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मंगलवार, मई 31, 2022

धाय-माँओं की यात्राएँ

इतिहास अधिकतर राजाओं और बादशाहों की और उनके खानदानों, प्रेम सम्बंधों और युद्धों की बातें करते हैं। उन इतिहासों में सामान्य जन क्या कहते थे, सोचते थे, उनका क्या हुआ, यह बातें कम ही दिखती हैं। फ़िर भी, पिछली कुछ शताब्दियों में जब बड़ी संख्या में सामान्य लोगों के जीवनों पर कुछ बड़े प्रभाव पड़ते हैं तो इतिहास बाँचने वालों को उनके बारे में कुछ न कुछ लिखना ही पड़ता है।

ऐसा कुछ अश्वेत लोगों के साथ हुआ जब लाखों लोंगों को भिन्न अफ्रीकी देशों से पकड़ कर यूरोपी जहाजों में भर कर गुलाम बना कर दुनियाँ के विभिन्न कोनों में ले जाया गया। ऐसा कुछ भारतीय गिरमिटियों के साथ भी हुआ जिन्हें काम का लालच दे कर बँधक बना कर मारिशियस, त्रिनिदाद और फिजी जैसे देशों में ले जाया गया। लेकिन हमारे आधुनिक इतिहास की कुछ अन्य कहानियाँ भी हैं जो अभी तक अधिकतर छुपी हुई हैं।



ऐसी छुपी हुई कहानियों में है एक कहानी उन भारतीय औरतों की जिन्हें बड़े साहब लोग अपने बच्चों की देखभाल के लिए आया बना कर विदेशों में, विषेशकर ईंग्लैंड में, साथ ले गये। कुछ महीने पहले एक अंग्रेजी की इतिहास के विषय से जुड़ी पत्रिका हिस्टरी टुडे के जनवरी 2022 के अंक में मैंने सुश्री जो स्टेन्ली का एक आलेख देखा जिसका शीर्षक था "इनविजिबल हैंडज" यानि अदृश्य हाथ, जिसमें 1750 से ले कर 1947 में भारत की स्वतंत्रता तक के समय में भारतीय आया बना कर ले जाई गयी औरतों की बात बतायी गयी थी।

उनका कहना है कि "आया" शब्द पुर्गालियों की भाषा से आया जिसमें नानी-दादी को "आइआ" (Aia) कहते हैं। भारत में इस काम को करने वाली औरतों को "धाय" या "धाय माँ" कहते थे। जैसे कि पन्ना धाय के बलिदान की कहानी बहुत प्रसिद्ध है। अंग्रेजी में इसके लिए "बच्चों की गवर्नैस" का प्रयोग भी होता है।

भारत में रहने वाले अंग्रेजों के घरों में हज़ारों औरतें आया या धाय का काम करती थीं। जब वह लोग छुट्टी पर ईंग्लैंड जाते, तो बच्चों की देखभाल के लिए उनकी आया को भी साथ ले जाते। कुछ लोग भारत में काम समाप्त होने पर हमेशा के लिए ईंग्लैंड लौटते हुए भी कई माह लम्बी समुद्री यात्रा में उन्हें तकलीफ न हो, इसलिए इन औरतों को बच्चों की देखभाल और अन्य काम कराने के लिए साथ ले जाते थे। लेकिन एक बार ईंग्लैंड पहुँच कर वह इन्हें घर से निकाल भी सकते थे और घर वापस लौटने का किराया नहीं देते थे।

भारत में अंगरेज़ साहब और मेमसाहिब के पास बड़े आलीशान बँगले होते थे जिनमें नौकरों को रखने में कठिनाई नहीं होती थी, लेकिन ईंग्लैंड में वापस आ कर, उन साहबों को सामान्य घरों में रहना पड़ता था, तो समस्या होती थी कि भारत से लायी गयी आया को कहाँ रखा जाये? उनके लिए ईंग्लैंड में आया-होस्टल में बन गये थे, जहाँ यह औरतें भारत जाने वाले किसी अंग्रेज परिवार के साथ नयी नौकरी की प्रतीक्षा करती थीं।

न्यू योर्क विश्वविद्यालय की प्रोफेसर स्वप्न बैन्नर्जी अन्य शोधकारों के साथ मिल कर सन् 1780 से ले कर 1945 में भारत उपमहाद्वीप से काम करने के लिए दुनिया भर में ले जाये जानी वाली इन प्रवासी महिलाओं पर शोध कर रही हैं जिसके बारे में आया व आमाह के ब्लोग पर आप पढ़ सकते हैं। इसी ब्लाग पर पिछली सदी के प्रारम्भ का एक विज्ञापन है जिसमें लँडन के दक्षिण हेक्नी इलाके में बने "आया होम" के बारे में कहा गया कि अंग्रेज महिलाएँ कुछ पैसा दे कर भारत से लायी आया को यहाँ रखवा कर उनसे छुटकारा पा सकती हैं, साथ यह यहाँ हिंदुस्तानी बोलने की सुविधा भी है। (विज्ञापन नीचे की छवि में)



कुछ औरतों ने अंग्रेज परिवारों की समुद्री यात्रा में बच्चों की देखभाल का काम अच्छे तरीके से आयोजित किया था। 1922 में ईंग्लैंड में अखबार में छपे एक साक्षात्कार में भारत की श्रीमति एन्थनी पारैरा ने बताया वह 54 बार भारत-ईंग्लैंड यात्रा कर चुकी थीं। एक शोध के अनुसार, 1890 से ले कर 1953 तक, हर वर्ष करीब 20-30 औरतें आया बन कर ईंग्लैंड लायी जाती थीं। इनमें से अधिकतर औरतें "नीची" जाति से होती थीं। इसी काम के लिए कुछ चीनी औरतें भी ईंग्लैंड लायी जाती थीं जिन्हें "अमाह" कहते थे, हालाँकि उनकी संख्या भारतीय मूल की "आयाह" के मुकाबले एक चौथाई से भी कम होती थी।

उन औरतों की देखभाल में पले अंग्रेज बच्चों ने उनके बारे में अपनी आत्मकथाओं तथा स्मृतियों में वर्णन किया है कि उनको इन्हीं औरतों से परिवार का प्यार व स्नेह मिला। इन कहानियों से उन औरतों के जीवन की रूमानी छवि बनती है, जब कि जो स्टेन्ली के अनुसार उनकी जीवन की सच्चाई अक्सर रूमानी नहीं थी, बल्कि उसकी उल्टी होती थी। उनमें से कई औरतों के साथ उनके अंग्रेज मालिक बुरा व्यवहार करते थे।

अफ्रीका में जन्मी भारतीय मूल की इतिहासकार, डा. रोज़ीना विसराम ने इस विषय पर शोध करके कुछ पुस्तकें लिखी हैं। ब्रिटिश राष्ट्रीय पुस्तकालय ने इस विषय में सन् 1600 से ले कर 1947 तक के समय के विभिन्न दस्तावेज़ों को एकत्रित किया है। इनके अनुसार, शुरु में पुरुषों को अधिक लाया जाता था, वह परिवारों के नौकर तथा जहाज़ो में नाविक का काम करते थे। आया का काम करने वाली औरतों के अतिरिक्त, उन्नीसवीं शताब्दी में भारत से बहुत से लोग ईंग्लैंड में पढ़ने के लिए भी आते थे ताकि वापस जा कर भारत में उनको अंग्रेजी सरकार में ऊँचे पदों पर नौकरी मिल सके।


कुछ वर्ष पहले, दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की इतिहासकार प्रो. राधिका सिन्घा ने दो विश्व युद्धों में अंग्रेज़ी फौजों के साथ भारत से लाये गये सिपाहियों के जीवन पर शोध करके एक किताब लिखी थी जिसमें मैंने भी कुछ सहयोग किया था। उन भुला दिये गये सिपाहियों के अवशेष यूरोप के विभिन्न हिस्से में बिखरे हुए हैं, उनमें से इटली के फोर्ली शहर के एक स्मारक-कब्रिस्तान के बारे में मैंने एक बार लिखा था। हिस्टरी टुडे के भारत से आयी धाय-माँओं के बारे में आलेख ने सामान्य जनों के छुपे और भुलाए हुए इतिहासों के बारे में वैसी ही जानकारी दी। सोच रहा था कि जिन परिवारों की वह बेटियाँ, बहुएँ या माएँ थीं, गाँवों और शहरों में जब वह भारत छोड़ कर गयीं थीं, उस समय उनकी कहानियाँ भी कहानियाँ बनी होंगी, लोगों ने बातें की होंगी, फ़िर समय के साथ वह कहानियाँ लोग भूल गये होंगे। क्या जाने उनके बच्चे और वँशज उनकी स्मृतियों को सम्भाले होंगे या नहीं?

इतिहास ने और अंग्रेज़ों ने उन औरतों के साथ बुरा व्यवहार किया, उनको शोषित किया, लेकिन क्या स्वतंत्र होने के बाद भारत के नये शासक वर्ग ने वैसा शोषण बन्द कर दिया? भारत से विदेश जाने वाले संभ्रांत घरों के लोग अक्सर भारत से काम करने वाली औरतें बुलाते हैं और उन्हें घर में बन्दी बना कर रखते हैं। भारतीय दूतावासों में काम करने वाले लोगों के इस तरह के व्यवहार के बारे में कई बार ऐसी बातें सामने आयीं हैं। भारत के संभ्रांत घरों में नौकरी करने वाली औरतों के साथ भी कई बार गलत व्यवहार होता है। आज के परिवेश में भारत में ही नहीं, अरब देशों में भारतीय काम करने वालों के शोषण की भी अनगिनत कहानियाँ मिल जायेगी। मेरे विचार में जब हम इतिहास में हुए मानव अधिकारों के विरुद्ध आचरणों को देखते हैं तो हमें आज हो रहे शोषण को भी देखने समझने की दृष्टि मिलती है।

टिप्पणींः इस आलेख की सारी तस्वीरें आयाह और आमाह ब्लाग से ली गयीं हैं।

बुधवार, मार्च 02, 2011

दुनिया का पाकिस्तानीकरण

कुछ समय पहले सूडान में एक जनमत हुआ जिसमें देश के दक्षिणी भाग में रहने वाले लोगों को चुनना था कि वह सूडान में रहना चाहेंगे या फ़िर अपना अलग देश चाहेंगे. इस जनमत का नतीजा निकला है कि 98 प्रतिशत से अधिक दक्षिणी सूडान के लोग अपने लिए अपना अलग देश चाहते हैं. अधिकतर लोगों ने इस जीत का स्वागत किया है, वह कहते हैं कि इससे लाखों लोगों की मृत्यु और वर्षों से चलते दंगों का अंत होगा. धर्म के नाम पर अलग देश चाहने वालों की जीत से मेरे मन में बहुत से प्रश्न उठे, जिनके उत्तर शायद आसान नहीं.

अफ्रीकी जीवन के विषेशज्ञ प्रोफेसर अली मज़रुयी का एक लेख पढ़ा जिसमें मुझे अपने प्रश्नों की प्रतिध्वनि दिखी. प्रोफेसर मरज़ुई ने इसे "दुनिया का बढ़ता हुआ पाकिस्तानीकरण" कहा है. उन्होंने लिखा हैः
यूरोपीय साम्राज्यवाद के बाद के अफ्रीका महाद्वीप में दो तरह की लड़ाईयाँ हुई हैं - आत्म पहचान की लड़ाईयाँ जैसे कि रुवान्डा में हुटू और टुटसी की लड़ाई, और प्राकृतिक सम्पदा की लड़ाई जैसे कि नीजर डेल्टा में पैट्रोल के लिए होने वाली लड़ाई... पर अफ्रीकी महाद्वीप में 2000 से अधिक जाति गुट बसते हैं, अगर उनमें से दस प्रतिशत को भी अपने लिए स्वतंत्र राज्य मिले तो अफ्रीका छोटे छोटे देशों में बँट जायेगा जिनमें आपस में युद्ध होंगे. ..अफ्रीका में होने वाले विभिन्न, अपना अलग राज्य पाने के प्रयासों के पीछे, अधिकतर जाति या नस्ल के प्रश्न रहे हैं, न कि धार्मिक प्रश्न. 1950 के दशक में क्वामे न्करुमाह जैसे अफ्रीका नेताओं ने "पाकिस्तानीकरण" के विरुद्ध, यानि धार्मिक बुनियादों पर अलग होने के विचार पर चिंता व्यक्त की थी. जब भारत का विभाजन हुआ था, कई अफ्रीकी राष्ट्रवादी नेता, ब्रिटिश भारत में हिंदू मस्लिम तनाव का कारण बता कर में भारत के विभाजन करने के विरुद्ध थे, क्योंकि जानते थे कि अफ्रीका में भी ऐसे कुछ देश थे, जहाँ इस तरह के निर्णय लिये जा सकते थे. जैसे कि नाईजीरिया जहाँ उत्तर में मुसलमानों का बहुमत है और दक्षिण में ईसाईयों का.

आखिर यह नीति सुडान तक पहुँच गयी है, ईसाई बहुमत वाला दक्षिणी भाग, उत्तरी मुस्लिम भाग से अलग हो जायेगा. दक्षिणी सूडानी कहते हैं कि उत्तरी सूडानी उनसे भेदभाव करते हैं... लेकिन दक्षिण सूडान भी अलग जाति गुटों से बना है. कल को वहाँ रहने वाली अल्पमत गुट कहने लगेगें कि डिंका लोग हमें समान अधिकार नहीं देते. पैट्रोल की सम्पदा को कैसे बाँटा जाये, भी जटिल प्रश्न होगा.
धर्म के नाम पर, या अन्य किसी जाति विभिन्नता के नाम पर अलग देश माँगना, एक ऐसा चक्कर है जो कहीं नहीं रुकता. पाकिस्तान अलग देश बना तो क्या उसके अपने बलूचियों, सिंधियों, पँजाबियों, पठानों के बीच के अंतर्विरोध मिट गये? भारत के उत्तर में कश्मीर की घाटी में इसी नाम से हिँसा आज भी जारी है. किसी भी देश के सब निवासियों को जाति, धर्म आदि के भेदों से ऊपर उठ कर विकास के समान अधिकार मिलें यह अवश्यक है, और उन्हें ऐसी सरकारें चाहियें जो यह नीति लागू कर सकें. पर जब ऐसा नहीं होता, या किसी गुट को लगे कि उसके साथ न्याय नहीं हो रहा, तो अलग अपना देश या राज्य माँगने लगते हैं. लेकिन मुझे लगता है कि अक्सर, बँटवारा चाहने वाले, समान विकास और अधिकारों के प्रश्न को महत्वपूर्ण नहीं मानते, अपनी जाति, मान, रीति और धर्म के प्रश्न उठा कर राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काते हैं और पीछे ध्येय होता है कि कैसा बाकी सब गुटों से ताकतवर बने और देश की सम्पदा को अपने काबू में रखें.

कुछ देशों में मुस्लिम बहुमत वाले इलाकों ने शरीयत पर आधारित काननों को सब पर लागू कराना चाहा है, वह ज़ोर डालते हैं कि सब लोग उनके कहे के अनुसार पहने, खायें, व्यवहार करें. इससे अलग होने की भावना तेज होती है. नाईजीरिया में इसी वजह से तनाव बढ़े हैं. भारत के कुछ हिस्सों में हिंदू संस्कृति या मुसलमान आत्मनिष्ठा के नाम पर लोगों पर इसी तरह के दबाव डालते हैं. यही वजह है कि जब सूडान के दक्षिण वाले लोगों के जनमत में अलग होने के निर्णय के बारे में सुना तो मुझे कुछ भय सा लगा कि इससे अलग होने वाले गुटों को बल मिलेगा.

आज की दुनिया की बहुत सी समस्याओं की जड़ें पिछली सदी के यूरोपीय साम्राज्यवाद में छुपी हैं. साम्राज्यवाद के समाप्त होने के बाद भी, यूरोप ने विभिन्न तरीकों से अफ्रीका, अमरीका और एशिया के देशों में अपने स्वार्थ के लिए तानाशाहों को सहारा दिया है, जिसमें देशों में रहने वाले विभिन्न गुटों को समान अधिकार नहीं मिले. आज जहाँ एक ओर विभिन्न अरब देशों में इजिप्ट, टुनिज़ि, लिबिया जैसे देशों में हो रहे जनतंत्र के आन्दोलन इस्लाम की नहीं, मानव अधिकारों के मूल्यों की आवाज़ उठा रहे हैं, वहीं जनतंत्र की दुहायी देने वाले यूरोपी नेता अपने तानाशाह मित्रों पर आये खतरे से घबरा कर "इस्लामी रूढ़िवाद" के डर की बात कर रहे हैं.

दूसरी ओर, यूरोप में रहने वाले अन्य देशों से आये प्रवासियों में रूढ़िवादी धार्मिक नेताओं की आवाज़, अपने मानव अधिकारों के नाम पर पारम्परिक रीति रिवाज़ों और मूल्यों को बनाये रहने की लिए ही उठती है. यही लोग अक्सर विदेशों से अपने देशों में रुढ़िवादी और देशों को बाँटने वाली ताकतों को पैसा भेजते हैं. वह यूरोप या अमरीका जैसे देशों में रह कर भी संस्कृति बचाने के नाम पर अपने परिवारों और गुटों पर पूरा काबू बना कर रखते हैं और आवश्यकता पड़ने पर मारने मरवाने से नहीं घबराते. उनमें नारी के समान अधिकारों या विकास की बात कम ही होती है. इस विषय यूरोप में रहने वाले मुसलमान नेताओं के बारे में फरवरी के "हँस" में शीबा जी ने लिखा हैः
कठमुल्ला वर्ग बड़ी बेशर्मी से फ्रांस के बुरक़ा बैन पर टीवी, अखबार आदि में अवतरित हो कर फ्रांस की सरकार को लोकताँत्रिक मूल्य याद दिलाने लगता है. तब इन्हें शर्म नहीं आती कि जिस मुँह से यह ज़बरदस्ती बुरक़ा उतारने को बुरा कह रहे हैं "चुनाव की आज़ादी" के आधार पर, उसी मुँह से इन्हें अरब ईरान आदि देशों में ज़बरदस्ती औरतों को बुरक़ा पहनाने की भर्त्सना भी तो करनी चाहिये जो उतना ही चुनाव के अधिकार का हनन है. लेकिन नहीं, इन्हें अरब ईरान पर उंगली उठाने की ज़रूरत महसूस नहीं होती क्योंकि वहाँ की ज़बरदस्ती इन्हें जायज़ लगती है.
पर यह बात केवल मुसलमान गुटों की नहीं है. अमरीका में रहने वाले कट्टरपंथी यहूदी गुट एक अन्य उदाहरण है जिनका ईज़राईल पर गहरा प्रभाव है.

धार्मिक रूढ़िवाद और परम्परा बनाये रखने वालों की लड़ाई है कि अपने आप को कैसे अन्य गुटों से अलग किया जाये, दुनिया को कैसे बाँटा जाये, कैसे अपने धर्म का झँडा सबसे ऊँचा किया जाये और कैसे अन्य सब धर्मों को नीचा किया जाये. उदारवाद और मानव अधिकारों की दृष्टि से देखें तो धर्म व्यक्तिगत मामला है, कानून के लिए सभी समान होने चाहिये, सबको समान अधिकार और मौके मिलने चाहिये. समय के साथ इन दोनों में से किसका पलड़ा भारी होगा, कौन से रास्ते पर जायेगी मानवता?

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सोमवार, सितंबर 20, 2010

ज़ंग लगे गुलाब

हल्की हल्की बारिश आ रही है. हवा की ठंडक से झुरझुरी सी आ रही है. ग्रीष्म ऋतु कब गयी और शिशर कब आया, पता ही नहीं चला. पेड़ों के कथ्थई, भूरे, पीले पत्तों की चादर बिछी है बाग में, उन पर चलो तो छपक छपक की गीली आवाज़ आती है और जूतों पर चिपक जाते हैं. लगता है कि बस पलक झपकूँगा तो वर्ष बीत जायेगा, समय इतनी तेज़ी से निकल रहा है. विश्वास नहीं होता कि कल लगभग इसी समय मैं मापूतो शहर में था.

चमकती हरी घास पर पानी की बूँदें. तम्बारा के बूढ़े नवयुवकों के चेहरे सामने आ जाते हैं. बालों में, आँखों में, नाक में धूल भर गयी थी. सात घँटों तक कच्ची सड़क पर जीप के धक्के खाने से कमर दर्द कर रही थी, सुबह सुबह चाय के साथ बस एक केला खाया था, भूख भी लगी थी. वे सब हमारे इन्तज़ार में स्वयंसेवकों की संस्था के दफ़्तर में बैठे थे. आसपास कोई और पक्का घर नहीं था, केवल झोपड़ियाँ. "स्वास्थ्य के अतिरिक्त और क्या समस्याएँ हैं यहाँ की?" मैंने टीबी, कुष्ठ रोग और एड्स की रिपोर्ट पढ़ने वाले नवयुवक से पूछा था. मुझे कुछ देर तक देखता रहा था, फ़िर धीरे से बोला था, "भूख, भूख है हमारी सबसे बड़ी समस्या, कुछ खाने को नहीं मिलता." उसके पिचके गाल और निराश आँखों में दबे गुस्से से हतप्रभ रह गया था, अपने आप पर बहुत शर्म आयी थी.

दस साल बीत गये लड़ाई को खत्म हुए, अब जगह जगह दबे बम जिससे बच्चों की टाँगें उड़ जाती है, बहुत कम हैं. लेकिन बीहड़ जंगल में अब भी कोई चिड़िया पशु आसानी से नहीं दिखते, लड़ाई में सब खत्म हो गया. थोड़ी दूर ही बहती है जम्बेज़ी नदी, जिसका पाट इतना चौड़ा है कि दूसरा सिरा नहीं दिखता, पर गाँव वाले बारिश के पानी के लिए तरस रहे हैं. हथियार मिल जाते हैं इस दुनिया में, बम मिल जाते हैं, सड़क, पानी नहीं मिलते.

"मेरा एक साल का बेटा मरा, पेट खराब हुआ था उसका", "मेरी छः महीने की बेटी मरी, मीसल्स से", "मेरा तीन महीने का बच्चा मरा मलेरिया से", मेरे एक अन्य प्रश्न के उत्तर में उनके मरे हुए छोटे बच्चों की सूची खत्म होने को नहीं आती थी.

"यह सब सोचने से क्या फ़ायदा", मैं स्वयं से कहता हूँ. यहाँ हरे भरे बाग में कुत्ते को सैर कराते समय, अफ्रीकी गाँव की धूल मिट्टी सपना सा लगती है.

छप छप करते हैं जूते पानी पर. क्यारी में लगे पीले गुलाब को देख कर पोलैंड के कवियत्री मारिया पाउलीकोव्सका की कविता की पंक्तियाँ याद आती हैं
पतझड़ के जंग लगे गुलाब
बारिश के सफेद हाशिये को देखते हैं - बारिश आसमान को धरती से सिल रही है
झुरझुरियों और टाँकों के साथ
कश्मीर में भी गुलाबों को जंग लगा होगा. पत्थर फैंकने वाले किशोरों की लाशों का. उनकी माँओं के आँसुओं से अब तक झील में बाढ़ नहीं आयी क्या?

बुधवार, अप्रैल 01, 2009

गायक का धर्मयुद्ध

कल रात को बोलोनिया फ़िल्म फैस्टिवल उद्घाटन हुआ जिसमें मानव अधिकारों के विषय पर बनी फ़िल्मों को दिखाया जाता है. इस बार मैं लघु फ़िल्मों के फैस्टिवल की जूरी का अध्यक्ष हूँ, जिसका फ़ायदा यह है कि कहीं पर जा कर कोई भी फ़िल्म देख लो. कल रात को मैंने अमरीकी फ़िल्मकार छाई वरसाहली की फ़िल्म "आई ब्रिंग व्हाट आई लव" (Chai Varsahely, I bring what I love, USA, 2008) यानि "मैं जिससे प्यार करता हूँ, उसे लाया हूँ", जो मुझे बहुत पसंद आयी.

फ़िल्म का विषय है सेनेगल के सुप्रसिद्ध गायक यासनदूर (Youssou N'Dour) का धर्मयुद्ध. सेनेगल में 94 प्रतिशत लोग मुसलमान हैं पर वहाँ का इस्लाम सूफ़ी इस्लाम है जिसमें कट्टरपन नहीं, जिसमें स्त्रियाँ पर्दा नहीं करती. सेनेगल के सूफ़ी इस्लाम के सबसे बड़े संत और धार्मिक नेता हैं शेख बाम्बा जो धर्मनेता होने के साथ साथ उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोपीय उपनिवेशी शासन के विरुद्ध भी लड़े थे.

यासनदूर की कहानी शुरु होती है करीब दस साल पहले जब कोई उनसे प्रश्न पूछता है कि वह रमजान के महीने में गाना क्यों नहीं गाते, क्या इसका कारण है कि इस्लाम में संगीत को हराम माना जाता है यानि गाना अच्छा काम नहीं ? यासनदूर इस बात से सहमत नहीं, सोचते हैं कि सेनेगल के जीवन में जिस तरह का इस्लाम विकसित हुआ है उसमें संगीत तो जीवन की धड़क है, बिना संगीत के जीवन भी नहीं होगा. तब उनके मन में विचार आया कि सेनेगल के सूफ़ी इस्लाम के बारे में गीत बनायें. इस एल्बम को बनाने के लिए उन्होंने मिस्री संगीतकारों को चुना और यह एल्बम सन 2001 में तैयार की गयी, इसका नाम था ईजिप्ट यानी मिस्र.


11 सितंबर 2001 में अमरीका में आतंकवादी हमलों को बाद यासनदूर को लगा कि वह समय इस्लाम के बारे में संगीत सुनाने का नहीं था, लोग इसको आतंकवाद का समर्थन समझ सकते थे, इसलिए ईजिप्ट का संगीत को उन्होंने रोक लिया और सन 2004 में रमजान के महीने में निकाला. इस एल्बम का सेनेगल में सख्त विरोध किया गया. कहा गया कि यह इस्लाम विरोधी है और बाज़ार में इसके कैसेट बेचने पर रोक लगा दी गयी.

यासनदूर को बहुत धक्का लगा पर उन्होंने हार नहीं मानी. यासनदूर कहते हैं, "यह सवाल था कि कौन यह निर्धारित करता है कि इस्लाम में क्या जायज है और क्या हराम? हमारा सूफ़ी इस्लाम क्या इस तरह से सोचता है? क्यों अरब देश वाले हमारे इस्लाम को सीमाओं में बंद करना चाहते हैं ?" उन्होंने निश्चय किया कि वह विदेशों में इजिप्ट के धर्मसंगीत को ले कर जायेंगे. मोरोक्को में फेज़ धार्मिक संगीत फैस्टिवल में उन्होंने पहली बार अपने इस संगीत को प्रस्तुत किया जिसे बहुत प्रशंसा मिली.

हर देश में मिली सफलता भी यासनदूर के मन को शाँती न दे सकी, जब अपने ही देश में जितनी बार उन्होंने इस संगीत को सुनाने की कोशिश की इसका तीव्र विरोध हुआ, मारा काटी दंगे हुए. वह इस संगीत को ले कर संत बाम्बा की दरगाह पर बनी मस्जिद में भी ले कर गये, पर वहाँ अफवाह फ़ैल गयी कि वह दरगाह में नगीं लड़कियों को नाच कराना चाहते हैं और बहुत दंगे हुए.

समय ने करवट ली जब फरवरी 2005 में "इजिप्ट" को ग्रेमी पुरस्कार मिला. सेनेगल में भी धूम मची, राष्ट्रपति ने यासनदूर को बुला कर उनका संगीत सुना और आखिरकार यासनदूर का सपना पूरा हुआ, अपने देश में अपना संगीत अपनी मर्जी से गाने का.

"मैं मुक्त हो गया इस युद्ध से, स्वंत्रता क्या होती है यह समझ आया है. हमें अपने विचारों की रक्षा करनी है, यह नहीं मानना कि कोई हमें यह बताये कि हमारे धर्म में क्या सही क्या गलत", यासनदूर कहते हैं.

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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