शनिवार, फ़रवरी 22, 2014

हमारे शरीर, सामाजिक विद्रोह व कलात्मक अभिव्यक्ति

सदियों से पैसे वाले व ताकतवर लोग अपनी तस्वीरें बनवाते आये हैं. पिछली सदी में फोटोग्राफ़ी के विस्तार से हर कोई अपनी तस्वीरें खिचवाने लगा. पिछले दशक में डिजिटल कैमरों के प्रचार से और फेसबुक, टिविटर जैसी वेबसाइट के वजह से तस्वीर खीचना और उस पर बातें करना इतना फैला है कि कुछ लोग मानते हैं कि यह सदी शब्दों की नहीं तस्वीरों की सदी कहलायेगी और इससे मानव सभ्यता में बड़ा बदलाव आयेगा. इन सब की वजह से लोगों का अपनी असहमती दिखाना, विद्रोह प्रदर्शित करना या अपनी बात को कलात्मक तरीकों से अभिव्यक्त करना, इस सब में भी नये प्रयोग हो रहे हैं.

शायद फेमेन (Femen) की विद्रोही युवतियों के बारे में आप ने सुना होगा जो कि अपने वस्त्रहीन शरीर के माध्यम से अपनी बात कहती हैं?

फेमेन का नारा है "मेरा शरीर, मेरा घोषणापत्र". फेमेन में हिस्सा लेने वाली युवतियाँ कहती हैं कि वे लोग नारी का यौनिक शोषण, तानाशाही व धर्म के माध्यम से नारी शरीर पर अधिपत्य कायम करने के विरुद्ध हैं. अक्सर फेमेन की युवतियों पर विभिन्न देशों की सरकार व पुलिस बहुत सख्ती से पेश आती हैं, शायद क्योंकि उनके इस वस्त्रहीन विद्रोह में पृतसत्ता पर आधारित समाज की नींव हिलाने वाली बात है जोकि नारी शरीर को नैतिकता से ढकने पर टिका है.

नारी का शरीर ढकना, लज्जा करना, कौमार्य बचाना आदि को विभिन्न समाजों ने इतना महत्वपूर्ण माना है कि उसे धार्मिक ग्रंथों की सहायता से भगवान के दिये आदेशों की मान्यता दी है. बचपन से ही कन्याओं को यह सिखाया जाता है कि यही नारी का जन्मजात स्वभाव है, और पुरुषों को सीख दी जाती है कि माँ, पत्नी व बहनों के इस लक्ष्मणरेखा में बाँध कर रखने में उनकी व उनके पूर्वजों की इज्जत व आत्मसम्मान निहित हैं.

फेमेन का जन्म यूक्रेन में 2008 में हुआ और जल्दी ही पूर्वी व पश्चिमी यूरोप से होता हुआ उत्तरी अफ्रीका व मध्यपूर्व के देशों तक फ़ैल गया. कुछ समय पहले, मिस्र की आलिया अलमाहदी ने जब फेसबुक के माध्यम से अपनी वस्त्रहीन तस्वीर लगा कर अपने परिवार व समाज के प्रति अपना विद्रोह अभिव्यक्त किया तो कुछ लोगों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी और उन्हें मिस्र छोड़ कर स्वीडन में शरण लेनी पड़ी. लेकिन आलिया ने देशनिकाला ले कर भी अपना विद्रोह नहीं छोड़ा, स्वीडन में मिस्री दूतावास के सामने उन्होंने वस्त्रहीन हो कर, हाथ में कुरान को ले कर अपना विद्रोह जताया (आलिया का वीडियो). इससे उनकी जान लेने वाले और बढ़ गये हैं और उन्हें कुछ कुछ दिनो में घर बदल कर, भेष बदल कर रहना पड़ रहा है.

दूसरी ओर शारीरिक नग्नता को कला के माध्यम से सामाजिक संदेश पहुँचाने का माध्यम भी बनाया गया है. अमरीकी फोटोग्राफर स्पैन्सर ट्यूनिक अपनी अमूर्त कला तस्वीरों के लिए बड़ी संख्या में लोगों की वस्त्रहीन तस्वीर खींचने के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हैं, उनके बारे में मैंने कई वर्ष पहले लिखा था.

मैं अपने शरीर के माध्यम से दुनिया को संदेश देने वाले लोगों के साहस की दाद देता हूँ. इसलिए जब मेरे ब्राज़ीली मित्र मारसेलो ने मुझसे पूछा कि क्या मैं उसके "शरीर के माध्यम से संदेश देने" के फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा लेना चाहुँगा तो मैंने तुरंत हाँ कर दी. मारसेलो के इस फोटोप्रोजेक्ट का नाम है "आ फ्लोर दा पेले" यानि "त्वचा के फ़ूल".

मारसेलो ने एडस् रोग से पीड़ित बच्चों के साथ काम किया है और वह इस फोटोप्रोजेक्ट से सामाजिक व पर्यावरण सरंक्षण का संदेश देना चाहते हैं. उनकी तस्वीरों में शरीर का कमर से ऊपर का हिस्सा वस्त्रहीन होता है जिसपर रंगों से चित्र बनाये जाते हैं. अप्रैल के महीने में मारसेलो इटली आयेगा तो इसके लिए मेरी भी तस्वीर खिंचेगी. आधे धड़ की तस्वीर खिंचवाने में कोई साहस नहीं चाहिये, इसलिए मैं चितित भी नहीं हूँ!

मैं सोच रहा हूँ कि मारसेलो की तस्वीर के लिए शरीर पर कौन सा डिजाइन बनवाना चाहिये? कुछ ऐसा होना चाहिये जिसमें भारत भी हो और प्रकृति व पर्यावरण की बात भी हो. अगर आप के पास कोई सुझाव हों तो अवश्य बताईयेगा.

जब मारसेलो मेंरी तस्वीर खीचेगा तो उसके बारे में आपको बताऊँगा. लेकिन मैं पहले भी कुछ फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा ले चुका हूँ जिनकी कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं:

(1) पहली तस्वीर मेरा कार्टून है जो मारसेलो ने सन 1997-98 के आसपास एक ब्राज़ील यात्रा के दौरान बनाया था.

Sunil Deepak by Marcelo Mendonça

(2) दूसरी तस्वीर वह है जो कुष्ठ रोग दिवस के अवसर पर एक इतालवी पोस्टर के लिए 2003 में खींची गयी थी. इस पोस्टर से कुछ दिनों के लिए मुझे कुछ प्रसिद्ध मिली थी, क्योंकि यह तस्वीर बहुत सी पत्रिकाओं में छपी थी. जहाँ जाता कुछ लोग पहचान जाते , उँगली उठा कर मेरी ओर इशारा करते.

Sunil Deepak for world leprosy day campaign 2003

(3) तीसरी तस्वीर है सन् 2011 से जब मैंने इतालवी कलाकार विर्जिनया फरीना के मृत्यू के बारे में विभिन्न संस्कृतियों में क्या विचार हैं जो कि इस विषय पर आधारित फोटोप्रोजेक्ट के लिए खिचवायी थी. इस तस्वीर को खींचने के लिए उन्होंने अँधेरे कमरे में एक टोर्च व एक गोल नली का उपयोग किया था जिससे वह मृत्यू का आभास देना चाहती थीं.

Sunil Deepak by Virginia farina

इस प्रोजेक्ट की प्रदर्शनी बोलोनिया शहर के कब्रिस्तान में सात सौ वर्ष पुरानी कब्रों के कक्ष में लगी थी. मुझे कई लोगो ने कहा था कि इसमें हिस्सा न लो, जीते जी मरने की तस्वीर खिंचवाना ठीक नहीं होगा. पर मुझे इस फोटोप्रोजेक्ट में हिस्सा लेना बहुत अच्छा लगा था.

Exhibition of Virginia farina at Certosa cemetery of Bologna

(4) चौथी तस्वीर है पिछले वर्ष से जब लाउरा फ्रास्का व लाउरा बासेगा नाम की दो युवतियों ने इटली में रहने वाले विभिन्न देशों के प्रवासियों के बारे में फोटोप्रदर्शनी बनायी थी. इसमें मुझे एक किताब की दुकान में बैठ कर किताब पढ़ते हुए दिखाया गया था.

Sunil Deepak by Laura Frasca & Laura Bassega

(5) यह अंतिम तस्वीर है इसी वर्ष यानि 2014 की. विकलाँग व्यक्तियों के मानव अधिकारों के बारे में चित्रकथा की किताब में मैं भी एक पात्र हूँ. इसको बनाने वाले कलाकार का नाम है कनजानो.

Sunil Deepak by Kanjano

मेरे विचार में एक विषय को ले कर तस्वीरें खीचने का प्रोजेक्ट बनाना कला की नयी विधि है जिससे सामाजिक संचेतना लाना कुछ आसान हो जाता है क्योंकि जितने अधिक लोग इसमें हिस्सा लेते हैं, उनमें से हर कोई फेसबुक, टिविटर, ब्लाग, आदि के माध्यम से अपने परिवार, मित्रों आदि में इसका विज्ञापन करता है और अधिक लोगों को इसके बारे में जानकारी मिलती है.

जिस तरह से मारसेलो ने अपना प्रोजेक्ट बनाया है, उसमें सभी तस्वीरें ब्लाग पर लगायी जा रही हैं इसलिए प्रदर्शनी लगाने का खर्चा नहीं है और यह प्रोजेक्ट वह धीरे धीरे कई सालों तक बना सकते हैं.

मुझे आशा है कि आप को इनसे अपना कोई फोटोप्रोजेक्ट बनाने की प्रेरणा मिलेगी! अगर   ऐसा हो तो मुझे इस बारे में अवश्य बताईयेगा.

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सोमवार, फ़रवरी 03, 2014

रेखाचित्र और स्मृतियाँ - अंतिम भाग (भाग 3)

1980 में में इटली घूमते हुए एक डिज़ाईन पुस्तिका में मैं रेखाचित्र बनाता था. उन्हीं रेखाचित्रों पर आधारित यह एक स्मृति यात्रा के विवरण का तीसरा व अंतिम भाग है. ( पहला भाग - दूसरा भाग)

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अस्पताल में कुछ मित्रों ने एक एल्पस् के पहाड़ पर चढ़ाई का कार्यक्रम बनाया था. उन्होंने मुझे भी अपने साथ चलने को कहा तो मैं तुरंत तैयार हो गया. यह निर्णय मैंने बिना सोचे समझे लिया था क्योंकि इससे पहले कभी पहाड़ पर चढ़ाई पर नहीं गया था. मित्रों ने कहा कि पहाड़ पर चढ़ने के लिए कील वाले जूते होने चाहिये, जो मेरे पास नहीं थे, तो एक मित्र से उसके जूते ले लिये.

कार यात्रा से बर्फ़ से ढके पहाड़ों के पास पहुँचे तो मन में कुछ संदेह हुआ और थोड़ा डर भी लगा कि शायद यह काम उतना आसान नहीं था जितना मैंने सोचा था. सुबह छः बजे के करीब चढ़ाई शुरु हुई. थोड़ी देर में मैं हाँफने लगा, पर कोशिश की कि अन्य लोगों को मालूम नहीं चले. दोपहर तक मेरा बुरा हाल हो चुका था. थकान व टाँगों में दर्द के अतिरिक्त एक अन्य दिक्कत भी थी - मित्र से लिए उधार के जूते मेरे पाँवों पर ठीक से नहीं बैठे थे, और जूतों की रगड़ से पैरों पर छाले पड़ने लगे थे. इसे अपने साथियों से छुपाना असंभव था. मेरे साथी मेरे पैरों को देख कर चिन्तित हो रहे थे लेकिन मैंने कहा कि आधे रास्ते से वापस नहीं जाऊँगा. शाम को करीब पाँच बजे "करेगा" (Carega) नाम के पर्वत की चोटी पर पहुँचे तो जान में जान आयी.

पर्वत की चोटी से आसपास का विहँगम दृश्य बहुत सुन्दर था. वहाँ चोटी के पास ही चढ़ाई करने वालों के लिए एक पर्यटक होस्टल था जिसमें एक डारमेटरी थी. कुछ देर आराम किया तो पैरों को राहत मिली. गर्मियाँ थीं और सूरज रात को दस बजे के करीब अस्त होता था. उस शाम को वहीं पर्वत की चोटी पर बैठ कर मैंने उस होस्टल का चित्र बनाया.

Vicenza 1980

अगले दिन सुबह नाश्ता करने के लिए होस्टल के रेस्टोरेंट में गये तो भारत में परिवार को भेजने के लिए तस्वीर वाले पोस्टकार्ड खरीदे. उस समय ईमेल, फेसबुक जैसी कोई चीज़ नहीं थी, लोग यही पोस्टकार्ड भेजते और उन पर अपने सब लोगों से दस्तखत कराते. मैं अपने पोस्टकार्डों पर हिन्दी में लिख रहा था, तो मेरे आसपास स्काउट के किशोरों का झुँड एकत्रित हो गया, सब लोग मेरी हिन्दी की लिखायी देख कर चकित हो रहे थे. फ़िर सब मुझसे कहने लगे कि मैं उनके पोस्टकार्डों पर हिन्दी में अपना नाम लिखूँ ताकि उनके पोस्टकार्ड पाने वाले उनके परिवार व मित्रगण हिन्दी में लिखे शब्द देख कर चकित हो जायें. मुझे लगा जैसे मैं कोई प्रसिद्ध नेता या अभिनेता बन गया हूँ जिससे सब लोग आटोग्राफ़ ले रहे हों!

Vicenza 1980

नाश्ता करके हम लोग वापस नीचे की ओर चले. फ़िर से जूतों की रगड़ से और नीचे जाते हुए रास्ते की कठिनाई से मेरा बुरा हाल हो गया.

उस पहाड़ यात्रा के बाद कई दिनों तक मुझे पाँवों की पट्टी करवानी पड़ी और उसके बाद दोबारा कभी ऊँचे पहाड़ों की चढ़ाई की मैंने कोशिश नहीं की. थोड़ी बहुत चढ़ाई हो या पहाड़ों के बीच में सैर हो, बस वहीं तक किया. लेकिन उस यात्रा से मन में पर्वतों के प्रति जो प्रेम जागा वह कभी कम नहीं हुआ.

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जब दिल्ली में रहते थे तो फ्राँस में मेरी एक पत्रमित्र बनी थी, मेरीक्रिस्टीन. करीब पंद्रह सालों से एक दूसरे को जानते थे और पत्रों में जीवन के न जाने कितने सुख दुख आपस में बाँट चुके थे. मेरे लिए मेरीक्रिस्टीन बहन जैसी थी. मेरे विचार में इस तरह का रिश्ता आजकल के फेसबुक, ईमेल से नहीं बन सकता, इसके लिए तो कागज़ के पन्नों पर हाथों से लिखी दिल की बातें ही चाहियें जिन्हें हम दूर देश में रहने वाले मित्र से बाँटते हैं.

मेरीक्रिस्टीन फ्राँस से मुझसे मिलने विचेन्ज़ा आयी. मैं उसके साथ आसपास के शहरों में घूमने गया.

जिस दिन उसे वापस फ्राँस जाना था, उसकी रेलगाड़ी की वेनिस से बुकिन्ग थी, तो उस दिन हम लोग सुबह वेनिस के ओर निकले. स्टेशन पर उसने अपना सूटकेस रखा और हम लोग वेनिस घूमने लगे.

एक जगह वह एक चर्च को देखने भीतर गयी तो मैं वहीं बाहर नहर के किनारे सीढ़ियों पर बैठ कर वेनिस की एक तस्वीर बनाने लगा.

Vicenza 1980

मेरीक्रिस्टीन चर्च से निकली तो उसने मुझे तस्वीर बनाते देखा और उसने पास के पुल पर जा कर मेरी तस्वीर खींच ली.

Vicenza 1980

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मेरीक्रिस्टीन की फ्राँस जाने वाली रेलगाड़ी रात को थी. जब उसकी रेलगाड़ी चली गयी तो मैंने अपनी रेलगाड़ी की खोज की. तो मालूम चला कि विचेन्ज़ा वापस जाने के लिए आखिरी रेल जा चुकी थी और अगले दिन की सुबह तक कोई अन्य गाड़ी नहीं थी.

होटल में जा कर सोने के लिए तो पास मैं पैसे नहीं थे, बाहर जा कर रेलवे स्टेशन की सीढ़ियों पर बैठ गया.

आसपास सीढ़ियों पर बहुत से लोग बैठे थे. रात कैसे बीती पता ही नहीं चला. रात भर वहाँ कुछ न कुछ चलता रहा. कभी कोई गिटार बजाता, कभी कुछ लोग उठ कर नाचने लगते, कभी कोई आपस में झगड़ा करते. मेरी डिज़ाईन पुस्तिका सारी भर चुकी थी, बस एक अन्तिम पृष्ठ बाकी थी. वहीं सीढ़ियों पर बैठ कर मैंने उन सीढ़ियों का चित्र बनाया.

Vicenza 1980

वेनिस की मेरी यादों में उस रात भर का सीढ़ियों पर बैठना और अनजाने लोगों के साथ की मस्ती की याद सबसे अनूठी है. उस पहली वेनिस यात्रा के बाद जाने कितनी बार वेनिस गया. जब भी वेनिस लौटता हूँ, उन सीढ़ियों पर पैर रखते ही, उस जादुवी रात की याद आ जाती है!

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तैंतीस वर्ष पुराने अपने रेखाचित्रों को दोबारा देख कर और उनसे जुड़ी बातों को व लोगों को याद करके बहुत अच्छा लगा. पर साथ ही कुछ दुख भी हुआ कि मैंने उसके बाद कभी रेखाचित्र नहीं बनाये. आज के डिजिटल कैमरे से तस्वीरें खींचने में आनन्द कम है, यह बात नहीं. बल्कि आज की डिजिटल तस्वीरों में जितनी स्मृतियाँ जुड़ जाती हैं वह रेखाचित्रों में सम्भव नहीं था. फ़िर भी दुख होता होता है कि रेखाचित्रों की आदत नहीं बनायी, उसे भूल गया! 

( पहला भाग - दूसरा भाग)

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हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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