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शनिवार, जून 25, 2022

डिजिटल तस्वीरों के कूड़ास्थल

एक इतालवी मित्र, जो एक म्यूज़िक कन्सर्ट में गये थे, ने कहा कि उन्हें समझ नहीं आता था कि इतने सारे लोग जो इतने मँहगे टिकट खरीद कर एक अच्छे कलाकार को सुनने गये थे, वहाँ जा कर उसे सुनने की बजाय स्मार्ट फ़ोन से उसके वीडियो बनाने में क्यों लग गये थे? उनके अनुसार वह ऐसे वीडियो बना रहे थे जिनमें उस कन्सर्ट की न तो बढ़िया छवि थी न ध्वनि। उनका कहना था कि इस तरह के वीडियो को कोई नहीं देखेगा, वह खुद भी नहीं देखेंगे, तो उन्होंने कन्सर्ट का मौका क्यों बेकार किया?

उनकी बात सुन कर मैं भी इसके बारे में सोचने लगा। मुझे वीडियो बनाने की बीमारी नहीं है, कभी कभार आधे मिनट के वीडियो खींच भी लूँ, पर अक्सर बाद में उन्हें कैंसल कर देता हूँ। लेकिन मुझे भी फोटो खींचना अच्छा लगता है।

तो प्रश्न उठता है कि यह फोटो और वीडियो जो हम हर समय, हर जगह खींचते रहते हैं, यह अंत में कहाँ जाते हैं?


क्लाउड पर तस्वीरें

कुछ सालों से गूगल, माइक्रोसोफ्ट आदि ने नयी सेवा शुरु की है जिसमें आप अपनी फोटो और वीडियो अपने मोबाईल या क्मप्यूटर में रखने के बजाय, अपनी डिजिटल फाइल की कॉपी "क्लाउड" यानि "बादल" पर रख सकते हैं। शुरु में यह सेवा निशुल्क होती है लेकिन जब आप की फाईलों का "भार" एक सीमा पार लेता है तो आप को इस सेवा का पैसा देना पड़ता है।

शुरु में लगता था कि डिजिटल जगत में काम करने से हम प्रकृति को बचा सकते हैं। जैसे कि चिट्ठी लिखने में कागज़, स्याही लगेगें, उन्हें किसी को भेजने के लिए आप को उस पर टिकट लगाना पड़ेगा, पोस्ट करने जाना पड़ेगा, आदि। डिजिटल होने से फायदा होगा कि आप कम्प्यूटर या मोबाईल पर ईमेल या एस.एम.एस. या व्हाटसएप कर दीजिये, इस तरह आप प्रकृति की रक्षा कर रहे हैं। यानि हम सोचते थे कि आप का जो मन है करते जाईये, गाने डाऊनलोड कीजिये, तस्वीरें या वीडियो खींचिये, हर सुबह "गुड मॉर्निंग" के साथ उन्हें मित्रों को भेजिये, सब कुछ डिजिटल साइबर दुनिया में रहेगा, रोज़मर्रा के जीवन पर इसका प्रभाव नहीं पड़ेगा और इस तरह से आप प्रकृति की रक्षा कर रहे हैं।

प्रसिद्ध डिज़ाईनर जैरी मेकगोवर्न ने इसके बारे में एक आलेख लिखा है। वह कहते हैं कि पिछले वर्ष, 2021 में, केवल एक साल में 14 करोड़-गुणा-करोड़ तस्वीरें खींची गयीं (इस संख्या का क्या अर्थ है और इसमें कितने शून्य लगेंगे, मुझे नहीं मालूम)। इतनी तस्वीरें पूरी बीसवीं सदी के सौ सालों में नहीं खींची गयी थीं। उनके अनुसार इनमें से ९ करोड़-गुणा-करोड़ तस्वीरें, यानि दो तिहाई तस्वीरें और वीडियो गूगल, माइक्रोसोफ्ट आदि के क्लाउड पर रखी गयीं हैं और जिनमें से 90 प्रतिशत तस्वीरें और वीडियो कभी दोबारा नहीं देखे जायेंगे। यानि लोग उन तस्वीरों और वीडियो को अपलोड करके उनके बारे में सब कुछ भूल जाते हैं। इन क्लाउड को वह डिजिटल कूड़ास्थलों या कब्रिस्तानों का नाम देते हैं।

यह पढ़ा तो मैं इसके बारे में सोच रहा था। यह कूड़ास्थल किसी सचमुच के बादल में आकाश में नहीं बैठे हैं, बल्कि डाटा सैंटरों में रखे हज़ारों, लाखों कम्प्यूटर सर्वरों के भीतर बैठे हैं जिनको चलाने में करोड़ों टन बिजली लगती होगी। इन कम्प्यूटरों में गर्मी पैदा होती है इसलिए इन्हें ठँडा करना पड़ता होगा। डिजिटल फाईलों को रखने वाली हार्डडिस्कों की तकनीकी में लगातार सुधार हो रहे हैं, लेकिन फ़िर भी जिस रफ्तार से दुनिया में लोग वीडियो बना रहे हैं, तस्वीरें खींच रहे हैं और उनको क्लाउड पर डाल रहे हैं, उनके लिए हर साल उन डाटा सैंटरों को फ़ैलने के लिए नयी जगह चाहिये होगी? तो क्या अब हमें सचमुच के कूड़ास्थलों के साथ-साथ डिजिटल कूड़ास्थलों की चिंता भी करनी चाहिये?

मेरे फोटो और वीडियो

कुछ वर्ष पहले तक मुझे तस्वीरें खींचने का बहुत शौक था। हर दो - तीन सालों में मैं नया कैमरा खरीदता था। कभी किसी साँस्कृतिक कार्यक्रम में या देश विदेश की यात्रा में जाता तो वहाँ फोटो अवश्य खींचता। कैमरे के लैंस के माध्यम से देखने से मुझे लगता था कि उस जगह को या उस क्षण में होने वाले को या उस कलाकृति को अधिक गहराई से देख रहा हूँ। बाद में उन तस्वीरों को क्मप्यूटर पर डाउनलोड करके मैं उन्हें बड़ा करके देखता। बहुत सारी तस्वीरों को तुरंत कैंसल कर देता, लेकिन बाकी की तस्वीरों को पूरा लेबल करता कि किस दिन और कहाँ खींची थी, उसमें कौन कौन थे। मैंने बाहरी हार्ड डिस्क खरीदी थीं जिनको तस्वीरों से भरने में देर नहीं लगती थी, इसलिए यह आवश्यक था कि केवल चुनी हुई तस्वीरें रखी जायें और बाकियों को कैंसल कर दिया जाये। जल्दी ही उन हार्ड डिस्कों की संख्या बढ़ने लगी तो तस्वीरों को जगहों, देशों, सालों आदि के फोल्डर में बाँटना आवश्यक होने लगा।

तब सोचा कि एक जैसी दो हार्ड डिस्क रखनी चाहिये, ताकि एक टूट जाये तो दूसरी में सब तस्वीरें सुरक्षित रहें। यानि काम और बढ़ गया। अब हर तस्वीर को दो जगह कॉपी करके रखना पड़ता था। इस समय मेरे पास करीब सात सौ जिगाबाईट की तस्वीरें हैं। हार्ड डिस्क में फोटों को तरीके से रखने के लिए बहुत मेहनत और समय चाहिये। पहले आप सब फोटों को देख कर उनमें से रखने वाली तस्वीरों को फोटो चुनिये। उनको लेबल करिये कि कब, कहाँ खींची थी, कौन था उसमें। इसलिए हार्डडिस्क पर कूड़ा जमा नहीं होता, काम ती तस्वीरें जमा होती हैं। 

अंत में

जो हम हर रोज़ फेसबुक, टिवटर, इँस्टाग्राम आदि में लिखते हैं, टिप्पणियाँ करते हैं, लाईक वाले बटन दबाते हैं, यह सब कहाँ जाते हैं और कब तक संभाल कर रखे जाते हैं? अगर दस साल पहले मैंने आप की किसी तस्वीर पर लाल दिल वाला बटन दबाया था, तो क्या यह बात कहीं किसी डाटा सैंटर में सम्भाल कर रखी होगी और कब तक रखी रहेगी? क्या उन सबके भी कोई डिजिटल कूड़ास्थल होंगे जो पर्यावरण में टनों कार्बन डाईओक्साईड छोड़ रहे होंगे और जाने कब तक छोड़ते रहेंगे?

मैं गूगल, माईक्रोसोफ्ट आदि के क्लाउड पर भी कोई तस्वीरें या वीडियो नहीं रखता, मेरे पूरे आरकाईव मेरे पास दो हार्ड डिस्कों पर सुरक्षित हैं। मुझे लगता है कि जब मैं नहीं रहूँगा तो मेरे बाद इन आरकाईव को कोई नहीं देखेगा, अगर देखने की कोशिश भी करेगा तो देशों, शहरों, विषयों, सालों के फोल्डरों के भीतर फोल्डर देख कर थक जायेगा। भविष्य में शायद कृत्रिम बुद्धि वाला कोई रोबोट कभी उनकी जाँच करेगा और अपनी रिपोर्ट में लिख देगा कि इस व्यक्ति को कोई मानसिक बीमारी थी, क्योंकि उसने हर तस्वीर में साल, महीना, दिन, जगह, लोगों के नाम आदि बेकार की बातें लिखीं हैं।

यह भी सोच रहा हूँ कि भविष्य में जाने उन डिजिटल कूड़ास्थलों को जलाने से कितना प्रदूषण होगा या नहीं होगा? और जैसे सचमुच के कूड़ास्थलों पर गरीब लोग खोजते रहते हैं कि कुछ बेचने या उपयोग लायक मिल जाये, क्या भविष्य में डिजिटल कूड़ास्थलों पर भी इसी तरह से गरीब लोग घूमेंगे? आप क्या कहते हैं?

मेरे विचार में आप चाहे जितना मन हो उतनी तस्वीरें या वीडियो खींचिये, बस उन्हें आटोमेटिक क्लाउड पर नहीं सभाल कर रखिये। बल्कि बीच बीच में पुरानी तस्वीरों और वीडियो को देखने की कोशिश करिये और जिनको देखने में बोर होने लगें, उन्हें कैसल कीजिये। जो बचे, उसे ही सम्भाल के रखिये। इससे आप पर्यावरण की रक्षा करेंगे।




गुरुवार, अगस्त 06, 2015

एक अकेला बूढ़ा

भारत की जनसंख्या में बदलाव आ रहा है, बूढ़ों की संख्या बढ़ रही है. अधिक व्यक्ति, अधिक उम्र तक जी रहे हैं. दूसरी ओर परिवारों का ध्रुविकरण हो रहा है. आधुनिक परिवार छोटे हैं और वह परिवार गाँवों तथा छोटे शहरों से अपने घरों को छोड़ कर दूसरे शहरों की ओर जा रहे हैं. जहाँ पहले विवाह के बाद माता पिता के साथ रहना सामान्य होता था, अब बहुत से नये दम्पत्ती अलग अपने घर में रहना चाहते हैं.

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कैसा जीवन होता है भारतीय वृद्धों का?

पिछले वर्ष मैं साठ का पूरा हुआ और सरकारी योजनाओं के लिए "वरिष्ठ नागरिक" हो गया. अपनी साठवीं वर्षगाँठ पर मैंने इटली में अपने परिवार से दूर, कुछ सालों के लिए भारत वापस आ कर अकेला रहने का निर्णय लिया.

मेरे अकेले रहने के निर्णय और भारत के आम वृद्ध व्यक्ति की स्थिति में बहुत दूरी है. यह आलेख बूढ़े होने, अकेलेपन, निस्सहाय महसूस करना, इन्हीं बातों पर मेरे व्यक्तिगत अनुभव को समाजिक परिवर्तन के साथ जोड़ कर देखने की कोशिश है.

इस आलेख की तस्वीरें गुवाहाटी के इस वर्ष के अम्बाबाशी मेले से बूढ़े साधू, साध्वियों और तीर्थ यात्रियों की हैं.

विवाह की वर्षगाँठ

पिछले रविवार को मेरे विवाह की तेंतिसवीं सालगिरह थी. उस दिन नींद सुबह के साढ़े तीन बजे ही खुल गयी. वैसे तो जल्दी उठने की आदत है मुझे, पर इतनी जल्दी नहीं. अधिकतर चार-साढ़े चार बजे के आसपास उठता हूँ. एक दिन पहले सोचा था कि इस बार की विवाह एनीवर्सरी को रोटी बना कर मनाऊँगा. काम से बाद घर वापस आते समय बाज़ार से आटा और बेलन दोनो खरीद कर ले आया था. शायद रोटी बनाने की चिन्ता या उत्सुकता ने ही जल्दी जगा दिया था?

मेरी पत्नी का फोन आया. "तुम विवाह की वर्षगाँठ मनाने के लिए क्या करोगो?", उसने पूछा. "रोटी बनाऊँगा", मैंने कहा तो वह हँसने लगी.

गुवाहाटी में रहते हुए करीब आठ महीने हो चुके हैं. सुबह क्या करना है, इसकी भी नियमित दिनचर्या सी बन गयी है. उठते ही, सबसे पहले शरीर के खुले हिस्सों पर मच्छरों से बचने वाली क्रीम लगाओ. फ़िर बल्ड प्रेशर की गोली खाओ. उसके बाद कॉफ़ी तथा नाश्ते का सीरियल बनाओ. जब तक कॉफ़ी पीने लायक ठँडी हो और कम्यूटर ओन हो तब तक थोड़ी वर्जिश करो.

सुबह उठ कर ध्यान करूँगा, यह कई महीनों से सोच रहा हूँ. लेकिन आँखें बन्द करके पाँच मिनट भी नहीं बैठ पाता हूँ. कहने को अकेला हूँ, समय की कमी नहीं होनी चाहिये, लेकिन ठीक से ध्यान करने के लिए समय निकालना अभी तक नहीं हो पाया. और भी बहुत सी बातें हैं जिनको करने के सपने देखे थे, पर जिन्हें करने का अभी तक समय नहीं खोज पाया - असमी बोलना सीखना, संगीत की शिक्षा लेना, चित्रकारी करना, नियमित रूप से लिखना, आदि.

सारा दिन तो काम में निकल जाता है. मैं यहाँ गुवाहाटी में एक गैर सरकारी संस्था "मोबिलिटी इँडिया" के लिए काम कर रहा हूँ.ऊपर से घर के काम अलग. कितनी भी कोशिश कर लूँ, उन्हें पूरा करना कठिन है. झाड़ू, पोचा, कपड़े धोना, बाज़ार जाना, खाना बनाना, बर्तन साफ़ करना, कपड़े प्रेस करना, मकड़ी के जाले हटाना, खिड़कियों के शीशे साफ़ करना, बिखरे कागज़ सम्भालना, कूड़ा फैंकना, और जाने क्या क्या! यह सब काम एक दिन में पूरे नहीं हो सकते. इसीलिए अभी तक टीवी भी नहीं खरीदा. सोचा कि वैसे ही समय नहीं मिलता, अगर टीवी देखने में लग गया तो बाकी के सब कामों को कौन करेगा?

भारत आने के बाद अकेला रहते रहते, धीरे धीरे सब खाना बनाना सीख चुका हूँ. बस अब तक कभी रोटी नहीं बनायी थी. मार्किट में बनी बनायी रोटियाँ मिलती हैं जिन्हें फ्रिज़र में रख सकते हैं और आवश्यकतानुसार गर्म कर सकते हैं. पर इधर दो-तीन बार मार्किट गया था लेकिन बनी बनायी रोटी नहीं मिली. दुकान में केवल पराँठे थे जो मुझसे ठीक से हज़म नहीं होते. फ़िर सोचा कि जिस तरह से बाकी सब खाना बनाना आ गया है तो रोटी बनाने में क्या मुश्किल होगी? बस इस शुरुआत के लिए किसी शुभ दिन की प्रतीक्षा थी. और विवाह की वर्षगाँठ से अच्छा शुभदिन कौन सा मिलता!

रविवार की सारी सुबह रसोई में गुज़री. रेडियो से गाने सुनता रहा और साथ साथ खाना बनाता रहा. जब थोड़ी गर्मी लगी, तो फ्रिज में ठँडी बियर इसीलिए रखी थी. शायद बियर का ही असर था कि जब कोई पुराना मनपसंद गाना आता तो खाना बनाते बनाते थोड़े नाच के ठुमके भी लगा लिए. जब कोई देख कर हँसने वाला न हो, तो जो मन में आये उसे करने से कौन रोकेगा?

तीन घँटों की मेहनत के बाद, उस दिन के खाने में केवल दाल ही सही बनी. रोटियाँ भी कुछ सूखी सूखी सी बनी थीं और आकार में ठीक से गोल भी नहीं थीं. पर अपनी मेहनत का बनाया खाना था, उसे बहुत आनन्द से खाया. मन को दिलासा दिया कि अगली बार रोटी भी अच्छी बनेगी!

यही सपना देखा था मैंने, भारत आ कर ऐसे ही रहने का. जहाँ तक हो सके, अपना हर छोटा बड़ा काम अपने आप करने का. जितना हो सके पैदल चलने का या सामान्य लोगों की तरह बस में यात्रा करने का.

वैसे सच में मेरा एक सपना यह भी था कि एक साल तक भगवा पहन कर, दाढ़ी बढ़ा कर, बिना पैसे के, भारत में इधर उधर भटकूँ. अगर कोई खाने को दे या सोने की जगह दे दे, तो ठीक, नहीं मिले तो भूखा ही रहूँ, सड़क के किनारे सो जाऊँ. पर जोगी बन कर जीने के उस सपने को जी पाने का साहस अभी तक नहीं जुटा पाया हूँ.

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यूरोप में रह कर आराम से जीना, काम के लिए विभिन्न देशों में घूमना, बड़े होटलों में तरह तरह के खाने खाना, सारा जीवन वैसे ही जिया था. इसीलिए मेरा सपना था कि भारत आ कर उस सब से भिन्न जीवन जियूँ. सपने देखना तो आसान है, सच में उन्हें जीना कठिन. सपनों में न मच्छर होते हैं, न गर्मी और उमस. पर मैंने जो सोचा था उसे मैं कर पाया. अब भी कभी कभी विश्वास नहीं होता कि मैं अपना सपना जी रहा हूँ.

वैसे गुवाहाटी में जिस तरह रहने का निर्णय लिया है, वह उतना कठिन नहीं है. यहाँ अम्बुबाशी के मेले में बहुत से बूढ़े साधू दिखे. सोचा कि खुले में रहने वाले यह वृद्ध लोग जब तबियत खराब हो तो क्या करते होंगे? शायद अन्य साधू ही उनका ख्याल करते होंगे? और बुखार हो या जोड़ों में दर्द हो तो खुले में गर्मी, सर्दी में बाहर रहना कितना कठिन होता होगा!

अकेला निस्सहाय बूढ़ा

रविवार को ही सुबह इंटरनेट पर एक नयी तमिल फ़िल्म की समीक्षा पढ़ी थी, जिसका अकेला वृद्ध नायक अपने अकेलेपन से बचने के लिए दिल का दौरा पड़ने का बहाना करता है ताकि एम्बूलैंस के चिकित्साकर्मियों से ही कुछ बात कर सके. उसे पढ़ कर सोच रहा था कि मैं भी तो एक अकेला बूढ़ा हूँ, तो मुझमें और उन अन्य बूढ़ों में क्या अन्तर है जो जीवन के आखिरी पड़ाव में खुद को अकेला तथा निस्सहाय पाते हैं? मैं स्वयं को क्यों अकेला तथा निस्सहाय नहीं महसूस करता?

शायद सबसे बड़ा अन्तर है कि मैंने यह जीवन स्वयं चुना है. अगर मेरा गुवाहाटी में ट्राँसफर हो गया होता, मुझे यहाँ अकेले रहने आना पड़ता, तो मुझे भी यहाँ रहना भारी लगता. जब परिवार से दूर रहना पड़े, करीब में न कोई बात करने वाला हो, न कोई मित्र, तो वह अकेलापन सहन करना कठिन हो सकता है. पर जब इस तरह जीने का सपना देखा हो और सोच समझ कर यह निर्णय लिया हो कि मैं कुछ वर्षों तक ऐसे ही रहूँगा, तो जीवन की हर बात देखने की दृष्टि बदल जाती है. खाना बनाना, सफाई करना, बस की भीड़ में धक्के खाना, सब कुछ एक सपने का हिस्सा हैं, अपने आप से स्पर्धा हैं कि मैं यह कर सकता हूँ या नहीं. इसमें किसी की जबरदस्ती नहीं है.

यह भी सच है कि मैं यह जीवन जीने के लिए मजबूर नहीं हूँ. जिस दिन चाहूँ, इसे छोड़ कर अपने पुराने जीवन में वापस जा सकता हूँ. बीच बीच कुछ दिनों के लिए यूरोप गया भी हूँ. अगर सामने कोई विकल्प न हो, केवल ऐसा ही जीने की मजबूरी हो तो शायद मुझे भी इससे डिप्रेशन हो जाये?

रिटायर होने में "अब समय का क्या करें" का भाव भी होता है. अचानक दिन लम्बे, निर्रथक और खाली हो जाते हैं. मेरे साथ यह बात भी नहीं. काम, किताबें पढ़ना, लिखना, इन्टरनेट, फोटोग्राफ़ी, जो सब कुछ मैं करना चाहता हूँ उसके लिए दिन थोड़े छोटे पड़ते हैं. लेकिन अगर आप ने अपना सारा जीवन अपने काम के आसपास लपेटा हो, और एक दिन अचानक वह काम न रहे, तो जीवन की धुरी ही नहीं रहती. लगता है कि हम किसी काम के नहीं रहे. औरतों पर तो फ़िर भी घर की ज़िम्मेदारी होती है, रिटायर हो कर भी वह उन्हीं की ज़िम्मेदारी रहती है. लेकिन मेरे विचार में सेवानिवृत पुरुषों को नया जीवन बनाना अधिक कठिन लगता है.

शायद बूढ़े होने में, निस्सहायता के भाव के पीछे सबसे बड़ी मजबूरी गरीबी या पैसा कम होने की है. और एक अन्य बड़ी बात शरीर के कमज़ोर होने तथा बीमारी की है. अगर अचानक कुछ बीमारी हो जाये, या शरीर के किसी हिस्से में दर्द होने लगे, या केवल बुखार ही आ जाये, तो शायद मैं भी वैसा ही निस्सहाय महसूस करूँगा!

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हमारे जीवन का अंत कैसे होना है, यह किसी को नहीं मालूम. कुछ दिन पहले जब भूतपूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम साहब का देहाँत हुआ तो मन में आया कि मृत्यू हो तो ऐसी, जीवन के अंतिम क्षण तक काम करते करते आने वाली. वह भी तो अकेले ही थे, क्या उन्होंने अपने आप को कभी निस्सहाय बूढ़ा महसूस किया होगा?

हम लोग बढ़ापे को जीवन से भर कर जीयें या निस्सहाय बूढ़ा बन कर अकेलेपन और उदासी में रहें, क्या यह सब केवल नियती पर निर्भर करता है? अधिकतर लोगों के पास मेरी तरह से अपना जीवन चुनने का रास्ता नहीं होता. पैसा न हो, पैंशन न हो, स्वतंत्र जीने के माध्यम न हों तो चुनने के लिए कुछ विकल्प नहीं होते. और अगर बीमारी या दर्द ने शरीर को मजबूर कर दिया हो तो अकेले रहना कठिन है.

दुनिया के विभिन्न देशों में पिछले कुछ दशकों में जीवन आशा की आयू बढ़ी है. भारत में भी यही हो रहा है. इसलिए आज समय रहते स्वयं से यह प्रश्न पूछना कि बूढ़ा होने पर कैसे रहना चाहूँगा तथा इसकी तैयारी करना, बहुत आवश्यक हो गये हैं.

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1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ था, आम औसत भारतीय केवल 31 वर्ष तक जीने की आशा करता था, आज औसत जीवन की आयू करीब 68 वर्ष है. हर वर्ष हमारे देश में 75 वर्ष से अधिक आयू वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है. पर हमारा सामाजिक ढाँचा नहीं बदला. जब थोड़े से लोग वृद्ध होते थे और परिवार बड़े होते थे, उनको आदर देना और ऐसी सामाजिक सोच बनाना जिसमें परिवार अपने वृद्ध लोगों की देखभाल खुद करे, आसान थे. आज परिवार छोटे हो रहे हैं और वृद्ध लोग अधिक, तो बूढ़े माता पिता की उपेक्षा, उनके प्रति हिँसा या उदासीनता, सब बातें बढ़ रही हैं.

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अगले दशकों में बूढ़ों की संख्या और बढ़ेगी. दसियों गुना बढ़ेगी. हमारे परिवेश में लोग अपने बुढ़ापे की किस तरह से देख भाल करें, इसके लिए सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं को सोचना पड़ेगा. लेकिन सबसे अधिक आवश्यक होगा कि हम लोग स्वयं सोचे कि उस उम्र में आ कर किस तरह हम अधिक आत्मनिर्भर बनें, किस तरह से अपने जीवन के निर्णय लें जिससे अपना बुढ़ापा हम अपनी इच्छा से बिता सकें, और जीवन के इस अंतिम पड़ाव में वह सब कुछ कर सकें जो हमारे मन चाहे.

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सबके पास ऐसे साधन नहीं होते कि वह जीवन के अंतिम चरण में जैसा रहना चाहते हैं इसका चुनाव कर सकें. पर हमारे समाज को इस बारे में सोचना पड़ेगा.

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बूढ़ा होने पर दिखना सुनना कम होना, जोड़ों में दर्द होना, ब्लड प्रेशर या मधुमेह जैसी बीमारियाँ होना, सब कुछ अधिक होता है. इनका सामना करने के लिए कई दशक पहल पहले तैयारी करनी पड़ेगी. कहते हैं कि भारत जवान देश है, हमारे यहाँ जितने युवा हैं उतने किसी अन्य देश के पास नहीं. लेकिन साथ साथ, हमारे यहाँ जितने वृद्ध होंगे, वह भी किसी अन्य देश के पास कठिनाई से होंगे.

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आप ने क्या कभी बूढ़े होने के बारे में सोचा है? कैसे रहने का सोचा आपने और कितनी सफलता मिली आप को? स्वयं को आप खुशनसीब बूढ़ा मानते हैं या निस्साह बेचारा बूढ़ा? या शायद आप सोचते हें कि अभी तो बुढ़ापा बहुत दूर है और फ़िर कभी सोचेंगे इसके बारे में?

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शनिवार, मई 18, 2013

सपनों की दुनिया


"मिलान में इतालवी वोग (Vogue) पत्रिका की नयी फोटो-प्रदर्शनी लगाने की तैयारी हो रही है" के समाचार के साथ अंग्रेज़ी फोटोग्राफर किर्स्टी मिशेल (Kirsty Mitchell) की एक तस्वीर देखी तो देखता रह गया.

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

आजकल क्मप्यूटर की मदद से तस्वीरें बना कर कलाकार कई तरह की पूरी काल्पनिक दुनियाँ बना सकते हैं, जिन पर "अवतार" (Avatar) जैसी पूरी फ़िल्में बनती हैं. इन फ़िल्मों को देख कर यह कहना कठिन होता है कि उनमें कितना असली है और कितना क्मप्यूटर पर बना हुआ है.

इसलिए जब किर्स्टी की तस्वीर देखीं तो यही सोचा कि उन्होंने भी इसे क्मप्यूटर की मदद से ही बनाया होगा. जैसे कि पिछले कुछ वर्षों में एच.डी.आर. (HDR) यानि हाई डायनेमिक रेन्ज की फोटो तकनीक आयी है जिसमें कई तस्वीरों को मिला कर उनसे एक तस्वीर बनाते हैं, जिसमें रंग बहुत निखर कर आते हैं. मैंने सोचा कि किर्स्टी की तस्वीरें एच.डी.आर से बनी होंगी. लेकिन जब पढ़ा कि किर्स्टी ने यह तस्वीर क्मप्यूटर पर नहीं बनायी, बल्कि उन्होंने सचमुच के वस्त्र, विग, मेकअप आदि बना कर, सचमुच के फ़ूलों के सामने वह तस्वीर खीँची है, तो बहुत आश्चर्य हुआ और अच्छा भी लगा.

आज आप को फोटोग्राफ़ी का शौक हो तो उसे पूरा करने के बहुत तरीके हैं. डिजिटल फोटोग्राफ़ी के कैमरे सस्ते भी मिलते हैं. फोटोग्राफ़ी कैसे करें, फोटो को कैसे सुधारें, उनकी कमियों को कैसे छुपायें, उनके रंगो को कैसे निखारें - इस सब को समझने के पाठ इंटरनेट पर मुफ्त भरे पड़े हैं, हालाँकि अधिकाँश अंग्रेज़ी में ही है, हिन्दी में इस तरह की अच्छे स्तर की सुविधाएँ न के बराबर हैं. उदाहरण के लिए, दुनिया के जाने माने फोटोग्राफ़र किस तरह की तस्वीरें खींचते हैं इसे देखने के लिए, उनसे प्रेरणा पाने के लिए और फोटोग्राफी के ट्यूटोरियल पढ़ने के लिए, मुझे 121 क्लिकस की वेबसाइट अच्छी लगती है. जबकि फोटो कैसे खींचने चाहिये इस पर मुझे यूट्यूब पर एडोरामा के वीडियो पाठ भी अच्छे लगते हैं (इन्हें सही समझने के लिए पहले सबसे पुराने वाले पाठ शुरु से देखिये), पर इनके जैसी वेबसाइट और वीडियो अन्य भी बहुत हैं, आप खोजेंगे तो बहुत से मिल जायेंगे.

यानि कि तकनीकी दृष्टि से आज हर कोई बढ़िया फोटोग्राफर बनना सीख सकता है. पर हर कोई बढ़िया तकनीक वाला फोटोग्राफर, बढ़िया कलाकार नहीं होता. आप किसकी फोटो खीँचते हैं, किस एँगल से खीँचते हैं, उसमें किसको महत्व देते हैं, आप की तस्वीरों में आप का व्यक्तिगत दृष्टिकोण क्या है, आप का अपना अन्दाज़ क्या है - आप को कलाकार माना जाये यह उन सब बातों पर निर्भर करता है. इस दृष्टि से देखें तो किर्स्टी की तस्वीरें अन्य फोटोग्राफरों से भिन्न, फोटोग्राफी के कलाजगत में अपनी विशिष्ठ जगह बनाती हैं.

किर्स्टी का जन्म 1976 में इँग्लैंड के कैन्ट जिले में हुआ. उन्होंने फोटोग्राफ़ी 2007 में करनी शुरु की. उनकी माँ बच्चों के लिए किताबें लिखती थीं. सन 2008 में माँ की कैन्सर रोग से मृत्यू के बाद, माँ की याद में ही किर्स्टी ने "वन्डरलैंड" (Wonderland) श्रृँखला की तस्वीरें खीँचना शुरु किया, जिसमें वह अपनी माँ कि किताबों के कल्पना जगतों को मूर्त रूप देना चाहती थीं.

सबसे पहले वह हर तस्वीर की मानसिक तस्वीर बनाती हैं, रंगो का चयन करती हैं, अपने हाथों से उसकी पौशाक, विग, और फोटो में प्रयोग की जाने वाली हर वस्तु को बनाती हैं. तस्वीरों को खीँचने के लिए वह सही मौसम की, जैसे कि बर्फ़ हो या किसी विषेश रंग के फ़ूल खिले हों, इसकी प्रतीक्षा करती हैं. जब सब कुछ उन्हें उनकी कल्पना के अनुसार मिल जाता है तो वह तस्वीर खीँचती हैं. इस तरह उनकी हर एक तस्वीर के पीछे, कई महीनो की मेहनत लगती है.

किर्स्टी की तस्वीरों को दुनिया भर में प्रदर्शनियों के आमँत्रण और पुरस्कार मिले हैं. वह पहले फैशन और कोसट्यूम की एक कम्पनी में काम करती थीं, वहाँ से सन 2011 में उन्होंने इस्तीफ़ा दे कर अपना फ्रीलाँस काम खोला है. वह कहती हैं, "चार साल पहले कोई मुझे कहता कि बड़ी प्रदर्शिनों में मेरी तस्वीरें लगेंगी, हार्पर बाज़ार जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं के मुख्यपृष्ठ पर छपेगीं तो कौन विश्वास करता? इतालवी वोग पत्रिका की मिलान में लगने वाली प्रदर्शनी के लिए मुझे कई हज़ार फोटोग्राफरों में से चुना गया है. मुझे यह सब सपना सा लगता है."

आप किर्स्टी के काम के कुछ नमूने देखिये, सचमुच उनका काम प्रशंसनीय है, इसलिए भी क्योंकि यह क्मप्यूटर पर नहीं बना और इसे उन्होंने अपनी मेहनत से बना कर अपनी कल्पना को साकार किया है.

Wonderland - images by Kirsty Mitchell

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Wonderland - images by Kirsty Mitchell

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Wonderland - images by Kirsty Mitchell

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आप किर्स्टी मिशेल की और तस्वीरें उनकी वेबसाइट पर देख सकते हैं. क्या मालूम, आप में से किसी पाठक को इससे प्रेरणा मिले, किर्स्टी की नकल करने की नहीं, बल्कि, अपनी कल्पना से अपनी नयी दृष्टि बनाने की और उसे सच में बदलने की, ताकि एक दिन हम आप के काम को भी इसी तरह अचरज से देखें और आप को वाह-वाह कहें.!

मंगलवार, मई 14, 2013

मेरी कहानी, हमारी कहानी


"हैलो, मेरा नाम लाउरा है, क्या आप के पास अभी कुछ समय होगा, कुछ बात करनी है?"

मुझे लगा कि वह किसी काल सैन्टर से होगी और पानी या बिजली या टेलीफ़ोन कम्पनी को बदलने के नये ओफर के बारे में बतायेगी. इस तरह के टेलीफ़ोन आयें तो इच्छा तो होती है कि तुरन्त कह दूँ कि हमें कुछ नहीं बदलना, पर अगर काल सैन्टर में काम करने वालों का सोचूँ तो उन पर बहुत दया आती है. बेचारे कितनी कोशिश करते हैं और उन्हें कितना भला बुरा सुनना पड़ता है. बिन बुलाये मेहमानों की तरह, काल सैन्टर वालों की कोई पूछ नहीं.

पर वह काल सैन्टर से नहीं थी. उसे मेरा टेलीफ़ोन नम्बर बोलोनिया में मानव अधिकारों पर वार्षिक फ़िल्म फैस्टिवल का आयोजन करने वाली जूलिया ने दिया था. "हम लोग एक फोटो प्रदर्शनी का प्रोजक्ट कर रहे हैं, प्रवासियों के बारे में. उसका नाम है "मेरी कहानी, हमारी कहानी". क्या आप उसमें भाग लेना चाहेंगे?"

मैंने सोचा कि शायद मेरे बढ़िया फोटोग्राफ़र होने का समाचार इनके पास पहुँच भी गया है, और यह लोग मेरी तस्वीरें चाहते हैं, तो खुश हो कर बोला, "अवश्य. मेरी किस तरह की तस्वीरें लेना चाहेंगी, प्रदर्शनी के लिए?"

"नहीं, आप की खींची तस्वीरें नहीं चाहिये हमें, हम आप की तस्वीरें खींचना चाहते हैं, बोलोनिया में रहने वाले भारतीय समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में. आप को हमें दो तीन घँटे देने होंगे, हमारा माडल बन कर और हम आप की तस्वीरें खीँचेगे", उसने समझाया.

"क्या उदेश्य है इस फोटो प्रदर्शनी का?" मैंने जानना चाहा तो लाउरा ने विस्तार से बताया. इटली के कुछ राजनीतिक दल हैं जैसे कि "लेगा नोर्द" जो इटली में बसे प्रवासियों के विरुद्ध अभियान चलाते हैं. उनका कहना है कि प्रवासी अपराधी, आतन्कवादी, गन्दगी वाले, असभ्य, इत्यादि होते हैं और यहाँ आ कर यहाँ की सभ्यता को बिगाड़ रहे हैं, इसलिए प्रवासियों को इटली में नहीं आने देना चाहिये. इस फोटो प्रदर्शनी का उदेश्य यह दिखाना है कि रूढ़िवादी राजनीतिक दलों का यह प्रचार गलत है, क्योंकि प्रवासी यहाँ नये विचार, सभ्यता, नये काम, ले कर आते हैं और शहर के जीवन को नया रंग देते हैं. इस तरह से इस प्रदर्शनी में विभिन्न देशों से आने वाले प्रवासियों के जीवन के बारे में जानकारी दी जायेगी.

मैंने यह सब जान कर, फोटो खिंचवाने के लिए तुरन्त हाँ कह दी. एक बार पहले भी एक प्रदर्शनी के लिए मैं अपनी तस्वीरें खिँचवा चुका था. तब बात थी मृत्यू के बारे में विभिन्न सभ्यताओं में क्या सोच है, उसके बारे में. उस बार अँधेरे में विषेश तरीके से तस्वीरें खीँची गयी थीं जिनमें लगता था कि मैं मर चुका हूँ. उन तस्वीरों की प्रदर्शनी भी यहाँ के कब्रिस्तान में लगी थी. पर तब तो तस्वीरें खिँचवाने में दस पंद्रह मिनट ही लगे थे.

इस बार तस्वीरें खिँचवाना कुछ अधिक कठिन था. फरवरी में फोटो खीचनें के लिए उन्होंने मुझे बुलाया और शहर की कुछ प्रसिद्ध जगहों पर ले जा कर मेरी तस्वीरें खींची गयीं.

"इस तरफ़ घूमिये, इधर देखिये, सिर को थोड़ा उठाईये, नहीं इतना नहीं, थोड़ा सा कम, अब हाथ कमर पर रखिये ...", करीब तीन घँटों तक उन्होंने मुझसे तरह तरह के पोज़ बनवा कर इतनी तस्वीरें खींची कि थक गया. वहाँ से गुज़र रहे लोग मेरी ओर हैरानी से देखते कि कौन है, शायद कोई एक्टर या लेखक या प्रसिद्ध व्यक्ति होगा जिसकी तस्वीरें खीँच रहे हैं? इसलिए पोज़ बनाने में थोड़ी सी शर्म भी आ रही थी. अगर आप ने झूठ मूठ की मुस्कान को तीन घँटे तक बना कर अपनी फोटो खिँचवायीं हों तभी समझ सकते हैं कि फोटो खिँचवाना भी खाला जी का घर नहीं.

"अच्छा, आप ऐनक उतार दीजिये, उससे फोटो ठीक नहीं आ रही", वे बोलीं तो मैंने कहा कि हाथ में किताब दे दीजिये, तो उसे पढ़ते हुए मैं ऐनक उतार कर हाथ में थाम लूँगा, और यह स्वभाविक भी लगेगा. तो अमिताव घोष की किताब "द सी ओफ़ पोप्पीज़" को हाथ में ले कर भी, एक किताबों की दुकान में कुछ तस्वीरें खीँची गयीं. खैर, जब उन्होंने कहा कि बस हो गया, तो लगा कि चलो काम पूरा हुआ, जान छूटी.

19 अप्रैल 2013 को इस प्रदर्शनी का शहर के नगरपालिका भवन के प्राँगण में उद्घाटन हुआ. पैँतालिस देशों के प्रवासियों ने इस प्रदर्शनी में हिस्सा लिया है. प्रदर्शनी में भारत के प्रतिनिधि होने का गर्व भी हुआ. वहाँ देखा कि वही किताबों की दुकान में खींची तस्वीर ही प्रदर्शनी में लगायी गयी थी. प्रदर्शनी के उद्घाटन समारोह में ब्राज़ील और रोमानिया के युवा कलाकारों ने साँस्कृतिक कार्यक्रम किया. इस प्रदर्शनी की और उद्घाटन समारोह के साँस्कृतिक कार्यक्रम की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013


Exhibition My story Our story of Laura Frasca & Laura Bassega, Bologna, April 2013 - images by Sunil Deepak, 2013

तो कहिये, आप को यह प्रदर्शनी कैसी लगी?

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शनिवार, दिसंबर 08, 2012

वियतनाम में बुद्ध धर्म


गौतम बुद्ध के उपरांत, कुछ सदियों में ही बुद्ध धर्म भारत और नेपाल से निकल कर पूर्वी और पश्चिमी एशिया में फ़ैल गया. वियतनाम में बुद्ध धर्म चीन से तथा सीधा दक्षिण भारत से, प्रथम या द्वितीय ईस्वी में पहुँचा. वियतनामी बुद्ध धर्म पर चीन से ताओ धर्म तथा प्राचीन वियतनामी मिथकों के प्रभाव दिखते हैं. आज करीब 80 प्रतिशत वियतनामी स्वयं को बुद्ध धर्म के अनुयायी मानते हैं.

बुद्ध धर्म के वियतनाम में पहुँचने के करीब पाँच सौ वर्ष बाद, भारत से हिन्दू धर्म का प्रभाव भी वियतनाम पहुँचा जो कि मध्य तथा दक्षिण वियतनाम के चम्पा सम्राज्य में अधिक मुखरित हुआ. वियतनाम में चम्पा साम्राज्य की राजधानी अमरावती, तथा अन्य प्रमुख शहर जैसे विजय, वीरपुर, पाँडूरंगा आदि में बहुत से हिन्दू मन्दिर बने जिनके भग्नावषेश आज भी वियतनाम के मध्य भाग में देखे जा सकते हैं. इस तरह से वियतनामी बुद्ध धर्म में हिन्दू धर्म का प्रभाव भी आत्मसात हो गया.

वियतनाम की आधुनिक राजधानी हानोई के उत्तर में बाक निन्ह जिले में स्थित निन्ह फुक पागोडा को वियतनाम का प्रथम बुद्ध संघ तथा मन्दिर का स्थान माना जाता है. कहते हैं कि प्राचीन समय में यहाँ पर भारत से आये बहुत से बुद्ध भिक्षुक रहते थे. इस पागोडा को लुए लाउ (Luy Lâu) पागोडा के नाम से भी जाना जाता है. पहाड़ों के पास, डुओन्ग नदी के किनारे बना यह पागोडा, प्राचीन दीवारों में बन्द लुए लाउ शहर से जुड़ा है, और बहुत सुन्दर है. पागोडा के प्रँगण में 1647 ईस्वी की बाओ निह्म मीनार बनी है जिसमें पागोडा के प्रथाम बुद्ध महाध्यक्ष के अवषेश सुरक्षित रखे हैं.

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वियतनाम में कम्युनिस्ट शासन स्थापत हुआ जिसने धर्म को सार्वजनिक जीवन से निकालना चाहा और बौद्ध धार्मिक स्थान भी बन्द कर दिये, भिक्षुकों को जेल में डाला गया. 1986 के बाद धीरे धीरे शासन ने रूप बदला और धार्मिक संस्थानो को फ़िर से चलने की अनुमति मिली.

आज वियतनाम में प्राचीन बुद्ध मन्दिरों को सरकारी सहयोग मिलता है और पर्यटक उन्हें देखने जाते हैं. लेकिन बुद्ध धर्म की प्रार्थनाएँ अभी भी चीनी भाषा में हैं जिसे आम वियतनामी नहीं समझ पाते. इन प्रार्थनाओं में अमिताभ सूत्र तथा पद्म सूत्र सबसे अधिक प्रचलित हैं. इसी तरह बुद्ध मन्दिरों में प्रार्थनाओं को ध्वज पर लिखवा कर घर में रखने का प्रचलन है, पर यह प्रार्थनाएँ भी चीनी भाषा में ही लिखी जाती हैं.

बुद्ध मन्दिरों में विभिन्न बौद्धिसत्वों जैसे कि अमिताभ की मूर्तियाँ मिलती हैं.

साथ ही बुद्ध मन्दिरों में प्राचीन पूर्वज पूजा भी प्रचलित है जिसमें अगरबत्तियों के साथ साथ, लोग कागज़ की मानव मूर्तियों या नकली नोटों को भी जलाते हैं.

पूर्वज पूजा से ही जुड़ी है गुरु पूजा की परम्परा. हानोई में राजपरिवार के प्राचीन गुरुओं का "साहित्य मन्दिर" बना है, जहाँ विद्यार्थी इम्तहान में पास होने की प्रार्थना करने जाते हैं.

वियतनामी मन्दिरों में फोनिक्स के काल्पनिक जीव जो विभिन्न पशु पक्षियों के सम्मिश्रिण से बना है अक्सर दिखता है.

जापानी प्रभाव से विकसित हुए ज़ेन बुद्ध धर्म या थियन बुद्ध धर्म के भिक्षुक, लेखक तथा विचारक थिच नाह्ट (Thích Nhất Hạnh) अपने ध्यान योग और बुद्ध साधना की किताबों और प्रवचनों के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं.

बुद्ध धर्म से जुड़ी मेरी एक वियतनाम यात्रा की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं.

(1) चीनी भाषा में लिखा प्रार्थना ध्वज

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

(2) हानोई में बना गुरु पूजा का साहित्य मन्दिर

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

(3) वियतनाम में मध्य भाग से कुछ बुद्ध मन्दिर

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

(4) मन्दिर में चढ़ाने के लिए कागज़ के मानव व पशु जलाने की रीति

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

(5) प्राचीन निन फुक पागोडा

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

Buddhism in Vietnam - S. Deepak, 2010

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बुधवार, अगस्त 29, 2012

ब्राज़ील यात्रा डायरी - खोयी सभ्यता की तलाश (1)


23 अगस्त 2012, गोईयास वेल्यो

दो कक्षाओं के बच्चे अपनी अध्यापिकाओं के साथ आये थे. पहाड़ की ढलान पर ऊपर नीचे जाती सीढ़ियाँ, नीचे चमकता नदी का पानी, अमेरिंडयन जनजाति के गाँव की झोपड़ियाँ, बच्चे यह सब कुछ मंत्रमुग्ध हो कर देख रहे थे.

एक ओर हारोल्दो और गुस्तावियो स्वागत के ढोल बजा रहे थे. दूसरी ओर एक चबूतरे पर रेजीना और शर्ली हाथ में कटोरियाँ ले कर खड़ी थीं जिनमें एक पौधे के बीजों से बनाया गहरा कत्थई रँग था जिससे वे हर बच्चे के गालों पर स्वागत चिन्ह बना रही थीं.

Vila Esperança, Indigenous culture festival, Brazil

दो अध्यापिकाएँ भी उत्साहित सी हो कर बच्चों के साथ अपने गालों पर स्वागत चिन्ह लगवाने लगीं, जबकि दो अन्य अध्यापिकाएँ दूर से ही खड़ी देख रही थीं. उनके चेहरे के भाव से स्पष्ट था कि उन्हें यह सब अच्छा नहीं लग रहा था.

चेहरे पर स्वागत चिन्ह बनवाने के बाद बच्चे एक चकौराकार भवन में गये  जिसकी छत बीच में से खुली थी और जिसके बीच में लकड़ी का खम्बा लगा था. भवन की दीवारों पर अमेरिंडियन मुखौटे लगे थे. एक ओर रोबसन और लुसिया जनजातियों के गीत गा रहे थे. गीतों के बाद रोबसन ने धरती, अम्बर, पवन और अग्नी की पूजा की और फ़िर बच्चों को एक अमेरिंडियन लोककथा सुनायी.

फ़िर बारी आयी नत्यों की. जनजातियों के विभिन्न नृत्य थे, जिन्हें रोबसन पहले सिखाता फ़िर सब बच्चे मिल कर करते. बच्चों ने खूब मस्ती की.

Vila Esperança, Indigenous culture festival, Brazil

नृत्य के बाद बच्चों को छोटे छोटे गुटों में बाँट दिया गया. कोई जनजातियों की कला सीखने गया, कोई जनजातियों में आभूषण कैसे बनाते हैं यह सीखने. कोई मूर्तियों को बनाने की कला सीख रहा था, तो कोई सूखी घास से वस्त्र कैसे बनायें यह सीख रहा था. एक घँटे तक बच्चे इस तरह अलग अलग गुटों में कुछ न कुछ सीखते रहे.

इसके बाद सब बच्चे वापस चकौराकार भवन में एकत्रित हुए, जहाँ रोबसन ने पहले प्रकृति को प्रसाद चढ़ाया फ़िर सब बच्चों को खाने को मिला. प्रसाद के खाने में उबला हुआ भुट्टा, केला, तरबूज आदि थे और पीने के लिए अनानास का रस था. इसके साथ ही "जनजाति सभ्यता" का कार्यक्रम समाप्त हुआ.

***

दोपहर को मैं रोबसन के साथ बैठा बात कर रहा था. रोबसन ने "विल्ला स्पेरान्सा" (Vila Esperança) यानि "आशा घर" नाम की संस्था बनायी है, जहाँ हर सप्ताह इस तरह के कार्यक्रम होते हैं जिनमें जनजातियों या अफ्रीकी सभ्यताओं के गीतों, कहानियों, नृत्यों, कलाओं, आदि के बारे में बच्चों को सिखाया जाता है.

रोबसन बोला, "मैं देखने में युरोपीय लगता हूँ लेकिन मेरे परिवार में अफ्रीकी और यहाँ के मूल निवासियों की जनजातियों का खून भी है. यूरोप से आये लोगों के खून से घुलने मिलने से हमारे परिवार जैसे बहुत परिवार हैं ब्राज़ील में, जिनमें कुछ लोग यूरोप के लगते हैं, कुछ अफ्रीका के और कुछ जनजातियों के. लेकिन हमारे देश में यूरोपीय सभ्यता को उच्च समझा जाता है, और जनजाति तथा अफ्रीकी सभ्यताओं को निम्न. हर कोई अपने आप को यूरोपीय दिखाना चाहता है. जिसका चेहरा यूरोपीय लोगों की तरह गोरा है वह अपने परिवार के अफ्रीकी और जनजाति वाले हिस्से को छुपाने की कोशिश करते हैं. जिनके चेहरे और रंग में अफ्रीकी या जनजाति का प्रभाव स्पष्ट होगा तो वह इस भेदभाव को छोटी उम्र से ही महसूस करते हैं. यह नीचा होने की भावना, हीन भावना बचपन से ही मन में घर कर लेती है, इसे निकालना बहुत कठिन है. हमें बचपन से ही शिक्षा मिलती है कि अपनी अफ्रीकी और जनजाति मूल सभ्यता को भूल जाओ, बस यूरोपी सभ्यता को मान्यता दो."

Vila Esperança, Indigenous culture festival, United colours of Brazil

इसी भावना के विरुद्ध काम करने की सोची रोबसन ने और "आशा घर" को 1989 में संस्थापित किया. वह बोला, "वैसे तो बहुत सी किताबों में, बातों में कहते हैं कि रंग और सभ्यता का भेदभाव करना गलत बात है, लेकिन वे केवल बातें हैं. हमारे घरों परिवारों में, हमारे आम जीवन में, टीवी पर दिखाये जाने वाले कार्यक्रमों में, विज्ञापनों में, हमारा समाज कुछ और संदेश देता है, जो कहता है कि काला रंग या अफ्रीकी चेहरा या जनजाति के नाकनक्श का अर्थ हीनता, नीचापन है."

हाँ, हमारे भारत में भी बिल्कुल यही बात है, मैंने रोबसन को बताया. भारत में अगर आप का काला रंग हो या जाति की वजह से, हमारे समाज में हर ओर से छोटी उम्र से ही यही संदेश मिलता है कि तुम नीचे हो, तुममे कमी है. उस पर भारत में भाषा से जुड़ी हीन भावना भी है, अगर अंग्रेज़ी न बोलनी आये तो तुममे कुछ भी करने की शक्ति नहीं है यह कहते हैं. नर्सरी स्कूल से ही बच्चों को अंग्रेज़ी की कवितायें याद करायी जाती हैं.

रोबसन बोला, "हमारी मूल भाषाएँ तो अब लुप्त ही हो गयी हैं, सभी केवल पोर्तगीज़ भाषा बोलते हैं, जिन्होंने हमारे देश पर राज किया. कुछ जनजाति की प्राचीन भाषाओं के शब्द उनके धार्मिक रीति रिवाज़ों के साथ जुड़ी प्रार्थनाओं में बचे हुए हैं लेकिन आज उन शब्दों के अर्थ कोई नहीं जानता. इसलिए मेरे लिए 'आशा घर'  का यह कार्यक्रम बहुत महत्वपूर्ण है कि केवल बात न की जाये, बल्कि बच्चे यहाँ आ कर अपनी अफ्रीकी और जनजाति की सभ्यताओं को स्वीकार करें. यह समझें कि यह गीत, कहानियाँ, मिथक, नृत्य आदि हीन नहीं हैं, इनकी अपनी गरिमा है. कोई ऊँचा नीचा नहीं, बल्कि हमें अपने अंदर दौड़ रहे अफ्रीकी और जनजातियों के खून पर गर्व होना चाहिये."

***

रोबसन से बात करने के कुछ देर बाद मेरी बात रेजीमार से हुई जो कि 'आशा घर' द्वारा चलाये जाने वाले प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक है. रेजीमार अफ्रीकी मूल का है. उसने कहा, "अन्य जगह बात बराबरी की होती है, कि हम सब एक बराबर हैं, कोई ऊँचा नीचा नहीं, लेकिन वह सिर्फ़ कहने की बाते हैं. यहाँ 'आशा घर' में इन विचारों को कहने की नहीं, जीने की कोशिश है. इस तरह जियो कि हर इन्सान की गरिमा को महत्व दो. यह नहीं कहता कि समाज में हर कोई भेदभाव करता है लेकिन अगर अन्य लोग भेदभाव न भी करें, तो हमारे अपने मन में हीन भावना इतनी गहरी होती है कि हम स्वयं भीतर से अपने आप को अन्य लोगों के बराबर नहीं मानते. इसलिए बच्चों के साथ काम करना बहुत महत्वपूर्ण है, जिससे उनके अन्दर वह हीन भावना न पनपे."

"लेकिन अगर स्कूल में बराबरी का महत्व समझ में आ भी जाये तो स्कूल के बाहर का असर उससे रुक सकेगा? बच्चे स्कूल से बाहर जायेंगे तो खेल के मैदान में, घर में, वहीं भेदभाव वाला समाज नहीं मिलेगा उन्हें?" मैंने पूछा.

"हमारा स्कूल अन्य स्कूलों से भिन्न है, हमारे यहाँ बच्चे शिक्षा का केन्द्र हैं न कि शिक्षक या फ़िर किताबें. हम कोशिश करते हैं कि बच्चों में प्रश्न पूछने, अपने उत्तर स्वयं खोजने की क्षमता दें. बच्चा कुछ भी पूछ सकता है, कुछ भी कह सकता है. हमारे बच्चे एक बार दुनिया को अपनी तरह से समझने का तरीका सीख लेते हैं तो घर परिवार, समाज हर जगह इसका असर पड़ता है. पंद्रह साल हो गये मुझे यहाँ पढ़ाते, इन सालों में इतनी बार औरों से अपनी आलोचना सुनी है कि 'आप के स्कूल के बच्चे प्रश्न बहुत पूछते हैं, टीचर कुछ भी कहे उसे यूँ ही नहीं मान लेते' तो मुझे बहुत गर्व होता है. मैं सोचता हूँ कि हमारे बच्चे बाहर के हर भेदभाव से लड़ सकते हैं, इतना आत्मविश्वास बन जाता है उनका."

24 अगस्त, 2012, गोईयास वेल्यो

सुबह उठा तो बाहर सैर करने की सोची. हमारे होटल के बिल्कुल साथ में नदी बहती है, रियो वेरमेल्यो (Rio Vermelho), यानि "सिँदूरी नदी". सैर करते हुए उसी नदी के किनारे पहुँच गया. नदी के ऊपर एक पुराना कुछ टूटा हुआ सा पुल था, जिसके पीछे एक झरना भी दिख रहा था. बहुत सुन्दर जगह थी. आसपास कोई था भी नहीं, बस एक बूढ़े से खानाबदोश किस्म के व्यक्ति दिखे जो अपने दो कुत्तों के साथ घूम रहे थे. उन्होंने मेरी ओर देखा तक नहीं, अपने में ही मग्न थे. आधे घँटे तक वहीं झरने के पास बैठा रहा, कुछ तस्वीरें खींचीं. रात को नींद ठीक नहीं आयी थी, लेकिन उस आधे घँटे में सारी थकान दूर हो गयी.

Rio Vermelho, Goias Velho, Brazil

वापस होटल पहुँचा तो जी भर के नाश्ता खाया. नाश्ते में इमली का खट्टा सा रस भी था जो मुझे बहुत अच्छा लगा. इतनी अलग अलग तरह के फ़ल मिलते हैं यहाँ, जो दुनियाँ में अन्य कहीं नहीं देखे जैसे माराकुजा और कुपुआसू. और उनका स्वाद भी बहुत बढ़िया है. नाश्ते में इतना खाया कि बाद में अपने पर खीज आ रहा थी. अपने को रोकने की और संयम की शक्ति मेरी बहुत कम है.

***

"आशा घर" में पढ़ने वाले एक बच्चे के पिता से बात हुई तो उसने एक अन्य बात बतायी. बोला, "इस स्कूल के बारे में शहर में बहुत से गलत बातें कही जाती हैं कि यहाँ धर्म बदल देते हैं. इसलिए यहाँ बहुत से लोग अपने बच्चे को नहीं भेजना चाहते. मैं इस बात को नहीं मानता. मेरे बच्चों ने कोई धर्म नहीं बदला, बल्कि यहाँ की शिक्षा ने उन्हें सोचने समझने की ताकत दी है. मेरा बड़ा बेटा अब विश्वविद्यालय में पढ़ता है, वह यहीं से पढ़ा है. वह कहता है कि इस स्कूल में पढ़े दिन उसके जीवन के सबसे सुन्दर दिन थे और उसने जो यहाँ सीखा है उससे उसका दिमाग और चरित्र दोनो बने हैं."

बाद में मैंने यह बात रोबसन से पूछी कि अन्य धर्म वाले तुमसे नाराज़ क्यों हैं? वह बोला, "मैं कन्दोमब्ले धर्म में विश्वास करता हूँ जो कि अफ्रीकी मूल के आये लोगों के मूल धर्म से प्रेरित है. अफ्रीकी गुलामों को यहाँ ला कर उन्हें ईसाई बनाया गया, लेकिन उन्होंने अपने मूल धर्म को छुपा कर बचाये रखा. आज का कन्दोमब्ले उनके पुराने अफ्रीकी धर्म से साथ ईसाई धर्म और यहाँ रहने वाले मूल जनजाति के निवासियों के धर्म के सम्मिश्रण से बना है. हमारे धर्म के अनुसार पृथ्वी की हर वस्तु, पेड़ पौधे, पहाड़ पत्थर, मानव और पशु पक्षी, सबमें एक ही परमात्मा है. 'आशा घर' की बहुत से कार्यक्रम मेरे धर्म के विश्वास से प्रभावित हैं लेकिन हमारे यहाँ कैथोलिक, एवान्जेलिक सब धर्मों के लोग काम करते हैं, सब धर्मों के बच्चे पढ़ते हैं, मैंने कभी किसी का धर्म बदलने की कोशिश नहीं की. मैं उनके धर्म का मान करता हूँ क्योंकि अगर सोचोगे कि हर वस्तु में वही परमात्मा है तो कोई तुमसे भिन्न नहीं, तो मैं उनके विरुद्ध कैसे कुछ कह या कर सकता हूँ? लेकिन यहाँ के कैथोलिक और एवान्जेलिक लोग हमारे विरुद्ध प्रचार करते हैं कि हम बच्चों का धर्म बदलना चाहते हैं."

मैं सोच रहा था कि दुनिया के दो कोनों पर हैं भारत और ब्राज़ील, लेकिन फ़िर भी कितनी बातों में हमारी समस्याएँ एक जैसी हैं! रोबसन ने कहा कि उन पर यह भी आरोप लगाया जाता है कि वह बच्चों से ईसाई धर्म की आलोचना की बातें करते हैं.

मेरे विचार में यह सोचना कि कोई अन्य तुम्हारे भगवान की या पैगम्बर की आलोचना या बुराई कर सकता है, यह बात असम्भव है. क्योंकि भगवान या पैगम्बर इतने कमज़ोर नहीं हो सकते कि किसी के कुछ कहने, लिखने या चित्र बनाने से उनकी बेइज़्ज़ती हो जाये. यह तो मानव के अपने मन की असुरक्षा की भावना है जो यह सोच सकती है. दूसरी ओर बात है धर्म के नाम पर लोगों को उल्लू बनाना या उनको दबाना और उनके मानव अधिकार और गरिमा का शोषण करना. धर्म के नाम पर जो लोग इस तरह की बात करते हैं उसकी आलोचना करना तो मेरे विचार में भगवान की पूजा के बराबर होगी.

पर यह सच है कि दुनिया के बहुत से देशों में बहुसंख्यकों के धर्म की रक्षा के नाम पर दूसरे अल्पसंख्यक धर्मों के लोगों के साथ अन्याय होता है, उन्हें दबाया जाता है. बहुत से देशों ने तो कानून भी बनाये हैं जहाँ धर्म की बेइज़्ज़ती के नाम पर लोगों को कारावास या मृत्यू दँड तक दे देते हैं.

***

इस बार पोर्तगीज़ बोलने में मुझे अधिक कठिनाई हो रही है!

आखिरी बार पोर्तगीज़ यहीं ब्राज़ील में ही बोली थी, करीब चौदह महीने पहले. उसके बाद किसी पोर्तगीज़ भाषा के देश में जाने का मौका नहीं मिला. शायद इस लिए भाषा को कुछ जंग सा लग गया. या फ़िर उम्र का असर है.

एक अन्य कारण भी हो सकता है इसका, मेरा ईबुक रीडर! पहले कोई भी यात्रा हो साथ में एक किताब तो अवश्य होती थी, लेकिन नये देश में जा कर, वहाँ के समाचार पत्र पढ़ना, टीवी देखना, लोगों से बातें करना, इस सबसे भाषा का अभ्यास तुरंत शुरु हो जाता था. इस बार ईबुक रीडर है जिसमें 153 किताबें हैं, बस हर समय उसी में मग्न रहता हूँ. शायद इसी लिए इस बार पोर्तगीज़ भाषा को ठीक से  बोलने में इतनी कठिनायी हो रही है.

26 अगस्त 2012, गोईयानिया

कल शाम को गोईयास वेल्यो से वापस आये. आज रविवार को मैं खाली था. सुबह सुबह शहर का नक्शा ले कर निकल पड़ा कि धूप तेज़ होने से पहले शहर में कुछ नया देखा जाये.

रास्ते में एक बाग में छोटा उल्लू का बच्चा दिखा जो तेज़ स्वर में पुकार रहा था. शायद उसके माता पिता उसके खाने की खोज में ही गये थे. मैं तस्वीर खींचने के लिए करीब गया तो एक पत्थर के नीचे खुदे खड्डे में दुबक गया.

Baby owl, Goiania, Brazil

आजकल ब्राज़ील के राष्ट्रीय फ़ूल इपे के खिलने का मौसम है. इपे के अधिकतर पेड़ों में पत्ते नहीं हैं बस फ़ूलों से भरे हैं. बागों में गुलाबी, जामुनी, पीले, नीले, विभिन्न रंगों के इपे दिखते हैं.

Ipé tree, Goiania, Brazil

घूमते घूमते विश्वविद्यालय वाले इलाके में पहुँच गया, जहाँ एक बाग में ब्राज़ीली शिल्पकारों की बनायी बहुत सी मूर्तियाँ लगीं थीं. मिट्टी की बनी एक कलाकृति मुझसे सबसे अच्छी लगी, पर शायद विश्वविद्यालय के छात्रों को एक हाथ की कलाकृति सबसे अधिक पसंद थी जिसके ऊपर उन्होंने अपने संदेश लिख दिये थे. उस हाथ की कलाकृति के अतिरिक्त किसी अन्य कलाकृति को लिख कर नहीं बिगाड़ा गया था.
Terracotta Sculptures University square, Goiania, Brazil

Hand Sculpture university square, Goiania, Brazil

तीन घँटे तक चला, जब वापस होटल पहुँचा तो टाँगें थकान से चूर हो रही थीं. फ़िर भी खाना खा कर होटल के करीब एक बाग में लगे चित्रकला बाज़ार में गया, क्योंकि वहाँ अपने एक पुराने मित्र तादेओ से मिलना चाहता था. तादेओ भी चित्रकार है और कुछ वर्ष पहले खरीदी उसकी एक कलाकृति बोलोनिया में हमारे घर में भी लगी है जो मुझे बहुत अच्छी लगती है. तादेओ को बचपन में कुष्ठ रोग हुआ था, जिसकी वजह से उन्हें उनके परिवार से हटा कर कुष्ठ रोगियों की कोलोनी में रहना पड़ा, परिवार भाई बहनों से उनके सब नाते टूट गये. आज वह बात नहीं है क्योंकि अब कुष्ठ रोग का उपचार आसान है इसलिए किसी को उसके परिवार से निकाल कर कोलोनी में बन्द करने वाली बातें अब नहीं होतीं. सोचा था कि तादेओ की एक अन्य पैंटिंग खरीदूँगा, लेकिन बाज़ार में तादेओ नहीं दिखा. अन्य चित्रकारों से पूछा तो उसके एक मित्र ने बताया कि उसकी तबियत ठीक नहीं थी.

Ashwarya Rai in art market, Goiania, Brazil

चित्रकला बाज़ार में भारत की एश्वर्या राय भी दिखीं. एक कलाकार ने उनकी बड़ी तस्वीर पर चमकते सितारे और मोती टाँक कर तस्वीर बनायी थी जिसे लोग दिलचस्पी से देख रहे थे और किसकी तस्वीर है यह पूछ रहे थे.

अब नींद आ रही है, जल्दी सोना चाहिये क्योंकि कल सुबह सुबह बेलेन जाने की उड़ान लेनी है.

27 अगस्त 2012, बेलेम

आज दोपहर को बेलेम पहुँचे. होटल बस अड्डे के सामने है. मैं सामान आदि रख कर घूमने निकला, सोचा था कि यहाँ के एक संग्रहालय और बाग में घूमूँगा लेकिन सोमवार होने की वजह से दोनो ही बन्द थे. शाम को खाना खाने हम लोग पुरानी बँदरगाह की ओर गये जहाँ पुराने गौदामों में नये रेस्टोरेंट, दुकाने आदि खोली गयी हैं. वहीं एक "किलो रेस्टोरेंट" में खाना खाया. किलो रेस्टोरेंट में आप अपनी प्लेट में कुछ भी खाना ले लेजिये, बाद में उसके वजन के हिसाब से उसकी कीमत चुकाईये. इस तरह अगर आप चाहे तो केवल चावल सब्जी खाईये नहीं तो केवल माँस मछली, उससे कुछ फ़र्क नहीं पड़ता, बस वजन के हिसाब से कीमत लगेगी. शहर के अधिकतर किलो रेस्टोरेटों में 20 या 22 रियाइस यानि 500 या 550 रुपये प्रति किलो की कीमत होती है लेकिन बँदरगाह के नये शापिंग सेंटर की कीमत दुगनी थी, फ़िर भी खाना अच्छा था.

मैंने खाने के साथ खूब आम भी खाये. इस साल बोलोनिया में कई बार आम खोजने गया था पर नहीं मिले थे, केवल चटनी वाले कच्चे आम मिलते थे. वहीं छत पर लटकते चबूतरे पर बैठ कर एक युवक गिटार बजा रहा था और साथ गीत गा रहा था, वही चबूतरा भवन में इधर उधर घूम रहा था.

खाना खा कर यहाँ कि पुराने पुर्तगाली किले और उसके सामने बने कैथेड्रल को देखने गये. सफ़ेद रंग का कैथेड्रल, सफेद और लाल रोशनियों से सजा, रात के अँधेरे में बहुत सुन्दर लग रहा था.

Cathedral, Belem, Brazil

मेरे साथ यहाँ आयी ब्राज़ीली साथी दियोलिँदा यहीं नदी के बीच में एक द्वीप में पैदा हुई थी. वह अपने बचपन की साठ साल पहले की बातें बता रही थी कि कैसे यहाँ सड़क नहीं थी और वह अपनी माँ के साथ बाग में लगने वाले हाट में खाने का सामान बेचने आती थी. उसकी माँ अफ्रीकी मूल की थीं और पिता एक फ्राँसिसी और अमेज़न जनजाति के सम्मिश्रित. उसके परिवार में गोरे, काले, हर रँग और नस्ल के दिखने वाले लोग हैं. उसके अपने बच्चों में भी अफ्रीकी रँग और चेहरे वाले भी हैं और सुनहरे बालों वाले यूरोपीय दिखने वाले भी.

गोयानिया में आकाश इतना नीला दिखता था मानो शेम्पू से धोया हो. यहाँ का आसमान उसके मुकाबले में कुछ मटमैला सा है.

Bosque do Buritis lake, Goiania, Brazil

कल सुबह अबायतेटूबा यानि "भीमकाय लोगों का गाँव" जाना है जो कि अमेज़न जँगल के बीच में बसा है. राज्य स्वास्थ्य विभाग की गाड़ी आयेगी हमें लेने, और आधा रास्ता नाव में नदी पार करने का होगा. वहाँ पिछले वर्ष भी गया था. लोग सागर जैसे नदी के बीच में अलग अलग द्वीपों में रहते हैं.

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(अंत भाग 01)

हमारी भाषा कैसे बनी

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