीख पड़ी कि उन्हें ऐसा लगा कि उनके शरीर में कहीं कोई भारी गड़बड़ हो गयी है। इतने ज्यादा डाक्टरों का जमा होना उन्हें जताता रहा कि वह कितने ज्यादा बीमार हैं। बार बार वह इतने ज्यादा डाक्टरों की मौजूदगी की चर्चा करते रहे, "इतने डाक्टरों का होना अच्छा नहीं"।

वह इतनी पीड़ा पा रहे थे और जबरदस्त बेचैनी थी, पर इसके बावजूद कभी पीड़ा में चिल्लाते हुए मैंने उन्हें नहीं देखा। बीमारी के दौरान मैं लगभग सारे समय उनके साथ थी। हमें इस बात का कभी पता नहीं लगेगा कि वह किस तरह और क्यों मरे? केवल मृत्यु के वक्त उनके चेहरे पर शांति विराज रही थी हालांकि भौंहें तनी थीं. उनके प्रिय चेहरे की यह परीचित भृकुटि थी।

क्या यह महज संयोग है कि जब वह बीमार पड़े थे और मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे तभी गैरकांग्रेसवाद पर जबरदस्त प्रहार शुरु हुआ? कौन जानता है? गैरकांग्रेसवाद के जनक की मृत्यु के बाद एक एक कर गैरकांग्रेसी राज्य ढहने लगे। दिल्ली में मार्च अप्रैल के दौरान जब गैरकांग्रेसी सरकारें बन रहीं थीं एक चुटकला चालू था. इस चुटकले पर वह बाग बाग हो उठते - अमृतसर से हावड़ा तक गैरकांग्रेस राज्यों का बोलबाला है, बीच में कहीं कांग्रेसी इलाका नहीं आता। अब यह बात नहीं रही।

इस साल जाड़ा बड़ा सख्त था और बेहद लम्बा चला। दिल्ली की सरदी उन्हें बरदाश्त नहीं होती थी। अक्सर मुझे कहा करते "जाड़े में मुझे दिल्ली मत रहने दिया करो।" आग के आगे बैठने में उन्हें आनन्द आता। बिजली का हीटर भी रहता था, पर अपनी वैज्ञानिक भंगिमा में वह बतलाते कि किस प्रकार जलता हुआ काठ सारे घर को गरमा देता है। उन्हें उष्णता प्यारी थी, शायद भारतीय राजनीति में उन जितना कोई स्नेही नहीं था। अब डाक्टर साहब नहीं रह गये, अपने साथ वह सारा स्नेह और ममत्व ले गये हैं, और मेरी दुनिया निस्तेज, उदास और खोखली रह गयी है।

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टिप्पणी: मुझे रमा मित्र की कोई तस्वीर नहीं मिली. नीचे वाली तस्वीर १९४९-५० की है, इसमें नीचे मेरी माँ जो उस समय कमला दीवान होती थीं, वह बैठी हैं. उनके पीछे शायद रमा जी हैं, पर पक्का नहीं कह सकता. बीच में खड़े डा. लोहिया भी हैं.

Dr Ram Manohar Lohia, Rama Mitra and Kamala Deepak, 1949


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गुरुवार, अगस्त 06, 2015

एक अकेला बूढ़ा

भारत की जनसंख्या में बदलाव आ रहा है, बूढ़ों की संख्या बढ़ रही है. अधिक व्यक्ति, अधिक उम्र तक जी रहे हैं. दूसरी ओर परिवारों का ध्रुविकरण हो रहा है. आधुनिक परिवार छोटे हैं और वह परिवार गाँवों तथा छोटे शहरों से अपने घरों को छोड़ कर दूसरे शहरों की ओर जा रहे हैं. जहाँ पहले विवाह के बाद माता पिता के साथ रहना सामान्य होता था, अब बहुत से नये दम्पत्ती अलग अपने घर में रहना चाहते हैं.

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कैसा जीवन होता है भारतीय वृद्धों का?

पिछले वर्ष मैं साठ का पूरा हुआ और सरकारी योजनाओं के लिए "वरिष्ठ नागरिक" हो गया. अपनी साठवीं वर्षगाँठ पर मैंने इटली में अपने परिवार से दूर, कुछ सालों के लिए भारत वापस आ कर अकेला रहने का निर्णय लिया.

मेरे अकेले रहने के निर्णय और भारत के आम वृद्ध व्यक्ति की स्थिति में बहुत दूरी है. यह आलेख बूढ़े होने, अकेलेपन, निस्सहाय महसूस करना, इन्हीं बातों पर मेरे व्यक्तिगत अनुभव को समाजिक परिवर्तन के साथ जोड़ कर देखने की कोशिश है.

इस आलेख की तस्वीरें गुवाहाटी के इस वर्ष के अम्बाबाशी मेले से बूढ़े साधू, साध्वियों और तीर्थ यात्रियों की हैं.

विवाह की वर्षगाँठ

पिछले रविवार को मेरे विवाह की तेंतिसवीं सालगिरह थी. उस दिन नींद सुबह के साढ़े तीन बजे ही खुल गयी. वैसे तो जल्दी उठने की आदत है मुझे, पर इतनी जल्दी नहीं. अधिकतर चार-साढ़े चार बजे के आसपास उठता हूँ. एक दिन पहले सोचा था कि इस बार की विवाह एनीवर्सरी को रोटी बना कर मनाऊँगा. काम से बाद घर वापस आते समय बाज़ार से आटा और बेलन दोनो खरीद कर ले आया था. शायद रोटी बनाने की चिन्ता या उत्सुकता ने ही जल्दी जगा दिया था?

मेरी पत्नी का फोन आया. "तुम विवाह की वर्षगाँठ मनाने के लिए क्या करोगो?", उसने पूछा. "रोटी बनाऊँगा", मैंने कहा तो वह हँसने लगी.

गुवाहाटी में रहते हुए करीब आठ महीने हो चुके हैं. सुबह क्या करना है, इसकी भी नियमित दिनचर्या सी बन गयी है. उठते ही, सबसे पहले शरीर के खुले हिस्सों पर मच्छरों से बचने वाली क्रीम लगाओ. फ़िर बल्ड प्रेशर की गोली खाओ. उसके बाद कॉफ़ी तथा नाश्ते का सीरियल बनाओ. जब तक कॉफ़ी पीने लायक ठँडी हो और कम्यूटर ओन हो तब तक थोड़ी वर्जिश करो.

सुबह उठ कर ध्यान करूँगा, यह कई महीनों से सोच रहा हूँ. लेकिन आँखें बन्द करके पाँच मिनट भी नहीं बैठ पाता हूँ. कहने को अकेला हूँ, समय की कमी नहीं होनी चाहिये, लेकिन ठीक से ध्यान करने के लिए समय निकालना अभी तक नहीं हो पाया. और भी बहुत सी बातें हैं जिनको करने के सपने देखे थे, पर जिन्हें करने का अभी तक समय नहीं खोज पाया - असमी बोलना सीखना, संगीत की शिक्षा लेना, चित्रकारी करना, नियमित रूप से लिखना, आदि.

सारा दिन तो काम में निकल जाता है. मैं यहाँ गुवाहाटी में एक गैर सरकारी संस्था "मोबिलिटी इँडिया" के लिए काम कर रहा हूँ.ऊपर से घर के काम अलग. कितनी भी कोशिश कर लूँ, उन्हें पूरा करना कठिन है. झाड़ू, पोचा, कपड़े धोना, बाज़ार जाना, खाना बनाना, बर्तन साफ़ करना, कपड़े प्रेस करना, मकड़ी के जाले हटाना, खिड़कियों के शीशे साफ़ करना, बिखरे कागज़ सम्भालना, कूड़ा फैंकना, और जाने क्या क्या! यह सब काम एक दिन में पूरे नहीं हो सकते. इसीलिए अभी तक टीवी भी नहीं खरीदा. सोचा कि वैसे ही समय नहीं मिलता, अगर टीवी देखने में लग गया तो बाकी के सब कामों को कौन करेगा?

भारत आने के बाद अकेला रहते रहते, धीरे धीरे सब खाना बनाना सीख चुका हूँ. बस अब तक कभी रोटी नहीं बनायी थी. मार्किट में बनी बनायी रोटियाँ मिलती हैं जिन्हें फ्रिज़र में रख सकते हैं और आवश्यकतानुसार गर्म कर सकते हैं. पर इधर दो-तीन बार मार्किट गया था लेकिन बनी बनायी रोटी नहीं मिली. दुकान में केवल पराँठे थे जो मुझसे ठीक से हज़म नहीं होते. फ़िर सोचा कि जिस तरह से बाकी सब खाना बनाना आ गया है तो रोटी बनाने में क्या मुश्किल होगी? बस इस शुरुआत के लिए किसी शुभ दिन की प्रतीक्षा थी. और विवाह की वर्षगाँठ से अच्छा शुभदिन कौन सा मिलता!

रविवार की सारी सुबह रसोई में गुज़री. रेडियो से गाने सुनता रहा और साथ साथ खाना बनाता रहा. जब थोड़ी गर्मी लगी, तो फ्रिज में ठँडी बियर इसीलिए रखी थी. शायद बियर का ही असर था कि जब कोई पुराना मनपसंद गाना आता तो खाना बनाते बनाते थोड़े नाच के ठुमके भी लगा लिए. जब कोई देख कर हँसने वाला न हो, तो जो मन में आये उसे करने से कौन रोकेगा?

तीन घँटों की मेहनत के बाद, उस दिन के खाने में केवल दाल ही सही बनी. रोटियाँ भी कुछ सूखी सूखी सी बनी थीं और आकार में ठीक से गोल भी नहीं थीं. पर अपनी मेहनत का बनाया खाना था, उसे बहुत आनन्द से खाया. मन को दिलासा दिया कि अगली बार रोटी भी अच्छी बनेगी!

यही सपना देखा था मैंने, भारत आ कर ऐसे ही रहने का. जहाँ तक हो सके, अपना हर छोटा बड़ा काम अपने आप करने का. जितना हो सके पैदल चलने का या सामान्य लोगों की तरह बस में यात्रा करने का.

वैसे सच में मेरा एक सपना यह भी था कि एक साल तक भगवा पहन कर, दाढ़ी बढ़ा कर, बिना पैसे के, भारत में इधर उधर भटकूँ. अगर कोई खाने को दे या सोने की जगह दे दे, तो ठीक, नहीं मिले तो भूखा ही रहूँ, सड़क के किनारे सो जाऊँ. पर जोगी बन कर जीने के उस सपने को जी पाने का साहस अभी तक नहीं जुटा पाया हूँ.

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यूरोप में रह कर आराम से जीना, काम के लिए विभिन्न देशों में घूमना, बड़े होटलों में तरह तरह के खाने खाना, सारा जीवन वैसे ही जिया था. इसीलिए मेरा सपना था कि भारत आ कर उस सब से भिन्न जीवन जियूँ. सपने देखना तो आसान है, सच में उन्हें जीना कठिन. सपनों में न मच्छर होते हैं, न गर्मी और उमस. पर मैंने जो सोचा था उसे मैं कर पाया. अब भी कभी कभी विश्वास नहीं होता कि मैं अपना सपना जी रहा हूँ.

वैसे गुवाहाटी में जिस तरह रहने का निर्णय लिया है, वह उतना कठिन नहीं है. यहाँ अम्बुबाशी के मेले में बहुत से बूढ़े साधू दिखे. सोचा कि खुले में रहने वाले यह वृद्ध लोग जब तबियत खराब हो तो क्या करते होंगे? शायद अन्य साधू ही उनका ख्याल करते होंगे? और बुखार हो या जोड़ों में दर्द हो तो खुले में गर्मी, सर्दी में बाहर रहना कितना कठिन होता होगा!

अकेला निस्सहाय बूढ़ा

रविवार को ही सुबह इंटरनेट पर एक नयी तमिल फ़िल्म की समीक्षा पढ़ी थी, जिसका अकेला वृद्ध नायक अपने अकेलेपन से बचने के लिए दिल का दौरा पड़ने का बहाना करता है ताकि एम्बूलैंस के चिकित्साकर्मियों से ही कुछ बात कर सके. उसे पढ़ कर सोच रहा था कि मैं भी तो एक अकेला बूढ़ा हूँ, तो मुझमें और उन अन्य बूढ़ों में क्या अन्तर है जो जीवन के आखिरी पड़ाव में खुद को अकेला तथा निस्सहाय पाते हैं? मैं स्वयं को क्यों अकेला तथा निस्सहाय नहीं महसूस करता?

शायद सबसे बड़ा अन्तर है कि मैंने यह जीवन स्वयं चुना है. अगर मेरा गुवाहाटी में ट्राँसफर हो गया होता, मुझे यहाँ अकेले रहने आना पड़ता, तो मुझे भी यहाँ रहना भारी लगता. जब परिवार से दूर रहना पड़े, करीब में न कोई बात करने वाला हो, न कोई मित्र, तो वह अकेलापन सहन करना कठिन हो सकता है. पर जब इस तरह जीने का सपना देखा हो और सोच समझ कर यह निर्णय लिया हो कि मैं कुछ वर्षों तक ऐसे ही रहूँगा, तो जीवन की हर बात देखने की दृष्टि बदल जाती है. खाना बनाना, सफाई करना, बस की भीड़ में धक्के खाना, सब कुछ एक सपने का हिस्सा हैं, अपने आप से स्पर्धा हैं कि मैं यह कर सकता हूँ या नहीं. इसमें किसी की जबरदस्ती नहीं है.

यह भी सच है कि मैं यह जीवन जीने के लिए मजबूर नहीं हूँ. जिस दिन चाहूँ, इसे छोड़ कर अपने पुराने जीवन में वापस जा सकता हूँ. बीच बीच कुछ दिनों के लिए यूरोप गया भी हूँ. अगर सामने कोई विकल्प न हो, केवल ऐसा ही जीने की मजबूरी हो तो शायद मुझे भी इससे डिप्रेशन हो जाये?

रिटायर होने में "अब समय का क्या करें" का भाव भी होता है. अचानक दिन लम्बे, निर्रथक और खाली हो जाते हैं. मेरे साथ यह बात भी नहीं. काम, किताबें पढ़ना, लिखना, इन्टरनेट, फोटोग्राफ़ी, जो सब कुछ मैं करना चाहता हूँ उसके लिए दिन थोड़े छोटे पड़ते हैं. लेकिन अगर आप ने अपना सारा जीवन अपने काम के आसपास लपेटा हो, और एक दिन अचानक वह काम न रहे, तो जीवन की धुरी ही नहीं रहती. लगता है कि हम किसी काम के नहीं रहे. औरतों पर तो फ़िर भी घर की ज़िम्मेदारी होती है, रिटायर हो कर भी वह उन्हीं की ज़िम्मेदारी रहती है. लेकिन मेरे विचार में सेवानिवृत पुरुषों को नया जीवन बनाना अधिक कठिन लगता है.

शायद बूढ़े होने में, निस्सहायता के भाव के पीछे सबसे बड़ी मजबूरी गरीबी या पैसा कम होने की है. और एक अन्य बड़ी बात शरीर के कमज़ोर होने तथा बीमारी की है. अगर अचानक कुछ बीमारी हो जाये, या शरीर के किसी हिस्से में दर्द होने लगे, या केवल बुखार ही आ जाये, तो शायद मैं भी वैसा ही निस्सहाय महसूस करूँगा!

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हमारे जीवन का अंत कैसे होना है, यह किसी को नहीं मालूम. कुछ दिन पहले जब भूतपूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम साहब का देहाँत हुआ तो मन में आया कि मृत्यू हो तो ऐसी, जीवन के अंतिम क्षण तक काम करते करते आने वाली. वह भी तो अकेले ही थे, क्या उन्होंने अपने आप को कभी निस्सहाय बूढ़ा महसूस किया होगा?

हम लोग बढ़ापे को जीवन से भर कर जीयें या निस्सहाय बूढ़ा बन कर अकेलेपन और उदासी में रहें, क्या यह सब केवल नियती पर निर्भर करता है? अधिकतर लोगों के पास मेरी तरह से अपना जीवन चुनने का रास्ता नहीं होता. पैसा न हो, पैंशन न हो, स्वतंत्र जीने के माध्यम न हों तो चुनने के लिए कुछ विकल्प नहीं होते. और अगर बीमारी या दर्द ने शरीर को मजबूर कर दिया हो तो अकेले रहना कठिन है.

दुनिया के विभिन्न देशों में पिछले कुछ दशकों में जीवन आशा की आयू बढ़ी है. भारत में भी यही हो रहा है. इसलिए आज समय रहते स्वयं से यह प्रश्न पूछना कि बूढ़ा होने पर कैसे रहना चाहूँगा तथा इसकी तैयारी करना, बहुत आवश्यक हो गये हैं.

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1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ था, आम औसत भारतीय केवल 31 वर्ष तक जीने की आशा करता था, आज औसत जीवन की आयू करीब 68 वर्ष है. हर वर्ष हमारे देश में 75 वर्ष से अधिक आयू वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है. पर हमारा सामाजिक ढाँचा नहीं बदला. जब थोड़े से लोग वृद्ध होते थे और परिवार बड़े होते थे, उनको आदर देना और ऐसी सामाजिक सोच बनाना जिसमें परिवार अपने वृद्ध लोगों की देखभाल खुद करे, आसान थे. आज परिवार छोटे हो रहे हैं और वृद्ध लोग अधिक, तो बूढ़े माता पिता की उपेक्षा, उनके प्रति हिँसा या उदासीनता, सब बातें बढ़ रही हैं.

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अगले दशकों में बूढ़ों की संख्या और बढ़ेगी. दसियों गुना बढ़ेगी. हमारे परिवेश में लोग अपने बुढ़ापे की किस तरह से देख भाल करें, इसके लिए सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं को सोचना पड़ेगा. लेकिन सबसे अधिक आवश्यक होगा कि हम लोग स्वयं सोचे कि उस उम्र में आ कर किस तरह हम अधिक आत्मनिर्भर बनें, किस तरह से अपने जीवन के निर्णय लें जिससे अपना बुढ़ापा हम अपनी इच्छा से बिता सकें, और जीवन के इस अंतिम पड़ाव में वह सब कुछ कर सकें जो हमारे मन चाहे.

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सबके पास ऐसे साधन नहीं होते कि वह जीवन के अंतिम चरण में जैसा रहना चाहते हैं इसका चुनाव कर सकें. पर हमारे समाज को इस बारे में सोचना पड़ेगा.

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बूढ़ा होने पर दिखना सुनना कम होना, जोड़ों में दर्द होना, ब्लड प्रेशर या मधुमेह जैसी बीमारियाँ होना, सब कुछ अधिक होता है. इनका सामना करने के लिए कई दशक पहल पहले तैयारी करनी पड़ेगी. कहते हैं कि भारत जवान देश है, हमारे यहाँ जितने युवा हैं उतने किसी अन्य देश के पास नहीं. लेकिन साथ साथ, हमारे यहाँ जितने वृद्ध होंगे, वह भी किसी अन्य देश के पास कठिनाई से होंगे.

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आप ने क्या कभी बूढ़े होने के बारे में सोचा है? कैसे रहने का सोचा आपने और कितनी सफलता मिली आप को? स्वयं को आप खुशनसीब बूढ़ा मानते हैं या निस्साह बेचारा बूढ़ा? या शायद आप सोचते हें कि अभी तो बुढ़ापा बहुत दूर है और फ़िर कभी सोचेंगे इसके बारे में?

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शनिवार, फ़रवरी 22, 2014

हमारे शरीर, सामाजिक विद्रोह व कलात्मक अभिव्यक्ति

सदियों से पैसे वाले व ताकतवर लोग अपनी तस्वीरें बनवाते आये हैं. पिछली सदी में फोटोग्राफ़ी के विस्तार से हर कोई अपनी तस्वीरें खिचवाने लगा. पिछले दशक में डिजिटल कैमरों के प्रचार से और फेसबुक, टिविटर जैसी वेबसाइट के वजह से तस्वीर खीचना और उस पर बातें करना इतना फैला है कि कुछ लोग मानते हैं कि यह सदी शब्दों की नहीं तस्वीरों की सदी कहलायेगी और इससे मानव सभ्यता में बड़ा बदलाव आयेगा. इन सब की वजह से लोगों का अपनी असहमती दिखाना, विद्रोह प्रदर्शित करना या अपनी बात को कलात्मक तरीकों से अभिव्यक्त करना, इस सब में भी नये प्रयोग हो रहे हैं.

शायद फेमेन (Femen) की विद्रोही युवतियों के बारे में आप ने सुना होगा जो कि अपने वस्त्रहीन शरीर के माध्यम से अपनी बात कहती हैं?

फेमेन का नारा है "मेरा शरीर, मेरा घोषणापत्र". फेमेन में हिस्सा लेने वाली युवतियाँ कहती हैं कि वे लोग नारी का यौनिक शोषण, तानाशाही व धर्म के माध्यम से नारी शरीर पर अधिपत्य कायम करने के विरुद्ध हैं. अक्सर फेमेन की युवतियों पर विभिन्न देशों की सरकार व पुलिस बहुत सख्ती से पेश आती हैं, शायद क्योंकि उनके इस वस्त्रहीन विद्रोह में पृतसत्ता पर आधारित समाज की नींव हिलाने वाली बात है जोकि नारी शरीर को नैतिकता से ढकने पर टिका है.

नारी का शरीर ढकना, लज्जा करना, कौमार्य बचाना आदि को विभिन्न समाजों ने इतना महत्वपूर्ण माना है कि उसे धार्मिक ग्रंथों की सहायता से भगवान के दिये आदेशों की मान्यता दी है. बचपन से ही कन्याओं को यह सिखाया जाता है कि यही नारी का जन्मजात स्वभाव है, और पुरुषों को सीख दी जाती है कि माँ, पत्नी व बहनों के इस लक्ष्मणरेखा में बाँध कर रखने में उनकी व उनके पूर्वजों की इज्जत व आत्मसम्मान निहित हैं.

फेमेन का जन्म यूक्रेन में 2008 में हुआ और जल्दी ही पूर्वी व पश्चिमी यूरोप से होता हुआ उत्तरी अफ्रीका व मध्यपूर्व के देशों तक फ़ैल गया. कुछ समय पहले, मिस्र की आलिया अलमाहदी ने जब फेसबुक के माध्यम से अपनी वस्त्रहीन तस्वीर लगा कर अपने परिवार व समाज के प्रति अपना विद्रोह अभिव्यक्त किया तो कुछ लोगों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी और उन्हें मिस्र छोड़ कर स्वीडन में शरण लेनी पड़ी. लेकिन आलिया ने देशनिकाला ले कर भी अपना विद्रोह नहीं छोड़ा, स्वीडन में मिस्री दूतावास के सामने उन्होंने वस्त्रहीन हो कर, हाथ में कुरान को ले कर अपना विद्रोह जताया (आलिया का वीडियो). इससे उनकी जान लेने वाले और बढ़ गये हैं और उन्हें कुछ कुछ दिनो में घर बदल कर, भेष बदल कर रहना पड़ रहा है.

दूसरी ओर शारीरिक नग्नता को कला के माध्यम से सामाजिक संदेश पहुँचाने का माध्यम भी बनाया गया है. अमरीकी फोटोग्राफर स्पैन्सर ट्यूनिक अपनी अमूर्त कला तस्वीरों के लिए बड़ी संख्या में लोगों की वस्त्रहीन तस्वीर खींचने के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं, उनके बारे में मैंने कई वर्ष पहले लिखा था.

मैं अपने शरीर के माध्यम से दुनिया को संदेश देने वाले लोगों के साहस की दाद देता हूँ. इसलिए जब मेरे ब्राज़ीली मित्र मारसेलो ने मुझसे पूछा कि क्या मैं उसके "शरीर के माध्यम से संदेश देने" के फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा लेना चाहुँगा तो मैंने तुरंत हाँ कर दी. मारसेलो के इस फोटोप्रोजेक्ट का नाम है "आ फ्लोर दा पेले" यानि "त्वचा के फ़ूल".

मारसेलो ने एडस् रोग से पीड़ित बच्चों के साथ काम किया है और वह इस फोटोप्रोजेक्ट से सामाजिक व पर्यावरण सरंक्षण का संदेश देना चाहते हैं. उनकी तस्वीरों में शरीर का कमर से ऊपर का हिस्सा वस्त्रहीन होता है जिसपर रंगों से चित्र बनाये जाते हैं. अप्रैल के महीने में मारसेलो इटली आयेगा तो इसके लिए मेरी भी तस्वीर खिंचेगी. आधे धड़ की तस्वीर खिंचवाने में कोई साहस नहीं चाहिये, इसलिए मैं चितित भी नहीं हूँ!

मैं सोच रहा हूँ कि मारसेलो की तस्वीर के लिए शरीर पर कौन सा डिजाइन बनवाना चाहिये? कुछ ऐसा होना चाहिये जिसमें भारत भी हो और प्रकृति व पर्यावरण की बात भी हो. अगर आप के पास कोई सुझाव हों तो अवश्य बताईयेगा.

जब मारसेलो मेंरी तस्वीर खीचेगा तो उसके बारे में आपको बताऊँगा. लेकिन मैं पहले भी कुछ फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा ले चुका हूँ जिनकी कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं:

(1) पहली तस्वीर मेरा कार्टून है जो मारसेलो ने सन 1997-98 के आसपास एक ब्राज़ील यात्रा के दौरान बनाया था.

Sunil Deepak by Marcelo Mendonça

(2) दूसरी तस्वीर वह है जो कुष्ठ रोग दिवस के अवसर पर एक इतालवी पोस्टर के लिए 2003 में खींची गयी थी. इस पोस्टर से कुछ दिनों के लिए मुझे कुछ प्रसिद्ध मिली थी, क्योंकि यह तस्वीर बहुत सी पत्रिकाओं में छपी थी. जहाँ जाता कुछ लोग पहचान जाते , उँगली उठा कर मेरी ओर इशारा करते.

Sunil Deepak for world leprosy day campaign 2003

(3) तीसरी तस्वीर है सन् 2011 से जब मैंने इतालवी कलाकार विर्जिनया फरीना के मृत्यू के बारे में विभिन्न संस्कृतियों में क्या विचार हैं जो कि इस विषय पर आधारित फोटोप्रोजेक्ट के लिए खिचवायी थी. इस तस्वीर को खींचने के लिए उन्होंने अँधेरे कमरे में एक टोर्च व एक गोल नली का उपयोग किया था जिससे वह मृत्यू का आभास देना चाहती थीं.

Sunil Deepak by Virginia farina

इस प्रोजेक्ट की प्रदर्शनी बोलोनिया शहर के कब्रिस्तान में सात सौ वर्ष पुरानी कब्रों के कक्ष में लगी थी. मुझे कई लोगो ने कहा था कि इसमें हिस्सा न लो, जीते जी मरने की तस्वीर खिंचवाना ठीक नहीं होगा. पर मुझे इस फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा लेना बहुत अच्छा लगा था.

Exhibition of Virginia farina at Certosa cemetery of Bologna

(4) चौथी तस्वीर है पिछले वर्ष से जब लाउरा फ्रास्का व लाउरा बासेगा नाम की दो युवतियों ने इटली में रहने वाले विभिन्न देशों के प्रवासियों के बारे में फोटोप्रदर्शनी बनायी थी. इसमें मुझे एक किताब की दुकान में बैठ कर किताब पढ़ते हुए दिखाया गया था.

Sunil Deepak by Laura Frasca & Laura Bassega

(5) यह अंतिम तस्वीर है इसी वर्ष यानि 2014 की. विकलाँग व्यक्तियों के मानव अधिकारों के बारे में चित्रकथा की किताब में मैं भी एक पात्र हूँ. इसको बनाने वाले कलाकार का नाम है कनजानो.

Sunil Deepak by Kanjano

मेरे विचार में एक विषय को ले कर तस्वीरें खीचने का प्रोजेक्ट बनाना कला की नयी विधि है जिससे सामाजिक संचेतना लाना कुछ आसान हो जाता है क्योंकि जितने अधिक लोग इसमें हिस्सा लेते हैं, उनमें से हर कोई फेसबुक, टिविटर, ब्लाग, आदि के माध्यम से अपने परिवार, मित्रों आदि में इसका विज्ञापन करता है और अधिक लोगों को इसके बारे में जानकारी मिलती है.

जिस तरह से मारसेलो ने अपना प्रोजेक्ट बनाया है, उसमें सभी तस्वीरें ब्लाग पर लगायी जा रही हैं इसलिए प्रदर्शनी लगाने का खर्चा नहीं है और यह प्रोजेक्ट वह धीरे धीरे कई सालों तक बना सकते हैं.

मुझे आशा है कि आप को इनसे अपना कोई फोटोप्रोजेक्ट बनाने की प्रेरणा मिलेगी! अगर   ऐसा हो तो मुझे इस बारे में अवश्य बताईयेगा.

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सोमवार, फ़रवरी 03, 2014

रेखाचित्र और स्मृतियाँ - अंतिम भाग (भाग 3)

1980 में में इटली घूमते हुए एक डिज़ाईन पुस्तिका में मैं रेखाचित्र बनाता था. उन्हीं रेखाचित्रों पर आधारित यह एक स्मृति यात्रा के विवरण का तीसरा व अंतिम भाग है. ( पहला भाग - दूसरा भाग)

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अस्पताल में कुछ मित्रों ने एक एल्पस् के पहाड़ पर चढ़ाई का कार्यक्रम बनाया था. उन्होंने मुझे भी अपने साथ चलने को कहा तो मैं तुरंत तैयार हो गया. यह निर्णय मैंने बिना सोचे समझे लिया था क्योंकि इससे पहले कभी पहाड़ पर चढ़ाई पर नहीं गया था. मित्रों ने कहा कि पहाड़ पर चढ़ने के लिए कील वाले जूते होने चाहिये, जो मेरे पास नहीं थे, तो एक मित्र से उसके जूते ले लिये.

कार यात्रा से बर्फ़ से ढके पहाड़ों के पास पहुँचे तो मन में कुछ संदेह हुआ और थोड़ा डर भी लगा कि शायद यह काम उतना आसान नहीं था जितना मैंने सोचा था. सुबह छः बजे के करीब चढ़ाई शुरु हुई. थोड़ी देर में मैं हाँफने लगा, पर कोशिश की कि अन्य लोगों को मालूम नहीं चले. दोपहर तक मेरा बुरा हाल हो चुका था. थकान व टाँगों में दर्द के अतिरिक्त एक अन्य दिक्कत भी थी - मित्र से लिए उधार के जूते मेरे पाँवों पर ठीक से नहीं बैठे थे, और जूतों की रगड़ से पैरों पर छाले पड़ने लगे थे. इसे अपने साथियों से छुपाना असंभव था. मेरे साथी मेरे पैरों को देख कर चिन्तित हो रहे थे लेकिन मैंने कहा कि आधे रास्ते से वापस नहीं जाऊँगा. शाम को करीब पाँच बजे "करेगा" (Carega) नाम के पर्वत की चोटी पर पहुँचे तो जान में जान आयी.

पर्वत की चोटी से आसपास का विहँगम दृश्य बहुत सुन्दर था. वहाँ चोटी के पास ही चढ़ाई करने वालों के लिए एक पर्यटक होस्टल था जिसमें एक डारमेटरी थी. कुछ देर आराम किया तो पैरों को राहत मिली. गर्मियाँ थीं और सूरज रात को दस बजे के करीब अस्त होता था. उस शाम को वहीं पर्वत की चोटी पर बैठ कर मैंने उस होस्टल का चित्र बनाया.

Vicenza 1980

अगले दिन सुबह नाश्ता करने के लिए होस्टल के रेस्टोरेंट में गये तो भारत में परिवार को भेजने के लिए तस्वीर वाले पोस्टकार्ड खरीदे. उस समय ईमेल, फेसबुक जैसी कोई चीज़ नहीं थी, लोग यही पोस्टकार्ड भेजते और उन पर अपने सब लोगों से दस्तखत कराते. मैं अपने पोस्टकार्डों पर हिन्दी में लिख रहा था, तो मेरे आसपास स्काउट के किशोरों का झुँड एकत्रित हो गया, सब लोग मेरी हिन्दी की लिखायी देख कर चकित हो रहे थे. फ़िर सब मुझसे कहने लगे कि मैं उनके पोस्टकार्डों पर हिन्दी में अपना नाम लिखूँ ताकि उनके पोस्टकार्ड पाने वाले उनके परिवार व मित्रगण हिन्दी में लिखे शब्द देख कर चकित हो जायें. मुझे लगा जैसे मैं कोई प्रसिद्ध नेता या अभिनेता बन गया हूँ जिससे सब लोग आटोग्राफ़ ले रहे हों!

Vicenza 1980

नाश्ता करके हम लोग वापस नीचे की ओर चले. फ़िर से जूतों की रगड़ से और नीचे जाते हुए रास्ते की कठिनाई से मेरा बुरा हाल हो गया.

उस पहाड़ यात्रा के बाद कई दिनों तक मुझे पाँवों की पट्टी करवानी पड़ी और उसके बाद दोबारा कभी ऊँचे पहाड़ों की चढ़ाई की मैंने कोशिश नहीं की. थोड़ी बहुत चढ़ाई हो या पहाड़ों के बीच में सैर हो, बस वहीं तक किया. लेकिन उस यात्रा से मन में पर्वतों के प्रति जो प्रेम जागा वह कभी कम नहीं हुआ.

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जब दिल्ली में रहते थे तो फ्राँस में मेरी एक पत्रमित्र बनी थी, मेरीक्रिस्टीन. करीब पंद्रह सालों से एक दूसरे को जानते थे और पत्रों में जीवन के न जाने कितने सुख दुख आपस में बाँट चुके थे. मेरे लिए मेरीक्रिस्टीन बहन जैसी थी. मेरे विचार में इस तरह का रिश्ता आजकल के फेसबुक, ईमेल से नहीं बन सकता, इसके लिए तो कागज़ के पन्नों पर हाथों से लिखी दिल की बातें ही चाहियें जिन्हें हम दूर देश में रहने वाले मित्र से बाँटते हैं.

मेरीक्रिस्टीन फ्राँस से मुझसे मिलने विचेन्ज़ा आयी. मैं उसके साथ आसपास के शहरों में घूमने गया.

जिस दिन उसे वापस फ्राँस जाना था, उसकी रेलगाड़ी की वेनिस से बुकिन्ग थी, तो उस दिन हम लोग सुबह वेनिस के ओर निकले. स्टेशन पर उसने अपना सूटकेस रखा और हम लोग वेनिस घूमने लगे.

एक जगह वह एक चर्च को देखने भीतर गयी तो मैं वहीं बाहर नहर के किनारे सीढ़ियों पर बैठ कर वेनिस की एक तस्वीर बनाने लगा.

Vicenza 1980

मेरीक्रिस्टीन चर्च से निकली तो उसने मुझे तस्वीर बनाते देखा और उसने पास के पुल पर जा कर मेरी तस्वीर खींच ली.

Vicenza 1980

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मेरीक्रिस्टीन की फ्राँस जाने वाली रेलगाड़ी रात को थी. जब उसकी रेलगाड़ी चली गयी तो मैंने अपनी रेलगाड़ी की खोज की. तो मालूम चला कि विचेन्ज़ा वापस जाने के लिए आखिरी रेल जा चुकी थी और अगले दिन की सुबह तक कोई अन्य गाड़ी नहीं थी.

होटल में जा कर सोने के लिए तो पास मैं पैसे नहीं थे, बाहर जा कर रेलवे स्टेशन की सीढ़ियों पर बैठ गया.

आसपास सीढ़ियों पर बहुत से लोग बैठे थे. रात कैसे बीती पता ही नहीं चला. रात भर वहाँ कुछ न कुछ चलता रहा. कभी कोई गिटार बजाता, कभी कुछ लोग उठ कर नाचने लगते, कभी कोई आपस में झगड़ा करते. मेरी डिज़ाईन पुस्तिका सारी भर चुकी थी, बस एक अन्तिम पृष्ठ बाकी थी. वहीं सीढ़ियों पर बैठ कर मैंने उन सीढ़ियों का चित्र बनाया.

Vicenza 1980

वेनिस की मेरी यादों में उस रात भर का सीढ़ियों पर बैठना और अनजाने लोगों के साथ की मस्ती की याद सबसे अनूठी है. उस पहली वेनिस यात्रा के बाद जाने कितनी बार वेनिस गया. जब भी वेनिस लौटता हूँ, उन सीढ़ियों पर पैर रखते ही, उस जादुवी रात की याद आ जाती है!

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तैंतीस वर्ष पुराने अपने रेखाचित्रों को दोबारा देख कर और उनसे जुड़ी बातों को व लोगों को याद करके बहुत अच्छा लगा. पर साथ ही कुछ दुख भी हुआ कि मैंने उसके बाद कभी रेखाचित्र नहीं बनाये. आज के डिजिटल कैमरे से तस्वीरें खींचने में आनन्द कम है, यह बात नहीं. बल्कि आज की डिजिटल तस्वीरों में जितनी स्मृतियाँ जुड़ जाती हैं वह रेखाचित्रों में सम्भव नहीं था. फ़िर भी दुख होता होता है कि रेखाचित्रों की आदत नहीं बनायी, उसे भूल गया! 

( पहला भाग - दूसरा भाग)

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बुधवार, जनवरी 22, 2014

रेखाचित्रों में स्मृतियाँ (भाग 2)

1980 में जब छात्रवृति ले कर इटली आया था तो वेनिस के पास विचेन्ज़ा नाम के शहर में रहता था. तब मेरे पास कैमरा नहीं था लेकिन एक डिज़ाईन पुस्तिका थी, जिसमें मैं रेखाचित्र बनाता था. कुछ दिन पहले तैंतीस साल पुरानी वह डिज़ाईन पुस्तिका हाथ में आ गयी. उसे देख कर, बहुत सी पुरानी बातें याद आ गयीं. दिसम्बर में एक दिन मैं विचेन्ज़ा वापस लौटा और उन सब जगहों को देखने गया जहाँ मैं प्रारम्भ के दिनों में घूमा था और  चित्र बनाये थे. यह उसी स्मृति यात्रा के विवरण का दूसरा भाग है. ( पहला भाग)

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विचेन्ज़ा शहर के पास एक पहाड़ी है, जिसका नाम है मोन्ते बेरिको (Monte Berico), यानि बेरिको की पहाड़ी. वहाँ एक मध्ययुगीन गिरज़ाघर बना हुआ है. ऊपर पहाड़ी से शहर का विहँगम दृश्य दिखता है और शहर की पृष्ठभूमि में बर्फ़ से ढके एल्पस पहाड़ भी दिखते हैं. मुझे पहाड़ी पर जाना बहुत अच्छा लगता था. अक्सर अँधेरे मुँह सुबह उठ कर ऊपर तक जाता और सूर्योदय की प्रतीक्षा करता जब उगते सूर्य की लालिमा से एल्पस पर्वत बहुत सुन्दर लगते. सुबह जाने का यह फायदा भी था कि अन्य लोगों की भीड़ नहीं होती थी.

भारत में गर्मी की वजह से सुबह घूमने जाना बहुत प्रचलित है. जहाँ बाग हो वहाँ सुबह सुबह सैर करने वालों की भीड़ लग जाती है. मुझे भी सुबह ही घूमने की आदत थी. लेकिन यहाँ ऐसा बहुत कम होता है. अधिकतर लोग सैर करने दिन में या शाम को जाते हैं.

मुझे उस पहाड़ी की ओर अँधेरा होने पर, शाम को जाना भी अच्छा लगता था. ऊपर जाने वाला रास्ता कुछ सुनसान सा होता था तो शाम को वहाँ इधर उधर युवा जोड़ों की भीड़ लग जाती थी. भारत में खुले आम चुम्बन तक नहीं देखे थे, जबकि बेरिको पहाड़ी पर युवा जोड़े एक दूसरे में इतना गुत्थम गुत्था हो रहे रहे होते थे कि उनको देखने का मन में बहुत कौतूहल होता था, जिसे जाने में कई वर्ष लगे.

एक रविवार को बेरिको पहाड़ी पर बैठ कर मैंने नीचे फ़ैले हुए शहर का चित्र बनाया. उस दिन धूप निकली थी, मौसम सुन्दर था और पहाड़ी पर बहुत से लोग घूमने आये थे. रेखाचित्र बनाने के बहाने से अन्य लोगों से मुलाकात और बातें करने का अवसर मिलता था. लोग मुझे रेखाचित्र बनाता देख कर, उसे देखने आते तो बातें शुरु हो जातीं.

उपर से दिखने वाले अधिकतर शहर को मैं नहीं पहचानता था. शहर का वह हिस्सा जहाँ मैं रहता था, केवल उसे पहनता था. शहर के उस हिस्से के बड़े स्मारक, चर्च और भवन जैसे कि प्रसिद्ध इतालवी वास्तूशास्त्र विषेशज्ञ अँद्रेया पाल्लादियो (Andrea Palladio) की बनायी गोलाकार हरी छत वाली बजिलिका (Basilica), वहाँ पहाड़ी से स्पष्ट दिखते थे.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

दिसम्बर में तैतीस सालों के बाद विचेन्ज़ा लौटा तो सबसे पहले, बेरिको की पहाड़ी की ओर ही बढ़ा. चढ़ाई से साँस फ़ूलने लगी और टाँगें दुखने लगी, यानि इतने सालों के गुज़रने की तकलीफ़ होना स्वभाविक ही था.

वहाँ गया जिस जगह पर बैठ कर ऊपर वाली तस्वीर बनायी थी. वहाँ बैठा तो नीचे शहर स्पष्ट नहीं दिख रहा था, बीच में पेड़ पौधे आ रहे थे. पर अन्य जगहों से नीचे का नज़ारा अब भी पहले जितने सुन्दर था, लगता था कि शहर बिलकुल नहीं बदला. शहर की पृष्ठभूमि में बर्फ़ से ढके पहाड़ भी पहले जैसे मेरी स्मृतियों में थे, वैसे ही सुन्दर लग रह थे.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

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होस्टल के पास शहर का सबसे महत्वपूर्ण स्कवायर था, "पियात्ज़ा देल्ला सिनोरिया" (Piazza della Signoria) यानि "राजघरानों का स्कवायर". इस स्कवायर में विभिन्न प्रसिद्ध भवन बने हैं, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण है पाल्लादियो का हरी छत वाला बजिलिका. बीच में एक ऊँचा घँटाघर है और उसके सामने दो ऊँचे खम्बे बने हैं, एक पर वेनिस गणतंत्र का चिन्ह शेर है और दूसरे पर एक पुरुष मूर्ति बनी है. वहाँ बैठ कर मुझे लगता मानो बेनहुर या टेन कमान्डमैंटस जैसी किसी फ़िल्म के सेट पर आ गया हूँ.

एक दिन में वहाँ बैठ कर खम्बे पर बनी पुरुष मूर्ति की तस्वीर बना रहा था तो तीन इतालवी युवकों से बातचीत हुई.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

वे तीनो युवक मिलेटरी की ट्रेनिंग के लिए विचेन्ज़ा आये थे. उस समय इटली में हर नवयुवक को अठारह वर्ष पूरे करने पर, एक साल के लिए मिलेटरी में बिताना लेना अनिवार्य होता था. युवा लोगों को हाई स्कूल पास करने के बाद और कोलिज की पढ़ाई पूरी करने से पहले, जीवन का एक साल पढ़ाई को छोड़ कर, देश के नाम देना पड़ता था. बहुत से युवा मन्नत माँगते थे कि उनके मेडिकल चेकअप में कोई कमी निकल आये जिससे उन्हें मिलेटरी सर्विस के उस एक साल से छुट्टी मिल जाये. जो लोग मिलेटरी में हिस्सा नहीं लेना चाहते थे, उन्हें एक साल के बजाय, दो सालों के लिए समाज सेवा का कोई काम करना होता था. इसलिए एक साल बचाने के लिए लोग मिलेटरी की सर्विस न चाहते हुए भी कर लेते थे.

उन तीन युवकों के नाम थे एत्ज़िओ, फ्राँचेस्को और मारिउत्ज़ो. फ्राँचेस्को को मिलेटरी में वह वर्ष बिता कर "बेकार करने" का बहुत गुस्सा था. जबकि एत्ज़िओ को कविता लिखने का शौक था. उस दिन एत्ज़ओ ने मेरी डिज़ाइन पुस्तिका पर दो कविताएँ लिखी. तब कुछ बात करने लायक इतालवी तो आ गयी थी लेकिन एत्ज़िओ की कविता मुझसे समझ नहीं आयी थी. अब समझ में आती है. उसमें एत्ज़िओ ने लिखा थाः

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014
"... मैं आसपास देखता हूँ
अपनी छोटी सी खिड़की से
एक बिन पेड़ों की दुनिया
घर, और अन्य घर
और कुछ नहीं.
प्रिय दूर के मित्र
तुम्हें लिखना चाहता हूँ
लेकिन मेरे हाथ एक खालीपन में सिमट जाते हैं ..."
इस बार, तैंतीस साल बाद जब उस स्कवायर में लौटा तो लगा कि कुछ भी नहीं बदला था. वहीं अपनी पुरानी सीढ़ियों पर बैठ कर मैंने आइसक्रीम खाई, जहाँ उस दोपहर को बैठा था जब एत्ज़िओ, फ्राँचेस्को और मारिउत्ज़ो मिले थे. क्या जाने वह तीनो अब कहाँ होंगे और जीवन के रास्ते उन्हें किन दिशाओं में ले गये होंगे!

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

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नदी के किनारे पर बना क्वेरीनी पार्क (Parco Querini) मुझे बहुत अच्छा लगता था. बाग की हरियाली के बीच में नदी से ली हुई एक छोटी सी नहर बनी थी जिसमें बतखें तैरती थीं और बच्चे उन्हें रोटी के टुकड़े डालते थे. नहर के एक गोल घुमाव के बीच में एक छोटी सी पहाड़ी थी जिस पर एक गुम्बज वाली छतरी बनी थी. तभी कुछ दिन पहले समाचार सुना था कि उस गुम्बज पर बिजली गिरी थी और उसके नीचे बैठे एक पंद्रह वर्ष के लड़के की मृत्यू हो गयी थी. इस वजह से मुझे उस गुम्बज से डर भी लगता था और उसकी ओर आकर्षित भी होता था.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

एक दिन में वहाँ बाग में लगी मूर्तियों की तस्वीर बना रहा था तो एक अमरीकी लड़का मेरे पास आया था. कोट, टाई पहने हुए, वह लड़का किसी एवान्जेलिक चर्च का प्रचारक था जिससे कई घँटे तक मैंने धर्म के विषय पर बहस की थी. इस बात को बिल्कुल भूल गया था लेकिन बाग की वह बैन्च देखी जहाँ मैं उस दिन बैठा था तो यह सारी बात याद आ गयी. पार्क में भी कोई विषेश अन्तर नहीं दिखा.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

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क्रमशः  -  पहला भाग

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रविवार, जनवरी 19, 2014

रेखाचित्रों में स्मृतियाँ - भाग 1

1980 में जब छात्रवृति ले कर इटली आया था तो वेनिस के पास विचेन्ज़ा नाम के शहर में रहता था. वहाँ के अस्पताल में आईसीयू में प्रोफेसर रित्ज़ी के शाथ काम कर रहा था. तब मेरे पास कोई कैमरा नहीं था. हाँ तस्वीरें बनाने का शौक था और पास में डिज़ाईन पुस्तिका थी. हर जगह अपनी डिज़ाईन पुस्तिका व पैन्सिल ले कर जाता और मित्रों की, उनके बच्चों की, जगहों की, तस्वीरें बनाता. कभी कभी उन तस्वीरें के पीछे डायरी की तरह कुछ लिख भी देता. करीब छः महीनों में वह डिज़ाईन पस्तिका पूरी भर गयी थी.

फ़िर समय बीता, शहर बदले और विचेन्ज़ा की बातें भूल गया. दोबारा फ़िर कोई डिज़ाईन पुस्तिका नहीं खरीदी, क्योंकि तब मेरे पास कैमरा आ गया था. उसके बाद कुछ बार विचेन्ज़ा से गुज़रा, लेकिन वहाँ रुका नहीं. कुछ दिन पहले तैंतीस साल पुरानी वह डिज़ाईन पुस्तिका हाथ में आ गयी. उसे देख कर, बहुत सी पुरानी बातें याद आ गयीं. दिसम्बर में एक दिन मैं विचेन्ज़ा वापस लौटा और उन सब जगहों को देखने गया जहाँ मैं प्रारम्भ के दिनों में घूमा था और  चित्र बनाये थे. इस पोस्ट में उन पुराने रेखाचित्रों की और उनके पीछे लिखी बातों की, और ३३ साल लौट कर उन पुरानी जगहों को देखने के अनुभव की चर्चा है.

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विचेन्ज़ा की प्रमुख सड़क कोर्सो पाल्लादियो पर फिलीप्पीनी चर्च है जिसके ऊपर एक विद्यार्थी होस्टल था जहाँ अस्पताल वालों ने मेरे रहने का इन्तज़ाम किया था. उस होस्टल की दूसरी और तीसरी मन्ज़िल पर हाई स्कूल के लड़कों की डोरमेटरी थी, जबकि मुझे पादरियों के साथ पहली मन्ज़िल पर एक अलग कमरा मिला था. मेरे सामने वाले कमरे में फादर लुईजी रहते थे, बहुत शान्त, विनम्र व शर्मीले थे वह और हाई स्कूल में पढ़ाते थे. उन्होंने मुझे अपना रिकार्ड प्लेयर दिया था जिस पर में भारत से लाये कुछ रिकार्ड सुनता था. मेरे कमरे की खिड़की छोटी सी सड़क पर खुलती थी जहाँ पर एक सिनेमाघर था. शुरु शुरु में सारी शाम उसी खिड़की पर बैठा रहता, कोई किताब पढ़ता रहता और सिनेमा देखने वाले आते जाते लोगों को देखता.

होस्टल में मेरा पहला मित्र बना था मनार, जो जोर्डन से आया था. उसे थोड़ी अंग्रेज़ी आती थी इसलिए उससे बात कर सकता था. अस्पताल में कुछ अंग्रेज़ी बोलने वाले लोग थे, पर शाम को वापस होस्टल आने पर मनार के अतिरिक्त कोई अन्य अंग्रेज़ी बोलने वाला नहीं था. मनार गरीब परिवार का था, उसके पास होस्टल की फ़ीस देने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए वह होस्टल की रसोई में बर्तन धोने का काम भी करता था. शाम को वह बर्तन धोता तो मैं वहीं उसके पास ही बैठा रहता, उससे बातें करने के लिए.

होस्टल के सामने थोड़ी सी खुली जगह थी, वहाँ रविवार को लड़के फुटबाल खेलते. मनार भी बर्तन धो कर उनके साथ खेलने में लग जाता. वहीं पर एक दिन मैंने अपना पहला रेखाचित्र बनाया था, सामने वाली दीवार का, जिसपर एक पुरानी मूर्ति लगी थी और आसपास खिड़कियाँ थीं. नीचे फुटबाल का द्वार बना था.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

फ़िर एक दिन मनार की तस्वीर भी बनायी. मुझे वहाँ रहते करीब एक महीना हुआ था जब मनार ने बताया कि उसे मिलान में इन्जीनियरिन्ग कालेज में दाखिला मिल गया. मुझे बहुत दुख हुआ जब वह मिलान चला गया.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

लेकिन मनार के जाने के बाद, मेरी इतालवी भाषा की पढ़ाई आसान हो गयी थी. सोमवार से गुरुवार तक तो फ़िर भी अस्पताल में किसी न किसी से अंग्रेज़ी में बात कर सकता था लेकिन शाम को और सप्ताहान्त में, आसपास सब केवल इतालवी भाषी थे, तो इतालवी बोले बिना काम नहीं चलता था. इस तरह से सही गलत बोलने का डर मिट गया, शब्दों, इशारों से बोलना ही पड़ता. पहले महीने में मनार के रहते इतालवी बोलना नहीं सीख पाया था, उसके जाने के बाद, कुछ दिन में ही नये नये शब्द सीखने लगा. उन्हीं दिनो अस्पताल के हमारे डिपार्टमैंट वाले एक अन्तर्राष्ट्रीय कोनफ्रैन्स का आयोजन करने वाले थे जिस के लिए मुझे कुछ आलेखों को इतलावी से अँग्रेज़ी में अनुवाद करने के लिए कहा गया. उसके लिए मैं प्रतिदिन कई घँटे इतालवी-अंग्रेज़ी शब्दकोष के साथ बिताता. इतालवी भाषा बोलने का ऐसा अभ्यास हुआ कि अंग्रेज़ी में बात करना बन्द ही हो गया. एक दो महीने के बाद मनार एक दिन वापस आया तो मुझे फर्राटे से सबसे इतालवी भाषा बोलते देख कर हैरान हो गया.

तैंतीस सालों के बाद इस दिसम्बर में वहां लौट के गया तो पहले फिलीप्पीनी चर्च में घुसा. जब ऊपर होस्टल में रहता था तो एक दो बार उस चर्च में सिम्फोनिक संगीत की कन्सर्ट सुनने गया था, पर कभी उसे ठीक से नहीं देखा था. पहले दिल्ली में करोल बाग में जहाँ रहते थे, वहाँ सामने मेथोडिस्ट चर्च था, जहाँ मैं पादरी के बेटे के साथ खेलता था. तो सोचता था कि चर्च केवल प्रार्थना की जगह है, वहाँ देखने को कुछ नहीं होता. इस बार उस छोटे से चर्च को ठीक से देखा. इस चर्च में बहुत सुन्दर ऑरगन है जिसकी वजह से यहाँ संगीत कन्सर्ट का आयोजन होता रहता है. जिन दिनों में वहाँ रहता था, तब मेरे कमरे में भी उस ऑरगन की आवाज़ गूँजती थी.

चर्च के साथ गली में गया तो पुराने सिनेमा हाल को देख कर पुरानी बातें याद आ गयीं. ऊपर उस खिड़की को देखा जहाँ घँटों बैठा रहता था.

फ़िर पीछे होस्टल की ओर गया तो कुछ पहचान नहीं पाया. वह जगह बिल्कुल बदल गयी लग रही थी. जहाँ लड़कों के खेलने की जगह थी, वहाँ कारों की पार्किन्ग बन गयी थी. दीवार से वह मूर्ति हटा दी गयी थी उसके पीछे वाले घर नये बने थे. बीच में कुछ पेड़ लग गये थे. सब कुछ बिल्कुल सुनसान. नीचे रसोई के बाहर जहाँ मैं बैठता था, वहाँ गया तो भीतर कुछ लोग दिखे. उन्हें बताया कि मैं वहाँ तैंतीस साल पहले रहता था, उनसे पूछा कि क्या कोई पुराना है, बोले इतना पुराना तो कोई भी नहीं है.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

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सन लोरेन्ज़ो स्कवायर से हो कर हर रोज़ मैं अस्पताल पैदल ही जाता था. तैहरवीं शताब्दी के सन लौरेन्ज़ो चर्च में भीतर कभी नहीं गया था. एक दिन चर्च के बाहर वहाँ लगी एक मूर्ति को बना रहा था तो चर्च से एक पादरी निकल कर आया था और मुझसे पूछने लगा था कि उस मूर्ति में या उसके पीछे वाले बैंक के भवन में  ऐसा क्या था जो मैं उसकी तस्वीर बना रहा था? उसके विचार में मुझे प्राचीन गिरज़ाघर की तस्वीर बनानी चाहिये थी. मैंने उस पादरी की बात हँस कर टाल दी थी.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

तब मुझे "तैहरवीं शताब्दी का प्राचीन गिरजाघर" का क्या अर्थ या महत्व होता है, यह नहीं मालूम था. तब उस जगह का क्या इतिहास था, उसके भीतर क्या था, यह सब जानने की कोई उत्सुकता नहीं थी.

कुछ मास बाद, सर्दियाँ आ गयीं थी जब एक दिन शाम को अस्पताल से वापस आते हुए मुझे देर हो गयी थी, अँधेरा हो गया था. सन लोरेन्ज़ो स्कवायर से गुजर रहा था तो एक लड़के ने मुझे पुकारा था. बैंक के सामने एक खम्बे से किसी ने उसके हाथ पीछे करके बाँध दिये थे. किसने किया यह, मैंने पूछा था. उसने कहा था कि उसके कुछ मित्रों ने मज़ाक में ऐसा किया था, और वह वहाँ आधे घँटे से खड़ा था लेकिन कोई उस ओर से गुज़रा ही नहीं था. मुझे बहुत अज़ीब लगा, लेकिन मैंने उसके हाथ खोल दिये थे. बाद में बहुत देर तक सोचता रहा था कि यह कैसा मज़ाक था और कैसे मित्र थे जो ऐसा मज़ाक करते थे? थोड़ी देर के लिए, बस बाँधा और चले गये? और अगर मैं वहाँ से न गुज़रता तो क्या वह वहीं बँधा रहता? शायद बीयर या वाइन के नशे में उनकी सोच समझ गुम हो गयी थी?

एक अन्य बार होस्टल के अपने एक मित्र के साथ, उस स्कवायर में बैठ कर रात को देर तक बातें करना भी याद है. किस बारे में वे बातें थीं, यह नहीं याद.

इस बार दिसम्बर में जब विचेन्ज़ा गया तो घूमते घूमते जब सन लोरेन्ज़ो स्कवायर पहुँचा तो बहुत देर तक उस जगह को पहचान नहीं पाया था. मूर्ति के सामने नये फुव्वारे बन गये थे इसलिए वह जगह भिन्न लग रही थी. वहाँ फिलीप्पीनी होस्टल से जाने वाले रास्ते से नहीं गया था, शायद इसलिए भी तुरंत समझ नहीं पाया था कि कहाँ पहुँच गया था. जब पीछे होस्टल की ओर जाने वाली सड़क देखी तभी समझ आया था कि वह कौन सी जगह थी. एक पल के लिए अचरज हुआ कि इतनी जानी पहचानी जगह को इस तरह कैसे भूल गया था!

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

इस बार पहली बार उस प्राचीन सन लोरेन्ज़ो चर्च में भी घुसा, जिसके बाहर से इतनी बार गुजर कर भी उसे भीतर से पहले देखने का नहीं सोचा था. नेपोलियन के इटली पर शासन के समय में यहाँ एक मिलेटरी अस्पताल बनाया गया था. प्रथम विश्व युद्ध के समय यहाँ मिलेटरी का गोदाम बनाया गया था. 1228 में गौथिक शैली में बने गिरजाघर में कुछ खम्बें व दीवारें पुरानी हैं और कुछ हिस्से नये हैं. उस चर्च कुछ प्रसिद्ध प्राचीन कलाकृतियाँ भीं हैं.

Vicenza memories, 1980 - images by Sunil Deepak, 2014

(क्रमशः)

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बुधवार, जनवरी 15, 2014

घड़ी की टिकटिक और सपने

स्वीडन के आविष्कारक फ्रेडरिक कोल्टिन्ग ने क्राउडसोर्सिन्ग के माध्यम से पैसा इक्टठा किया और एक नयी तरह की घड़ी बनायी है जिसमें आप देख सकते हैं कि आप के जीवन के कितने वर्ष, दिन, घँटे व मिनट बचे हैं. इसका यह अर्थ नहीं कि आप उस निर्धारित समय से पहले नहीं मर सकते या आप की आयु घड़ी की बतायी आयू से लम्बी नहीं हो सकती. जिस तरह जीवन बीमा करने वाली कम्पनियाँ आप के परिवार में बीमारियों का इतिहास देख कर, आप को रक्तचाप या मधुमेह जैसी बीमारियाँ तो नहीं हैं जाँच कर, खून के टेस्ट करके, इत्यादि तरीकों से अन्दाज़ा लगा सकती हैं कि आप जैसे व्यक्ति की औसत जीवन की लम्बाई कितनी हो सकती है, इस घड़ी की भी वही बात है. यानि घड़ी आप के औसत जीवन की लम्बाई देख कर आप को बतायेगी कि आप के जीवन का कितना समय बाकी बचा है.

एक साक्षात्कार में कोल्टिन्ग ने बताया कि उनका इस आविष्कार को बनाने का ध्येय था कि लोग अपने जीवन की कीमत को पहचाने, हर दिन को पूरा जियें. वह कहते हैं, "इस घड़ी ने मुझे स्वयं भी सोचने को मजबूर किया. मैंने निर्णय किया कि मैं ठँडे व अँधेरे स्वीडन में जीवन नहीं बिताना चाहता और इस तरह मैं स्वीडन छोड़ कर अमरीका में लोस एँजल्स में आ कर बस गया. अब मैं वह करने की कोशिश करता हूँ जिससे मुझे सचमुच की खुशी मिले."

मेरे पास कोल्टिन्ग की घड़ी नहीं, न ही मैं उस घड़ी को पाना या पहनना चाहता हूँ. मुझे नहीं लगता कि उस घड़ी के पहनने भर से मैं आज और अभी के पल में जीने लगूँगा, और वही करूँगा जिससे मुझे सचमुच खुशी मिले. लेकिन आजकल मैं भी अपने जीवन की घड़ी की टिकटिक को ध्यान से सुन रहा हूँ और बदलते हुए जीवन के बचे हुए क्षण गिन रहा हूँ.

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करीब तीस वर्ष हो गये इटली में रहते. जब माँ थी तो उसने एक बार मुझसे पूछा था कि क्या तू भारत कभी वापस लौट कर आयेगा, तो मैंने कहा था कि हर साल तो आता हूँ. तो माँ ने कहा था कि इस तरह नहीं, यहाँ आ कर, यहीं रह कर, यहाँ के लोगों के लिए काम करने? तो मैंने कहा था कि जब सठियाने लगूँगा, यानि साठ साल का हो जाऊँगा तो वापस आ जाऊँगा. इस बात पर बहुत सोचा था और फ़िर इस विषय पर अपनी छोटी बहनों से भी बातें की थीं. चार साल पहले जब माँ गुज़री तो यह सब बातें अचानक मन में गूँजने लगीं.

अब भारत वापस लौटने का वह सपना पूरा होने वाला है. भारत वापस जाने की तैयारी प्रारम्भ हो चुकी है. कुछ ही महीनो में साठ साल का हो जाऊँगा. उसके बाद मैं चाहता हूँ कि मेरा बाकी का बचा जीवन भारत में गाँव में या किसी छोटे शहर में सामुदायिक स्तर पर डाक्टर के काम में निकले, साथ साथ कुछ सामाजिक स्तर पर शोध कार्य कर सकूँ.

पिछले चार वर्षों में इस विषय पर पत्नी, बेटे, बहनों और कुछ मित्रों से घँटों बातें की है, जिनसे मैं जीवन के इस अंतिम पड़ाव में मैं सचमुच क्या चाहता हूँ, इसकी समझ स्पष्ट हुई है. एक जुलाई 2014 से जहाँ काम करता हूँ वहाँ से मेरी एक वर्ष की छुट्टी मँज़ूर हो गयी है, इसलिए मानसिक रूप से कोई तनाव भी नहीं है. पर साथ ही मन में यह निश्चय भी है कि एक साल की छुट्टी समाप्त होने पर वापस नहीं आऊँगा, यहाँ के काम से इस्तीफ़ा दे दूँगा (इटली में रिटायर होने के लिए पुरुषों को कम से कम 68 वर्ष का होना चाहिये).

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भारत में क्या करेगा, कहाँ काम करेगा? बहुत से लोग जो करीब से जानते हैं वह मुझसे यह सवाल पूछते हैं, तो मैं उत्तर देता हूँ कि अभी कुछ तय नहीं किया है. अभी तक केवल सोचा है और सपने देखे हैं. सोचा है कि भारत वापस जा कर कुछ जगह घूमूँगा और नियती अपने आप रास्ता दिखायेगी कि मुझे कौन सा काम करना चाहिये.

सपने भी बहुत सारे हैं. जैसे कि ऐसा काम हो, जिससे मैं गरीब या जनजाति के लोगों के लिए काम भी करूँ पर साथ ही सामुदायिक स्तर पर काम करने वाले स्वास्थ्य कर्मचारियों को पढ़ाने का अवसर भी मिले, सामुदायिक स्तर पर शोध का भी मौका मिले. पिछले तीस वर्षों में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विकलाँगता, कुष्ठ रोग, यौनिकता, हिँसा, सामाजिक समशक्तिकरण जैसे विषयों पर काम करने का अनुभव है, तो यह आशा भी है कि उस अनुभव को उपयोग करने का मौका भी मिले.

यह भी सोचता हूँ कि किसी नयी जगह पर अकेला कुछ नया प्रारम्भ करना ठीक नहीं होगा, बल्कि कोई आदर्शवादी लोग मिलें जो पहले से ही जनविकास क्षेत्र में मन और आदर्शों से काम कर रहे हों तो उनके साथ जुड़ कर काम करूँ. इनमें से कौन सा सपना पूरा होगा, उसका निर्णय समय और नियती ही करेंगे.

भविष्य क्या होगा, इसकी चिन्ता नहीं है, बल्कि मन भारत जा कर रहने के विचार से, केवल काम के ही नहीं, अन्य भी तरह तरह के सपने देखने लगा है. खूब  और नया लिखूँगा. भारतीय शास्त्रीय संगीत विषेशकर गायन सीखूँगा. उर्दू, बँगाली, कन्नड़, या कोई अन्य भारतीय भाषा सीखूँगा.  गोवा से पश्चिम में मालाबार सागर तट पर घूमूँगा. पश्चिम बँगाल में, राजस्थान में,गुजरात में भी घूमूँगा. मित्रों से चाय के प्यालों पर बहसें होगी. फ़िर सोचता हूँ कि क्या साधू बन कर, जगह जगह घूमते हुए भी डाक्टरी का काम कर सकते हैं? अगर अपने झोले से कोई साधू स्टेथोस्कोप निकाल कर कहे कि आईये आप की जाँच कर दूँ तो क्या आप उस पर भरोसा करेंगे?

हर दिन एक नया सपना मन में आता है, लगता है कि फ़िर से लड़कपन के द्वार पर आ कर खड़ा हो गया हूँ जब लगता था कि सब कुछ कर सकता हूँ. फ़िर लगता है कि यह सब ख्याली पुलाव पूरे करने का समय कहाँ मिलेगा, अगर एक बार डाक्टरी के काम में जुटा तो कुछ और करने का समय नहीं मिलेगा.

जाने की तैयारी में अपनी सारी हिन्दी की किताबें यहाँ के एक पुस्तकालय को दे दी हैं, जहाँ भारतीय प्रवासियों के लिए, वह नया हिन्दी सेक्शन बनायेंगे. पिछले दशकों में जोड़ी हर अपनी वस्तू के लिए सोच रहा हूँ कि इसको किसको दूँ.

क्या होगा, यह तो समय ही बतायेगा. तब तक घड़ी की टिक टिक सुनते हुए, हर दिन कैलेण्डर से एक दिन काट देता हूँ. वापसी और करीब आ जाती है. और नये सपने देखने लगता हूँ.

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हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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