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शनिवार, अगस्त 06, 2022

लम्बे कोविड के खतरे

टिप्पणी (२९ अगस्त २०२२)


पिछले कुछ महीनों (विषेशकर अप्रैल २०२२ के अंत के बाद से) से यूरोप, अमरीका आदि कुछ देशों में वर्ष के इस समय में होने वाली औसत मृत्यु दर से करीब दस से १२ प्रतिशत अधिक हो रही हैं। ईंग्लैंड और अमरीका दोनों देशों में मृत्यु के आकणें यह बढ़ी मत्यु दर दिखला रही हैं। कल (२८ अगस्त २०२२ को) स्कॉटलैंड की सरकार ने इस बात को स्वीकारा है। यह बढ़ी मृत्यु दर कोविड से होने वाली मृत्यु से अलग है। इनमें विषेशरूप से घर पर अचानक मरने वालों की संख्या अधिक है। चूँकि कोविड के वजह से पिछले दो वर्षों में बूढ़े और अन्य बिमारियों वाले बहुत से लोगों की मृत्यु हुई थी तो इस साल औसत मृत्यु दर में कमी आनी चाहिये थी, उसमें बढ़ौती का होना चिंताजनक है। वैज्ञानिकों को संदेह है कि शायद इन अधिक मृत्यु के पीछे कोचिड वैक्सीन का प्रभाव न हो इसलिए वैज्ञानिक कह रहे हें कि देशों के मृत्यु के आकणों, कारणों तथा आटोप्सी रिपोर्ट पर तुरंत शोध करना चाहिये। 

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लम्बे कोविड के खतरे


कोविड की बीमारी दो साल पहले, 2020 के प्रारम्भ में चीन से सारे विश्व में फ़ैली। चूँकि यह बीमारी चीन में 2019 में शुरु हुई, इसमें मरीज़ों को साँस लेने में कठिनाई होती थी और यह कोरोना वायरस से इन्फेक्शन से हुई थी इसे सार्स-कोविड-19 (Severe Acute Respiratory Syndrome - Corona Virus Disease) का नाम दिया गया। अब तक इस बीमारी से दुनियाँ में करोड़ों लोग प्रभावित हुए हैं और लाखों लोगों की मृत्यु हुई है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा देश हो जहाँ यह बीमारी न पहुँची हो।



अधिकाँश लोगों को जब यह बीमारी हुई तो उन्हें अधिक परेशानी नहीं हुई और वह जल्दी ठीक हो गये। करीब 2 प्रतिशत लोगों की तबियत अधिक बिगड़ी और उन्हें अस्पताल में भरती होना पड़ा। अस्पताल में भर्ती होने वाले लोगों में से करीब एक प्रतिशत लोग नहीं बचे, बाकी के लोग धीरे धीरे ठीक हो गये। बीमारी के प्रारम्भ में, जब इससे लड़ने के लिए वैक्सीन का आविष्कार नहीं हुआ था, बीमार होने वाले और मरने वाले अधिक थे। बहुत से देशों में इस बीमारी के लिए विषेश अस्पताल खोले गये। अधिकाँश देशों में 2020-21 में महीनों तक लॉक-डाउन रहे जिससे दुकानदारों, फैक्टरी वालों, स्कूल और कॉलेज के विद्यार्थियों, उद्योग चलाने वालों, रैस्टोरेंट वालों, कलाकारों, फ़िल्म वालों आदि सब पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ा।

जिन लोगों को यह कोविड की बीमारी हुई उनमें से कुछ लोगों में इस बीमारी का लम्बा प्रभाव पड़ा है, यानि वह इस बीमारी के बाद, कई महीनों या सालों तक ठीक नहीं हो पाये। इन लोगों की बीमारी को "लम्बे कोविड" (Long Covid) का नाम दिया गया है। कुछ दिन पहले, 28 जुलाई 2022 को, लम्बे कोविड के बारे में एक नया और महत्वपूर्ण शोध के परिणाम आये हैं जिनसे इस लम्बे कोविड की बीमारी और उसके शरीर पर होने वाले प्रभावों को समझने में मदद मिलती है। इस आलेख में कोविड का वायरस कैसे शरीर पर प्रभाव करता है और लम्बे कोविड की बीमारी से जुड़े इस शोध के परिणामों की चर्चा हैं।

लम्बे कोविड का शोध

इस शोध के लिए ईंग्लैंड में उन लोगों को चुना गया जिन्हें गम्भीर स्तर का कोविड का इन्फेक्शन हुआ था और बीमारी शुरु होने के २८ दिनों के बाद भी जिनकी तबियत पूरी तरह से नहीं सुधरी थी। इसमें कुल मिला कर तीन लाख छत्तीस हजार लोगों को लिया गया। इन लोगों को स्मार्ट फोन का एक एप्प दिया गया और उनसे नियमित रूप से स्वास्थ्य सम्बंधी जानकारी इकट्ठी की गयी। इसके अधिकतर शोधकर्ता लँडन के किन्गस कॉलेज से जुड़े थे।

कोविड का वायरस जो चीन में निकला, वह समय के साथ बदलता रहा है और उन बदलते हुए वायरसों को अलग अलग नाम दिये जाते हैं जैसे कि अल्फा, डेल्टा, आदि। इस शोध में उन सभी विभिन्न तरह से वायरसों से बीमार व्यक्तियों ने हिस्सा लिया।

जिन तीन लाख छत्तीस हज़ार रोगियों ने इसमें हिस्सा लिया, उनमें से एक हज़ार चार सौ उनसठ (1,459) रोगियों को "लम्बा कोविड" हुआ यानि उनकी बीमारी होने के तीन महीने बाद भी उनकी तबियत ठीक नहीं हुई थी। इसका अर्थ है कि इस शोध में हिस्सा लेने वाले हर 230 रोगियों में से एक व्यक्ति को लम्बा कोविड हुआ, जिससे मालूम चलता है कि गम्भीर कोविड होने वाले लोगों में से तकरीबन 0.4 प्रतिशत लोगों को लम्बा कोविड होने का खतरा हो सकता है।।

कोविड का शरीर पर असर

कोविड की बीमारी हमारे शरीर पर किस तरह से असर करती है, इसको जानने के लिए हमारे शरीर की आत्मरक्षा व्यवस्था (immunological system) को समझना ज़रूरी है।

जब हमारे शरीर में कोई भी बीमारी वाला किटाणु घुसता है तो हमारा शरीर उससे लड़ने की कोशिश करता है। बीमारी फैलाने वाले किटाणुओं से लड़ने वाली आत्मरक्षा की क्षमता को शरीर की इम्यूनुलोजिकल सिस्टम या शरीर-आत्मरक्षा व्यवस्था कहते हैं। हमारी यह आत्मरक्षा क्षमता मुख्यतः दो तरह की होती है - रक्त में घूमने वाली एँटीबॉडी (antobodies) और सुरक्षा-कोष (cellular immunity)।

एँटीबॉडी को शरीर की रक्त धमनियों में घूमने वाला सिपाही समझिये, जैसे ही किसी अनजाने किटाणु को देखता है, उसको पकड़ कर उससे लिपट जाता है और मदद के लिए चिल्लाता है, जिससे की मेक्रोफेज (macrophage) नाम के कोष वहाँ आ कर उन किटाणुओं को निगल जाते हैं और मार कर पचा लेते हैं।

अगर आप के शरीर ने उस किटाणु को पहले नहीं देखा, जब यह नया किटाणु शरीर में घुसता है तो एँटीबॉडी उनको पहचान नहीं पाती और इन किटाणुओं को शरीर में फ़ैलने का मौका मिल जाता है। तो इन्हें रोकने की ज़िम्मेदारी सुरक्षा कोषों पर आती है, इनका काम है नये किटाणुओं को पहचानना, लड़ना और उनसे लड़ने के लिए नये तरीके की एँटीबॉडी बनवाना। इस काम में थोड़ी देर लगती है और तब तक बीमारी शरीर में फैलती रहती है।

वैज्ञानिक कुछ घातक किटाणुओं जिनसे जानलेवा या गम्भीर बीमारी हो सकती है, उनसे बचने के लिए वैक्सीन बनाते हैं। वैक्सीन में मरे या अधमरे किटाणु, जिनसे बीमारी होने का खतरा नहीं हो, शरीर में टीके से या ड्रापस से भेजे जाते हैं, ताकि शरीर उनको पहचान कर उनसे लड़ने वाली एँटीबॉडी बनाने लगे। इस तरह से जब वह किटाणु आप के शरीर में घुसते हैं तो वे आप की आत्मरक्षा व्यव्स्था के लिए नये नहीं हैं और उनसे लड़ने वाली एँटीबोडी पहले से ही तैयार उनकी घात में बैठी हैं।

जब शरीर किसी किटाणु से लड़ता है, तो कई बार उस लड़ाई की वजह से भी शरीर पर कुछ दुष्प्रभाव हो सकते हैं, जैसे कि शरीर का तापमान बढ़ना। इसलिए जब शरीर में कोई भी इन्फेक्शन हो, बुखार आ जाता है।

कोविड के वायरस शरीर में साँस के साथ घुसते हैं और सबसे पहले फेफड़ों में फ़ैलते हैं। अगर शरीर में इन्हें तुरंत रोकने की शक्ति नहीं हो, तो इनकी संख्या में तेजी से बढ़ोतरी होती है। जब तक शरीर इन किटाणुओं से लड़ने के लिए एँटीबॉडी बनाता है तब तक कुछ लोगों के फेफड़ों में इतने किटाणु बन गये होते हैं कि जब एँटीबॉडी उन पर हमला करती हैं तो वहाँ पानी जमा हो सकता है या फेफड़ों की संकरी धमनियाँ उन किटाणु-एँटीबॉडी के गट्ठरों से बंद हो जाती हैं, जिनसे मरीजों को साँस लेने में कठिनाई होती है, उनके शरीर की आक्सीजन कम होने लगती है। इसके अतिरिक्त, फेफड़ों से किटाणु शरीर के अन्य भागों में जाते हैं और वायरस विभिन्न अंगों के कोषों को नुक्सान दे सकता है। यही सब बीमारी के लक्षण बन कर प्रकट होते हैं।

लम्बे कोविड के कारण

कोविड का वायरस फेफड़ों से घुस कर शरीर के विभिन्न हिस्सों में फ़ैल जाता है, और शरीर के महत्वपूर्ण अंगों के कोषों को नुकसान हो सकता है। अगर कोषों को नुकसान टेम्परेरी है जैसे कि उनमें स्वैलिंग आ जाती है, तो धीरे धीरे यह ठीक हो जाता है। लेकिन अगर महत्वपूर्ण अंगों के कोष बीमारी की वजह से मर जाते हैं तो अक्सर वह दोबारा ठीक नहीं होते।

जैसे कि हमारे दिमाग में विभिन्न गँधों को पहचानने वाले कोष होते हैं, जो अक्सर कोविड से प्रभावित होते हैं। अगर वह कोष बीमारी में मर जाते हैं तो हो सकता है कि उस व्यक्ति की सूँघने की शक्ति पूरी तरह से कभी नहीं लौटे। लम्बे कोविड से प्रभावित लोगों में पाया गया है कि उनके विभिन्न शरीर के हिस्सों में जैसे कि दिमाग में, दिल में, फेफड़ों मे, शरीर के कोषों को परमानैंट डेमेज हो गया है जिसकी वजह से वह ठीक नहीं हो पा रहे।

लम्बे कोविड के प्रभाव

इस शोध में लम्बे कोविड बीमारी होने वाले व्यक्तियों में तीन तरह के लक्षण पाये गये हैंः

(१) दिमाग और नसों से जुड़े लक्षण - जैसे कि सूँघने की क्षमता खोना, थकान होना, सोचने की शक्ति कमज़ोर होना, डिप्रेशन होना, सिरदर्द होना, आदि।

(२) हृदय और फेफड़ों से जुड़े लक्षण - जैसे कि साँस लेने में कठिनाई, हाँफना, जल्दी थक जाना, दिल की धड़कन बढ़ना, आदि।

(३) शरीर के अन्य अंगों से जुड़े लक्षण - जैसे कि बुखार रहना, गुर्दों की तकलीफ़ होना, जोड़ों में तकलीफ़ होना, आदि।

इस शोध में शामिल लम्बे कोविड से पीड़ित व्यक्तियों में उपर बताये लक्षणों में से सबसे अधिक लोगों को दिमाग तथा नसों से जुड़ी तकलीफ़ें पायी गयीं।

अंत में

कोविड की वैक्सीन के दुष्प्रभावों के बारे में भी बहुत चर्चा हुई हैं और यह दुष्प्रभाव अनेक शोधों में दिखाये गये हैं, लेकिन यह थोड़े ही लोगों में हुए हैं। कोविड की वैक्सीन की एक कमी यह भी है कि इसका असर थोड़े समय के लिए लगता है और वैक्सीन लगवाये कई लोगों को भी कोविड हुआ है। लेकिन विभिन्न शोध यह भी दिखाते हैं कि वैक्सीन लगवाये हुए लोगों को बीमारी कम गम्भीर हुई, उनमें से बहुत कम लोगों को अस्पताल में भर्ती होनी की ज़रूरत हुई और उनमें से इस बीमारी से बहुत कम लोग मरे।

मेरी राय में अगर आप को अभी तक कोविड नहीं हुआ है, या आप को मालूम नहीं कि आप को लक्षणविहीन कोविड हुआ या नहीं हुआ, तो कोविड की वैक्सीन लगवाना बेहतर है। अब हर दूसरे महीने इसके नये वेरिएन्ट वायरस निकल रहे हैं जिनसे यह बीमारी तेज़ी से फ़ैलती है लेकिन बहुत कम लोगों को अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है, इसलिए सरकारों ने अब इसकी चिंता करना कम कर दिया है। इसका मतलब है कि अगले महीनों और वर्षों में यह बीमारी आम हो जायेगी, तो कोई भी इससे बच नहीं सकता। अगर आप ने अभी तक वैक्सीन नहीं लगवायी, तो हो सकता है कि आप खुशकिस्मत हो और कोविड होगा भी तो आप को नुक्सान नहीं पहुँचायेगा, लेकिन ऐसा कोई टेस्ट नहीं जो यह बता सके। बाकी तो अगर आप इस आलेख को पढ़ रहे हैं तो जाहिर है कि आप समझदार हैं।


बुधवार, मई 25, 2022

अरे ओ साम्बा, कित्ती छोरियाँ थीं?

भारत में कितनी औरतें हैं यह प्रश्न गब्बर सिंह ने नहीं पूछा था, लेकिन यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है।

कुछ माह पहले भारत सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने 2019 से 2021 के बीच में किये गये राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के नतीजों की रिपोर्ट निकाली थी। इस रिपोर्ट के अनुसार आधुनिक भारत के इतिहास में पहली बार देश में लड़कियों तथा औरतों की कुल जनसंख्या लड़कों तथा पुरुषों की कुल जनसंख्या से अधिक हुई है। यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है जिससे देश की सामाजिक, आर्थिक व स्वास्थ्य की स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है। यह भारत के लिए गर्व की बात है। अपने इस आलेख में मैंने इस बदलाव की राष्ट्रीय तथा राज्यीय स्तर पर कुछ विषलेशण करने की कोशिश की है।



नारी और पुरुष जनसंख्या के अनुपात

कुल जनसंख्या में लड़कियों तथा औरतों की संख्या लड़कों तथा पुरुषों की संख्या से अधिक होनी चाहिए। अगर गर्भ में भ्रूण के बनते समय उसका नर या मादा होने के मौके एक बराबर ही होते हैं, तो समाज में नर और नारियों की संख्या भी एक बराबर होनी चाहिये। तो पुरुषों की संख्या औरतों से कम क्यों होती है? इसके कई कारण होते हैं। सबसे पहले हम नर तथा नारी जनसंख्या पर पड़ने वाले विभिन्न प्रभावों को देख सकते हैं। 

नर भ्रूणों को स्वभाविक गर्भपात का खतरा अधिक होता है, इस लिए पैदा होने वाले बच्चों में लड़कियाँ अधिक होती हैं। 

पैदा होने के बाद भी लड़के कई बीमारियों का सामना करने में लड़कियों से कमजोर होते हैं। समूचे जीवन काल में, बचपन से ले कर बुढ़ापे तक, चाहे एक्सीडैंट हों या आत्महत्या, चाहे शराब अधिक पीना हो या नशे की वजह हो, चाहे लड़ाईयाँ हों या सामान्य हिँसा, लड़के व पुरुष ही अधिक मरते हैं। लड़कों व पुरुषों की हड्डियाँ व माँस पेशियाँ अधिक मजबूत होती हैं, वह अधिक ऊँचे और शक्तिशाली होते हैं, लेकिन वह मजबूत शरीर बीमारियों से लड़ने तथा मानसिक दृष्टि से कम शक्तिशाली होते हैं। 

जबकि औरतों के जीवन में सबसे बड़ा स्वास्थ्य से जुड़ा खतरा होता है उनका गर्भवति होना और बच्चे को जन्म देना। पिछड़े व गरीब समाजों में औरतों की उर्वरता दर अधिक होती है, यानि बच्चों की संख्या अधिक होती है। कृषि से जुड़े गरीब समाजों को बच्चों के बाहुबल की आवश्यकता होती है। गरीब देशों की स्वास्थ्य सेवाएँ भी निम्न स्तर की होती हैं, तो बच्चों को टीके नहीं लगाये जाते या बीमार होने पर उनका सही उपचार नहीं हो पाता। इन सब वजहों से गरीब समाजों में बच्चे अधिक होते हैं। इसलिए गर्भवति होने वाली उम्र में गरीब समाजों में नवयुतियों के मरने का खतरा अधिक होता है। जबकि विकसित समाजों में, विषेशकर अगर लड़कियाँ पढ़ी लिखी हों, तो उनके बच्चे देर से पैदा होते हैं और उनकी संख्या कम हो जाती है। 

नारी शरीर की दूसरी कमजोरी का कारण है मासिक माहवारी। अगर उन्हें सही खाना मिलता रहे तो सामान्य माहवारी का उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर नहीं पड़ता, वरना इससे उनके रक्त में लोहे की कमी से अनीमिया होने का खतरा रहता है। लेकिन अगर प्रसव तथा माहवारी से जुड़े खतरों को छोड़ दें तो नारी शरीर में बीमारियों से लड़ने की अधिक शक्ति होती है। नारी शरीर के हारमोन उनकी बहुत सारी बिमारियों से, जैसे कि बढ़ा हुआ ब्लड प्रेशर तथा हृद्यरोग आदि से जब तक माहवारी चलती है, तब तक उनकी रक्षा करते हैं, उन बीमारियों से पुरुष अधिक मरते हैं। बुढ़ापे में भी नारी हारमोन उनकी कुछ हद तक रक्षा करते हैं जिससे कि औरतों की औसत जीवन अपेक्षा पुरुषों से अधिक होती है। 

प्राकृतिक स्वास्थ्य संबंधी कारणों के अतिरिक्त नर-नारी जनसंख्या पर सामाजिक सोच का असर पड़ता है। बहुत से समाजों में लड़कियों को पैदा होने से पहले ही गर्भपात करवा कर मरवा देते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि लड़कों से परिवार और संस्कृतियाँ चलती हैं। पैदा होने के बाद बेटों के तुलना में उन्हें खाना कम दिया जाता है, खेलकूद और पढ़ायी के अवसर कम मिलते हैं। और जब वह बीमार होती हैं तो उनका इलाज देर से करवाया जाता है और कम करवाया जाता है।



देशों में कुल जनसंख्या में नर अधिक होंगे या नारियाँ, उस आकंणे पर ऊपर बताये गये सब भिन्न प्रभावों के नतीजों को जोड़ कर देखना पड़ेगा। विश्व स्तर पर उन आकंणों को देखें तो हम पाते हैं कि विकसित देशों में जनसंख्या में नारियाँ अधिक होती हैं, जबकि कम विकसित तथा गरीब देशों में पुरुषों की संख्या अधिक होती है। जैसे जैसे समाज विकसित होने लगते हैं, औरतें अधिक पढ़ती लिखती हैं, नौकरी करके स्वंतत्र रहने के काबिल बन जाती हैं और आवश्यकता पड़ने पर माता पिता की देखभाल भी कर सकती हैं, तो जनसंख्या में उनका अनुपात बढ़ने लगता है। 

अन्य देशों से नर-नारी अनुपात के कुछ आकंणे

नये भारतीय सर्वेषण के नतीजों को देखने से पहले आईये पहले हम कुछ अन्य देशों में नर-नारी अनुपात की क्या स्थिति है उसको देखते हैं।

इस दृष्टि से पहले दुनिया के कुछ विकसित देशों की स्थिति कैसी है, पहले उसके आकणें देखते हैं। 1000 पुरुषों के अनुपात में देखें तो फ्राँस में 1054 औरतें हैं, जर्मनी में 1039, ईंग्लैंड और स्पेन में 1024, इटली में 1035, अमरीका में 1030, तथा जापान में 1057। यानि हर विकसित देश में लड़कियों व औरतों की संख्या लड़कों तथा पुरुषों की संख्या से अधिक है। 

आईये अब भारत के आसपास के देशों की स्थिति देखें। यहाँ पर 1000 पुरुषों के अनुपात में पाकिस्तान में 986 औरतें हैं, बँगलादेश में 976, नेपाल में 1016, और चीन में 953। यानि नेपाल में स्थिति बेहतर हैं जबकि चीन, पाकिस्तान व बँगलादेश में खराब है। हाँलाकि पिछले दो दशकों में चीन बहुत अधिक विकसित हुआ है लेकिन चीन में अभी कुछ समय पहले तक नियम था कि परिवार में एक से अधिक बच्चे नहीं होने चाहिये, और वहाँ की सामाजिक सोच इस तरह की है जिसमें वह सोचते हैं कि लड़के ही पैदा होंने चाहिए, इसके दुष्प्रभाव पड़े हैं।

विभिन्न देशों के आंकणें देखते समय वहाँ की अन्य परिस्थितयों के असर के बारे में सोचना चाहिये। जहाँ युद्ध हो रहे हैं वहाँ पुरुषों की संख्या और भी कम हो सकती है। कुछ जगहों में पुरुषों को घर-गाँव छोड़ कर पैसा कमाने के लिए दूर कहीं जाना पड़ता है, तो वहाँ भी जनसंख्या में पुरुषों की संख्या कम हो जायेगी, जबकि जिन जगहों पर पुरुष प्रवासी काम खोजने आते हैं, वहाँ पर उनका अनुपात बढ़ जाता है। जब आंकणों में किसी जगह पर बहुत अधिक पुरुष या नारियाँ दिखें तो वहाँ की सामाजिक स्थिति के बारे में अन्य कारणों को समझना आवश्यक हो जाता है।

भारत के राष्ट्रीय स्तर के आंकणे

राष्ट्रीय स्तर पर यह आकंणे सन् 1901 के बाद से जमा किये जाते रहे हैं। चूँकि सौ वर्ष पहले के भारत में आज के पाकिस्तान, बँगलादेश तथा कुछ हद तक मयनमार भी शामिल थे तो उनके आंकणों की आधुनिक भारत के आंकणों से पूरी तरह तुलना नहीं की जा सकती लेकिन उनसे हमारी स्थिति के बारे में कुछ जानकारी तो मिलती है।

1901 में भारत में हर 1000 पुरुषों से सामने 972 औरतें थीं, जबकि 1970 में उनकी संख्या 930 रह गयी थी। 2005-06 में जब तृतीय राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेषण में यह जानकारी जमा की गयी तो भी स्थिति में बदलाव नहीं आया था, 1000 पुरुषों के सामने 939 औरतें थीं। 2015-16 में जब चौथा सर्वेषण किया गया तो पहली बार महत्वपूर्ण बदलाव दिखा जब औरतों की संख्या बढ़ कर 991 हो गयी थी। इस वर्ष आये परिणामों में स्थिति और मजबूत हुई है, इस बार 1000 पुरुषों के मुकाबले में 1020 औरतें हैं।

इन आकंणो से हम क्या निष्कर्श निकाल सकते हैं? मेरे विचार में सौ साल पहले औरतों की संख्या कम होने का कारण था उन्हें खाना अच्छा न मिलना, बच्चे अधिक होना, और प्रसव के समय स्वास्थ्य सेवाओं की कमी। यह सभी बातें 1970 के सर्वेषण तक अधिक नहीं बदली थीं। 1990 के दशक में भारत में विकास बढ़ा, साथ में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बेहतर हुई लेकिन साथ ही गर्भवति औरतों के लिए अल्ट्रासाँऊड टेस्ट कराने की सुविधाएँ भी तेजी सी बढ़ी जिनसे परिवारों के लिए होने वाले बच्चे का लिंग जानना बहुत आसान हो गया, जिससे बच्चियों की भ्रूण बहुत अधिक संख्या में गिरवाये जाने लगे। इसका असर 2005-06 के सर्वेषण पर पड़ा और बच्चे कम होने, भोजन बेहतर होने व स्वास्थ्य सेवाएँ बेहतर होने के बावजूद औरतों की संख्या कम ही रही।

भारत में बच्चियों का गर्भपात

हालाँकि भारत सरकार ने गर्भवति औरतों में अल्ट्रासाऊँड टेस्ट से लिंग ज्ञात करने की रोकथाम के लिए 1994 से कानून बनाया था, इसे 2005-06 के सर्वेषण के बाद सही तरह से लागू किया गया जब डाक्टरों पर सजा को बढ़ाया गया। लेकिन सामाजिक स्तर पर भारत में बेटियों की स्थिति अधिक नहीं बदली, इस कानून का भी कुछ विषेश असर नहीं पड़ा है।

भारत में बच्ची होने पर गर्भपात कराने की परम्परा अभी महत्वपूर्ण तरीके से नहीं बदली, यह हम एक अन्य आंकणे से समझ सकते हैं - छः वर्ष से छोटे बच्चों में लड़कों और लड़कियों के अनुपात को देखा जाये। 2001 में छः वर्ष से छोटे बच्चों की जनसंख्या में हर 1000 लड़कों के सामने 927 लड़कियाँ थीं। 2005-06 में यह संख्या घट कर 918 हो गयी। 2015-16 में यह संख्या बदली नहीं थी, 919 थी। और, 2019-21 के नये सर्वेषण में भी यह अधिक नहीं बदली, 924 है।

इसका अर्थ है कि औरतों की संख्या में बढ़ोतरी का बदलाव जो 2019-21 के सर्वेषण में दिखता है वह अन्य वजहों से हुआ है जैसे कि उन्हें पोषण बेहतर मिलना, छोटी उम्र में विवाह कम होना, विवाह के बाद बच्चे कम होना और प्रसव के समय बेहतर स्वास्थ्य सेवा मिलना।

ग्रामीण तथा शहरी क्षत्रों में अंतर

राष्ट्रीय स्तर पर और बहुत से प्रदेशों में ग्रामीण क्षेत्रों में औरतों की स्थिति शहरों से बेहतर है। राष्ट्रीय स्तर पर 1998-99 में 1000 पुरुषों के अनुपात में शहरी क्षेत्रों में 928 औरतें थीं जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी संख्या 957 थी। बाईस साल बाद, 2019-21 के सर्वेषण में राष्ट्रीय स्तर के आंकणों में दोनों क्षेत्रों में स्थिति सुधरी है, शहरों में उनकी संख्या 985 हो गयी है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में संख्या 1037 हो गयी है।

लेकिन यह बदलाव बड़े शहरों से जुड़े ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं आया। दिल्ली, चंदीगढ़, पुड्डूचेरी जैसे शहरों के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में औरतों की संख्या शहरों से कम है। यह आंकणे देख कर मुझे लगा कि इन क्षेत्रों में स्थिति को समझने के लिए विषेश शोध किये जाने चाहिये। एक कारण हो सकता है कि यहाँ बच्चियों का गर्भपात अधिक होता हो? शायद उससे भी बड़ा कारण है कि देश के अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासी युवक इन गाँवों में सस्ती रहने की जगह पाते हैं जिसकी वजह से यहाँ पुरुषों की संख्या अधिक हो जाती है?

अन्य कुछ बातें भी हैं। जैसे कि सामान्य सोच है कि गाँवों में समाज अधिक पाराम्परिक या रूढ़िवादी होते हैं, वहाँ सामाजिक सोच को बदलने में समय लगता है। वहाँ स्वास्थ्य सेवाओं को पाना भी कठिन हो सकता है, हालाँकि प्राथमिक सेवा केंद्रों तथा आशा कर्मियों से बहुत जगहों पर स्थिति में बहुत सुधार आया है। लेकिन इन सबको ठीक से समझने के लिए विषेश शोध होने चाहिये।

राज्य स्तर के आंकणे

अंत में राज्य स्तर के आंकणों के बारे में कुछ जानकारी प्रस्तुत है। जैसा कि मैंने ऊपर बताया है, इन आंकणों पर अन्य बहुत सी बातों का असर पड़ता है इसलिए उनके महत्व को ठीक से समझने के लिए सावधानी बरतनी चाहिये।

मेरे विचार में राज्यों की स्थिति को देश के विभिन्न भागों में बाँट कर देखना अधिक आसान है। मैंने राज्यों को चार भागों में बाँटा है - पहले भाग में हैं उत्तरपूर्व को छोड़ कर उत्तरी व मध्य भारत की सभी राज्य; दूसरे भाग में मैंने दक्षिण भारत के राज्यों को रखा है, जिनमें गोवा भी है; तीसरा भाग है उत्तरपूर्व के राज्य जिनमें सिक्किम भी है; और चौथा भाग है केन्द्रीय प्रशासित क्षेत्र जैसे कि अँडमान या चँदी गढ़, इनमें दिल्ली भी है।

उत्तर तथा मध्य भारत के राज्य

2015-16 के आंकणों के अनुसार, उत्तर व मध्य भारत में सात राज्यों में औरतों की संख्या की स्थिति नकरात्मक थी - हरियाणा 876, राजस्थान 887, पँजाब 905, गुजरात 950, महाराष्ट्र 952, एवं जम्मु कश्मीर में 971। उत्तरप्रदेश में स्थिति बाकियों के मुकाबले में कुछ ठीक थी, 995। बाकी के सभी प्रदेशों में (झारखँड, पश्चिम बँगाल, उत्तरखँड, छत्तीसगढ़, ओडीशा, बिहार व हिमाचल प्रदेश) में औरतों की संख्या पुरुष अनुपात में 1000 से अधिक थी, उनमें से सबसे उच्चस्थान पर थे बिहार 1062 तथा हिमाचल प्रदेश 1087।

2019-21 के आंकणें देखें तो कुछ बदलाव दिखते हैं। जम्मू कश्मीर को छोड़ कर अन्य सभी राज्यों में स्थिति में कुछ सुधार आया है, हालाँकि पँजाब व राजस्थान में सुधार की मात्रा थोड़ी सी ही है। इन परिवर्तनों के बाद सबसे अधिक नकारात्मक स्थितियाँ इन राज्यों में हैं - राजस्थान 891, हरियाणा 926, पँजाब 938, जम्मू कश्मीर 948, गुजरात 965, महाराष्ट्र 966, और मध्यप्रदेश 970। बाकी सभी राज्यों में औरतों का अनुपात 1000 से ऊपर है। सबसे बेहतर स्थिति है ओडीशा में 1063 तथा बिहार में 1090। मेरे विचार में जिन राज्यों में स्थिति सकारात्मक दिखती है वहाँ के आंकणों पर अधिक पुरुषों के प्रवासी होने का भी प्रभाव है।

दक्षिण भारत के राज्य

गोवा सहित दक्षिण भारत के राज्यों में 2015-16 में स्थिति केवल कर्णाटक में नकारात्मक थी, 979, बाकी सभी राज्यों में स्थिति सकारात्मक थी।

2019-21 के सर्वेक्षण में इन सभी राज्यों में स्थिति सकारात्मक हो गयी थी।

उत्तरपूर्वी भारत के राज्य

उत्तरपूर्वी भारत के आठ राज्यों में से 2015-16 में 3 राज्यों में स्थिति नकारात्मक थी - सिक्किम 942, अरुणाचल 958 तथा नागालैंड 968। दो राज्यों में स्थिति थोड़ी सी नकारात्मक थी, असम में 993 और त्रिपुरा में 998, जबकि मेघालय, मिजोरम तथा मणीपुर में स्थिति सकारात्मक थी।

इस बार के 2019-21 सर्वेक्षण में इन सभी राज्यों में स्थिति सुधरी है, हालाँकि अभी भी सिक्किम में 990 तथा अरुणाचल में 997 होने से थोड़ी सी नकारात्मक है।

दिल्ली तथा केन्द्र प्रशासित भाग

अंत में दिल्ली तथा केन्द्र प्रशासित भागों में देखें तो 2015-16 में चार क्षेत्रों में स्थिति गम्भीर थी - दादरा, नगर हवेली, दमन, दीव 813, दिल्ली 854, चंदीगढ़ 934 तथा अँडमान 977। सभी जगहों पर इन क्षेत्रों के ग्रामीण हिस्सों की स्थिति और भी गम्भीर थी, जिसका एक कारण अन्य राज्यों से आने वाले प्रवासी पुरुष हो सकता है।

2019-21 में स्थिति में कुछ सुधार हुआ और कुछ स्थिति और भी नकारात्मक हुई - दादरा, नगर हवेली आदि 827, दिल्ली 913, चंदीगढ़ 917, अँडमान 963, लदाख 971। अँडमान में कितने प्रवासी है, वहाँ क्या कारण हो सकते हैं, उसके आंकणों से मुझे थोड़ी हैरानी हुई।


अंत में

अगर हम पूरे भारत के स्तर पर विभिन्न राज्यों में नारी और पुरुष जनसंख्या के अनुपात में आये परिवर्तनों को देखें तो पाते हैं कि बहुत राज्यों में स्थिति सुधरी है, विषेशकर लक्षद्वीप, केरल, कर्णाटक, तमिलनाडू, हरियाणा, सिक्किम, झारखँड, नागालैंड तथा अरुणाचल में। कुछ जगहों पर अनुपात कुछ घटा है जैसे कि हिमाचल प्रदेश, हालाँकि कुछ स्थिति अभी भी सकारात्मक है।

राज्य स्तर के आंकणों में आने वाले बदलावों को ठीक से समझना आसान नहीं है क्योंकि उस पर अन्य कारणों के साथ साथ पुरुषों के काम की खोज में अन्य राज्यों में जाने से भी बहुत असर पड़ता है। इसकी वजह से समृद्ध राज्य जहाँ प्रवासी आते हैं उनकी पुरुष संख्या बढ़ी दिखती है और पिछड़े राज्य, जहाँ से पुरुष प्रवासी बन कर निकलते हैं, उनके आंकड़े सच्चाई से बेहतर दिखते हैं।

राज्यों की स्थिति चाहे जो भी हो, राष्ट्रीय स्तर पर भारत की जनसंख्या में औरतों के अनुपात में इस तरह से बढ़ौती बहुत सकारात्मक बदलाव है। केवल एक आंकणे पर अधिक बातें कहना सही बात नहीं होगी, उसके लिए हमें स्वास्थ्य से संबंधित अन्य आंकणों को देखना पड़ेगा। लेकिन यह स्थिति भारत को विकास की ओर बढ़ाने में यह सही राह पर होने का आभास देती है।

बुधवार, मई 18, 2022

स्वास्थ्य विषय पर फ़िल्मों का समारोह

विश्व स्वास्थ्य संस्थान (विस्स) यानि वर्ल्ड हैल्थ ओरग्नाईज़ेशन (World Health Organisation - WHO) हर वर्ष स्वास्थ्य सम्बंधी विषयों पर बनी फ़िल्मों का समारोह आयोजित करता है, जिनमें से सर्व श्रेष्ठ फ़िल्मों को मई में वार्षिक विश्व स्वास्थ्य सभा के दौरान पुरस्कृत किया जाता है। विस्स की ओर से जनसामान्य को आमंत्रित किया जाता है कि वह इन फ़िल्मों को देखे और अपनी मनपसंद फ़िल्मों पर अपनी राय अभिव्यक्त करे। सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म चुनने वाली उनकी जूरी इस जन-वोट को भी ध्यान में रखती है। आजकल इस वर्ष की फ़िल्मों को विस्स की यूट्यूब चैनल पर देखा जा सकता है। कुछ दिन पहले मैंने इस फैस्टिवल में तीन श्रेणियों में सम्मिलित की गयी लघु फ़िल्मों को देखा। वह श्रेणियाँ थीं - स्वास्थ्य तथा नवोन्मेष (Innovation), पुनर्क्षमताप्राप्ति (Rehabilitation) तथा अतिलघु फ़िल्में। यह आलेख उनमें से मेरी मनपसंद फ़िल्मों के बारे में हैं।


स्वास्थ्य तथा नवोन्मेष विषय की फ़िल्में

स्वास्थ्य के बारे में सोचें कि उससे जुड़े नये उन्मेष (innovation) या नयी खोजें किस किस तरह की हो सकती हैं तो मेरे विचार में हम उनमें नयी तरह की दवाएँ या नयी चिकित्सा पद्धतियों को ले सकते हैं, नये तकनीकों तथा नये तकनीकी उपकरणों को भी ले सकते हैं, जनता को नये तरीकों से जानकारी दी जाये या किसी विषय के बारे में अनूठे तरीके से चेतना जगायी जाये जैसी बातें भी हो सकती हैं। इस दृष्टि से देखें तो मेरे विचार में इस श्रेणी की सम्मिलित फ़िल्मों में सचमुच का नयापन अधिक नहीं दिखा। इन सभी फ़िल्मों की लम्बाई पाँच से आठ मिनट के लगभग है।

एक फ़िल्म में आस्ट्रेलिया के एक भारतीय मूल के डॉक्टर की कहानी है (Equal Access) जिनका कार दुर्घटना में मेरूदँड (रीड़ की हड्डी) में चोट लगने से शरीर का निचले हिस्से को लकवा मार गया था। वह कुछ वैज्ञानिकों के साथ मिल कर विकलाँगों द्वारा उपयोग होने वाले नये उपकरणों के बारे में होने वाले प्रयोगों के बारे में बताते हैं जैसे कि साइबर जीवसत्य (virtual reality) का प्रयोग। इसमें नयी बात थी कि वैज्ञानिक यह प्रयोग प्रारम्भ से ही विकलाँग व्यक्तियों के साथ मिल कर रहे हैं जिससे वह उनके उपयोग से जुड़ी रुकावटों तथा कठिनाईयों को तुरंत समझ कर उसके उपाय खोज सकते हैं।

एक अन्य फ़िल्म (Malakit) में दक्षिण अमरीकी देश फ्राँसिसी ग्याना में सोने की खानों में काम करने वाले ब्राज़ीली मजदूरों में मलेरिया रोग की समस्या है। जँगल में जहाँ वह लोग सोना खोजते हैं, वहाँ स्वास्थ्य सेवाएँ नहीं हैं। वह मजदूर जब भी उन्हें बुखार हो, अपने आप ही बिना कुछ जाँच किये मलेरिया की दवा ले कर खा लेते हैं जिससे खतरा है कि मलेरिया की दवाएँ काम करना बन्द कर देंगी। इसलिए सरकार ने किट बनाये हैं जिससे लोग अपने आप यह टेस्ट करके देख सकते हैं कि उन्हें मलेरिया है या नहीं, और अगर टेस्ट पोसिटिव निकले तो उसमें मलेरिया का पूरा इलाज करने की दवा भी है। मजदूरों को यह किट मुफ्त बाँटे जाते हैं और मलेरिया का टेस्ट कैसे करें, तथा दवा कैसे लें, इसकी जानकारी भी उन्हें दी जाती है।

पश्चिमी अफ्रीकी देश आईवरी कोस्ट की एक फ़िल्म (A simple test for Cervical cancer) में वहाँ की डॉक्टर मेलानी का काम दिखाया गया है जिसमें वह एक आसान टेस्ट से औरतों में उनके गर्भाश्य के प्रारम्भिक भाग में होने वाले सर्वाईक्ल कैंसर (Cervical cancer) की जाँच करती हैं, और अगर यह टेस्ट पोसिटिव निकले तो उस स्त्री की और जाँच की जा सकती है।

मिस्र यानि इजिप्ट की एक फ़िल्म में विकलाँग बच्चों को कला के माध्यम से उनके विकास को प्रोत्साहन देने की बात है, तो फ्राँस की एक फ़िल्म में मानसिक रोगों से पीड़ित लोगों को पहाड़ पर चढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। नेपाल में एक सामुदायिक कार्यक्रम स्कूल जाने वाले किशोरों को मासिक माहवारी की जानकारी देता है, जबकि पश्चिमी अफ्रीकी देश सिएरा लिओने में पैर कटे हुए विकलाँग लोगों के लिए त्रिभुज छपाई (3D printing) से कृत्रिम पैर बनाने की बात है, जबकि तन्ज़ानिया में बच्चियों तथा लड़कियों को यौन अंगों की कटाई की प्रथा से बचाने की बात है।


मुझे लगा कि इन फ़िल्मों में सचमुच का नवोन्मेष थोड़ा सीमित था या पुरानी बातें ही थीं। नेपाल में मासिक माहवारी की जानकारी देना या तन्ज़ानियाँ में यौन कटाई की समस्या पर काम करना महत्वपूर्ण अवश्य हैं लेकिन यह कितने नये हैं इसमें मुझे संदेह है। सिएरा लिओने का कृत्रिम पैर नयी तकनीकी की बात है लेकिन उसमें भी उपकरण के एक हिस्से को बनाने की बात है, उसका बाकी का हिस्सा पुरानी तकनीकी से बनाया जा रहा है।

पुनर्क्षमताप्राप्ति चिकित्सा

पुनर्क्षमताप्राप्ति चिकित्सा(rehabilitation) के लिए अधिकतर लोग पुनर्निवासन शब्द का प्रयोग करते हैं जोकि मुझे गलत लगता है। पुनर्निवासन की बात उस समय से आती है जब विकलाँग व्यक्ति को रहने की जगह नहीं मिलती थी और उनके रहने के लिए विषेश संस्थान बनाये जाते थे। आजकल जब हम रिहेबिलिटेशन की बात करते हैं तो हम उन चिकित्सा, व्यायाम तथा उपकरणों की बात करते हैं जिनसे व्यक्ति अपने शरीर के कमजोर या भग्न कार्यक्षमता को दोबारा पाते हैं। इस चिकित्सा में फिजीयोथैरेपी (physiotherapy) यानि शारीरिक अंगों की चिकित्सा, आकूपेशनल थैरेपी (occupational therapy) यानि कार्यशक्ति को पाने की चिकित्सा जैसी बातें भी आती हैं। इसलिए मैं यहाँ पर पुनर्निवासन की जगह पर पूर्वक्षमताप्राप्ति शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ। अगर किसी पाठक को इससे बेहतर कोई शब्द मालूम हो तो मुझे अवश्य बतायें।

पुनर्क्षमताप्राप्ति विषय की कुछ फ़िल्में मुझे अधिक अच्छी लगीं। यह फ़िल्में भी अधिकतर पाँच से आठ मिनट लम्बी थीं।

जैसे कि एक फ़िल्म (Pacing the Pool) में आस्ट्रेलिया के एक ६४ वर्षीय पुरुष बताते हैं कि बचपन से विकलाँगता से जूझने के बाद कैसे नियमित तैरने से वह अपनी विकलाँगता की कुछ चुनौतियों का सामना कर सके। दुनिया में वृद्ध लोगों की जनसंख्या में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है और मुझे उस सबके लिए तैरना या चलना या अन्य तरह के व्यायाम नियमित रूप से करना बहुत महत्वपूर्ण लगता है।

इसके अतिरिक्त दो फ़िल्में कोविड से प्रभावित लोगों की बीमारी से ठीक होने के बाद लम्बे समय तक अन्य शारीरिक कठिनाईयों का समाना करने की बात है। नेपाल की एक फिल्म में (A Model One Stop) उन कठिनाईयों का अस्पताल में विभिन्न स्वास्थ्य विशेषज्ञों की सहायता से चिकित्सा करना दिखाया गया जबकि एक अमरीकी फ़िल्म (Long Haul) में पीड़ित व्यक्तियों का कमप्यूटर या मोबाइल फोन के माध्यम से नियमित मिलना, आपस में आपबीती सुनाना, एक दूसरे को सहारा देना जैसी बातें हैं। यह अमरीकी फ़िल्म मुझे बहुत अच्छी लगी और कोविड के शरीर पर किस तरह से लम्बे समय के लिए असर रह सकते हें इसकी कुछ नयी समझ भी मिली।

इंग्लैंड की एक फ़िल्म (Move Dance Feel) में कैसर से पीड़ित महिलाओं का हर सप्ताह दो घँटे के लिए मिलना और साथ में स्वतंत्र नृत्य करने का अनुभव है। ऐसा ही एक कार्यक्रम उत्तरी इटली में हमारे शहर में भी होता है, जिसमें महिला और पुरुष दोनों भाग लेते हैं। यह बूढ़े लोग, बीमार लोग, मानसिक रोग से पीड़ित लोग, आदि सबके लिए होता है, और सब लोग सप्ताह में एक बार मिल कर साथ में नृत्य का अभ्यास करते हैं।


इनके साथ कुछ अन्य फ़िल्में थीं जिनमें मुझे कुछ नया नहीं दिखा जैसे कि बँगलादेश की एक फ़िल्म में एक नवयुवती की कृत्रिम टाँग पाने से उसके जीवन में आये सुधार की कहानी है। ब्राजील की एक फिल्म में टेढ़े पाँव के साथ पैदा हुए एक बच्चे के इलाज की बात है। मिस्र से विकलाँग बच्चों का कला, संगीत आदि से उनके विकास को सशक्त करने की बात है।

अतिलघु फ़िल्में

यह फ़िल्में दो मिनट से छोटी हैं, इसलिए इनके विषय समझने में सरल हैं। एक फिल्म से कोविड से बचने के लिए मास्क तथा वेक्सीन का मह्तव दिखाया गया है तो कामेरून की एक फ़िल्म में एक स्थानीय अंतरलैंगिक संस्था की कोविड की वजह से एडस कार्यक्रम में होने वाली कठिनाईयों की बात है। दो फ़िल्मों में, एक मिस्र से और दूसरी किसी अफ्रीकी देश से, घरेलू पुरुष हिँसा के बारे में हैं। एक फ़िल्म में स्वस्थ्य रहने के लिए सही भोजन करने के बारे में बताया गया है, तो एक फ़िल्म में मानसिक रोगों से उबरने में व्यायाम के महत्व को दिखाया गया है।

मुझे इन सबमें से एक इजराईली फ़िल्म (Creating Connections) सबसे अच्छी लगी जिसमें मानसिक रोगियों को विवाह करने वाले मँगेतरों के लिए हस्तकला से अँगूठी बनाना सिखाते हैं जिससे रोगियों को प्रेमी युगलों से बातचीत करने का मौका मिलता है।


अंत में

अगर आप को लघु फिल्में देखना अच्छा लगता है और स्वास्थ्य विषय में दिलचस्पी है, तो मेरी सलाह है कि आप विस्स के फैस्टिवल में सम्मिलित फ़िल्मों को अवश्य देखें। सभी फ़िल्मों में अंग्रेजी के सबटाईटल हैं और फ़िल्म देखना निशुल्क हैं। सबटाइटल में फ़िल्म में लोग जो भी बोल रहे हों वह लिखा दिखता है, इसलिए शायद उन्हें हम हिंदी में "बोलीलिपि" कह सकते हैं। इसके बारे में अगर आप को इससे बेहतर शब्द मालूम हो मुझे बताइये।

अभी तक ऐसे सोफ्तवेयर जिनसे अंग्रेजी के सबटाईटल अपने आप हिंदी में अनुवाद हो कर दिखायी दें, यह सुविधा नहीं हुई है, जब वह हो जायेगी तो हम लोग किसी भी भाषा की फ़िल्म को देख कर अधिक आसानी से समझ सकेंगे। शायद कोई भारतीय नवयुवक या नवयुवती ही ऐसा कुछ आविष्कार करेगें जिससे अंग्रेजी न जानने वाले भी इन फ़िल्मों को ठीक से देख सकेंगे।

बुधवार, अगस्त 23, 2017

उत्तरप्रदेश में लड़कियाँ क्या सोचती हैं?

हिन्दी फ़िल्में देखिये तो लगता है कि छोटे शहरों में रहने वाली लड़कियों के जीवन बदल गये हैं. "बरेली की बरफ़ी", "शुद्ध देसी रोमान्स", और "तनु वेड्स मनु" जैसी फ़िल्मों में, छोटे शहरों की लड़कियों को न सड़कों पर डर लगता हैं, न वह लड़कों से वे स्वयं को किसी दृष्टि से पीछे समझती हैं. जाने क्यों, अक्सर पिछले कुछ सालों से हमारी फ़िल्मों में छोटे शहरों की लड़कियों की आधुनिकता को सिगरेट पीने से दिखाया जाता है (शायद इन फ़िल्मों को सिगरेट कम्पनियों से पैसे मिलते होंगे, क्योंकि अब भारत में सिगरेट के अन्य विज्ञापन दिखाना सम्भव नहीं)

हिन्दी फ़िल्मों की लड़कियों और सचमुच की लड़कियों के जीवनों में कोई अन्तर हैं, तो कौन से हैं? पिछले दशकों में छोटे शहरों में रहने वाली लड़कियों और युवतियों की सोच बदली है, तो कैसे बदली है? और अगर बदली है तो उसका उन सामाजिक समस्याओं पर क्या असर पड़ा है जो कि लड़कियों के जीवनों से जुड़ी हुई हैं? इस आलेख में इसी बात से सम्बंधित सर्वे की बात करना चाहता हूँ.

गाँव कनक्शन का सर्वे

इन दिनों में गाँव कनक्शन पर उत्तरप्रदेश की 15 से 45 वर्षीय महिलाओं के साथ हुए एक सर्वे के बारे में छपा है. इस सर्वे में पाँच हज़ार औरतों ने भाग लिया.

सर्वे में 56 प्रतिशत महिलाओं कहा कि वह नौकरी करना चाहती हैं. इसमें से सबसे अधिक महिलाएँ स्कूल में अध्यापिका बनना चाहती हैं.  14 प्रतिशत महिलाएँ डॉक्टर बनना चाहती हैं और 6 प्रतिशत पुलिस में जाना चाहती हैं.

67 प्रतिशत ने कहा कि अगर मौका मिले तो वह और पढ़ना चाहेंगी. 50 प्रतिशत महिलाओं-लड़कियों ने कहा कि उन्हें साइकिल चलाना पसंद है, लेकिन ससुराल में साइकिल चलाने की अनुमति कम ही मिलती है. 67 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें घर से बाहर निकलने के लिए पति या पिता से अनुमति लेनी पड़ती है, जबकि 15 प्रतिशत ने बताया कि वह घर से बाहर किसी के साथ ही जा सकती हैं.

81 प्रतिशत लड़कियों ने कहा कि वह जानती हैं कि उनकी शादी के समय उनके माता-पिता को दहेज देना पड़ेगा।

उत्तरप्रदेश में मेरा सर्वे

गाँव कनक्शन के इस सर्वे की लड़कियों-महिलाओं के जीवन, उनकी आशाएँ, और उनके सपने, फ़िल्मी छोटे शहरों की लड़कियों के जीवनों से बहुत भिन्न लगती हैं.

इस सर्वे के बारे में पढ़ कर मुझे अपना एक सर्वे याद आ गया. 2014 में, मैं उत्तरप्रदेश में कुछ दिन अपनी एक मित्र के पास ठहरा था जिनका एक प्राईवेट अस्पताल था और साथ में नर्सिंग ट्रेनिन्ग कॉलिज भी था जहाँ तीन वर्ष का नर्सिन्ग कोर्स होता था. वहाँ पढ़ने वालों को उत्तरप्रदेश सरकार की ओर से छात्रवृत्ति मिल रही थी. मैंने इस सर्वे में द्वितीय वर्ष के छात्र-छात्राओं से स्वास्थ्य सम्बंधी तथा सामाजिक विषयों के प्रश्न पूछे थे.

सर्वे करने से पहले उसके प्रश्नों को तीसरे वर्ष के तीन छात्राओं में जाँचा गया और जाँच के अनुसार, जो प्रश्न अस्पष्ट थे या जिनके सही अर्थ समझने में छात्रों को कठिनाई हो रही थी, उन्हें सुधारा गया. किसी छात्र या छात्रा ने सर्वे में भाग लेने से मना नहीं किया, लेकिन करीब 20 प्रतिशत छात्राओं ने कुछ प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये.

सर्वे में भाग लेने वाले

कुल 35 छात्रों ने सर्वे में हिस्सा लिया जिनमें 31 छात्राएँ (89%) थीं और 4 छात्र थे. चूँकि सर्वे में पुरुष छात्र केवल चार थे, उनके उत्तरों का अलग से विश्लेषण नहीं किया गया है.


छात्रों की औसत आयू 21.7 वर्ष थी. उनमें से 33 लोग (94%) उत्तरप्रदेश से थे और 2 लोग अन्य करीबी राज्यों (बिहार तथा उत्तराखँड) से थे.

उत्तरप्रदेश के 33 लोगों में से 9 लोग (27%) लखनऊ से थे. बाकी के 24 लोग (73%) राज्य के 8 जिलों से थे (सीतापुर, बलिया, माउ, बस्ती, अकबरपुर, एटा, लक्खिमपुर तथा बाराबँकी). जिलों से आने वाले लोग जिला शहरों, उपजिलों के छोटे शहरों तथा गाँवों के रहने वाले थे. यानि सर्वे में प्रदेश की राजधानी से ले कर, गाँवों तक के, हर तरह की जगहों के लोग थे.

उनमें से 33 लोग (94%) हिन्दू थे, केवल 1 व्यक्ति मुसलमान परिवार से था और 1 ईसाई परिवार से. हिन्दू छात्रों में 20 लोग (60%) शिड्यूल कास्ट जातियों से थे और 6 लोग (18%) जनजातियों से थे.

छात्रों में से 19 लोग (54%) संयुक्त परिवारों में रहते थे, जबकि 16 लोग (46%) ईकाई (nuclear) परिवारों से थे.

छात्र परिवारों की आर्थिक स्थिति

उनमें से 32 लोगों (91%) ने खुद को मध्यम वर्गीय बताया, केवल 2 लोगों ने खुद को निम्न मध्यम वर्गीय कहा और 1 ने खुद को उच्च मध्यम वर्गीय कहा. उनमें से 18 लोगों (51%) के घर में स्कूटर, मोटरसाईकल या ट्रेक्टर थे जबकि बाकी के 17 लोगों (49%) के घर बैलगाड़ी या साईकल थी या कोई व्यक्तिगत यात्रा साधन नहीं था.

उनमें से अधिकाँश के घर में टीवी था, जबकि करीब 50% लोगों के घर में फ्रिज था.

इसका अर्थ है कि हालाँकि अधिकाँश लोग अपने आप को मध्यम वर्ग को कह रहे थे, उनमें से करीब पचास प्रतिशत लोगों की आर्थिक स्थिति कमज़ोर थी.

पढ़ायी और अंग्रेज़ी ज्ञान

नर्सिंग कॉलिज में आने से पहले 34 छात्रों ने 12 कक्षा तक पढ़ाई की थी, केवल एक छात्रा के पास बीए की डिग्री थी.

छात्रों की माओं ने औसत 6 वर्ष की स्कूली पढ़ायी की थी, उनमें से 34% अनपढ़ थीं  और 11% के पास कॉलिज की डिग्री थीं. उनके पिताओं की औसत पढ़ायी 11 वर्ष की थी, उनमें से 11% अनपढ़ थे और 42% कॉलिज में पढ़े थे.

सब छात्रों ने स्वीकारा कि उनके माता पिता की पीढ़ी में पढ़ने के क्षेत्र में पुरुषों तथा महिलाओं के बीच में अधिक विषमताएँ थीं जो उनकी पीढ़ी में कम हो गयीं थीं. कई छात्राएँ जिनकी माएँ अनपढ़ थीं, बोलीं कि उनको अपनी माँ से पढ़ाई करने का बहुत प्रोत्साहन मिला था. एक छात्रा ने कहा, "मेरी माँ बचपन से मुझे कहती थी कि तुमको पढ़ना है, मेरी तरह अनपढ़ नहीं रहना."

छात्रों में से 19 लोगों (54%) ने कहा कि उनकी अंग्रेज़ी कमज़ोर थी जिससे उन्हें नर्सिंग की किताबों को पढ़ने व समझने में दिक्कत होती थी. उन्होंने बताया कि कुछ शिक्षकाएँ अक्सर अपनी बात को समझाने के लिए उसे हिन्दी में भी समझाती थी, जिससे उन्हें आसानी हो जाती थी.

बाकी के 16 लोगों ने कहा कि उनकी अंग्रेज़ी अच्छी थी और उन्हें नर्सिन्ग की किताबें पढ़ने समझने में दिक्कत नहीं होती थी. लेकिन उनसे जब सर्वे के दौरान अंग्रेज़ी में प्रश्न पूछे गये तो केवल एक छात्रा ही उसका सही अंग्रेज़ी में पूरा उत्तर दे पायी. बाकी लोगों को अंग्रेज़ी बोलने में कठिनाई थी. यानि जब छात्र अंग्रेज़ी की किताबों को पढ़ तथा समझ सकते हैं, तब भी उन्हें अंग्रेज़ी बोलने में हिचक या कठिनाई हो सकती है. इसका यह भी अर्थ है कि अंग्रेज़ी में उनकी अभिव्यक्ति कमज़ोर रहती है.

नर्सिंग पढ़ने का निर्णय किसने लिया

19 लोगों (54%) ने नर्सिंग की पढ़ायी करने का निर्णय स्वयं लिया था, जबकि बाकी 16 (46%) लोगों में यह निर्णय परिवार या अन्य लोगों ने लिया.

अधिकाँश लोगो ने माना कि उनके मन में कुछ अन्य पढ़ने की कामनाएँ थीं लेकिन उन्होंने अंत में नर्सिन्ग को चुना क्योंकि इसमें छात्रवृत्ति मिलती है, वरना उनके परिवार के लिए उनकी पढ़ायी का खर्चा पूरा कठिन होता. नर्सिन्ग पढ़ने का एक कारण यह भी था कि इस काम में नौकरी आसानी से मिल जाती है.

केवल दो लोगों ने कहा कि वह सचमुच नर्सिन्ग की पढ़ायी ही करना चाहते थे. 15 लोगों (43%) का कहना था कि वह शिक्षक बनना चाहते थे. 4 लोगों (11%) ने कहा कि वह पुलिस में काम करना चाहते थे. बाकी के लोगों की अलग अलग राय थी, कोई फेशन डिज़ाईनर बनना चाहता था, कोई ब्यूटी पार्लर चलाना चाहता था, कोई कम्पयूटर कोर्स तो कोई वकील या एकाऊँटेन्ट. उनमें से एक छात्रा ने कहा कि नर्सिन्ग की पढ़ायी पूरी करके वह आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलिज में पढ़ने की कोशिश करेगी.

विवाह और जीवन साथी का चुनाव

छात्रों में से 5 लोग विवाहित थे, वह पाँचों छात्राएँ थीं और पाँचों के पति परिवार ने चुने थे.

बाकी 30 लोगों में से 24 (80%) ने कहा कि उनका जीवन साथी परिवार चुनेगा. केवल 6 लोगों ने कहा कि वह अपना जीवन साथी स्वयं चुनना चाहेंगे, पर उनकी भी चाह थी कि उनका चुना जीवनसाथी उनके परिवार को पसंद आना चाहिये और वे परिवार की मर्ज़ी के विरुद्ध जा कर विवाह नहीं करना चाहेंगे. केवल एक छात्रा ने कहा कि चाहे उसका परिवार कुछ भी कहे, वह तो उसी से विवाह करेगी जो उसे पसंद होगा, और इसके लिए वह परिवार के विरुद्ध भी जा सकती है.

जाति और भेदभाव के अनुभव

केवल 6 लोगों (17%) ने कहा कि उनको जाति सम्बंधित भेदभाव के व्यक्तिगत अनुभव हुए थे। अन्य 9 लोगों (26%) ने कहा कि उनको स्वयं ऐसा कोई अनुभव नहीं हुआ लेकिन उनके परिवार में अन्य लोगों को ऐसे अनुभव हुए.

33 लोगों (95%) ने स्वीकारा कि समाज में जाति से सम्बंधित भेदभाव होता है.

भेदभाव के विषय पर बात करते समय कई छात्रों ने कहा कि नर्सिन्ग होस्टल में रहने की वजह से उनके जाति सम्बंधी विचार बदल गये थे. एक छात्रा ने कहा, "घर में कुछ भी कहते थे तो हम मान लेते थे. लेकिन होस्टल में हम लोग जात पात की बात नहीं सोचते, साथ बैठते, साथ खाना खाते हैं. अलग जाति की लड़कियाँ मेरी मित्र हैं, इससे जाति के बारे में मेरी सोच बदल गयी है."

साथ ही अधिकाँश लोगों का कहना था कि चाहे उनकी अपनी सोच बदल गयी है लेकिन जब वह घर जाते हैं और घर में बड़े बूढ़े लोग जाति का भेदभाव करते हैं तो वह उसका विरोध नहीं कर पाते. एक विवाहित छात्रा ने कहा, "मेरी सास जात-पात को बहुत मानती हैं, मैं अपने घर में किसी अन्य जाति के मित्र को नहीं बुला सकती. जब तक उनके साथ रहूँगी तो उनकी बात ही माननी पड़ेगी. मैं उनसे झगड़ा नहीं कर सकती."

उनसे कहा गया कि मान लीजिये की आप की सहेली या दोस्त अपनी जाति से भिन्न जाति या धर्म के व्यक्ति से प्रेम करता है और उससे विवाह करना चाहता है, लेकिन उसका परिवार इसके विरुद्ध है. आप किसकी तरफ़ होंगे, अपनी सहेली या दोस्त की ओर या उसके परिवार की ओर?

3 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी के 32 लोगों में से 21 (66%) ने कहा कि परिवार ठीक कहता है, जाति या धर्म से बाहर के व्यक्ति से विवाह करना उचित नहीं होगा, बाकी के 11 (34%) लोगों ने कहा कि जो जिससे प्रेम करता है उसे उसी से विवाह करना चाहिये.

घरेलू हिँसा

छात्रों से कहा गया कि मान लीजिये कि एक महिला का पति शाम को थका हुआ घर लौटा. देखा कि पत्नी की सहेली आयी थी, वह उससे बातें कर रही थी और उसने खाना नहीं बनाया था. अगर इस स्थिति में वह अपनी पत्नी को मारे तो क्या आप की राय में वह ठीक है?

10 लोगों (29%) का कहना था कि इस स्थिति में पति का पत्नी को मारना ठीक था. 25 (71%) लोगों ने कहा कि पति का मारना गलत था.

उन 25 में से 11 लोगों (44%) ने कहा कि पति को पहले पत्नी से बात करनी चाहिये थी. अगर ऐसा पहली बार हुआ हो या फ़िर अगर वह पत्नी की विषेश सहेली थी जिससे बहुत सालों से नहीं मिली थी, तो पति को इस बात को समझना चाहिये था कि कभी कभी पत्नी से भूल हो सकती है और उसे मारने की बजाय प्यार से समझाना चाहिये था. लेकिन अगर समझाने के बावज़ूद पत्नी बार बार ऐसा करती है तो उन्होंने कहा कि तब पति का उसे मारना सही है. यानि कुल 70% लोग यह मान रहे थे कि कई परिस्थितियों में पति का पत्नी को मारने को सही समझा जा सकता है.

केवल 7 लोगों (20%) ने कहा कि किसी भी हालत में पति को पत्नी को मारने का अधिकार नहीं है.

इस विषय पर बात करते हुए उनसे पूछा गया कि क्या पत्नी हिँसा करे तो वह सही मानी जा सकती है? मान लीजिये कि पत्नी काम पर गयी है, शाम को थकी हुई घर लौटी है. पति को उस दिन काम पर नहीं जाना था, वह सारा दिन घर पर ही था. पत्नी देखती है कि सारा घर गन्दा पड़ा है, खाना भी नहीं बना. पति के मित्र आये हैं, उनकी ताश और शराब चल रही है और पति ने जूए में बहुत पैसा खो दिया है. क्या ऐसी हालत में पत्नी पति से झगड़ा कर सकती है या उसे मार सकती है?

4 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी 31 में से 26 लोगों (84%) ने कहा कि नहीं पत्नी को लड़ना या हिँसा नहीं करनी चाहिये. उनमें से अधिकतर का कहना था कि पति तो भगवान बराबर होता है, पत्नी को उसका सम्मान करना होता है, वह उस पर किसी भी हालत में हाथ नहीं उठा सकती.

तो ऐसी हालत में पत्नी को क्या करना चाहिये? अधिकतर लोगों का कहना था कि अगर पति अक्सर ऐसा करता हो कि हर महीने घर का पैसा जूए और नशे में गँवा देता हो तो ऐसे पति को सुधारने के लिए घर के बड़े बूढ़ों को कहना चाहिये, उन्हें ही कुछ करना पड़ेगा.

5 लोगों (16%) ने कहा कि इस हालत में पत्नी का पति से लड़ना सही है और अगर यह बार बार हो तो ऐसे पति से तलाक भी ले सकते हैं.

परिवार में लड़कियों के प्रति भेदभाव

12 लोगों (34%) ने कहा कि उन्हें अपने परिवार में उन्होंने लड़को तथा लड़कियों के प्रति व्यवहार में भेदभाव का व्यक्तिगत अनुभव था.

32 लोगों ने माना कि समाज में लड़के तथा लड़कियों के प्रति  भेदभाव आम होता है. 10 लोगों (29%) ने, वह सभी लड़कियाँ थीं, इस भेदभाव को सही बताया.

उनसे कहा गया कि मान लीजिये कि एक घर में शाम को लड़का बाहर जाना चाहता है, परिवार में उसे कोई मना नहीं करता. लेकिन जब उस लड़के की हमउम्र बहन शाम को बाहर जाना चाहती है तो परिवार उसे मना करता है, कहता है कि लड़कियों को घर से बाहर जाने में खतरा है. क्या आपकी राय में यह सही है या गलत?

3 लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं देना चाहा. बाकी के 32 लोगों में से 24 (75%) ने कहा कि परिवार सही करता है क्योंकि लड़कियों के लिए शाम को बाहर जाने में खतरा है. केवल 8 लोगों (25%) ने कहा कि लड़कियों पर इस तरह रोक लगाना सही बात नहीं हैं.

फ़िर उनसे कहा गया कि मान लीजिये कि आप की सहेली का विवाह हो चुका है, उसकी एक बेटी है और वह फ़िर से गर्भवति हैं. उसका अल्ट्रासाउँड टेस्ट बताता है कि अगली भी बेटी होगी. उसकी सास कहती है कि गर्भपात करा दो. आप उसे क्या राय देंगी?

11 लोगों (31%) ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया. बाकी के 24 लोगों में से 12 लोगों (50%) ने कहा कि सास की बात माननी पड़ेगी. 12 लोगों ने कहा कि उनकी सलाह होगी कि गर्भपात नहीं कराया जाये. दो छात्राओं ने कहा कि वह अपनी सहेली की सास  को समझाने की कोशिश करेंगी.

सरकारी व प्राईवेट अस्पताल

छात्रों के अनुसार सरकारी अस्पतालों में अच्छी बाते हैं कि वहाँ कोई फीस नहीं होती, दवा भी निशुल्क होती है, स्पेशेलिस्ट डाक्टर अधिक होते हैं और सुविधाएँ अधिक होती हैं. उनकी बुरी बाते हैं कि वहाँ देखभाल अच्छी नहीं होती, अक्सर दवाईयाँ नहीं मिलती, सुविधाएँ नाम की होती हैं पर काम नहीं करती, कर्मचारी लापरवाह होते हैं, सफाई की कमी होती है, डाक्टर काम पर नहीं आते और बहुत भीड़ होती है.

प्राईवेट अस्पतालों में अच्छी बाते हैं कि वहाँ देखभाल बेहतर होती है, कर्मचारी ज़्यादा ध्यान से काम करते हैं, सफाई बेहतर होती है, भीड़ कम होती है और जो भी सुविधाएँ होती हैं वह ठीक से काम करती हैं. उनकी बुरी बातें हैं कि वहाँ पैसे बहुत लगते हैं, अक्सर बिना जरूरत के टेस्ट किये जाते हैं, बिना ज़रूरत की दवाएँ दी जाती हैं, और अगर आप गरीब हैं तो आप को कोई नहीं पूछता.

उनसे पूछा गया कि अगर आप बीमार हों तो आप कहाँ जाना चाहेंगे, सरकारी अस्पताल में या प्राईवेट अस्पताल में? 34 लोगों (97%) ने कहा कि अगर वह बीमार होंगे तो वह प्राईवेट अस्पताल में जाना चाहेंगे.

उनसे पूछा गया कि नर्सिंग की ट्रेनिन्ग पूरी होने के बाद आप सरकारी अस्पताल में काम करना चाहेंगे या प्राईवेट अस्पताल में? 34 लोगों (97%) ने कहा कि वे सरकारी अस्पताल में काम करना चाहेंगे. इसके कारण थे कि सरकारी काम में रहने के लिए घर मिलना, सेवा निवृति पर पैंशन मिलना, काम से छुट्टी लेना अधिक आसान है, काम करना भी अधिक आसान है और नौकरी से निकलना बहुत कठिन है.

यानि अपनी बीमारी हो या परिवार की तो लोग प्राईवेट अस्पताल में जाना पसंद करते हैं जबकि नौकरी सरकारी अस्पताल में करना चाहते हैं. पर इस बात में उत्तरप्रदेश के नवजवान लोग बाकी भारत जैसे ही है. अप्रैल 2017 में सी.एस.डी.एस. ने भारत के विभिन्न राज्यों में रहने वाले नवजवानों का सर्वे किया था, उस में भी केवल 7 प्रतिशत लोगों ने प्राईवेट सेक्टर में नौकरी को प्राथमिकता दी थी.

सर्वे में मिले उत्तरों पर विमर्श

जनसंख्या की दृष्टि से देखें तो अगर उत्तरप्रदेश स्वतंत्र देश होता तो दुनिया में पाँचवें स्थान पर होता. विश्व स्तर पर मानव विकास मापदँड की दृष्टि से देखें तो भारत काफ़ी नीचे है, स्वास्थ्य के कुछ आकणों में हमारी स्थिति बँगलादेश से भी पीछे है.

भारत के विभिन्न राज्यों के मानव विकास मापदँडों को देखें तो उत्तरप्रदेश का स्थान अन्य राज्यों की तुलना में बहुत नीचे है. चाहे वह बच्चियों के भ्रूणों की हत्या हो या वार्षिक बाल मृत्यू दर, उत्तरप्रदेश में इनकी स्थिति दयनीय है. स्वास्थ्य के कई आँकणों में उत्तरप्रदेश की स्थिति अफ्रीका के गरीब और पिछड़े देशों जैसी है या उनसे भी बदतर है.

ऐसी हालत में यह जानना कि उत्तरप्रदेश की युवा पीढ़ी क्या सोचती है, महत्वपूर्ण है. आज की नर्सिन्ग छात्राएँ कल यहाँ की स्वास्थ्य सेवाओं में हिस्सा लेंगी, परिवारों को सलाह देंगी. उनकी सोच तथा आचरण से समाज के अन्य लोग भी प्रभावित होंगे.

तो आप के विचार में नर्सों से की मेरी बातचीत उत्तरप्रदेश के भविष्य के बारे में हमें क्या बताती है? कुछ दिन पहले गोरखपुर के अस्पताल में 60 बच्चों की मृत्यू से भारत के समाचार पत्रों में हल्ला मचा था, पर उत्तरप्रदेश के लिए यह कोई नयी बात नहीं है. वहाँ के पिछले दस वर्षों के आँकणे देखिये, हर साल वहाँ दस्त, न्योमोनिया, एन्सेफलाईटस, मलेरिया आदि बीमारियों से लाखों बच्चे मरते हैं, जिनका सही समय पर इलाज किया जाये तो वह बच्चे बच सकते हैं.

यही है भारत की अपने भीतर की विषमताएँ - भारत के दक्षिण के कुछ राज्यों के स्वास्थ्य आँकणे अमरीका जैसे हैं, और उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखँड जैसे राज्यों के अफ्रीका जैसे.

हमारी कथनी और करनी में भी अंतर है. पाराम्परिक विचारों को बदलना आसान नहीं है. अगर हम पूछें कि क्या आप नारी पुरुष में बराबरी में विश्वास करते हैं, तो सब लोग हाँ कह देते हैं. अगर आप पूछते हैं कि घर और परिवार में नारी के साथ होने वाली हिँसा गलत है, तो भी सब लोग हाँ कह देते हैं. लेकिन इन विचारों की कहनी और प्रतिदिन के जीवन की करनी में विरोधाभास है. हम लोग कहते कुछ हैं, करते कुछ और.

इसका यह अर्थ नहीं कि सकारात्मक बदलाव नहीं हुए है. माता और पिता की पढ़ायी के आँकणे दिखाते हैं कि शिक्षा के स्तर में पिछली पीढ़ी में बहुत भेदभाव था. सर्वे में भाग लेने वाले की करीब एक तिहाई माएँ अनपढ़ थीं. इस दृष्टि से सर्वे की युवतियाँ उन घरों में पढ़ने लिखने वाली युवतियों की पहली पीढ़ी हैं. शायद उनकी बेटियों में कथनी और करनी के यह विरोधाभास कम होंगे, वह लोग पारिवारिक हिँसा और भेदभाव के विरुद्ध आवाज़ उठायेंगी.

अंत में

इस सर्वे से मुझे लगा कि सामाजिक विचारों को बदलना आसान नहीं है. हम जितने स्लोगन बना लें, पोस्टर बना लें, लोगों कों जानकारी हो जाती है लेकिन इससे उनके विचार या आचरण नहीं बदलते. ऊपर से दिखावे के लिए हम कुछ भी कह दें लेकिन हमारी भीतरी सोच क्या है, यह कहना समझना कठिन है.

मैं उम्र में उन नर्सिंग के छात्रों से बहुत बड़ा था, बाहर से आया था और पुरुष था. इसलिए यह नहीं कह सकते कि उन्होंने हर बात का जो सोचते हैं वही सच सच उत्तर दिया होगा. फ़िर भी इस सर्वे से उत्तरप्रदेश की युवा पीढ़ी, विषेशकर नवयुवतियाँ क्या सोचती हैं, इसकी कुछ जानकारी मिलती है.

आप बताईये कि आप के अनुभव इस सर्वे में पायी जाने वाली स्थिति से कितने मिलते हैं और कितने भिन्न हैं? और अगर आप को इस तरह के प्रश्न पूछने का मौका मिलता तो बदलते उत्तरप्रदेश को समझने के लिए आप कौन से प्रश्न पूछते?

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बुधवार, सितंबर 14, 2016

डागधर बाबू कहाँ तक पढ़े हैं?

कुछ दिन पहले विश्व स्वास्थ्य संस्थान की भारत में स्वास्थ्य कर्मियों की स्थिति के बारे में एक दिलचस्प रिपोर्ट को पढ़ा. अक्सर इस तरह की रिपोर्टों में समाचार पत्रों या पत्रिकाओं को दिलचस्पी नहीं होती. इनके बारे में अंग्रेज़ी प्रेस में शायद कुछ मिल भी जाये, हिन्दी के समाचार पत्रों तथा पत्रिकाओं में इसकी चर्चा कम ही होती है. इसलिए सोचा कि इसकी बात ब्लाग के माध्यम से करनी चाहिये.



भारत में स्वास्थ्य सेवा कर्मी

हर वर्ष, संयुक्त राष्ट्र की विश्व स्वास्थ्य संस्था दुनिया के विभिन्न देशों के बारे में स्वास्थ्य-कर्मी सँबधी आँकणे प्रकाशित करती है, जो उन्हें देश की सरकारें देती हैं. पर इसमें भारतीय आँकणे अक्सर अधूरे रहते हैं. आँकणे हों भी तो राष्ट्रीय स्तर के औसत आँकणे होते हैं जिनमें विभिन्न राज्यों की स्थिति को समझना आसान नहीं. इन आँकणों की विश्वासनीयता भी संदिग्ध होती है.

उदाहरण के लिए अगर हम विश्व स्वास्थ्य सँस्था द्वारा प्रकाशित सन् 2011 के आँकणे देखें तो उनके अनुसार सन 2000 से 2010 के अंतराल के समय में भारत में हर 10,000 जनसंख्या के लिए 6 डाक्टर, 13 नर्से व दाईयाँ तथा 0.7 दाँतों के डाक्टर थे.

इन आँकणों को विश्वासनीय माना जाये तो हम कह सकते हैं कि विकसित देशों के मुकाबले में भारत बहुत पीछे था. जैसे कि 2011 की रिपोर्ट के अनुसार फ्राँस में हर 10,000 जनसंख्या में 35 डाक्टर, 90 नर्सें व दाईयाँ तथा 7 दाँतों के डाक्टर थे. लेकिन अपने आसपास के देशों के मुकाबले हमारी स्थिति उतनी बुरी नहीं है. जैसे कि बँगलादेश में हर 10,000 जनसंख्या में 3 डाक्टर, 2.7 नर्सें व दाईयाँ तथा 0.2 दाँतों के डाक्टर थे. हाँ इस रिपोर्ट में पड़ोसी देशों में चीन के मुकाबले में हम थोड़ा पीछे थे, जहाँ हर 10,000 जनसंख्या में 14 डाक्टर, 14 नर्सें व दाईयाँ तथा 0.4 दाँतों के डाक्टर थे.

विश्व स्वास्थ्य संस्था की वार्षिक रिपोर्ट में सरकारें अपने नागरिकों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं के लिए कितना खर्चा करती हैं, इसकी जानकारी भी होती है. 2011 की इस रिपोर्ट के अनुसार सन 2008 में देशों के द्वारा कुल राष्ट्रीय आय का कितना हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं में गया उसकी स्थिति ऐसी थी - फ्राँस ने 11.2 प्रतिशत, बँगलादेश ने 3.3 प्रतिशत, चीन ने 4.4 प्रतिशत और भारत ने 4.2 प्रतिशत. यानि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर किये जाने वाले खर्च की स्थिति बुरी नहीं थी.

लेकिन अगर यह देखें कि स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चे में कितना प्रतिशत सरकार ने किया और कितना प्रतिशत लोगों नें अपनी जेब से उस खर्चे को उठाया तो स्थिति कुछ बदल जाती है. सन 2008 में स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में सरकारी खर्च के हिस्से की स्थिति कुछ इस तरह की थी - फ्राँस में 76 प्रतिशत, चीन में 47 प्रतिशत और भारत में 32 प्रतिशत. यानि भारत में बीमारी का इलाज कराने के लिए दो तिहायी से अधिक खर्चा लोग स्वयं उठाते हैं.

भारत में हुए एक अन्य शोध ने दिखाया था कि गरीब लोगों में कर्ज़ा लेने के सबसे पहला कारण स्वास्थ्य सम्बन्धी खर्चा है. स्वास्थ्य तथा शिक्षा दोनो ही क्षेत्रों में सरकारी सेवाओं पर लोगों का भरोसा कम है. दूसरी ओर, भारत में प्राईवेट स्कूल तथा अस्पताल, दोनों ही बड़े बिज़नेस हैं.

भारत में स्वास्थ्यकर्मियों पर विश्व स्वास्थ्य संस्था की 2016 की नयी रिपोर्ट

यह रिपोर्ट कहने के लिए नयी है और भारत में इस तरह की जानकारी पहली बार उपलब्ध हुई है, इसलिए महत्वपूर्ण है. पर यह कहना आवश्यक है कि यह शोध सन 2001 में की गयी राष्ट्रीय जनगणना की जानकारी पर आधारित है. यानि इसकी जानकारी आज की स्थिति की जानकारी नहीं देती, बल्कि 16 वर्ष पहले की स्थिति की जानकारी देती है. इस रिपोर्ट को प्रो. सुधीर आनन्द तथा डा. विक्टोरिया फान ने एक शौध पर तैयार किया है.

जनगणना में "आप क्या काम करते हैं?" का प्रश्न होता है. प्रो. आनन्द तथा डा. फान ने इस प्रश्न के उत्तर देने वालों में कितने स्वास्थ्य कर्मी थे, उन उत्तरों को निकाल कर उसका विशलेषण किया है. चूँकि यह जानकारी हर जनगणना में एकत्रित की जाती है, मेरी आशा है कि भारतीय जनगणना संस्थान तथा स्टेसस्टिक विभाग 2011 की जनगणना की जानकारी पर भी इस तरह का विशलेषण करेगा और उसके लिए हमें सोलह साल की प्रतीक्षा नहीं करायेगा.

2001 की जनगणना पर किये शोध में एलोपेथिक, होम्योपेथिक, आयुर्वेदिक तथा युनानी सभी स्वास्थ्य प्रणालियों में काम करने वाले कर्मियों के बारे में जानकारी मिलती है. इनमें से कुछ प्रमुख जानकारियाँ हैं:

- हर 10,000 जनसंख्या में 8 डाक्टर थे, जिनमें से 77 प्रतिशत एलोपेथिक थे.

- 80 प्रतिशत डाक्टर शहरों में थे, 20 प्रतिशत डाक्टर ग्रामीण शेत्रों में.

- अपने आप को एलोपेथिक डाक्टर कहने वालों में से 57 प्रतिशत के पास कोई मेडिकल डिग्री नहीं थी, उनमें से 31 प्रतिशत ने केवल हाई स्कूल तक पढ़ायी की थी. इनमें से अधिकतर तथाकथित डाक्टर गाँवों में काम कर रहे थे. गाँवों में काम करने वाले एलोपेथिक डाक्टरों में से केवल 19 प्रतिशत के पास मेडिकल डिग्री थी. गाँवों में मेडिकल कॉलेज में शिक्षित डाक्टरों में महिलाएँ अधिक थीं.

- हर 10,000 जनसंख्या में 6 नर्सें या मिडवाइफ थीं, जिनमें से केवल 12 प्रतिशत महिलाओं तथा 3 प्रतिशत पुरुषों के पास नर्सिंग की डिग्री थी.

- ऊपर के सभी आँकणे राष्ट्रीय स्तर की औसत स्थिति को बताते हैं. राज्य स्तर पर जानकारी इस औसत स्थिति से बहुत भिन्न हो सकती है.

  • जैसे कि, पश्चिम बँगाल में देश की 8 प्रतिशत जनसंख्या थी और देश के कुल 31 प्रतिशत होम्योंपेथी के डाक्टर वहाँ काम करते थे. उत्तर प्रदेश में देश की 16 प्रतिशत जनसंख्या थी और देश के 37 प्रतिशत युनानी डाक्टर. महाराष्ट्र में देश की 9 प्रतिशत जनसंख्या थी और देश के 23 प्रतिशत आयुर्वेदिक डाक्टर.
  • केरल में देश की 3 प्रतिशत जनसंख्या थी और वहाँ की 38 प्रतिशत नर्सों के पास नर्सिंग डिग्री थी.
  • त्रिपुरा, ओडिशा तथा केरल में एलोपेथिक डाक्टर राष्ट्रीय औसत से कम थे, वह करीब 60 प्रतिशत थे और अन्य चिकित्सा पद्धितियों के डाक्टर करीब 40 प्रतिशत.
  • केरल तथा मेघालय में महिला स्वास्थ्य कर्मचारी करीब 64 प्रतिशत थीं, जबकि उत्तरप्रदेश तथा बिहार में 20 प्रतिशत से भी कम.
इस रिपोर्ट में अन्य भी दिलचस्प जानकारियाँ हैं. अगर आप चाहें तो अंग्रेज़ी में पूरी रिपोर्ट को निशुल्क डाउनलोड कर सकते हैं.

विश्व स्वास्थ्य संस्थान की रिपोर्ट का महत्व

भारत में कितने स्वास्थ्य कर्मी हैं, उनमें कितनी महिलाएँ कितने पुरुष हैं, उनमें कितनो के पास मेडिकल प्रशिक्षण की डिग्री है, किस राज्य में क्या स्थिति है, शहरों तथा गाँवों में क्या अंतर है, आदि प्रश्नों के भारत सरकार से इस से पहले कुछ उत्तर नहीं मिलते थे. इस रिपोर्ट में इन प्रश्नों के पहली बार कुछ उत्तर मिले हैं, इस दृष्टि से यह रिपोर्ट बहुत महत्वपूर्ण है.

इस रिपोर्ट का दूसरा महत्व है यह जानना कि यह जानकारी हमारे जनगणना कार्यक्रम से मिल सकती है, इसके लिए कोई विषेश शौध नहीं किया गया, बल्कि केवल 2001 की जनगणना के आँकणों को नयी दृष्टि से देखा व समझा गया. यानि अगर भारत सरकार चाहे तो इसी तरीके से यह जानकारी 2011 की जनगणना के आँकणों से भी मिल सकती है.

जनगणना से मिलने वाली जानकारी इस शौध की दृष्टि से कितनी विश्वासनीय है, यह सोचना भी आवश्यक है. कोई आप से पूछे कि आप कहाँ तक पढ़े हैं, फ़िर पूछे की क्या काम करते हैं, तो क्या आप सच बोलेंगे कि आपकी पढ़ायी हाई स्कूल की है और काम डाक्टर का करते हैं? यह हो सकता है कि कुछ लोग इन प्रश्नों के उत्तर ठीक से न दें. यानि रिपोर्ट की जानकारी की शत प्रतिशत विश्वस्नीय नहीं कहा जा सकता.

यह जानकारी कुछ अधूरी भी है. जैसे कि यह नहीं बताती कि जो लोग गाँवों में बिना डिग्री के "डाक्टर" का काम करते हैं उनमें से कितने लोगों ने इससे पहले कितने सालों तक किसी अस्पताल या डाक्टर के साथ काम किया था?

स्वास्थ्य सेवा कर्मियों से जुड़े कुछ अन्य प्रश्न

एक ओर से आप इस रिपोर्ट से मिलने वाली जानकारी के बारे में सोचिये और दूसरी ओर से सोचिये कि राज्य तथा राष्ट्रीय स्तर की भारतीय मेडिकल एसोशियनें, कोशिश करती रहती हैं कि बिना डिग्री वाले डाक्टरों पर पुलिस कार्यवाही करे और उनके क्लिनिक बन्द किये जायें. इन्होंने इस तरह के कानून बनायें हैं कि विदेश से पढ़े डाक्टरों की मेडिकल डिग्रियाँ भारत में न मानी जायें औेर उन्हें भारतीय मेडिकल रजिस्ट्रेशन न मिले, उन्हें कठिन इम्तहान पास करने के लिए कहा जाये.

भारतीय सरकारी अस्पतालों में काम करने होम्योपेथी, युनानी तथा आयुर्वेदिक चिकित्सकों को तन्खवाह तथा सुविधाएँ कम मिलती हैं, और सामाजिक स्तर पर उनको एलोपेथिक डाक्टरों से नीचा माना जाता है. ऐसे भी कानून हैं कि बिना डाक्टर के नर्स क्लिनिक नहीं चला सकतीं न ही इलाज कर सकती हैं.

यानि कानून क्या कहता है और देश की सच्चाई क्या है, कथनी व करनी में बहुत बड़ा अंतर है. दिल्ली, मुम्बई में कानून लागू किये जा सकते हैं, गाँवों में उन्हें कौन लागू करेगा?

यह प्रश्न भी स्वाभाविक है कि अगर स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने के लिए मेडिकल कॉलेज या नर्सिन्ग की डिग्री आवश्यक है तो वह ग्रामीण क्षेत्रों वाले क्या करें जहाँ देश के केवल 20 प्रतिशत डाक्टर हैं और उनमें से अधिकाँश के पास ऐसी कोई डिग्री नहीं है? कुछ माह पहले मुझे महाराष्ट्र में कुछ गाँवों में घूमने का मौका मिला. वहाँ मैंने देखा कि कई बार प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र (प्रा.स्वा.के.) तथा गाँवों के बीच तीस पैंतीस किलोमीटर की दूरी होती है, और प्रा.स्वा.के. पहुँचने के लिए यातायात मिलना कठिन होता है. लोग दो तीन घँटे की यात्रा के बाद प्रा.स्वा.के. पहुँचते हैं तो डाक्टर मिलेगा या नहीं, यह कहना आसान नहीं. डाक्टर हो भी तो दवा होंगी, यह कठिन है. कभी उन्हें कहा जाता है कि उन्हें जिला अस्पताल जाना पड़ेगा, जिसके लिए और दो चार घँटे की यात्रा करनी पड़े. इस स्थिति में लोग किससे इलाज करायें?

यह स्थिति केवल महाराष्ट्र में है, ऐसी बात नहीं, बल्कि शायद महाराष्ट्र में स्थिति बाकी देश से कुछ बेहतर है. छत्तीसगढ़ में बिलासपुर जिले में गणियारी में काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था "जन स्वास्थ्य सहयोग" ने अपनी नयी पुस्तिका "ग्रामीण स्वास्थ्य एटलस" (An Atlas of Rural Health) में मलेरिया से मरने वालों की स्थिति का जो विवरण दिया है, उससे प्रा.स्वा.के. में इलाज करवाने की कठिनाईयों के साथ साथ राज्य स्तर पर आँकणों की विश्वस्नीयता के बारे में जानकारी मिलती है:

रिगबार गाँव के छः वर्षीय श्यामलाल यादव को तीन दिन से बुखार व सिरदर्द था. जब उसका शरीर पीला पढ़ने लगा तो उसके परिवार ने झाड़ फ़ूँक करने वाले ओझा को बुलाया, फ़िर वहाँ के स्थानीय बिना डिग्री वाले डाक्टर के पास ले गये जिसने एक इन्जेक्शन लगाया, जिससे बच्चे का बुखार एक दिन के लिए उतरा.
अगले दिन जब बच्चे के पिता आनन्द राम ने देखा कि बच्चे को तेज़ बुखार था और साँस लेने में कठिनाई हो रही थी तो उसे रतनपुर में 25 कि.मी. दूर प्रा.स्वा.के. में ले जाने की सोची, पर समस्या थी कि कैसे ले कर जाये. सरपंच साहब ने मोटरसाईकल का इन्तज़ाम किया. प्रा.स्वा.के. ने जाँच करके बताया कि मलेरिया है और इलाज के लिए 30 कि.मी. दूर बिलासपुर ले जाने के लिए कहा. उस दिन अंतिम बस पकड़ कर आनन्द राम रात को 8 बजे गाँव वापस पहुँचा. अपनी एक एकड़ ज़मीन को फसल के साथ गिरवी रख कर 8000 रुपये लिए और सुबह की इन्तज़ार की. सुबह चार बजे, बच्चे ने अंतिम साँस ली...
सरकारी आँकणों के अनुसार, भारत में वर्ष में 20 लाख लोगों को मलेरिया होता है और उससे 700 व्यक्तियों की मृत्यू होती है. विश्व स्वास्थ्य संघ ने अनुमान लगाया है कि भारत में वर्ष में असल में करीब एक करोड़ पचास लाख लोगों को मलेरिया होता है और करीब 20 हज़ार व्यक्ति मरते हैं. एक अन्य शौध ने अनुमान लगाया है मलेरिया से हर वर्ष कम से कम डेड़ से सवा दो लाख लोगों की मृत्यू होती हैं...
सरकारी आँकणों के हिसाब से 2010 में पूरे छत्तीसगढ़ राज्य में मलेरिया से केवल 42 व्यक्ति मरे, जबकि उसी वर्ष "जन स्वास्थ्य सहयोग" के एक शौध के अनुसार राज्य के बिलासपुर जिले के एक ब्लॉक में कम से कम 200 व्यक्ति मलेरिया से मरे ...

सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में काम करने वालों पर बहुत दबाव होता है कि स्वास्थ्य समस्याओं की स्थिति बुरी न दिखायी जाये ताकि राज्य की छवि को नुकसान न हो. भारत में कुष्ठ रोग से सम्बन्धित मेरे एक शौध में स्वास्थ्य कर्मियों ने माना कि अगर उनके इलाके में अधिक कुष्ठ रोगी पाये जायेंगे तो अफसर कहेंगे कि वहाँ स्थिति खराब है और काम ठीक से नहीं हो रहा. यानि अगर आप अच्छा काम करेंगे तो आप के काम को बुरा माना जायेगा. इसलिए वह रोगियों को कम करके दिखाते हैं, ताकि अफसर कहें कि वहाँ काम अच्छा हो रहा है.

अंत में

स्वास्थ्य कर्मियों की कमी के साथ साथ, सरकारी स्वास्थ्य सेवा की कमियाँ और हर ओर बढ़ते निजिकरण की कठिनाईयों जैसे विषय भी जुड़े हैं. जब स्वास्थ्य सेवा के साथ पैसा कमाने की बात जुड़ी हो तो कितने डाक्टर इलाज की निर्पेक्ष सलाह दे पाते हैं? एक ओर छोटे शहरों तथा गाँवों में डाक्टर, नर्स, फिसियोथेरापिस्ट, साइकोलोजिस्ट जैसे सेवाकर्मी नहीं मिलते, दूसरी ओर बड़े शहरों में प्राईवेट अस्पतालों में स्पेशलिस्टों की भरमार तथा अधिक से अधिक पैसा कैसे बनाया जाये के चक्कर हैं.

भारत के फ़र्ज़ी बिना डिग्री के डाक्टरों की बात तो बहुत लोग करते हैं लेकिन इस बारे में कोई शौध नहीं हुआ कि उनका लोगों तक स्वास्थ्य सेवा पहूँचाने में क्या सहयोग है? कई बार देखा कि गाँवों में डिग्री वाले और बिना डिग्री वाले कम्पाउँडर-डाक्टर दोनो हैं, और गाँव में सबको मालूम था कि उस "डाक्टर" के पास डिग्री नहीं थी, तो मेरा प्रश्न था कि सब कुछ जान कर भी और प्रशिक्षत डाक्टर का विकल्प होने के बावज़ूद लोग ऐसे फ़र्ज़ी डाक्टर पर क्यों जाते थे? क्या मिलता था उन्हें इन डाक्टरों से जिसकी वजह से उनके क्लिनिक में इतनी भीड़ होती थी?

पर मेरा अनुभव है कि मेडिकल एसोशियेशनों में लोग सख्त कानून बनवाने की बातें करते हैं, उन्हें यह जानने में दिलचस्पी नहीं कि बने कानून क्यों काम नहीं कर रहे और लोग सब कुछ जान समझ कर भी, ऐसी जगहों पर इलाज कराने क्यों जाते हैं.

भारत सरकार ने ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन तथा आशा (ऍक्रेडिटिट सोशल हेल्थ एक्टीविस्ट - ASHA) कार्यक्रमों के माध्यम से गाँवों तथा जिला स्तरों के छोटे शहरों में स्वास्थ्य आवश्यकताओं का उत्तर देने की कोशिश की है. मेरे विचार में जहाँ इस व्यवस्था ने काम किया है, उसका अच्छा प्रभाव पड़ा है. इसके बारे में पिछले एक दो वर्षों में मुझे उत्तरप्रदेश, असम तथा महाराष्ट्र में स्थिति समझने का कुछ मौका मिला है, पर उनके बारे में बात फ़िर कभी होगी.

तकनीकी विकास के साथ आज दुनिया तेज़ी से बदल रही है. मोबाइल फ़ोन और कम्प्यूटरों के माध्यम से चिकित्सा क्षेत्र में बहुत से बदलाव हो रहे हैं. गाँवों में काम करने वाले स्वास्थ्य सेवा कर्मियों के काम में इन तकनीकी विकासों से नये बदलाव आयेंगे. पश्चिमी देशों में कोई भी तकनीकी विकास हो, भारत में उसके सस्ते और सुलभ तरीके खोज लिये जाते हैं. इसलिए मेरे विचार में अगले दशक में भारतीय स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में भी तकनीकी विकास आयेंगे, पर इसकी बात भी फ़िर कभी होगी.

अंत में आप से कुछ पूछना चाहूँगा - आप बिना डिग्री के डाक्टर नर्सों के बारे में क्या सोचते हैं? क्या आप कभी ऐसे लोगों के पास इलाज कराने गये? आप के अपने क्या अनुभव हैं? आप के विचार में लोग ऐसे स्वास्थ्य कर्मियों के पास क्यों जाते हैं?

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बुधवार, मार्च 04, 2015

जीवन का अंत

चिकित्सा विज्ञान तथा तकनीकी के विकास ने "जीवन का अंत" क्या होता है, इसकी परिभाषा ही बदल डाली है. जिन परिस्थितियों में दस बीस वर्ष पहले तक मृत्यू को मान लिया जाता था, आज तकनीकी विकास से यह सम्भव है कि उनके शरीरों को मशीनों की सहायता से "जीवित" रखा जाये. लेकिन जीवन का अंतिम समय कैसा हो यह केवल चिकित्सा के क्षेत्र में हुए तकनीकी विकास और मानव शरीर की बढ़ी समझ से ही नहीं बदला है, इस पर चिकित्सा के बढ़ते व्यापारीकरण का भी प्रभाव पड़ा है. तकनीकी विकास व व्यापारीकरण के सामने कई बार हम स्वयं क्या चाहते हैं, यह बात अनसुनी सी हो जाती है.

तो जब हमारा अंतिम समय आये उस समय हम किस तरह का जीवन और किस तरह की मृत्यू चुनते हैं? किस तरह का "जीवन" मिलता है जब हम अंतिम दिन अस्पताल के बिस्तर में गुज़ारते हैं? इस बात का सम्बन्ध जीवन की मानवीय गरिमा से है. यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसकी कीमत केवल पैसों में नहीं मापी जा सकती है, बल्कि इसकी एक भावनात्मक कीमत भी है जो हमारे परिवारों व प्रियजनों को उठानी पड़ती है. आज मैं इसी विषय पर अपने कुछ विचार आप के सामने रखना चाहता हूँ.

ICU in an Indian hospital - Image by Sunil Deepak

चिकित्सा क्षेत्र में तकनीकी विकास

पिछले कुछ दशकों में चिकित्सा विज्ञान ने बहुत तरक्की की है. आज कई तरह के कैंसर रोगों का इलाज हो सकता है. कुछ जोड़ों की तकलीफ़ हो तो शरीर में कृत्रिम जोड़ लग सकते हैं. हृदय रोग की तकलीफ हो तो आपरेशन से हृदय की रक्त धमनियाँ खोली जा सकती हैं. कई मानसिक रोगों का आज इलाज हो सकता है. नये नये टेस्ट बने हैं. घर में अपना रक्तचाप मापना या खून में चीनी की मात्रा को जाँचना जैसे टेस्ट मरीज स्वयं करना सीख जाते हैं. नयी तरह के अल्ट्रासाउँड, केटस्केन, डीएनए की जाँच जैसे टेस्ट छोटे शहरों में भी उपलब्ध होने लगी हैं.

इन सब नयी तकनीकों से हमारी सोच में अन्तर आया है. आज हमें कोई भी रोग हो, हम यह अपेक्षा करते हैं कि चिकित्सा विज्ञान इसका कोई न कोई इलाज अवश्य खोजेगा. कोई रोग बेइलाज हों, यह मानने के लिए हम तैयार नहीं होते.

कुछ दशक पहले तक, अधिकतर लोग घरों में ही अपने अंतिम क्षण गुज़ारते थे. उन अंतिम क्षणों के साथ मुख में गंगाजल देना, या बिस्तर के पास रामायण का पाठ करना जैसी रीतियाँ जुड़ी हुईं थीं. लेकिन शहरों में धीरे धीरे, घर में अंतिम क्षण बिताना कम हो रहा है. अगर अचानक मृत्यू न हो तो आज शहरों में अधिकतर लोग अपने अंतिम क्षण अस्पताल के बिस्तर पर बिताते हैं, अक्सर आईसीयू के शीशों के पीछे. जब डाक्टर कहते हैं कि अब कुछ नहीं हो सकता तब भी अंतिम क्षणों तक नसों में ग्लूकोज़ या सैलाइन की बोतल लगी रहती है, नाक में नलकी डाल कर खाना देते रहते हैं. अगर साँस लेने में कठिनाई हो तो साँस के रास्ते पर नली लगा कर तब तक वैंन्टिलेटर से साँस देते हैं जब तक एक एक कर के दिल, गुर्दे व जिगर काम करना बन्द नहीं कर देते. जब तक हृदय की धड़कन मापने वाली ईसीजी मशीन में दिल का चलना आये और ईईजी की मशीन से मस्तिष्क की लहरें दिखती रहीं, आप को मृत नहीं मानते और आप को ज़िन्दा रखने का तामझाम चलता रहता है.

वैन्टिलेटर बन्द किया जाये या नहीं, ग्लूकोज़ की बोतल हटायी जाये या नहीं, दिल को डिफ्रिब्रिलेटर से बिजली के झटके दे कर दोबारा से धड़कने की कोशिश की जाये या नहीं, यह सब निर्णय डाक्टर नहीं लेते. अगर केवल डाक्टर लें तो उन पर "मरीज़ को मारने" का आरोप लग सकता है. यह निर्णय तो डाक्टर के साथ मरीज़ के करीबी परिवारजन ही ले सकते हैं. पर परिवार वाले कैसे इतना कठोर निर्णय लें कि उनके प्रियजन को मरने दिया जाये? चाहे कितना भी बूढ़ा व्यक्ति हो या स्थिति कितनी भी निराशजनक क्यों न हो, जब तक कुछ चल रहा है, चलने दिया जाता है. बहुत कम लोगों में हिम्मत होती है कि यह कह सकें कि हमारे प्रियजन को शाँति से मरने दिया जाये.

अपने प्रियजन के बदले में स्वयं को रख कर सोचिये कि अगर आप उस परिस्थिति में हों तो आप क्या चाहेंगे? क्या आप चाहेंगे कि उन अंतिम क्षणों में आप की पीड़ा को लम्बा खींचा जाये, जबरदस्ती वैन्टिलेटर से, नाक में डली नलकी से, ग्लूकोज़ की बोतल और इन्जेक्शनों से आप के अंतिम दिनों को जितना हो सके लम्बा खीचा जाये?

चिकित्सा का व्यापारीकरण

लोगों की इन बदलती अपेक्षाओं से "चिकित्सा व्यापार" को फायदा हुआ है. कुछ भी बीमारी हो, वह लोग उसके लिए दबा कर तरह तरह के टेस्ट करवाते हैं. महीनों इधर उधर भटक कर, पैसा गँवा कर, लोग थक कर हार मान लेते हैं. भारत में प्राइवेट अस्पतालों में क्या हो रहा है,  किसी से छुपा नहीं है. उनके कमरे किसी पाँच सितारा होटल से कम मँहगे नहीं होते. लेकिन सब कुछ जान कर भी आज की सोच ऐसी बन गयी है कि कुछ भी हो बड़े अस्पताल में स्पेशालिस्ट को दिखाओ, दसियों टेस्ट कराओ, क्योंकि इससे हमारा अच्छा इलाज होगा.

गत वर्ष में आस्ट्रेलिया के एक नवयुवक डाक्टर डेविड बर्गर ने चिकित्सा विज्ञान की विख्यात वैज्ञानिक पत्रिका "द ब्रिटिश मेडिकल जर्नल" में भारत के चिकित्सा संस्थानों के बारे में अपने अनुभवों पर आधारित एक आलेख लिखा था जिसकी बहुत चर्चा हुई थी. वह भारत में छह महीनों के लिए एक गैरसरकारी संस्था के साथ वोलैंटियर का काम करने आये थे.

डा. बर्गर ने लिखा था कि "भारत में हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार कैसर की तरह फ़ैला है. इस भ्रष्टाचार की जड़े चिकित्सा की दुनिया में हर ओर गहरी फ़ैली हैं जिसका प्रभाव डाक्टर तथा मरीज़ के सम्न्धों पर भी पड़ता है. स्वास्थ्य सेवाएँ भी विषमताओं से भरी हैं, भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण दुनिया में सबसे अधिक है. भारत में बीमारी पर होने वाला सत्तर प्रतिशत से भी अधिक खर्चा, लोग स्वयं उठाते हैं. यानि स्वास्थ्य सेवाओं का निजिकरण अमरीका से भी अधिक है. जिनके पास पैसा है उन्हें आधुनिक तकनीकों की स्वास्थ्य सेवा मिल सकती है, हालाँकि इसकी कीमत उन्हें उँची देनी पड़ती है. पर भारत के अस्सी करोड़ लोगों को यह सुविधा नहीं, उनके लिए केवल घटिया स्तर के सरकारी अस्पताल या नीम हकीम हैं जिनको किसी का डर नहीं. लेकिन अमीर हों या गरीब, भ्रष्टाचार सबके लिए बराबर है."

हाल ही में एक गैर सरकारी संस्था "साथी" (Support for Advocacy and Training to Health Initiatives) ने भारतीय चिकित्सा सेवा में लगी सड़न की रिपोर्ट निकाली है, जिसमें बहुत से डाक्टरों ने साक्षात्कार दिये हैं और किस तरह से भ्रष्टाचार से चिकित्सा क्षेत्र प्रभावित है इसका खुलासा किया है. इस रिपोर्ट में 78 डाक्टरों के साक्षात्कार हैं कि किस तरह भारतीय चिकित्सा सेवाएँ लालच तथा भ्रष्टाचार से जकड़ी हुई हैं. प्राइवेट अस्पतालों में व्यापारिता इतनी बढ़ी है कि किस तरह से अधिक फायदा हो इस बात का उनके हर कार्य पर प्रभाव है.

एक सर्जन ने बताया कि अस्पताल के डायरेक्टर ने उनसे शिकायत की कि उनके देखे हुए केवल दस प्रतिशत लोग ही क्यों आपरेशन करवाते हैं, यह बहुत कम है और इसे चालिस प्रतिशत तक बढ़ाना पड़ेगा, नहीं तो आप कहीं अन्य जगह काम खोजिये.

अगर डाक्टर किसी को हृद्य सर्जरी एँजियोप्लास्टी के लिए रेफ़र करते हें तो उन्हें इसकी कमीशन मिलती है. एमआरआई, ईसीजी जैसे टेस्ट भी कमीशन पाने के लिए करवाये जाते हैं.

कुछ दिन पहले मुम्बई की मेडिएँजलस नामक संस्था ने भी अपने एक शोध के बारे में बताया था जिसमें बारह हज़ार मरीजों के, जिनके आपरेशन हुए थे, उनके कागज़ों की जाँच की गयी. इस शोध से निकला कि हृदय में स्टेन्ट लगाना, घुटने में कृत्रिम जोड़ लगाना, कैसर का इलाज या बच्चा न होने का इलाज जैसे आपरेशनों में 44 प्रतिशत लोगों के बिना ज़रूरत के आपरेशन किये गये थे.

डाक्टरों ने किस तरह से कई सौ औरतों को गर्भालय के बिना ज़रूरत आपरेशन किये, इसकी खबर भी कुछ वर्ष पहले अखबारों में छपी थी.

इन समाचारों व रिपोर्टों के बावजूद, क्या स्थिति कुछ सुधरी है? आप अपने व्यक्तिगत अनुभवों के बारे में सोचिये और बताईये कि क्या चिकित्सा क्षेत्र में भ्रष्टाचार कम हुआ है या बढ़ा है?

विभिन्न जटिल स्थितियाँ

पर इस वातावरण में ईमानदार डाक्टर होना भी आसान नहीं. आप को कुछ भी रोग हो या तकलीफ़, चिकित्सक यह कहने से हिचकिचाते हैं कि उस तकलीफ़ का इलाज नहीं हो सकता. अगर वह ऐसा कहें भी तो मरीज़ इसे नहीं मानना चाहते हैं तथा सोचते हैं कि किसी अन्य जगह में किसी अन्य चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिये. यानि अगर कोई चिकित्सक ईमानदारी से समझाना चाहे कि उस बीमारी का कुछ इलाज नहीं हो सकता तो लोग कहते हें कि वह चिकित्सक अच्छा नहीं, उसे सही जानकारी नहीं.

अगर बिना ज़रूरत के एन्टीबायटिक, इन्जेक्शन आदि के दुर्पयोग की बात हो तो देखा गया है कि लोग यह मानते हैं कि मँहगी दवाएँ, इन्जेक्शन देने वाला डाक्टर बेहतर है. लोग माँग करते हैं कि उन्हें ग्लूकोज़ की बोतल चढ़ायी जाये या इन्जेक्शन दिया जाये क्योंकि उनके मन में यह बात है कि केवल इनसे ही इलाज ठीक होता है.

ऐसी एक घटना के बारे में कुछ दिन पहले असम के जोरहाट शहर के पास एक चाय बागान में सुना. बागान में काम करने वाले मजदूर के चौदह वर्षीय बेटे को दीमागी बुखार हुआ और बुखार के बाद वह दोनों कानों से बहरा हो गया. मेडिकल कालेज में उन्हें कहा गया कि दिमाग के अन्दर के कोषों को हानि पहुँच चुकी है जिसकी वजह से बहरा होने का कुछ इलाज नहीं हो सकता. उन्होंने सलाह दी कि लड़के को बहरों की इशारों की भाषा सिखायी जानी चाहिये. पर वह नहीं माने, बेटे को ले कर कई अन्य अस्पतालों में भटके. अंत में डिब्रूगढ़ के एक अस्पताल में बच्चे को भरती भी किया गया. कई जगह उसके एक्सरे, अल्ट्रसाउँड, केट स्केन जैसे टेस्ट हुए. इसी इलाज के चक्कर में उन्होंने अपनी ज़मीन बेच दी, कर्जा भी लिया, जिसे चुकाने में उन्हें कई साल लगेंगे, पर बेटे की श्रवण शक्ति वापस नहीं आयी. घर में सन्नाटे में बन्द बेटा अब मानसिक रोग से भी पीड़ित हो गया है. यह कथा सुनाते हुए उसके पिता रोने लगे कि बेटे की बीमारी में सारे परिवार के भविष्य का नाश हो गया.

इसमें किसको दोष दिया जाये? शायद भारत की सरकार को जो स्वतंत्रता के साठ वर्ष बाद भी नागरिकों को सरकारी चिकित्सा संस्थानों में स्तर की चिकित्सा नहीं दे सकती? उन चिकित्सा संस्थानों को जो जानते थे कि बहुत से टेस्ट ऐसे थे जिनसे उस लड़के को कोई फायदा नहीं हो सकता था लेकिन फ़िर भी उन्होंने करवाये? या उन माता पिता का, जो हार नहीं मानना चाहते थे और जिन्होंने बेटे को ठीक करवाने के चक्कर में सब कुछ दाँव पर लगा दिया?

जीवन के अंत की दुविधाएँ

शहरों में रहने वाले हों तो परिवार में किसी की स्थिति गम्भीर होते ही सभी अस्पताल ले जाने की सोचते हैं. लेकिन जब बात वृद्ध व्यक्ति की हो या फ़िर गम्भीर बीमारी के अंतिम चरण की, तो ऐसे में अस्पताल से हमारी क्या अपेक्षाएँ होती हैं कि वह क्या करेंगे? जो खुशकिस्मत होते हैं वह अस्पताल जाने से पहले ही मर जाते हैं. पर अगर उस स्थिति में अस्पताल पहुँच जायें,  तो उस अंतिम समय में क्या करना चाहये, यह निर्णय लेना आसान नहीं. कैंसर का अंतिम चरण हो या अन्य गम्भीर बीमारी जिससे ठीक हो कर घर वापस लौटना सम्भव नहीं तो मशीनों के सहारे जीवन लम्बा करना क्या सचमुच का जीवन है या फ़िर शरीर को बेवजह यातना देना है?

कोमा में हो बेहोश हो कर, मशीनों के सहारे कई बार लोग हफ्तों तक या महीनों तक अस्पतालों में आईसीयू पड़े रहते हैं. परिवार वालों के लिए यह कहना कि मशीन बन्द कर दीजिये आसान नहीं. उन्हें लगता है कि उन्होंने पैसा बचाने के लिए अपने प्रियजन को जबरदस्ती मारा है. व्यापारी मानसिकता के डाक्टर हों तो उनका इसी में फायदा है, वह उस अंतिम समय का लम्बा बिल बनायेंगे.

ईमानदार डाक्टर भी यह निर्णय नहीं लेना चाहते. वह कैसे कहें कि कोई उम्मीद नहीं और शरीर को यातना देने को लम्बा नहीं खींचना चाहिये? वह सोचते हैं कि यह निर्णय तो परिवार वाले ही ले सकते हैं. इस विषय में बात करना बहुत कठिन है क्योंकि मन में डर होता है कि उस परिस्थिति में कुछ भी कहा जायेगा तो उसका कोई उल्टा अर्थ न निकाल ले या फ़िर भी मरीज़ की हत्या करने का आरोप न लगा दिया जाये.

अपना बच्चा हो या अपने माता पिता, कहाँ तक लड़ाई लड़ना ठीक है और कब हार मान लेनी चाहिये, इस प्रश्न के उत्तर आसान नहीं. हर स्थिति के लिए एक जैसा उत्तर हो भी नहीं सकता. जब तक ठीक होने की आशा हो, तो अंतिम क्षण तक लड़ने की कोशिश करना स्वाभाविक है. लेकिन जब वृद्ध हों या ऐसी बीमारी हो जिससे बिल्कुल ठीक होना सम्भव नहीं हो या फ़िर जीवन तो कुछ माह लम्बा हो जाये पर वह वेदना से भरा हो तो क्या करना चाहिये? कौन ले यह निर्णय कि ओर कोशिश की जाये या नहीं?

अपने अंतिम समय का निर्णय

भारतीय मूल के अमरीकी चिकित्सक अतुल गवँडे ने अपनी पुस्तक "बिइन्ग मोर्टल" (Being Mortal) में इस विषय पर, अपने पिता के बारे में तथा अपने कुछ मरीजों के अनुभवों के बारे में बहुत अच्छा लिखा है. मालूम नहीं कि यह पुस्तक हिन्दी में उपलब्ध है या नहीं, पर हो सके तो इसे अवश्य पढ़िये. उनका कहना है कि हमें अपने होश हवास रहते हुए अपने परिवार वालों से इस विषय में अपने विचार स्पष्ट रखने चाहिये कि जब हम ऐसी अवस्था में पहुँचें, जब हमारी अंत स्थिति आयी हो, तो हमें मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखा जाये या नहीं. किस तरह की मृत्यू चाहते हैं हम, इसका निर्णय केवल हम ही ले सकते हैं. ताकि जब हमारा अंत समय आये तो हमारी इच्छा के अनुसार ही हमारा इलाज हो.

जब हमें होश न रहे, जब हम अपने आप खाना खाने लायक नहीं रहें या जब हमारी साँस चलनी बन्द हो जाये, तो कितने समय तक हमें मशीनों के सहारे "ज़िन्दा" रखा जाये? इसका निर्णय हमारी परिस्थितियों पर निर्भर करेगा और हमारे विचारों पर. अगर मैं सोचता हूँ कि महीनों या सालों, इस तरह स्वयं के लिए "जीवित" रहना नहीं चाहता तो आवश्यक नहीं कि बाकी लोग भी यही चाहते हैं. यह निर्णय हर एक को अपने विचारों के अनुसार लेने का अधिकार है. और आवश्यक है कि हम अपने प्रियजनों से इस विषय में खुल कर बात करें तथा अपनी इच्छाओं के बारे में स्पष्ट रूप से कहें.

अपने बारे में मेरी अंतिम इच्छा मेरे दिमाग में स्पष्ट है. मुझे लगता है कि मैंने अपना सारा जीवन पूरी तरह जिया है, अपने हर सपने को जीने का मौका मिला है मुझे. जहाँ तक हो सके, मैं अपने घर में मरना चाहूँगा. अगर मेरी स्थिति गम्भीर हो तो मैं चाहूँगा कि मुझे अपने पारिवार का सामिप्य मिले, लेकिन मुझे मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखने की कोई कोशिश न की जाये!

मैंने इस विषय में कई बार अपनी पत्नी, अपने बेटे से बात भी की है और अपने विचार स्पष्ट किये हैं. आप ने क्या सोचा है अपने अंतिम समय के बारे में?

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सोमवार, अगस्त 18, 2014

भाषा, स्वास्थ्य अनुसंधान और वैज्ञानिक पत्रिकाएँ

पिछली सदी में दुनिया में स्वास्थ्य सम्बंधी तकनीकों के विकास के साथ, बीमारियों के बारे में हमारी समझ बढ़ी है जितनी मानव इतिहास में पहले कभी नहीं थी. पैनिसिलिन का उपयोग द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान प्रारम्भ हुआ. पहली डायलाईसिस की मशीन का उपयोग भी द्वितीय विश्व महायुद्ध के दौरान 1943 में हुआ. डा. क्रिस्चियन बर्नारड ने पहली बार 1967 में मानव में दिल का पहला ट्राँस्प्लाँट किया.

स्वास्थ्य सम्बंधी तकनीकों के विकास का असर भारत पर भी पड़ा. जब भारत स्वतंत्र हुआ था उस समय भारत में औसत जीवन की आशा थी केवल 32 वर्ष, आज वह 65 वर्ष है. यानि भारत में भी स्थिति बदली है हालाँकि विकसित देशों के मुकाबले जहाँ औसत जीवन आशा 80 से 85 वर्ष तक है, हम अभी कुछ पीछे हैं. बहुत सी बीमारियों के लिए जैसे कि गर्भवति माँओं की मृत्यू, बचपन में बच्चों की मृत्यू, पौष्ठिक खाना न होने से बच्चों में कमज़ोरी, मधुमेह, कुष्ठ रोग और टीबी, भारत दुनिया में ऊँचे स्थान पर है.

विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में नयी खोजों व अनुसंधानों को वैज्ञानिक पत्रिकाओं या जर्नल (journals) में छापा जाता है. इस तरह की दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ अधिकतर अंग्रेज़ी भाषा में हैं. चीन, फ्राँस, इटली, स्पेन, ब्राज़ील आदि जहाँ अंग्रेज़ी बोलने वाले कम हैं, यह देश दुनिया में होने वाले महत्वपूर्ण शौधकार्यों को अपनी भाषाओं में अनुवाद करके छापते हैं, ताकि उनके देश में काम करने वाले लोग भी नयी तकनीकों व जानकारी को समझ सकें. लेकिन यह बात हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं पर लागू नहीं होती, क्योंकि यह सोचा जाता है कि हमारे यहाँ के वैज्ञानिक अंग़्रज़ी जानते हैं.

अगर किसी भाषा में हर दिन की सामान्य बातचीत नहीं होगी तो उसका प्राकृतिक विकास रुक जायेगा. अगर उसमें नया लेखन, कविता, साँस्कृतिक व कला अभिव्यक्ति नहीं होगी तो उसका कुछ हिस्सा बेजान हो जायेगा. अगर वह विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाली नयी खोजों और शौध से कटी रहेगी तो उस भाषा को जीवित रहने के लिए जिस ऑक्सीज़न की आवश्यकता है वह उसे नहीं मिलेगी. इसलिए हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं को बोलने वालों को किस तरह से यह जानकारी मिले यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है.

Health, research and scientific journals graphic by Sunil Deepak, 2014

लेकिन भाषा के अतिरिक्त, वैज्ञानिक शौध, विषेशकर स्वास्थ्य सम्बंधी शौध के साथ अन्य भी कुछ प्रश्न जुड़े हैं जिनके बारे में जानना व समझना महत्वपूर्ण है. अपनी इस पोस्ट में मैं उन्हीं प्रश्नों की चर्चा करना चाहता हूँ. 

हिन्दी में विज्ञान व स्वास्थ्य सम्बंधी जानकारी

अगर विज्ञान व तकनीकी के विभिन्न पहलुओं को आँकें तो उनमें हिन्दी न के बराबर है. कुछ विज्ञान पत्रिकाओं या इंटरनेट पर गिने चुने चिट्ठों को छोड़ दें तो अन्य कुछ नहीं दिखता. स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी नये अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय अनुसंधान क्या बता रहे हैं इसकी निष्पक्ष जानकारी हिन्दी में मिलना कठिन है.

देश के विभिन्न शहरों में पाँच सितारा मल्टी स्पैलिटी अस्पताल खुल रहे हैं जो आधुनिक तकनीकों से हर बीमारी का नया व बढ़िया इलाज करने का आश्वासन देते हैं. दवा कम्पनियों वाले अपनी हर दवा को बेचने के लिए मार्किटिन्ग तकनीकों व जानी मानी ब्राँड के सहारे से यह दिखाना चाहते हैं कि उनकी दवा बेहतर है इसलिए उसका मँहगा होना स्वभाविक है. पर उन सबकी विश्वासनीयता को किस कसौटी से मापा जाना चाहिये?

जीवन के अन्य पहलुओं की तरह, आज स्वास्थ्य के क्षेत्र पर भी व्यवसायी दृष्टिकोण ही हावी हो रहा है, इसलिए कोई भी जानकारी हो, उसकी विश्वासनीयता परखना आवश्यक हो गया है. अगर लोग मार्कटिन्ग की तकनीकों से आप को विषेश ब्राँड के कपड़े, जूते, टीवी या वाशिन्ग मशीन बेचें तो शायद नुकसान नहीं. लेकिन जब उन तकनीकों का आप के मन में अपने स्वास्थ्य के बारे में डर जगाने व पैसा कमाने के लिए प्रयोग किया जाये तो क्या आप इसे उचित मानेंगे?

इस बात के विभिन्न पहलू हैं, जिनके बारे में मैं आज बात करना चाहता हूँ. बात शुरु करते हैं प्रोस्टेट के कैन्सर से. प्रोस्टेट एक ग्रँथि होती है जो पुरुषों में पिशाब के रास्ते के पास, लिंग की जड़ के करीब पायी जाती है. यह सामान्य रूप में छोटे अखरोट सी होती है. जब यह ग्रँथि बढ़ जाती है, कैन्सर से या बिना कैन्सर वाले ट्यूमर से, तो इससे पिशाब के रास्ते में रुकावट होने लगती है और पुरुष को पिशाब करने में दिक्कत होती है. यह तकलीफ़ अक्सर पचास पचपन वर्ष के पुरुषों को शुरु होती है और उम्र के साथ बढ़ती है.

प्रोस्टेट कैन्सर को जानने का टेस्ट 

कुछ दिन पहले मैंने मेडस्केप पर अमरीका के डा. रिचर्ड ऐ एबलिन का साक्षात्कार पढ़ा. डा. एबलिन ने 1970 में एक प्रोस्टेट ट्यूमर के एँटिजन की खोज की थी. सन 1990 से उस एँटिजन पर आधारित एक टेस्ट बनाया गया था जिसका प्रयोग यह जानने के लिए किया जाता है कि किसी व्यक्ति को प्रस्टेट का ट्यूमर है या नहीं. अगर यह टेस्ट यह बताये कि शरीर में यह एँटिजन है यानि टेस्ट पोस्टिव निकले तो प्रोस्टेट के छोटे टुकड़े को निकाल कर, उसकी बायप्सी करके, उसकी माइक्रोस्कोप में जाँच करनी चाहिये. माइक्रोस्कोप में अगर कैन्सर के कोष दिखें तो तो उसका तुरंत इलाज करना चाहिये, अक्सर उनका प्रोस्टेट का ऑपरेशन करना पड़ता है. यह टेस्ट पचास वर्ष से अधिक उम्र वाले पुरुषों को हर दो तीन साल में कराने की सलाह देते हैं ताकि अगर उन्हें प्रोस्टेट कैन्सर हो तो उसका जल्दी इलाज किया जा सके.

अपने साक्षात्कार में डा. एबलिन ने बताया है कि उनका खोज किया हुआ "प्रोस्टेट एँटिजन", एक ट्यूमर का एँटिजन है, कैन्सर का नहीं. अगर ट्यूमर कैन्सर नहीं हो तो सभी को उसका ऑपरेशन कराने की आवश्यकता नहीं होती. अगर ट्यूमर कैंन्सर नहीं हो तो उसका ऑपरेशन तभी करते हैं जब उसकी वजह से पिशाब करने में दिक्कत होने लगे.

लेकिन अगर टेस्ट पोस्टिव आये तो लोगों के मन में कैन्सर का डर बैठ जाता हैं हालाँकि यह टेस्ट बहुत भरोसेमन्द नहीं और 70 प्रतिशत लोगों बिना किसी ट्यूमर के झूठा पोस्टिव नतीजा देता है. कई डाक्टर उन सभी लोगों को ऑपरेशन कराने की सलाह देते हैं, यह नहीं बताते कि 70 प्रतिशत पोस्टिव टेस्ट में न कोई कैन्सर होता है न कोई ट्यूमर. बहुत से सामान्य डाक्टर भी इस बात को नहीं समझते. इस टेस्ट के साथ दुनिया के विभिन्न देशों में टेस्ट कराने का और ऑपरेशनों का करोड़ों रुपयों का व्यापार जुड़ा है.

कुछ इसी तरह की बातें, बड़ी आँतों में कैन्सर को जल्दी पकड़ने के लिए पाखाने में खून के होने की जाँच कराने वाले स्क्रीनिंग टेस्ट तथा स्त्री वक्ष में कैन्सर को जल्दी पकड़ने के लिए मैमोग्राफ़ी के स्क्रीनिंग टेस्ट कराने की भी है. उनके बारे में भी कहा गया है कि यह स्क्रीनिंग टेस्ट केवल अस्पतालों के पैसा बनाने के लिए किये जाते हैं और इनका प्रभाव इन बीमारियों को जल्दी पकड़ने या नागरिकों के जीवन बचाने पर नगण्य है.

विदेशों में जहाँ सभी नागरिकों को राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा की सुविधा है, इन टेस्टों को स्क्रीनिन्ग के लिए उपयोग करते हैं, यानि आप के घर में चिट्ठी आती है कि फलाँ दिन को निकट के स्वास्थ्य केन्द्र में यह टेस्ट मुफ्त कराईये. भारत में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा नहीं के बराबर है और सरकार की ओर से नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए बजट दुनिया में बहुत कम स्तर पर है, जिसके बहुत से नुक्सान हैं, लेकिन कुछ फायदा भी है क्योंकि इस तरह के स्क्रीनिंग टेस्टों में सरकारी पैसा बरबाद नहीं किया जाता. दूसरी ओर स्वास्थ्य सेवाओं के निजिकरण में भारत दुनिया के अग्रणी देशों में से है, जिससे शहरों में रहने वाले लोग पैसा कमाने के चक्कर में लगे लोगों के शिकार बन जाते हैं, विषेशकर नये पाँच सितारा मल्टी स्पैशेलिटी अस्पतालों में.

बात केवल पैसे की नहीं. अधिक असर पड़ता है लोगों के मन में बैठाये डर का कि आप को कैन्सर है या हो सकता है. अगर टेस्ट के 70 प्रतिशत परिणाम गलत होते हैं, और जिन 30 प्रतिशत लोगों में परिणाम ठीक होते हैं, उनमें से कुछ को ही कैन्सर होता है, बाकियों को केवल कैन्सर विहीन ट्यूमर होता है तो क्या यह उचित है कि लोगों के मन में यह डर बिठाया जाये कि उन्हें कैन्सर हो सकता है?

अन्तर्राष्ट्रीय शौध पत्रिकाएँ

विज्ञान के हर क्षेत्र में कुछ भी नया महत्वपूर्ण शौध हो तो उसके बारे में जानने के लिए प्रसिद्ध अन्तर्राष्ट्रीय जर्नल या पत्रिकाएँ होती हैं, जिनमें छपना आसान नहीं और जिनमें छपने वाली हर रिपोर्ट व आलेख को पहले अन्य वैज्ञानिकों द्वारा जाँचा परखा जाता है. स्वास्थ्य की बात करें तो भारत में भी कुछ इस तरह की पत्रिकाएँ अंग्रेज़ी में छपती हैं लेकिन इन्हें अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अधिक मान्यता नहीं मिली है. स्वास्थ्य के सर्वप्रसिद्ध जर्नल अधिकतर अमरीकी या यूरोपीय हैं और अंग्रेज़ी में हैं. अन्य यूरोपीय भाषाओं में छपने वाली पत्रिकाओं को अंग्रेज़ी जर्नल जितनी मान्यता नहीं मिलती. विकासशील देशों से प्रसिद्ध अंग्रेज़ी के जर्नल में छपने पाली शौध-आलेख बहुत कम होते हैं, हालाँकि विकासशील देशों में से भारतीय शौध‍-आलेखों का स्थान ऊँचा है.

अधिकतर अंग्रेज़ी की प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिकाएँ मँहगी भी होती हैं इसलिए उन्हें खरीदना विकासशील देशों में आसान नहीं. पिछले कुछ सालों में इंटरनेट के माध्यम से, कुछ प्रयास हुए हैं कि शौध को पढ़ने वालों को मुफ्त उपलब्ध कराया जाये, इनमें प्लोस पत्रिकाओं (PLOS - Public Library of Science) को सबसे अधिक महत्व मिला है.

स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत से लोग नये शौध अनुसंधान के महत्व को नहीं समझते. बहुत से डाक्टर अंग़ेज़ी जानते हुए भी, इंटरनेट के होते हुए भी, वह इस विषय में नहीं पढ़ते. बहुत से डाक्टरों के लिए दवा कम्पनियों के लोग जो उनके क्लिनिक में दवा के सेम्पल के कर आते हैं, वही नयी जानकारी का सोत्र होते हैं. पर क्या कोई दवा बेचने वाला निष्पक्ष जानकारी देता है या अपनी दवा की पक्षधर जानकारी देता है?

दूसरी ओर वह लोग हैं जिन्हें जर्नल में छपने वाली अंग्रेज़ी समझ नहीं आती, क्योंकि इस तरह की वैज्ञानिक पत्रिकाओं में कठिन भाषा का प्रयोग किया जाता है. भारत में सामान्य अंग्रेज़ी बोलने समझने वाले बहुत से लोग, चाहे वह डाक्टर हो या नर्स या फिज़ियोथैरापिस्ट, वह भी इस तरह से नये शौधों के बारे में चाह कर भी नहीं जान पाते.

कौन लिखता है अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में शौध-आलेख?

शौध पत्रिकाओं का क्षेत्र भी समाज के व्यवसायीकरण से अछूता नहीं रह पाया है. और अगर कोई पत्रिका व्यवसाय को सबसे ऊँचा मानेगी तो उसका शौधो-विषयों व शौध-आलेखों के छपने पर क्या असर पड़ेगा, यह समझना आवश्यक है.

अंतर्राष्ट्रीय उपभोक्ता संगठन "क्ज़ूमर इंटरनेशनल" की 2007 की रिपोर्ट "ड्रगस, डाक्टर एँड डिन्नरस" (Drugs, doctors and dinners - दवाएँ, चिकित्सक व दावतें) में इस बात की चर्चा थी कि बहुदेशीय दवा कम्पनियाँ किस तरह डाक्टरों पर प्रभाव डालती हैं कि वे उनकी मँहगी दवाएँ अधिक से अधिक लिखें. साथ ही, जेनेरिक दवाईयों जो सस्ती होती है, के विरुद्ध प्रचार किया जाता है कि अगर दवा का अच्छा ब्राँड नाम नहीं हो तो वह नकली हो सकती हैं या उनका प्रभाव कम पड़ता है.

एक अन्य समस्या है कि स्वास्थ्य के विषय पर छपने वाले प्रतीष्ठित अंतर्राष्ट्रीय जर्नल-पत्रिकाओं पर दवा कम्पनियों का प्रभाव. 2011 में अंग्रेज़ी समाचार पत्र "द गार्डियन" में एलियट रोस्स ने अपने आलेख में बताया कि किस पत्रिका में क्या छपेगा और क्या नहीं यह दवा कम्पनियों के हाथ में है. यह कम्पनियाँ चूँकि इन पत्रिकाओं में अपने विज्ञापन छपवाती हैं, पत्रिकाओं के मालिक उन्हें नाराज़ नहीं करना चाहते और किसी प्रसिद्ध दवा कम्पनी की किसी दवा के बारे में नकारात्मक रिपोर्ट हो तो उसे नहीं छापते. यही कम्पनियाँ नये शौधकार्य में पैसा लगाती हैं और अगर शौध के नतीजे उन्हें अच्छे न लगें तो उसकी रिपोर्ट को नहीं छपवाती. वह अपनी दवाओं के बारे में उनके असर को बढ़ा चढ़ा कर दिखलाने वाले आलेख लिखवा कर प्रतिष्ठित डाक्टरों के नामों से छपवाती हैं, जिससे डाक्टरों को अपना नाम देने का पैसा या अन्य फायदा मिलता है - इसे भूतलेखन (Ghost-writing) कहते हैं. किस वैज्ञानिक पत्रिका में क्या छपवाया जाये इस पर काम करने वाली दवा कम्पनियों से सम्बंधित 250 से अधिक एजेन्सियाँ हैं जो इस काम को पैशेवर तरीके से करती हैं.

अमरीकी समाचार पत्र वाशिन्गटन पोस्ट में छपी 2012 की एक रिपोर्ट के अनुसार, सन् 2000 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक पत्रिका "न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसन" में नयी दवाओं के शौध के बारे में 73 आलेख छपे जिनमें से 60 आलेख दवा कम्पनियों द्वारा प्रयोजित थे. इस विषय पर छान बीन करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले दशक में स्थिति और भी अधिक बिगड़ी है.

इस स्थिति के जन स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे असर के कई उदाहरण मिल सकते हैं, जैसे कि मेरक्क कम्पनी के दो शौधकर्ताओं ने जोड़ों के दर्द की दवा वियोक्स के अच्छे असर के बारे में बढ़ा चढ़ा कर आलेख लिखा. वयोक्स की बिक्री बहुत हुई. पाँच साल बाद मालूम चला कि इन दोनो शौधकर्ताओं ने अपने आलेख में दवा के साइड इफेक्ट यानि बुरे प्रभावों को छुपा लिया था क्योंकि इस दवा से लोगों को दिल की बीमारियाँ हो रहीं थीं. जब अमरीका में हल्ला मचा तो इस दवा को बाज़ार से हटा दिया गया.

विकसित देशों में जब किसी दवा के बुरे असर की समाचार आते हैं तो सरकार उसकी जाँच करवाती है और उस दवा को बाज़ार से हटाना पड़ता है. लेकिन यह कम्पनियाँ अक्सर सब कुछ जान कर भी विकासशील देशों में उन दवाओं को बेचना बन्द नहीं करती, जब तक वहाँ की सरकारें इसके बारे में ठोस कदम नहीं उठातीं. कई अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बैन की हुई दवाईयाँ हैं जो विकासशील देशों में खुले आम बिकती हैं.

शौध को समझने की दिक्कतें

जहाँ एक ओर शौध के बारे में निष्पक्ष जानकारी मिलना कठिन है, वहाँ दूसरी समस्या है शौधों के नतीजो़ को समझना. वैज्ञानिक पत्रिकाओं में नयी दवाओं के असर को अधिकतर इस तरह से प्रस्तुत किया जाता है जिससे लोगों को स्पष्ट समझ न आये. इस समस्या को समझने के लिए मैं आप को सरल किया हुआ एक उदाहरण देता हूँ.

मान लीजिये कि एक दवा "क" किसी बीमारी से पीड़ित केवल 5 प्रतिशत लोगों को ठीक करती है, पर बाकी 95 प्रतिशत बीमार लोगों पर उसका कुछ असर नहीं होता. आपने एक नयी दवा "ख" बनाई है, जिसको लेने से उस बीमारी से पीड़ित 10 प्रतिशत लोग ठीक होते हैं और 90 प्रतिशत पर उसका असर नहीं हो. अब आप अपने शौध के बारे में इस तरह से आलेख लिखवाईये और इसके विज्ञापन प्रसारित कीजिये कि "नयी ख दवाई पुरानी दवा के मुकाबले में 100 प्रतिशत अधिक शक्तिशाली है". इस तरह के प्रचार से बहुत से लोग, यहाँ तक कि बहुत से डाक्टर भी, सोचने लगते हैं कि "ख" दवा सचमुच बहुत असरकारक है हालाँकि उसका 90 प्रतिशत बीमार लोगों पर कुछ असर नहीं है.

यही वजह है कि दवा कम्पनियों के प्रतिनिधियों द्वारा दिये जाने वाली विज्ञापन सामग्री पर विश्वास करने वाले डाक्टर भी अक्सर धोखा खा जाते हैं.

आज की दुनियाँ में जहाँ लोग सोचते हें कि इंटरनेट पर सब जानकारी मिल सकती है, सामान्य लोग कैसे समझ सकते हैं कि जिस नयी जादू की दवा के बारे में वह इंटरनेट पर पढ़ रहे हैं, वह सब दवा कम्पनियों द्वारा बिक्री बढ़ाने के तरीके हैं. चाहे दवा हो या चमत्कारी तावीज़ या कोई मन्त्र, लोगों के विश्वास का गलत फ़ायदा उया कर, सबको उल्लू बना कर पैसा कमाने के तरीके हैं. लेकिन इंटरनेट का फायदा यह है कि अगर आप खोजेंगे तो आप को उन उल्लू बनाये गये लोगों की कहानियाँ भी पढ़ने को मिल सकती हैं जिसमें में वह उस चमात्कारी दवा की सच्चाई बताते हैं.

निष्कर्ष

एक ओर भारत में समस्या है कि दुनियाँ में होने वाले मौलिक शौध की जानकारी हिन्दी या अन्य भाषाओं में मिलना कठिन है.

दूसरी ओर, अंग्रेज़ी की अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक पत्रिकाएँ किस तरह के शौध के विषय में जानकारी देती हैं और उन पत्रिकाओं पर व्यवसायिक मूल्यों का कितना असर पड़ता है, इसके विषय वैज्ञानिक समाज में आज बहुत से प्रश्न उठ रहे हैं. मैंने इस विषय के कुछ हिस्सों को ही चुना है और उनका सरलीकरण किया है, पर इससे जुड़ी बहुत सी बातें जटिल हैं और जनसाधारण की समझ से बाहर भी.

इनसे आम जनता को तो दिक्कत है ही, स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करने वालों के लिए भी आज यह चुनौती है. प्लोस जैसी वैज्ञानिक पत्रिकाओं के माध्यम से शायद भविष्य में कौन सी शौध छपती है इस पर अच्छा प्रभाव पड़े लेकिन आलेखों को पढ़ने व समझने की चुनौतियों के हल निकालना आसान नहीं. इस सब जानकारी को सरल भाषा में हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में कैसे उपलब्ध कराया जाया यह चुनौती भी आसान नहीं.

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