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मंगलवार, मार्च 26, 2024

एक बार फ़िर २५ मार्च की होली

२५ मार्च १९७५ को भी होली का दिन था। उस दिन सुबह पापा (ओमप्रकाश दीपक) को ढाका जाना था, लेकिन रात में उन्हें हार्ट अटैक हुआ था।

उन दिनों वह एंडियन एक्सप्रेस की अंग्रेज़ी की साप्ताहिक पत्रिका एवरीमैन के लिए काम कर रहे थे, और सुबह जब ड्राईवर उन्हें हवाई अड्डे ले जाने आया था तब तक वह अपनी लम्बी अंतिम यात्रा के लिए निकल चुके थे। उस समय वह ४७ साल के थे।

कल, एक बार फ़िर, २५ मार्च की होली थी। कल जब होली की बात हो रही थी तब मुझे वह रात याद आई थी, उनकी उखड़ती हुई साँस की आवाज़ और साथ में बैठी माँ, उन्हें पुकारती हुईं, उनकी छाती को मलती हुई।

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परिवार की तस्वीर - यह एक तस्वीर है जिसमें हम सब लोग हैं, दादी, पापा, मम्मी और हम तीनों। कुछ माह पहले मेरे बेटे ने किसी सोफ्टवैर से इसमें रंग भर दिये थे। यह उस साल की है जब नेहरू जी की मृत्यु हुई थी, और इसे मेरठ में छिपीटैंक के एक स्टूडियो में खींचा गया था।

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पापा अगर अब होते तो ९७ साल के होते। मन ही मन में उनसे मेरी बातचीत चलती रहती है। बहुत दुनिया घूमी और भिन्न विचारधाराएँ देशों को कहाँ ले जाती है, करीब से देखने का मौका मिला। जीवन में अलग-अलग सोच वाले लोगों के साथ काम करने का मौका भी मिला, उनके आदर्शों और सोच के बारे में मेरी अपनी व्यक्तिगत सोच भी बनी।

जब इसके बारे में सोचता हूँ तो उनकी कमी महसूस होती है - मैं मन में उनसे अपनी सोच की बात कहता हूँ लेकिन उनका उत्तर नहीं मिलता। मैं सत्तर साल का हो रहा हूँ लेकिन स्मृतियों वाले पापा अभी भी ४७ साल पर ही रुके हैं, तो मैं उन्हें कहता हूँ कि पापा मेरे जीवन का अनुभव आप से अधिक हो गया। 

अक्सर जब कोई अच्छी किताब पढ़ता हूँ तब भी मन में उनसे बात होती है, सोचता हूँ कि उन्हें वह किताब अच्छी लगती या नहीं? शायद सभी बच्चे ऐसा ही करते हैं, हमारी उम्र चाहे कितनी भी हो जाये, मन ही मन अपने माता-पिता से बातें करना जीवन भर चलता रहता है?

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पापा की २३वीं बरसी पर, १९९८ में माँ ने अपनी डायरी में लिखा था -

आज सचमुच जीवन का सफ़र जहाँ से शुरु किया था उसकी बहुत याद आ रही है। कश्यप भार्गव तुम्हारा प्रिय मित्र। हमारी शादी में उसकी माँ और बहने दोनो थीं। एक बार जानकीदेवी कॉलेज से निकल रही थी तो सविता मिली थी। तुम्हारे जाने के साल भर बाद ही, उसी तिथि और उसी समय में ही, कश्यप भी नहीं रहा था। वैसे ही दिल के दौरे में वही 25 मार्च को, वह भी नहीं रहा। क्या कहती उससे। अकेले ही बच्चों का पालन पोषण किया होगा उसने। कई बार मन में आया कि उसके स्कूल, बाल भारती में , जा कर पता लगाऊँ, लेकिन हिम्मत नहीं पड़ी उससे मिलने की।

ज़िन्दगी में दूसरे लोग ही नहीं खुद अपनी नज़रें, अपना दिल और अपने अहसास भी धोखा दे जाते हैं तो इसका कुछ हो भी तो नहीं सकता। ज़िन्दगी को बेहद गम्भीरता से लेने वाले और उस पर लम्बी बहसें करने वाला कश्पी जो मुझे लखनऊ छोड़ने गया था और लखनऊ में साथ भी रहा था। फ़ैज़ाबाद में भी हमारी शादी में भी उसने मेरे भाई की भूमिका निभाई थी। मुझे ढेर सारा प्यार और आशीर्वाद दिया था उसने। जीवन के कुछ महत्वपूर्ण निर्णय तुमने और कश्यपी ने कैसे लिये थे? आज भी मुझे इस पर हैरानी होती है।

तुम्हारी मृत्यु के बाद सविता को ले कर आया था और जाते हुए कहने लगा कि अब मेरी ही बारी है, सूरजप्रकाश और दीपक तो नहीं रहे, मैं अकेला क्या करूँगा। और ठीक एक वर्ष बाद तुम्हारे जैसा वही समय, वही दिन, वह भी चला गया। सचमुच उसकी बारी आ गयी थी. इस पर हैरान हूँ।

पापा के उस मित्र कश्पी (कश्यप भार्गव) और दिल्ली के बालभारती स्कूल में पढ़ाने वाली उनकी पत्नी सविता भार्गव से कभी कहीं मिलने की मुझे कोई याद नहीं, न ही कभी उनके बच्चों से कभी कोई परिचय हुआ। जब भी माँ कश्पी की बात करती थी तो मन में यही प्रश्न उठता था कि वह पापा के इतने अच्छे दोस्त थे तो हमारी कभी उनसे मुलाकात या जान पहचान कैसे नहीं हुई?

उनके बच्चे कहाँ होंगे? मन में आता है कि उनसे मिलना अच्छा लगेगा।

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जब पापा गुज़रे थे तब मैं मेडिकल कॉलेज के तीसरे वर्ष में पढ़ रहा था। उन दिनों में पापा जयप्रकाश नारायण जी के साथ बिहार में बहुत समय बिता रहे थे, वे बिहार छात्र आन्दोलन और सम्पूर्ण क्रांति वाले दिन थे। जे.पी. के कहने से ही इंडियन एक्सप्रेस के गुएनका जी ने मेरी मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई के लिए छात्रवृति स्वीकार कर ली थी, वरना शायद डॉक्टर बनने का सपना कठिनाई से पूरा होता।

शायद इसीलिए सारा जीवन मन में लगता रहा है कि इंडियन एक्सप्रेस "हमारा अपना" अखबार है। यादें कहाँ से शुरु होती हैं और कहाँ चली जाती हैं!


मंगलवार, फ़रवरी 20, 2024

पति, पत्नी और वह

पत्नी कल कुछ दिनों के लिए बेटे के पास गई थी और मैं घर पर अकेला था, तभी इस लघु-कथा का प्लॉट दिमाग में आया।

*****

सुबह नींद खुली तो बाहर अभी भी अंधेरा था। कुछ देर तक फोन पर इमेल, फेसबुक, आदि चैक किये, फ़िर सोचा कि उठ कर कॉफी बना लूँ। नीचे आ रहा था कि सीढ़ी पर पाँव ठीक से नहीं रखा, गिर ही जाता पर समय पर हाथ बढ़ा कर दीवार से सहारा ले लिया, इसलिए गिरा नहीं केवल पैर थोड़ा सा मुड़ गया।

मेरे मुँह से "हाय राम" निकला तो वह बोली, “देख कर चलो, ध्यान दिया करो।"

“ठीक है, सुबह-सुबह उपदेश मत दो", मैंने उत्तर दिया।

“एक दिन ऐसे ही हड्डी टूट जायेगी, फ़िर मेरे उपदेशों को याद करना", उसने चिढ़ कर कहा।

कॉफी पी कर कमप्यूटर पर बैठा तो समय का पता ही नहीं चला। साढ़े आठ बज रहे थे, उसने कहा, “आज सारा दिन यहीं बैठे रहोगे क्या? नहाना-धोना नहीं है?”

“उठता हूँ, बस यह वीडियो पूरा देख लूँ।"

“यह वीडियो कहीं जा रहा है? इसे पॉज़ कर दो, पहले नहा लो, फ़िर बाकी का देख लेना।"

“अच्छा, अच्छा, अभी थोड़ी देर में जाता हूँ, तुम जिस बात के पीछे पड़ जाती हो तो उसे छोड़ती नहीं", मुझे भी गुस्सा आ गया।

“नहाने के बाद तुम्हें दूध और सब्ज़ी लेने भी जाना है", वह मुस्करा कर बोली।

वह बहुत ज़िद्दी है, जब तक अपनी बात नहीं मनवा लेती, चुप नहीं होती, इसलिए अंत में मुझे उठना ही पड़ा। नहा कर निकला ही था कि बन्नू का फोन आ गया।

बोला, “दोपहर को मिल सकता है? गर्मी बहुत हो रही है, कहीं बियर पीने चलते हैं, फ़िर बाहर खाना खा लेंगे।"

मैंने कहा, “नहीं यार, सच में गर्मी बहुत है, दोपहर को बाहर निकलने का मन नहीं कर रहा। शाम को मिलते हैं।"

उसने कहा, “सारा दिन घर पर अकेले बोर हो रहा हूँ, चल न, कहीं गपशप मारेंगे।"

मैं हँसा, बोला, “एक नयी एप्प आई है, जीवनसाथी एप्प, अपने फोन पर डाऊनलोड कर ले, सारा अकेलापन दूर हो जायेगा।"

फोन रखा तो वह बोली, “अपने दोस्त से मेरी इतनी तारीफें कर रहे थे, अब एप्प रिवयू में मुझे पाँच स्टार देना, समझे?”

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शनिवार, अगस्त 13, 2022

यादों की संध्या

संध्या की सैर को मैं यादों का समय कहता हूँ। सारा दिन कुछ न कुछ व्यस्तता चलती रहती है, अन्य कुछ काम नहीं हो तो लिखने-पढ़ने की व्यस्तता। सैर का समय अकेले रहने और सोचने का समय बन जाता है। शायद उम्र का असर है कि जिन बातों और लोगों के बारे में ज़िन्दगी की भाग-दौड़ में दशकों से नहीं सोचा था, अब बुढ़ापे में वह सब यादें अचानक ही उभर आती हैं।

यादों को जगाने के लिए "क्यू" यानि संकेत की आवश्यकता होती है, वह क्यू कोई गंध, खाना, दृश्य, कुछ भी हो सकता है, लेकिन मेरे लिए अक्सर वह क्यू कोई पुराना हिंदी फ़िल्म का गीत होता है। बचपन के खेल, स्कूल और कॉलेज के दिन, दोस्तों के साथ मस्ती, पारिवारिक घटनाएँ, जीवन के हर महत्वपूर्ण समय की यादों के साथ उस समय की फ़िल्मों के गाने भी दिमाग के बक्से में बंद हो जाते हैं। इस आलेख में एक शाम की सैर और कुछ छोटी-बड़ी यादों की बातें हैं।


आज सुबह से आसमान बादलों से ढका था, सुहावना मौसम हो रहा था, हवा में हल्की ठँडक थी। सारा दिन बादल रहे लेकिन जल की एक बूँद भी नहीं गिरी। शाम को जब मेरा सैर का समय आया तो हल्की बूँदाबाँदी शुरु हुई। पत्नी ने कहा कि जाना है तो छतरी ले कर जाओ, लेकिन मैंने सोचा कि थोड़ी देर प्रतीक्षा करके देखते हैं, अगर यह बूँदाबाँदी नहीं रुकेगी तो छतरी ले कर ही जाऊँगा। पंद्रह मिनट प्रतीक्षा के बाद बाहर झाँका तो बादलों के बीच में से नीला आसमान झाँकने लगा था। इस वर्ष अक्सर यही हो रहा है कि बादल कम आते हैं और अक्सर बिना बरसे ही लौट जाते हैं। हमारे शहर का इतिहास जानने वाले लोग कहते हैं कि ऐसा पहली बार हुआ कि हमारे घर के पीछे बहने वाली नदी में करीब आठ महीनों से पानी नहीं है। पूरे पश्चिमी यूरोप में यही हाल है।

खैर मैंने देखा कि बारिश नहीं हो रही तो तुरंत जूते पहने और हेडफ़ोन लगा लिया। शाम की सैर का समय कुछ न कुछ सुनने का समय है। कभी डाऊनलोड किये हुए हिंदी, अंग्रेज़ी या इतालवी गाने सुनता हूँ, कभी हिंदी के रेडियो स्टेशन तो कभी क्लब हाऊस पर कोई बातचीत या गाने के कार्यक्रम। आज मन किया विविध भारती सुनने का। यहाँ शाम के साढ़े सात बजे थे, तो मुम्बई से प्रसारित होने वाले विविध भारती के लिए रात के ग्यारह बजे थे और चूँकि आज गुरुवार है, मुझे मालूम था कि इस समय सप्ताहिक "विविधा" कार्यक्रम आ रहा होगा, जिसमें अक्सर हिंदी फ़िल्मों से जुड़ी हस्तियों के साक्षात्कारों की पुरानी रिकोर्डिंग सुनायी जाती हैं।

मोबाईल पर विविध भारती का एप्प खोला तो कार्यक्रम शुरु हो चुका हो चुका था और पुराने फ़िल्म निर्देशक, लेखक तथा अभिनेता किशोर साहू की बात हो रही थी। उनका नाम सुनते ही मन में "गाईड" फ़िल्म की बचपन एक याद उभर आयी। तब हम लोग पुरानी दिल्ली में फ़िल्मिस्तान सिनेमा के पास रहते थे। वह घर हमने १९६६ में छोड़ा था, इसका मतलब है कि वह याद इससे पहले की थी। मन में उभरी तस्वीर में एक दोपहर थी, नानी चारपाई पर चद्दर बिछा कर, उस पर दाल की वणियाँ बना कर सुखाने के लिए रख रही थी। बारामदे के पीछे खिड़की पर ट्राँज़िस्टर बज रहा था जिस पर उस दिन पहली बार किशोर कुमार और लता मँगेशकर का गाया गीत, "काँटों से खींच के यह आँचल, तोड़ के बँधन बाँधी पायल" सुना था। एक पल के लिए मैं उस आंगन में नानी को देखता हुआ सात-आठ साल का बच्चा बन गया था, यह याद इतनी जीवंत थी।

बचपन में पापा हैदराबाद में थे और माँ अध्यापिका-प्रशिक्षण का कोर्स कर रही थी और उसके बाद उन्हें नवादा गाँव के नगरपालिका के प्राथमिक स्कूल में नौकरी मिली थी, तो मैं और मेरी बहन, हम दोनों नानी के पास ही रहते थे। नानी और माँ में केवल अठारह या उन्निस साल का अंतर था, इसलिए मेरी सबसे छोटी मौसी उम्र में मेरी बड़ी बहन से छोटी थी।

नानी जब पैदा हुई थी तो उनकी माँ चल बसी थीं, इसलिए नानी अपनी मौसी के पास बड़ी हुईं थीं और उनके मौसेरे भाई, इन्द्रसेन जौहर, अपने समय के प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता और निर्देशक बने थे। नानी की शादी करवाने के बाद उनके विधुर पिता ने नानी की उम्र की लड़की से शादी की थी, इस तरह से नानी की पहली संतानें भी उनके पिता की अन्य संतानों से उम्र में बड़ी थीं, और नानी के सबसे छोटे भाई मेरे हमउम्र थे।

नानी सुबह उठ कर अंगीठी जलाती थी। घर में एक कोठरी थी, जिसमें कच्चा और पक्का कोयला रखा होता था। अंगीठी की जाली पर नानी पहले थोड़ा सा कच्चा कोयला रखती, और उसके ऊपर पक्का कोयला। फ़िर नीचे राख वाली जगह पर कागज़ जलाती जिससे कच्चे कोयले आग पकड़ लेते। वह राख भी जमा की जाती थी, उससे बर्तन धोये जाते थे और उसे गाय या भैंस के गोबर में मिला कर उपले बनाये जाते थे।

उपलों को नानी अपनी पश्चिमी पंजाब के झेलम जिले की भाषा में "गोया" कहती थी। लेकिन उस घर में उपले कम ही बनते थे शायद क्योंकि शहर में गोबर आसानी से नहीं मिलता था। नानी का गाँव वाला घर जिस पर नाना ने "दीवान फार्म" का बोर्ड लगा रखा था, नवादा और नजफ़ गढ़ के बीच में ककरौला मोड़ नाम की जगह से थोड़ा पहले था। जहाँ नानी की रसोई थी, वहाँ अब "द्वारका मोड़" नाम के दिल्ली मेट्रो स्टेशन की दायीं सीढ़ियाँ हैं और जहाँ उनका बड़ा वाला कूँआ था वहाँ अब मेरे मामा के बनाया एक स्कूल चलता है। बचपन में वहाँ मैं अपनी छोटी मौसियों के साथ तसला ले कर गोबर उठाने जाता था। अगर आप ने कभी गोबर नहीं उठाया तो शायद आप को उसे हाथ से छूने या उठाने का सोच कर अज़ीब लगे, लेकिन बचपन में मुझे ताज़े गोबर की गर्मी को हाथ से छूना बहुत अच्छा लगता था। गाँव वाले उस घर में, दूध, दाल, सब्जी, हर चीज़ में उपलों की गंध आती थी।

आज उत्तरपूर्वी इटली में, दिल्ली से हज़ारों मील दूर, किशोर साहू के नाम और उनकी बातों से, साठ वर्ष पहले की यह सब यादें एक पल के लिए मन में कौंध गयीं, एक क्षण के लिए उपलों की गंध वाले उस खाने की वह सुगंध भी जीवित हो उठी।

किशोर साहू के बाद बात हुई पुरानी फ़िल्म अभिनेत्री मनोरमा की। उनका मुँह बना कर और आँखें मटका कर अभिनय करना मुझे अच्छा नहीं लगता था। उनकी बातें सुन रहा था तो मन में हमारे करोल बाग वाले घर की यादें उभर आयीं। तब दिल्ली में नियमित दूरदर्शन के कार्यक्रम आते थे, जिनमें मेरे सबसे प्रिय कार्यक्रम थे चित्रहार और फ़िल्में। छयासठ से अड़सठ तक हम उस घर में तीन साल रहे और उन तीन सालों में दूरदर्शन पर बहुत फ़िल्में देखीं। तब रंगीन टीवी नहीं होता था और टीवी कम ही घरों में थे। बिना जान पहचान के हम बच्चे मोहल्ले के आसपास के किसी भी टीवी वाले घर में घुस जाते थे, कभी किसी ने मना नहीं किया। हम लोग टीवी के सामने ज़मीन पर पालथी मार कर बैठ जाते।

तब रामजस रोड पर एक स्कूल में भी शाम को फ़िल्म आती तो वहाँ की एक अध्यापिका आ कर टीवी वाला कमरा खोल देती थीं, वहाँ खूब भीड़ जमती। उन सालों की दूरदर्शन पर देखी मेरी प्रिय फ़िल्मों में से वैजयंतीमाला की "मधुमति", मधुबाला की "महल", नूतन की "सीमा" और राजकपूर की "जागते रहो" थीं।

उन फ़िल्मों के बारे में सोचते हुए, उस समय सैर करते करते मैं हमारी सूखी हुई नदी के पुल पर पहुँच गया। वहाँ खड़े हो कर पहाड़ों के पीछे डूबते सूरज को देखना मुझे बहुत अच्छा लगता है, क्योंकि उस जगह पर पहाड़ों से घाटी में नीचे आती हुई बढ़िया हवा आती है। इस साल पानी न होने से पहले तो नदी के पत्थरों के बीच में लम्बी घास उग आयी थी, शायद उसे नदी के तल के नीचे की धरती में छुपी उमस मिल गयी थी। फ़िर भी जब पानी नहीं बरसा तो वह घास बहुत सी जगह पर सूख कर पीली सी हो गयी है, इस तरह से पुल से देखो तो संध्या के डूबते सूरज की रोशनी में नदी के तल पर बिछी घास के हरे और पीले रंग बहुत सुंदर लगते हैं। नदी के किनारे लगे पेड़ों के पत्ते जब सर्दी शुरु होती है तो सितम्बर के अंत में पीले और लाल रंग के हो कर गिर जाते हैं, लेकिन इस साल सूखे की वजह से अभी अगस्त के महीने में ही वह पत्ते पीले पड़ रहे हैं। बादलों से ढके आकश में प्रकृति के यह सारे रंग बहुत मनोरम लगते हैं।



पुल पर ही खड़ा था, जब विविध भारती पर आ रहे कार्यक्रम में शम्मी कपूर की बात होने लगी। उनकी एक पुराने साक्षात्कार की रिकार्डिंग सुनवायी जा रही थी। थोड़ा सा आश्चर्य हुआ यह जान कर कि वह अच्छा गाते थे। उस साक्षात्कार में उन्होंने "तीसरी मंजिल", "एन ईवनिंग इन पैरिस" जैसी फ़िल्मों के कुछ गाने गा कर सुनाये।

शम्मी कपूर के नाम से उनकी फ़िल्म "कश्मीर की कली" और फ़िर नानी के घर की याद आ गयी। घर के पास, ईदगाह को जाने वाली सड़क के पार एक फायर ब्रिगेड का स्टेशन होता था, जिसके सामने मैं सुबह स्कूल की बस की प्रतीक्षा करता था। वहीं पर फायरब्रिगेड में काम करने वाले एक सरदार जी से जानपहचान हो गयी थी। उनके पास एक छोटा सा पॉकेट साईज़ का ट्राँज़िस्टर था जिसमें इयरफ़ोन लगा कर सुनते थे। उन्होंने एक दिन मुझे वह इयरफ़ोन लगा कर रेडियो सुनवाया तो उस समय उसमें "कश्मीर की कली" फ़िल्म का गीत आ रहा था, "यह चाँद सा रोशन चेहरा, ज़ुल्फ़ों का रंग सुनहरा"। आज शम्मी कपूर जी की आवाज़ सुनी तो अचानक उस गीत को सुनने की वह याद आ गयी।

जब हम लोग करोल बाग में रहने आये, उन दिनों में मैं रेडियो पर नयी फ़िल्मों के गाने सुनने का दीवाना था, कोई भी गाना एक बार सुनता था तो उसकी धुन, शब्द, फ़िल्म का नाम, गाने वाले, लेखक, सब कुछ याद हो जाता था, इसलिए जब अंताक्षरी खेलते तो मैं उसमें चैम्पियन था। उन्हीं दिनों में दूरदर्शन पर पुरानी फ़िल्में देखने लगे थे तो सपने देखता कि जब बड़ा होऊँगा और पास में पैसा होगा तो सब फ़िल्मों को देखूँगा। आज तकनीकी ने इतनी तरक्की कर ली कि वह सारी फ़िल्में जो बचपन में देखना चाहता था और नहीं देख पाया था, अब जब चाहूँ तो यूट्यूब पर उनको देख सकता हूँ, तो क्यों नहीं देखता?

सैर से वापस घर लौटते समय सोच रहा था कि इन पचास-साठ सालों में दुनिया कितनी बदल गयी। बचपन का वह मैं, अगर उसे मालूम होता कि एक समय ऐसा भी आयेगा कि दुनिया में कहीं भी, किसी से बात करलो, जो मन आये वह संगीत सुन लो या फ़िल्म देख लो, तो उसे कितनी खुशी होती, और वह क्या क्या ख्याली पुलाव पकाता। 

अन्य दिनों में इस तरह की यादें, घर लौटने के दस मिनट में रात को देखे सपनों की तरह गुम हो जाती हैं, लेकिन आज सोचा है कि अपने ब्लाग के लिए इन्हें शब्दों में बाँध लूँगा।

बुधवार, मई 25, 2022

अरे ओ साम्बा, कित्ती छोरियाँ थीं?

भारत में कितनी औरतें हैं यह प्रश्न गब्बर सिंह ने नहीं पूछा था, लेकिन यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है।

कुछ माह पहले भारत सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने 2019 से 2021 के बीच में किये गये राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के नतीजों की रिपोर्ट निकाली थी। इस रिपोर्ट के अनुसार आधुनिक भारत के इतिहास में पहली बार देश में लड़कियों तथा औरतों की कुल जनसंख्या लड़कों तथा पुरुषों की कुल जनसंख्या से अधिक हुई है। यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है जिससे देश की सामाजिक, आर्थिक व स्वास्थ्य की स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है। यह भारत के लिए गर्व की बात है। अपने इस आलेख में मैंने इस बदलाव की राष्ट्रीय तथा राज्यीय स्तर पर कुछ विषलेशण करने की कोशिश की है।



नारी और पुरुष जनसंख्या के अनुपात

कुल जनसंख्या में लड़कियों तथा औरतों की संख्या लड़कों तथा पुरुषों की संख्या से अधिक होनी चाहिए। अगर गर्भ में भ्रूण के बनते समय उसका नर या मादा होने के मौके एक बराबर ही होते हैं, तो समाज में नर और नारियों की संख्या भी एक बराबर होनी चाहिये। तो पुरुषों की संख्या औरतों से कम क्यों होती है? इसके कई कारण होते हैं। सबसे पहले हम नर तथा नारी जनसंख्या पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों को देख सकते हैं। 

नर भ्रूणों को स्वभाविक गर्भपात का खतरा अधिक होता है, इस लिए पैदा होने वाले बच्चों में लड़कियाँ अधिक होती हैं। 

पैदा होने के बाद भी लड़के कई बीमारियों का सामना करने में लड़कियों से कमजोर होते हैं। समूचे जीवन काल में, बचपन से ले कर बुढ़ापे तक, चाहे एक्सीडैंट हों या आत्महत्या, चाहे शराब अधिक पीना हो या नशे की वजह हो, चाहे लड़ाईयाँ हों या सामान्य हिँसा, लड़के व पुरुष ही अधिक मरते हैं। लड़कों व पुरुषों की हड्डियाँ व माँस पेशियाँ अधिक मजबूत होती हैं, वह अधिक ऊँचे और शक्तिशाली होते हैं, लेकिन वह मजबूत शरीर बीमारियों से लड़ने तथा मानसिक दृष्टि से कम शक्तिशाली होते हैं। 

जबकि औरतों के जीवन में सबसे बड़ा स्वास्थ्य से जुड़ा खतरा होता है उनका गर्भवति होना और बच्चे को जन्म देना। पिछड़े व गरीब समाजों में औरतों की उर्वरता दर अधिक होती है, यानि बच्चों की संख्या अधिक होती है। कृषि से जुड़े गरीब समाजों को बच्चों के बाहुबल की आवश्यकता होती है। गरीब देशों की स्वास्थ्य सेवाएँ भी निम्न स्तर की होती हैं, तो बच्चों को टीके नहीं लगाये जाते या बीमार होने पर उनका सही उपचार नहीं हो पाता। इन सब वजहों से गरीब समाजों में बच्चे अधिक होते हैं। इसलिए गर्भवति होने वाली उम्र में गरीब समाजों में नवयुतियों के मरने का खतरा अधिक होता है। जबकि विकसित समाजों में, विषेशकर अगर लड़कियाँ पढ़ी लिखी हों, तो उनके बच्चे देर से पैदा होते हैं और उनकी संख्या कम हो जाती है। 

नारी शरीर की दूसरी कमजोरी का कारण है मासिक माहवारी। अगर उन्हें सही खाना मिलता रहे तो सामान्य माहवारी का उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर नहीं पड़ता, वरना इससे उनके रक्त में लोहे की कमी से अनीमिया होने का खतरा रहता है। लेकिन अगर प्रसव तथा माहवारी से जुड़े खतरों को छोड़ दें तो नारी शरीर में बीमारियों से लड़ने की अधिक शक्ति होती है। नारी शरीर के हारमोन उनकी बहुत सारी बिमारियों से, जैसे कि बढ़ा हुआ ब्लड प्रेशर तथा हृद्यरोग आदि से जब तक माहवारी चलती है, तब तक उनकी रक्षा करते हैं, उन बीमारियों से पुरुष अधिक मरते हैं। बुढ़ापे में भी नारी हारमोन उनकी कुछ हद तक रक्षा करते हैं जिससे कि औरतों की औसत जीवन अपेक्षा पुरुषों से अधिक होती है। 

प्राकृतिक स्वास्थ्य संबंधी कारणों के अतिरिक्त नर-नारी जनसंख्या पर सामाजिक सोच का असर पड़ता है। बहुत से समाजों में लड़कियों को पैदा होने से पहले ही गर्भपात करवा कर मरवा देते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि लड़कों से परिवार और संस्कृतियाँ चलती हैं। पैदा होने के बाद बेटों के तुलना में उन्हें खाना कम दिया जाता है, खेलकूद और पढ़ायी के अवसर कम मिलते हैं। और जब वह बीमार होती हैं तो उनका इलाज देर से करवाया जाता है और कम करवाया जाता है।



देशों में कुल जनसंख्या में नर अधिक होंगे या नारियाँ, उस आकंणे पर ऊपर बताये गये सब भिन्न प्रभावों के नतीजों को जोड़ कर देखना पड़ेगा। विश्व स्तर पर उन आकंणों को देखें तो हम पाते हैं कि विकसित देशों में जनसंख्या में नारियाँ अधिक होती हैं, जबकि कम विकसित तथा गरीब देशों में पुरुषों की संख्या अधिक होती है। जैसे जैसे समाज विकसित होने लगते हैं, औरतें अधिक पढ़ती लिखती हैं, नौकरी करके स्वंतत्र रहने के काबिल बन जाती हैं और आवश्यकता पड़ने पर माता पिता की देखभाल भी कर सकती हैं, तो जनसंख्या में उनका अनुपात बढ़ने लगता है। 

अन्य देशों से नर-नारी अनुपात के कुछ आकंणे

नये भारतीय सर्वेषण के नतीजों को देखने से पहले आईये पहले हम कुछ अन्य देशों में नर-नारी अनुपात की क्या स्थिति है उसको देखते हैं।

इस दृष्टि से पहले दुनिया के कुछ विकसित देशों की स्थिति कैसी है, पहले उसके आकणें देखते हैं। 1000 पुरुषों के अनुपात में देखें तो फ्राँस में 1054 औरतें हैं, जर्मनी में 1039, ईंग्लैंड और स्पेन में 1024, इटली में 1035, अमरीका में 1030, तथा जापान में 1057। यानि हर विकसित देश में लड़कियों व औरतों की संख्या लड़कों तथा पुरुषों की संख्या से अधिक है। 

आईये अब भारत के आसपास के देशों की स्थिति देखें। यहाँ पर 1000 पुरुषों के अनुपात में पाकिस्तान में 986 औरतें हैं, बँगलादेश में 976, नेपाल में 1016, और चीन में 953। यानि नेपाल में स्थिति बेहतर हैं जबकि चीन, पाकिस्तान व बँगलादेश में खराब है। हाँलाकि पिछले दो दशकों में चीन बहुत अधिक विकसित हुआ है लेकिन चीन में अभी कुछ समय पहले तक नियम था कि परिवार में एक से अधिक बच्चे नहीं होने चाहिये, और वहाँ की सामाजिक सोच इस तरह की है जिसमें वह सोचते हैं कि लड़के ही पैदा होंने चाहिए, इसके दुष्प्रभाव पड़े हैं।

विभिन्न देशों के आंकणें देखते समय वहाँ की अन्य परिस्थितयों के असर के बारे में सोचना चाहिये। जहाँ युद्ध हो रहे हैं वहाँ पुरुषों की संख्या और भी कम हो सकती है। कुछ जगहों में पुरुषों को घर-गाँव छोड़ कर पैसा कमाने के लिए दूर कहीं जाना पड़ता है, तो वहाँ भी जनसंख्या में पुरुषों की संख्या कम हो जायेगी, जबकि जिन जगहों पर पुरुष प्रवासी काम खोजने आते हैं, वहाँ पर उनका अनुपात बढ़ जाता है। जब आंकणों में किसी जगह पर बहुत अधिक पुरुष या नारियाँ दिखें तो वहाँ की सामाजिक स्थिति के बारे में अन्य कारणों को समझना आवश्यक हो जाता है।

भारत के राष्ट्रीय स्तर के आंकणे

राष्ट्रीय स्तर पर यह आकंणे सन् 1901 के बाद से जमा किये जाते रहे हैं। चूँकि सौ वर्ष पहले के भारत में आज के पाकिस्तान, बँगलादेश तथा कुछ हद तक मयनमार भी शामिल थे तो उनके आंकणों की आधुनिक भारत के आंकणों से पूरी तरह तुलना नहीं की जा सकती लेकिन उनसे हमारी स्थिति के बारे में कुछ जानकारी तो मिलती है।

1901 में भारत में हर 1000 पुरुषों से सामने 972 औरतें थीं, जबकि 1970 में उनकी संख्या 930 रह गयी थी। 2005-06 में जब तृतीय राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेषण में यह जानकारी जमा की गयी तो भी स्थिति में बदलाव नहीं आया था, 1000 पुरुषों के सामने 939 औरतें थीं। 2015-16 में जब चौथा सर्वेषण किया गया तो पहली बार महत्वपूर्ण बदलाव दिखा जब औरतों की संख्या बढ़ कर 991 हो गयी थी। इस वर्ष आये परिणामों में स्थिति और मजबूत हुई है, इस बार 1000 पुरुषों के मुकाबले में 1020 औरतें हैं।

इन आकंणो से हम क्या निष्कर्श निकाल सकते हैं? मेरे विचार में सौ साल पहले औरतों की संख्या कम होने का कारण था उन्हें खाना अच्छा न मिलना, बच्चे अधिक होना, और प्रसव के समय स्वास्थ्य सेवाओं की कमी। यह सभी बातें 1970 के सर्वेषण तक अधिक नहीं बदली थीं। 1990 के दशक में भारत में विकास बढ़ा, साथ में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बेहतर हुई लेकिन साथ ही गर्भवति औरतों के लिए अल्ट्रासाँऊड टेस्ट कराने की सुविधाएँ भी तेजी सी बढ़ी जिनसे परिवारों के लिए होने वाले बच्चे का लिंग जानना बहुत आसान हो गया, जिससे बच्चियों की भ्रूण बहुत अधिक संख्या में गिरवाये जाने लगे। इसका असर 2005-06 के सर्वेषण पर पड़ा और बच्चे कम होने, भोजन बेहतर होने व स्वास्थ्य सेवाएँ बेहतर होने के बावजूद औरतों की संख्या कम ही रही।

भारत में बच्चियों का गर्भपात

हालाँकि भारत सरकार ने गर्भवति औरतों में अल्ट्रासाऊँड टेस्ट से लिंग ज्ञात करने की रोकथाम के लिए 1994 से कानून बनाया था, इसे 2005-06 के सर्वेषण के बाद सही तरह से लागू किया गया जब डाक्टरों पर सजा को बढ़ाया गया। लेकिन सामाजिक स्तर पर भारत में बेटियों की स्थिति अधिक नहीं बदली, इस कानून का भी कुछ विषेश असर नहीं पड़ा है।

भारत में बच्ची होने पर गर्भपात कराने की परम्परा अभी महत्वपूर्ण तरीके से नहीं बदली, यह हम एक अन्य आंकणे से समझ सकते हैं - छः वर्ष से छोटे बच्चों में लड़कों और लड़कियों के अनुपात को देखा जाये। 2001 में छः वर्ष से छोटे बच्चों की जनसंख्या में हर 1000 लड़कों के सामने 927 लड़कियाँ थीं। 2005-06 में यह संख्या घट कर 918 हो गयी। 2015-16 में यह संख्या बदली नहीं थी, 919 थी। और, 2019-21 के नये सर्वेषण में भी यह अधिक नहीं बदली, 924 है।

इसका अर्थ है कि औरतों की संख्या में बढ़ोतरी का बदलाव जो 2019-21 के सर्वेषण में दिखता है वह अन्य वजहों से हुआ है जैसे कि उन्हें पोषण बेहतर मिलना, छोटी उम्र में विवाह कम होना, विवाह के बाद बच्चे कम होना और प्रसव के समय बेहतर स्वास्थ्य सेवा मिलना।

ग्रामीण तथा शहरी क्षत्रों में अंतर

राष्ट्रीय स्तर पर और बहुत से प्रदेशों में ग्रामीण क्षेत्रों में औरतों की स्थिति शहरों से बेहतर है। राष्ट्रीय स्तर पर 1998-99 में 1000 पुरुषों के अनुपात में शहरी क्षेत्रों में 928 औरतें थीं जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी संख्या 957 थी। बाईस साल बाद, 2019-21 के सर्वेषण में राष्ट्रीय स्तर के आंकणों में दोनों क्षेत्रों में स्थिति सुधरी है, शहरों में उनकी संख्या 985 हो गयी है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में संख्या 1037 हो गयी है।

लेकिन यह बदलाव बड़े शहरों से जुड़े ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं आया। दिल्ली, चंदीगढ़, पुड्डूचेरी जैसे शहरों के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में औरतों की संख्या शहरों से कम है। यह आंकणे देख कर मुझे लगा कि इन क्षेत्रों में स्थिति को समझने के लिए विषेश शोध किये जाने चाहिये। एक कारण हो सकता है कि यहाँ बच्चियों का गर्भपात अधिक होता हो? शायद उससे भी बड़ा कारण है कि देश के अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासी युवक इन गाँवों में सस्ती रहने की जगह पाते हैं जिसकी वजह से यहाँ पुरुषों की संख्या अधिक हो जाती है?

अन्य कुछ बातें भी हैं। जैसे कि सामान्य सोच है कि गाँवों में समाज अधिक पाराम्परिक या रूढ़िवादी होते हैं, वहाँ सामाजिक सोच को बदलने में समय लगता है। वहाँ स्वास्थ्य सेवाओं को पाना भी कठिन हो सकता है, हालाँकि प्राथमिक सेवा केंद्रों तथा आशा कर्मियों से बहुत जगहों पर स्थिति में बहुत सुधार आया है। लेकिन इन सबको ठीक से समझने के लिए विषेश शोध होने चाहिये।

राज्य स्तर के आंकणे

अंत में राज्य स्तर के आंकणों के बारे में कुछ जानकारी प्रस्तुत है। जैसा कि मैंने ऊपर बताया है, इन आंकणों पर अन्य बहुत सी बातों का असर पड़ता है इसलिए उनके महत्व को ठीक से समझने के लिए सावधानी बरतनी चाहिये।

मेरे विचार में राज्यों की स्थिति को देश के विभिन्न भागों में बाँट कर देखना अधिक आसान है। मैंने राज्यों को चार भागों में बाँटा है - पहले भाग में हैं उत्तरपूर्व को छोड़ कर उत्तरी व मध्य भारत की सभी राज्य; दूसरे भाग में मैंने दक्षिण भारत के राज्यों को रखा है, जिनमें गोवा भी है; तीसरा भाग है उत्तरपूर्व के राज्य जिनमें सिक्किम भी है; और चौथा भाग है केन्द्रीय प्रशासित क्षेत्र जैसे कि अँडमान या चँदी गढ़, इनमें दिल्ली भी है।

उत्तर तथा मध्य भारत के राज्य

2015-16 के आंकणों के अनुसार, उत्तर व मध्य भारत में सात राज्यों में औरतों की संख्या की स्थिति नकरात्मक थी - हरियाणा 876, राजस्थान 887, पँजाब 905, गुजरात 950, महाराष्ट्र 952, एवं जम्मु कश्मीर में 971। उत्तरप्रदेश में स्थिति बाकियों के मुकाबले में कुछ ठीक थी, 995। बाकी के सभी प्रदेशों में (झारखँड, पश्चिम बँगाल, उत्तरखँड, छत्तीसगढ़, ओडीशा, बिहार व हिमाचल प्रदेश) में औरतों की संख्या पुरुष अनुपात में 1000 से अधिक थी, उनमें से सबसे उच्चस्थान पर थे बिहार 1062 तथा हिमाचल प्रदेश 1087।

2019-21 के आंकणें देखें तो कुछ बदलाव दिखते हैं। जम्मू कश्मीर को छोड़ कर अन्य सभी राज्यों में स्थिति में कुछ सुधार आया है, हालाँकि पँजाब व राजस्थान में सुधार की मात्रा थोड़ी सी ही है। इन परिवर्तनों के बाद सबसे अधिक नकारात्मक स्थितियाँ इन राज्यों में हैं - राजस्थान 891, हरियाणा 926, पँजाब 938, जम्मू कश्मीर 948, गुजरात 965, महाराष्ट्र 966, और मध्यप्रदेश 970। बाकी सभी राज्यों में औरतों का अनुपात 1000 से ऊपर है। सबसे बेहतर स्थिति है ओडीशा में 1063 तथा बिहार में 1090। मेरे विचार में जिन राज्यों में स्थिति सकारात्मक दिखती है वहाँ के आंकणों पर अधिक पुरुषों के प्रवासी होने का भी प्रभाव है।

दक्षिण भारत के राज्य

गोवा सहित दक्षिण भारत के राज्यों में 2015-16 में स्थिति केवल कर्णाटक में नकारात्मक थी, 979, बाकी सभी राज्यों में स्थिति सकारात्मक थी।

2019-21 के सर्वेक्षण में इन सभी राज्यों में स्थिति सकारात्मक हो गयी थी।

उत्तरपूर्वी भारत के राज्य

उत्तरपूर्वी भारत के आठ राज्यों में से 2015-16 में 3 राज्यों में स्थिति नकारात्मक थी - सिक्किम 942, अरुणाचल 958 तथा नागालैंड 968। दो राज्यों में स्थिति थोड़ी सी नकारात्मक थी, असम में 993 और त्रिपुरा में 998, जबकि मेघालय, मिजोरम तथा मणीपुर में स्थिति सकारात्मक थी।

इस बार के 2019-21 सर्वेक्षण में इन सभी राज्यों में स्थिति सुधरी है, हालाँकि अभी भी सिक्किम में 990 तथा अरुणाचल में 997 होने से थोड़ी सी नकारात्मक है।

दिल्ली तथा केन्द्र प्रशासित भाग

अंत में दिल्ली तथा केन्द्र प्रशासित भागों में देखें तो 2015-16 में चार क्षेत्रों में स्थिति गम्भीर थी - दादरा, नगर हवेली, दमन, दीव 813, दिल्ली 854, चंदीगढ़ 934 तथा अँडमान 977। सभी जगहों पर इन क्षेत्रों के ग्रामीण हिस्सों की स्थिति और भी गम्भीर थी, जिसका एक कारण अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासी पुरुष हो सकता है।

2019-21 में स्थिति में कुछ सुधार हुआ और कुछ स्थिति और भी नकारात्मक हुई - दादरा, नगर हवेली आदि 827, दिल्ली 913, चंदीगढ़ 917, अँडमान 963, लदाख 971। अँडमान में कितने प्रवासी है, वहाँ क्या कारण हो सकते हैं, उसके आंकणों से मुझे थोड़ी हैरानी हुई।


अंत में

अगर हम पूरे भारत के स्तर पर विभिन्न राज्यों में नारी और पुरुष जनसंख्या के अनुपात में आये परिवर्तनों को देखें तो पाते हैं कि बहुत राज्यों में स्थिति सुधरी है, विषेशकर लक्षद्वीप, केरल, कर्णाटक, तमिलनाडू, हरियाणा, सिक्किम, झारखँड, नागालैंड तथा अरुणाचल में। कुछ जगहों पर अनुपात कुछ घटा है जैसे कि हिमाचल प्रदेश, हालाँकि कुछ स्थिति अभी भी सकारात्मक है।

राज्य स्तर के आंकणों में आने वाले बदलावों को ठीक से समझना आसान नहीं है क्योंकि उस पर अन्य कारणों के साथ साथ पुरुषों के काम की खोज में अन्य राज्यों में जाने से भी बहुत असर पड़ता है। इसकी वजह से समृद्ध राज्य जहाँ प्रवासी आते हैं उनकी पुरुष संख्या बढ़ी दिखती है और पिछड़े राज्य, जहाँ से पुरुष प्रवासी बन कर निकलते हैं, उनके आंकड़े सच्चाई से बेहतर दिखते हैं।

राज्यों की स्थिति चाहे जो भी हो, राष्ट्रीय स्तर पर भारत की जनसंख्या में औरतों के अनुपात में इस तरह से बढ़ौती बहुत सकारात्मक बदलाव है। केवल एक आंकणे पर अधिक बातें कहना सही बात नहीं होगी, उसके लिए हमें स्वास्थ्य से संबंधित अन्य आंकणों को देखना पड़ेगा। लेकिन यह स्थिति भारत को विकास की ओर बढ़ाने में यह सही राह पर होने का आभास देती है।

बुधवार, अगस्त 23, 2017

उत्तरप्रदेश में लड़कियाँ क्या सोचती हैं?

हिन्दी फ़िल्में देखिये तो लगता है कि छोटे शहरों में रहने वाली लड़कियों के जीवन बदल गये हैं. "बरेली की बरफ़ी", "शुद्ध देसी रोमान्स", और "तनु वेड्स मनु" जैसी फ़िल्मों में, छोटे शहरों की लड़कियों को न सड़कों पर डर लगता हैं, न वह लड़कों से वे स्वयं को किसी दृष्टि से पीछे समझती हैं. जाने क्यों, अक्सर पिछले कुछ सालों से हमारी फ़िल्मों में छोटे शहरों की लड़कियों की आधुनिकता को सिगरेट पीने से दिखाया जाता है (शायद इन फ़िल्मों को सिगरेट कम्पनियों से पैसे मिलते होंगे, क्योंकि अब भारत में सिगरेट के अन्य विज्ञापन दिखाना सम्भव नहीं)

हिन्दी फ़िल्मों की लड़कियों और सचमुच की लड़कियों के जीवनों में कोई अन्तर हैं, तो कौन से हैं? पिछले दशकों में छोटे शहरों में रहने वाली लड़कियों और युवतियों की सोच बदली है, तो कैसे बदली है? और अगर बदली है तो उसका उन सामाजिक समस्याओं पर क्या असर पड़ा है जो कि लड़कियों के जीवनों से जुड़ी हुई हैं? इस आलेख में इसी बात से सम्बंधित सर्वे की बात करना चाहता हूँ.

गाँव कनक्शन का सर्वे

इन दिनों में गाँव कनक्शन पर उत्तरप्रदेश की 15 से 45 वर्षीय महिलाओं के साथ हुए एक सर्वे के बारे में छपा है. इस सर्वे में पाँच हज़ार औरतों ने भाग लिया.

सर्वे में 56 प्रतिशत महिलाओं कहा कि वह नौकरी करना चाहती हैं. इसमें से सबसे अधिक महिलाएँ स्कूल में अध्यापिका बनना चाहती हैं.  14 प्रतिशत महिलाएँ डॉक्टर बनना चाहती हैं और 6 प्रतिशत पुलिस में जाना चाहती हैं.

67 प्रतिशत ने कहा कि अगर मौका मिले तो वह और पढ़ना चाहेंगी. 50 प्रतिशत महिलाओं-लड़कियों ने कहा कि उन्हें साइकिल चलाना पसंद है, लेकिन ससुराल में साइकिल चलाने की अनुमति कम ही मिलती है. 67 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें घर से बाहर निकलने के लिए पति या पिता से अनुमति लेनी पड़ती है, जबकि 15 प्रतिशत ने बताया कि वह घर से बाहर किसी के साथ ही जा सकती हैं.

81 प्रतिशत लड़कियों ने कहा कि वह जानती हैं कि उनकी शादी के समय उनके माता-पिता को दहेज देना पड़ेगा।

उत्तरप्रदेश में मेरा सर्वे

गाँव कनक्शन के इस सर्वे की लड़कियों-महिलाओं के जीवन, उनकी आशाएँ, और उनके सपने, फ़िल्मी छोटे शहरों की लड़कियों के जीवनों से बहुत भिन्न लगती हैं.

इस सर्वे के बारे में पढ़ कर मुझे अपना एक सर्वे याद आ गया. 2014 में, मैं उत्तरप्रदेश में कुछ दिन अपनी एक मित्र के पास ठहरा था जिनका एक प्राईवेट अस्पताल था और साथ में नर्सिंग ट्रेनिन्ग कॉलिज भी था जहाँ तीन वर्ष का नर्सिन्ग कोर्स होता था. वहाँ पढ़ने वालों को उत्तरप्रदेश सरकार की ओर से छात्रवृत्ति मिल रही थी. मैंने इस सर्वे में द्वितीय वर्ष के छात्र-छात्राओं से स्वास्थ्य सम्बंधी तथा सामाजिक विषयों के प्रश्न पूछे थे.

सर्वे करने से पहले उसके प्रश्नों को तीसरे वर्ष के तीन छात्राओं में जाँचा गया और जाँच के अनुसार, जो प्रश्न अस्पष्ट थे या जिनके सही अर्थ समझने में छात्रों को कठिनाई हो रही थी, उन्हें सुधारा गया. किसी छात्र या छात्रा ने सर्वे में भाग लेने से मना नहीं किया, लेकिन करीब 20 प्रतिशत छात्राओं ने कुछ प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये.

सर्वे में भाग लेने वाले

कुल 35 छात्रों ने सर्वे में हिस्सा लिया जिनमें 31 छात्राएँ (89%) थीं और 4 छात्र थे. चूँकि सर्वे में पुरुष छात्र केवल चार थे, उनके उत्तरों का अलग से विश्लेषण नहीं किया गया है.


छात्रों की औसत आयू 21.7 वर्ष थी. उनमें से 33 लोग (94%) उत्तरप्रदेश से थे और 2 लोग अन्य करीबी राज्यों (बिहार तथा उत्तराखँड) से थे.

उत्तरप्रदेश के 33 लोगों में से 9 लोग (27%) लखनऊ से थे. बाकी के 24 लोग (73%) राज्य के 8 जिलों से थे (सीतापुर, बलिया, माउ, बस्ती, अकबरपुर, एटा, लक्खिमपुर तथा बाराबँकी). जिलों से आने वाले लोग जिला शहरों, उपजिलों के छोटे शहरों तथा गाँवों के रहने वाले थे. यानि सर्वे में प्रदेश की राजधानी से ले कर, गाँवों तक के, हर तरह की जगहों के लोग थे.

उनमें से 33 लोग (94%) हिन्दू थे, केवल 1 व्यक्ति मुसलमान परिवार से था और 1 ईसाई परिवार से. हिन्दू छात्रों में 20 लोग (60%) शिड्यूल कास्ट जातियों से थे और 6 लोग (18%) जनजातियों से थे.

छात्रों में से 19 लोग (54%) संयुक्त परिवारों में रहते थे, जबकि 16 लोग (46%) ईकाई (nuclear) परिवारों से थे.

छात्र परिवारों की आर्थिक स्थिति

उनमें से 32 लोगों (91%) ने खुद को मध्यम वर्गीय बताया, केवल 2 लोगों ने खुद को निम्न मध्यम वर्गीय कहा और 1 ने खुद को उच्च मध्यम वर्गीय कहा. उनमें से 18 लोगों (51%) के घर में स्कूटर, मोटरसाईकल या ट्रेक्टर थे जबकि बाकी के 17 लोगों (49%) के घर बैलगाड़ी या साईकल थी या कोई व्यक्तिगत यात्रा साधन नहीं था.

उनमें से अधिकाँश के घर में टीवी था, जबकि करीब 50% लोगों के घर में फ्रिज था.

इसका अर्थ है कि हालाँकि अधिकाँश लोग अपने आप को मध्यम वर्ग को कह रहे थे, उनमें से करीब पचास प्रतिशत लोगों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर थी.

पढ़ायी और अंग्रेज़ी ज्ञान

नर्सिंग कॉलिज में आने से पहले 34 छात्रों ने 12 कक्षा तक पढ़ाई की थी, केवल एक छात्रा के पास बीए की डिग्री थी.

छात्रों की माओं ने औसत 6 वर्ष की स्कूली पढ़ायी की थी, उनमें से 34% अनपढ़ थीं  और 11% के पास कॉलिज की डिग्री थीं. उनके पिताओं की औसत पढ़ायी 11 वर्ष की थी, उनमें से 11% अनपढ़ थे और 42% कॉलिज में पढ़े थे.

सब छात्रों ने स्वीकारा कि उनके माता पिता की पीढ़ी में पढ़ने के क्षेत्र में पुरुषों तथा महिलाओं के बीच में अधिक विषमताएँ थीं जो उनकी पीढ़ी में कम हो गयीं थीं. कई छात्राएँ जिनकी माएँ अनपढ़ थीं, बोलीं कि उनको अपनी माँ से पढ़ाई करने का बहुत प्रोत्साहन मिला था. एक छात्रा ने कहा, "मेरी माँ बचपन से मुझे कहती थी कि तुमको पढ़ना है, मेरी तरह अनपढ़ नहीं रहना."

छात्रों में से 19 लोगों (54%) ने कहा कि उनकी अंग्रेज़ी कमज़ोर थी जिससे उन्हें नर्सिंग की किताबों को पढ़ने व समझने में दिक्कत होती थी. उन्होंने बताया कि कुछ शिक्षकाएँ अक्सर अपनी बात को समझाने के लिए उसे हिन्दी में भी समझाती थी, जिससे उन्हें आसानी हो जाती थी.

बाकी के 16 लोगों ने कहा कि उनकी अंग्रेज़ी अच्छी थी और उन्हें नर्सिन्ग की किताबें पढ़ने समझने में दिक्कत नहीं होती थी. लेकिन उनसे जब सर्वे के दौरान अंग्रेज़ी में प्रश्न पूछे गये तो केवल एक छात्रा ही उसका सही अंग्रेज़ी में पूरा उत्तर दे पायी. बाकी लोगों को अंग्रेज़ी बोलने में कठिनाई थी. यानि जब छात्र अंग्रेज़ी की किताबों को पढ़ तथा समझ सकते हैं, तब भी उन्हें अंग्रेज़ी बोलने में हिचक या कठिनाई हो सकती है. इसका यह भी अर्थ है कि अंग्रेज़ी में उनकी अभिव्यक्ति कमज़ोर रहती है.

नर्सिंग पढ़ने का निर्णय किसने लिया

19 लोगों (54%) ने नर्सिंग की पढ़ायी करने का निर्णय स्वयं लिया था, जबकि बाकी 16 (46%) लोगों में यह निर्णय परिवार या अन्य लोगों ने लिया.

अधिकाँश लोगो ने माना कि उनके मन में कुछ अन्य पढ़ने की कामनाएँ थीं लेकिन उन्होंने अंत में नर्सिन्ग को चुना क्योंकि इसमें छात्रवृत्ति मिलती है, वरना उनके परिवार के लिए उनकी पढ़ायी का खर्चा पूरा कठिन होता. नर्सिन्ग पढ़ने का एक कारण यह भी था कि इस काम में नौकरी आसानी से मिल जाती है.

केवल दो लोगों ने कहा कि वह सचमुच नर्सिन्ग की पढ़ायी ही करना चाहते थे. 15 लोगों (43%) का कहना था कि वह शिक्षक बनना चाहते थे. 4 लोगों (11%) ने कहा कि वह पुलिस में काम करना चाहते थे. बाकी के लोगों की अलग अलग राय थी, कोई फेशन डिज़ाईनर बनना चाहता था, कोई ब्यूटी पार्लर चलाना चाहता था, कोई कम्पयूटर कोर्स तो कोई वकील या एकाऊँटेन्ट. उनमें से एक छात्रा ने कहा कि नर्सिन्ग की पढ़ायी पूरी करके वह आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलिज में पढ़ने की कोशिश करेगी.

विवाह और जीवन साथी का चुनाव

छात्रों में से 5 लोग विवाहित थे, वह पाँचों छात्राएँ थीं और पाँचों के पति परिवार ने चुने थे.

बाकी 30 लोगों में से 24 (80%) ने कहा कि उनका जीवन साथी परिवार चुनेगा. केवल 6 लोगों ने कहा कि वह अपना जीवन साथी स्वयं चुनना चाहेंगे, पर उनकी भी चाह थी कि उनका चुना जीवनसाथी उनके परिवार को पसंद आना चाहिये और वे परिवार की मर्ज़ी के विरुद्ध जा कर विवाह नहीं करना चाहेंगे. केवल एक छात्रा ने कहा कि चाहे उसका परिवार कुछ भी कहे, वह तो उसी से विवाह करेगी जो उसे पसंद होगा, और इसके लिए वह परिवार के विरुद्ध भी जा सकती है.

जाति और भेदभाव के अनुभव

केवल 6 लोगों (17%) ने कहा कि उनको जाति सम्बंधित भेदभाव के व्यक्तिगत अनुभव हुए थे। अन्य 9 लोगों (26%) ने कहा कि उनको स्वयं ऐसा कोई अनुभव नहीं हुआ लेकिन उनके परिवार में अन्य लोगों को ऐसे अनुभव हुए.

33 लोगों (95%) ने स्वीकारा कि समाज में जाति से सम्बंधित भेदभाव होता है.

भेदभाव के विषय पर बात करते समय कई छात्रों ने कहा कि नर्सिन्ग होस्टल में रहने की वजह से उनके जाति सम्बंधी विचार बदल गये थे. एक छात्रा ने कहा, "घर में कुछ भी कहते थे तो हम मान लेते थे. लेकिन होस्टल में हम लोग जात पात की बात नहीं सोचते, साथ बैठते, साथ खाना खाते हैं. अलग जाति की लड़कियाँ मेरी मित्र हैं, इससे जाति के बारे में मेरी सोच बदल गयी है."

साथ ही अधिकाँश लोगों का कहना था कि चाहे उनकी अपनी सोच बदल गयी है लेकिन जब वह घर जाते हैं और घर में बड़े बूढ़े लोग जाति का भेदभाव करते हैं तो वह उसका विरोध नहीं कर पाते. एक विवाहित छात्रा ने कहा, "मेरी सास जात-पात को बहुत मानती हैं, मैं अपने घर में किसी अन्य जाति के मित्र को नहीं बुला सकती. जब तक उनके साथ रहूँगी तो उनकी बात ही माननी पड़ेगी. मैं उनसे झगड़ा नहीं कर सकती."

उनसे कहा गया कि मान लीजिये की आप की सहेली या दोस्त अपनी जाति से भिन्न जाति या धर्म के व्यक्ति से प्रेम करता है और उससे विवाह करना चाहता है, लेकिन उसका परिवार इसके विरुद्ध है. आप किसकी तरफ़ होंगे, अपनी सहेली या दोस्त की ओर या उसके परिवार की ओर?

3 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी के 32 लोगों में से 21 (66%) ने कहा कि परिवार ठीक कहता है, जाति या धर्म से बाहर के व्यक्ति से विवाह करना उचित नहीं होगा, बाकी के 11 (34%) लोगों ने कहा कि जो जिससे प्रेम करता है उसे उसी से विवाह करना चाहिये.

घरेलू हिँसा

छात्रों से कहा गया कि मान लीजिये कि एक महिला का पति शाम को थका हुआ घर लौटा. देखा कि पत्नी की सहेली आयी थी, वह उससे बातें कर रही थी और उसने खाना नहीं बनाया था. अगर इस स्थिति में वह अपनी पत्नी को मारे तो क्या आप की राय में वह ठीक है?

10 लोगों (29%) का कहना था कि इस स्थिति में पति का पत्नी को मारना ठीक था. 25 (71%) लोगों ने कहा कि पति का मारना गलत था.

उन 25 में से 11 लोगों (44%) ने कहा कि पति को पहले पत्नी से बात करनी चाहिये थी. अगर ऐसा पहली बार हुआ हो या फ़िर अगर वह पत्नी की विषेश सहेली थी जिससे बहुत सालों से नहीं मिली थी, तो पति को इस बात को समझना चाहिये था कि कभी कभी पत्नी से भूल हो सकती है और उसे मारने की बजाय प्यार से समझाना चाहिये था. लेकिन अगर समझाने के बावज़ूद पत्नी बार बार ऐसा करती है तो उन्होंने कहा कि तब पति का उसे मारना सही है. यानि कुल 70% लोग यह मान रहे थे कि कई परिस्थितियों में पति का पत्नी को मारने को सही समझा जा सकता है.

केवल 7 लोगों (20%) ने कहा कि किसी भी हालत में पति को पत्नी को मारने का अधिकार नहीं है.

इस विषय पर बात करते हुए उनसे पूछा गया कि क्या पत्नी हिँसा करे तो वह सही मानी जा सकती है? मान लीजिये कि पत्नी काम पर गयी है, शाम को थकी हुई घर लौटी है. पति को उस दिन काम पर नहीं जाना था, वह सारा दिन घर पर ही था. पत्नी देखती है कि सारा घर गन्दा पड़ा है, खाना भी नहीं बना. पति के मित्र आये हैं, उनकी ताश और शराब चल रही है और पति ने जूए में बहुत पैसा खो दिया है. क्या ऐसी हालत में पत्नी पति से झगड़ा कर सकती है या उसे मार सकती है?

4 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी 31 में से 26 लोगों (84%) ने कहा कि नहीं पत्नी को लड़ना या हिँसा नहीं करनी चाहिये. उनमें से अधिकतर का कहना था कि पति तो भगवान बराबर होता है, पत्नी को उसका सम्मान करना होता है, वह उस पर किसी भी हालत में हाथ नहीं उठा सकती.

तो ऐसी हालत में पत्नी को क्या करना चाहिये? अधिकतर लोगों का कहना था कि अगर पति अक्सर ऐसा करता हो कि हर महीने घर का पैसा जूए और नशे में गँवा देता हो तो ऐसे पति को सुधारने के लिए घर के बड़े बूढ़ों को कहना चाहिये, उन्हें ही कुछ करना पड़ेगा.

5 लोगों (16%) ने कहा कि इस हालत में पत्नी का पति से लड़ना सही है और अगर यह बार बार हो तो ऐसे पति से तलाक भी ले सकते हैं.

परिवार में लड़कियों के प्रति भेदभाव

12 लोगों (34%) ने कहा कि उन्हें अपने परिवार में उन्होंने लड़को तथा लड़कियों के प्रति व्यवहार में भेदभाव का व्यक्तिगत अनुभव था.

32 लोगों ने माना कि समाज में लड़के तथा लड़कियों के प्रति  भेदभाव आम होता है. 10 लोगों (29%) ने, वह सभी लड़कियाँ थीं, इस भेदभाव को सही बताया.

उनसे कहा गया कि मान लीजिये कि एक घर में शाम को लड़का बाहर जाना चाहता है, परिवार में उसे कोई मना नहीं करता. लेकिन जब उस लड़के की हमउम्र बहन शाम को बाहर जाना चाहती है तो परिवार उसे मना करता है, कहता है कि लड़कियों को घर से बाहर जाने में खतरा है. क्या आपकी राय में यह सही है या गलत?

3 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी के 32 लोगों में से 24 (75%) ने कहा कि परिवार सही करता है क्योंकि लड़कियों के लिए शाम को बाहर जाने में खतरा है. केवल 8 लोगों (25%) ने कहा कि लड़कियों पर इस तरह रोक लगाना सही बात नहीं हैं.

फ़िर उनसे कहा गया कि मान लीजिये कि आप की सहेली का विवाह हो चुका है, उसकी एक बेटी है और वह फ़िर से गर्भवति हैं. उसका अल्ट्रासाउँड टेस्ट बताता है कि अगली भी बेटी होगी. उसकी सास कहती है कि गर्भपात करा दो. आप उसे क्या राय देंगी?

11 लोगों (31%) ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया. बाकी के 24 लोगों में से 12 लोगों (50%) ने कहा कि सास की बात माननी पड़ेगी. 12 लोगों ने कहा कि उनकी सलाह होगी कि गर्भपात नहीं कराया जाये. दो छात्राओं ने कहा कि वह अपनी सहेली की सास  को समझाने की कोशिश करेंगी.

सरकारी व प्राईवेट अस्पताल

छात्रों के अनुसार सरकारी अस्पतालों में अच्छी बाते हैं कि वहाँ कोई फीस नहीं होती, दवा भी निशुल्क होती है, स्पेशेलिस्ट डाक्टर अधिक होते हैं और सुविधाएँ अधिक होती हैं. उनकी बुरी बाते हैं कि वहाँ देखभाल अच्छी नहीं होती, अक्सर दवाईयाँ नहीं मिलती, सुविधाएँ नाम की होती हैं पर काम नहीं करती, कर्मचारी लापरवाह होते हैं, सफाई की कमी होती है, डाक्टर काम पर नहीं आते और बहुत भीड़ होती है.

प्राईवेट अस्पतालों में अच्छी बाते हैं कि वहाँ देखभाल बेहतर होती है, कर्मचारी ज़्यादा ध्यान से काम करते हैं, सफाई बेहतर होती है, भीड़ कम होती है और जो भी सुविधाएँ होती हैं वह ठीक से काम करती हैं. उनकी बुरी बातें हैं कि वहाँ पैसे बहुत लगते हैं, अक्सर बिना जरूरत के टेस्ट किये जाते हैं, बिना ज़रूरत की दवाएँ दी जाती हैं, और अगर आप गरीब हैं तो आप को कोई नहीं पूछता.

उनसे पूछा गया कि अगर आप बीमार हों तो आप कहाँ जाना चाहेंगे, सरकारी अस्पताल में या प्राईवेट अस्पताल में? 34 लोगों (97%) ने कहा कि अगर वह बीमार होंगे तो वह प्राईवेट अस्पताल में जाना चाहेंगे.

उनसे पूछा गया कि नर्सिंग की ट्रेनिन्ग पूरी होने के बाद आप सरकारी अस्पताल में काम करना चाहेंगे या प्राईवेट अस्पताल में? 34 लोगों (97%) ने कहा कि वे सरकारी अस्पताल में काम करना चाहेंगे. इसके कारण थे कि सरकारी काम में रहने के लिए घर मिलना, सेवा निवृति पर पैंशन मिलना, काम से छुट्टी लेना अधिक आसान है, काम करना भी अधिक आसान है और नौकरी से निकलना बहुत कठिन है.

यानि अपनी बीमारी हो या परिवार की तो लोग प्राईवेट अस्पताल में जाना पसंद करते हैं जबकि नौकरी सरकारी अस्पताल में करना चाहते हैं. पर इस बात में उत्तरप्रदेश के नवजवान लोग बाकी भारत जैसे ही है. अप्रैल 2017 में सी.एस.डी.एस. ने भारत के विभिन्न राज्यों में रहने वाले नवजवानों का सर्वे किया था, उस में भी केवल 7 प्रतिशत लोगों ने प्राईवेट सेक्टर में नौकरी को प्राथमिकता दी थी.

सर्वे में मिले उत्तरों पर विमर्श

जनसंख्या की दृष्टि से देखें तो अगर उत्तरप्रदेश स्वतंत्र देश होता तो दुनिया में पाँचवें स्थान पर होता. विश्व स्तर पर मानव विकास मापदँड की दृष्टि से देखें तो भारत काफ़ी नीचे है, स्वास्थ्य के कुछ आकणों में हमारी स्थिति बँगलादेश से भी पीछे है.

भारत के विभिन्न राज्यों के मानव विकास मापदँडों को देखें तो उत्तरप्रदेश का स्थान अन्य राज्यों की तुलना में बहुत नीचे है. चाहे वह बच्चियों के भ्रूणों की हत्या हो या वार्षिक बाल मृत्यू दर, उत्तरप्रदेश में इनकी स्थिति दयनीय है. स्वास्थ्य के कई आँकणों में उत्तरप्रदेश की स्थिति अफ्रीका के गरीब और पिछड़े देशों जैसी है या उनसे भी बदतर है.

ऐसी हालत में यह जानना कि उत्तरप्रदेश की युवा पीढ़ी क्या सोचती है, महत्वपूर्ण है. आज की नर्सिन्ग छात्राएँ कल यहाँ की स्वास्थ्य सेवाओं में हिस्सा लेंगी, परिवारों को सलाह देंगी. उनकी सोच तथा आचरण से समाज के अन्य लोग भी प्रभावित होंगे.

तो आप के विचार में नर्सों से की मेरी बातचीत उत्तरप्रदेश के भविष्य के बारे में हमें क्या बताती है? कुछ दिन पहले गोरखपुर के अस्पताल में 60 बच्चों की मृत्यू से भारत के समाचार पत्रों में हल्ला मचा था, पर उत्तरप्रदेश के लिए यह कोई नयी बात नहीं है. वहाँ के पिछले दस वर्षों के आँकणे देखिये, हर साल वहाँ दस्त, न्योमोनिया, एन्सेफलाईटस, मलेरिया आदि बीमारियों से लाखों बच्चे मरते हैं, जिनका सही समय पर इलाज किया जाये तो वह बच्चे बच सकते हैं.

यही है भारत की अपने भीतर की विषमताएँ - भारत के दक्षिण के कुछ राज्यों के स्वास्थ्य आँकणे अमरीका जैसे हैं, और उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखँड जैसे राज्यों के अफ्रीका जैसे.

हमारी कथनी और करनी में भी अंतर है. पाराम्परिक विचारों को बदलना आसान नहीं है. अगर हम पूछें कि क्या आप नारी पुरुष में बराबरी में विश्वास करते हैं, तो सब लोग हाँ कह देते हैं. अगर आप पूछते हैं कि घर और परिवार में नारी के साथ होने वाली हिँसा गलत है, तो भी सब लोग हाँ कह देते हैं. लेकिन इन विचारों की कहनी और प्रतिदिन के जीवन की करनी में विरोधाभास है. हम लोग कहते कुछ हैं, करते कुछ और.

इसका यह अर्थ नहीं कि सकारात्मक बदलाव नहीं हुए है. माता और पिता की पढ़ायी के आँकणे दिखाते हैं कि शिक्षा के स्तर में पिछली पीढ़ी में बहुत भेदभाव था. सर्वे में भाग लेने वाले की करीब एक तिहाई माएँ अनपढ़ थीं. इस दृष्टि से सर्वे की युवतियाँ उन घरों में पढ़ने लिखने वाली युवतियों की पहली पीढ़ी हैं. शायद उनकी बेटियों में कथनी और करनी के यह विरोधाभास कम होंगे, वह लोग पारिवारिक हिँसा और भेदभाव के विरुद्ध आवाज़ उठायेंगी.

अंत में

इस सर्वे से मुझे लगा कि सामाजिक विचारों को बदलना आसान नहीं है. हम जितने स्लोगन बना लें, पोस्टर बना लें, लोगों कों जानकारी हो जाती है लेकिन इससे उनके विचार या आचरण नहीं बदलते. ऊपर से दिखावे के लिए हम कुछ भी कह दें लेकिन हमारी भीतरी सोच क्या है, यह कहना समझना कठिन है.

मैं उम्र में उन नर्सिंग के छात्रों से बहुत बड़ा था, बाहर से आया था और पुरुष था. इसलिए यह नहीं कह सकते कि उन्होंने हर बात का जो सोचते हैं वही सच सच उत्तर दिया होगा. फ़िर भी इस सर्वे से उत्तरप्रदेश की युवा पीढ़ी, विषेशकर नवयुवतियाँ क्या सोचती हैं, इसकी कुछ जानकारी मिलती है.

आप बताईये कि आप के अनुभव इस सर्वे में पायी जाने वाली स्थिति से कितने मिलते हैं और कितने भिन्न हैं? और अगर आप को इस तरह के प्रश्न पूछने का मौका मिलता तो बदलते उत्तरप्रदेश को समझने के लिए आप कौन से प्रश्न पूछते?

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गुरुवार, अगस्त 06, 2015

एक अकेला बूढ़ा

भारत की जनसंख्या में बदलाव आ रहा है, बूढ़ों की संख्या बढ़ रही है. अधिक व्यक्ति, अधिक उम्र तक जी रहे हैं. दूसरी ओर परिवारों का ध्रुविकरण हो रहा है. आधुनिक परिवार छोटे हैं और वह परिवार गाँवों तथा छोटे शहरों से अपने घरों को छोड़ कर दूसरे शहरों की ओर जा रहे हैं. जहाँ पहले विवाह के बाद माता पिता के साथ रहना सामान्य होता था, अब बहुत से नये दम्पत्ती अलग अपने घर में रहना चाहते हैं.

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कैसा जीवन होता है भारतीय वृद्धों का?

पिछले वर्ष मैं साठ का पूरा हुआ और सरकारी योजनाओं के लिए "वरिष्ठ नागरिक" हो गया. अपनी साठवीं वर्षगाँठ पर मैंने इटली में अपने परिवार से दूर, कुछ सालों के लिए भारत वापस आ कर अकेला रहने का निर्णय लिया.

मेरे अकेले रहने के निर्णय और भारत के आम वृद्ध व्यक्ति की स्थिति में बहुत दूरी है. यह आलेख बूढ़े होने, अकेलेपन, निस्सहाय महसूस करना, इन्हीं बातों पर मेरे व्यक्तिगत अनुभव को समाजिक परिवर्तन के साथ जोड़ कर देखने की कोशिश है.

इस आलेख की तस्वीरें गुवाहाटी के इस वर्ष के अम्बाबाशी मेले से बूढ़े साधू, साध्वियों और तीर्थ यात्रियों की हैं.

विवाह की वर्षगाँठ

पिछले रविवार को मेरे विवाह की तेंतिसवीं सालगिरह थी. उस दिन नींद सुबह के साढ़े तीन बजे ही खुल गयी. वैसे तो जल्दी उठने की आदत है मुझे, पर इतनी जल्दी नहीं. अधिकतर चार-साढ़े चार बजे के आसपास उठता हूँ. एक दिन पहले सोचा था कि इस बार की विवाह एनीवर्सरी को रोटी बना कर मनाऊँगा. काम से बाद घर वापस आते समय बाज़ार से आटा और बेलन दोनो खरीद कर ले आया था. शायद रोटी बनाने की चिन्ता या उत्सुकता ने ही जल्दी जगा दिया था?

मेरी पत्नी का फोन आया. "तुम विवाह की वर्षगाँठ मनाने के लिए क्या करोगो?", उसने पूछा. "रोटी बनाऊँगा", मैंने कहा तो वह हँसने लगी.

गुवाहाटी में रहते हुए करीब आठ महीने हो चुके हैं. सुबह क्या करना है, इसकी भी नियमित दिनचर्या सी बन गयी है. उठते ही, सबसे पहले शरीर के खुले हिस्सों पर मच्छरों से बचने वाली क्रीम लगाओ. फ़िर बल्ड प्रेशर की गोली खाओ. उसके बाद कॉफ़ी तथा नाश्ते का सीरियल बनाओ. जब तक कॉफ़ी पीने लायक ठँडी हो और कम्यूटर ओन हो तब तक थोड़ी वर्जिश करो.

सुबह उठ कर ध्यान करूँगा, यह कई महीनों से सोच रहा हूँ. लेकिन आँखें बन्द करके पाँच मिनट भी नहीं बैठ पाता हूँ. कहने को अकेला हूँ, समय की कमी नहीं होनी चाहिये, लेकिन ठीक से ध्यान करने के लिए समय निकालना अभी तक नहीं हो पाया. और भी बहुत सी बातें हैं जिनको करने के सपने देखे थे, पर जिन्हें करने का अभी तक समय नहीं खोज पाया - असमी बोलना सीखना, संगीत की शिक्षा लेना, चित्रकारी करना, नियमित रूप से लिखना, आदि.

सारा दिन तो काम में निकल जाता है. मैं यहाँ गुवाहाटी में एक गैर सरकारी संस्था "मोबिलिटी इँडिया" के लिए काम कर रहा हूँ.ऊपर से घर के काम अलग. कितनी भी कोशिश कर लूँ, उन्हें पूरा करना कठिन है. झाड़ू, पोचा, कपड़े धोना, बाज़ार जाना, खाना बनाना, बर्तन साफ़ करना, कपड़े प्रेस करना, मकड़ी के जाले हटाना, खिड़कियों के शीशे साफ़ करना, बिखरे कागज़ सम्भालना, कूड़ा फैंकना, और जाने क्या क्या! यह सब काम एक दिन में पूरे नहीं हो सकते. इसीलिए अभी तक टीवी भी नहीं खरीदा. सोचा कि वैसे ही समय नहीं मिलता, अगर टीवी देखने में लग गया तो बाकी के सब कामों को कौन करेगा?

भारत आने के बाद अकेला रहते रहते, धीरे धीरे सब खाना बनाना सीख चुका हूँ. बस अब तक कभी रोटी नहीं बनायी थी. मार्किट में बनी बनायी रोटियाँ मिलती हैं जिन्हें फ्रिज़र में रख सकते हैं और आवश्यकतानुसार गर्म कर सकते हैं. पर इधर दो-तीन बार मार्किट गया था लेकिन बनी बनायी रोटी नहीं मिली. दुकान में केवल पराँठे थे जो मुझसे ठीक से हज़म नहीं होते. फ़िर सोचा कि जिस तरह से बाकी सब खाना बनाना आ गया है तो रोटी बनाने में क्या मुश्किल होगी? बस इस शुरुआत के लिए किसी शुभ दिन की प्रतीक्षा थी. और विवाह की वर्षगाँठ से अच्छा शुभदिन कौन सा मिलता!

रविवार की सारी सुबह रसोई में गुज़री. रेडियो से गाने सुनता रहा और साथ साथ खाना बनाता रहा. जब थोड़ी गर्मी लगी, तो फ्रिज में ठँडी बियर इसीलिए रखी थी. शायद बियर का ही असर था कि जब कोई पुराना मनपसंद गाना आता तो खाना बनाते बनाते थोड़े नाच के ठुमके भी लगा लिए. जब कोई देख कर हँसने वाला न हो, तो जो मन में आये उसे करने से कौन रोकेगा?

तीन घँटों की मेहनत के बाद, उस दिन के खाने में केवल दाल ही सही बनी. रोटियाँ भी कुछ सूखी सूखी सी बनी थीं और आकार में ठीक से गोल भी नहीं थीं. पर अपनी मेहनत का बनाया खाना था, उसे बहुत आनन्द से खाया. मन को दिलासा दिया कि अगली बार रोटी भी अच्छी बनेगी!

यही सपना देखा था मैंने, भारत आ कर ऐसे ही रहने का. जहाँ तक हो सके, अपना हर छोटा बड़ा काम अपने आप करने का. जितना हो सके पैदल चलने का या सामान्य लोगों की तरह बस में यात्रा करने का.

वैसे सच में मेरा एक सपना यह भी था कि एक साल तक भगवा पहन कर, दाढ़ी बढ़ा कर, बिना पैसे के, भारत में इधर उधर भटकूँ. अगर कोई खाने को दे या सोने की जगह दे दे, तो ठीक, नहीं मिले तो भूखा ही रहूँ, सड़क के किनारे सो जाऊँ. पर जोगी बन कर जीने के उस सपने को जी पाने का साहस अभी तक नहीं जुटा पाया हूँ.

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यूरोप में रह कर आराम से जीना, काम के लिए विभिन्न देशों में घूमना, बड़े होटलों में तरह तरह के खाने खाना, सारा जीवन वैसे ही जिया था. इसीलिए मेरा सपना था कि भारत आ कर उस सब से भिन्न जीवन जियूँ. सपने देखना तो आसान है, सच में उन्हें जीना कठिन. सपनों में न मच्छर होते हैं, न गर्मी और उमस. पर मैंने जो सोचा था उसे मैं कर पाया. अब भी कभी कभी विश्वास नहीं होता कि मैं अपना सपना जी रहा हूँ.

वैसे गुवाहाटी में जिस तरह रहने का निर्णय लिया है, वह उतना कठिन नहीं है. यहाँ अम्बुबाशी के मेले में बहुत से बूढ़े साधू दिखे. सोचा कि खुले में रहने वाले यह वृद्ध लोग जब तबियत खराब हो तो क्या करते होंगे? शायद अन्य साधू ही उनका ख्याल करते होंगे? और बुखार हो या जोड़ों में दर्द हो तो खुले में गर्मी, सर्दी में बाहर रहना कितना कठिन होता होगा!

अकेला निस्सहाय बूढ़ा

रविवार को ही सुबह इंटरनेट पर एक नयी तमिल फ़िल्म की समीक्षा पढ़ी थी, जिसका अकेला वृद्ध नायक अपने अकेलेपन से बचने के लिए दिल का दौरा पड़ने का बहाना करता है ताकि एम्बूलैंस के चिकित्साकर्मियों से ही कुछ बात कर सके. उसे पढ़ कर सोच रहा था कि मैं भी तो एक अकेला बूढ़ा हूँ, तो मुझमें और उन अन्य बूढ़ों में क्या अन्तर है जो जीवन के आखिरी पड़ाव में खुद को अकेला तथा निस्सहाय पाते हैं? मैं स्वयं को क्यों अकेला तथा निस्सहाय नहीं महसूस करता?

शायद सबसे बड़ा अन्तर है कि मैंने यह जीवन स्वयं चुना है. अगर मेरा गुवाहाटी में ट्राँसफर हो गया होता, मुझे यहाँ अकेले रहने आना पड़ता, तो मुझे भी यहाँ रहना भारी लगता. जब परिवार से दूर रहना पड़े, करीब में न कोई बात करने वाला हो, न कोई मित्र, तो वह अकेलापन सहन करना कठिन हो सकता है. पर जब इस तरह जीने का सपना देखा हो और सोच समझ कर यह निर्णय लिया हो कि मैं कुछ वर्षों तक ऐसे ही रहूँगा, तो जीवन की हर बात देखने की दृष्टि बदल जाती है. खाना बनाना, सफाई करना, बस की भीड़ में धक्के खाना, सब कुछ एक सपने का हिस्सा हैं, अपने आप से स्पर्धा हैं कि मैं यह कर सकता हूँ या नहीं. इसमें किसी की जबरदस्ती नहीं है.

यह भी सच है कि मैं यह जीवन जीने के लिए मजबूर नहीं हूँ. जिस दिन चाहूँ, इसे छोड़ कर अपने पुराने जीवन में वापस जा सकता हूँ. बीच बीच कुछ दिनों के लिए यूरोप गया भी हूँ. अगर सामने कोई विकल्प न हो, केवल ऐसा ही जीने की मजबूरी हो तो शायद मुझे भी इससे डिप्रेशन हो जाये?

रिटायर होने में "अब समय का क्या करें" का भाव भी होता है. अचानक दिन लम्बे, निर्रथक और खाली हो जाते हैं. मेरे साथ यह बात भी नहीं. काम, किताबें पढ़ना, लिखना, इन्टरनेट, फोटोग्राफ़ी, जो सब कुछ मैं करना चाहता हूँ उसके लिए दिन थोड़े छोटे पड़ते हैं. लेकिन अगर आप ने अपना सारा जीवन अपने काम के आसपास लपेटा हो, और एक दिन अचानक वह काम न रहे, तो जीवन की धुरी ही नहीं रहती. लगता है कि हम किसी काम के नहीं रहे. औरतों पर तो फ़िर भी घर की ज़िम्मेदारी होती है, रिटायर हो कर भी वह उन्हीं की ज़िम्मेदारी रहती है. लेकिन मेरे विचार में सेवानिवृत पुरुषों को नया जीवन बनाना अधिक कठिन लगता है.

शायद बूढ़े होने में, निस्सहायता के भाव के पीछे सबसे बड़ी मजबूरी गरीबी या पैसा कम होने की है. और एक अन्य बड़ी बात शरीर के कमज़ोर होने तथा बीमारी की है. अगर अचानक कुछ बीमारी हो जाये, या शरीर के किसी हिस्से में दर्द होने लगे, या केवल बुखार ही आ जाये, तो शायद मैं भी वैसा ही निस्सहाय महसूस करूँगा!

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हमारे जीवन का अंत कैसे होना है, यह किसी को नहीं मालूम. कुछ दिन पहले जब भूतपूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम साहब का देहाँत हुआ तो मन में आया कि मृत्यू हो तो ऐसी, जीवन के अंतिम क्षण तक काम करते करते आने वाली. वह भी तो अकेले ही थे, क्या उन्होंने अपने आप को कभी निस्सहाय बूढ़ा महसूस किया होगा?

हम लोग बढ़ापे को जीवन से भर कर जीयें या निस्सहाय बूढ़ा बन कर अकेलेपन और उदासी में रहें, क्या यह सब केवल नियती पर निर्भर करता है? अधिकतर लोगों के पास मेरी तरह से अपना जीवन चुनने का रास्ता नहीं होता. पैसा न हो, पैंशन न हो, स्वतंत्र जीने के माध्यम न हों तो चुनने के लिए कुछ विकल्प नहीं होते. और अगर बीमारी या दर्द ने शरीर को मजबूर कर दिया हो तो अकेले रहना कठिन है.

दुनिया के विभिन्न देशों में पिछले कुछ दशकों में जीवन आशा की आयू बढ़ी है. भारत में भी यही हो रहा है. इसलिए आज समय रहते स्वयं से यह प्रश्न पूछना कि बूढ़ा होने पर कैसे रहना चाहूँगा तथा इसकी तैयारी करना, बहुत आवश्यक हो गये हैं.

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1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ था, आम औसत भारतीय केवल 31 वर्ष तक जीने की आशा करता था, आज औसत जीवन की आयू करीब 68 वर्ष है. हर वर्ष हमारे देश में 75 वर्ष से अधिक आयू वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है. पर हमारा सामाजिक ढाँचा नहीं बदला. जब थोड़े से लोग वृद्ध होते थे और परिवार बड़े होते थे, उनको आदर देना और ऐसी सामाजिक सोच बनाना जिसमें परिवार अपने वृद्ध लोगों की देखभाल खुद करे, आसान थे. आज परिवार छोटे हो रहे हैं और वृद्ध लोग अधिक, तो बूढ़े माता पिता की उपेक्षा, उनके प्रति हिँसा या उदासीनता, सब बातें बढ़ रही हैं.

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अगले दशकों में बूढ़ों की संख्या और बढ़ेगी. दसियों गुना बढ़ेगी. हमारे परिवेश में लोग अपने बुढ़ापे की किस तरह से देख भाल करें, इसके लिए सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं को सोचना पड़ेगा. लेकिन सबसे अधिक आवश्यक होगा कि हम लोग स्वयं सोचे कि उस उम्र में आ कर किस तरह हम अधिक आत्मनिर्भर बनें, किस तरह से अपने जीवन के निर्णय लें जिससे अपना बुढ़ापा हम अपनी इच्छा से बिता सकें, और जीवन के इस अंतिम पड़ाव में वह सब कुछ कर सकें जो हमारे मन चाहे.

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सबके पास ऐसे साधन नहीं होते कि वह जीवन के अंतिम चरण में जैसा रहना चाहते हैं इसका चुनाव कर सकें. पर हमारे समाज को इस बारे में सोचना पड़ेगा.

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बूढ़ा होने पर दिखना सुनना कम होना, जोड़ों में दर्द होना, ब्लड प्रेशर या मधुमेह जैसी बीमारियाँ होना, सब कुछ अधिक होता है. इनका सामना करने के लिए कई दशक पहल पहले तैयारी करनी पड़ेगी. कहते हैं कि भारत जवान देश है, हमारे यहाँ जितने युवा हैं उतने किसी अन्य देश के पास नहीं. लेकिन साथ साथ, हमारे यहाँ जितने वृद्ध होंगे, वह भी किसी अन्य देश के पास कठिनाई से होंगे.

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आप ने क्या कभी बूढ़े होने के बारे में सोचा है? कैसे रहने का सोचा आपने और कितनी सफलता मिली आप को? स्वयं को आप खुशनसीब बूढ़ा मानते हैं या निस्साह बेचारा बूढ़ा? या शायद आप सोचते हें कि अभी तो बुढ़ापा बहुत दूर है और फ़िर कभी सोचेंगे इसके बारे में?

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बुधवार, मार्च 04, 2015

जीवन का अंत

चिकित्सा विज्ञान तथा तकनीकी के विकास ने "जीवन का अंत" क्या होता है, इसकी परिभाषा ही बदल डाली है. जिन परिस्थितियों में दस बीस वर्ष पहले तक मृत्यू को मान लिया जाता था, आज तकनीकी विकास से यह सम्भव है कि उनके शरीरों को मशीनों की सहायता से "जीवित" रखा जाये. लेकिन जीवन का अंतिम समय कैसा हो यह केवल चिकित्सा के क्षेत्र में हुए तकनीकी विकास और मानव शरीर की बढ़ी समझ से ही नहीं बदला है, इस पर चिकित्सा के बढ़ते व्यापारीकरण का भी प्रभाव पड़ा है. तकनीकी विकास व व्यापारीकरण के सामने कई बार हम स्वयं क्या चाहते हैं, यह बात अनसुनी सी हो जाती है.

तो जब हमारा अंतिम समय आये उस समय हम किस तरह का जीवन और किस तरह की मृत्यू चुनते हैं? किस तरह का "जीवन" मिलता है जब हम अंतिम दिन अस्पताल के बिस्तर में गुज़ारते हैं? इस बात का सम्बन्ध जीवन की मानवीय गरिमा से है. यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसकी कीमत केवल पैसों में नहीं मापी जा सकती है, बल्कि इसकी एक भावनात्मक कीमत भी है जो हमारे परिवारों व प्रियजनों को उठानी पड़ती है. आज मैं इसी विषय पर अपने कुछ विचार आप के सामने रखना चाहता हूँ.

ICU in an Indian hospital - Image by Sunil Deepak

चिकित्सा क्षेत्र में तकनीकी विकास

पिछले कुछ दशकों में चिकित्सा विज्ञान ने बहुत तरक्की की है. आज कई तरह के कैंसर रोगों का इलाज हो सकता है. कुछ जोड़ों की तकलीफ़ हो तो शरीर में कृत्रिम जोड़ लग सकते हैं. हृदय रोग की तकलीफ हो तो आपरेशन से हृदय की रक्त धमनियाँ खोली जा सकती हैं. कई मानसिक रोगों का आज इलाज हो सकता है. नये नये टेस्ट बने हैं. घर में अपना रक्तचाप मापना या खून में चीनी की मात्रा को जाँचना जैसे टेस्ट मरीज स्वयं करना सीख जाते हैं. नयी तरह के अल्ट्रासाउँड, केटस्केन, डीएनए की जाँच जैसे टेस्ट छोटे शहरों में भी उपलब्ध होने लगी हैं.

इन सब नयी तकनीकों से हमारी सोच में अन्तर आया है. आज हमें कोई भी रोग हो, हम यह अपेक्षा करते हैं कि चिकित्सा विज्ञान इसका कोई न कोई इलाज अवश्य खोजेगा. कोई रोग बेइलाज हों, यह मानने के लिए हम तैयार नहीं होते.

कुछ दशक पहले तक, अधिकतर लोग घरों में ही अपने अंतिम क्षण गुज़ारते थे. उन अंतिम क्षणों के साथ मुख में गंगाजल देना, या बिस्तर के पास रामायण का पाठ करना जैसी रीतियाँ जुड़ी हुईं थीं. लेकिन शहरों में धीरे धीरे, घर में अंतिम क्षण बिताना कम हो रहा है. अगर अचानक मृत्यू न हो तो आज शहरों में अधिकतर लोग अपने अंतिम क्षण अस्पताल के बिस्तर पर बिताते हैं, अक्सर आईसीयू के शीशों के पीछे. जब डाक्टर कहते हैं कि अब कुछ नहीं हो सकता तब भी अंतिम क्षणों तक नसों में ग्लूकोज़ या सैलाइन की बोतल लगी रहती है, नाक में नलकी डाल कर खाना देते रहते हैं. अगर साँस लेने में कठिनाई हो तो साँस के रास्ते पर नली लगा कर तब तक वैंन्टिलेटर से साँस देते हैं जब तक एक एक कर के दिल, गुर्दे व जिगर काम करना बन्द नहीं कर देते. जब तक हृदय की धड़कन मापने वाली ईसीजी मशीन में दिल का चलना आये और ईईजी की मशीन से मस्तिष्क की लहरें दिखती रहीं, आप को मृत नहीं मानते और आप को ज़िन्दा रखने का तामझाम चलता रहता है.

वैन्टिलेटर बन्द किया जाये या नहीं, ग्लूकोज़ की बोतल हटायी जाये या नहीं, दिल को डिफ्रिब्रिलेटर से बिजली के झटके दे कर दोबारा से धड़कने की कोशिश की जाये या नहीं, यह सब निर्णय डाक्टर नहीं लेते. अगर केवल डाक्टर लें तो उन पर "मरीज़ को मारने" का आरोप लग सकता है. यह निर्णय तो डाक्टर के साथ मरीज़ के करीबी परिवारजन ही ले सकते हैं. पर परिवार वाले कैसे इतना कठोर निर्णय लें कि उनके प्रियजन को मरने दिया जाये? चाहे कितना भी बूढ़ा व्यक्ति हो या स्थिति कितनी भी निराशजनक क्यों न हो, जब तक कुछ चल रहा है, चलने दिया जाता है. बहुत कम लोगों में हिम्मत होती है कि यह कह सकें कि हमारे प्रियजन को शाँति से मरने दिया जाये.

अपने प्रियजन के बदले में स्वयं को रख कर सोचिये कि अगर आप उस परिस्थिति में हों तो आप क्या चाहेंगे? क्या आप चाहेंगे कि उन अंतिम क्षणों में आप की पीड़ा को लम्बा खींचा जाये, जबरदस्ती वैन्टिलेटर से, नाक में डली नलकी से, ग्लूकोज़ की बोतल और इन्जेक्शनों से आप के अंतिम दिनों को जितना हो सके लम्बा खीचा जाये?

चिकित्सा का व्यापारीकरण

लोगों की इन बदलती अपेक्षाओं से "चिकित्सा व्यापार" को फायदा हुआ है. कुछ भी बीमारी हो, वह लोग उसके लिए दबा कर तरह तरह के टेस्ट करवाते हैं. महीनों इधर उधर भटक कर, पैसा गँवा कर, लोग थक कर हार मान लेते हैं. भारत में प्राइवेट अस्पतालों में क्या हो रहा है,  किसी से छुपा नहीं है. उनके कमरे किसी पाँच सितारा होटल से कम मँहगे नहीं होते. लेकिन सब कुछ जान कर भी आज की सोच ऐसी बन गयी है कि कुछ भी हो बड़े अस्पताल में स्पेशालिस्ट को दिखाओ, दसियों टेस्ट कराओ, क्योंकि इससे हमारा अच्छा इलाज होगा.

गत वर्ष में आस्ट्रेलिया के एक नवयुवक डाक्टर डेविड बर्गर ने चिकित्सा विज्ञान की विख्यात वैज्ञानिक पत्रिका "द ब्रिटिश मेडिकल जर्नल" में भारत के चिकित्सा संस्थानों के बारे में अपने अनुभवों पर आधारित एक आलेख लिखा था जिसकी बहुत चर्चा हुई थी. वह भारत में छह महीनों के लिए एक गैरसरकारी संस्था के साथ वोलैंटियर का काम करने आये थे.

डा. बर्गर ने लिखा था कि "भारत में हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार कैसर की तरह फ़ैला है. इस भ्रष्टाचार की जड़े चिकित्सा की दुनिया में हर ओर गहरी फ़ैली हैं जिसका प्रभाव डाक्टर तथा मरीज़ के सम्न्धों पर भी पड़ता है. स्वास्थ्य सेवाएँ भी विषमताओं से भरी हैं, भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण दुनिया में सबसे अधिक है. भारत में बीमारी पर होने वाला सत्तर प्रतिशत से भी अधिक खर्चा, लोग स्वयं उठाते हैं. यानि स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण अमरीका से भी अधिक है. जिनके पास पैसा है उन्हें आधुनिक तकनीकों की स्वास्थ्य सेवा मिल सकती है, हालाँकि इसकी कीमत उन्हें उँची देनी पड़ती है. पर भारत के अस्सी करोड़ लोगों को यह सुविधा नहीं, उनके लिए केवल घटिया स्तर के सरकारी अस्पताल या नीम हकीम हैं जिनको किसी का डर नहीं. लेकिन अमीर हों या गरीब, भ्रष्टाचार सबके लिए बराबर है."

हाल ही में एक गैर सरकारी संस्था "साथी" (Support for Advocacy and Training to Health Initiatives) ने भारतीय चिकित्सा सेवा में लगी सड़न की रिपोर्ट निकाली है, जिसमें बहुत से डाक्टरों ने साक्षात्कार दिये हैं और किस तरह से भ्रष्टाचार से चिकित्सा क्षेत्र प्रभावित है इसका खुलासा किया है. इस रिपोर्ट में 78 डाक्टरों के साक्षात्कार हैं कि किस तरह भारतीय चिकित्सा सेवाएँ लालच तथा भ्रष्टाचार से जकड़ी हुई हैं. प्राइवेट अस्पतालों में व्यापारिता इतनी बढ़ी है कि किस तरह से अधिक फायदा हो इस बात का उनके हर कार्य पर प्रभाव है.

एक सर्जन ने बताया कि अस्पताल के डायरेक्टर ने उनसे शिकायत की कि उनके देखे हुए केवल दस प्रतिशत लोग ही क्यों आपरेशन करवाते हैं, यह बहुत कम है और इसे चालिस प्रतिशत तक बढ़ाना पड़ेगा, नहीं तो आप कहीं अन्य जगह काम खोजिये.

अगर डाक्टर किसी को हृद्य सर्जरी एँजियोप्लास्टी के लिए रेफ़र करते हें तो उन्हें इसकी कमीशन मिलती है. एमआरआई, ईसीजी जैसे टेस्ट भी कमीशन पाने के लिए करवाये जाते हैं.

कुछ दिन पहले मुम्बई की मेडिएँजलस नामक संस्था ने भी अपने एक शोध के बारे में बताया था जिसमें बारह हज़ार मरीजों के, जिनके आपरेशन हुए थे, उनके कागज़ों की जाँच की गयी. इस शोध से निकला कि हृदय में स्टेन्ट लगाना, घुटने में कृत्रिम जोड़ लगाना, कैसर का इलाज या बच्चा न होने का इलाज जैसे आपरेशनों में 44 प्रतिशत लोगों के बिना ज़रूरत के आपरेशन किये गये थे.

डाक्टरों ने किस तरह से कई सौ औरतों को गर्भालय के बिना ज़रूरत आपरेशन किये, इसकी खबर भी कुछ वर्ष पहले अखबारों में छपी थी.

इन समाचारों व रिपोर्टों के बावजूद, क्या स्थिति कुछ सुधरी है? आप अपने व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में सोचिये और बताईये कि क्या चिकित्सा क्षेत्र में भ्रष्टाचार कम हुआ है या बढ़ा है?

विभिन्न जटिल स्थितियाँ

पर इस वातावरण में ईमानदार डाक्टर होना भी आसान नहीं. आप को कुछ भी रोग हो या तकलीफ़, चिकित्सक यह कहने से हिचकिचाते हैं कि उस तकलीफ़ का इलाज नहीं हो सकता. अगर वह ऐसा कहें भी तो मरीज़ इसे नहीं मानना चाहते हैं तथा सोचते हैं कि किसी अन्य जगह में किसी अन्य चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिये. यानि अगर कोई चिकित्सक ईमानदारी से समझाना चाहे कि उस बीमारी का कुछ इलाज नहीं हो सकता तो लोग कहते हें कि वह चिकित्सक अच्छा नहीं, उसे सही जानकारी नहीं.

अगर बिना ज़रूरत के एन्टीबायटिक, इन्जेक्शन आदि के दुर्पयोग की बात हो तो देखा गया है कि लोग यह मानते हैं कि मँहगी दवाएँ, इन्जेक्शन देने वाला डाक्टर बेहतर है. लोग माँग करते हैं कि उन्हें ग्लूकोज़ की बोतल चढ़ायी जाये या इन्जेक्शन दिया जाये क्योंकि उनके मन में यह बात है कि केवल इनसे ही इलाज ठीक होता है.

ऐसी एक घटना के बारे में कुछ दिन पहले असम के जोरहाट शहर के पास एक चाय बागान में सुना. बागान में काम करने वाले मजदूर के चौदह वर्षीय बेटे को दीमागी बुखार हुआ और बुखार के बाद वह दोनों कानों से बहरा हो गया. मेडिकल कालेज में उन्हें कहा गया कि दिमाग के अन्दर के कोषों को हानि पहुँच चुकी है जिसकी वजह से बहरा होने का कुछ इलाज नहीं हो सकता. उन्होंने सलाह दी कि लड़के को बहरों की इशारों की भाषा सिखायी जानी चाहिये. पर वह नहीं माने, बेटे को ले कर कई अन्य अस्पतालों में भटके. अंत में डिब्रूगढ़ के एक अस्पताल में बच्चे को भरती भी किया गया. कई जगह उसके एक्सरे, अल्ट्रसाउँड, केट स्केन जैसे टेस्ट हुए. इसी इलाज के चक्कर में उन्होंने अपनी ज़मीन बेच दी, कर्जा भी लिया, जिसे चुकाने में उन्हें कई साल लगेंगे, पर बेटे की श्रवण शक्ति वापस नहीं आयी. घर में सन्नाटे में बन्द बेटा अब मानसिक रोग से भी पीड़ित हो गया है. यह कथा सुनाते हुए उसके पिता रोने लगे कि बेटे की बीमारी में सारे परिवार के भविष्य का नाश हो गया.

इसमें किसको दोष दिया जाये? शायद भारत की सरकार को जो स्वतंत्रता के साठ वर्ष बाद भी नागरिकों को सरकारी चिकित्सा संस्थानों में स्तर की चिकित्सा नहीं दे सकती? उन चिकित्सा संस्थानों को जो जानते थे कि बहुत से टेस्ट ऐसे थे जिनसे उस लड़के को कोई फायदा नहीं हो सकता था लेकिन फ़िर भी उन्होंने करवाये? या उन माता पिता का, जो हार नहीं मानना चाहते थे और जिन्होंने बेटे को ठीक करवाने के चक्कर में सब कुछ दाँव पर लगा दिया?

जीवन के अंत की दुविधाएँ

शहरों में रहने वाले हों तो परिवार में किसी की स्थिति गम्भीर होते ही सभी अस्पताल ले जाने की सोचते हैं. लेकिन जब बात वृद्ध व्यक्ति की हो या फ़िर गम्भीर बीमारी के अंतिम चरण की, तो ऐसे में अस्पताल से हमारी क्या अपेक्षाएँ होती हैं कि वह क्या करेंगे? जो खुशकिस्मत होते हैं वह अस्पताल जाने से पहले ही मर जाते हैं. पर अगर उस स्थिति में अस्पताल पहुँच जायें,  तो उस अंतिम समय में क्या करना चाहये, यह निर्णय लेना आसान नहीं. कैंसर का अंतिम चरण हो या अन्य गम्भीर बीमारी जिससे ठीक हो कर घर वापस लौटना सम्भव नहीं तो मशीनों के सहारे जीवन लम्बा करना क्या सचमुच का जीवन है या फ़िर शरीर को बेवजह यातना देना है?

कोमा में हो बेहोश हो कर, मशीनों के सहारे कई बार लोग हफ्तों तक या महीनों तक अस्पतालों में आईसीयू पड़े रहते हैं. परिवार वालों के लिए यह कहना कि मशीन बन्द कर दीजिये आसान नहीं. उन्हें लगता है कि उन्होंने पैसा बचाने के लिए अपने प्रियजन को जबरदस्ती मारा है. व्यापारी मानसिकता के डाक्टर हों तो उनका इसी में फायदा है, वह उस अंतिम समय का लम्बा बिल बनायेंगे.

ईमानदार डाक्टर भी यह निर्णय नहीं लेना चाहते. वह कैसे कहें कि कोई उम्मीद नहीं और शरीर को यातना देने को लम्बा नहीं खींचना चाहिये? वह सोचते हैं कि यह निर्णय तो परिवार वाले ही ले सकते हैं. इस विषय में बात करना बहुत कठिन है क्योंकि मन में डर होता है कि उस परिस्थिति में कुछ भी कहा जायेगा तो उसका कोई उल्टा अर्थ न निकाल ले या फ़िर भी मरीज़ की हत्या करने का आरोप न लगा दिया जाये.

अपना बच्चा हो या अपने माता पिता, कहाँ तक लड़ाई लड़ना ठीक है और कब हार मान लेनी चाहिये, इस प्रश्न के उत्तर आसान नहीं. हर स्थिति के लिए एक जैसा उत्तर हो भी नहीं सकता. जब तक ठीक होने की आशा हो, तो अंतिम क्षण तक लड़ने की कोशिश करना स्वाभाविक है. लेकिन जब वृद्ध हों या ऐसी बीमारी हो जिससे बिल्कुल ठीक होना सम्भव नहीं हो या फ़िर जीवन तो कुछ माह लम्बा हो जाये पर वह वेदना से भरा हो तो क्या करना चाहिये? कौन ले यह निर्णय कि ओर कोशिश की जाये या नहीं?

अपने अंतिम समय का निर्णय

भारतीय मूल के अमरीकी चिकित्सक अतुल गवँडे ने अपनी पुस्तक "बिइन्ग मोर्टल" (Being Mortal) में इस विषय पर, अपने पिता के बारे में तथा अपने कुछ मरीजों के अनुभवों के बारे में बहुत अच्छा लिखा है. मालूम नहीं कि यह पुस्तक हिन्दी में उपलब्ध है या नहीं, पर हो सके तो इसे अवश्य पढ़िये. उनका कहना है कि हमें अपने होश हवास रहते हुए अपने परिवार वालों से इस विषय में अपने विचार स्पष्ट रखने चाहिये कि जब हम ऐसी अवस्था में पहुँचें, जब हमारी अंत स्थिति आयी हो, तो हमें मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखा जाये या नहीं. किस तरह की मृत्यू चाहते हैं हम, इसका निर्णय केवल हम ही ले सकते हैं. ताकि जब हमारा अंत समय आये तो हमारी इच्छा के अनुसार ही हमारा इलाज हो.

जब हमें होश न रहे, जब हम अपने आप खाना खाने लायक नहीं रहें या जब हमारी साँस चलनी बन्द हो जाये, तो कितने समय तक हमें मशीनों के सहारे "ज़िन्दा" रखा जाये? इसका निर्णय हमारी परिस्थितियों पर निर्भर करेगा और हमारे विचारों पर. अगर मैं सोचता हूँ कि महीनों या सालों, इस तरह स्वयं के लिए "जीवित" रहना नहीं चाहता तो आवश्यक नहीं कि बाकी लोग भी यही चाहते हैं. यह निर्णय हर एक को अपने विचारों के अनुसार लेने का अधिकार है. और आवश्यक है कि हम अपने प्रियजनों से इस विषय में खुल कर बात करें तथा अपनी इच्छाओं के बारे में स्पष्ट रूप से कहें.

अपने बारे में मेरी अंतिम इच्छा मेरे दिमाग में स्पष्ट है. मुझे लगता है कि मैंने अपना सारा जीवन पूरी तरह जिया है, अपने हर सपने को जीने का मौका मिला है मुझे. जहाँ तक हो सके, मैं अपने घर में मरना चाहूँगा. अगर मेरी स्थिति गम्भीर हो तो मैं चाहूँगा कि मुझे अपने पारिवार का सामिप्य मिले, लेकिन मुझे मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखने की कोई कोशिश न की जाये!

मैंने इस विषय में कई बार अपनी पत्नी, अपने बेटे से बात भी की है और अपने विचार स्पष्ट किये हैं. आप ने क्या सोचा है अपने अंतिम समय के बारे में?

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शुक्रवार, अप्रैल 04, 2014

यह जीवन किसका?

पाराम्परिक भारतीय सोच के अनुसार अक्सर बच्चों को क्या पढ़ना चाहिये और क्या काम करना चाहिये से ले कर किससे शादी करनी चाहिये, सब बातों के लिए माता पिता, भैया भाभी, दादा जी आदि की आज्ञा का पालन करना चाहिये. कुछ उससे मिलती जुलती सोच हमारे नेताओं और समाजसेवकों की है जो हर बात में नियम बनाते हैं कि कौन सी फ़िल्म को या किताब को बैन किया जाये, फैसबुक पर क्या लिखा जाये, साड़ी पहनी जाये, जीन्स पहनी जाये या स्कर्ट, बाल कितने लम्बे रखे जाये, आदि.

अपने बच्चों को अपने निर्णय अपने आप करने देने के विषय पर मुझे लेबानीज़ लेखक ख़लील गिब्रान की एक कविता बहुत अच्छी लगती है (अनुवाद मेरा ही है):
तुम्हारे बच्चे तुम्हारे बच्चे नहीं हैं
वह तो जीवन की अपनी आकाँक्षा के बेटे बेटियाँ हैं
वह तुम्हारे द्वारा आते हैं लेकिन तुमसे नहीं
वह तुम्हारे पास रहते हैं लेकिन तुम्हारे नहीं.
तुम उन्हें अपना प्यार दे सकते हो लेकिन अपनी सोच नहीं
क्योंकि उनकी अपनी सोच होती है
तुम उनके शरीरों को घर दे सकते हो, आत्माओं को नहीं
क्योंकि उनकी आत्माएँ आने वाले कल के घरों में रहती हैं
जहाँ तुम नहीं जा सकते, सपनों में भी नहीं.
तुम उनके जैसा बनने की कोशिश कर सकते हो,
पर उन्हें अपने जैसा नहीं बना सकते,
क्योंकि जिन्दगी पीछे नहीं जाती, न ही बीते कल से मिलती है.
तुम वह कमान हो जिससे तुम्हारे बच्चे
जीवित तीरों की तरह छूट कर निकलते हैं
तीर चलाने वाला निशाना साधता है एक असीमित राह पर
और अपनी शक्ति से तुम्हें जहाँ चाहे उधर मोड़ देता है
ताकि उसका तीर तेज़ी से दूर जाये.
स्वयं को उस तीरन्दाज़ की मर्ज़ी पर खुशी से मुड़ने दो,
क्योंकि वह उड़ने वाले तीर से प्यार करता है
और स्थिर कमान को भी चाहता है.
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इसी तरह की सोच हमारे जीवन के हर पहलू में होती है. डाक्टर बनो तो कुछ आदत सी हो जाती है कि लोगों को सलाहें दो कि उन्हें क्या करना चाहिये, क्या खाना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये. लोगों को भी यह अपेक्षा सी होती है कि डाक्टर साहब या साहिबा उन्हें कुछ नसीहत देंगे. मेडिकल कोलिज में मोटी मोटी किताबें पढ़ कर इम्तहान पास करने से मन में अपने आप ही यह सोच आ जाती है कि हम सब कुछ जानते हैं और लोगों को हमारी बात सुननी व माननी चाहिये. डाक्टरी की पढ़ाई पूरी करने के बाद, मैं भी बहुत सालों तक यही सोचता था. फ़िर दो अनुभवों ने मुझे अपनी इस सोच पर विचार करने को बध्य किया. आप को उन्हीं अनुभवों के बारे में बताना चाहता हूँ.

Doctor lives grafic by Sunil Deepak, 2014

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पहला अनुभव हुआ सन् 1989 में मुझे मोरिशयस द्वीप में, जब वहाँ एक विकलाँग जन पुनरस्थापन यानि रिहेबिलेटेशन कार्यक्रम (Disability rehabilitation programme) का निरीक्षण करने गया. चँकि मोरिशियस में बहुत से लोग भारतीय मूल के हैं, तुरंत वहाँ मुझे अपनापन सा लगा. पोर्ट लुईस के अस्पताल में फिजिकल थैरपी विभाग के अध्यक्ष डा. झँडू ने मुझे घुमाने के सारे इन्तज़ाम किये थे. एक फिज़ियोथैरेपिस्ट मेरे साथ थे और हम लोग एक गाँव में गये थे. वहीं एक घर में हम लोग एक स्त्री से मिलने गये जिनकी उम्र करीब चालिस पैतालिस के आसपास थी. बहुत छोटी उम्र से ही उस स्त्री के रीढ़ की हड्डी के जोड़ों में बीमारी थी जिससे उसके जोड़ अकड़े अकड़े से थे. वह सीधा नहीं खड़ा हो पाती थी, घुटनों के बल पर चलती थी. वैसे तो मोरिशयस में करीब करीब हर कोई अंग्रेज़ी, फ्रैंच व क्रियोल भाषाएँ बोलता है लेकिन वह स्त्री केवल भोजपुरी भाषा बोलती थी.

मेरे साथ जो फिज़ियोथैरेपिस्ट थे उन्होंने बताया कि पुनरस्थापन कार्यक्रम ने उस स्त्री के लिए एक लकड़ी का स्टैंड बनाया था, जिसे पकड़ कर वह उसके ऊपर तक पहुँच कर वहाँ लटक सी जाती थी और फ़िर स्टैंड की सहायता से चल भी सकती थी. जब उस स्त्री ने मुझे उस स्टैंड पर चढ़ कर दिखाया कि यह कैसे होता था, तो मुझे लगा कि उन लोगों ने यह ठीक नहीं किया था. उस घर का फर्श कच्चा था, ऊबड़ खाबड़ सा. उस फर्श पर लकड़ी के स्टैंड को झटके दे दे कर चलना कठिन तो था ही, खतरनाक भी था. मेरे विचार में इस तरह का स्टैंड बनाने से बेहतर होता कि तीन या चार पहियों वाला कुछ नीचा तख्त जैसे स्टैंड होता जिस पर वह अधिक आसानी से बैठ पाती और जिसमें गिरने का खतरा भी नहीं होता.

मेरी बात को जब उस स्त्री को बताया गया तो वह गुस्सा हो गयी. मुझसे बोली कि "सारा जीवन घुटनों पर रैंगा है मैंने. लोगों को सिर उठा कर देखना पड़ता है, मानो कोई कुत्ता हूँ. इस स्टैंड की मदद से मैं भी इन्सानों की तरह सीधा खड़ा हो सकती हूँ, लोगों की आँखों में देख सकती हूँ. जीवन में पहली बार मुझे लगता है कि मैं भी इन्सान हूँ. मुझे यही स्टैंड ही चाहिये, मुझे छोटी पटरी नहीं चाहिये!"

मैं भौचक्का सा रह गया. उसकी बात मेरे दिल को लगी. सोचा कि लाभ नुक्सान देखने के भी बहुत तरीके हो सकते हैं. मेरे तकनीकी दृष्टि ने जो समझा था वह उसकी भावनात्मक दृष्टि से और उसके जीवन के अनुभव से, बिल्कुल भिन्न था. पर वह जीवन उसका था और उसे का यह अधिकार था कि वही यह निर्णय ले कि उसके लिए कौन सी दृष्टि बेहतर थी.

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दूसरा अनुभव ब्राज़ील से एक शोध कार्यक्रम का है, जिसके लिए मैं एक विकलाँग युवती से साक्षात्कार कर रहा था. वह तीस बत्तीस साल की थी. दुबली पतली सी थी, और उसके चेहरे पर रेखाओं का महीन जाल सा बिछा था जो अक्सर उनके चेहरों पर दिखता है जिन्होंने बहुत यातना सही हो. हम लोग पुर्तगाली भाषा में बात कर रहे थे. उस युवती नें मुझे अपनी कहानी सुनायी.

वह पैदा हुई तो उसकी रीढ़ की हड्डी टेढ़ी थी, जिसे चिकित्सक "स्कोलिओसिस" कहते हैं. उसका परिवार एक छोटे से शहर के पास गाँव में रहता था जहाँ वे लोग खेती करते थे. छोटी सी थी जब उसे घर से बहुत दूर एक बड़े शहर में रीढ़ की हड्डी के ओपरेशन के लिए लाया गया. करीब पंद्रह वर्ष उसने अस्पतालों के चक्कर काटे, और उसके चार या पाँच ओपरेशन भी हुए.

वह बोली, "मेरा जीवन डाक्टरों ने छीन लिया. जब मुझे पहली बार अस्पताल ले कर गये तो ओर्थोपेडिक डाक्टर ने कहा कि ओपरेशन से मेरी विकलाँगता ठीक हो जायेगी. पर मेरे परिवार के पास इतने पैसे नहीं थे. फ़िर घर से दूर मेरे माता या पिता को मेरे साथ रहना पड़ता तो घर में काम कैसे होता? पर डाक्टर ने बहुत ज़ोर दिया, कि बच्ची ठीक हो सकती है और उसका ओपरेशन न करवाना उसका जीवन बरबाद करना है. अंत में मेरे पिता ने अपनी ज़मीन बेची दी, सारा परिवार यहीं पर शहर में रहने आ गया. पर उस डाक्टर ने सही नहीं कहा था. यह सच है कि ओपरेशनों की वजह से, अब मेरी रीढ़ की हड्डी कम टेढ़ी है. इससे मेरे दिल पर व फेफड़ों पर दबाव कम है, और मैं साँस बेहतर ले सकती हूँ. शायद मेरी उम्र भी कुछ बढ़ी है, नहीं तो शायद अब तक मर चुकी होती. पर इस सब के लिए मैंने व मेरे परिवार ने कितनी बड़ी कीमत चुकायी, उस डाक्टर ने इस कीमत के बारे में हमसे कुछ नहीं कहा था! जिस उम्र में मैं स्कूल जाती, पढ़ती, मित्र बनाती, खेलती, वह सारी उम्र मैंने अस्पतालों में काटी है. पंद्रह वर्ष मैंने अस्पताल के बिस्तर पर दर्द सहते हुए काटे हैं. हमने अपना गाँव, अपनी ज़मीन खो दी. मेरे भाई बहनों, माता पिता, सबने इसकी कीमत चुकायी है. कितने सालों तक माँ मेरे साथ अस्पताल में रही, मेरे भाई बहन बिना माँ के बड़े हुए हैं. डाक्टर ने हमें यह सब क्यों नहीं बताया था, क्यों नहीं हमें मौका दिया कि हम यह निर्णय लेते कि हम यह कीमत चुकाना चाहते हैं या नहीं? क्या फायदा है लम्बा जीवन होने का, अगर वह जीवन दर्द से भरा हो? क्या यह सचमुच जीवन है? क्या केवल साँस लेना और खाना खाना जीवन है? अगर घड़ी को पीछे ले जा सकते तो मैं अपना कोई ओपरेशन न करवाती. मैं स्कूल, मित्र, खेल को चुनती, अस्पतालों और ओपरेशनों को नहीं."

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इन दोनो अनुभवों का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा. बहुत सोचा है मैंने उनके बारे में. मैं अब मानता हूँ कि कुछ भी बात हो, जिसके जीवन के बारे में हो, उसे अपने जीवन के बारे में हर निर्णय में अपना फैसला लेने का अधिकार होना चाहिये. अक्सर हम सोचते हैं कि हम किसी की बीमारी या जीवन की समस्या के बारे में अधिक जानते हैं क्योंकि हम उस विषय में "विषेशज्ञ" हैं, लेकिन अधिक जानना हमें यह अधिकार नहीं देता कि हम उनके जीवन के निर्णय अपने हाथ में ले लें.

मेरे विचार में मेडिकल कालेज की पढ़ाई में "चिकित्सा व नैतिकता" के विषय पर भी विचार होना चाहिये. यानि हम सोचें कि जीवन किसका है, और इसके निर्णय किस तरह से लिये जाने चाहिये! अक्सर डाक्टरों की सोच भी "माई बाप" वाली होती है, जिसमें गरीब मरीज़ को कुछ समझाने की जगह कम होती है. सरकारी अस्पतालों में भीड़ भी इतनी होती है कि कुछ कहने समझाने का समय नहीं मिलता.

चिकित्सा की बात हो तो भाषा का प्रश्न भी उठता है. लोगों को अपने जीवन के निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिये, पर हम लोग अपना सारा काम अंग्रेज़ी में करते हैं, दवा, चिकित्सा, ओपरेशन, सब बातें अंग्रेज़ी में ही लिखी जाती हैं. जिन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती, वह उन कागज़ों से क्या समझते हैं? और अगर समझते नहीं तो कैसे निर्णय लेते हैं अपने जीवन के?

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चाहे बात हमारे बच्चों के जीवन की हो या अन्य, मेरे विचार में हम सबको अपने निर्णय स्वयं लेने का अधिकार है. मैं यह नहीं कहता कि यह माता पिता या घर के बुज़ुर्गों के लिए यह हमेशा आसान है, विषेशकर जब हमें लगे कि हमारे जीवन के अनुभवों से बच्चों को फायदा हो सकता है. पर बच्चों को अपने जीवन की गलतियाँ करने का भी अधिकार भी होना चाहिये, हमने भी अपने जीवन में कितनी गलतियों से सीखा है!

दूसरी बात है डाक्टर या शिक्षक जैसे ज़िम्मेदारी का काम जिसमें लोगों को अपने जीवन के निर्णय लेने के लिए तैयार करना व सहारा देना आवश्यक है. लोगों को गरीब या अनपढ़ कह कर, उनसे यह अधिकार छीनना भी गलत है. यह भी आसान नहीं है लेकिन मेरे अनुभवों ने सिखाया है कि यह भी उतना ही आवश्यक है.

आप बताईये कि आप इस विषय में क्या सोचते हैं? आप के व्यक्तिगत अनुभव क्या हैं?

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शुक्रवार, जुलाई 05, 2013

यह कैसी पत्रकारिता?

पिछले दो दशकों में भारत में टीवी चैनलों और इंटरनेट के माध्यम से पत्रकारिता के नये रास्ते खुले हैं. शायद पत्रकारिता के इतने सारे रास्ते होने के कारण ही पिछले कुछ सालों में किसी भी बात को बढ़ा चढ़ा कर उसे "ब्रेकिन्ग न्यूज़", कुछ जाने माने नाम हों उनके आसपास स्केन्डल बनाना और बातों को बिल्कुल न समझ कर या सतही तौर से समझ कर उन पर लिखना बढ़ता जा रहा है. यह सच है कि आज की दुनिया में पैसा कमाना ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है पर क्या मीडिया में किसी बात को ठीक से बताने समझाने की बिल्कुल कोई जगह नहीं है?

यह बातें मेरे मन में आयीं जब मैंने शाहरुख खान के बच्चे के पैदा होने से पहले उसके "सेक्स जानने के टेस्ट" कराने के "स्केन्डल" के बारे में पढ़ा. इस पर कुछ दिनों से लगातार समाचार छप रहे हैं और मुम्बई की रेडियोलोजिस्ट एसोसियेशन ने इस बात पर शाहरुख पर मुकदमा दायर किया है. क्या आप ने इस विषय पर एक भी समाचार या रिपोर्ट देखी जो बात को ठीक से समझने की कोशिश करे?

बच्चे का सेक्स टेस्ट कैसे होता है?

पहली बात जिसे समझने की आवश्यकता है वह है कि होने वाले बच्चे के सेक्स जानने का टेस्ट क्या होता है? यह टेस्ट कैसे किया जाता है? होने वाले बच्चे के लिँग को जानने का सबसे आसान तरीका है अल्ट्रासाउन्ड (Ultrasound) का टेस्ट. लेकिन क्या कानून कहता है कि अल्ट्रासाउन्ड न किया जाये?

अल्ट्रासाउन्ड एक तरह का एक्सरे होता है जिसमें ध्वनि की लहरों का प्रयोग किया जाता है और जिससे शरीर के भीतर के अंगों को देखा जा सकता है. गर्भवति औरतों की समय समय पर अल्ट्रासाउन्ड टेस्ट से जाँच की जाती है जिससे अगर माँ के गर्भ में पल रहे बच्चा ठीक से पनप रहा है, उसे कुछ तकलीफ़ तो नहीं, यह सब देखा जा सकता है. जब अल्ट्रासाउन्ड से बच्चे को देखते हैं तो उसके यौन अंगो के विकास से, आप यह भी देख सकते हैं कि होने वाला बच्चा लड़की होगी या लड़का.

कानून ने अल्ट्रासाउन्ड टेस्ट को मना नहीं किया है, क्योंकि यह टेस्ट करना माँ और होने वाले बच्चे की सेहत की रक्षा के लिए अमूल्य है. कानून ने केवल यह कहा है कि अल्ट्रासाउन्ड का टेस्ट करने वाले डाक्टरों को बच्चे के परिवार वालों को यह नहीं बताना चाहिये कि बच्चा लड़का है या लड़की. यह कानून इस लिए बनाया गया क्योंकि भारत में लड़कियों के भ्रूण गिराने की बीमारी हर प्रदेश, और समाज के हर स्तर के लोगों के बीच बुरी तरह से फ़ैली है और बढ़ती जा रही है.

सेक्स जाँच के टेस्ट

हर वर्ष भारत में लाखों लड़कियों की भ्रूण हत्या होती है और इसका सबसे बड़ा कारण भारत की सामाजिक सोच है. कानून के मना करने के बावज़ूद यह होता है क्योंकि परिवार वाले अधिक पैसा दे कर भी यह जानना चाहते हैं. टेस्ट करने वाले डाक्टर, चाहे वे पुरुष हों या नारी डाक्टर, परिवार को यह बात बताते हैं, और कानून तोड़ते हैं. कुछ इसलिए कि वह इस बात को मानते हैं कि बेटी होना अभिशाप है और बेटी का गर्भ गिराना ही बेहतर है पर मेरे विचार में अधिकतर डाक्टर यह पैसे के लालच में करते हैं.

भारतीय कानून नारी को गर्भ गिराने की पूरी छूट देता है, इसलिए नारी रोग विषेशज्ञ डाक्टरों को यह पूछने का अधिकार नहीं कि कोई औरत क्यों गर्भपात कराना चाहती है. लेकिन अगर डाक्टर यह जानता हो कि कोई यह जान कर कि बेटी होगी, इसलिए गर्भपात कराना चाहता है तो उन्हें यह नहीं करना चाहुये बल्कि कानून को रिपोर्ट करनी चाहिये. पर प्राइवेट नर्सिन्ग होम या अस्पताल वाले अगर पैसे कमा सकते हों तो क्या आप की राय में वह गर्भपात करने से मना करेंगे?

यानि लड़कियों की भ्रूण हत्या के लिए बेटियों के प्रति हमारी सामाजिक सोच और हर स्तर पर पैसा कमाने का लालच ज़िम्मेदार हैं. शहरों के पढ़े लिखे लोगों में और पैसे वाले लोगों में यह सोच अधिक गहरी है. पिछले वर्ष आमिर खान के कार्यक्रम "सत्यमेव जयते" में इस विषय में दिखाया गया था.

शाहरुख खान का बच्चा

समाचारों मे पढ़ा कि उनका बेटा सर्रोगेट मातृत्व से पैदा हुआ है. सार्रोगेट मातृत्व का सहारा तब लेते हैं जब प्राकृतिक माँ को गर्भ को पूरा करने में कोई कठिनाई हो. इसके लिए लेबोरेटरी में बच्चे की माँ की ओवरी यानि अण्डकोष से अण्डे को लिया जाता है और पिता के वीर्य से मिलाया जाता है. इस तरह से प्राप्त भ्रूण को, जिस स्त्री ने मातृत्व पूरा करने का काम लिया हो, उसके गर्भ में स्थापित किया जाता है. लेबोरेटरी में अण्डे तथा वीर्य को मिलाने से बीमारी वाला बच्चा न पैदा हो, इसके लिए कई तरह के टेस्ट किये जाते हैं जिनसे बच्चे को गर्भ में स्थापित करने से पहले ही या मालूम हो सकता है कि लड़का होगा या लड़की.

अगर माता या पिता में कोई इस तरह की बीमारी हो जो बच्चे को हो सकती है तो, उन बीमारियों को पहचानने, रोकने और स्वस्थ्य बच्चा पैदा करने लिए भी सर्रोगेट मातृत्व का सहारा लिया जाता है.  इस तरह के बच्चों के लिए, भ्रूण लड़का है या लड़की, यह जानना आवश्यक हो जाता है. भारतीय कानून इस बात की भी अनुमति देता है. भारतीय कानून का ध्येय है छोटे बड़े शहरों में अल्ट्रासाउन्ड क्लिनिकों का गलत उपयोग करने से रोकना ताकि लड़कियों की भ्रूण हत्या न हो.

इसलिए मेरे विचार में अगर शाहरुख खान को यह जानना ही था कि उनका होने वाला बच्चा बेटा होगा या बेटी तो उन्हें अल्ट्रासाउन्ड की आवश्यकता नहीं थी, इसलिए उन्होंने कानून नहीं तोड़ा. पर आप अपने दिल पर हाथ रखिये और कहिये कि यह हँगामा करने से पहले क्या मुम्बई की रेडियोलिजिस्ट एसोसियेशन ने और पत्रकारों ने यह सोचा कि यह कानून क्यों बनाया गया? और क्या सचमुच शाहरुख खान की बेटी होती तो वह बच्चे का गर्भपात कराते, क्या यह सोच कर इन लोगों ने सारा हँगामा किया है?

दिखावे के पीछे की सड़न

सच तो यह है कि हमारे देश के क्लिनिकों और अस्पतालों में हर दिन हज़ारों अल्ट्रासाउन्ड होते हैं, और लड़कियों के भ्रूण गिराये जाते हैं, पर कोई उन पर मुकदमें नहीं करता. मुम्बई की या देश की अन्य रेडियोलिस्ट एसोसियेशनो ने कितने डाक्टरों को इस कानून को तोड़ने के लिए एसियेशन से बाहर निकाला है या उन पर मुकदमा किया है? कितने पत्रकारों ने इस बात को ठीक से समझने की कोशिश की है और उस पर रिपोर्ट लिखी हैं कि भारत के कौन से क्लिनिक इस धँधे में लगे हैं?

यह सब तमाशा है, खबर बनाने का, चटखारे ले कर जाने माने लोगों के माँस को नोचने का, क्योंकि जितना मशहूर नाम होगा खबर उतनी ही बड़ी होगी, उतने अधिक पैसे बनेंगे. "सत्यमेव जयते" में दिखाया गया था कि जिन डाक्टरों को इसके बारे में कहते और करते हुए वीडियो पर तस्वीर ले ली गयी थी, वे भी बेधड़क धँधे में जारी थे, क्या प्रोग्राम के बाद उनके विरुद्ध कुछ हुआ?

अगर 2011 तथा 2001 में हुई जनगणना से मिली जानकारी देखें तो इन दस सालों में भारत के बहुत से राज्यों में लड़कियों की भ्रूण हत्या में कुछ कमी आयी है लेकिन सब कुछ मिला कर देखें तो राष्ट्रीय स्तर पर पैदा होने वाली लड़कियों की संख्या और कम हुई है.

2011 की जनगणना के अनुसार हर एक हजार पैदा होने वाले लड़कों के मुकाबले में लड़कियाँ 914 थीं. यानि करीब 8 प्रतिशत लड़कियाँ कम थीं.

केवल गर्भ में नहीं मरती लड़कियाँ, किसी भी बात में देखिये, चाहे स्वास्थ्य हो या शिक्षा, हर बात में लड़कियाँ लड़कों से पीछे हैं, बस मरने में ही उनका नम्बर सबसे आगे हैं. पर यह सब तो हमेशा होते ही रहते हैं, इससे क्या समाचार बनेगा? समाचार तो शाहरुख के नाम से बनता है. समाचारों की नैतिकता की बात करने का किसके पास समय है?

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गुरुवार, अप्रैल 11, 2013

इतिहास के धागे


आन्यो (Agno) नदी के किनारे एक छोटा सा शहर बसा था, वल्दान्यो (Valdagno). वल्दान्यो माने "आन्यो की घाटी". वल्दान्यो से करीब पाँच किलोमीटर दूर, दक्षिण पूर्व में, जहाँ पहाड़ शुरु होते हैं, वहीं के एक छोटे से गाँव कोरनेदो (Cornedo) में सन् 1880 के आसपास एउजेनियो को जन्म हुआ था.

तब कोरनेदो गाँव के बीच में एक गिरजाघर, एक पानी लेने और कपड़े धोने की जगह, कुछ दुकाने और दो चार घर थे, बस. गाँव के बाकी लोग अपने अपने "कोन्त्रा" (contrà) में रहते थे. कोन्त्रा यानि कुछ घरों के झुरमुट. एक कोन्त्रा में एक परिवार का सारा खानदान साथ रहता, और उसके आसपास उस परिवार के खेत और जानवरों को चराने की जगहें होती. किसान परिवारों के आठ-दस-बारह बच्चे होते, जो जब बड़े होते तो उनके घर वहीं आसपास बन जाते, कुछ बच्चे बड़े हो कर जीवनी खोजने शहरों की ओर निकल जाते.

आज कोरनेदो छोटा शहर है. आसपास के पहाड़ों में, शहर से दूर, कुछ पुराने कोन्त्रा अब भी बचे हुए हैं. लेकिन अब छोटे परिवार होते हैं इसलिए अब एक कोन्त्रा में एक खानदान नहीं रहता, घरों में अलग अलग परिवार रहते हैं.

जहाँ एउजेनियो का परिवार रहता था उसका नाम था "कोन्त्रा ज़ारानतोनेल्लो". एउजेनियो का एक बड़ा भाई था, ज्योवानी और एक बहन, एम्मा. उनके पारिवारिक नाम ज़ारानतोनेल्लो के "ज़ारा" शब्द के अर्थ पर कुछ विवाद था. कोई कहता कि यह नाम किसी पूर्वी यूरोप से आने वाले पूर्वज़ की वजह से था. कोई कहता कि रूस के राजपरिवार ज़ार की वजह से यह नाम मिला था. इतिहास कुछ भी था, उसे जाँचने का कोई तरीका नहीं था. लेकिन इतिहासकारों के अनुसार, उत्तरी इटली के इस इलाके में पहले परिवार सन 900-1000 ईस्वी के आसपास बसे जब दक्षिण जर्मनी से परिवार यहाँ रहने आये.

1894 के आसपास एउजेनियो ने अपना गाँव छोड़ा और 16 किलोमीटर दूर लेओग्रा (Leogra) नदी पर बसे छोटे से शहर स्कियो (Schio) में आ गया. जहाँ ऊन बनाने की एक फैक्टरी में कारीगरों की आवश्यकता थी. तब वल्दान्यो तथा स्कियो के बीच पक्की सड़क नहीं थी. दोनो शहरों के बीच में ऊँचा पहाड़ था, मग्रे (Magré). एक शहर से दूसरे शहर जाने के लिए घोड़े या टट्टू की आवश्यकता होती, पर अधिकतर लोग पैदल ही जाते. पहाड़ पार करने में पूरा दिन लग जाता था.

ऊन की फैक्टरी में काम करने वालों के लिए लेओग्रा नदी के किनारे घर बनवाये गये थे. वहीं एक घर एउजेनियो को भी मिला. मासिक पगार में से कुछ पैसे घर के लिए कट जाते, इस तरह से कुछ दशकों में वह घर एउजेनियो ने खरीद लिया. फैक्टरी में विभिन्न स्तरों पर काम करने वाले लोगों के अलग अलग तरह के घर थे - मजदूरों के लिए छोटे घर, और मशीनों को चलाने वाले या सुपरवाइज़रों के लिए, कुछ बड़े घर. फैक्टरी का नाम था लानेरोस्सी (Lanerossi) यानि "रोस्सी की ऊन", जिसका मालिक रोस्सी परिवार था.

पर लानेरोस्सी ऊन फैक्टरी के मालिक सोचते थे कि सब लोगों को मिल जुल कर रहना चाहिये, पगार या काम की वजह से, लोगों के बीच में ऊँच नीच नहीं होनी चाहिये. इसलिए छोटे और बड़े घर साथ साथ बने मिलजुल कर बनाये गये थे. यानि घरों की एक कतार में, एक दो घर बहुत बड़े बनाये गये थे, बीच में कुछ घर मध्यम बड़े बने थे, जबकि मजदूरों वाले घर छोटे थे.

एउजेनियो को मज़दूरी का काम मिला था, इसलिए उसका घर छोटा था. दो कमरे थे, एक कमरा नीचे और एक ऊपर. घर के आगे पीछे कुछ फ़ल सब्ज़ी लगाने की जगह थी. पीछे आँगन में टीन की छत का कच्चा पाखाना बना था. नीचे वाले कमरे में एक दीवार में आग जलाने की जगह थी जहाँ खाना बनता. नहाने की कोई अलग जगह नहीं थी, बस आँगन में पानी का पम्प था. सर्दी में जब बर्फ़ जमती और तापमान शून्य से नीचे जाता तो लोग गीले कपड़े से बदन पोछ लेते, नहाना तो सम्भव नहीं था.

एउजेनियो ने अपने गाँव की लड़की एम्मा से विवाह किया, पर बहुत देर से. शायद पहले किसी युवती से प्रेम था, जो सफ़ल नहीं हुआ था. तीन बच्चे हुए, एक बेटा मारियो, और दो बेटियाँ -  लीना और एम्मा. इस तरह घर में तीन एम्मा थीं, एउजेनियो की बहन एम्मा, पत्नी एम्मा और छोटी बेटी भी एम्मा.

उस समय घर में दस बारह लोग रहते थे. रिश्तेदारों में किसी को भी आवश्यकता होती तो यहीं आ कर रहता. एक कमरे में चार पाँच लोग सो जाते, एक दो लोग बाहर से आते तो बाकी लोग उनके लिए जगह बना देते.

1914-18 में प्रथम विश्व युद्ध हुआ तो उसका एक मोर्चा शहर से थोड़ी दूर, उत्तर में पासूबियो पहाड़ पर था. मारियो छोटा था, युद्ध में जाने से बच गया. घर के पास ही युद्ध में घायल सिपाहियों का अस्पताल बना था, जहाँ अमरीका से आये सिपाहियों में से अर्नेस्ट हेमिंगवे (Ernest Hemingway) नाम का एक नवयुवक भी था, जो अस्पताल की एमबुलेन्स में काम करता था, और बाद में प्रसिद्ध अमरीकी लेखक बना. उस पुराने अस्पताल की दीवार पर हेमिंगवे का नाम लिखा गया है.

49 वर्ष के थे एउजेनियो, जब दाँत निकलवाने गये और वहीं डैंटिस्ट की कुर्सी पर ही दम तोड़ दिया. तब तक छोटी बेटी एम्मा की मृत्यू हो चुकी थी. उस समय तक स्कियो के ऊन उद्योग इतना सफ़ल हुआ था कि शहर में कई ऊन की फैक्टरियाँ बन चुकी थीं. स्कियो की बढ़िया ऊन की चर्चा देश विदेश में होती.

एउजेनियो के बेटे मारियो को मोटरसाइकल का बहुत शौक था, उन्होंने मेकेनिक की नौकरी कर ली, जबकि बेटी लीना प्राथमिक स्कूल में पढ़ाने लगी.

मारियो मेरे ससुर थे. मैं उनसे कभी नहीं मिला, क्योंकि हमारे विवाह के कुछ वर्ष पहले ही उनका देहाँत हो गया था. उनकी पत्नी, यानि मेरी सास मारिया, स्कियो शहर के उत्तर में एक अन्य छोटे से गाँव से थीं, लेकिन उनका जन्म जर्मनी में हुआ था, जहाँ उनके पिता एक कोयले की खान में मज़दूर थे.

जिस घर में एउजेनियो 120 साल पहले रहने आये थे, उसी घर में बैठ कर मैं यह आलेख लिख रहा हूँ. जिस कमरे में मैं बैठा हूँ, यहाँ द्वितीय विश्व युद्ध में दो जर्मन सिपाही रहते थे. इन सभी घरों को जर्मन फौज ने ले लिया था, और रहने वाले परिवारों को छत के नीचे या बेसमैंट में रहना पड़ता.

समय के साथ, घर में और कमरे जुड़े, पानी आया, बिजली आयी, गैस आयी. इसी घर में मेरे ससुर पैदा हुए थे. मेरी पत्नी भी इसी घर में पैदा हुई थी. करीब ही वह घर है जहाँ मेरी पत्नी को पैदा करवाने वाली दायी रहती थी, अब वहाँ उस दायी का पोता रहता है. हमारा बेटा अस्पताल में पैदा हुआ था, पर दो दिन के बाद उसे भी इसी घर में ले कर आये थे. पिछले कुछ सालों से यहाँ मेरी पत्नी के सबसे बड़े भाई अकेले रहते थे. उनकी मृत्यू के बाद यह घर हमारा हो गया है, और हम लोग यहाँ छुट्टियों में रहने आते हैं.

यह शहर पहाड़ों से घिरा है. पहले कुछ छोटे पहाड़ हैं जैसे सुम्मानो, नवेन्यो, वेलो, मग्रे और रागा. उनके पीछे ऊँचे पहाड़ हैं जो सारा वर्ष बर्फ़ से ढके रहते हैं, जैसे कोर्नेत्तो, बाफेलान, करेगा, पासूबियो, आदि. घर से बाहर निकलते ही लोगों से नमस्ते शुरु हो जाती है. हालाँकि पिछले दशकों में यहाँ रहने वाले बहुत लोग बदले हैं, पर बहुत से पुराने परिवार अब भी वही हैं, जो एक दूसरे की पुश्तों को जानते हैं. पत्नी साथ न हो तो मैं उन्हें नहीं पहचान पाता लेकिन वे मुझे पहचानते हैं.

मेरी पत्नी के मौसेरे, चचेरे, ममेरे परिवारों के रिश्तों का जाल फ़ैला है हमारे घर के चारों ओर, हालाँकि उनमें से किसी के घरों में आने जाने का रिवाज़ नहीं है. मेरी पत्नी से कभी कभी किसी रिश्तेदार की टेलीफ़ोन पर बात होती है, पर उसके अतिरिक्त शादी ब्याह पर भी नहीं बुलाये जाते. पहले ऐसा नहीं था. मेरे बड़े साले बताते थे कि जब वह छोटे थे तो परिवार के लोगों के यहाँ आना जाना नियमित होता था, विवाह या त्योहारों पर सब लोग मिलते थे. बदलाव 1950-60 के दशकों में आया जब समृद्धी बढ़ी, परिवार छोटे होने लगे. अब अपने विवाह में बच्चे कभी कभी अपने माता पिता तक को नहीं बुलाते. जब मेरी सास जीवित थीं तब उनकी बहनों, तथा उनके परिवारों से कुछ मुलाकात हुई थी.

हमारे इन पुराने फैक्टरी के घरों को स्कियो शहर के उद्योगिक इतिहास का हिस्सा मान कर शहर की  "साँस्कृतिक धरौहर" कहते हैं. इसलिए इन घरों को बाहर से बदला नहीं जा सकता, न ही बाहर कुछ नया बना सकते हैं, न ही घरों के रंग बदल सकते हैं. जिस तरह के यह घर बने थे, बाहर से आज भी वैसे ही दिखते हैं. उस समय के हिसाब से इन घरों के सामने की सड़क चौड़ी रही होगी, हालाँकि आजकल कारों के खड़े रहने थे, छोटी लगती है.

"वह खिड़की देखो", मेरी पत्नी ने मुझसे कहा. हम लोग शाम को सैर को निकले थे. पुरानी गिरती हुई इमारत थी, जहाँ किसी ज़माने में ऊन की फैक्टरी होती थी. वह फैक्टरी तो अब कुछ दशकों से बन्द पड़ी है. "वहाँ काम करती थी मेरी माँ", मेरी पत्नी ने मुझे इशारा करके बताया, "मैं स्कूल से आती तो माँ को उस खिड़की पर देखती थी, कुछ कहना होता तो माँ मुझे इशारा कर देती थी."

हम दोनो जब भी सैर को निकलते हैं तो हर बार मेरी पत्नी बीते कल की बातें बताती रहती है. जब वह कहती है कि "यहाँ हम साइकल से आते थे" तो कभी कभी विश्वास नहीं होता, इतनी दूर ऊँचे पहाड़ पर साइकल चला कर आना कैसे हो सकता था? आजकल के बच्चे बड़े तो ऐसा नहीं करते!

इक्का दुक्का छोड़ कर, यहाँ की ऊन की सभी फैक्टरियाँ कब की बन्द हो चुकी हैं. अब यहाँ ऊन चीन या भारत आदि देशों से आयात करते हैं. कार से जाओ तो, हमारे घर से, मेरे ससुर के पिता एउजेनियो के गाँव कोरनेदो जाने में करीब आधा घँटा लगता है. पिछले कुछ दशकों तक यहाँ विभिन्न तरह के नये उद्योग बने थे. लुक्सओटिका और बेनेटोन जैसी फैक्टरियों ने विश्व भर में सफलता पायी थी. लेकिन थोड़े ही समय में वैश्वीकरण से वह सब बदलने लगा है. उद्योगपति यहाँ की फैक्टरियाँ बन्द करके विकासशील देशों में फैक्टरियाँ लगा रहे हैं. लोग यह छोटा शहर छोड़ कर, बड़े शहरों की ओर प्रस्थान कर रहे हैं.

अब यहाँ शहर में पिछले बीस वर्षों में उत्तरी अफ्रीका, मध्यपूर्व और एशिया से बहुत से प्रवासी आ गये हैं. बँगलादेशी दुकान में सब मिर्च मसाला मिल जाते हैं. आसपास के पहाड़ी गाँवों में भी कभी कभी बुर्का पहने या शाल से सिर को ढकने वाली औरतें दिख जाती हैं. दुनिया बदल रही है, यह शहर भी बदलने को मजबूर हैं.

Agno river, Valdagno, family story - S. Deepak, 2011-13
Schio, family story - S. Deepak, 2011-13
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Schio, family story - S. Deepak, 2011-13
Schio evening - S. Deepak, 2011-13

ऐसे ही सदियों से एक धारा में चलने वाले जीवन बदल रहे हैं. पुरानी जीवन धारा बदल कर नयी धाराएँ बन रही हैं. समय के साथ बदलते शहर और घर, और बदलते हम, हमारे इतिहास और शहरों के इतिहास. सारे धागे आपस में जुड़े, मिले हुए हैं. जब तक हम हैं तो सब कुछ महत्वपूर्ण लगता है, पर जाने के बाद कुछ साल दशक बीत जाते हैं और धीरे धीरे सब गुम हो जाता है.

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