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मंगलवार, अगस्त 29, 2023

"आदिपुरुष" की राम कथा

कुछ सप्ताह पहले आयी फ़िल्म "आदिपुरुष" का जन्म शायद किसी अशुभ महूर्त में हुआ था। जैसे ही उसका ट्रेलर निकला, उसके विरुद्ध हंगामे होने लगे। कुछ मित्रों ने देख कर फ़िल्म के बारे में कहा कि वह तीन घंटों की एक असहनीय यातना थी, जिसकी जितनी बुराईयाँ की जायें, वह कम होंगी। जब फ़िल्म के बारे में इतनी बुराईयाँ सुनी तो मन में उसे देखने की इच्छा का जागना स्वाभाविक था, कि मैं भी देखूँ और फ़िर उसकी बुराईयाँ करूँ। चूँकि फ़िल्म नेटफ्लिक्स पर है तो उसे देखने का मौका भी मिल गया।

जैसा कि अक्सर होता है, जब किसी फ़िल्म की बहुत बुराईयाँ सुनी हों और उसे देखने का मौका मिले तो लगता है कि वह इतनी भी बुरी नहीं थी। "आदिपुरुष" देख कर मुझे भी ऐसा ही लगा, बल्कि लगा कि उसके कुछ हिस्से और बातें अच्छी थीं।

फ़िल्म की जो बातें मुझे नहीं जंचीं

लेकिन इस आलेख की शुरुआत उन बातों से करनी चाहिये जो मुझे भी अच्छी नहीं लगी। उनमें सबसे पहली बात है कई जगहों पर कम्प्यूटर ग्राफिक्स का प्रयोग अच्छा नहीं है। जैसे कि मुझे कम्प्यूटर ग्राफिक्स से बने दोनों पक्षी, यानि रावण का वहशी वाहन और जटायू, यह दोनों और उनकी लड़ाई वाले हिस्से अच्छे नहीं लगे। इसी तरह से बनी वानर सैना भी मुझे अच्छी नहीं लगी। फ़िल्म के जिन हिस्सों में यह सब थे, मुझे लगा कि वह कमज़ोर थे, क्योंकि उनमें अत्याधिक नाटकीयता थी जिसकी वजह से उन दृष्यों से भावनात्मक जुड़ाव नहीं बनता था।

लेकिन इन हिस्सों के अतिरिक्त कुछ अन्य हिस्से थे, जहाँ के कम्प्यूटर ग्राफिक्स मुझे अच्छे लगे, हालाँकि मेरे विचार में फ़िल्म में कपिदेश तथा लंका वाले हिस्सों में श्याम और गहरे नीले रंगों को इतनी प्रधानता नहीं देनी चाहिये थी। शायद फ़िल्म के यह काले-गहरे नीले रंगों वाले हिस्से हॉलीवुड की चमगादड़-पुरुष यानि बैटमैन की फ़िल्मों से कुछ अधिक ही प्रभावित थे। इसी तरह से फ़िल्म के अंत में रावण के शिव मंदिर से बाहर निकलने वाले दृश्य में हज़ारों चमगादड़ जैसे जीवों का निकलना भी उसी प्रभाव का नतीज़ा था।

भारतीय कथा-कहानियों के कल्पना जगत, उनके भगवान और उनके लीलास्थल, रोशनी और रंगों से भरे हुए होते हैं, जैसा कि हमारे मंदिरों की मूर्तियों, रामलीलाओं, नाटकों और नृत्यों में होता है। बजाय "बैटमैन" से प्रेरणा लेने के, अगर फ़िल्म "अवतार" जैसे प्रज्जवलित रंगो वाले संसार की सृष्टि की जाती तो वह बेहतर होता (फ़िल्म में जंगल के ऐसे कुछ हिस्से हैं, लेकिन थोड़े से हैं).

फ़िल्म में "सोने की लंका" को काले पत्थर की लंका बना दिया गया है, जो मेरी कल्पना वाली लंका से बिल्कुल उलटी थी।

लंका की अशोक वाटिका, जहाँ जानकी कैद होती हैं, को इस फ़िल्म में जापानी हानामी फैस्टिवल जैसा बनाया गया है जिसमें काले पत्थरों के बीच में गुलाबी चैरी के फ़ूलों से भरे पेड़ लगे हैं जो देखने में बहुत सुन्दर लगते हैं। हालाँकि यह भी मेरी कल्पना की अशोक वाटिका से भिन्न थी, लेकिन यह मुझे अच्छी लगी, क्योंकि मुझे लगा कि इन दृश्यों में वे काले पत्थर जानकी की मानसिक दशा को अभिव्यक्त करते थे। फ़िल्म के अभिनेताओं में मुझे जानकी का भाग निभाने वाली अभिनेत्री सबसे अच्छी लगीं।

हनुमान, सुग्रीव तथा वानर सैना

जब फ़िल्म का ट्रेलर आया था तो लोग उसमें हनुमान जी के स्वरूप को देख कर बहुत क्रोधित हुए थे। फ़िल्म में हनुमान जी को देख कर मुझे भी शुरु में कुछ अजीब सा लगा लेकिन फ़िर मुझे वह अच्छे लगे। लोग उनके डायलोग सुन कर भी खुश नहीं थे, जबकि मुझे लगा कि इस तरह से फ़िल्म में हनुमान जी की वानर बुद्धि दिखाई गयी है। यानि इसके हनुमान जी सीधी-साधी सोच वाले, कुछ-कुछ गंवार से हैं, लेकिन राम-भक्ती से भरे हैं। वह ऐसे जीव हैं जिन्हें ऊँची जटिल बातों और कठिन पहेलियों के उत्तर नहीं आते, लेकिन वह हर बात को अपनी राम-भक्ति के चश्में से देख कर उनका सहज उत्तर खोज लेते हैं। मुझे उनका यह गैर-बुद्धिजीवि रूप अच्छा लगा।

फ़िल्म में वानरों और कपि-पुरुषों को भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाया गया है। जैसे कि अगर हनुमान जी की त्वचा मानवीय लगती है तो बाली और सुग्रीव की गोरिल्ला जैसी। साथ में वानर भी विभिन्न प्रकार के हैं। मेरी समझ में फ़िल्म में इस तरह से वानर सैना और कपिराजों को आदिकालीन प्राचीन मानव की विभिन्न नसलों की तरह बनाया गया है।

मैंने बचपन से रामपाठ और रामलीलाएँ देखी हैं, उनमें सामान्य लोकजन के लिए हँसी-मज़ाक भी होता है और नर्तकियों के झटकेदार नृत्य भी होते हैं, जबकि कुछ लोग जो फ़िल्म की बुराई कर रहे थे,उन्हें इन सब बातों से आपत्ति थी। रामकथा को धर्म और श्रद्धा से सुनने का अर्थ यह बन गया है कि उसमें से लोकप्रिय हँसी-मजाक और ठुमके वाले गीत-नृत्यों आदि को निकाल दिया जाये। मेरी दृष्टि में यह गलती है। यह सच है कि अन्य धर्मों के पूजा स्थलों पर चुपचाप रहना और गम्भीर चेहरा बनाना होता है, वहाँ पर हँसी-मज़ाक की जगह नहीं होती, लेकिन मैंने मन्दिरों में, तीर्थ स्थलों आदि में आम जनता को कभी चुपचाप नहीं देखा, फ़िल्मी धुनों पर भजन और गीत गाना, हँसी-मज़ाक करना, अड़ोसियों-पड़ोसियों की आलोचना करना, मन्दिरों में और तीर्थस्थलों पर यह सब कुछ आनंद से होता है। अन्य धर्मों की देखा-देखी, हिन्दू धर्म की खिलंदड़ता और आनंद को दायरों में बाँधना, कहना कि ऐसा न करो, वैसा न करो, मुझे गलत लगता है।

रामकथा की नयी परिकल्पना

रामायण की कथा को अनेकों बार विभिन्न रूपों में परिकल्पित किया गया है। इन सब परिकल्पनाओं में तुलसीदास जी की रामचरित मानस का विशिष्ठ स्थान है। लेकिन यह कहना कि रामकथा को नये समय के साथ नये तरीकों से परिभाषित न किया जाये, तो बहुत बड़ी गलती होगी। हमारे उपनिषद कहते हैं कि हर जीव में ईश्वर हैं और जीवन के अंत में हर आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है, यानि "अहं शिवं अस्ति", हमारे भीतर शिव हैं, इसलिए हर आत्मा को अधिकार है कि वह अपनी समझ से अपने ईश्वर से बात करे। जब आप यह बात स्वीकार करते हैं तो क्या व्यक्ति से अपने अंदर के भगवान से बात करने के उसके अधिकार को छीन लेंगे? रामायण को और धर्म से जुड़ी हर बात को, हर कोई अपनी दृष्टि से परिभाषित कर सके, यह भी तो हमारा अधिकार है।

यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हम लोग समय और विकास के साथ, अपने धर्म को बदल व सुधार सकें, उसे सही दिशा में ले कर जायें।

इस दृष्टि से "आदिपुरुष" में रामकथा के कुछ हिस्सों की नयी परिभाषा की गयी है जो मुझे अच्छी लगीं। जैसे कि बाली और सुग्रीव के युद्ध में राम का हस्ताक्षेप। रामलीला में जब यह हिस्सा आता था तो मुझे हमेशा लगता था कि राम ने छिप कर बाली पर पीठ से वार करके सही नहीं किया, क्योंकि इसमें मर्यादा नहीं थी। लेकिन "आदिपुरुष" में इस घटना को जिस तरह से दिखाया गया है, वह नयी परिभाषा मुझे अच्छी लगी।

ऐसे ही रामलीला में लक्ष्मण का सूर्पनखा की नाक को काटना भी मुझे हमेशा गलत लगता था लेकिन फ़िल्म में इस घटना को जिस तरह दिखाया गया है, जिसमें लक्ष्मण सीता जी की रक्षा के लिए दूर से सूर्पनखा पर वार करते हैं जो उसकी नाक पर लग जाता है, यह परिकल्पना भी मुझे अच्छी लगी।

लेकिन फ़िल्म का रावण मुझे विद्वान और ज्ञानी ब्राह्मण कम और सामान्य खलनायक अधिक लगा। फ़िल्म के प्रारम्भ में उसकी तपस्या से खुश हो कर जब ब्रह्मा जी उसे वरदान देते हैं तब भी उसे दम्भी, अहंकारी दिखाया गया है, तो मन में प्रश्न उठा कि ब्रह्मा जी कैसे भगवान थे कि वह उसके मन की इन भावनाओं को देख नहीं पाये? क्या तपस्या का अर्थ केवल शरीर को कष्ट देना या ध्यान करना है, उसमें मन का शुद्धीकरण नहीं चाहिये? बाद में रावण का सीताहरण भी केवल वासना तथा अहंकार का नतीजा दिखाया गया है। रावण के व्यक्तित्व से जुड़ी यह दोनों बातें मुझे इस फ़िल्म की कमज़ोरी लगीं।

लेकिन रामानंद सागर की रामायण या रामलीला में डरावना दिखाने के लिए जिस तरह से "हा-हा-हा" करके हँसने वाले रावण या कुंभकर्ण आदि दिखाये जाते थे, वे यहाँ नहीं दिखे, यह बात मुझे अच्छी लगी।

और अंत में

मुझे "आदिपुरुष" फ़िल्म बुरी नहीं लगी, बल्कि इसके कुछ हिस्से और फ़िल्म का संगीत बहुत अच्छे लगे। मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूँ जो फ़िल्मों को बैन करने की बात करते हैं। मेरे विचार में हमें रामकथा या महाभारत या अन्य धार्मिक कथाओ को नये तरीकों से परिभाषित करते रहना चाहिए। अगर आप को उन नयी परिभाषाओ से आपत्ति है तो उसके विरुद्ध लिखिये, या आप अपनी नयी परिभाषा गढ़िये।  

पिछले कुछ समय से बात-बात पर कुछ लोग सोशल मीडिया पर उत्तेजित हो कर तोड़-फोड़ या बैन की बातें करने लगते हैं। कहते हैं कि उन्होंने हमारे भगवान का या धर्म का या भावनाओ का अपमान किया है, इसलिए हम इस नाटक, फ़िल्म, कला या किताब को बाहर नहीं आने देंगे, दंगा कर देंगे या आग लगा देंगे। मेरे विचार में इन लोगों को हिन्दू धर्म का ज्ञान नहीं है और यह देवनिंदा को अन्य धर्मों की दृष्टि से देखते हैं (मैंने "देवनिंदा" के विषय पर पहले भी लिखा है, आप चाहे तो उसे पढ़ सकते हैं।) मुझे लगता है कि यह उनके आत्मविश्वास की कमी तथा मन में हीनता की भावना का नतीजा है। 

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मंगलवार, जून 21, 2022

धर्मों की आलोचना व आहत भावनाएँ

आप के विचार में धर्मों की, उनके देवी देवताओं की और उनके संतों और पैगम्बरों की आलोचना करना सही है या गलत?

मेरे विचार में धर्मों से जुड़ी विभिन्न बातों की आलोचना करना सही ही नहीं है, आवश्यक भी है।

अगर आप सोचते हैं कि अन्य लोग आप के धर्म का निरादर करते हैं और इसके लिए आप के मन में गुस्सा है तो यह आलेख आप के लिए ही है। इस आलेख में मैं अपनी इस सोच के कारण समझाना चाहता हूँ कि क्यों मैं धर्मों के बारे में खुल कर बात करना, उनकी आलोचना करने को सही मानता हूँ।



धर्मों की आलोचना का इतिहास

अगर एतिहासिक दृष्टि से देखें तो हमेशा से होता रहा है कि सब लोग अपने प्रचलित धर्मों की हर बात से सहमत नहीं होते और उनकी इस असहमती से उन धर्मों की नयी शाखाएँ बनती रहती हैं। उस असहमती को आलोचना मान कर प्रचलित धर्म उसे दबाने की कोशिश करते हैं, लेकिन फ़िर भी उस आलोचना को रोकना असम्भव होता है। यही कारण है कि दुनिया के हर बड़े धर्म की कई शाखाएँ हैं, और उनमें से आपस में मतभेद होना या यह सोचना सामान्य है कि उनकी शाखा ही सच्चा धर्म है, बाकी शाखाएँ झूठी हैं। कभी कभी एक शाखा के अनुयायी, बाकियों को दबाने, देशनिकाला देने या जान से मार देने की धमकियाँ देते हैं।

उदाहरण के लिए - ईसाई धर्म में कैथोलिक और ओर्थोडोक्स के साथ साथ प्रोटेस्टैंट विचार वालों के अनगिनत गिरजे हैं; मुसलमानों में सुन्नी और शिया के अलावा बोहरा, अहमदिया जैसे लोग भी हैं; सिखों के दस गुरु हुए हैं और हर गुरु के भक्त भी बने जिनसे खालसा, नानकपंथी, नामधारी, निरंकारी, उदासी, सहजधारी, जैसे पंथ बने।

जब धर्मों की नयी शाखाएँ बनती हैं तो उसके मूल में अक्सर आलोचना का अंश भी होता है। जैसे कि सोलहवीं शताब्दी में जब जर्मनी में मार्टिन लूथर ने ईसाई धर्म की प्रोटेस्टैंट धारा को जन्म दिया तो उनका कहना था कि कैथोलिक धारा अपने मूल स्वरूप से भटक गयी थी, उसमें संत पूजा, देवी पूजा और मूर्तिपूजा जैसी बातें होने लगी थीं। इसी तरह, उन्नीसवीं शताब्दी में सिख धर्म में सुधार लाने के लिए निरंकारी और नामधारी पंथों को बनाया गया। कुछ इसी तरह की सोच से कि हमारा धर्म अपना सच्चा रास्ता भूल गया है और उसे सही रास्ते पर लाना है, अट्ठारहवीं शताब्दी में सुन्नी धर्म के सुधार के लिए वहाबी धारा का उत्थान हुआ।

इन उदाहरणों के माध्यम से मैं कहना चाहता हूँ कि धर्मों में आलोचना की परम्पराएँ पुरानी हैं और यह सोचना कि अब कोई हमारे धर्म के विषय में कुछ आलोचनात्मक नहीं कहेगा, यह स्वाभाविक नहीं होगा।

भारतीय धर्मों में आलोचनाएँ

हिंदू धर्म ग्रंथ तो प्राचीन काल से धर्मों पर विवाद करने को प्रोत्साहन दते रहे हैं। धर्मों की इतनी परम्पराएँ भारत उपमहाद्वीप में पैदा हुईं और पनपी कि उनकी गिनती असम्भव है। कहने के लिए भारत की धार्मिक परम्पराओं को चार धर्मों में बाँटा जाता है - हिंदू, सिख, बौद्ध, और जैन। लेकिन मेरी दृष्टि में धर्मों का यह विभाजन कुछ नकली सा है। जिस तरह से दुनिया के अन्य धर्म अपनी भिन्नताओं के हिसाब से बाँटते हैं, उस दृष्टि से सोचने लगें तो भारत में हज़ारों धर्म हो जायें, पर अन्य सभ्यताओं से भारतीय सभ्यता में एक महत्वपूर्ण अंतर है कि उसकी दृष्टि धार्मिक भिन्नताओं को नहीं, उनकी समानताओं को देखती है।

इसके साथ साथ भारतीय धर्मों की एक अन्य खासियत है कि उनकी सीमाओं पर दीवारे नहीं हैं बल्कि धर्मों की मिली जुली परम्पराओं वाले सम्प्रदाय हैं। पश्चिमी पंजाब से आये मेरे नाना नानी के परिवारों में बड़े बेटे को "गुरु को देना" की प्रथा प्रचलित थी, यानि हिंदू परिवार का बड़ा बेटा सिख धर्म का अनुयायी होता था। हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध प्रार्थनाओं और पूजा स्थलों में अक्सर एक दूसरे की परम्पराओं को भी सम्मान दिया जाता है।

यही नहीं, उनके तथा ईसाई एवं मुसलमान परम्पराओं के बीच में भी सम्मिश्रण से सम्प्रदाय या साझी परम्पराएँ बनीं। मेवात के मुसलमानों में हिंदू परम्पराएँ और केरल के ईसाई जलूसों में हिंदू समुदायों का होना, सूफ़ी संतों की दरगाहों में भिन्न धर्मों के लोगों का जाना, विभिन्न हिंदू त्योहारों में सब धर्मों के लोगों का भाग लेना, इसके अन्य उदाहरण हैं।

इस साझा संस्कृति में सहिष्णुता स्वाभाविक थी और कट्टर होना कठिन था, इसलिए एक दूसरे के धर्म के बारे में हँसी मज़ाक करना या आलोचना करना भी स्वाभाविक था।

आहत भावनाओं की दुनिया

आजकल की दुनियाँ में ऐसे लोगों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है जिनकी भावनाएँ बहुत आसानी से आहत हो जाती हैं। भावनाओं के आहत होने से वह लोग बहुत क्रोधित हो जाते हैं और अक्सर उनका क्रोध हिँसा या तोड़ फोड़ में अभिव्यक्त होता है। इस वजह से, अगर आप लेखक हैं, कलाकार हैं, या फिल्मकार हैं, तो किसी भी सृजनात्मक कार्य से पहले आप को गम्भीरता से सोचना पड़ता है कि क्या मेरी कृति की वजह से किसी की भावनाएँ आहत तो नहीं हो जायेगीं? वैसे आप कितनी ही कोशिशें कर लें, पहले से कितना भी सोच लें, सब कोशिशों के बाद भी यह हो सकता है कि कोई न कोई, किसी भी वजह से आप से रुष्ठ हो कर आप को सबक सिखाने की धमकी दे देगा।

यूरोप में इस्लाम से सम्बंधित आहत भावनाओं वालों के गुस्से के बारे में तो सभी जानते हैं। इस्लाम के बारे में कुछ भी आलोचनात्मक बोलिये तो आप पर कम से कम इस्लामोफोबिया का छप्पा लग सकता है, और किसी को अधिक गुस्सा आया तो वह आप को जान से भी मार सकता है। भारत में अन्य धर्मों के लोगों में भी यही सोच बढ़ रही है कि हमारे धर्म, भगवान, धार्मिक किताबों तथा देवी देवताओं का "अपमान" नहीं होना चाहिये और अगर कोई ऐसा कुछ भी करता या कहता है तो उसको तुरंत सबक सिखाना चाहिये, ताकि अगर वह ज़िंदा बचे तो दोबारा ऐसी हिम्मत न करे। "अपमान" की परिभाषा यह लोग स्वयं बनाते हैं और यह कहना कठिन है कि वह किस बात से नाराज हो जायेगे।

जो बात धर्म से जुड़े विषयों से शुरु हुई, वह धीरे धीरे जीवन के अन्य पहलुओं की ओर फैल रही है। आप ने किसी भी जाति के बारे में ऐसा वैसा क्यों कहा? आप ने किसी जाति या धर्म वाले को अपने उपन्यास या फिल्म में बुरा व्यक्ति या बलात्कारी क्यों बनाया? यानि किसी भी बात पर वह गुस्सा हो कर उस जाति या धर्म या गुट के लोग आप के विरुद्ध धरना लगा सकते हैं या तोड़ फोड़ कर सकते हैं।

भारत की पुलिस अधिकतर उन दिल पर चोट खाने वालों के साथ ही होती है। आप ने ट्वीटर या फेसबुक पर कुछ लिखा, या यूट्यूब और क्लबहाउस में कुछ ऐसा वैसा कहा तो पुलिस आप को तुरंत पकड़ कर जेल में डाल सकती है, लेकिन अगर आप की भावनाएँ आहत हुईं हैं और आप तोड़ फोड़ कर रहे हैं या दंगा कर रहे हैं या किसी को जान से मारने की धमकी दे रहें हैं, तो अधिकतर पुलिस भी इसे आप का मानव अधिकार मानती है और बीच में दखल नहीं देती।

धर्म के निरादर पर गुस्सा करना बेकार है

एक बार मेरे एक भारतीय मूल के अमरीका में रहने वाले मित्र से इस विषय में बात हो रही थी, जो कि क्रोधित थे क्योंकि उन्होंने अमेजन की वेबसाईट पर ऐसी चप्पलों का विज्ञापन देखा था जिनपर गणेश जी की तस्वीर बनी थी। उनका कहना था कि बाकी धर्मों वाले, हिन्दुओं को कमज़ोर समझते हैं और हिन्दु देवी देवताओं का अपमान करते रहते हैं। उन लोगों ने मिल कर अमेजन के विरुद्ध ऐसा हल्ला मचाया कि अमेजन वालों ने क्षमा माँगी और उन चप्पलों के विज्ञापनों को हटा दिया।

मैंने शुरु में उनसे मजाक में कहा कि आप गणेश जी की चिंता नहीं कीजिये, वह उस चप्पल में पाँव रखने वाले को फिसला कर ऐसे गिरायेंगे कि उसकी हड्डी टूट जायेगी। तो मेरे मित्र मुझसे भी क्रोधित हो गये, बोले कि कैसी वाहियात बातें करते हो? उनकी सोच है कि कोई हमारे देवी देवताओं का इस तरह से अपमान करे तो हमें तुरंत उसका विरोध करना चाहिये। उनसे बहुत देर तक बात करने के बाद भी न तो मैं उन्हें अपनी बात समझा पाया, लेकिन उनके कहने से मेरी सोच भी नहीं बदली।

मुझे धर्म, पैगम्बर, धार्मिक किताबों या देवी देवताओं के अपमान की बातें निरर्थक लगती हैं। किताबों में कागज पर छपे शब्दों में पवित्रता नहीं, पवित्रता उनको पढ़ने वालों के मन में है, दुनिया की हर वस्तु की तरह किताब तो नश्वर है, एक दिन तो उसे नष्ट हो कर संसार के तत्वों में लीन होना ही है। मेरी सोच भगवत् गीता से प्रभावित है जिसमें भगवान कृष्ण अर्जुन को अपना बृहद रूप दिखाते हैं कि सारा ब्रह्माँड स्वयं वही हैंः

तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यदेवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ।।

जब ब्रह्माँड के कण कण में स्वयं भगवान हैं, जब भगवान न चाहे तो दुनिया का पत्ता भी नहीं हिल सकता, तो मानव के पैरों के कण कण में और चप्पलों के कण कण में क्या वह भगवान नहीं हैं? अगर आप सचमुच अपने धर्म में और अपने देवी देवताओं में विश्वास करते हैं, तो आप यह क्यों नहीं समझते कि यह मानव के बस की बात ही नहीं है कि भगवान का अपमान कर सके?

हमारी एक कहावत भी है कि आसमान पर थूका वापस आप के अपने ऊपर ही गिरता है। भगवान, देवी देवता, यह सब हमारी श्रद्धा और विश्वास की बातें हैं। भगवान न तो पूजा के प्यासे हैं, न ही वह हमारे गुस्से पर नाराज होते हैं। जब हर व्यक्ति की आत्मा में ब्रह्म है, तो उसकी आत्मा में भी है जिसने आप के विचार में आप के भगवान या देवी देवता का अपमान किया है। यह उसका कर्मजाल है और इसका परिणाम वह स्वयं भोगेगा, उसमें आप क्यों भगवान के बचाव में उसके न्यायाधीश और जल्लाद बन जाते हैं?

सभी धर्म कहते हैं कि जिसे हम अलग अलग नामों से बुलाते हैं, वह गॉड, खुदा, भगवान, पैगम्बर सर्वशक्तिमान हैं। अगर वह न चाहें तो दुनियाँ में कोई उनके विरुद्ध कुछ कर सकता है क्या? अगर आप यह मानते हैं कि कोई भी मानव आप के गॉड, खुदा, पैगम्बर, देवी देवता या भगवान का अपमान कर सकता है तो वह सर्वशक्तिमान कैसे हुआ? लोग यह भी कहते हैं कि गॉड, खुदा और भगवान ही हमारा पिता है, जिसने सबको जीवन दिया है। तो हम यह क्यों नहीं मानते कि अगर कोई उनके विरुद्ध कुछ भी कहता या करता है, तो वह अपने पिता से झगड़ रहा है और उसे सजा देनी होगी तो उसका पिता ही उसे सजा देगा, आप उसकी चिंता क्यों करते हैं?

सिखों के पहले गुरु, नानक के बारे में एक कहानी है कि वह एक बार मदीना गये और काबा की ओर पैर करके सो रहे थे। कुछ लोगों ने उन्हें देखा तो क्रोधित हो गये, बोले काबा का अपमान मत करो। तब गुरु नानक ने उनसे कहा कि अच्छा तुम मेरे पैर उस ओर कर दो जहाँ काबा नहीं है। कहते हैं कि उन लोगों ने जिस ओर गुरु नानक के पैर मोड़े, उन्हें काबा उसी ओर नजर आया, तब वह समझे कि गुरु नानक बड़े संत थे। इसी तरह से संत रविदास कहते थे कि मन चंगा तो कठौती में गँगा। असली बात सब अपने मन की है और उसे निर्मल रखना सबसे अधिक आवश्यक है। इसलिए मेरी सलाह मानिये और आप अपने मन में झाँकिये और देखिये कि आप का मन चंगा है या नहीं, औरों के मन की जाँच परख को भूल जाईये।

हिंदू धर्म का अपमान

पिछले कुछ दशकों में विभिन्न धर्मों के लोगों में असहिष्णुता बढ़ रही है। शायद उनकी देखा देखी, बहुत से हिंदू भी "हिंदू धर्म के अपमान" के प्रति सतर्क हो गये हैं और जब वह ऐसा कुछ देखते हैं तो तुरंत लड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। उनसे कुछ कहो तो वह मुसलमान, ईसाई या सिख समुदायों की अपने धर्मों के अपमान के विरुद्ध लड़ाईयों के उदाहरण देते हैं।

मेरे विचार में यह गलती है, हिंदू धर्म को बाकियों के लिए उदाहरण बनना चाहिये कि हम लोग धर्म की किसी तरह की आलोचना को स्वीकार करते हैं,कि हमारे देवी देवता, भगवान सर्वशक्तिमान हैं वह अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं। अन्य धर्मों के कट्टरपंथियों को उदाहरण मान कर, हम उनकी तरह बनने की कोशिश करेंगे तो वह हिंदू धर्म के मूल विचारों की हार होगी।

अंत में

यह आलेख लिखना शुरु किया ही था कि भारत में "नूपुर शर्मा काँड" हो गया। वैसे तो मैं टिवटर पर कम ही जाता हूँ लेकिन कुछ ऐसे माननीय लोग जिन्हें मैं उदारवादी और समझदार समझता था, और जो कि हिंदू धर्म की आलोचनाओं में खुल कर भाग लेते रहे हैं, उन लोगों ने भी जब "पैगम्बर का अपमान किया है" की बात करके दँगा करने वालों को बढ़ावा दिया, तो मुझे बड़ा धक्का लगा।

भारत जैसे बहुधार्मिक और बहुसम्प्रदायिक देश में किसी एक गुट की कट्टरता तो सही ठहराना खतरनाक है, इससे आप केवल अन्य कट्टर विचारवालों को मजबूत करते हैं। अगर हमारे पढ़े लिखे, दुनिया जानने वाले बुद्धिवादी लोग भी इस बात को नहीं समझ सकते तो भारत का क्या होगा?

1973 की राज कपूर की फ़िल्म बॉबी में गायक चँचल ने एक गीत गया था, "बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो, बुल्लेशाह यह कहता, पर प्यार भरा दिल कभी न तोड़ो, इस दिल में दिलबर रहता"। आज अगर यह गीत किसी फ़िल्म में हो तो शायद राज कपूर, चँचल और बुल्लेशाह, तीनों को लोग फाँसी पर चढ़ा देंगे।


सोमवार, मई 27, 2013

मिथकों में जीवन

बात कहीं से शुरु होती है और फ़िर किसी अन्य दिशा से कोई तार उससे आ मिलते हैं, और बातों में बातें जुड़ जाती हैं.

Mithak - Myths
कुछ यूँ ही हुआ जब मैंने अपने फोटो ब्लाग "छायाचित्रकार" पर तीन महाद्वीपों से विभिन्न तरह की गिलहरियों की तस्वीरें लगाने की सोची. दिल्ली में कुतुब मीनार के पास खींची गिलहरी की तस्वीर देख रहा था तो उसकी पीठ पर कथई रंग की धारियों से याद आया कि उसके बारे में बचपन में कहानी सुनी थी. उस कथा के अनुसार, जब राम अपनी सैना को ले कर लँका जाने के लिए सागर पर पुल बना रहे थे तो गिलहरी ने पत्थर लाने में बहुत मेहनत की और गिलहरी को धन्यवाद देने के लिए उन्होंने जब उसकी पीठ को सराहा तो उनकी उँगलियों के निशान उसकी पीठ पर रह गये.

फ़िर सोचा कि मानव ने क्यों इस तरह के मिथक रचे? मिथकों का जीवन में क्या लाभ है?

केवल भारत में नहीं, हर देश, हर संस्कति ने पूर्वेतिहासिक काल में अपने मिथक रचे, तो मानव समाज में अवश्य उनका कुछ महत्व और उपयोग होता था, जिसकी वजह से सभी सभ्यताओं में मिथक रचे गये. अक्सर सभ्यताओं से जुड़े मिथक, उन सभ्यताओं के प्रचलित धर्मों से जुड़ जाते हैं, जिसकी वजह से अंग्रेज़ी में धार्मिक कथाओं को माइथोलोजी (mythology) कहते हैं, यानि "मिथकों की कहानियाँ".

यह सोच रहा था तो जानी मानी भारतीय विचारक, पारम्परिक जनजातियों के ज्ञान की रक्षा की पक्षधर और भूमण्डलीकरण की विरोधी सुश्री वन्दना शिव की एक बात याद आयी. वन्दना मेरी मित्र डा. मीरा शिव की बहन हैं. कुछ वर्ष पहले वह इटली के फ्लोरैंस शहर में एक समारोह में आमन्त्रित थीं. मीरा ने उनके हाथ मेरे लिए कुछ सामान भेजा था, जिसके लिए मैं वन्दना से मिलने फ्लोरैंस गया था और उनका भाषण सुनने का मौका मिला. अपने भाषण में उन्होंने बात की थी, नयी तकनीकों से बीजों के डीएनए (DNA) को बदल कर नयी तरह की वनस्पतियों को बनाने के प्रयोगों से प्राकृति के संरक्षण की. उन्होंने कहा कि भारत में हिन्दू धर्म में तैंतीस करोड़ देवी देवता माने जाते हैं, और हर देवी देवता के साथ किसी न किसी पशु या पक्षी या वनस्पति का नाम भी जुड़ा होता है, जिनकी वजह से धर्म में विश्वास रखने वाले उन सब की रक्षा करते हैं. इस तरह से यह पौराणिक मिथक, मानव व प्राकृति के साथ साथ सामन्जस्य से रहने का संदेश देते हैं.

यानि, प्राचीन काल में जब विज्ञान नहीं था, किताबें नहीं थीं, तब मिथकों के द्वारा मानव जीवन के अनुभवों से अर्जित ज्ञान को याद रखा जाता था. इस तरह से देवी देवताओं की कहानियाँ एक माध्यम बन गयीं जिनसे मानव और प्राकृति में सामन्जस्य की आवश्यकता को नैतिक रूप दिया गया.

कुछ इसी तरह की बात एक बार मिस्र में एक मित्र ने मुसलमानों द्वारा सूअर के माँस को अपवित्र मानने के बारे में कही थी. वह कहते थे कि मध्य-पूर्व के देशों में सूअरों में सिस्टोसरकोसिस का रोग होता था और सूअर का माँस खाने से वह मानव शरीर में, विषेशकर दिमाग के तंतुओं में फैल जाता था. इसलिए सूअर के माँस की वर्जना की बात, वहाँ रहने वाली मानव जाति की सुरक्षा से जुड़ी थी.

मिथक क्यों बने, यह समझना हमेशा आसान नहीं होता. बहुत सी सभ्यताओं में नमक का गिरना या बिखरना अशुभ माना गया है. शायद इस मिथक के पीछे, पुराने समय में नमक को पाने की कठिनाई थी क्योंकि यह केवल सागर तटवर्ती क्षेत्रों में मिलता था. पर बहुत सी सभ्यताओं में काली बिल्ली को क्यों अशुभ माना गया, इसका कारण क्या हो सकता है?

जब लिखाई नहीं थी, किताबें नहीं थीं, तब इतिहास की महत्वपूर्ण बातों को न भूलने के लिए भी मिथक काम आते थे. जैसे कि अमरीकी जनजातियों के मिथकों में पृथ्वी पर मानव जीवन कैसे बना इसकी कहानियाँ हैं. इन मिथकों में आकाश से या चाँद से धरती तक एक पुल का बनना और उसे पार करके धरती पर आने की बातें हैं. इन कहानियों में कुछ इतिहासकारों ने करीब दस हज़ार वर्ष पहले के हिमयुग में उत्तरी सागर के बर्फ से जमने और उसे पार कर के एशियाई मूल के लोगों के अमरीका महाद्वीप पहुँचने की यात्रा के संकेत पाये हैं.

मिथक सामाजिक विचारों को भी शक्ति देते हैं. चाहे समाज में पुरुष के मुकाबले में नारी का नीचा स्थान हो या विकलाँग व्यक्तियों को समाज से बाहर देखने के प्रवृति, इनको प्राचीन मिथकों का सहारा मिलता है, जिनकी जड़ें समाज में बहुत गहरी होती हैं और जिन्हें बदलना आसान नहीं होता. दिल्ली में विकलाँग व्यक्तियों के मानव अधिकारों के क्षेत्र में कार्यरत मेरी मित्र डा. अनीता घई, रामायण में सूर्पनखा की कहानी का उदाहरण देती हैं कि सुन्दर सूर्पनखा स्वतंत्र हैं, उसकी यौनकिता भी स्वच्छंद है जोकि पितृसत्तावादी समाज में स्वीकार नहीं की जाती थी और इस अपराध के लिए उसकी नाक काट कर उसे विकलाँग बनाया जाता है, जिससे उसकी यौनकिता अस्वीकृत हो जाती है. इस तरह से मिथकों से जुड़े विचार, समाजिक रूढ़ीवाद का हिस्सा भी हो सकते हैं.

अपनी संस्कृति के मिथकों को जानना, हमें अपनी संस्कृति को गहराई से समझने का मौका देता है. भारतीय पारम्परिक मिथकों के बारे में डा. उषा पुरी विद्यावाचस्पति ने एक जानकारी से भरपूर किताब लिखी है, "भारतीय मिथकों में प्रतीकात्मकता" (सार्थक प्रकाशन, दिल्ली, 1997).  उदाहरण के लिए इसमें वह पूजा में उपयोग किये जाने वाली वस्तुओं तथा रीतियों के बारे में बताती हैं कि "ऊँ", शंख और स्वस्तिक में सृष्टि के आरम्भ का नाद है, जलयुक्त कलश को जल, वायू तथा सूर्य का प्रतीक मानते हैं, तथा कलश की गर्दन में बँधा कलावा मंगलमय आयोजन में समाज को स्नेहसूत्र में बाँधने का द्योतक है. रूद्राक्ष, शिव के आँसू या पसीने से बना है इसलिए मनुष्य को आधि व्याधि से मुक्त करता है. हल्दी में रोग निवारण शक्ति हैं और स्वर्ण का प्रतीक है, चावल दीर्घायुदायी हैं, जबकि दीपक प्रकाश तथा ज्ञान का प्रतीक है.

Cover of Bhartiya mithakon mein pratikatamkta by Dr Usha Puri Vidyavachaspati

यह बात नहीं कि मिथक केवल प्राचीन ही होते थे और आजकल नये मिथक नहीं बनते. पिछले वर्ष अमरीकी माया सभ्यता के कैंलेण्डर की भविष्यवाणी बता कर "20.12.2012 को दुनिया का अंत होगा" की बात को बहुत से लोगों ने सच मान लिया था. यानि आज "मिथक" का अर्थ धर्म से जुड़ी बातों से हट कर, झूठ या काल्पनिक बातों की तरह से होने लगा है. लोग फेसबुक और टिव्टर जैसे सोशल मीडिया की सहायता से नये मिथक बनाते हैं जो विभिन्न भाषाओं में अनुवादित हो कर एक देश या सभ्यता में सीमित नहीं रहते बल्कि सारी दुनिया में फ़ैलते हैं. इन नये मिथकों को "शहरी मिथक" भी कहते हैं जिनसे लोगों को डराते हैं. "अगर आप के पास इस तरह का ईमेल आये तो उसे नहीं खोलिये" या "अगर आप ने इस ईमेल को कम से कम दस लोगों को नहीं भेजा तो आप का विनष्ट होगा" या "इस ईमेल को दस लोगों को भेजेंगे तो लाटरी जीतेगें" जैसी बातें शहरी मिथक के दायरे में आती हैं. (नीचे की तस्वीर में "12 दिसम्बर को दुनिया का अंत होगा" के विषय पर बनी एक कलाकृति)

2012 Maya calendar myth sculpture by Joe Venturi and Matteo Varsellona

देखा आपने, एक गिलहरी की तस्वीर से शुरु हुआ विचार कहाँ तक पहुँच गया! मेरे विचार में प्राचीन मिथकों में छुपे प्राचीन ज्ञान को केवल अँधविश्वास कह कर भूल जाना या अस्वीकार करना गलती है. बहुत से मिथकों में सामाजिक बुराईयों के अँधविश्वास बने हैं, जो केवल मिथकों के शब्दिक अर्थ से जुड़े विचारों की कट्टरता का नतीजा हैं. पर जैसे वन्दना शिव के दिये उदाहरण से स्पष्ट होता है, इनमें छिपे सभी ज्ञान अवैज्ञानिक नहीं है. चाहे हम मिथकों में छुपे ज्ञान को संजोने की सोचे या उनसे जुड़ी गलत सामाजिक परम्पराओं को बदलने की बदलने की कोशिश करें, उनके महत्व को नहीं नकार सकते. आधुनिक मिथकों को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिये, पर अपनी सोच समझ से उनके सच और झूठ को परखना चाहिये.

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मंगलवार, फ़रवरी 12, 2013

मानव और पशु

सुबह बाग में अपने कुत्ते के साथ सैर कर रहा था तो अचानक दूर से कुछ कुत्तों के भौंकने और लोगों के चिल्लाने की आवाज़ सुनायी दी. आगे बढ़ने पर दो आदमी ऊँची आवाज़ में बहस करते दिखे, दोनो के हाथ में उनके कुत्तों की लगाम थी जिसे वह ज़ोर से खींच कर पकड़े थे. दोनो कुत्ते बड़े बुलडाग जैसे थे, और एक दूसरे की ओर खूँखार दाँत निकाल कर गुर्रा रहे थे. हमारा कुत्ता छोटा सा है और बहुत बूढ़ा भी. डर के मारे मैं वापस मुड़ गया, यह सोच कर कि दूसरी ओर सैर करना बेहतर होगा.

मुझे वापस आता देख कर एक सज्जन जिनसे अक्सर बाग में दुआ सलाम होता रहता है और जिनकी छोटी कुत्तिया हमारे कुत्ते से भी छोटी है, मुस्करा कर बोले, "कुत्ते में टेस्टोस्टिरोन का हारमोन होता है, उससे वह अपने आप पर काबू नहीं रख पाते. कुत्तिया देखते हैं तो उस पर तुरंत डोरे डालने की कोशिश करते हैं और दूसरे कुत्तों से लड़ाई करते हैं. अब जब कुत्ता पाला है तो यह तो होगा ही, इसमें लड़ने की क्या बात है? यह तो कुत्तों की प्रकृति है. अगर कुत्तों का आपस में लड़ना पसंद नहीं है तो या तो उनका आपरेशन करके उनके अन्डकोष निकलवा दो, इससे टेस्टोस्टिरोन बनना बन्द हो जायेगा, और वे शाँत हो जायेंगे. कुत्ते का आपरेशन  नहीं कराना तो कुत्ता पालो ही नहीं, कुत्तिया रखो."

मैं उनकी बात पर देर तक सोचता रहा. टेस्टोस्टिरोन हारमोन सभी स्तनधारी जीवों में, विषेशकर हर जीव जाति के नरों में होता है. यह हारमोन माँसपेशियों का विकास करता है, शरीर में बाल उगाता है, आवाज़ को भारी करता है. सम्भोग की इच्छा और सम्भोग क्रिया में नर भाग निभाने की क्षमता भी इसी हारमोन से जुड़ी हैं.

यही सोच कर मन में यह बात आयी कि हमारे समाजों में जब किसी युवती को पुरुष मारता है, या उससे ब्लात्कार करता है तो अक्सर लोग कहते हैं कि यह इसलिए हुआ क्यों कि उस लड़की ने उस पुरुष को कुछ ऐसा किया जिससे वह अपने पर काबू नहीं कर पाया. इसके लिए वे दोष देते हैं लड़की को, कि लड़की रात को अकेली बाहर गयी, या उसने पश्चिमी वस्त्र पहने थे या छोटे वस्त्र पहने या वह ज़ोर से हँस रही थी.  यानि उनका सोचना है कि चूँकि नर में टेस्टोस्टिरोन है इसलिए यह उसकी प्रकृति है कि जब मादा उसे आकर्षित करेगी तो वह अपने आप पर काबू नहीं कर पायेगा और उस पर हमला करेगा. इसलिए हमारे समाज लड़कियों को अपने शरीरों को चूनर, घूँघट या बुर्के में ढकने की सलाह देते हैं, कहते है कि बिना पुरुष के अकेली बाहर न जाओ, आदि.

Graphic - man attacking woman


शायद इसी बात को सोच कर बहुत से देशों में युवा लड़कियों के यौन अंगो को काट कर सिल दिया जाता है, या उन्हें शरीर ढकने, घर से बाहर न जाने की सलाह दी जाती है, ताकि उनके मन में यौन भावनाएँ न उभरें. शायद इसी वजह से हमारे समाजों ने रीति रिवाज़ बनाये जैसे कि विधवा युवती का सर मूँड दो, उसे सफ़ेद वस्त्र पहनाओ, उसे खाने में तीखे स्वाद वाली कोई चीज़ न दो, जिससे उसे न लगे कि वह जीवित है और उसकी भी कोई शारीरिक इच्छा हो सकती है. इस सब से युवती का आकर्षण कम होगा और अपने पर काबू न रख पाने वाले पुरुष उस पर हमला नहीं करेंगे.

यानि हमारे समाजों ने पुरुषों को पशु समान माना और यह माना कि उनमें किसी युवती को देख कर अपने आप को रोक पाने की क्षमता नहीं हो सकती. इस तरह से हमारे समाजों ने एक ओर "पुरुष अपनी प्रकृति पर काबू नहीं कर सकते" वाले नियम बनाये, जिससे स्वीकारा जाता है कि पुरुष शादी से पहले या विवाह के बाहर भी शारीरिक सम्बन्ध बना सकता है या कई औरतों से विवाह कर सकता है. दूसरी ओर नियम बनाये कि "नारी का अपनी प्रकृति को काबू में रखना ही नारी धर्म है", जिससे निष्कर्ष निकलता है कि अगर पुरुष कुछ भी करता है तो इसमें गलती हमेशा नारी की ही मानी जायेगी.

यानि यह समाज पुरुष को अन्य पशुओं की तरह देखता है, यह नहीं मानता कि परिवार की शिक्षा, समाज की सभ्यता और अपने दिमाग से पुरुष अपना व्यवहार स्वयं तय करता है.

पर इस तरह की सोच हमारे ही समाजों में क्यों बनी हुई है? जैसे यूरोप, अमरीका, ब्राज़ील आदि में समय के साथ बदल गयी है, वैसे हमारे समाजों में क्यों नहीं बदली? यूरोप, ब्राज़ील में आप समुद्र तट पर जाईये आप छोटी बिकिनी पहने या खुले वक्ष वाली युवतियाँ देख सकते हैं, उन पर वहाँ के पुरुष हमला क्यों नहीं करते? शायद यहाँ के पुरुषों में टेस्टोस्टिरोन की कमी है? लेकिन इन देशों में भारत, पाकिस्तान, अरब देशों आदि से आने वाले प्रवासी पुरुष क्यों नहीं इन युवतियों पर हमले करते, क्या यहाँ के कानून से डरते हैं या शायद यहाँ आने से उनके टेस्टोस्टिरोन भी कम हो जाते हैं?

आप ही बताईये क्या हम पुरुष पशु समान होते हैं क्योंकि हमे अपने पर काबू करना नहीं आता? मेरे विचार में यह सब बकवास है.

कुछ पुरुष मानसिक रोगी हो सकते हैं जिन्हें सही गलत का अंतर न मालूम हो. पर यह सोचना कि सभी पुरुष पशु होते हैं, उन्हें अपने शरीरों पर, अपने कर्मों पर काबू नहीं, यह मैं नहीं मानता. पुरुष किसी भी युवती पर हमला कर सकते हैं, इसलिए युवतियों को शरीर ढकना चाहिये, घर से अकेले नहीं निकलना चाहियें, शर्मा कर, छिप कर रहना चाहिये, मेरे विचार में यह सब गलत है.

जो लोग इसे स्वीकारते हैं, वह मानव सभ्यता को नकारते हैं, इस बात को नकारते हैं कि भगवान ने हमें दिमाग भी दिया है, केवल हारमोन नहीं दिये. मुझे लगता है कि इस तरह की सोच पुरुषों को बचपन से ही यह सिखाती है कि जो मन में आये कर लो, हमें औरतों को दबा कर रखना है. इसके लिए हमारे समाज धर्म, संस्कृति और परम्पराओं का सहारा लेते हैं इस तरह की सोच को ठीक बताने के लिए.

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शनिवार, दिसंबर 08, 2012

वियतनाम में बुद्ध धर्म


गौतम बुद्ध के उपरांत, कुछ सदियों में ही बुद्ध धर्म भारत और नेपाल से निकल कर पूर्वी और पश्चिमी एशिया में फ़ैल गया. वियतनाम में बुद्ध धर्म चीन से तथा सीधा दक्षिण भारत से, प्रथम या द्वितीय ईस्वी में पहुँचा. वियतनामी बुद्ध धर्म पर चीन से ताओ धर्म तथा प्राचीन वियतनामी मिथकों के प्रभाव दिखते हैं. आज करीब 80 प्रतिशत वियतनामी स्वयं को बुद्ध धर्म के अनुयायी मानते हैं.

बुद्ध धर्म के वियतनाम में पहुँचने के करीब पाँच सौ वर्ष बाद, भारत से हिन्दू धर्म का प्रभाव भी वियतनाम पहुँचा जो कि मध्य तथा दक्षिण वियतनाम के चम्पा सम्राज्य में अधिक मुखरित हुआ. वियतनाम में चम्पा साम्राज्य की राजधानी अमरावती, तथा अन्य प्रमुख शहर जैसे विजय, वीरपुर, पाँडूरंगा आदि में बहुत से हिन्दू मन्दिर बने जिनके भग्नावषेश आज भी वियतनाम के मध्य भाग में देखे जा सकते हैं. इस तरह से वियतनामी बुद्ध धर्म में हिन्दू धर्म का प्रभाव भी आत्मसात हो गया.

वियतनाम की आधुनिक राजधानी हानोई के उत्तर में बाक निन्ह जिले में स्थित निन्ह फुक पागोडा को वियतनाम का प्रथम बुद्ध संघ तथा मन्दिर का स्थान माना जाता है. कहते हैं कि प्राचीन समय में यहाँ पर भारत से आये बहुत से बुद्ध भिक्षुक रहते थे. इस पागोडा को लुए लाउ (Luy Lâu) पागोडा के नाम से भी जाना जाता है. पहाड़ों के पास, डुओन्ग नदी के किनारे बना यह पागोडा, प्राचीन दीवारों में बन्द लुए लाउ शहर से जुड़ा है, और बहुत सुन्दर है. पागोडा के प्रँगण में 1647 ईस्वी की बाओ निह्म मीनार बनी है जिसमें पागोडा के प्रथाम बुद्ध महाध्यक्ष के अवषेश सुरक्षित रखे हैं.

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वियतनाम में कम्युनिस्ट शासन स्थापत हुआ जिसने धर्म को सार्वजनिक जीवन से निकालना चाहा और बौद्ध धार्मिक स्थान भी बन्द कर दिये, भिक्षुकों को जेल में डाला गया. 1986 के बाद धीरे धीरे शासन ने रूप बदला और धार्मिक संस्थानो को फ़िर से चलने की अनुमति मिली.

आज वियतनाम में प्राचीन बुद्ध मन्दिरों को सरकारी सहयोग मिलता है और पर्यटक उन्हें देखने जाते हैं. लेकिन बुद्ध धर्म की प्रार्थनाएँ अभी भी चीनी भाषा में हैं जिसे आम वियतनामी नहीं समझ पाते. इन प्रार्थनाओं में अमिताभ सूत्र तथा पद्म सूत्र सबसे अधिक प्रचलित हैं. इसी तरह बुद्ध मन्दिरों में प्रार्थनाओं को ध्वज पर लिखवा कर घर में रखने का प्रचलन है, पर यह प्रार्थनाएँ भी चीनी भाषा में ही लिखी जाती हैं.

बुद्ध मन्दिरों में विभिन्न बौद्धिसत्वों जैसे कि अमिताभ की मूर्तियाँ मिलती हैं.

साथ ही बुद्ध मन्दिरों में प्राचीन पूर्वज पूजा भी प्रचलित है जिसमें अगरबत्तियों के साथ साथ, लोग कागज़ की मानव मूर्तियों या नकली नोटों को भी जलाते हैं.

पूर्वज पूजा से ही जुड़ी है गुरु पूजा की परम्परा. हानोई में राजपरिवार के प्राचीन गुरुओं का "साहित्य मन्दिर" बना है, जहाँ विद्यार्थी इम्तहान में पास होने की प्रार्थना करने जाते हैं.

वियतनामी मन्दिरों में फोनिक्स के काल्पनिक जीव जो विभिन्न पशु पक्षियों के सम्मिश्रिण से बना है अक्सर दिखता है.

जापानी प्रभाव से विकसित हुए ज़ेन बुद्ध धर्म या थियन बुद्ध धर्म के भिक्षुक, लेखक तथा विचारक थिच नाह्ट (Thích Nhất Hạnh) अपने ध्यान योग और बुद्ध साधना की किताबों और प्रवचनों के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं.

बुद्ध धर्म से जुड़ी मेरी एक वियतनाम यात्रा की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

(1) चीनी भाषा में लिखा प्रार्थना ध्वज

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

(2) हानोई में बना गुरु पूजा का साहित्य मन्दिर

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

(3) वियतनाम में मध्य भाग से कुछ बुद्ध मन्दिर

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

(4) मन्दिर में चढ़ाने के लिए कागज़ के मानव व पशु जलाने की रीति

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

(5) प्राचीन निन फुक पागोडा

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

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बुधवार, नवंबर 21, 2012

फ़िर ले आया दिल .. यमुना किनारे

उम्र के बीतने के साथ पुरानी भूली भटकी जगहों को देखने की चाह होने लगती है, विषेशकर उन जगहों की जहाँ पर बचपन की यादें जुड़ी हों. ऐसी ही एक जगह की याद मन में थी, दिल्ली में यमुना किनारे की.

बात थी 1960 के आसपास की. मेरी बड़ी बुआ डा. सावित्री सिन्हा तब दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ कोलिज में हिन्दी पढ़ाती थीं. उनका घर था इन्द्रप्रस्थ कोलिज के साथ से जाती छोटी सी सड़क पर जिसे तब मेटकाफ मार्ग कहते थे, जो अँग्रेज़ो के ज़माने के मेटकाफ साहब के घर की ओर जाती थी जिन्होंने महरौली के पास के प्राचीन भग्नावशेषों को खोजा था और जहाँ आज भी उनके नाम की एक छतरी बनी है.

यमुना वहाँ से दूर नहीं थी, पाँच मिनट में पहुँच जाते थे. तब वहाँ घर नहीं थे, बस रेत ही रेत और कोई अकेला मन्दिर होता था. तभी वहाँ नया नया बौद्ध विहार बना था. वहीं रेत पर दिन में खेलने जाते थे या कभी शाम को परिवार वालों के साथ सैर होती थी.

बीस साल बाद, 1978 के आसपास जब सफ़दरजंग अस्पाल में हाउज़ सर्जन का काम करता था तो अपने मित्रों के साथ बौद्ध विहार के करीब बने तिब्बती ढाबों में खाना खाने जाया करते थे.

इस बार मन में आया कि उन जगहों को देखने जाऊँ. मैट्रो ली और आई.एस.बी.टी. के स्टाप पर उतरा. पीछे से बस अड्डे के साथ से हो कर, सड़क पार करके, यमुना तट पर पहुँचने में देर नहीं लगी. चारों ओर नयी उपर नीचे जाती साँपों सी घुमावदार सड़कें बन गयी थीं.

नदी के किनारे गाँवों और छोटे शहरों से आये गरीबों की भीड़ लगी थी, बहुत से लोग सड़क के किनारे सोये हुए थे, कुछ यूँ ही बैठे ताक रहे थे. उदासी और आशाहीनता से भरी जगह लगी, पर साथ ही यह भी लगा कि चलो बेचारे गरीबों को आराम करने के लिए खुली जगह तो मिली. वहाँ कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा चलाने वाले रैनबसेरे भी हैं जहाँ अधिक ठँड पड़ने पर रात को सोने के लिए कम्बल और जगह मिल जाती है, और दिन में खाने को भी मिल जाता है.

बैठे लोगों को पार करके नदी तक पहुँचा तो गन्दे बदबूदार पानी को देख कर मन विचट गया.

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

एक ओर निगम बोध पर जलते मृत शरीरों का धूँआ उठ रहा था. जगह जगह प्लास्टिक के लिफ़ाफे और खाली बोतलें पड़ी थीं.

Pollution Yamuna river, Delhi

दूसरी ओर छठ पूजा की तैयारी हो रही थी. नदी के किनारे देवी देवताओं की मूर्तियाँ रंग बिरंगे वस्त्र पहने खड़ी थीं. पानी में गहरे पानी में जाने से रोकने के लिए लाल ध्वजों वाले बाँस के खम्बे लगाये जा रहे थे. कुछ लोग नदी के गन्दे पानी में नहा रहे थे.

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

जिसे यमुना माँ कहते हैं, उसके साथ इस तरह का व्यवहार हो रहा है, उसमें लोग गन्दगी, कचरा, रसायन, आदि फैंक कर प्रदूषण कर रहे हैं. इसे धर्म को मानने वाले कैसे स्वीकार कर रहे हैं? यह बात बहुत सोच कर भी समझ नहीं पाया.

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पुराणों में यमुना नदी के जन्म की कहानी बहुत सुन्दर है. यमुना के पिता हैं सूर्य और माता हैं संज्ञा, भाई हैं यम. इस कहानी के अनुसार सूर्य देव के तेज प्रकाश तथा उष्मा से घबरा कर संज्ञा अपने पिता के घर भाग गयीं. उन्हें वापस लाने के लिए सूर्य के अपने प्रकाश के कुछ हिस्से निकाल कर बाँट दिये. सूर्य से ग्रहों के उत्पन्न होने की यह कथा, और संज्ञा तथा सूर्य की उर्जा से जल यानि जीवन तथा मृत्यू का जन्म होना, यह बातें आज की वैज्ञानिक समझ से भी सही लगती हैं.

पुराणों की अनुसार, गँगा की तरह यमुना भी देवलोक में बहने वाली नदी थी जिसे सप्तऋषि अपनी तपस्या से धरती पर लाये. देवलोक से यमुना कालिन्द पर्वत पर गिरी जिससे उसे कालिन्दी के नाम से भी पुकारते हैं और पर्वतों में नदी के पहले कुँड को सप्तऋषि कुँड कहते हैं. इस कुँड का जल यमुनोत्री जाता है जहाँ वह सूर्य कुँड के गर्म जल से मिलता है.

भारत की धार्मिक पुस्तकों में और सामान्य जन की मनोभावनाओं में पर्वत, नदियों और वृक्षों को पवित्र माना गया है. नदी में स्नान करने को स्वच्छ होने, पवित्र होने और पापों से मुक्ति पाने की राहें बताया गया हैं. इसलिए नदियों के प्रदूषण के विरोध में साधू संतो ने भी आवाज उठायी है. लेकिन राजनीतिक दलों से और आम जनता में इन लड़ाईयों को उतना सहयोग नहीं मिला है.

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यमुना के किनारे जहाँ बौद्ध विहार होता था वह सारा हिस्सा पक्के भवनों से भर गया है. जहाँ ढाबे होते थे वहाँ भी पक्के रेस्त्राँ बन गये हैं. जहाँ कुछ तिब्बती लोग बैठ कर ऊनी वस्त्र बेचते थे, उस जगह पर भीड़ भाड़ वाली मार्किट बन गयी है.

Pollution Yamuna river, Delhi

Pollution Yamuna river, Delhi

मन में लगा कि बेकार ही इस तरफ़ घूमने आया. जितनी मन में सुन्दर यादें थीं, उनकी जगह अब यह सिसकती तड़पती हुई नदी और सूनी आँखों वाले गरीबों के चेहरे याद आयेंगे.

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बुधवार, अगस्त 29, 2012

ब्राज़ील यात्रा डायरी - खोयी सभ्यता की तलाश (1)


23 अगस्त 2012, गोईयास वेल्यो

दो कक्षाओं के बच्चे अपनी अध्यापिकाओं के साथ आये थे. पहाड़ की ढलान पर ऊपर नीचे जाती सीढ़ियाँ, नीचे चमकता नदी का पानी, अमेरिंडयन जनजाति के गाँव की झोपड़ियाँ, बच्चे यह सब कुछ मंत्रमुग्ध हो कर देख रहे थे.

एक ओर हारोल्दो और गुस्तावियो स्वागत के ढोल बजा रहे थे. दूसरी ओर एक चबूतरे पर रेजीना और शर्ली हाथ में कटोरियाँ ले कर खड़ी थीं जिनमें एक पौधे के बीजों से बनाया गहरा कत्थई रँग था जिससे वे हर बच्चे के गालों पर स्वागत चिन्ह बना रही थीं.

Vila Esperança, Indigenous culture festival, Brazil

दो अध्यापिकाएँ भी उत्साहित सी हो कर बच्चों के साथ अपने गालों पर स्वागत चिन्ह लगवाने लगीं, जबकि दो अन्य अध्यापिकाएँ दूर से ही खड़ी देख रही थीं. उनके चेहरे के भाव से स्पष्ट था कि उन्हें यह सब अच्छा नहीं लग रहा था.

चेहरे पर स्वागत चिन्ह बनवाने के बाद बच्चे एक चकौराकार भवन में गये  जिसकी छत बीच में से खुली थी और जिसके बीच में लकड़ी का खम्बा लगा था. भवन की दीवारों पर अमेरिंडियन मुखौटे लगे थे. एक ओर रोबसन और लुसिया जनजातियों के गीत गा रहे थे. गीतों के बाद रोबसन ने धरती, अम्बर, पवन और अग्नी की पूजा की और फ़िर बच्चों को एक अमेरिंडियन लोककथा सुनायी.

फ़िर बारी आयी नत्यों की. जनजातियों के विभिन्न नृत्य थे, जिन्हें रोबसन पहले सिखाता फ़िर सब बच्चे मिल कर करते. बच्चों ने खूब मस्ती की.

Vila Esperança, Indigenous culture festival, Brazil

नृत्य के बाद बच्चों को छोटे छोटे गुटों में बाँट दिया गया. कोई जनजातियों की कला सीखने गया, कोई जनजातियों में आभूषण कैसे बनाते हैं यह सीखने. कोई मूर्तियों को बनाने की कला सीख रहा था, तो कोई सूखी घास से वस्त्र कैसे बनायें यह सीख रहा था. एक घँटे तक बच्चे इस तरह अलग अलग गुटों में कुछ न कुछ सीखते रहे.

इसके बाद सब बच्चे वापस चकौराकार भवन में एकत्रित हुए, जहाँ रोबसन ने पहले प्रकृति को प्रसाद चढ़ाया फ़िर सब बच्चों को खाने को मिला. प्रसाद के खाने में उबला हुआ भुट्टा, केला, तरबूज आदि थे और पीने के लिए अनानास का रस था. इसके साथ ही "जनजाति सभ्यता" का कार्यक्रम समाप्त हुआ.

***

दोपहर को मैं रोबसन के साथ बैठा बात कर रहा था. रोबसन ने "विल्ला स्पेरान्सा" (Vila Esperança) यानि "आशा घर" नाम की संस्था बनायी है, जहाँ हर सप्ताह इस तरह के कार्यक्रम होते हैं जिनमें जनजातियों या अफ्रीकी सभ्यताओं के गीतों, कहानियों, नृत्यों, कलाओं, आदि के बारे में बच्चों को सिखाया जाता है.

रोबसन बोला, "मैं देखने में युरोपीय लगता हूँ लेकिन मेरे परिवार में अफ्रीकी और यहाँ के मूल निवासियों की जनजातियों का खून भी है. यूरोप से आये लोगों के खून से घुलने मिलने से हमारे परिवार जैसे बहुत परिवार हैं ब्राज़ील में, जिनमें कुछ लोग यूरोप के लगते हैं, कुछ अफ्रीका के और कुछ जनजातियों के. लेकिन हमारे देश में यूरोपीय सभ्यता को उच्च समझा जाता है, और जनजाति तथा अफ्रीकी सभ्यताओं को निम्न. हर कोई अपने आप को यूरोपीय दिखाना चाहता है. जिसका चेहरा यूरोपीय लोगों की तरह गोरा है वह अपने परिवार के अफ्रीकी और जनजाति वाले हिस्से को छुपाने की कोशिश करते हैं. जिनके चेहरे और रंग में अफ्रीकी या जनजाति का प्रभाव स्पष्ट होगा तो वह इस भेदभाव को छोटी उम्र से ही महसूस करते हैं. यह नीचा होने की भावना, हीन भावना बचपन से ही मन में घर कर लेती है, इसे निकालना बहुत कठिन है. हमें बचपन से ही शिक्षा मिलती है कि अपनी अफ्रीकी और जनजाति मूल सभ्यता को भूल जाओ, बस यूरोपी सभ्यता को मान्यता दो."

Vila Esperança, Indigenous culture festival, United colours of Brazil

इसी भावना के विरुद्ध काम करने की सोची रोबसन ने और "आशा घर" को 1989 में संस्थापित किया. वह बोला, "वैसे तो बहुत सी किताबों में, बातों में कहते हैं कि रंग और सभ्यता का भेदभाव करना गलत बात है, लेकिन वे केवल बातें हैं. हमारे घरों परिवारों में, हमारे आम जीवन में, टीवी पर दिखाये जाने वाले कार्यक्रमों में, विज्ञापनों में, हमारा समाज कुछ और संदेश देता है, जो कहता है कि काला रंग या अफ्रीकी चेहरा या जनजाति के नाकनक्श का अर्थ हीनता, नीचापन है."

हाँ, हमारे भारत में भी बिल्कुल यही बात है, मैंने रोबसन को बताया. भारत में अगर आप का काला रंग हो या जाति की वजह से, हमारे समाज में हर ओर से छोटी उम्र से ही यही संदेश मिलता है कि तुम नीचे हो, तुममे कमी है. उस पर भारत में भाषा से जुड़ी हीन भावना भी है, अगर अंग्रेज़ी न बोलनी आये तो तुममे कुछ भी करने की शक्ति नहीं है यह कहते हैं. नर्सरी स्कूल से ही बच्चों को अंग्रेज़ी की कवितायें याद करायी जाती हैं.

रोबसन बोला, "हमारी मूल भाषाएँ तो अब लुप्त ही हो गयी हैं, सभी केवल पोर्तगीज़ भाषा बोलते हैं, जिन्होंने हमारे देश पर राज किया. कुछ जनजाति की प्राचीन भाषाओं के शब्द उनके धार्मिक रीति रिवाज़ों के साथ जुड़ी प्रार्थनाओं में बचे हुए हैं लेकिन आज उन शब्दों के अर्थ कोई नहीं जानता. इसलिए मेरे लिए 'आशा घर'  का यह कार्यक्रम बहुत महत्वपूर्ण है कि केवल बात न की जाये, बल्कि बच्चे यहाँ आ कर अपनी अफ्रीकी और जनजाति की सभ्यताओं को स्वीकार करें. यह समझें कि यह गीत, कहानियाँ, मिथक, नृत्य आदि हीन नहीं हैं, इनकी अपनी गरिमा है. कोई ऊँचा नीचा नहीं, बल्कि हमें अपने अंदर दौड़ रहे अफ्रीकी और जनजातियों के खून पर गर्व होना चाहिये."

***

रोबसन से बात करने के कुछ देर बाद मेरी बात रेजीमार से हुई जो कि 'आशा घर' द्वारा चलाये जाने वाले प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक है. रेजीमार अफ्रीकी मूल का है. उसने कहा, "अन्य जगह बात बराबरी की होती है, कि हम सब एक बराबर हैं, कोई ऊँचा नीचा नहीं, लेकिन वह सिर्फ़ कहने की बाते हैं. यहाँ 'आशा घर' में इन विचारों को कहने की नहीं, जीने की कोशिश है. इस तरह जियो कि हर इन्सान की गरिमा को महत्व दो. यह नहीं कहता कि समाज में हर कोई भेदभाव करता है लेकिन अगर अन्य लोग भेदभाव न भी करें, तो हमारे अपने मन में हीन भावना इतनी गहरी होती है कि हम स्वयं भीतर से अपने आप को अन्य लोगों के बराबर नहीं मानते. इसलिए बच्चों के साथ काम करना बहुत महत्वपूर्ण है, जिससे उनके अन्दर वह हीन भावना न पनपे."

"लेकिन अगर स्कूल में बराबरी का महत्व समझ में आ भी जाये तो स्कूल के बाहर का असर उससे रुक सकेगा? बच्चे स्कूल से बाहर जायेंगे तो खेल के मैदान में, घर में, वहीं भेदभाव वाला समाज नहीं मिलेगा उन्हें?" मैंने पूछा.

"हमारा स्कूल अन्य स्कूलों से भिन्न है, हमारे यहाँ बच्चे शिक्षा का केन्द्र हैं न कि शिक्षक या फ़िर किताबें. हम कोशिश करते हैं कि बच्चों में प्रश्न पूछने, अपने उत्तर स्वयं खोजने की क्षमता दें. बच्चा कुछ भी पूछ सकता है, कुछ भी कह सकता है. हमारे बच्चे एक बार दुनिया को अपनी तरह से समझने का तरीका सीख लेते हैं तो घर परिवार, समाज हर जगह इसका असर पड़ता है. पंद्रह साल हो गये मुझे यहाँ पढ़ाते, इन सालों में इतनी बार औरों से अपनी आलोचना सुनी है कि 'आप के स्कूल के बच्चे प्रश्न बहुत पूछते हैं, टीचर कुछ भी कहे उसे यूँ ही नहीं मान लेते' तो मुझे बहुत गर्व होता है. मैं सोचता हूँ कि हमारे बच्चे बाहर के हर भेदभाव से लड़ सकते हैं, इतना आत्मविश्वास बन जाता है उनका."

24 अगस्त, 2012, गोईयास वेल्यो

सुबह उठा तो बाहर सैर करने की सोची. हमारे होटल के बिल्कुल साथ में नदी बहती है, रियो वेरमेल्यो (Rio Vermelho), यानि "सिँदूरी नदी". सैर करते हुए उसी नदी के किनारे पहुँच गया. नदी के ऊपर एक पुराना कुछ टूटा हुआ सा पुल था, जिसके पीछे एक झरना भी दिख रहा था. बहुत सुन्दर जगह थी. आसपास कोई था भी नहीं, बस एक बूढ़े से खानाबदोश किस्म के व्यक्ति दिखे जो अपने दो कुत्तों के साथ घूम रहे थे. उन्होंने मेरी ओर देखा तक नहीं, अपने में ही मग्न थे. आधे घँटे तक वहीं झरने के पास बैठा रहा, कुछ तस्वीरें खींचीं. रात को नींद ठीक नहीं आयी थी, लेकिन उस आधे घँटे में सारी थकान दूर हो गयी.

Rio Vermelho, Goias Velho, Brazil

वापस होटल पहुँचा तो जी भर के नाश्ता खाया. नाश्ते में इमली का खट्टा सा रस भी था जो मुझे बहुत अच्छा लगा. इतनी अलग अलग तरह के फ़ल मिलते हैं यहाँ, जो दुनियाँ में अन्य कहीं नहीं देखे जैसे माराकुजा और कुपुआसू. और उनका स्वाद भी बहुत बढ़िया है. नाश्ते में इतना खाया कि बाद में अपने पर खीज आ रहा थी. अपने को रोकने की और संयम की शक्ति मेरी बहुत कम है.

***

"आशा घर" में पढ़ने वाले एक बच्चे के पिता से बात हुई तो उसने एक अन्य बात बतायी. बोला, "इस स्कूल के बारे में शहर में बहुत से गलत बातें कही जाती हैं कि यहाँ धर्म बदल देते हैं. इसलिए यहाँ बहुत से लोग अपने बच्चे को नहीं भेजना चाहते. मैं इस बात को नहीं मानता. मेरे बच्चों ने कोई धर्म नहीं बदला, बल्कि यहाँ की शिक्षा ने उन्हें सोचने समझने की ताकत दी है. मेरा बड़ा बेटा अब विश्वविद्यालय में पढ़ता है, वह यहीं से पढ़ा है. वह कहता है कि इस स्कूल में पढ़े दिन उसके जीवन के सबसे सुन्दर दिन थे और उसने जो यहाँ सीखा है उससे उसका दिमाग और चरित्र दोनो बने हैं."

बाद में मैंने यह बात रोबसन से पूछी कि अन्य धर्म वाले तुमसे नाराज़ क्यों हैं? वह बोला, "मैं कन्दोमब्ले धर्म में विश्वास करता हूँ जो कि अफ्रीकी मूल के आये लोगों के मूल धर्म से प्रेरित है. अफ्रीकी गुलामों को यहाँ ला कर उन्हें ईसाई बनाया गया, लेकिन उन्होंने अपने मूल धर्म को छुपा कर बचाये रखा. आज का कन्दोमब्ले उनके पुराने अफ्रीकी धर्म से साथ ईसाई धर्म और यहाँ रहने वाले मूल जनजाति के निवासियों के धर्म के सम्मिश्रण से बना है. हमारे धर्म के अनुसार पृथ्वी की हर वस्तु, पेड़ पौधे, पहाड़ पत्थर, मानव और पशु पक्षी, सबमें एक ही परमात्मा है. 'आशा घर' की बहुत से कार्यक्रम मेरे धर्म के विश्वास से प्रभावित हैं लेकिन हमारे यहाँ कैथोलिक, एवान्जेलिक सब धर्मों के लोग काम करते हैं, सब धर्मों के बच्चे पढ़ते हैं, मैंने कभी किसी का धर्म बदलने की कोशिश नहीं की. मैं उनके धर्म का मान करता हूँ क्योंकि अगर सोचोगे कि हर वस्तु में वही परमात्मा है तो कोई तुमसे भिन्न नहीं, तो मैं उनके विरुद्ध कैसे कुछ कह या कर सकता हूँ? लेकिन यहाँ के कैथोलिक और एवान्जेलिक लोग हमारे विरुद्ध प्रचार करते हैं कि हम बच्चों का धर्म बदलना चाहते हैं."

मैं सोच रहा था कि दुनिया के दो कोनों पर हैं भारत और ब्राज़ील, लेकिन फ़िर भी कितनी बातों में हमारी समस्याएँ एक जैसी हैं! रोबसन ने कहा कि उन पर यह भी आरोप लगाया जाता है कि वह बच्चों से ईसाई धर्म की आलोचना की बातें करते हैं.

मेरे विचार में यह सोचना कि कोई अन्य तुम्हारे भगवान की या पैगम्बर की आलोचना या बुराई कर सकता है, यह बात असम्भव है. क्योंकि भगवान या पैगम्बर इतने कमज़ोर नहीं हो सकते कि किसी के कुछ कहने, लिखने या चित्र बनाने से उनकी बेइज़्ज़ती हो जाये. यह तो मानव के अपने मन की असुरक्षा की भावना है जो यह सोच सकती है. दूसरी ओर बात है धर्म के नाम पर लोगों को उल्लू बनाना या उनको दबाना और उनके मानव अधिकार और गरिमा का शोषण करना. धर्म के नाम पर जो लोग इस तरह की बात करते हैं उसकी आलोचना करना तो मेरे विचार में भगवान की पूजा के बराबर होगी.

पर यह सच है कि दुनिया के बहुत से देशों में बहुसंख्यकों के धर्म की रक्षा के नाम पर दूसरे अल्पसंख्यक धर्मों के लोगों के साथ अन्याय होता है, उन्हें दबाया जाता है. बहुत से देशों ने तो कानून भी बनाये हैं जहाँ धर्म की बेइज़्ज़ती के नाम पर लोगों को कारावास या मृत्यू दँड तक दे देते हैं.

***

इस बार पोर्तगीज़ बोलने में मुझे अधिक कठिनाई हो रही है!

आखिरी बार पोर्तगीज़ यहीं ब्राज़ील में ही बोली थी, करीब चौदह महीने पहले. उसके बाद किसी पोर्तगीज़ भाषा के देश में जाने का मौका नहीं मिला. शायद इस लिए भाषा को कुछ जंग सा लग गया. या फ़िर उम्र का असर है.

एक अन्य कारण भी हो सकता है इसका, मेरा ईबुक रीडर! पहले कोई भी यात्रा हो साथ में एक किताब तो अवश्य होती थी, लेकिन नये देश में जा कर, वहाँ के समाचार पत्र पढ़ना, टीवी देखना, लोगों से बातें करना, इस सबसे भाषा का अभ्यास तुरंत शुरु हो जाता था. इस बार ईबुक रीडर है जिसमें 153 किताबें हैं, बस हर समय उसी में मग्न रहता हूँ. शायद इसी लिए इस बार पोर्तगीज़ भाषा को ठीक से  बोलने में इतनी कठिनायी हो रही है.

26 अगस्त 2012, गोईयानिया

कल शाम को गोईयास वेल्यो से वापस आये. आज रविवार को मैं खाली था. सुबह सुबह शहर का नक्शा ले कर निकल पड़ा कि धूप तेज़ होने से पहले शहर में कुछ नया देखा जाये.

रास्ते में एक बाग में छोटा उल्लू का बच्चा दिखा जो तेज़ स्वर में पुकार रहा था. शायद उसके माता पिता उसके खाने की खोज में ही गये थे. मैं तस्वीर खींचने के लिए करीब गया तो एक पत्थर के नीचे खुदे खड्डे में दुबक गया.

Baby owl, Goiania, Brazil

आजकल ब्राज़ील के राष्ट्रीय फ़ूल इपे के खिलने का मौसम है. इपे के अधिकतर पेड़ों में पत्ते नहीं हैं बस फ़ूलों से भरे हैं. बागों में गुलाबी, जामुनी, पीले, नीले, विभिन्न रंगों के इपे दिखते हैं.

Ipé tree, Goiania, Brazil

घूमते घूमते विश्वविद्यालय वाले इलाके में पहुँच गया, जहाँ एक बाग में ब्राज़ीली शिल्पकारों की बनायी बहुत सी मूर्तियाँ लगीं थीं. मिट्टी की बनी एक कलाकृति मुझसे सबसे अच्छी लगी, पर शायद विश्वविद्यालय के छात्रों को एक हाथ की कलाकृति सबसे अधिक पसंद थी जिसके ऊपर उन्होंने अपने संदेश लिख दिये थे. उस हाथ की कलाकृति के अतिरिक्त किसी अन्य कलाकृति को लिख कर नहीं बिगाड़ा गया था.
Terracotta Sculptures University square, Goiania, Brazil

Hand Sculpture university square, Goiania, Brazil

तीन घँटे तक चला, जब वापस होटल पहुँचा तो टाँगें थकान से चूर हो रही थीं. फ़िर भी खाना खा कर होटल के करीब एक बाग में लगे चित्रकला बाज़ार में गया, क्योंकि वहाँ अपने एक पुराने मित्र तादेओ से मिलना चाहता था. तादेओ भी चित्रकार है और कुछ वर्ष पहले खरीदी उसकी एक कलाकृति बोलोनिया में हमारे घर में भी लगी है जो मुझे बहुत अच्छी लगती है. तादेओ को बचपन में कुष्ठ रोग हुआ था, जिसकी वजह से उन्हें उनके परिवार से हटा कर कुष्ठ रोगियों की कोलोनी में रहना पड़ा, परिवार भाई बहनों से उनके सब नाते टूट गये. आज वह बात नहीं है क्योंकि अब कुष्ठ रोग का उपचार आसान है इसलिए किसी को उसके परिवार से निकाल कर कोलोनी में बन्द करने वाली बातें अब नहीं होतीं. सोचा था कि तादेओ की एक अन्य पैंटिंग खरीदूँगा, लेकिन बाज़ार में तादेओ नहीं दिखा. अन्य चित्रकारों से पूछा तो उसके एक मित्र ने बताया कि उसकी तबियत ठीक नहीं थी.

Ashwarya Rai in art market, Goiania, Brazil

चित्रकला बाज़ार में भारत की एश्वर्या राय भी दिखीं. एक कलाकार ने उनकी बड़ी तस्वीर पर चमकते सितारे और मोती टाँक कर तस्वीर बनायी थी जिसे लोग दिलचस्पी से देख रहे थे और किसकी तस्वीर है यह पूछ रहे थे.

अब नींद आ रही है, जल्दी सोना चाहिये क्योंकि कल सुबह सुबह बेलेन जाने की उड़ान लेनी है.

27 अगस्त 2012, बेलेम

आज दोपहर को बेलेम पहुँचे. होटल बस अड्डे के सामने है. मैं सामान आदि रख कर घूमने निकला, सोचा था कि यहाँ के एक संग्रहालय और बाग में घूमूँगा लेकिन सोमवार होने की वजह से दोनो ही बन्द थे. शाम को खाना खाने हम लोग पुरानी बँदरगाह की ओर गये जहाँ पुराने गौदामों में नये रेस्टोरेंट, दुकाने आदि खोली गयी हैं. वहीं एक "किलो रेस्टोरेंट" में खाना खाया. किलो रेस्टोरेंट में आप अपनी प्लेट में कुछ भी खाना ले लेजिये, बाद में उसके वजन के हिसाब से उसकी कीमत चुकाईये. इस तरह अगर आप चाहे तो केवल चावल सब्जी खाईये नहीं तो केवल माँस मछली, उससे कुछ फ़र्क नहीं पड़ता, बस वजन के हिसाब से कीमत लगेगी. शहर के अधिकतर किलो रेस्टोरेटों में 20 या 22 रियाइस यानि 500 या 550 रुपये प्रति किलो की कीमत होती है लेकिन बँदरगाह के नये शापिंग सेंटर की कीमत दुगनी थी, फ़िर भी खाना अच्छा था.

मैंने खाने के साथ खूब आम भी खाये. इस साल बोलोनिया में कई बार आम खोजने गया था पर नहीं मिले थे, केवल चटनी वाले कच्चे आम मिलते थे. वहीं छत पर लटकते चबूतरे पर बैठ कर एक युवक गिटार बजा रहा था और साथ गीत गा रहा था, वही चबूतरा भवन में इधर उधर घूम रहा था.

खाना खा कर यहाँ कि पुराने पुर्तगाली किले और उसके सामने बने कैथेड्रल को देखने गये. सफ़ेद रंग का कैथेड्रल, सफेद और लाल रोशनियों से सजा, रात के अँधेरे में बहुत सुन्दर लग रहा था.

Cathedral, Belem, Brazil

मेरे साथ यहाँ आयी ब्राज़ीली साथी दियोलिँदा यहीं नदी के बीच में एक द्वीप में पैदा हुई थी. वह अपने बचपन की साठ साल पहले की बातें बता रही थी कि कैसे यहाँ सड़क नहीं थी और वह अपनी माँ के साथ बाग में लगने वाले हाट में खाने का सामान बेचने आती थी. उसकी माँ अफ्रीकी मूल की थीं और पिता एक फ्राँसिसी और अमेज़न जनजाति के सम्मिश्रित. उसके परिवार में गोरे, काले, हर रँग और नस्ल के दिखने वाले लोग हैं. उसके अपने बच्चों में भी अफ्रीकी रँग और चेहरे वाले भी हैं और सुनहरे बालों वाले यूरोपीय दिखने वाले भी.

गोयानिया में आकाश इतना नीला दिखता था मानो शेम्पू से धोया हो. यहाँ का आसमान उसके मुकाबले में कुछ मटमैला सा है.

Bosque do Buritis lake, Goiania, Brazil

कल सुबह अबायतेटूबा यानि "भीमकाय लोगों का गाँव" जाना है जो कि अमेज़न जँगल के बीच में बसा है. राज्य स्वास्थ्य विभाग की गाड़ी आयेगी हमें लेने, और आधा रास्ता नाव में नदी पार करने का होगा. वहाँ पिछले वर्ष भी गया था. लोग सागर जैसे नदी के बीच में अलग अलग द्वीपों में रहते हैं.

***

(अंत भाग 01)

गुरुवार, फ़रवरी 16, 2012

छोटा सा बड़ा जीवन


हर बार की तरह इस बार भी भारत से आते समय मेरे सामान में सबसे भारी चीज़ें किताबें थीं. उन्हीं किताबों में थी नरेन्द्र कोहली की "पूत अनोखो जायो", जो कि स्वामी विवेकानन्द की जीवनी पर लिखी गयी है. छोटा सा जीवन था स्वामी विदेकानन्द का, चालिस वर्ष के भी नहीं थे जब उनका देहांत हुआ, लेकिन वैचारिक दृष्टि से देखें तो कितनी गहरी छाप छोड़ कर गये हैं!

स्वामी विवेकानन्द के बारे में भारत में कोई न जानता हो, कम से कम मेरी अपनी पीढ़ी में, मुझे नहीं लगता. पर अधिकतर लोगों को सतही जानकारी होती है. जैसा कि मुझे मालूम था कि वे स्वामी रामकृष्ण परमहँस के शिष्य थे और उन्होंने भारत भर में रामकृष्ण मिशन स्थापित किये और अमरीका यात्रा की जहाँ बहुत से व्याख्यान आदि दिये. पर अगर कोई मुझसे पूछता कि उनकी क्या सोच थी, उनका क्या संदेश था, तो मैं कुछ ठीक से नहीं बता पाता. वह कब पैदा हुए थे, कहाँ पैदा हुए थे, कब और किस उम्र में उनकी मृत्यु हुई, यह सब भी नहीं बता सकता था. इसलिए जब नरेन्द्र कोहली की किताब दिखी तो तुरंत खरीद लिया था.

इसी पुस्तक को शायद पहले विभिन्न खँडों में "तोड़ो, कारा तोड़ो" के नाम से प्रकाशित किया गया था. इस पुस्तक के दो अंश इंटरनेट पर श्री नरेन्द्र कोहली के वेबपृष्ठ पर भी उपलब्ध हैं.

Put anokho jayo book cover

करीब 650 पन्नो की मोटी किताब है जिसमें नरेन्द्र दत्त यानि स्वामी विवेकानन्द के लड़कपन से ले कर मृत्यु के कुछ साल पहले तक का जीवन है. उनके बारे में सबसे अनौखी बात लगी कि जिस नाम से उन्हें उनके घर वाले बुलाते थे यानि नरेन्द्र या जिस नाम से उन्होंने सन्यास की दीक्षा ली, यानि विविदिषानन्द, उन दोनो नामों को आज बहुत कम लोग जानते होंगे, जबकि उनका नाम "विवेकानन्द" ही प्रसिद्ध हुआ जो कि उन्हें अपने जीवन के अन्त में मिला था, शायद इसीलिए क्योंकि इसी नाम से वह अमरीका गये थे और वहाँ प्रसिद्ध हुए थे.

इन नामों के अतिरिक्त अपने सन्यासी जीवन में उन्होंने अन्य कई नामों का प्रयोग किया जैसे कि नित्यानन्द, सच्चिदानन्द और चिन्मयानन्द. उनका नाम विवेकानन्द उन्हें खेतड़ी के राजा अजीतसिंह ने सुझाया था. नामों से मोह न करना, अपने आप को ईश्वर का निमित्त समझना, सन्यासी भावना का ही प्रतीक था.

उनका कलकत्ता में पैदा होना, पिता की मृत्यु, कोलिज में कानून पढ़ना, ब्रह्म समाज में शामिल होना और मन्दिर जाने या मूर्ति पूजा में विश्वास न करना, तर्क की बुनियाद पर आध्यात्मिकता पर प्रश्न पूछना और जानने की कोशिश करना कि भगवान है या नहीं, और फ़िर काली मन्दिर में परमहँस से मुलाकात और धीरे धीरे परमहँस के साथ बँध जाना और सन्यास लेने का निर्णय, उनकी सोच में धीरे धीरे बदलाव, योग और ध्यान से आध्यात्मिक अनुभव, सब बातें किताब में बहुत खूबी से लिखी गयी हैं.

उपन्यास के प्रारम्भ का नरेन दत्त सामान्य लड़का दिखता है जिसके सपने हैं, परिवार के प्रति ज़िम्मेदारियाँ हैं, विधवा माँ, छोटे भाई बहनों की चिन्ता है. पर धीरे धीरे नरेन्द्र इन सब बँधनो से दूर हो जाते हैं और पर्वतों पर तपस्या को निकल पड़ते हैं.

सन्यास लेते समय नरेन्द्र दत्त के शपथ लेने का वर्णन इस जीवन कथा में इन शब्दों में हैः "स्मरण रहे तुमने सन्यास की विधिवत् दीक्षा ली है. अब तुम सन्यासी हो, परमहँस सन्यासी. तुम अपना श्राद्ध स्वयं अपने हाथों कर चुके. अपना पिंडदान कर चुके. अपने परिवार और समाज के लिए तुम मृतक समान हुए. तुम्हारी कोई जाति नहीं, गोत्र नहीं. तुम सामाजिक विधि निषेध से मुक्त हुए. यज्ञोपवीत से मुक्त हुए. तुम किसी भी जाति अथवा धर्म के व्यक्ति का छुआ और पकाया हुआ भोजन खा सकते हो. तुमने सामाजिक विधि  निषेध  को त्यागा, सामाजिक विधि  निषेध  ने तुम्हें त्यागा."

इस शपथ को पढ़ कर मेरे मन में बहुत प्रश्न उठे. क्या यह शपथ हर सन्यासी लेता है? इतिहासिक रूप में यह शपथ कब बनी होगी? अगर हमारे सन्यासी, ऋषि, मुनि यह शपथ लेते थे तो हमारे धर्म ग्रंथों में जातिवाद इतना गहरा क्यों फ़ैला और विवेकानन्द से पहले हमारे सन्यासियों ने भारत में जातिवाद से उठने का कार्य क्यों नहीं किया? पुस्तक में कई घटनाओं का वर्णन है जिसमें स्वामी विवेकानन्द का जाति से जुड़े अपने संस्कारों को बदलने का प्रयास है और अन्य धर्मों एवं तथाकथित "निम्न जातियों" के लोगों से निकटता के सम्बन्ध बनाने की बाते हैं, जैसे कि इस दृश्य में:
"क्या कह रहे हैं बाबा जी! आप मेरी चिलम पीयेंगे! मैं जात का भंगी हूँ महाराज!"
"भंगी?" नरेन्द्र का हाथ सहज रूप से पीछे हट गया और मन अनुपलब्धता की भावना से निराश हो कर बुझ गया... सहसा वह सजग हुआ. उसके मन में बैठा कोई प्रकाश बिन्दु उसे लगातार धिक्कार रहा था. वह कैसा परमहँस सन्यासी है, जो जाति विचार करता है और भंगी को हीन मान कर उसकी चिलम नहीं पीता? वह कैसा वेदान्ती है, जो प्रत्येक जीव में छिपे ब्रह्म को नहीं पहचान पाता?
पुस्तक में कई जगह स्वामी विवेकानन्द के चिलम, चुरुट और सिगरेट पीने की बात है, जिनसे मन में थोड़ा सा आश्वर्य हुआ. जाने क्यों मन में छवि थी कि इतने विद्वान हो कर स्वामी जी में इस तरह की आदतें कैसे हो सकती थी? इस तरह के विचार उस समय, यानि सन् 1890 के परिवेश में चिलम, हुक्का आदि पीने की सोच को ध्यान में नहीं रखते थे और उन्हें आजकल की सोच की कसौटी पर परखते थे. हालाँकि उन्नीस सौ सत्तर अस्सी के दशकों तक अस्पतालों में डाक्टरों तक का सिगरेट सिगार पीना आम बात होती थी.

वैसे तो मुझे इस किताब के बहुत से हिस्से अच्छे लगे. उनमें से वह हिस्सा भी है जिसमें नरेन के साधू बनने की राह पर अपनी माँ से बदलते सम्बन्ध की छवि मिलती हैः
"तुम क्या चाहती हो माँ?"
"अपनी पुस्तकें ले. नानी के घर जा. "तंग" में बैठ कर एकाग्र हो कर कानून की पढ़ाई कर. परीक्षा में अच्छे अंक ले कर उत्तीर्ण हो. वकील बन कर धनार्जन कर तथा माँ और भाईयों का पालन कर." ...
"तुम जानती हो माँ, तुम्हारी इच्छा मेरे लिए क्या अर्थ रखती है!"
"जानती हूँ." भुवनेश्वरी बोली, "यह भी जानती हूँ कि तेरा सुख मेरे लिए कितना महत्वपूर्ण है." भुवनेश्वरी क्षण भर के लिए रुकी, "पर यह भी सोचती हूँ कि तूने मेरे गर्भ से जन्म ले कर मुझे कितना सुख दिया है, कहीं तू अपनी तपस्या से मुझे उतना ही दुःख तो नहीं देने वाला?"
नरेन्द्र क्षण भर मौन खड़ा रहा, फ़िर उसने दृष्टि भर कर माँ को देखा, "मैं तुम्हें दुःख नहीं दूँगा माँ! पर यह भी सत्य है कि मैंने तुम्हे कभी कोई सुख भी नहीं दिया है."
भुवनेश्वरी ने कुछ चकित हो कर उसकी ओर देखा, "यह तू क्या कह रहा है रे?"
"माँ! तुम्हें सुखी किया है मेरे प्रति तुम्हारे मोह ने." नरेन्द्र बोला, "और जहाँ मोह होगा वहाँ दुःख भी आयेगा. अपने मोह को प्रेम में बदल लो माँ, मैं ही क्या तुम्हें कोई भी दुःख नहीं दे पायेगा."
भुवनेश्वरी की आँखें कुछ और खुल गयीं, जैसे किसी अनपेक्षित विराटता को देख कर स्तब्ध रह गईं हों और फ़िर बोलीं, "ईश्वर की माया भी यदि मोह में नहीं डालेगी तो यह लीला कैसे चलेगी. अब अपना कपट छोड़. ऋषियों की बोली मत बोल. मेरा पुत्र ही बना रह और जो कह रही हूँ, वही कर."
मुझे विवेकानन्द का "पव आहारी" बाबा से मिलने का दृश्य और उनकी बातचीत भी बहुत अच्छे लगेः
"ईश्वर अपने उन्हीं भक्तों को कष्ट क्यों देता है बाबा?"
"कष्ट!" बाबा मुस्कराए, "कष्ट क्या होता है भक्त? ये तो सब मेरे प्रियतम के पास से आये हुए दूत हैं. यह उसका प्रेम है. आप को क्या उसके प्रेम की पहचान नहीं है? जिनसे रुष्ट होता है, उन्हें इतना सुख देता है कि वे उसे भूल जाते हैं... कर्म के साथ कामना मत जोड़ो, उसे निष्काम ही रहने दो. एकाग्र हो कर कर्म करो. पूर्ण तल्लीनता से. जिस प्रकार श्री रघुनाथ जी की पूजा अंतःकरण की पूर्ण तल्लीनता से करते हो, उसी एकाग्रता और लगन से ताँबे के क्षुद्र बर्तन को भी माँजो. यही कर्म रहस्य है. जस साधन तस सिद्धि. अर्थात ध्येय प्राप्ति के साधनो से वैसा ही प्रेम रखना चाहिये मानो वह स्वयं ही ध्येय हों."
किताब के विवेकानन्द का जीवन मानव की ईश्वर की खोज में भटकने और रास्ता पाने का वर्णन है. जिस युवक में ठाकुर यानि रामकृष्ण परमहँस को तुरंत देवी माँ का वास दिखता है लेकिन स्वयं विवेकानन्द अपने आप को सामान्य साधक ही मानते हैं जो जीवन भर परमेश्वर की खोज में लगे रहते हैं. उनके मन में वही प्रश्न थे जो आध्यात्मिक मार्ग पर जाने वाले अन्य लोगों के मनों में होते हैं. इस यात्रा में वह अन्य धर्मों के लोगों से मित्रता बनाते हैं और उनसे ईश्वर के बारे में बहस करते हैं. जैसे कि अपनी भारत यात्रा में वह अलवर में एक मुसलमान मित्र के घर पर रुके थे, जलालुद्दीन.

एक अन्य मुसलमान मित्र फैजअली से उनकी बातचीत कि दुनिया में क्यों विभिन्न धर्म बने भी बहुत दिलचस्प हैः
"तो फ़िर इतनी प्रकार के मनुष्य क्यों बनाये? हिंदू बनाये, मुसलमान बनाये, ईसाई बनाये, यहूदी बनाये. उन सबको अलग अलग धार्मिक ग्रंथ दिये. एक ही जैसे मनुष्य बनाने में उसे क्या  एतराज़ था, ताकि लोग न बँटते और न आपस में मतभेद होता. न कोई लड़ाई झगड़ा होता."
स्वामी हँस पड़े, "कैसी होती वह सृष्टि, जिसमें एक ही प्रकार के फ़ूल होते. केवल गुलाब होता, कमल न होता. कमल होता तो गुलाब न होता, गेंदा न होता, मौलश्री न होती, रजनीगंधा का फ़ूल न होता? ...इसीलिए उसने इतनी प्रकार के जीव जंतु और मनुष्य बनाये कि हम पिंजरे का भेद भुला कर जीव की एकता को पहचानें." ...
"तो ऐसा क्यों है कि एक मजहब में कहा गया कि गाय और सूअर खाओ, दूसरे में कहा गया कि गाय मत खाओ, सूअर खाओ, तीसरे में कहा गया, गाय खाओ सूअर  मत  खाओ. इतना ही नहीं जो खाये उसे अपना दुश्मन समझो."
स्वामी हँस पड़े, "मेरे प्रभु ने कहा यह सब?"
"मज़हबी लोग तो यही कहते हैं."
"देखो! किसी भी देश प्रदेश का भोजन वहां की जलवायु की देन है. सागरतट पर बसने वाला आदमी समुद्र में खेती तो नहीं कर सकता, वह सागर से पकड़ कर मछलियाँ ही तो खायेगा. उपजाऊ भूमि के प्रदेश में खेती बाड़ी हो सकती है, वहाँ अन्न, फ़ल और शाक पात उगाया जा सकता है. उन्हें अपनी खेती के लिए गाय और बैल बहुत उपयोगी लगे. उन्होंने गाय को अपनी माता माना, धरती को माता माना, नदी को माता माना, वे सब उनका पालन पोषण माता के समान ही करती हैं. अब जहाँ मरुभूमि हो, वहां खेती कैसे होगी? खेती नहीं होगी तो वह गाय और बैलों का क्या करेंगे? अन्न नहीं है तो खाद्य के रूप में वह पशुओं को ही खायेंगे. तिब्बत में कोई शाकाहारी कैसे हो सकता है? वही स्थिति अरब देशों में है..."
जब भी विभिन्न धर्मों के लोगों की शिकायतों के बारे में पढ़ता हूँ कि उसने हमारे धर्म का उपहास किया, उसने हमारे भगवान को गाली दी या उनका अपमान किया, तो अक्सर मुझे लगता है कि यह लोग अपने मन की अपने धर्म के प्रति असुरक्षा की भावना से ऐसा कहते या सोचते हैं वरना सर्वशक्तिशाली भगवान या इष्टदेव का अपमान आम मानव करे यह कैसे संभव है? इसी विषय पर पुस्तक में विवेकानन्द के विचार हैं जो मुझे अच्छे लगेः
"मां तुम ऐसा क्यों करती हो? किसी के मन में प्रेरणा बन कर उभरती हो कि वह तुम्हारी प्रतिमा बनाये, तुम्हारा मन्दिर बनाये और कहीं और किसी के मन को प्रेरित करती हो वह तुम्हारे मन्दिर को तोड़ दे, प्रतिमा को खंडित कर तुम्हें अपमानित करे?
सहसा स्वामी का मन ठहर गया. क्या मां भी मान अपमान का अनुभव करती है? क्या अपना मन्दिर बनता देख, वे प्रसन्न होती हैं? और मन्दिर के खँडित होने पर उनको कष्ट होता है? क्या मां को भी यश की तृष्णा है? उन्हें भी सम्मान की भूख है? ऐसा होता तो उनका मन्दिर कैसे टूट सकता था? उनकी प्रतिमा कैसे खँडित हो सकती थी? यह तो मनुष्य का ही मन था कि अपने अहंकारवश स्वयं को सारी सृष्टि से पृथक मानता था, अपने मान सम्मान की चिन्ता करता था, अपना यश अपयश मानता था, स्वयं को किसी से छोटा और किसी से बड़ा मानता था."
आज जो लोग हिन्दू धर्म की दुहाई दे कर यह कहते हैं कि धर्म ग्रंथ की बात को बिना प्रश्न के मान लो और अगर रामानुज जैसे विद्वान रामायण की परम्परा पर विभिन्न रामायण ग्रंथों की विवेचना करते हैं तो उसके विरुद्ध खड़े हो जाते हैं, उनके लिए स्वामी विवेकानन्द का विदेश जाने की बात पर एक पँडित से बहस को पढ़ना उपयोगी हो सकता है.

स्वामी जी ने उसे कहा, "प्रत्येक सुशिक्षित हिन्दू का यह दायित्व है कि वह हिन्दू सिद्धांतों को व्यवहारिकता की कसौटी पर कसे. हमें अपनी भूतकालीन अंध गुफ़ाओं से बाहर निकलना चाहिये और आगे बढ़ते हुए प्रगतिशील विश्व को देखना और समझना चाहिये...समय है कि क्षुद्रजन अपना अधिकार मांगें. सुशिक्षित हिन्दूओं का यह दायित्व है कि वे दमित और पिछड़े हुए लोगों को शिक्षा दे कर उन्हें आगे बढ़ायें, उन्हें आर्य बनायें. सामाजिक समता का सिद्धांत अपनायें, पुरोहितों के पाखँडों को निर्मूल करें, जातिवाद के दूषित सिद्धांतों को समाप्त करें, और धर्म के उच्चतर सिद्धांतों को प्रकट कर उन्हें व्यवहार में लायें."

ऐसा नहीं कि मैं धर्म सम्बन्धी सभी बातों में स्वामी विवेकानन्द के विचारों से सहमत हूँ, विषेशकर पुर्नजन्म और पिछले जन्मों के कर्मों से जुड़ी बातों में मुझे विश्चास नहीं. लेकिन यह किताब पढ़ना मुझे अच्छा लगा क्योंकि इसमे उनके विचार क्यों और कैसे बने का बहुत अच्छा विवरण है.

नरेन्द्र कोहली ने यह किताब बहुत सुन्दर लिखी है और अगर आप विवेकानन्द के जीवन तथा विचारों के बारे में जानना चाहते हैं तो इसे अवश्य पढ़िये. इसे लिखने के लिए अवश्य उन्होंने कई वर्षों तक शौध किया होगा.

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शनिवार, अगस्त 13, 2011

राखी का वचन

कल शाम को काम से घर लौटा तो अपनी दोनो बहनों की ईमेल देखी जिसमें राखी बाँधने की बात थी. एक भारत में रहती है, दूसरी अमरीका में. पहले कई सालों तक दोनो बहनें लिफ़ाफ़े में राखी भेजती थीं जो अक्सर त्योहार के कुछ दिनों बाद मिलती थीं और मैं अपनी पत्नी या बेटे से कहता था कि बाँध दो.

अब कल्पना की राखी से ही काम चल जाता है. वह कहती हैं कि हम प्यार से भेज रहे हैं, और हम प्यार से कहते हैं कि मिल गयी तुम्हारी राखी. आज की दुनिया में वैसे ही इतना प्रदूषण हैं, इस तरह से राखी मनाना पर्यावरण के लिए भी अच्छा है.

आज सुबह फेसबुक के द्वारा कुछ इतालवी "मित्रों" के संदेश भी मिले, पुरुषों के भी और स्त्रियों के भी, "हैप्पी रक्षाबँधन". यहाँ बहुत से मित्र भारत प्रेमी हैं, जो देखते रहते हैं कि भारत में क्या हो रहा है और होली, दीवाली तथा अन्य त्योहारों पर याद दिला देते हैं कि वे भी हैं, जो हमारे बारे में सोचते हैं. क्या इस तरह के संदेश मिलने को भी राखी बाँधना समझा जाये? तो अन्य पुरुषों से राखी मिलने को क्या समझा जाये?

बचपन में सोचते थे कि राखी तो भाई बहन के पवित्र बँधन का त्योहार है. कुछ बड़े हुए तो मालूम चला कि लड़के लड़कियाँ दोस्ती को छिपाने के लिए भी राखी बाँध कर भाई बहन बन सकते हैं. अब यह फेसबुकिया नये राखी वाले भाई बहन की एक नयी श्रेणी बन जायेगी. जिस इतालवी "फेसबुक मित्र" ने भी मुझे रक्षाबँधन के संदेश भेजे, सबको मैंने यही उत्तर दिया कि मेरा भाई या बहन बनने के लिए बहुत धन्यवाद. बस यह नहीं लिखा उन्हें कि रक्षाबँधन पर वचन क्या दे रहा हूँ.

फ़िर इसी बात से सोचना शुरु किया कि आज की दुनिया में राखी जैसे त्योहार का क्या अर्थ है? युद्ध में जाते हुए भाई को राखी बाँधने वाली बहन उसकी मँगल कामना करती थी और भाई यह वचन देता था कि ज़रूरत पड़ने पर वह बहन की सहायता के लिए आयेगा. राखी भाई की रक्षा करेगी, और भाई बहन की रक्षा करेगा.

Graphics on Rakhi designed by Sunil Deepak, 2011

पर आज भाई युद्ध पर नहीं नौकरी पर जाते हैं, और बहने भी घर में नहीं बैठती, वे भी पढ़ने स्कूल व कोलिज जाती हैं, नौकरी करती हैं.

भारतीय समाज में बहन की रक्षा करने का अर्थ पितृपंथी समाज ने कई तरह से लगाया है जिसमें जाति और धर्म की रक्षा तथा नारी की शारीरिक पवित्रता की रक्षा की बाते जुड़ी हैं. बहन की रक्षा यानि परधर्मी उसकी इज़्ज़त न लूटें, वह परधर्मियों या जाति से बाहर लोगों से प्रेम या विवाह न करे, अगर वह ऐसा करती है तो उसे और उसके प्रेमी/पति को मार दिया जाये, शारीरिक इज़्ज़त खोने से तो मरना अच्छा है, पति न रहे तो सति होना अच्छा है, जैसी बहुत सी बातें "बहन की रक्षा" करने की बात से भी जुड़ी हैं.

नारी या परिवार की इज़्ज़त बचाने लिए औरतों को मारने को "अस्मिता बचाने के खून" (Honour Killing) जैसे नाम दिये गये हैं. इसी वजह से बलात्कार की शिकार औरतों और लड़कियों को कहा जाता है कि अब तुमने अपनी इज़्ज़त खो दी, अब तुममें खोट हो गया, अब तुम बेकार हो गयी, अब तुम से कौन विवाह करेगा? यहाँ तक कि उस लड़की से कहा जाता है कि वह अपने बलात्कारी से ही विवाह कर ले.

शायद बड़े शहरों में रहने वाले सोचें कि यह सब तो पुरानी बाते हैं लेकिन मेरे विचार में गाँवों और पिछड़ी जगहों में ही नहीं, आज भी हमारे शहरों में इस तरह के विचार ज़िन्दा हैं, और इनमें अगर बदलाव आ रहा है तो बहुत धीरे धीरे.

पाकिस्तानी फ़िल्म "खामोश पानी" में ऐसी ही एक सिख नारी की कहानी थी जिसका पात्र भारतीय अभिनेत्री किरण खेर ने निभाया था, जिसे उसका परिवार पाकिस्तान में ही पीछे छोड़ आया थे. अमृता प्रीतम की कहानी पर बनी चन्द्र प्रकाश द्विवेदी की फ़िल्म "पिंजर" में भी कुछ इसी तरह की बात थी, जिसमें हिन्दु परिवार द्वारा त्यागी पूरो का पात्र अभिनेत्री उर्मिला मटोँडकर ने निभाया था. दोनो फ़िल्में भारत के विभाजन के समय की कहानी सुना रही थीं, लेकिन क्या इन साठ सालों में हमारे समाज की मानसिकता बदली है?

फ़िल्मों ही नहीं, अखबारों में भी इस तरह के समाचार आते ही रहते हैं.

मेरे विचार में आज रक्षाबँधन पर भाईयों को विचार करना चाहिये कि अपनी बहनों का क्या वचन दें जिससे यह समाज, और समाज में नारियों की यह परिस्थिति बदल सके?

जैसे किः "मेरी बहन, मैं वचन देता हूँ कि तुम्हे पढ़ने का, नौकरी करने का, मन पसंद साथी से प्यार और विवाह करने का मौका मिलेगा. वचन देता हूँ कि अगर तुम किसी वजह से पति के घर में सतायी जाओ तो तुम्हारा साथ दूँगा, संरक्षण दूँगा. कोई तुम पर ज़ोर लगाये कि बेटी पैदा करने के बजाया गर्भपात करो तो उसका विरोध करूँगा."

अगर आप से पूछा जाये कि आज के वातावरण में भाईयों को रक्षाबँधन पर बहनो को क्या वचन देना चाहिये, तो आप क्या वचन देना चाहेंगे?

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सोमवार, अप्रैल 25, 2011

मन की खोज

कल सत्य साईं बाबा का देहांत हो गया.

"साईं" शब्द से मेरी एक बहुत साल पुरानी याद जुड़ी है. तब मैं इटली में नया नया आया था और इतालवी भाषा को अच्छी तरह से नहीं जानता था. तब कई बार लोगों से बात करते हुए वाक्य के अंत में "साई" शब्द सुन कर बहुत हैरानी होती और मन में यह बात उठी कि शायद इतालवी भाषा और सिंधी भाषा में कुछ समानताएँ हैं. फ़िर इतालवी भाषा का ज्ञान बढ़ा तो समझ आया कि इतालवी "साई", लेटिन भाषा की "सपेरे" संज्ञा से बना है जिसका अर्थ है "जानना". कई इतालवी लोग बोलते समय "साईं" शब्द का प्रयोग "तुम जानते हो?" के तकिया कलाम की तरह करते हैं जैसे कि अंग्रेज़ी बोलने वाले कुछ लोग बात बात पर "यू नो?" (You know) कहते हैं. आज जब साईं बाबा की मृत्यु का समाचार सुना तो यही बात याद आयी. सोचा कि शायद भारत में प्रयोग किया जाने वाले "साईं" शब्द का मूल भी वही है, जो इतालवी भाषा में है, यानि "जानने वाला" या "ज्ञानी", चूँकि संस्कृत और लेटिन दोनो को इन्दोयूरोपीय मूल के भाषाएँ माना जाता है.

एक समय था जब सत्य साईं बाबा के इटली में भी बहुत भक्त थे. 1980 के दशक के इतालवी राजनीतज्ञ बेत्तीनो क्राक्सी (Bettino Craxi) के भाई अंतोनियो, साईं बाबा के बड़े भक्त थे और बँगलौर के पास किसी आश्रम में रहते थे. एक बार बेत्तीनो क्राक्सी भी अपने भाई से मिलने साईं बाबा के आश्रम गये थे, तब साईं बाबा ने उन्हें कहा था कि वह एक दिन इटली के प्रधानमंत्री बनेंगे. कुछ वर्षों के बाद ऐसा हुआ भी और क्राक्सी इटली के प्रधान मंत्री बने जिससे साईं बाबा की प्रसिद्धि पूरी इटली में फ़ैल गयी. 1990 के दशक में जब भी मुझे बँगलौर जाने का मौका मिलता तो हर बार मेरे इतलावी मित्र मुझसे पूछते कि क्या मैं साईं बाबा के दर्शन करने भी जाऊँगा? बाद में श्री क्राक्सी पर पैसे के घपले का आरोप लगा तो वह इटली छोड़ कर चले गये, साथ ही धीरे धीरे, साईं बाबा का नाम भी कुछ कम हो गया.

पर मेरे मन में साईं बाबा की लोकप्रिय छवि से, जो उन्हें चमत्कार करने वाला बाबा वाली छवि थी, बिल्कुल भी आकर्षण नहीं था. प्रारम्भ से ही मुझे सोचने विचारने वाली बातें करने वाले आध्यात्मिक गुरुओं में दिलचस्पी रही है, जबकि चमत्कार करने वाले और वरदान देने वाले गुरुओं के प्रति मुझे अविश्वास सा होता है, लगता है कि लोगों की सहज श्रद्धा का गलत फ़ायदा उठाया जा रहा हो.

भारत में जन्मी पनपी आध्यात्मिक परम्परा की जड़ें उपानिषिदों में हैं और उनमें मानव की अंतरात्मा की गहराईयों में छुपी जगत संज्ञा को खोजने की चेष्ठा है, यही चेष्ठा मुझे इस परम्परा की सबसे बड़ी उपलब्धी लगती है. पर योगी तपस्या से या आत्मसंयम से उड़ने लगें या चमत्कार करने लगें, इस तरह की बातों पर मेरा विश्वास नहीं है. मेरा मानना है कि भौतिक जीवन को भौतिक जगत के नियम मानने ही होंगें और उन नियमों से ऊपर उठने की बातें करने वाले लोग सच नहीं बोल रहे.

इसी तरह, आध्यात्म को धँधा बना कर पैसा कमाने लोग भी हैं, जो एक ओर माया संसार को त्यागने का मार्ग दिखाने का दावा करते हैं पर साथ ही मैनेजर भी बन जाते हैं ताकि उस पर कापीराईट बना कर सम्पति बनायी जाये. इस तरह के काम करने वाले लोग, चाहे वह दीपक चोपड़ा हों या श्री श्री रविशंकर, मुझे आकर्षित नहीं करते, आध्यात्म के व्यापारी लगते हैं.

मनोवैज्ञनिक दृष्टि से सोचूँ तो मुझे लगता है सर्वज्ञानी सर्वशक्तिमान गुरु या राजनीतिक नेता जैसी आकृतियों की खोज उन व्यक्तियों को होती है जिनके मन में असुरक्षा की भावना हो. इस तरह की आकृतियाँ हमें बचपन में पैदा होने के बाद के उन दिनों में ले जाती हैं जब हमारे लिए माता पिता सर्वज्ञानी सर्वशक्तिमान होते थे, वही हमारे सभी निर्णय लेते थे और हमें मानसिक सुरक्षा की अनुभूति देते थे. शायद इसका अर्थ है कि मानसिक दृष्टि से मैं अधिक आत्मनिर्भर हूँ और अपने ऊपर इस तरह की किसी आकृति को नहीं स्वीकारना चाहता.

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स्वाति चौपड़ा की नयी किताब "जागृत स्त्रियाँ - भारत में आधुनिक आध्यात्म की कहानियाँ" (Women awakened - stories of contemporary spirituality in India, Swati Chopra, Harper Collins publisher India, 2011) में आध्यात्म को स्त्री के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास है. इसके पीछे उनकी भावना है कि पुरुषों के मुकाबले में नारियों के लिए सन्यास लेना, घर परिवार त्यागना, जँगल में अकेले निकल पड़ना जैसे काम कठिन हैं. इसका सबसे बड़ा खतरा है कि पुरुष दृष्टि उनके जगत्याग को मान न दे कर, उन्हें यौन वासना का पात्र ही मानती है. पारम्परिक हिन्दू धर्म में साधवियों के लिए मठ या आश्रम जिसमें केवल सन्यासी औरते रहें, इसका विधान नहीं रहा है. इस सब की वजह से नारियों के लिए सन्यास मार्ग पर चलना और जगसम्मानित आध्यात्मिक गुरु बनना कठिन रहा है.

इस किताब में स्वाति चौपड़ा ने आठ नारी गुरुएँ के जीवन के बारे में लिखा है. इन आठ आकृतियों में एक हैं माँ शारदा देवी, स्वामी रामकृष्ण परमहँस की पत्नी, जिनकी जीवन कथा और सन्यास पथ को पुराने दस्तावेज़ो के माध्यम से समझने की कोशिश की गयी है. बाकी की सात आकृतियाँ आधुनिक गुरुओं की हैं - श्री आनन्दमयी माँ, माता निर्मला देवी, नानी माँ, जेत्सुनमा तेंज़िंग पाल्मो, माता अमृतानन्दामयी, खाँद्रो रिनपोछे और साध्वी भगवती.

Women spiritual gurus from contemporary India

इन सब गुरुओं से स्वाति चौपड़ा ने साक्षात्कार किये हैं, उनके जीवन को जानने की और साध्वी बनने के मार्ग को समझने की चेष्ठा की है. इन साक्षात्कारों में श्रद्धा तो है लेकिन पत्रकार का कोतूहल भी है. अक्सर गुरुओं को देवाकृति मान कर उनके बारे में लिखने वाले भक्त लोग निष्पक्ष भाव से नहीं लिख पाते, और गुरु के सामान्य मानव जीवन संबन्धी बातों को समझने के लिए ठीक से प्रश्न नहीं पूछ पाते. स्वाति चौपड़ा के लेखन में यह अंधभक्ति नहीं दिखती, बल्कि पश्चिमी तार्किक विचारधारा से प्रभावित सोचने समझने वाले प्रश्न भी हैं जो सामान्य जगत और आध्यात्मिक जगत के बीच की धँधली सीमारेखा को दोनो ओर देखने की चेष्ठा करते हैं.

इस किताब की चुनी गयी आठों नारी आकृतियाँ हिन्दु और बौद्ध धर्म से जुड़ी हैं. उनमें जैन, सिख, ईसाई आदि धर्मों की साध्वियों की कोई आकृति नहीं, जो मेरे विचार में इस किताब की थोड़ी सी कमज़ोरी है. किताब की हर आकृति से स्वाति जी प्रश्न पूछती हैं कि क्या गुरु के स्थान पर पहुँचने वाली स्त्रियों का आध्यात्मिक दृष्टिकोण पुरुष गुरुओं से भिन्न होता है? इस प्रश्न का उन्हें समान उत्तर मिलता है कि, स्त्री हो या पुरुष, एक बार आत्मा के गहन में छुपे परमात्मा से मिलन हो जाये तो नारी पुरुष की भिन्नता समाप्त हो जाती है, यानि गुरु तो केवल गुरु है, लिंग से परे, पर लिंगविहीन नहीं, उसमें नारी भी है, पुरुष भी.

आध्यात्मिक मार्ग को अधिकतर जग त्याग और सन्यास के मार्ग के रूप में ही देखा समझा गया है, जोकि सामान्य रूप से पुरुष मार्ग है. पुस्तक में स्त्रियों की प्रतिदिन में काम में लगे रहते हुए भी आध्यात्मिक मार्ग की खोज करने का कुछ विवेचन है जो मुझे बहुत अच्छा लगा.

आठों आकृतियों की अलग अलग जीवन गाथाओं में, अंतरात्मा की खोज के प्रारम्भ के रास्ते कुछ अलग लग सकते हैं पर बाद में सभी रास्ते एक ही मार्ग पर आ जाते हैं. इस तरह से दो तीन नारी गुरुओं के जीवनचित्र पढ़ कर लगता है कि पुस्तक में कुछ दोहराव है. इसकी वजह से आखिरी जीवन चित्रों को मैंने उतने रोचक नहीं पाया जितने मुझे किताब के प्रारम्भ के जीवनचित्र लगे. फ़िर भी यह किताब मुझे पढ़ने योग्य लगी.

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बुधवार, मार्च 02, 2011

दुनिया का पाकिस्तानीकरण

कुछ समय पहले सूडान में एक जनमत हुआ जिसमें देश के दक्षिणी भाग में रहने वाले लोगों को चुनना था कि वह सूडान में रहना चाहेंगे या फ़िर अपना अलग देश चाहेंगे. इस जनमत का नतीजा निकला है कि 98 प्रतिशत से अधिक दक्षिणी सूडान के लोग अपने लिए अपना अलग देश चाहते हैं. अधिकतर लोगों ने इस जीत का स्वागत किया है, वह कहते हैं कि इससे लाखों लोगों की मृत्यु और वर्षों से चलते दंगों का अंत होगा. धर्म के नाम पर अलग देश चाहने वालों की जीत से मेरे मन में बहुत से प्रश्न उठे, जिनके उत्तर शायद आसान नहीं.

अफ्रीकी जीवन के विषेशज्ञ प्रोफेसर अली मज़रुयी का एक लेख पढ़ा जिसमें मुझे अपने प्रश्नों की प्रतिध्वनि दिखी. प्रोफेसर मरज़ुई ने इसे "दुनिया का बढ़ता हुआ पाकिस्तानीकरण" कहा है. उन्होंने लिखा हैः
यूरोपीय साम्राज्यवाद के बाद के अफ्रीका महाद्वीप में दो तरह की लड़ाईयाँ हुई हैं - आत्म पहचान की लड़ाईयाँ जैसे कि रुवान्डा में हुटू और टुटसी की लड़ाई, और प्राकृतिक सम्पदा की लड़ाई जैसे कि नीजर डेल्टा में पैट्रोल के लिए होने वाली लड़ाई... पर अफ्रीकी महाद्वीप में 2000 से अधिक जाति गुट बसते हैं, अगर उनमें से दस प्रतिशत को भी अपने लिए स्वतंत्र राज्य मिले तो अफ्रीका छोटे छोटे देशों में बँट जायेगा जिनमें आपस में युद्ध होंगे. ..अफ्रीका में होने वाले विभिन्न, अपना अलग राज्य पाने के प्रयासों के पीछे, अधिकतर जाति या नस्ल के प्रश्न रहे हैं, न कि धार्मिक प्रश्न. 1950 के दशक में क्वामे न्करुमाह जैसे अफ्रीका नेताओं ने "पाकिस्तानीकरण" के विरुद्ध, यानि धार्मिक बुनियादों पर अलग होने के विचार पर चिंता व्यक्त की थी. जब भारत का विभाजन हुआ था, कई अफ्रीकी राष्ट्रवादी नेता, ब्रिटिश भारत में हिंदू मस्लिम तनाव का कारण बता कर में भारत के विभाजन करने के विरुद्ध थे, क्योंकि जानते थे कि अफ्रीका में भी ऐसे कुछ देश थे, जहाँ इस तरह के निर्णय लिये जा सकते थे. जैसे कि नाईजीरिया जहाँ उत्तर में मुसलमानों का बहुमत है और दक्षिण में ईसाईयों का.

आखिर यह नीति सुडान तक पहुँच गयी है, ईसाई बहुमत वाला दक्षिणी भाग, उत्तरी मुस्लिम भाग से अलग हो जायेगा. दक्षिणी सूडानी कहते हैं कि उत्तरी सूडानी उनसे भेदभाव करते हैं... लेकिन दक्षिण सूडान भी अलग जाति गुटों से बना है. कल को वहाँ रहने वाली अल्पमत गुट कहने लगेगें कि डिंका लोग हमें समान अधिकार नहीं देते. पैट्रोल की सम्पदा को कैसे बाँटा जाये, भी जटिल प्रश्न होगा.
धर्म के नाम पर, या अन्य किसी जाति विभिन्नता के नाम पर अलग देश माँगना, एक ऐसा चक्कर है जो कहीं नहीं रुकता. पाकिस्तान अलग देश बना तो क्या उसके अपने बलूचियों, सिंधियों, पँजाबियों, पठानों के बीच के अंतर्विरोध मिट गये? भारत के उत्तर में कश्मीर की घाटी में इसी नाम से हिँसा आज भी जारी है. किसी भी देश के सब निवासियों को जाति, धर्म आदि के भेदों से ऊपर उठ कर विकास के समान अधिकार मिलें यह अवश्यक है, और उन्हें ऐसी सरकारें चाहियें जो यह नीति लागू कर सकें. पर जब ऐसा नहीं होता, या किसी गुट को लगे कि उसके साथ न्याय नहीं हो रहा, तो अलग अपना देश या राज्य माँगने लगते हैं. लेकिन मुझे लगता है कि अक्सर, बँटवारा चाहने वाले, समान विकास और अधिकारों के प्रश्न को महत्वपूर्ण नहीं मानते, अपनी जाति, मान, रीति और धर्म के प्रश्न उठा कर राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काते हैं और पीछे ध्येय होता है कि कैसा बाकी सब गुटों से ताकतवर बने और देश की सम्पदा को अपने काबू में रखें.

कुछ देशों में मुस्लिम बहुमत वाले इलाकों ने शरीयत पर आधारित काननों को सब पर लागू कराना चाहा है, वह ज़ोर डालते हैं कि सब लोग उनके कहे के अनुसार पहने, खायें, व्यवहार करें. इससे अलग होने की भावना तेज होती है. नाईजीरिया में इसी वजह से तनाव बढ़े हैं. भारत के कुछ हिस्सों में हिंदू संस्कृति या मुसलमान आत्मनिष्ठा के नाम पर लोगों पर इसी तरह के दबाव डालते हैं. यही वजह है कि जब सूडान के दक्षिण वाले लोगों के जनमत में अलग होने के निर्णय के बारे में सुना तो मुझे कुछ भय सा लगा कि इससे अलग होने वाले गुटों को बल मिलेगा.

आज की दुनिया की बहुत सी समस्याओं की जड़ें पिछली सदी के यूरोपीय साम्राज्यवाद में छुपी हैं. साम्राज्यवाद के समाप्त होने के बाद भी, यूरोप ने विभिन्न तरीकों से अफ्रीका, अमरीका और एशिया के देशों में अपने स्वार्थ के लिए तानाशाहों को सहारा दिया है, जिसमें देशों में रहने वाले विभिन्न गुटों को समान अधिकार नहीं मिले. आज जहाँ एक ओर विभिन्न अरब देशों में इजिप्ट, टुनिज़ि, लिबिया जैसे देशों में हो रहे जनतंत्र के आन्दोलन इस्लाम की नहीं, मानव अधिकारों के मूल्यों की आवाज़ उठा रहे हैं, वहीं जनतंत्र की दुहायी देने वाले यूरोपी नेता अपने तानाशाह मित्रों पर आये खतरे से घबरा कर "इस्लामी रूढ़िवाद" के डर की बात कर रहे हैं.

दूसरी ओर, यूरोप में रहने वाले अन्य देशों से आये प्रवासियों में रूढ़िवादी धार्मिक नेताओं की आवाज़, अपने मानव अधिकारों के नाम पर पारम्परिक रीति रिवाज़ों और मूल्यों को बनाये रहने की लिए ही उठती है. यही लोग अक्सर विदेशों से अपने देशों में रुढ़िवादी और देशों को बाँटने वाली ताकतों को पैसा भेजते हैं. वह यूरोप या अमरीका जैसे देशों में रह कर भी संस्कृति बचाने के नाम पर अपने परिवारों और गुटों पर पूरा काबू बना कर रखते हैं और आवश्यकता पड़ने पर मारने मरवाने से नहीं घबराते. उनमें नारी के समान अधिकारों या विकास की बात कम ही होती है. इस विषय यूरोप में रहने वाले मुसलमान नेताओं के बारे में फरवरी के "हँस" में शीबा जी ने लिखा हैः
कठमुल्ला वर्ग बड़ी बेशर्मी से फ्रांस के बुरक़ा बैन पर टीवी, अखबार आदि में अवतरित हो कर फ्रांस की सरकार को लोकताँत्रिक मूल्य याद दिलाने लगता है. तब इन्हें शर्म नहीं आती कि जिस मुँह से यह ज़बरदस्ती बुरक़ा उतारने को बुरा कह रहे हैं "चुनाव की आज़ादी" के आधार पर, उसी मुँह से इन्हें अरब ईरान आदि देशों में ज़बरदस्ती औरतों को बुरक़ा पहनाने की भर्त्सना भी तो करनी चाहिये जो उतना ही चुनाव के अधिकार का हनन है. लेकिन नहीं, इन्हें अरब ईरान पर उंगली उठाने की ज़रूरत महसूस नहीं होती क्योंकि वहाँ की ज़बरदस्ती इन्हें जायज़ लगती है.
पर यह बात केवल मुसलमान गुटों की नहीं है. अमरीका में रहने वाले कट्टरपंथी यहूदी गुट एक अन्य उदाहरण है जिनका ईज़राईल पर गहरा प्रभाव है.

धार्मिक रूढ़िवाद और परम्परा बनाये रखने वालों की लड़ाई है कि अपने आप को कैसे अन्य गुटों से अलग किया जाये, दुनिया को कैसे बाँटा जाये, कैसे अपने धर्म का झँडा सबसे ऊँचा किया जाये और कैसे अन्य सब धर्मों को नीचा किया जाये. उदारवाद और मानव अधिकारों की दृष्टि से देखें तो धर्म व्यक्तिगत मामला है, कानून के लिए सभी समान होने चाहिये, सबको समान अधिकार और मौके मिलने चाहिये. समय के साथ इन दोनों में से किसका पलड़ा भारी होगा, कौन से रास्ते पर जायेगी मानवता?

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शुक्रवार, फ़रवरी 18, 2011

नारी मुक्ति की संत

शरीर की नग्नता में क्या नारी मुक्ति का मार्ग छुपा हो सकता है? कर्णाटक की संत महादेवी ने वस्त्रों का त्याग करके अपने समय के सामाजिक नियमों को तोड़ा था. क्यों?

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka
मधुश्री दत्ता की सन् 2000 की डाक्यूमेंटरी फ़िल्म "स्क्रिब्बल्स आन अक्का" (अक्का पर लिखे कुछ शब्द - Scribbles on Akka) देखने का मौका मिला जो बाहरवीं शताब्दी की दक्षिण भारतीय संत अक्का महादेवी की कविताओं के माध्यम से उनके क्राँतिकारी व्यक्तित्व को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने का प्रयास है. फ़िल्म उन असुविधाजनक व्यक्तित्वों के बारे में सोचने पर बाध्य करती है जो समाज के हो कर भी धर्म के नाम पर, समाज के नियमों को तोड़ने का काम करते हैं पर जिनका समाज पर इतना गहरा प्रभाव होता है कि चाह कर भी उनको छुपाया या भुलाया नहीं जा सकता.

महादेवी या अक्का (दीदी) बाहरवीं शताब्दी की वीरशैव धार्मिक आंदोलन का हिस्सा मानी जाती हैं. वीरशैव आंदोलन में वैदिक कर्मकांड, मूर्तिपूजा, जाति भेदभाव, अवतारवाद, अंधश्रद्धा आदि को बाधक ठहराया और अल्लमप्रभु, अक्कमहादेवी, चेन्न-बंसव तथा सिद्धराम जैसे संतों ने जातिरहित, वर्णरहित, वर्गरहित समाज के निर्माण की कोशिश की. इन संतों के लेखन वचन साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए जो कि गद्य शैली में लिखी कविताएँ हैं.

कणार्टक में शिमोगा के पास के उड़ुथाड़ी गाँव में जन्मी अक्कमहादेवी ने जब सन्यास लिया तो केवल घर परिवार ही नहीं छोड़ा, वस्त्रों का भी त्याग किया और उनके लेखन ने नारी शरीर और नारी यौनता के विषयों को जिस तरह खुल कर छुआ, वह सामान्य नहीं है. जैसे सुश्री लवलीन द्वारा अनुवादित अक्कमहादेवी की इस कविता को देखियेः
वस्त्र उतर जाएँ
गुप्त अंगों पर से तो
लज्जा व्याकुल हो जाते है जन
तू स्वामि जगत का, सर्वव्यापि
एक कण भी नहीं , जहाँ तू नहीं
फिर लज्जा किस से?
चेनामल्लिक अर्जुना देखे जग को
बन स्वयं नेत्र
फिर कैसे कोई ढके,
छिपाए अपने को?
(डा. रति सक्सेना द्वारा सम्पादित वेबपत्रिका "कृत्या" से )

मधुश्री दत्ता की डाक्युमेंटरी में आज की आधुनिक व्यवस्था में अक्का महादेवी किस रूप में जीवित हैं, इसको विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने की चेष्ठा है. गाँव में गणदेवी की तरह, औरतों के कोपोरेटिव में, जहाँ उनके नाम से पापड़ और अचार बनते हैं, काम करने वाली औरतों की दृष्टि में, म़ंदिर के पुजारी और धर्म ज्ञान की विवेचना करने वाले शास्त्री की दृष्टि में, फेमिनिस्ट लेखन और चित्रकला में, महादेवी विभिन्न रूपों में दिखती हैं. इन विभिन्न रूपों में सामान्य जन में उनका रूप उनके व्यक्तित्व को धर्म मिथिकों में छुपा कर, मन्दिर में पूजने वाली देवी बना देता है, जिसमें उनके वचनों की क्राँति को ढक दिया जाता है. लेकिन फ़िल्म में उनकी एक भक्त का साक्षात्कार भी है जिसने गाँव में अक्का महादेवी के मंदिर के आसपास भक्तों के लिए सुविधाएँ बनवायी हैं और जो महादेवी के असुविधाजनक संदेश को छुपाने के प्रयास पर हँसती है.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

फ़िल्म में महादेवी के कुछ वचनों को गीतों के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिन्हें सुश्री सीमा बिस्वास पर विभिन्न परिवेशों में फ़िल्माया गया है, जिनमें एक परिवेश है एक ईसाई गिरजाघर में एक स्त्री द्वारा नन बनने की रीति, यानि महादेवी की बात को एक धर्म की सीमित दायरे से निकाल कर इन्सान के मन में ईश्वर से मिलने की ईच्छा के रूप में देखने की चेष्ठा.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

फ़िल्म को देख कर मानुषी में पढ़े मधु किश्वर के एक पुराने आलेख की याद आ गयी जिसमें बात थी किस तरह गाँव में रहने वाली औरतें सीता मैया के पाराम्परिक गीतों के माध्यम से नारी मुक्ति की बात उठाती हैं. परम्परागत समाज में जहाँ नारी चारों ओर से नियमों में बँधी हो जिनमें उसकी अपनी इच्छाओं आकाँक्षाओं के लिए जगह न हो, वहाँ महादेवी जैसी नारी के विचारों को धर्म स्वीकृति मिलना थोड़ी सी जगह बना सकता है जहाँ सामाजिक नियमों की परिधि से बाहर जाने की अभिलाषा की अभिव्यक्ति हो सकती है.

महादेवी का व्यक्तित्व शारीरिक नग्नता को केवल लज्जा का कारण सोचने पर भी प्रश्न उठाता है. फ़िल्म में कुछ चित्रकार अक्का महादेवी के नग्न शरीर को ईश्वर का प्रतिरूप देखते हैं, तो कुछ इसमें नारी मुक्ति की चिंगारी. परम्परागत समाज को चुनौती देती महादेवी की छवि की जटिलता को ब्राह्मण विद्वान भी स्वीकारते हैं और आम व्यक्ति भी.

Akka Mahadevi - Scribbles on Akka

मेरी दृष्टि में फ़िल्म का अंतिम संदेश यही है कि भारत के विभिन्न हिस्सों में धर्म के संदेश को अलग अलग दृष्टिकोणों से देखा और समझा गया है. यही अनेकरूप विभिन्नता ही हिंदू धर्म की शक्ति रही है. इस जटिलता को सहेजना आज के भूमण्डलिकरण से जकड़े संसार में परम आवश्यक है, जहाँ सामाजिक जटिलताओं का सरलीकरण एवं ऐकाकीकरण करने की लालसाएँ बढ़ती जा रही हैं.

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शुक्रवार, जनवरी 21, 2011

अलेसान्द्रा का प्रश्न

बोलोनिया में रहने वाली मेरी जान पहचान की अलेस्साँद्रा की कहानी आज कल हर दिन किसी न किसी अखबार पत्रिका या टीवी पर दिखायी जा रही है. अलेस्साँद्रा कहती है, "मेरा बस चलता तो मैं यह बात इस तरह से नहीं उठाती, लेकिन बात मेरे मानव अधिकारों की है और मैं पीछे नहीं हटूँगी."

हुआ यह कि अलेस्साँद्रा ने नगरपालिका दफ़्तर में अर्ज़ी दी अपना नया व्यक्तिगत पहचानपत्र यानि आई कार्ड बनाने की. नगरपालिका वालों ने कहा कि हम आप को आई कार्ड में विवाहित नहीं लिख सकते, आप को तलाक लेना पड़ेगा, आप का विवाह हमारे देश के कानून के हिसाब से गलत है.

Alessandra Bernaroli, Bologna, Italy

अलेस्साँद्रा कहती है, "क्या जबरदस्ती है, मैं क्यों तलाक लूँ? मैंने चर्च में भगवान के सामने शादी की है, फ़िर कोर्ट में सिविल विवाह किया है. हमने सुख दुख में साथ निभाने की कसम खायी है, जब हम दोनो खुश हैं तो हम क्यों तलाक लें, हम तलाक नहीं लेंगे."

इस कहानी को समझने के लिए हमें घड़ी की सूई को पीछे ले जाना पड़ेगा. 39 वर्ष पहले जब अलेस्साँद्रा पैदा हुई थी तो उसका नाम अलेस्साँद्रो रखा गया था. पर बचपन से ही अलेस्साँद्रो को समझ आ गया कि कुछ गलत था, उसका शरीर तो पुरुष का था लेकिन वह भीतर से स्वयं को स्त्री महसूस करता था. साथ ही उसे यह भी समझ आया कि समाज में इस तरह के लोगों को पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया जाता, उनकी हँसी उड़ाई जाती है, शर्मनाम समझते हैं. इसलिए इस बात को उसने स्वयं से ठीक से नहीं स्वीकारा, बल्कि वर्ज़िश करना, पहलवानों वाला शरीर बनाना जैसे शौक पाल लिए. उसके माता पिता, दोनो अध्यापक हैं, लेकिन कुछ पुराने विचारों के थे और चूँकि कैथोलिक चर्च इस बात को ठीक नहीं मानता, तो उसने अपने भीतर की इस इच्छा को दबा और भुला दिया.

जब विश्वविद्यालय में पढ़ने गया तो वहाँ अलेस्साँद्रो की मुलाकात अपनी होने वाली पत्नी से हुई. जल्दी ही दोनो में प्यार हो गया, और दस वर्ष तक यह प्यार चला, फ़िर 2005 में दोनो ने वहले चर्च में विवाह किया फ़िर कोर्ट में सिविल विवाह भी किया. विवाह के कुछ समय बाद, उसमें इतनी हिम्मत आयी कि अपनी भावनाओं और इच्छाओं को इमानदारी से समझ सके, अपने आप को स्वीकार कर सके. उसने इस बात को अपनी पत्नी से बताया कि वह सेक्स बदल कर नारी बनना चाहता था.

"मेरी पत्नी बहुत हिम्मतवाली है, पर शर्माती है, इसलिए वह प्रेसवालों से कुछ नहीं कहना चाहती या मिलना चाहती. शुरु में उसे धक्का लगा, लेकिन फ़िर वह समझ गयी कि मैं जैसा भी हूँ मैं ही हूँ. तब से उसने हमेशा मेरा साथ दिया है, मेरे हर निर्णय को समझा है. मैंने अपने माता पिता से भी यह बात की, उन्हें भी धक्का लगा लेकिन फ़िर भी समय के साथ उन्होंने मुझे समझा, और मैंने लिंग बदलाव का रास्ता अपनाया."

लिंग बदलाव आसान नहीं. 2007 से ले कर अलेस्साँद्रा के 13 ओप्रेशन हुए हैं. अमरीका में जा कर गले का ओप्रेशन कराया जिससे आवाज़ औरत जैसे हुई. यौन हिस्से का ओप्रेशन थाईलैंड में हुआ. चेहरे के निचले भाग का भी एक नाज़ुक ओप्रेशन हो चुका है.

अलेस्साँद्रा कहती है, "शरीर का बाहरी बदलाव, यौन सम्बन्धों में बदलाव, यह सब आवश्यक हैं, लेकिन इन सबके साथ, एक बदलाव अपने अंदर भी है, जो आसान नहीं. आप किस तरह से दूसरों से बात करते हो, किस भाषा का प्रयोग करते हो, लोग आप से किस तरह बात करते हैं, जब पुरुष था तो यह भिन्न तरीके से होता था, अब नारी हो कर भिन्न होता है. पुरुष नारी से किस तरह मिलता बात करता है, और नारी पुरुष से किस तरह मिलती बात करती है, यह दोनो बातें भिन्न है, और मैंने समझी हैं. इनसे अलग मैंरे जीवन का एक हिस्सा है जो मैंने नारी और पुरुष दोनो की दृष्टि से देखा है. यह सब बातें बहुत जटिल हैं और कम शब्दों में नहीं समझायी जा सकती. इस विषय पर मेरे पास बहुत कुछ है कहने सुनाने को, मेरे मन में इस विषय पर किताब लिखने की इच्छा है."

Alessandra Bernaroli, Bologna, Italy

नर शरीर के साथ पैदा होना और अंदर से स्वयं को नारी महसूस करना या फ़िर, नारी शरीर के साथ पैदा होना पर भीतर से खुद को नर महसूस करना, इसे ट्राँसजेंडर कहा जाता है. अक्सर नर शरीर के साथ पैदा हुए हों पर भीतर से खुद को नारी महसूस करने वाले लोगों का यौन आकर्षण अन्य पुरुषों की ओर होता है, इसलिए अक्सर वह समलैंगिग माने जाते हैं, लेकिन अलेस्साँद्रो को प्यार हुआ एक लड़की से. पाँच साल पहले, दोनो ने चर्च में विधिवत विवाह किया. उस समय किसी ने उँगली नहीं उठायी क्योंकि उस समय अलेस्साँद्रो पुरुष थे और स्त्री से विवाह कर रहे थे. "शरीर की बाहरी और भीतरी यौन पहचान में अन्तर होना एक बात है, नर या नारी के लिए यौन आकार्षण महसूस करना अलग बात है", अलेस्साँद्रा समझाती है.

इटली में अधिकतर लोग कैथोलिक ईसाई हैं. इस धर्म में तलाक को आसानी से नहीं स्वीकारा जाता. साथ ही कैथोलिक चर्च समलैंगिकता के भी विरुद्ध है और समलैंगिक विवाहों को नहीं स्वीकारता. इन्हीं दो बातों से अलेस्साँद्रा का धर्मसंकट का प्रश्न उठा, क्योंकि उन्होंने बैंकाक जा कर पुरुष से नारी बनने की शल्यक्रिया करवाने के बाद, इतालवी कानून के हिसाब से कोर्ट में अर्ज़ी दी कि उन्हें लिंग बदलने की अनुमति दी जाये. कोर्ट ने उनकी यह बात स्वीकार की और इस तरह अलेस्साँद्रो कानूनी तौर से भी, अलेस्साँद्रा बन गये. लेकिन अलेस्साँद्रा के बारे में चर्च के लोगों ने नगरपालिका द्वारा उनके तलाक की जबरदस्ती करने का विरोध किया है, वह कहते हैं कि पुरुष रूप में अलेस्साँद्रो ने अपनी पत्नी से विधिवत विवाह किया था, हमारी नज़र में कुछ नहीं बदला है, यह दोनो पति पत्नि हैं.

इतालवी कानून जहाँ एक और समलैंगिक विवाह की अनुमति नहीं देता, दूसरी और ट्राँसजेंडर विषय में प्रगतिशील है, इसे एक बीमारी की तरह देखता है, उनके इलाज की सुविधा और लोगों को कानूनी लिंग बदलने की अनुमति देता है. अलेस्साँद्रा को क्या सलाह दी जाये, इस पर पुराने विचारों वाले लोग भी कुछ परेशान हैं, उन्हें भी कुछ समझ नहीं आता. अगर कहें कि उनका विवाह नहीं माना जा सकता क्योंकि वह दो औरतों का विवाह है, तो इसका यह अर्थ हुआ कि पति या पत्नी की बीमारी के नाम पर तलाक को स्वीकृति दी जा रही है. और अगर उन्हें तलाक के लिए मजबूर न करें तो समलैंगिक विवाह को स्वीकृति मिलती है.

अलेसान्द्रा ने मुझसे भारत में रहने वाले हिँजड़ों की स्थिति के बारे में पूछा. मुझे इस विषय में विषेश जानकारी नहीं थी, लेकिन मैंने उसे बताया कि इस वर्ष जनगणना में पहली बार भारत में ट्राँसजेन्डर लोगों को गिना जा रहा है, और उनके लिए पुरुष, स्त्री से अलग श्रेणी बनायी गयी है. अलेसान्द्रा बोली, "मुझे भारत के ट्राँसजेन्डर लोगों के बारे में मालूम नहीं इस लिए नहीं कह सकती कि यह सही है या गलत, लेकिन मैं नहीं मानती कि हमारे लिए एक अलग श्रेणी बनायी जाये. मैं अपने आप को पूर्ण रूप से स्त्री मानती हूँ और चाहती हूँ कि कानून मुझे नारी माने."

अलेस्साँद्रा कहती है, "हमारा समाज भिन्नता से डरता है, उसे स्वीकार नहीं करता. लेकिन मैं तलाक नहीं लूँगी. जब हम दोनो साथ खुश हैं तो हमें क्यों अलग किया जा रहा है? बात केवल आई कार्ड की नहीं, टेक्स, प्रापर्टी, सब की बी है, अगर नगरपालिका हमें पति पत्नी नहीं मानेगी तो वह सब झँझट खड़े हो जायेंगे. यह मेरे मानव अधिकारों की बात है, मैं लड़ूँगी."

आप का क्या विचार है, अलेसान्द्रा के प्रश्न के बारे में?

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अलेसान्द्रा अलेसान्द्रा इटली के बड़े बैंक में कामगार यूनियन के लिए काम कार्यरत हैं और उनके काम का एक ध्येय यह भी है कि बैंक में काम करने वालों की भिन्नता को सम्पदा के रूप में देखा जाये न कि परेशानी के रूप में. इस विषय पर उन्होंने अन्य मित्रों के साथ मिल कर एक कम्पनी भी बनायी है जिसमें मानव भिन्नता से जुड़े विषयों का ध्यान और मान रख कर किस तरह बिज़नस किया जाये विषय पर सिखाया जाता है. उनकी तस्वीरें फेदेरीको बोरैला की हैं.

(Images of Alessandra Bernaroli are by Federico Borella)


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