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सोमवार, अगस्त 18, 2014

भाषा, स्वास्थ्य अनुसंधान और वैज्ञानिक पत्रिकाएँ

पिछली सदी में दुनिया में स्वास्थ्य सम्बंधी तकनीकों के विकास के साथ, बीमारियों के बारे में हमारी समझ बढ़ी है जितनी मानव इतिहास में पहले कभी नहीं थी. पैनिसिलिन का उपयोग द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान प्रारम्भ हुआ. पहली डायलाईसिस की मशीन का उपयोग भी द्वितीय विश्व महायुद्ध के दौरान 1943 में हुआ. डा. क्रिस्चियन बर्नारड ने पहली बार 1967 में मानव में दिल का पहला ट्राँस्प्लाँट किया.

स्वास्थ्य सम्बंधी तकनीकों के विकास का असर भारत पर भी पड़ा. जब भारत स्वतंत्र हुआ था उस समय भारत में औसत जीवन की आशा थी केवल 32 वर्ष, आज वह 65 वर्ष है. यानि भारत में भी स्थिति बदली है हालाँकि विकसित देशों के मुकाबले जहाँ औसत जीवन आशा 80 से 85 वर्ष तक है, हम अभी कुछ पीछे हैं. बहुत सी बीमारियों के लिए जैसे कि गर्भवति माँओं की मृत्यू, बचपन में बच्चों की मृत्यू, पौष्ठिक खाना न होने से बच्चों में कमज़ोरी, मधुमेह, कुष्ठ रोग और टीबी, भारत दुनिया में ऊँचे स्थान पर है.

विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में नयी खोजों व अनुसंधानों को वैज्ञानिक पत्रिकाओं या जर्नल (journals) में छापा जाता है. इस तरह की दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ अधिकतर अंग्रेज़ी भाषा में हैं. चीन, फ्राँस, इटली, स्पेन, ब्राज़ील आदि जहाँ अंग्रेज़ी बोलने वाले कम हैं, यह देश दुनिया में होने वाले महत्वपूर्ण शौधकार्यों को अपनी भाषाओं में अनुवाद करके छापते हैं, ताकि उनके देश में काम करने वाले लोग भी नयी तकनीकों व जानकारी को समझ सकें. लेकिन यह बात हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं पर लागू नहीं होती, क्योंकि यह सोचा जाता है कि हमारे यहाँ के वैज्ञानिक अंग़्रज़ी जानते हैं.

अगर किसी भाषा में हर दिन की सामान्य बातचीत नहीं होगी तो उसका प्राकृतिक विकास रुक जायेगा. अगर उसमें नया लेखन, कविता, साँस्कृतिक व कला अभिव्यक्ति नहीं होगी तो उसका कुछ हिस्सा बेजान हो जायेगा. अगर वह विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली नयी खोजों और शौध से कटी रहेगी तो उस भाषा को जीवित रहने के लिए जिस ऑक्सीज़न की आवश्यकता है वह उसे नहीं मिलेगी. इसलिए हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं को बोलने वालों को किस तरह से यह जानकारी मिले यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है.

Health, research and scientific journals graphic by Sunil Deepak, 2014

लेकिन भाषा के अतिरिक्त, वैज्ञानिक शौध, विषेशकर स्वास्थ्य सम्बंधी शौध के साथ अन्य भी कुछ प्रश्न जुड़े हैं जिनके बारे में जानना व समझना महत्वपूर्ण है. अपनी इस पोस्ट में मैं उन्हीं प्रश्नों की चर्चा करना चाहता हूँ. 

हिन्दी में विज्ञान व स्वास्थ्य सम्बंधी जानकारी

अगर विज्ञान व तकनीकी के विभिन्न पहलुओं को आँकें तो उनमें हिन्दी न के बराबर है. कुछ विज्ञान पत्रिकाओं या इंटरनेट पर गिने चुने चिट्ठों को छोड़ दें तो अन्य कुछ नहीं दिखता. स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी नये अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय अनुसंधान क्या बता रहे हैं इसकी निष्पक्ष जानकारी हिन्दी में मिलना कठिन है.

देश के विभिन्न शहरों में पाँच सितारा मल्टी स्पैलिटी अस्पताल खुल रहे हैं जो आधुनिक तकनीकों से हर बीमारी का नया व बढ़िया इलाज करने का आश्वासन देते हैं. दवा कम्पनियों वाले अपनी हर दवा को बेचने के लिए मार्किटिन्ग तकनीकों व जानी मानी ब्राँड के सहारे से यह दिखाना चाहते हैं कि उनकी दवा बेहतर है इसलिए उसका मँहगा होना स्वभाविक है. पर उन सबकी विश्वासनीयता को किस कसौटी से मापा जाना चाहिये?

जीवन के अन्य पहलुओं की तरह, आज स्वास्थ्य के क्षेत्र पर भी व्यवसायी दृष्टिकोण ही हावी हो रहा है, इसलिए कोई भी जानकारी हो, उसकी विश्वासनीयता परखना आवश्यक हो गया है. अगर लोग मार्कटिन्ग की तकनीकों से आप को विषेश ब्राँड के कपड़े, जूते, टीवी या वाशिन्ग मशीन बेचें तो शायद नुकसान नहीं. लेकिन जब उन तकनीकों का आप के मन में अपने स्वास्थ्य के बारे में डर जगाने व पैसा कमाने के लिए प्रयोग किया जाये तो क्या आप इसे उचित मानेंगे?

इस बात के विभिन्न पहलू हैं, जिनके बारे में मैं आज बात करना चाहता हूँ. बात शुरु करते हैं प्रोस्टेट के कैन्सर से. प्रोस्टेट एक ग्रँथि होती है जो पुरुषों में पिशाब के रास्ते के पास, लिंग की जड़ के करीब पायी जाती है. यह सामान्य रूप में छोटे अखरोट सी होती है. जब यह ग्रँथि बढ़ जाती है, कैन्सर से या बिना कैन्सर वाले ट्यूमर से, तो इससे पिशाब के रास्ते में रुकावट होने लगती है और पुरुष को पिशाब करने में दिक्कत होती है. यह तकलीफ़ अक्सर पचास पचपन वर्ष के पुरुषों को शुरु होती है और उम्र के साथ बढ़ती है.

प्रोस्टेट कैन्सर को जानने का टेस्ट 

कुछ दिन पहले मैंने मेडस्केप पर अमरीका के डा. रिचर्ड ऐ एबलिन का साक्षात्कार पढ़ा. डा. एबलिन ने 1970 में एक प्रोस्टेट ट्यूमर के एँटिजन की खोज की थी. सन 1990 से उस एँटिजन पर आधारित एक टेस्ट बनाया गया था जिसका प्रयोग यह जानने के लिए किया जाता है कि किसी व्यक्ति को प्रस्टेट का ट्यूमर है या नहीं. अगर यह टेस्ट यह बताये कि शरीर में यह एँटिजन है यानि टेस्ट पोस्टिव निकले तो प्रोस्टेट के छोटे टुकड़े को निकाल कर, उसकी बायप्सी करके, उसकी माइक्रोस्कोप में जाँच करनी चाहिये. माइक्रोस्कोप में अगर कैन्सर के कोष दिखें तो तो उसका तुरंत इलाज करना चाहिये, अक्सर उनका प्रोस्टेट का ऑपरेशन करना पड़ता है. यह टेस्ट पचास वर्ष से अधिक उम्र वाले पुरुषों को हर दो तीन साल में कराने की सलाह देते हैं ताकि अगर उन्हें प्रोस्टेट कैन्सर हो तो उसका जल्दी इलाज किया जा सके.

अपने साक्षात्कार में डा. एबलिन ने बताया है कि उनका खोज किया हुआ "प्रोस्टेट एँटिजन", एक ट्यूमर का एँटिजन है, कैन्सर का नहीं. अगर ट्यूमर कैन्सर नहीं हो तो सभी को उसका ऑपरेशन कराने की आवश्यकता नहीं होती. अगर ट्यूमर कैंन्सर नहीं हो तो उसका ऑपरेशन तभी करते हैं जब उसकी वजह से पिशाब करने में दिक्कत होने लगे.

लेकिन अगर टेस्ट पोस्टिव आये तो लोगों के मन में कैन्सर का डर बैठ जाता हैं हालाँकि यह टेस्ट बहुत भरोसेमन्द नहीं और 70 प्रतिशत लोगों बिना किसी ट्यूमर के झूठा पोस्टिव नतीजा देता है. कई डाक्टर उन सभी लोगों को ऑपरेशन कराने की सलाह देते हैं, यह नहीं बताते कि 70 प्रतिशत पोस्टिव टेस्ट में न कोई कैन्सर होता है न कोई ट्यूमर. बहुत से सामान्य डाक्टर भी इस बात को नहीं समझते. इस टेस्ट के साथ दुनिया के विभिन्न देशों में टेस्ट कराने का और ऑपरेशनों का करोड़ों रुपयों का व्यापार जुड़ा है.

कुछ इसी तरह की बातें, बड़ी आँतों में कैन्सर को जल्दी पकड़ने के लिए पाखाने में खून के होने की जाँच कराने वाले स्क्रीनिंग टेस्ट तथा स्त्री वक्ष में कैन्सर को जल्दी पकड़ने के लिए मैमोग्राफ़ी के स्क्रीनिंग टेस्ट कराने की भी है. उनके बारे में भी कहा गया है कि यह स्क्रीनिंग टेस्ट केवल अस्पतालों के पैसा बनाने के लिए किये जाते हैं और इनका प्रभाव इन बीमारियों को जल्दी पकड़ने या नागरिकों के जीवन बचाने पर नगण्य है.

विदेशों में जहाँ सभी नागरिकों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा की सुविधा है, इन टेस्टों को स्क्रीनिन्ग के लिए उपयोग करते हैं, यानि आप के घर में चिट्ठी आती है कि फलाँ दिन को निकट के स्वास्थ्य केन्द्र में यह टेस्ट मुफ्त कराईये. भारत में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा नहीं के बराबर है और सरकार की ओर से नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए बजट दुनिया में बहुत कम स्तर पर है, जिसके बहुत से नुक्सान हैं, लेकिन कुछ फायदा भी है क्योंकि इस तरह के स्क्रीनिंग टेस्टों में सरकारी पैसा बरबाद नहीं किया जाता. दूसरी ओर स्वास्थ्य सेवाओं के निजिकरण में भारत दुनिया के अग्रणी देशों में से है, जिससे शहरों में रहने वाले लोग पैसा कमाने के चक्कर में लगे लोगों के शिकार बन जाते हैं, विषेशकर नये पाँच सितारा मल्टी स्पैशेलिटी अस्पतालों में.

बात केवल पैसे की नहीं. अधिक असर पड़ता है लोगों के मन में बैठाये डर का कि आप को कैन्सर है या हो सकता है. अगर टेस्ट के 70 प्रतिशत परिणाम गलत होते हैं, और जिन 30 प्रतिशत लोगों में परिणाम ठीक होते हैं, उनमें से कुछ को ही कैन्सर होता है, बाकियों को केवल कैन्सर विहीन ट्यूमर होता है तो क्या यह उचित है कि लोगों के मन में यह डर बिठाया जाये कि उन्हें कैन्सर हो सकता है?

अन्तर्राष्ट्रीय शौध पत्रिकाएँ

विज्ञान के हर क्षेत्र में कुछ भी नया महत्वपूर्ण शौध हो तो उसके बारे में जानने के लिए प्रसिद्ध अन्तर्राष्ट्रीय जर्नल या पत्रिकाएँ होती हैं, जिनमें छपना आसान नहीं और जिनमें छपने वाली हर रिपोर्ट व आलेख को पहले अन्य वैज्ञानिकों द्वारा जाँचा परखा जाता है. स्वास्थ्य की बात करें तो भारत में भी कुछ इस तरह की पत्रिकाएँ अंग्रेज़ी में छपती हैं लेकिन इन्हें अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अधिक मान्यता नहीं मिली है. स्वास्थ्य के सर्वप्रसिद्ध जर्नल अधिकतर अमरीकी या यूरोपीय हैं और अंग्रेज़ी में हैं. अन्य यूरोपीय भाषाओं में छपने वाली पत्रिकाओं को अंग्रेज़ी जर्नल जितनी मान्यता नहीं मिलती. विकासशील देशों से प्रसिद्ध अंग्रेज़ी के जर्नल में छपने पाली शौध-आलेख बहुत कम होते हैं, हालाँकि विकासशील देशों में से भारतीय शौध‍-आलेखों का स्थान ऊँचा है.

अधिकतर अंग्रेज़ी की प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिकाएँ मँहगी भी होती हैं इसलिए उन्हें खरीदना विकासशील देशों में आसान नहीं. पिछले कुछ सालों में इंटरनेट के माध्यम से, कुछ प्रयास हुए हैं कि शौध को पढ़ने वालों को मुफ्त उपलब्ध कराया जाये, इनमें प्लोस पत्रिकाओं (PLOS - Public Library of Science) को सबसे अधिक महत्व मिला है.

स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत से लोग नये शौध अनुसंधान के महत्व को नहीं समझते. बहुत से डाक्टर अंग़ेज़ी जानते हुए भी, इंटरनेट के होते हुए भी, वह इस विषय में नहीं पढ़ते. बहुत से डाक्टरों के लिए दवा कम्पनियों के लोग जो उनके क्लिनिक में दवा के सेम्पल के कर आते हैं, वही नयी जानकारी का सोत्र होते हैं. पर क्या कोई दवा बेचने वाला निष्पक्ष जानकारी देता है या अपनी दवा की पक्षधर जानकारी देता है?

दूसरी ओर वह लोग हैं जिन्हें जर्नल में छपने वाली अंग्रेज़ी समझ नहीं आती, क्योंकि इस तरह की वैज्ञानिक पत्रिकाओं में कठिन भाषा का प्रयोग किया जाता है. भारत में सामान्य अंग्रेज़ी बोलने समझने वाले बहुत से लोग, चाहे वह डाक्टर हो या नर्स या फिज़ियोथैरापिस्ट, वह भी इस तरह से नये शौधों के बारे में चाह कर भी नहीं जान पाते.

कौन लिखता है अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में शौध-आलेख?

शौध पत्रिकाओं का क्षेत्र भी समाज के व्यवसायीकरण से अछूता नहीं रह पाया है. और अगर कोई पत्रिका व्यवसाय को सबसे ऊँचा मानेगी तो उसका शौधो-विषयों व शौध-आलेखों के छपने पर क्या असर पड़ेगा, यह समझना आवश्यक है.

अंतर्राष्ट्रीय उपभोक्ता संगठन "क्ज़ूमर इंटरनेशनल" की 2007 की रिपोर्ट "ड्रगस, डाक्टर एँड डिन्नरस" (Drugs, doctors and dinners - दवाएँ, चिकित्सक व दावतें) में इस बात की चर्चा थी कि बहुदेशीय दवा कम्पनियाँ किस तरह डाक्टरों पर प्रभाव डालती हैं कि वे उनकी मँहगी दवाएँ अधिक से अधिक लिखें. साथ ही, जेनेरिक दवाईयों जो सस्ती होती है, के विरुद्ध प्रचार किया जाता है कि अगर दवा का अच्छा ब्राँड नाम नहीं हो तो वह नकली हो सकती हैं या उनका प्रभाव कम पड़ता है.

एक अन्य समस्या है कि स्वास्थ्य के विषय पर छपने वाले प्रतीष्ठित अंतर्राष्ट्रीय जर्नल-पत्रिकाओं पर दवा कम्पनियों का प्रभाव. 2011 में अंग्रेज़ी समाचार पत्र "द गार्डियन" में एलियट रोस्स ने अपने आलेख में बताया कि किस पत्रिका में क्या छपेगा और क्या नहीं यह दवा कम्पनियों के हाथ में है. यह कम्पनियाँ चूँकि इन पत्रिकाओं में अपने विज्ञापन छपवाती हैं, पत्रिकाओं के मालिक उन्हें नाराज़ नहीं करना चाहते और किसी प्रसिद्ध दवा कम्पनी की किसी दवा के बारे में नकारात्मक रिपोर्ट हो तो उसे नहीं छापते. यही कम्पनियाँ नये शौधकार्य में पैसा लगाती हैं और अगर शौध के नतीजे उन्हें अच्छे न लगें तो उसकी रिपोर्ट को नहीं छपवाती. वह अपनी दवाओं के बारे में उनके असर को बढ़ा चढ़ा कर दिखलाने वाले आलेख लिखवा कर प्रतिष्ठित डाक्टरों के नामों से छपवाती हैं, जिससे डाक्टरों को अपना नाम देने का पैसा या अन्य फायदा मिलता है - इसे भूतलेखन (Ghost-writing) कहते हैं. किस वैज्ञानिक पत्रिका में क्या छपवाया जाये इस पर काम करने वाली दवा कम्पनियों से सम्बंधित 250 से अधिक एजेन्सियाँ हैं जो इस काम को पैशेवर तरीके से करती हैं.

अमरीकी समाचार पत्र वाशिन्गटन पोस्ट में छपी 2012 की एक रिपोर्ट के अनुसार, सन् 2000 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिका "न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसन" में नयी दवाओं के शौध के बारे में 73 आलेख छपे जिनमें से 60 आलेख दवा कम्पनियों द्वारा प्रयोजित थे. इस विषय पर छान बीन करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले दशक में स्थिति और भी अधिक बिगड़ी है.

इस स्थिति के जन स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे असर के कई उदाहरण मिल सकते हैं, जैसे कि मेरक्क कम्पनी के दो शौधकर्ताओं ने जोड़ों के दर्द की दवा वियोक्स के अच्छे असर के बारे में बढ़ा चढ़ा कर आलेख लिखा. वयोक्स की बिक्री बहुत हुई. पाँच साल बाद मालूम चला कि इन दोनो शौधकर्ताओं ने अपने आलेख में दवा के साइड इफेक्ट यानि बुरे प्रभावों को छुपा लिया था क्योंकि इस दवा से लोगों को दिल की बीमारियाँ हो रहीं थीं. जब अमरीका में हल्ला मचा तो इस दवा को बाज़ार से हटा दिया गया.

विकसित देशों में जब किसी दवा के बुरे असर की समाचार आते हैं तो सरकार उसकी जाँच करवाती है और उस दवा को बाज़ार से हटाना पड़ता है. लेकिन यह कम्पनियाँ अक्सर सब कुछ जान कर भी विकासशील देशों में उन दवाओं को बेचना बन्द नहीं करती, जब तक वहाँ की सरकारें इसके बारे में ठोस कदम नहीं उठातीं. कई अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बैन की हुई दवाईयाँ हैं जो विकासशील देशों में खुले आम बिकती हैं.

शौध को समझने की दिक्कतें

जहाँ एक ओर शौध के बारे में निष्पक्ष जानकारी मिलना कठिन है, वहाँ दूसरी समस्या है शौधों के नतीजो़ को समझना. वैज्ञानिक पत्रिकाओं में नयी दवाओं के असर को अधिकतर इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है जिससे लोगों को स्पष्ट समझ न आये. इस समस्या को समझने के लिए मैं आप को सरल किया हुआ एक उदाहरण देता हूँ.

मान लीजिये कि एक दवा "क" किसी बीमारी से पीड़ित केवल 5 प्रतिशत लोगों को ठीक करती है, पर बाकी 95 प्रतिशत बीमार लोगों पर उसका कुछ असर नहीं होता. आपने एक नयी दवा "ख" बनाई है, जिसको लेने से उस बीमारी से पीड़ित 10 प्रतिशत लोग ठीक होते हैं और 90 प्रतिशत पर उसका असर नहीं हो. अब आप अपने शौध के बारे में इस तरह से आलेख लिखवाईये और इसके विज्ञापन प्रसारित कीजिये कि "नयी ख दवाई पुरानी दवा के मुकाबले में 100 प्रतिशत अधिक शक्तिशाली है". इस तरह के प्रचार से बहुत से लोग, यहाँ तक कि बहुत से डाक्टर भी, सोचने लगते हैं कि "ख" दवा सचमुच बहुत असरकारक है हालाँकि उसका 90 प्रतिशत बीमार लोगों पर कुछ असर नहीं है.

यही वजह है कि दवा कम्पनियों के प्रतिनिधियों द्वारा दिये जाने वाली विज्ञापन सामग्री पर विश्वास करने वाले डाक्टर भी अक्सर धोखा खा जाते हैं.

आज की दुनियाँ में जहाँ लोग सोचते हें कि इंटरनेट पर सब जानकारी मिल सकती है, सामान्य लोग कैसे समझ सकते हैं कि जिस नयी जादू की दवा के बारे में वह इंटरनेट पर पढ़ रहे हैं, वह सब दवा कम्पनियों द्वारा बिक्री बढ़ाने के तरीके हैं. चाहे दवा हो या चमत्कारी तावीज़ या कोई मन्त्र, लोगों के विश्वास का गलत फ़ायदा उया कर, सबको उल्लू बना कर पैसा कमाने के तरीके हैं. लेकिन इंटरनेट का फायदा यह है कि अगर आप खोजेंगे तो आप को उन उल्लू बनाये गये लोगों की कहानियाँ भी पढ़ने को मिल सकती हैं जिसमें में वह उस चमात्कारी दवा की सच्चाई बताते हैं.

निष्कर्ष

एक ओर भारत में समस्या है कि दुनियाँ में होने वाले मौलिक शौध की जानकारी हिन्दी या अन्य भाषाओं में मिलना कठिन है.

दूसरी ओर, अंग्रेज़ी की अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक पत्रिकाएँ किस तरह के शौध के विषय में जानकारी देती हैं और उन पत्रिकाओं पर व्यवसायिक मूल्यों का कितना असर पड़ता है, इसके विषय वैज्ञानिक समाज में आज बहुत से प्रश्न उठ रहे हैं. मैंने इस विषय के कुछ हिस्सों को ही चुना है और उनका सरलीकरण किया है, पर इससे जुड़ी बहुत सी बातें जटिल हैं और जनसाधारण की समझ से बाहर भी.

इनसे आम जनता को तो दिक्कत है ही, स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वालों के लिए भी आज यह चुनौती है. प्लोस जैसी वैज्ञानिक पत्रिकाओं के माध्यम से शायद भविष्य में कौन सी शौध छपती है इस पर अच्छा प्रभाव पड़े लेकिन आलेखों को पढ़ने व समझने की चुनौतियों के हल निकालना आसान नहीं. इस सब जानकारी को सरल भाषा में हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में कैसे उपलब्ध कराया जाया यह चुनौती भी आसान नहीं.

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शनिवार, जनवरी 11, 2014

आप की कौन सी बीमारी? जनस्वास्थ्य और बाज़ार

मेरे विचार में आधुनिक समाज में विज्ञान व तकनीकी के बेलगाम बाज़ारीकरण से हमारे जीवन पर अनेक दिशाओं से गलत असर पड़ा है. जब इस तरह के विषयों पर बहस होती है तो मेरे कुछ मित्र कहते हैं कि मैं व्यर्थ की आदर्शवादिता के चक्कर में जीवन की सच्चाईयों का सामना नहीं करना चाहता. पर मैं सोचता हूँ कि मेरी सोच अत्याधिक आदर्शवादिता की नहीं है बल्कि मानव जीवन के संतुलित भविष्य की है.

Developing Delhi - images by Sunil Deepak, 2012

मैं यह मानता हूँ कि बाज़ार मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं, लेकिन यह नहीं मानता कि बाज़ार का अर्थ केवल बड़े कोर्पोरेशन और बहुदेशीय कम्पनियों का अधिपत्य है. मैं यह भी सोचता हूँ कि अगर हम विकास को केवल जी.डी.पी. (Gross domestic product) से तोलेंगे तो इसमें हम जीवन के कुछ अमूल्य हिस्सों को खो बैठेंगे. सुश्री वन्दना शिव ने कुछ समय पहले अँग्रेज़ी समाचार पत्र "द गार्जियन" में अपने एक आलेख में लिखा था कि  आज के अर्थशास्त्री, व्यापारी तथा राजनीतिज्ञ केवल सीमाहीन विकास की कल्पना करते हैं . इसकी वजह से किसी भी देश के विकास का सबसे महत्वपूर्ण मापदँड जी.डी.पी. बन गया है, लेकिन यह विकास का मापदँड क्या मापता है, यह समझना आवश्यक है. इसके बारे में वह कहती हैं -
"एक जीवित जँगल से जी.डी.पी. नहीं बढ़ता, वह बढ़ता है जब पेड़ काटे जाते हैं और लकड़ी बना कर बेचे जाते हैं. समाज स्वस्थ्य हो तो जी.डी.पी. नहीं बढ़ता, वह बढ़ता है बीमारी से और दवाओं की बिक्री से. अगर जल को सामूहिक धन माना जाये, सब उसकी रक्षा करें और अपने उपयोग के लिए बाँटें तो जी.डी.पी. नहीं बढ़ता, लेकिन अगर कोका कोला की फैक्टरी लगायी जाये, पानी को प्लास्टिक बोतलों में भर कर बेचा जाये तो विकास होता है. इस विकास में प्रकृति को और स्थानीय समुदायों को नुकसान हो, तो उसे इस मापदँड में अनदेखा कर दिया जाता है."
सोचिये क्या फायदा है कि विकास को केवल इस आँकणे से मापा जाये और देश की निति के निर्णय इसी सोच से लिये जायें?

स्वास्थ्य क्षेत्र में बाज़ारीकरण

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के बाज़ारीकरण के परिणामों पर मैं पहले भी लिख चुका हूँ, लेकिन इस बारे में नयी सूचनाएँ मिलती रहती हैं तो आश्चर्य भी होता है और उदासी भी.  जब भी भारत लौटता हूँ तो नये पाँच सितारा अस्पतालों के गुणगान सुनने को मिलते हैं कि देखिये कितने बढ़िया अस्पताल हैं हमारे और तकनीकी दृष्टि से अब भारत ने कितनी तरक्की कर ली है! दूसरी ओर वहाँ इलाज करवाने वाले मित्र व परिवारजन जब अपने मेडिकल के कागज़ पत्र दिखा कर सलाह माँगते हैं तो कई बार बहुत हैरानी होती है कि कितने बेज़रूरत टेस्ट कराये जाते हैं, बेतुकी दवाएँ दी जाती हैं और अनावश्यक आपरेशन किये जाते हैं. स्टीरायड जैसी दवाएँ जिनसे तबियत बेहतर लगती है लेकिन शरीर के अन्दर लम्बा असर बुरा होता है, कितनी आसानी और लापरवाही से दे दी जाती हैं.

एक मित्र ने बताया कि उसकी बेटी को कुछ दिनों से बुखार था और उसका प्रिस्कृपशन दिखाया, जिसे पढ़ कर मैं दंग रह गया कि डाक्टर ने मलेरिया व टाइफाइड की दवा के साथ एक अन्य एन्टीबायटिक भी जोड़ दिया था, यानि हमें मालूम नहीं कि मरीज को क्या बीमारी है तो उसे एक साथ हर तरह की दवा दे दो!

एक डाक्टर मित्र जो पाँच सितारा अस्पताल में काम करते थे, उसने बताया कि उनके यहाँ हर एक को महीने का कोटा पूरा करना होता है, कितने लेबोरेटरी टेस्ट, कितने स्केन, कितने अल्ट्रासाउँड, तो कुछ अनावश्यक टेस्ट करवाने ही पड़ते हैं. पर वह यह भी बोले कि बात केवल कोटे की नहीं, अगर बहुत से टेस्ट व दवाएँ न हों तो लोग मानते नहीं कि डाक्टर अच्छे हैं.

एक ओर जहाँ स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण है, दूसरी ओर सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की कठिनाईयाँ हैं. विश्व स्वास्थ्य संस्थान के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण की दृष्टि से भारत दुनिया के अग्रिम देशों में से है, जहाँ राष्ट्रीय बजट का बहुत छोटा सा हिस्सा सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं मे जाता है. दूसरी ओर विभिन्न सामूदायिक शोधों नें दिखाया है कि भारत में स्वास्थ्य सम्बन्धी खर्चा गरीब परिवारों के  लिए कर्ज़ा लेने का प्रमुख कारण है.

स्वास्थ्य क्षेत्र में "अच्छा इलाज और बीमारियों से बचिये" के नाम पर दवा, वेक्सीन तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी उपकरण बेचने वाली कम्पनियों ने अपने अभियान चलाये हैं, जिनका जन स्वास्थ्य पर असर महत्वपूर्ण नहीं होता, लेकिन देशों के स्वास्थ्य बजट के पैसे इन अभियानों की ओर जाते हैं बजाय उन समस्याओं की ओर जिनसे सचमुच खतरा है. इस तरह के अभियानो को प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिकाओं में छपे शोध परिणामों को दिखा कर आवश्यक कहा जाता है. हाल में ही अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक पत्रिका "ब्रिटिश मेडिकल जर्नल" में डा. स्पेन्स ने लिखा कि (BMJ, 3 January 2014):
"हमें कहा जाता है कि आप ऐसा या वैसा इलाज कीजिये क्योंकि यह शोध ने साबित किया है लेकिन इस बात को अनदेखा कर देते हैं कि अधिकतर शोध कार्य, दवा बनाने वाली कम्पनियों के पैसे से किया जाता है, निष्पक्ष शोध नहीं होता. हर बात के लिए नयी बीमारियों और नयी दवाओं को बनाया जा रहा है. दवा की कम्पनियाँ चाहती है कि हम सब लोग अपने आप को किसी न किसी बीमारी का मरीज़ माने और रोज़ कुछ न कुछ दवा खायें. अगर बीमारी न हो तो उसे रोकने या उसका जल्दी इलाज़ करने के नाम पर खायें. आप इस बीमारी से बचने के समय समय पर यह टेस्ट कराइये, वह टेस्ट कराइये, के बहाने से पैसा खर्च करवाया जाता है. शोध तथा डाक्टरों की ट्रेनिन्ग के नाम पर अपनी बिक्री व प्रभाव बढ़ाने के लिए दवा कम्पनियाँ हर साल करोड़ों डालर लगाती हैं."
पिछले वर्ष कई अन्तर्राष्टीय विज्ञान पत्रिकाओं ने भी इस मुद्दे को उठाया था कि दवा कम्पनियाँ शोध तो कराती हैं लेकिन अगर शोध के परिणाम उनकी कम्पनी की दवा का अच्छा असर नहीं दिखाते तो उनकी रिपोर्ट को दबा दिया जाता है. उनका अनुमान है कि इस तरह से दवाओं पर होने वाले 60 प्रतिशत से अधिक शोध के परिणामों को दबा दिया जाता है. दूसरी ओर दवा कम्पनियाँ प्रसिद्ध डाक्टरों को पैसा देती है ताकि उनके नाम से अपनी दवाओं के अनुकूल असर दिखाने वाले शोध को छपवायें. इससे स्पष्ट है कि केवल यह कहने से कि "इस या उस शोध में यह प्रमाणित किया गया है" के बूते पर महत्वपूर्ण निणर्य नहीं लिये जा सकते.

जीवन के बाज़ारीकरण का स्वास्थ्य पर प्रभाव

स्वास्थ्य का सम्बन्ध केवल दवा या अस्पतालों से नहीं बल्कि सारे जीवन से है. पिछले बीस सालों में इंटरनेट या तकनीकी विकास से जीवन इतनी तेज़ी से बदले हैं जैसे शायद पूरे मानव इतिहास में नहीं हुआ था. दूसरी ओर जीवन के हर पहलू पर बहुदेशीय कम्नियों और बड़े कोर्परेशनो ने दुनिया में अपना प्रभुत्व कायम कर लिया है. विज्ञापन तथा संचार के सभी माध्यमों पर कब्ज़ा करके जीवन के बाज़ारीकरण का अर्थ है कि सागर, जँगल, पर्वत, खाने, हर स्तर पर प्रकृति पर बेलगाम हमला बोला गया है जिसका असर स्वास्थ्य पर भी पड़ रहा है. एन्टीबायटिक और हारमोन खिला कर पाले गये चिकन या मटन में, चारे में होरमोन पानी वाली गायों के दूध से, कीटनाशकों से उपजी फसलों से, इन सबका शरीर पर क्या प्रभाव होगा यह धीरे धीरे सामने आ रहा है. विकास के नाम पर विकसित देशों से इन "नयी तकनीकों" का आयात करके क्या सचमुच देश आधुनिक हो रहा है?

Developing Delhi - images by Sunil Deepak, 2012

Developing Delhi - images by Sunil Deepak, 2012

भारत में जर्मन डाय्टश बैंक के भूतपूर्व अध्यक्ष पवन सुखदेव ने हाल में जर्मन पत्रिका डी ज़ाइट (Die Zeit) में छपे एक साक्षात्कार में कहा कि "नये तकनीकी उत्पादनों के साथ कठिनाई यह है कि उनको बेचते समय उनकी कीमत में यह नहीं गिना जाता कि उनको बनाने में प्रकृति का कितना विनाश हुआ, कितना प्रदूषण हुआ, और जब उन्हें फ़ैकने का समय आयेगा उससे प्रकृति पर क्या असर पड़ेगा. उपर से नयी तकनीकी उपकरण बनाये ही इस तरह जाते हैं कि थोड़े समय में बेकार हो जाये. दो महीने बाद उससे बढ़िया उपकरण बाज़ार में आयेगा, ताकि आप पुरानी चीज़ फ़ैंक कर नयी खरीदें. चाहे वह पुरानी वस्तु बिल्कुल ठीक काम कर रही हो, फ़िर भी उसे फैंक दिया जाता है." सुखदेव कहते हैं कि यह प्रकृति की सम्पदा का दुर्रोपयोग है और इस तरह की बिक्री पर टिका पूँजीवाद गलत है.

इससे एक ओर अमीरों तथा गरीबों में अन्तर बढ़ता जा रहा है, तनाव बढ़ने से मानसिक रोग बढ़ रहे हैं, साथ ही, वातावरण और प्रकृति पर इसके असर से नयी बीमारियाँ उत्पन्न हो रही हैं. बाज़ार का स्वास्थ्य पर क्या असर होता है, इसका एक अन्य उदाहरण है दुनिया में मधुमेह यानि डायबीटीज़ की बीमारी के बढ़ते मरीज़.

पिछले पचास सालों में दुनिया के हर देश में मधुमेह की बीमारी कई गुणा बढ़ी है. इस बढ़ोतरी में भारत दुनिया में सबसे आगे निकल गया है - दुनिया में मधुमेह की बीमारी के मरीज़ों की कुल संख्या में भारत सबसे पहले स्थान पर है. मधुमेह की बीमारी , मूलतः दो तरह की होती है और दोनो तरह की मधुमेह के बढ़ने के कारणों में लोगों में खाने की आदतों का बदलना, अधिक माँस और अधिक केलोरी वाला खाना, मोटापा व खाने में सफ़ेद चीनी की बढ़ोतरी है.

सफ़ेद चीनी को कुछ खाद्य वैज्ञानिकों ने बहुत हानिकारक माना है. वह कहते हैं कि चीनी तीन तरह के अणुओं की होती है - डेक्सट्रोज़, फ्रक्टोज़ और ग्लूकोज़. डेक्श्ट्रोज़ और ग्लूकोज़ एक जैसे होते हैं, जबकि आम उपयोग की जानी वाली चीनी डेक्ट्रोज़ व फ्रक्ट्रोज़ का मिश्रण होती है. खाने की चीज़ों में व मीठे पेय बोतलों में कोर्न सिरप होता है जिसमें फ्रक्टोज़ होता है और जो शरीर को नुक्सान पहुँचाता है. इससे शरीर में यूरिक एसिड बढ़ता है, मोटापा आता है, कैन्सर का खतरा बढ़ता है. 2009 में अमरीका के डा. रोबर्ट लस्टिग ने यूट्यूब (Sugar the bitter truth ) पर अपने भाषण में फ्रक्टोज़ के शरीर पर गलत प्रभावों के बारे में बताया, यह वीडियो बहुत प्रसिद्ध हुआ इसे लाखों लोगों ने देखा. इस वीडियो में डा लस्टिग चीनी की तुलना ज़हर से करते हैं. हालाँकि बहुत से लोगों ने बाद में माना कि डा. लस्टिग चीनी को जितने दोष देते हैं वे वैज्ञानिक शोध पर आधारित नहीं हैं लेकिन फ़िर भी अधिक खाना, गलत खाना, कोला या नीम्बू के स्वाद वाली सोडा वाली मीठी ड्रिंक अधिक पीना, खाने में चीनी के उपयोग का बढ़ना, इन सब का सम्बन्ध है मधुमेह के बढ़ने से. लेकिन इन सबको बेचने वाली कम्पनियाँ विज्ञापनो पर करोड़ों रुपये खर्च करती हैं, विषेशकर नवयुवकों व बच्चों में बिक्री बढ़ाने के लिए और उन पर किसी तरह से काबू पाना कठिन है.

दूसरी ओर हमारी परानी खाद्य सोच जिसमें शहद, गुड़, काँजी, शिकँजबी, जलजीरा जैसी चीज़ों का उपयोग होता था, उन्हें पुराना सोच कर हीन माना जाता है.

बाज़ार पर स्वास्थ्य के प्रभाव का एक अन्य उदाहरण है जेनेटिकली मोडीफाईड आरगेनिसम (GMO) की बायोटेक तकनीकी से बने बीज व फसलें जिनके बारे में कहते हैं कि उनमें कीटनाशक पदार्थों की आवश्यकता कम होती है और फसलें भी बढ़िया होती हैं. जो इनके विरुद्ध कुछ कहे तो कहते हैं कि वे व्यक्ति तरक्की और विकास के विरुद्ध है. लेकिन इन बदले हुए गुणत्व वाली फसलों के लम्बे समय में मानव शरीर पर क्या प्रभाव पड़ते हैं उसके बारे में जानकारी बहुत कम है या बिल्कुल नहीं है.

कुछ वर्ष पहले इस विषय पर बात करते हुए डा. वन्दना शिव ने कहा था कि "यह भविष्य के लिए महत्वपूर्ण विषय हैं, इनसे मानव विकास की आशाएँ हैं, इसलिए यह नहीं कहती कि इस पर शोध नहीं होना चाहिये. लेकिन बिना उनका मानव जीवन पर असर ठीक से समझे, इन फसलों को खुला उगाने का अर्थ है कि इनसे बाकी की फसलें भी प्रभावित होंगी और सदियों में कृषकों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी संजोये गये बीजों की नस्लें नष्ट हो जायेंगी, उन्हें हम हमेशा के लिए खो देंगे."

नयी तकनीकी बायोटेक कम्पनियों का कहना है डा. वन्दना शिव जैसे लोग प्रगति के विरुद्ध हैं. लेकिन हाल में ही मैने लास एन्जेलस की कम्पनी बायोसिक्योरिटीज़ के अध्यक्ष सानो शिमोदा का भाषण देखा. शोमोदा स्वयं कृषि बायोटेक की दुनिया में पैसे लगाने वालो की दृष्टि से काम करने वाले हैं इसलिए उनकी बात को "प्रगति के विरुद्ध" कह कर नहीं टाला जा सकता. वह भी अपने भाषण में मानते हैं कि बायोटेक बीजो व फसलों के मानव व प्रकृति पर लम्बे समय में क्या असर होता है इस पर शोध आवश्यक है. वह कहते हैं कि जिन बीजों के लिए पहले कीटनाशक कम लगता था, उनमें नयी दिक्कते पैदा हो रही हैं और कीटनाशक पदार्थों की आवश्यकता होने लगी है. वह मानते हें कि बायोटेक फसलों से क्या फायदा हो हो रहा है, यह स्पष्ट नहीं है.

मैंने इस आलेख में अंतर्राष्ट्रीय दवा बनाने वाली कम्पनियों की बात नहीं की, लेकिन वह भी महत्वपूर्ण विषय है. विश्व व्यापार संस्थान के माध्यम से उन्होंने भारतीय दवा बनाने वालों पर कई बार हमले किये हैं. अभी तक भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने उन हमलों को सफ़ल नहीं होने दिया है. पिछले दशकों में भारत के दवा बनाने वालों ने विकासशील देशों में एडस जैसी बीमारियों के लिए महत्वपूर्ण काम किया है. दवाओं व बाज़ारवाद विषय पर तो नया आलेख लिखा जा सकता है, इसलिए इस विषय में यहाँ अधिक नहीं कहूँगा.

निष्कर्श

आधुनिक बाज़ारवाद व पूँजीवाद से हमारे स्वास्थ्य तथा स्वास्थ्य सेवाओं पर विभिन्न तरह से प्रभाव पड़ रहे हैं. एक ओर तकनीकी तरक्की है तो दूसरी ओर निजिकरण, प्रदूषण, प्रकृति विनाश और नयी बीमारियाँ भी हैं. व्यक्तिगत रूप से मैं यह नहीं सोचता कि सब कुछ सरकार के हाथ में होना चाहिये या हर तरह का निजिकरण गलत है. बल्कि मैं मानता हूँ कि बाज़ार का अपना महत्व है और बिना बाज़ार के जीवन नहीं हो सकता. लेकिन सरकार स्वास्थ्य विषय को केवल बाज़ार के भरोसे नहीं छोड़ सकती. जिनको पैसा कमाना है उनको बीमारियाँ कम करने या लोगों के अधिक स्वस्थ्य होने में दिलचस्पी नहीं. उन्हें बीमारियों को बढ़ाने तथा उनके मँहगे इलाज व टेस्ट कराने में फायदा है. इसलिए सरकारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं का देश के नागरिकों के लिए महत्वपूर्ण भाग होना चाहिये. सरकार यह सोच कर कि प्राइवेट संस्थान है, अपनी ज़िम्मेदारी से नहीं बच सकती.

साथ ही अन्धाधुँध आर्थिक विकास और जी.डी.पी बढ़ाने की चाह में देश की व समुदायों की प्राकृतिक और साँस्कृतिक सम्पदा को नहीं भूला जा सकता. इसके लिए आवश्यक है कि आर्थिक विकास संतुलित रूप में होना चाहिये, और बहुदेशीय कम्पनियों तथा बड़े कोर्पेरशन वाली कम्पनियों को बेलगाम जो चाहे वह करने का मौका नहीं देना चाहिये.

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सोमवार, मई 27, 2013

मिथकों में जीवन

बात कहीं से शुरु होती है और फ़िर किसी अन्य दिशा से कोई तार उससे आ मिलते हैं, और बातों में बातें जुड़ जाती हैं.

Mithak - Myths
कुछ यूँ ही हुआ जब मैंने अपने फोटो ब्लाग "छायाचित्रकार" पर तीन महाद्वीपों से विभिन्न तरह की गिलहरियों की तस्वीरें लगाने की सोची. दिल्ली में कुतुब मीनार के पास खींची गिलहरी की तस्वीर देख रहा था तो उसकी पीठ पर कथई रंग की धारियों से याद आया कि उसके बारे में बचपन में कहानी सुनी थी. उस कथा के अनुसार, जब राम अपनी सैना को ले कर लँका जाने के लिए सागर पर पुल बना रहे थे तो गिलहरी ने पत्थर लाने में बहुत मेहनत की और गिलहरी को धन्यवाद देने के लिए उन्होंने जब उसकी पीठ को सराहा तो उनकी उँगलियों के निशान उसकी पीठ पर रह गये.

फ़िर सोचा कि मानव ने क्यों इस तरह के मिथक रचे? मिथकों का जीवन में क्या लाभ है?

केवल भारत में नहीं, हर देश, हर संस्कति ने पूर्वेतिहासिक काल में अपने मिथक रचे, तो मानव समाज में अवश्य उनका कुछ महत्व और उपयोग होता था, जिसकी वजह से सभी सभ्यताओं में मिथक रचे गये. अक्सर सभ्यताओं से जुड़े मिथक, उन सभ्यताओं के प्रचलित धर्मों से जुड़ जाते हैं, जिसकी वजह से अंग्रेज़ी में धार्मिक कथाओं को माइथोलोजी (mythology) कहते हैं, यानि "मिथकों की कहानियाँ".

यह सोच रहा था तो जानी मानी भारतीय विचारक, पारम्परिक जनजातियों के ज्ञान की रक्षा की पक्षधर और भूमण्डलीकरण की विरोधी सुश्री वन्दना शिव की एक बात याद आयी. वन्दना मेरी मित्र डा. मीरा शिव की बहन हैं. कुछ वर्ष पहले वह इटली के फ्लोरैंस शहर में एक समारोह में आमन्त्रित थीं. मीरा ने उनके हाथ मेरे लिए कुछ सामान भेजा था, जिसके लिए मैं वन्दना से मिलने फ्लोरैंस गया था और उनका भाषण सुनने का मौका मिला. अपने भाषण में उन्होंने बात की थी, नयी तकनीकों से बीजों के डीएनए (DNA) को बदल कर नयी तरह की वनस्पतियों को बनाने के प्रयोगों से प्राकृति के संरक्षण की. उन्होंने कहा कि भारत में हिन्दू धर्म में तैंतीस करोड़ देवी देवता माने जाते हैं, और हर देवी देवता के साथ किसी न किसी पशु या पक्षी या वनस्पति का नाम भी जुड़ा होता है, जिनकी वजह से धर्म में विश्वास रखने वाले उन सब की रक्षा करते हैं. इस तरह से यह पौराणिक मिथक, मानव व प्राकृति के साथ साथ सामन्जस्य से रहने का संदेश देते हैं.

यानि, प्राचीन काल में जब विज्ञान नहीं था, किताबें नहीं थीं, तब मिथकों के द्वारा मानव जीवन के अनुभवों से अर्जित ज्ञान को याद रखा जाता था. इस तरह से देवी देवताओं की कहानियाँ एक माध्यम बन गयीं जिनसे मानव और प्राकृति में सामन्जस्य की आवश्यकता को नैतिक रूप दिया गया.

कुछ इसी तरह की बात एक बार मिस्र में एक मित्र ने मुसलमानों द्वारा सूअर के माँस को अपवित्र मानने के बारे में कही थी. वह कहते थे कि मध्य-पूर्व के देशों में सूअरों में सिस्टोसरकोसिस का रोग होता था और सूअर का माँस खाने से वह मानव शरीर में, विषेशकर दिमाग के तंतुओं में फैल जाता था. इसलिए सूअर के माँस की वर्जना की बात, वहाँ रहने वाली मानव जाति की सुरक्षा से जुड़ी थी.

मिथक क्यों बने, यह समझना हमेशा आसान नहीं होता. बहुत सी सभ्यताओं में नमक का गिरना या बिखरना अशुभ माना गया है. शायद इस मिथक के पीछे, पुराने समय में नमक को पाने की कठिनाई थी क्योंकि यह केवल सागर तटवर्ती क्षेत्रों में मिलता था. पर बहुत सी सभ्यताओं में काली बिल्ली को क्यों अशुभ माना गया, इसका कारण क्या हो सकता है?

जब लिखाई नहीं थी, किताबें नहीं थीं, तब इतिहास की महत्वपूर्ण बातों को न भूलने के लिए भी मिथक काम आते थे. जैसे कि अमरीकी जनजातियों के मिथकों में पृथ्वी पर मानव जीवन कैसे बना इसकी कहानियाँ हैं. इन मिथकों में आकाश से या चाँद से धरती तक एक पुल का बनना और उसे पार करके धरती पर आने की बातें हैं. इन कहानियों में कुछ इतिहासकारों ने करीब दस हज़ार वर्ष पहले के हिमयुग में उत्तरी सागर के बर्फ से जमने और उसे पार कर के एशियाई मूल के लोगों के अमरीका महाद्वीप पहुँचने की यात्रा के संकेत पाये हैं.

मिथक सामाजिक विचारों को भी शक्ति देते हैं. चाहे समाज में पुरुष के मुकाबले में नारी का नीचा स्थान हो या विकलाँग व्यक्तियों को समाज से बाहर देखने के प्रवृति, इनको प्राचीन मिथकों का सहारा मिलता है, जिनकी जड़ें समाज में बहुत गहरी होती हैं और जिन्हें बदलना आसान नहीं होता. दिल्ली में विकलाँग व्यक्तियों के मानव अधिकारों के क्षेत्र में कार्यरत मेरी मित्र डा. अनीता घई, रामायण में सूर्पनखा की कहानी का उदाहरण देती हैं कि सुन्दर सूर्पनखा स्वतंत्र हैं, उसकी यौनकिता भी स्वच्छंद है जोकि पितृसत्तावादी समाज में स्वीकार नहीं की जाती थी और इस अपराध के लिए उसकी नाक काट कर उसे विकलाँग बनाया जाता है, जिससे उसकी यौनकिता अस्वीकृत हो जाती है. इस तरह से मिथकों से जुड़े विचार, समाजिक रूढ़ीवाद का हिस्सा भी हो सकते हैं.

अपनी संस्कृति के मिथकों को जानना, हमें अपनी संस्कृति को गहराई से समझने का मौका देता है. भारतीय पारम्परिक मिथकों के बारे में डा. उषा पुरी विद्यावाचस्पति ने एक जानकारी से भरपूर किताब लिखी है, "भारतीय मिथकों में प्रतीकात्मकता" (सार्थक प्रकाशन, दिल्ली, 1997).  उदाहरण के लिए इसमें वह पूजा में उपयोग किये जाने वाली वस्तुओं तथा रीतियों के बारे में बताती हैं कि "ऊँ", शंख और स्वस्तिक में सृष्टि के आरम्भ का नाद है, जलयुक्त कलश को जल, वायू तथा सूर्य का प्रतीक मानते हैं, तथा कलश की गर्दन में बँधा कलावा मंगलमय आयोजन में समाज को स्नेहसूत्र में बाँधने का द्योतक है. रूद्राक्ष, शिव के आँसू या पसीने से बना है इसलिए मनुष्य को आधि व्याधि से मुक्त करता है. हल्दी में रोग निवारण शक्ति हैं और स्वर्ण का प्रतीक है, चावल दीर्घायुदायी हैं, जबकि दीपक प्रकाश तथा ज्ञान का प्रतीक है.

Cover of Bhartiya mithakon mein pratikatamkta by Dr Usha Puri Vidyavachaspati

यह बात नहीं कि मिथक केवल प्राचीन ही होते थे और आजकल नये मिथक नहीं बनते. पिछले वर्ष अमरीकी माया सभ्यता के कैंलेण्डर की भविष्यवाणी बता कर "20.12.2012 को दुनिया का अंत होगा" की बात को बहुत से लोगों ने सच मान लिया था. यानि आज "मिथक" का अर्थ धर्म से जुड़ी बातों से हट कर, झूठ या काल्पनिक बातों की तरह से होने लगा है. लोग फेसबुक और टिव्टर जैसे सोशल मीडिया की सहायता से नये मिथक बनाते हैं जो विभिन्न भाषाओं में अनुवादित हो कर एक देश या सभ्यता में सीमित नहीं रहते बल्कि सारी दुनिया में फ़ैलते हैं. इन नये मिथकों को "शहरी मिथक" भी कहते हैं जिनसे लोगों को डराते हैं. "अगर आप के पास इस तरह का ईमेल आये तो उसे नहीं खोलिये" या "अगर आप ने इस ईमेल को कम से कम दस लोगों को नहीं भेजा तो आप का विनष्ट होगा" या "इस ईमेल को दस लोगों को भेजेंगे तो लाटरी जीतेगें" जैसी बातें शहरी मिथक के दायरे में आती हैं. (नीचे की तस्वीर में "12 दिसम्बर को दुनिया का अंत होगा" के विषय पर बनी एक कलाकृति)

2012 Maya calendar myth sculpture by Joe Venturi and Matteo Varsellona

देखा आपने, एक गिलहरी की तस्वीर से शुरु हुआ विचार कहाँ तक पहुँच गया! मेरे विचार में प्राचीन मिथकों में छुपे प्राचीन ज्ञान को केवल अँधविश्वास कह कर भूल जाना या अस्वीकार करना गलती है. बहुत से मिथकों में सामाजिक बुराईयों के अँधविश्वास बने हैं, जो केवल मिथकों के शब्दिक अर्थ से जुड़े विचारों की कट्टरता का नतीजा हैं. पर जैसे वन्दना शिव के दिये उदाहरण से स्पष्ट होता है, इनमें छिपे सभी ज्ञान अवैज्ञानिक नहीं है. चाहे हम मिथकों में छुपे ज्ञान को संजोने की सोचे या उनसे जुड़ी गलत सामाजिक परम्पराओं को बदलने की बदलने की कोशिश करें, उनके महत्व को नहीं नकार सकते. आधुनिक मिथकों को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिये, पर अपनी सोच समझ से उनके सच और झूठ को परखना चाहिये.

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रविवार, फ़रवरी 26, 2012

गिद्ध, मुर्गियाँ और इन्सान


क्या आप को कभी भारतीय शहरों में गिद्धों की याद आती है? क्या आप को याद है कि आप ने आखिरी बार किसी गिद्ध को कब देखा था? शायद आप के छोटे बच्चों ने तो गिद्ध कभी देखे ही न हों, सिवाय चिड़ियाघरों में? पिछले कुछ सालों में मैं अपनी भारत यात्राओं के बारे में सोचूँ तो मुझे एक बार भी याद नहीं कि कोई गिद्ध दिखा हो.

बचपन में हम लोग दिल्ली में झँडेवालान के पास ईदगाह वाले रास्ते के पास रहते थे. तब वहाँ गिद्धों के झुँड के झुँड दिखते थे. कुछ साल पहले उधर गया था तो उस तरफ भी कोई गिद्ध नहीं दिखे थे. लेकिन पहले इसके बारे में सोचा नहीं था. कोई चीज़ न दिखे, तो समझ में नहीं आता कि नहीं दिखी, जब तक उसके बारे में सोचो नहीं.

पिछले कुछ दशकों में भारत के नब्बे प्रतिशत गिद्ध मर चुके हैं. इसके बारे में मीरा सुब्रामणियम का आलेख पढ़ा तो दिल धक सा रह गया. अचानक याद आ गया कि कितने सालों से भारत में कभी कोई गिद्ध नहीं दिखा.

बदलती दुनिया के साथ भारत भी बदल रहा है. इसके बारे में बहुत सालों से सुन रहा था, पर गिद्धों के बारे में पढ़ कर महसूस हुआ कि सचमुच यह बदलाव कितने बड़े विशाल स्तर हो रहा है. पर बदलाव कुछ छुपा छुपा सा है. कुछ अनदेखा सा. ऐसा कि उसकी ओर सामान्य किसी का ध्यान नहीं जाता.

जितनी बार दिल्ली, बँगलौर या बम्बई जैसे शहरों में जाता हूँ, हर बार लगता है कि दमे या खाँसी या एलर्जी वाले लोग कितने बढ़ गये हैं. डाक्टर होने की यही दिक्कत है कि बीमारियों के समाचार अवश्य मिलते हैं. लोग मेरा हाल चाल पूछने के बाद, अपनी तकलीफ़ें अवश्य बताते हैं. और मुझसे सलाह भी माँगते हैं कि कौन सी दवायी लेनी चाहिये? पर वातावरण में प्रदूषण के बढ़ने से होने वाली बीमारियों को दवा कैसे ठीक कर सकती हैं? यह सोच कर मैं अक्सर कहता हूँ कि दवा के साथ कुछ दिन पहाड़ पर या गाँव में घूम आईये, उससे शायद अधिक असर होगा दवा का.

पर धीरे धीरे, हमारे गाँव और पहाड़ भी उसी प्रदूषण का शिकार हो रहे हैं. कुछ दिन पहले आकाश कपूर का लेख पढ़ा था, जिसमें वह दक्षिण भारत में पाँडेचेरी के पास एक गाँव में अपने घर से दो मील दूर कूड़ा फैंकने की जगह पर जलने वाले प्लास्टिक की बदबू और प्रदूषण की बात कर रहे हैं. उन्होंने लिखा है कि "भारत में हर वर्ष शहरों में दस करोड़ टन कूड़ा बनता है, जिसमें से करीब साठ प्रतिशत इक्टठा किया जाता है, बाकी का चालिस प्रतिशत वहीं आसपास जला दिया जाता है. कुछ कूड़ा लैंडफ़िल यानि बड़े खड्डों में भर दिया है, और वहाँ पर जलता है... भारत की पचास प्रतिशत ज़मीन ऊपरी उपजाऊ सतह खो रही है, सत्तर प्तिशत नदियों का पानी प्रदूषित है, हवा के प्रदूषण की दृष्टि से भारत दुनिया में सबसे अधिक प्रदूषित है ..". वह पूछते हैं कि वह प्रदूषण से बचने के लिए गाँव में रहने आये, लेकिन अगर प्रदूषण गाँवों को लपेट में ले लेगा तो कहाँ जायेंगे?

आर्थिक विकास भारत में कैसे लाया जाये, इसके लिए उदारीकरण का मार्ग चुना गया है. इसके लिए बहुदेशी विदेशी कम्पनियाँ भारतीय कम्पनियों से मिल कर भारत में नये तरीके के बीज और उपज बढ़ाने के लिए नये तरीके की खाद और कीटनाशक स्प्रे ला रही हैं. इस सब से वह चुपचाप होने वाली एक क्राँती हो रही है. जिससे हज़ारों सालों से किसानों द्वारा खोजे और सम्भाले हुए बीज, नये लेबोरेटरी में तैयार हुए बीजों से मिल कर नष्ट हो रहे हैं. लैबोरेटरी में बने बीजों को बहुदेशी कम्पनियाँ बेचती हैं. इनमे वह बीज भी हैं जो एक बार ही उगाये जाते हैं. उन पौधों से बीज नहीं मिलते, उन्हें नया खरीदना पड़ता है. उपज बढ़ाने के लालच में किसान ऋण लेते हैं ताकि यह बीज खरीद सकें. और ऋण न भर पाने पर आत्महत्या करते हैं.

कैमिकल खाद और कीटनाशक पौधों के कीड़े मकोड़े मारते हैं. पर यही पदार्थ नयी बीमारियाँ भी बना रहे हैं. साथ ही ज़मीन के सतह के नीचे छुपे पानी को दूषित कर रहे हैं. नवदान्य संस्था की सुश्री वन्दना शिवा जैसे लोगों ने इसके बारे में बहुत कुछ शौध किया है और लिखा भी है.

अधिकतर लोग सोचते हैं कि यह सब बेकार की बातें हैं. पर्यावरण की रक्षा कीजिये, बाँध बना कर वातावरण को नष्ट न कीजिये, खानों से प्रदूषण होता है, जैसी बातों को विकास विरोधी कहा जाता है. लेकिन यही लोग जब बाज़ार में ताज़ी सब्ज़ी खरीदने जाते हैं तो कैसे जान पाते हैं कि वह सब्जी किस तरह के कीटनाशक तत्वों के संरक्षण में उगायी गयी है? या फ़िर क्या उस सब्जी को नये बीजों से बनाया गया है, जिनका शरीर पर क्या असर पड़ता है इसका किसी को ठीक से मालूम नहीं? जिसे वह लोग बेकार की बात सोचते हैं, वही बात उनके अपने और बच्चों के जीवन पर उतना ही असर करेगी. तो कहाँ जायेंगे, साँस लेने?

माँस मछली खाने वाले सोचते हैं कि शरीर में बढ़िया पोषण पदार्थ जा रहे हैं. लेकिन यह माँस मछली कहाँ से आते हैं? आजकल अधिकतर मुर्गियाँ "ब्रोयलर चिकन" होती हैं, जो पिँजरों मे पैदा होती हैं, वहीं पिँजरों में बढ़ती हैं. सारा दिन विषेश बना चारा खाती हैं. तीन महीने में चूजा मुर्गी बन कर खाने की मेज़ पर तैयार हो कर आ जाता हैं. यह चिकन बनाने की फैक्टरियाँ होती हैं जहाँ हज़ारों लाखों की मात्रा में चिकन तैयार होता है. इसकी कीमत भी सीमित रहती है ताकि लोग खरीद सकें. एक एक पिँजरे में हज़ारों मुर्गियों को साथ रखने से उन्हें पोषित चारा देना और उनकी देखभाल आसान हो जाती है. लेकिन एक खतरा भी होता है. किसी एक मुर्गी को कुछ बीमारी लग गयी तो सारी मुर्गियों में तुरंत फ़ैल जाती है, बहुत नुक्सान होता है. इसलिए उनके चारे में एँटिबायटिक मिलाये जाते हैं ताकि उन्हें बीमारियाँ न हों. चूज़ों को एँटिबायटिक देने का एक अन्य फायदा है कि उससे वह जल्दी बड़े और मोटे होते हैं. वैसे मीट के लिए पाले जाने वाले पशुओं को एँटिबायटिक के अतिरिक्त बहुत से लोग होरमोन भी देते हैं जिससे चिकन और बकरी की मासपेशियाँ सलमान खान और हृतिक रोशन की तरह मोटी और तंदरुस्त दिखती हैं.

Poultry farming for broiler chicken

जितना वजन अधिक होगा, उतनी कमायी होगी. तो मुर्गी हो या बकरी, उसे एँटीबायटिक देना, हारमोन देना, खाने में पिसी हड्डी मिलाना, सब उन्हें मोटा करने में काम आते हैं. खाने वाले भी खुश रहते हैं कि देखो कितना सुन्दर माँस खरीदा, कितना बढ़िया और स्वादिष्ट पकवान बनेगा.

बस कुछ छोटी मोटी दिक्कते हैं. दिक्कत यह कि वही एँटीबायटिक और हारमोन माँस के साथ खाने वाले के शरीर में भी आ जाते हैं. लगातार नियमित रूप से छोटी छोटी मात्रा में एँटिबायटिक और हारमोन आप के शरीर में जाते रहें इससे आप के शरीर को कितना लाभ होगा, यह तो आप स्वयं ही सोच सकते हैं. कई शोधों ने जानवरों को दिये जाने वाले होरमोन की वजह से शहर में रहने वाले लोगों के शरीर में होने वाले कई बदलावों से जोड़ा है, जिसमें कैन्सर तथा एलर्जी जैसी बीमारियाँ भी हैं. पुरुषों के वीर्य पर असर होने से पिता न बन पाने की बात भी है.

इसी बात से जुड़ा कुछ दिन पहले एक अन्य समाचार था. इस समाचार के अनुसार अमरीका ने कहा है कि वह आयात हो कर लाये जाने वाले माँस में एँटिबायटिक तथा हारमोन की जाँच करेंगे और अगर उनमें यह पदार्थ पाये गये तो उन्हें अमरीका में आयात नहीं किया जायेगा. इस समाचार से मैक्सिकों की पशुपालक कम्पनियों में हड़बड़ी फ़ैल गयी कि इसका कैसे समाधान किया जाये. पर अमरीकी, अपने देश में वह हानिकारक माँस नहीं चाहते, लेकिन साथ ही अमरीकी कम्पनियाँ पूरे विश्व में वही हारमोन और कीटनाशक बेचती हैं, उस पर कोई रोक नहीं है.

इसी से मिलता जुलता एक समाचार कुछ दिन पहले चीन से आया था. चीनी एथलीटों को डर है कि वहाँ की मर्गियों को क्लेनबूटेरोल नाम की दवा खिलायी जाती है जो कि चिकन खाने के साथ खिलाड़ियों के शरीर में आ जाती है. इसे ओलिम्पिक वाले गैरकानूनी दवाओं में गिनते हैं. यानि ओलिम्पिक में भाग लेने वाले खिलाड़ियों के शरीर में अगर यह दवा पायी जायेगी तो उन्हें खेलों में भाग नहीं लेने दिया जायेगा. इसलिए उन खिलाड़ियों ने फैसला किया है कि अपने खाने के लिए चिकन स्वयं पालेंगे ताकि उनके शरीर में माँस के साथ इस तरह के कैमिकल पदार्थ न जायें.

लेकिन जिनको किसी ओलोम्पिक खेलों में भाग नहीं लेना, क्या उनके लिए इस तरह के कैमिकल खाना अच्छी बात है? हमारे देशों में पशुओं को कौन सा चारा या दवा खिलायी जाती है, इसकी चिन्ता कौन करता है? क्या आप डर के मारे अपनी मुर्गियाँ स्वयं अपने घर में पालेंगे?

गिद्धों के बारे में अपने आलेख में मीरा सुब्रामणियम ने  अमरीका  में किये गये एक शौध के बारे में लिखा है. गिद्धों की मृत्यु का कारण है कि भारत में जिन मृत पशुओं को वह खाते हैं के शरीर में एक दवा होती है, जिसका नाम है डाईक्लोफेनाक. इस दवा का जोड़ों के दर्द के उपचार के लिए मनुष्यों और पशुओं में प्रयोग होता है. जिन पशुओं को यह दवा दी गयी हो, उनका माँस अगर गिद्ध खाते हैं तो उनके गुर्दे नष्ट हो जाते हैं. इसी वजह से भारत के नब्बे प्रतिशत गिद्ध मर चुके हैं. यानि यह दवा इतने पशुओं को दी जाती है कि इसने भारत के अधिकतर गिद्धों को मार दिया.

मीरा जी का यह आलेख पढ़िये, और सोचिये कि अभी गिद्ध मर रहे हैं, कल वही माँस खा कर बड़े होने वाले आज के छोटे बच्चे बड़े होंगे तो क्या उनको भी नयी बीमारियाँ हो सकती है?

आधुनिक प्रदूषण ट्रेफिक के धूँए से है, शोर से है, प्लास्टिक से है, इसकी बात तो कुछ होती है. लेकिन यह प्रदूषण दवाईयों से भी है, रसायन पदार्थों से भी है, नयी तकनीकों से भी हैं, इसके बारे में कितनी जानकारी है लोगों को?

पर्यावरण और जल का प्रदूषण, खाने में मिली दवायें और कीटनाशक, बदलते बीज और फसलें! यह सब सतह के नीचे छुपे दानव सा बदलाव हो रहा है. यह ऊपर से नहीं दिखता लेकिन भीतर ही भीतर से हमारे भविष्य को खा रहा हैं. जो नेता और उद्योगपति पैसे के लालच में या अज्ञान के कारण, भारत के भविष्य को विकास और आधुनिकता के नाम पर बेच रहे हैं, यह दानव उन्हें भी नहीं छोड़ेगा. उसी हवा में उन्हें भी साँस लेनी है, उसी मिट्टी का खाना उन्हें भी खाना है.

पर क्या भारत समय रहते जागेगा और इस भविष्य को बदल सकेगा?

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रविवार, फ़रवरी 05, 2012

छोटू, नन्हे और रामू काका


एक दो दिन पहले टीवी के सीरियल तथा फ़िल्में बाने वाली एकता कपूर का एक साक्षात्कार पढ़ा जिसमें उनसे पूछा गया कि क्या आप को अपने बीते दिनों की अपनी किसी बात पर पछतावा है, जिसके लिए आज आप चाह कर भी क्षमा नहीं माँग सकती. उन्होंने उत्तर दिया कि  "हाँ, मेरे पास अम्मा के लिए समय नहीं था. उन्होंने 27 साल तक हमारी देख भाल की. जब वह मर रहीं थीं तो मैं अपने काम में इतना व्यस्त थी कि उनके पास नहीं थी."

"स्वदेश" के मोहन भार्गव (शाहरुख खान) ऐसे ही पछतावे से प्रेरित हो अपनी बचपन की कावेरी अम्मा को मिलने के लिए भारत आते हैं.

"आई एम कलाम" का छोटू भट्टी साहब के ढाबे में काम करता है. काम तो बहुत करना पड़ता है और उसे पढ़ने का समय भी नहीं मिलता, लेकिन भट्टी बुरा आदमी नहीं है, वह छोटू से प्यार से बात करता है.

साठ सत्तर के दशक में फ़िल्मों में मध्यवर्गीय बड़े परिवार होते थे जिनमें घर में काम करने वाले पुराना वफ़ादार नौकर अवश्य होता था जिसे घर के लोग अक्सर रामू काका कहते थे. मनमोहन कृष्ण, ए. के. हँगल, सत्येन कप्पू, नाना पलसीकर जैसे अभिनेता यह भाग निभाने के लिए प्रसिद्ध थे. महमूद ने भी यह भाग बहुत सी फ़िल्मों में निभाया था, पर उनके अभिनीत नौकर खुशमिज़ाज़ होते थे जिन्हें अक्सर घर में काम करनी वाली लड़की से प्यार होता था, जबकि बाकि लोगों द्वारा अभिनीत नौकरों को दुखी या गम्भीर दिखाया जाता था. नब्बे के दशक में राजश्री की फ़िल्मों में लक्ष्मीकाँत बिर्डे ने यही भाग कई फ़िल्मों में निभाये थे.

अगर उन फ़िल्मों की बात करें जिनमें घर में काम करने वाले नौकर का भाग प्रमुख था तो मेरे दिमाग में नाम याद आते हैं - ऋषीकेश मुखर्जी की "बावर्ची" जिसमें बावर्ची बने थे राजेश खन्ना और "चुपके चुपके" जिसमें नौकर-ड्राइवर थे धर्मेन्द्र , गुलज़ार की "अँगूर" जिसमें नौकर के जुड़वा भाग में थे देवेन वर्मा और इस्माइल मेमन की "नौकर" जिसमें  नौकर  बने थे महमूद लेकिन जिनकी जगह नौकर बन कर आ जाते हैं संजीव कुमार. ऋषीकेश मुखर्जी की ही फ़िल्म "मिली" में घर के पुराने नौकर के भाग में नाना पलसिकर की बेबसी ने मेरे दिल को छू लिया था, जो बचपन से पाले शेखर (अमिताभ बच्चन) के शराबी हो कर बरबाद होते देख समझ कर भी कुछ कर नहीं पाता.

आजकल की फ़िल्मों में माता, पिता, भाई बहन, के साथ साथ, घर में काम करने वाले लोग भी पर्दे से गुम से हो गये हैं, कभी कभार ही दिखते हैं.

लेकिन क्या यह फ़िल्मों वाले रामू काका या नन्हे सचमुच के जीवन में भी होते हैं? और सचमुच के घर में काम करने वालों से कैसा व्यवहार किया जाता है? पच्चीस साल पहले दिल्ली में जहाँ रहते थे वहाँ हमारे पड़ोसी प्रोफेसर साहब के यहाँ पूरन काम करता था, गढ़वाल से आया था, जब छोटा सा था. प्रोफेसर साहब ने स्वयं उसे पढ़ा कर स्कूल के सब इन्तहान प्राईवेट ही पास करा दिये थे, फ़िर सरकारी नौकरी भी लग गयी थी और अपने परिवार के साथ रहता था, लेकिन जब तक प्रोफेसर साहब व उनकी पत्नि रहे, वह दफ्तर से आ कर उनके लिए खाना बना देता था.

पर अधिकतर घरों में काम करने वाले लोग, चाहे बच्चे हो या बड़े, उन्हें इन्सान कितने लोग समझते हैं? घर के बच्चों के लिए शिक्षा, खिलौने, मस्ती, और उसी घर में काम करने वाला बच्चा सारा दिन खटता है और अपेक्षा की जाती है कि उसे अहसानमन्द होना चाहिये कि भूखा नहीं मर रहा, बस दो वक्त की रोटी जो मिल जाती है.

Servant, graphic S. Deepak, 2012
अपनी नौकरी में समय से अधिक काम करना पड़े तो ओवरटाईम की बात होती है पर घर में काम करने वाले नौकर को दिन रात कभी भी जगा दो, जितनी देर तक मन आये काम करा लो, उसके लिए न ओवरटाईम न छुट्टी. रेस्टोरेंट में कई बार देखने को मिलता है कि सारा परिवार मिल कर मज़े से खाना खा रहा है और वहीं कोने में छोटी उम्र का नौकर चुपचाप घर के छोटे बच्चे की निगरानी कर रहा है.

कई बार जान पहचान वाले लोगों के घर देखे हैं, बड़े, खुले और आलीशान पर उन्हीं घरों में घर में काम करने वाले के लिए केवल छोटी सी अँधेरी कोठरी ही होती है. बहुत से घरों में वह कोठरी भी नहीं होती, वह रात को रसोई या अन्य किसी कमरे में ज़मीन पर भी बिस्तर लगाते हैं. कई लोगों को जानता हूँ जहाँ घर के काम करने वाले घर की कुर्सी या सोफ़े पर नहीं बैठ सकते, उन्हें नीचे ज़मीन पर ही बैठना होता है.

घर में काम करने वालों का कुछ यही हाल अन्य देशों में भी है. फिल्लीपीनस् की कितनी स्त्रियाँ यूरोप और मध्यपूर्व के देशों में घरों के काम करती हैं, उनके बच्चे और पति फिल्लीपीनस् में रहते हैं और वह घर पैसा भेजने के लिए खटती मरती हैं. यहाँ इटली में फिल्लीपीनस् के अतिरिक्त, पूर्वी यूरोप की रोमानिया, मालदाविया, यूक्रेन आदि देशों से बहुत सी स्त्रियाँ भी हैं. यहाँ भी कभी कभी घर में काम करने वालों से दुर्व्यवहार की बात सुनायी देती है लेकिन यहाँ मध्य पूर्व तथा भारत के आसपास के देशों वाला बुरा हाल नहीं है.

ईथियोपिया की औरतें जो मध्य पूर्व के देशों में काम करने जाती हैं, उनके पासपोर्ट ले लेते हैं और उन्हें गुलामी की हालत में रखते हैं और उनका यौनिक शोषण भी करते हैं. समाजशास्त्री बीना फेरनान्डेज़ ने एक सर्वे किया था जिसमें निकला कि सन 2009 में बयालिस हज़ार औरते ईथियोपिया से साऊदी अरेबिया में काम करने आयीं. सर्वे में यह भी निकला कि उनसे दिन में दस से बीस घँटे काम करवाया जाता है और महीने में एक दिन की छुट्टी मिलती है.

पिछले दिनों पाकिस्तान में इस्लामाबाद से खबर आयी थी ग्यारह वर्ष के शान अली की मृत्यु की जिसको उसकी मालकिन श्रीमति अतिया अल हुसैन ने गुस्से में गला दबा कर मार डाला था. इसी रिपोर्ट में लिखा था कि पाकिस्तान में छोटे बच्चे अक्सर घरों में काम करते हैं और उनके साथ बुरा व्यावहार होना आम बात है. अन्तर्राष्ट्रीय कामगार संस्था के अनुसार पाकिस्तान में दो लाख चौंसठ हज़ार बच्चे घरों में नौकर हैं. उनका कहना कि बहुत से परिवार बच्चों को ही काम पर रखना पसंद करते हैं क्योंकि इससे उन्हें लगता है कि घर की औरतों और बच्चों को कोई खतरा नहीं होगा.

घर में काम करने वाले रखना चीन तथा मेक्सिको जैसे देशों में आम है, लेकिन वहाँ घरों में काम करने जाने वाले बच्चे आम नहीं हैं.

भारत में घरों में काम करने वालों का अनुमान लगाया गया है कि एक करोड़ हैं, उनमें से अधिकाँश औरते एवं लड़कियाँ हैं. जहाँ बड़े परिवार टूट रहे हैं और उनकी जगह माता-पिता और उनके एक या दो बच्चों वाले परिवार ले रहे हैं और जहाँ औरतें काम पर जाती हैं वहाँ घर में काम करने वाले के बिना गुज़ारा नहीं होता.

ऐसा कैसे हो कि वे "नौकर" नहीं "कामगार" माने जायें और हर कामगार की तरह उनके भी अधिकार हों?

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शुक्रवार, सितंबर 16, 2011

धँधा है, सब धँधा है


अखबार में पढ़ा कि इंफोसिस कम्पनी ने अपने व्यापार को विभिन्न दिशाओं में विकसित करने का फैसला किया है, इसलिए कम्पनी अब प्राईवेट बैंक के अतिरिक्त चिकित्सा क्षेत्र में भी काम खोलेगी. चिकित्सा क्षेत्र को नया "सूर्योदय उद्योग" यानि Sunrise industry कहते हैं क्योंकि इसमें बहुत कमाई है, जो धीरे धीरे उगते सूरज की तरह बढ़ेगी.

सोचा कि दुनिया कितनी बदल गयी है. पहले बड़े उद्योगपति बहुत पैसा कमाने के बाद खैराती अस्पताल और डिस्पैंसरियाँ खोल देते थे ताकि थोड़ा पुण्य कमा सकें, अब के उद्योगपति सोचते हैं कि लोगों की बीमारी और दुख को क्यों न निचोड़ा जाये ताकि और पैसा बने.

पिछले वर्ष फरवरी में चीन में काम से गया था जब छोटी बहन ने खबर दी थी कि माँ बेहोश हो गयी है और वह उसे अस्पताल में ले जा रही है. माँ का यह समय भी आना ही था यह तो कई महीनो से मालूम हो चुका था. पिछले दस सालों में एल्सहाईमर की यादाश्त खोने की बीमारी धीरे धीरे उनके दिमाग के कोषों को खा रही थी, जिसकी वजह से कई महीनों से उनका उठना, बैठना, चलना,सब कुछ बहुत कठिन हो गया था. मन में बस एक ही बात थी कि माँ के अंतिम दिन शान्ती से निकलें. मैं खबर मिलने के दूसरे ही दिन दिल्ली पहुँच गया. अस्पताल पहुँचा तो माँ के कागजों में उन पर हुए टेस्ट देख कर दिमाग भन्ना गया. जाने कितने खून के टेस्ट, केट स्कैन आदि किये जा चुके थे, पर मुझे दुख हुआ जब देखा कि माँ की रीढ़ की हड्डी से जाँच के लिए पानी निकाला गया था.

करीब सत्ततर वर्ष की होने वाली थी माँ. इतने सालों से लाइलाज बिमारी का कुछ कुछ इलाज उसी अस्पताल के डाक्टर कर रहे थे. यही इन्सान की कोशिश होती है कि मालूम भी हो कि कुछ विषेश लाभ नहीं हो रहा तब भी लगता है कि बिना कुछ किये कैसे छोड़ दें. मरीज़ कुछ गोली खाता रहे, तो मन को लगेगा कि हम बिल्कुल लाचार नहीं हैं, कुछ कोशिश कर रहे हैं.

कोमा में पड़ी माँ के अंतिम दिन थे, यह सब जानते थे. किसी टेस्ट से उन्हें कुछ होने वाला नहीं था. उस हाल में खून के टेस्ट, ईसीजी, ईईजी, केट स्कैन आदि सब बेकार थे, पर उन्हें स्वीकारा जा सकता था, यह सोच कर कि इतना बड़ा प्राईवेट अस्पताल चलाना है तो वह लोग कुछ न कुछ कमाने की सोचेंगे ही. पर रीढ़ की हड्डी से पानी निकालना? यानि उनकी इस हालत में जब हाथ, पैर घुटने अकड़े और जुड़े हुए थे, उन्हें खींच तान कर, इस तरह से तकलीफ़ देना, यह तो अपराध हुआ.

मुझे बहुत गुस्सा आया. छोटी बहन को बोला कि तुमने उन्हें यह रीढ़ की हड्दी से पानी निकालने का टेस्ट करने क्यों दिया? वह बोली मैं उन्हें क्या कहती, वह डाक्टर हैं वही ठीक समझते हैं कि क्या करना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये! डाक्टर आये तो मन में आया कि पूछूँ कि रीढ़ की हड्दी से पानी वाले टेस्ट में क्या देखना चाहते थे, लेकिन कुछ कहा नहीं. मैंने उन्हें यही कहा कि मैं माँ को घर ले जाना चाहूँगा. तो बोले कि हाँ ले जाईये, यही बेहतर है, इनकी हालत ऐसी है कि यहाँ हम तो कुछ कर नहीं सकते.

मैं माँ को घर ला सका था क्योंकि मेरे मन में था कि मैं स्वयं माँ का अंतिम दिनो में उपचार करूँगा. कुछ समय तक मैंने आई.सी.यू. में काम किया था, मालूम था कि उनकी देखभाल जिस तरह मैं कर सकता हूँ, उस तरह अन्य लोग नहीं कर सकते. क्योंकि मेरे उपचार में अपना लाभ नहीं छुपा था, केवल माँ के अंतिम दिनों में उनको शान्ति मिले इसका विचार था. लेकिन जिनके अपनों में कोई डाक्टर न हो जो उनका ध्यान कर सके, क्या उसके अच्छा इलाज का अर्थ यही है कि पैसे कमाने वाले "सूर्योदय उद्योग" से उसे निचोड़ सकें?


Graphic on doctor and money

भारत के डाक्टर, नर्स, फिज़योथेरापिस्ट आदि अपने काम के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं. मेरे विचार में अगर कोई चिकित्सा क्षेत्र में काम करने की सोचता है तो उसे धँधा समझ कर यह सोचे, ऐसे लोग कम ही होंगे. इस क्षेत्र में काम करने वाले अधिकतर लोग अपने मन में स्वयं को भले आदमी के रूप में ही देखते सोचते हैं कि वह लोगों की भलाई का काम कर रहे हैं. लेकिन जब अपने काम से अपनी रोटी चलनी हो और मासिक पागार नहीं बल्कि कौन मरीज़ कितना देगा की भावना हो तो धीरे धीरे लालच मन में आ ही जाता है. बिना जरूरत के आपरेशन से बच्चा करना, बिना बात के ओपरेशन करना या दवाईयाँ खिलाना, नयी बिमारियाँ बनाना, बेवजह के टेस्ट और एक्सरे कराना, जैसी बातें इसी लालच का नतीजा हैं.

हर क्षेत्र की तरह इस क्षेत्र में भी अच्छे और बुरे दोनो तरह के लोग होते हैं. भारत में चिकित्सा क्षेत्र में काम करने वाले ऐसे बहुत से लोगों को जानता हूँ जो आदर्शवादी हैं और इसे सेवा के रूप में देखते हैं. भारत के चिकित्सा से जुड़े कुछ उद्योगों ने भी दुनिया में अपनी धाक आदर्शों के बल पर ही बनायी है, जैसे कि जेनेरिक दवा बनाने वाले तथा सिपला जैसी दवा बनाने की कम्पनियाँ जिन्होंने एडस, मलेरिया, टीबी जैसी बीमारियों की सस्ती दवाईयाँ बना कर विकासशील देशों में रहने वाले गरीब लोगों को इलाज कराने का मौका दिया है.

पर बड़े शहरों में पैसे वालों के लिए सरकारी अस्पतालों की तुलना में पाँच सितारा अस्पतालों में या नर्सिंग होम में लोगों को सही इलाज मिल सकेगा, इसके बारे में मेरे मन में कुछ दुविधा उठती है. वहाँ सरकारी अस्पताल सी भीड़ और गन्दगी शायद न हो, लेकिन क्या चिकित्सा की दृष्टि से वह इलाज मिलेगा जिसकी आप को सच में आवश्यकता है?

अहमदाबाद की संस्था "सेवा" के एक शौध में निकला था कि भारत में गरीब परिवारों में ऋण लेने का सबसे पहला कारण बीमारी का इलाज है. प्राईवेट चिकित्सा संस्थाओं को बीमारी कैसी कम की जाये, इसमें दिलचस्पी नहीं, बल्कि पैसा कैसे बनाया जाये, इसकी चिन्ता उससे अधिक होती है. वहाँ काम करने वाले लोग कितने भी आदर्शवादी क्यों न हों, क्या वह निष्पक्ष रूप से अपने निर्णय ले पाते हैं और वह सलाह देते हैं जिसमें मरीज़ का भला पहला ध्येय हो, न कि पैसा कमाना?

इसीलिए जब सुनता हूँ कि भारत में अब अमरीका जैसे बड़े स्पेशालिटी अस्पताल खुले हैं जहाँ पाँच सितारा होटल के सब सुख है, जहाँ सब नयी तकनीकें उपलब्ध हैं, विदेशों से भी लोग इलाज करवाने आते हैं, तो मुझे लगता है कि अगर मुझे कुछ तकलीफ़ हो तो वहाँ नहीं जाना चाहूँगा, कोई सीधा साधा डाक्टर ही खोजूँगा.

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गुरुवार, जून 17, 2010

बॉली या पॉउली ?

बम्बई के फ़िल्म जगत को बॉलीवुड का नाम कब मिला यह तो कोई ठीक से नहीं कह सकता, विकीपीडिया भी नहीं. मुझे लगता है कि 1970 के दशक में बम्बई से निकलने वाली स्टारडस्ट, सिने ब्लिट्ज़ जैसी फ़िल्मी पत्रिकाओं में तब भी बॉलीवुड शब्द का प्रयोग होता था.

इधर पिछले कुछ सालों में कई बार पढ़ा कि बम्बई के कुछ प्रसिद्ध सितारे अभिनेता, इस नाम से खुश नहीं, वे अपनी पहचान को हॉलीवुड के नकलची छोटा भाई के रुप में नहीं करवाना चाहते, अपने आत्मसम्मान का सोचते हैं. लेकिन यहाँ यूरोप में तो धीरे धीरे बॉलीवुड शब्द की पहचान ही हर तरफ़ बढ़ती जा रही है, और इसका प्रयोग केवल बम्बई में बनने वाली हिंदी फ़िल्मों के लिए ही नहीं बल्कि भारत में बनी सभी फ़िल्मों के लिए किया जाने लगा है, चाहे वे तमिल में हों या बंगला में.

कुछ दिन पहले, इटली के एक लेखक जो कि आजकल बम्बई की पृष्ठभूमि पर एक उपन्यास लिख रहे हैं, उनसे बात हो रही थी, तो वे कहने लगे कि बॉलीवुड शब्द को केवल बम्बई में बनने वाली मसाला फ़िल्मों के लिए प्रयोग करना चाहिये, कला फ़िल्मों, समानांतर सिनेमा, कलकत्ता या केरल में बनने वाली फ़िल्में, इन सब को बॉलीवुड कहना गलत है.

मुझे भारत के अलग अलग हिस्सों में बनने वाली फ़िल्मों तथा कला फ़िल्मों और फार्मूला फ़िल्मों का अंतर समझ में आता है, लेकिन यह भी लगता है कि यूरोप में भारतीय फ़िल्मों के बढ़ते प्रशंसकों को इन अंतरों को समझने में कोई दिलचस्पी नहीं है. इटली में भारतीय फ़िल्मों की जानकारी पिछले दो वर्षों में अचानक तेज़ी से बढ़ी है जबसे यहाँ की एक प्रमुख टीवी चेनल ने बहुत सारी बम्बई की मसाला फ़िल्में, "हम तुम" और "नमस्ते इंडिया" से ले कर "जब वी मेट" को दिखाया है. इससे पहले, भारतीय फ़िल्मों को कुछ थोड़े बहुत लोग ही जानते थे. हालाँकि टीवी पर जब यह फ़िल्में दिखायी गयीं तब इनमें से अधिकतर गाने व नृत्य काट दिये गये थे, लेकिन फ़िर भी लोगों में गानों और नत्यों के प्रति उत्सुकता जागी और लोग यूट्यूब जैसे वेब पन्नों पर भारतीय फ़िल्मों को खोजने लगे हैं.

आज इटली के बहुत से शहरों में बौलीवुड क्ल्ब बने हैं, इन फ़िल्मों के दीवाने, शाहरुख खान, आमीर खान और अक्षय कुमार जैसे अभिनेताओं की प्रशंसा में पत्र लिखते हैं, उनकी तस्वीरें सहेजते हैं. फेसबुक पर पृष्ठ बनाते हैं, बॉलीवुड नृत्यों के स्कूल खोलते हैं. उन्हें फ़िल्म की मूल भाषा क्या है, हिंदी या बंगला या तमिल, इसमें दिलचस्पी नहीं, सबटाईटल हैं या नहीं, बस यह जानना होता है. फेसबुक पर बने इतालवी बॉलीवुड पृष्ठ के एक हज़ार से अधिक सदस्य हैं. कुछ दिन पहले एक इतालवी युवती का ईमेल मिला कि क्यों न सब लोग मिल कर ए. आर रहमान को इटली में आ कर संगीत कार्यक्रम करने को कहें?

बॉलीवुड से मिलती जुलती बात का एक समाचार ब्राज़ील से मिला.

कुछ दिनों के लिए मुझे ब्राज़ील जाना है, उसकी तैयारी के लिए खोज कर रहा था तो ब्राज़ील के पॉउलीवुड के बारे में एक लेख दिखा, जिसमें लिखा है कि ब्राज़ील के सनपाउलो राज्य में एक छोटे से शहर ने, जिसका नाम पाउलीनिया है, फ़िल्म शहर बनने का निश्चय किया है. इस शहर में ब्राज़ील की सबसे बड़ी पेट्रोल रिफाईनरी फैक्ट्री है जिस पर टेक्स लगाने की वजह से शहर की नगरपालिका की बहुत आय होती है, और नगरपालिका ने निर्णय लया कि वे इस आय से वे लोग फ़िल्म बनाने वालों को सहारा देंगे, उन्हें सब सुविधाएँ देंगे, पैसे देंगे, इत्यादि. इस नीति की वजह से कुछ ही वर्षों में पाउलीनिया का छोटा सा, अनजाना शहर, अचानक प्रसिद्ध होने लगा है और पिछले वर्ष, ब्राज़ील में बनने वाली एक तिहायी फ़िल्मों की शूटिंग यहीं हुई है. वह चाहते हैं कि शहर का नाम अब लोग पाउलीनिया के जगह, बॉलीवुड की प्रसिद्धी से प्रेरणा पा कर, पॉउलीवुड कहा जाये.

आज के भूमँडलिकरण के जगत का नियम है कि आत्मसम्मान और अपने नाम या पहचान के अलग होने की चिंता न करके, कैसे ब्रैंडनेम बनाया जाये, जिसे दुनिया में प्रसिद्धी मिले, धँधा बढ़े, पैसा आये, कमाई हो, इसको सोचना चाहिये. जब गाँधी जी के नाम को ब्रैँड बना कर बेचा जा सकता है तो बॉलीवुड की ब्रैंड को बेचने में दुविधा क्यों? तो बॉलीवुड के बने बनाये नाम का फ़ायदा पाना ही बेहतर है या फ़िर अपने आत्म सम्मान के लिए सबसे यह कहना कि भारतीय सिनेमा को बॉलीवुड कह कर उसकी तौहीन न करें?

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रविवार, दिसंबर 13, 2009

नये सुपर मानव

मेरी एक डाक्टर मित्र कियारा अफ्रीका में कोंगो में शल्य चिकित्सक यानि सर्जन का काम करती थी. 1992 में एक कार दुर्घटना में उसका दाँया हाथ बुरी तरह ज़ख्मी हुआ और अंत में उसे कोहनी से ऊपर से काटना पड़ा. बहुत महीनों तक कियारा अस्पतालों में चक्कर काटती रही, शुरु में बहुत हताश थी कि अफ्रीका में अपने काम करने का सपना अधूरा रह गया. फ़िर धीरे धीरे, कियारा ने बाँयें हाथ से लिखना सीखा. हमारे शहर बोलोनिया के पास छोटी सी जगह है बुद्रियो जहाँ कृत्रिम हाथ और पैर बनाने वाला एक ओर्थोपेडिक केंद्र है जो इस कार्य में अपनी तकनीकी दक्षता के लिए यूरोप में प्रसिद्ध है. कई बार मैं कियारा के साथ वहाँ गया.

प्रारम्भ में तो कियारा को एक कृत्रिम बाजू मिली, जिसे लगाने से, अगर गौर से न देखें तो पता नहीं चलता था कि कियारा का दाँया हाथ नहीं है, पर उस कृत्रिम हाथ से कियारा कुछ काम नहीं कर पाती थी. लेकिन फ़िर भी वह वापस कोंगो लौट गयी, जहाँ वह नर्सों और स्वास्थ्य कर्मचारियों को पढ़ाने के काम में लग गयी.

हर एक‍ दो सालों में जब भी कियारा वापस इटली आती है, बुद्रियो के ओर्थोपेडिक केंद्र में अपने कृत्रिम हाथ की जाँच कराने जाती है. समय के साथ उसका कृत्रिम हाथ भी बदल गया है, और अब वह अपनी बाजु की बची माँस पेशियों से अपने हाथ से कुछ काम कर सकती है.

कियारा की वजह से शरीर के कृत्रिम अंगों के विषय में मेरी दिलचस्पी बनी और इस क्षेत्र में कोई नयी खोज तो मैं उसके बारे में पढ़ने जानने की कोशिश करता हूँ. इसीलिए जब मैंने टच बायोनिक्स नाम की कम्पनी द्वारा प्रोडिजिट उँगलियों के बनाये जाने के बारे में सुना तो उसके बारे में अधिक जानने की कोशिश की.


अगर किसी की हथेली या उँगलियाँ कट गयी हों तो प्रोडिजिट उँगलियों से वह अपने हाथ का पूरा उपयोग कर सकते हैं. कृत्रिम उँगलियों को बनाने में अब तक सबसे कठिन बात थी उनके हिलने, पकड़ने आदि कामों ऐसा नियंत्रण लाना जिससे बारीक काम जैसे कि उँगली और अँगूठे के बीच में बारीक चीज़ को पकड़ना.

अभी तक कृत्रिम हाथ इस तरह का बारीक काम नहीं कर सकते थे, लेकिन अब प्रोडिजिट से यह भी संभव हो गया है.



यह तकनीकी प्रगति किसके लिए?

एक तरफ़ विज्ञान इतनी तेज़ी से प्रगति कर रहा है, जो बात कल तक असंभव लगती थी, वह आज संभव हो रही है, पर मेरे विचार में एक प्रश्न हम शायद अक्सर भूल जाते हैं, कि यह प्रगति किसके लिए है? हम सोचते हें कि कोई भी नया आविष्कार होगा तो समय के साथ उसकी कीमत कम हो जायेगी और वह आविष्कार सब जन साधारण तक पहुँचेगा. शायद यह बात उन सब तकनीकी प्रगतियों के लिए सच हो जिनका बाज़ार है, जिनको उपयोग करने वाले लाखों करोड़ों लोग हैं, तो बेचने के लिए वह वस्तु देर सवेर सस्ती हो सकती है, जैसे कि मोबाइल टेलीफोन.

लेकिन कृत्रिम अंग जिनका उपयोग कुछ ही लोगों को करना होगा, क्या कभी वह गरीब लोगों या फ़िर मध्यम वर्ग के बस की बात होंगे?

कियारा तो इटली आ कर नया हाथ बनवा सकती है लेकिन जिन गरीब लोगों के लिए काम करती है, उनमें से कितने अफ्रीका के लोग इस तरह का हाथ खरीद सकते हैं? प्रोडिजिट की उँगलियाँ कितनों के काम आयेंगी?

और भारत जैसा देश, जहाँ अमीरी गरीबी की विषमताएँ शायद दुनिया में सबसे अधिक हैं, वहाँ तकनीकी प्रगति किसके काम आयेगी? एक तरफ़ भारत के चिकित्सक और अपोलो जैसे अस्पताल दुनिया में प्रसिद्ध हैं, विदेशों से लोग अपना इलाज करवाने भारत आते हैं, दूसरी ओर दुनिया में दस्त या न्योमोनिया जैसे सामान्य एवं आसानी से इलाज हो सकने वाली बीमारियों से मरने वाले पाँच साल से कम आयु के बच्चों में से 25 प्रतिशत भारत में मरते हैं. तेज़ी से तरक्की करता विकासरत भारत, भुखमरी और अनपढ़ता में भी दुनिया में सबसे पहले स्थान पर है, और विषमताएँ घटने की बजाय बढ़ रही हैं. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के अनुसार ब्राज़ील में पिछले दशक में आर्थिक विकास के साथ साथ विषमताएँ भी कम हुई हैं जबकि भारत में विषमताएँ बढ़ी हैं.

मेरे एक केनेडा के मित्र ग्रेगोर वोलब्रिंग का कार्यक्षेत्र नेनोटेकनोलोजी जैसी नयी तकनीकें है. ग्रेगोर कहते हैं कि तकनीकी इतनी तेज़ी से बढ़ रही है, नये नये आविष्कार हो रहे हैं, लेकिन उनके लिए जिनके पास इसकी कीमत चुकाने की क्षमता है. अगर पिछले दो सौ सालों दुनिया में उद्यौगिक विषमताएँ बनी, फ़िर डिजिटल विषमताओं का दौर आया, तो अब नयी तकनीकों की विषमताओं का दौर आ रहा है. पहले विषमताएँ दुनिया के उत्तर में अमरीका, यूरोप आदि देश और दक्षिण में विकासशील देशों के बीच में थी, यह नयी विषमताएँ देशों के बीच में नहीं, अमीरों और गरीबों के बीच होंगी. जिनके पास सामर्थ्य है, वह जीन थैरेपी से तंदरुस्त पैदा होंगे, लम्बा जीवन जीयेंगे, शरीर का कोई अंग कष्ट देगा तो उसे बदल पायेंगे, वे नये सुपर मानव होंगे. जिनके पास सामर्थ्य नहीं, वह दस्तों, बुखारों से वैसे ही मरते रहेंगे जैसे आज मरते हैं.

इस बार कर्नाटक के गाँवों में घूम रहा था तो लोग सरकारी साक्षरता, रोजगार, विकलाँगता आदि विषयों से सम्बधित कार्यक्रमों के बारे में बताते थे, पर साथ ही कहते कि घूसखोरी से कुछ भी करवा लो उसे  बदलना कठिन है, जातपात का दबाव कम नहीं होता, कागज़ पर कुछ लिखते हैं पर सच्चाई कुछ और होती है.

कुछ बदलाव आया है पर जितना आना चाहिये था, उतना नहीं. क्या उपाय होगा इसका?

रविवार, नवंबर 01, 2009

प्रकृति का चक्र

पिछले दो दशकों से बदलते पर्यावरण के बारे में बहुत कुछ पढ़ा सुना है. एक तरफ कहा जाता है कि मानव क्रियाओं, जिनमें मानव निर्मित फैक्टरियाँ आदि भी शामिल हैं, की वजह से पर्यावरण प्रदूषण का स्तर खतरे की सीमा से बाहर जाने वाला है, पर साथ ही विभिन्न देशों की सरकारें इसी चिंता में रहती हैं कि किस तरह उन का विकास न रुके और विकास रोकने के लिए नयी फैक्टरियाँ बनाना, अधिक से अधिक नयी वस्तुएँ बेचना, बड़ी बड़ी कारें बनाना और उन्हें भी अधिक से अधिक बेचना, जैसी नीतियाँ बनाती रहती हैं, जिनसे प्रदूषण का रोना बिल्कुल बनावटी लगता है.

कुछ थोड़े से लोग हैं जो यह कहते हैं कि मानव जीवन के विकास के दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है पर उन्हें बाकी के लोग उन्हें आदर्शवादी या पागल ही कह कर टाल देते हैं.

कुछ दिन पहले जब अमरीकी पत्रिका अटलाँटिक के जुलाई अंक के एक लेख को पढ़ने का मौका मिला तो पर्यावरण की बहस की गम्भीरता को समझने के लिए नयी बात जानी. इस लेख का विषय था कि किस तरह नयी तकनीकों के माध्यम से पर्यावरण के बदलाव के बुरे प्रभावों को रोका जाये. इस लेख में बहुत सारी तकनीकों का विवरण है जिनके बारे में वैज्ञानिक विचार कर रहे हैं.

कई वैज्ञानिकों का सुझाव है कि आकाश में करीब बीस हज़ार मीटर की ऊँचाई पर सल्फर डाईओक्साइड गैस छोड़ी जायी जिससे विश्व के बड़े हिस्से पर इस गैस के बादल छा जायें और कई महीनों या सालों तक छाये रहें, जिससे सूरज की रोशनी तथा गर्मी धरती तक न पहुँचे या कम पँहुचे. उनका विचार है कि इस तरह से थोड़े समय में ही धरती ठँडी होने लग जायेगी और समुद्र का तापमान कम हो जायेगा. इस सुझाव में यह उपाय नहीं बताया गया कि जब बारिश से सल्फर की गैस सल्फूरिक एसिड बन कर धरती पर गिरेगी और पेड़, खेत, फसलें जला देगी और लोंगो को साँस की बीमारी से मारेगी, उसका क्या किया जाये?

इस सुझाव में एक अन्य कठिनाई है कि इससे मानसून के बादल बनने बंद हो जायेगे, जिससे भारत और अफ्रीका के कई देशों पर बुरा असर पड़ेगा, पर चूँकि यह मानवता को बचाने के लिए किया जायेगा तो इस "कोलेटरल डेमेज" को स्वीकार किया जा सकता है?

दूसरी ओर इस सुझाव की अच्छाई है कि हमें कार्बन डाईओक्साइड को कम करने की या अपनी जीवन पद्धिति को बलने की चिंता नहीं करनी पड़ेगी, हम जितना चाहें प्रदूषण बढ़ाते रहें, उसकी कोई चिंता नहीं.

जोह्न लाथाम तथा स्टेफन साल्टर का विचार है कि अगर समु्द्र से पानी की भाप को बादलों पर छोड़ा जाये तो बादल घने और गहरे हो जायेंगे और उनका रंग भी अधिक सफेद हो जायेगा, जिससे सूरज की रोशनी धरती पर नहीं आ सकेगी और धरती ठँडी हो जायेगी. इस तरह से धरती को ठँडा करने के लिए १५०० जहाज़ो की आवश्यकता होगी, जिसके लिए इन वैज्ञानिकों ने बहुत सी जहाज़ कम्पनियों से बात की है कि और छह सौ करोड़ डालर के खर्च पर इसकी कोशिश की जा सकती है. यानि चाहें तो बिल गेटस जैसे अमीर लोग अपनी सम्पत्ति का थोड़ा सा हिस्सा दे दें तो यह किया जा सकता है. पहले साल अधिक खर्च होगा फ़िर हर साल करीब सौ करोड़ डालर के खर्च से इसकी मैंन्टेनेन्स हो सकती है.

अरिज़ोना के रोजर एँजेल का विचार है कि आकाश में एक विशालकाय छतरी खोली जाये, जिससे सूर्य ग्रहण जैसा वातावरण बन जाये. एँजेल कहते हैं कि "यह बात आप को पागलपन की लग सकती है, पर जिस तरह पर्यावरण बदल रहा है, उससे जो जीवन बदलने वाला है उसके असर को हम लोग समझ नहीं पा रहे हैं, चूँकि मानव प्रकृति को बदला नहीं जा सकता, बस इसी तरह के पागलपन के विचार ही शायद मानवता को बचा सकते हैं."

इस तरह की बात करने वाले लोग कोई अनजाने वैज्ञानिक नहीं बल्कि उनमें थोमस शैलिंग जैसे नोबल पुरस्कार विजेता भी हैं, जिनका कहना है कि पर्यवरण के बदलाव में प्रकृति चक्र इतना आगे जा चुका है कि अब वापस लौटना सँभव नहीं, बस इसी तरह की किसी तरकीब से इस विपत्ति को टाला जा सकता है. मानवता को अगर सौ या दो सौ साल और मिल जायें तो ऊर्जा की नयी तकनीकें खोजी जा सकती हैं जिनसे प्रदूषण कम हो जायेगा और भविष्य में इस तरह की तरकीबों की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.

कल जब कीनिया के सूखे में मर रही गायों की तस्वीर देखी तो जी मिचला गया. रोयटर के फोटोग्राफर थोमस मूकोया ने यह तस्वीर कीनिया की राजधानी नैरोबी से करीब पचास किलोमीटर दूर अथी नदी पर खींची है.

शायद यही भविष्य है हमारा, या हमारे बाद आने वाली पीढ़ी का, प्यासे तड़प तड़प कर मरना?

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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