शनिवार, अप्रैल 21, 2012

छुट्टियों की पहली सुबह

पिछली साल की कुछ छुट्टियाँ बची हुईं थीं. जब छोटी बहन ने कहा कि उसका नया नाटक वाशिंगटन में प्रस्तुत किया जायेगा तो सोचा कि क्यों न छुट्टियों का फ़ायदा उठाया जाये और उसके नाटक को देखने अमरीका जाया जाये? हमारे परिवार में सब लोग एक-दो कामों से संतुष्ट नहीं होते, कुछ न कुछ इधर उधर की करते ही रहते हैं. वही बात मेरी छोटी बहन की भी है. वैसे तो मनोरोग विशेषज्ञ है लेकिन साथ ही नाटक लिखने और करने का शौक है. इस नये नाटक की वह निर्देशिका भी है. नाटक का विषय है भारत की स्वाधीनता के पहले के कुछ दशक जिसमें गाँधी जी, नेहरु तथा जिन्ना के बहसों के माध्यम से भारत और पाकिस्तान के विभाजन होने की पृष्ठभूमि को समझने की कोशिश की गयी है. इसे लिखने के लिए उसने कई सालों तक शौध किया है. बस सोचा और अमरीका जा कर उसका नाटक देखने का कार्यक्रम बना लिया. इसी बहाने कुछ दिन न्यू योर्क में भी भतीजे के पास हो कर आऊँगा.

कल रविवार को सुबह अमरीका रवाना होना है, लेकिन छुट्टियों का पहला दिन आज था. सुबह उठा तो बाहर चमकती धूप देख कर मन प्रसन्न हुआ. पिछले दो तीन सप्ताहों से यहाँ उत्तरी इटली में हर दिन बारिश और ठँठक का मौसम चल रहा था. ईमेल खोलीं तो यहाँ के कला संग्रहालय का संदेश पढ़ा कि आज सुबह शहर के प्राचीन आकुर्सियो भवन में बने भित्ती चित्रों को समझने के लिए टूर का आयोजन किया गया है. यह भवन पुराने शहर के केन्द्र में बना है जहाँ कार से जाना मना है. लगा कि इतना सुन्दर दिन घर में बैठ कर नहीं, बल्कि कला संग्राहलय में भित्तीचित्रों के बारे में ज्ञान बढ़ा कर किया जाना चाहिये.

बस में जब पुराने शहर पहुँचा तो वहाँ बहुत भीड़ देखी. अधिकाँश लोग वृद्ध थे और पुरानी सिपाहियों वाली पौशाकें पहने थे. वहाँ के प्राचीन किले की दीवार पर द्वितीय महायुद्ध में जर्मन सैना के विरुद्ध लड़ाई में मरने वालों का स्मृति स्मारक बना है, जहाँ बहुत से नवजवान स्त्री पुरुषों की तस्वीरें भी लगी हैं. कुछ लोगों ने उन तस्वीरों के सामने फ़ूल चढ़ाये और सलामी दी. वहाँ युद्ध में साईकिल से एक जगह से दूसरी जगह समाचार पहुँचाने वाले सिपाही अपनी पुरानी साईकिलें ले कर खड़े थे.

Rembering soldiers of second world war, Bologna, Italy - S. Deepak, 2012

Rembering soldiers of second world war, Bologna, Italy - S. Deepak, 2012

जब भी इस तरह के अवसर होते हैं, नेता लोग भाषण देते हैं कि हम तुम्हारे बलिदानों को कभी नहीं भूलेंगे, तुम्हारा नाम अमर रहेगा, इत्यादि. पर यह सब कहने की बातें होती हैं. युद्ध में जान देने वालों को याद करने के लिए बहुत लोग नहीं थे, जो थे, सभी बूढ़े या मरने वालों के परिवार वाले.

कुछ देर स्मृति समारोह में भाग ले कर मैं कला संग्रहालय पहुँचा. भित्तिचित्रों के बारे में टूर शुरु होने की प्रतीक्षा में कुछ लोग इक्टठे हुए थे. मुझे हमेशा इस बात से अचरज होता है कि कला और सभ्यता के बारे में इतनी दिलचस्प बातें जानने का मौका मिलता है पर फ़िर भी अधिक लोग नहीं आते. खैर थोड़े लोग हों तो गाईड की बात सुनने और कला को देखने में आसानी होती है. एक घँटे का टूर था, लगा कि कुछ पलों में समाप्त हो गया हो. इस भवन में भित्तिचित्र सन 1250 में बनने शुरु हए थे. पिछली नौ शताब्दियों का इतिहास कला में देखना, यह समझना कि किस तरह समय के साथ कला की शैली में परिवर्तन आये, यह जानना कि क्यों कोई चित्र बनवाया गया, बहुत दिलचस्प लगा.

सभी भित्तिचित्रो के बारे में बताना तो कठिन होगा, पर नमूने के तौर पर आज के टूर से एक चित्र का विवरण प्रस्तुत है. यह चित्र एक गैलरी में बना है जिसे सन 1600 के पास बनवाया गया, जब बोलोनिया शहर कैथोलिक धर्म यानि पोप के शासन का हिस्सा था और पोप ने एक पादरी को शहर का गर्वनर बनाया था.

इस भित्तिचित्र में नीचे की ओर बने हैं ग्रीक देवता मर्करी यानि बुध, जो कि तारों भरे आकाश की चादर को हटा कर पीछे से स्वर्ग में क्या हो रहा है उसका दृश्य दिखा रहे हैं. स्वर्ग में दायीं ओर शान्ति तथा न्याय खड़ी हैं, उनके हाथ में पोप का मुकुट है जिसे देवताओं के राजा जुपिटर यानि बृहस्पति आशीर्वाद दे रहे हैं.

Frescoes in Municiple Museum of art, Bologna, Italy - S. Deepak, 2012

जब ईसाई धर्म आया था तो उसने प्राचीन ग्रीक तथा रोमन देवी देवताओं को झूठे देवी देवता कह कर नकार दिया था. लेकिन 1600 के आसपास रिनेसेंस काल में प्राचीन ग्रीक सभ्यता को मानव सभ्यता का सबसे उच्चतम स्वरूप कहा जाने लगा था. ग्रीक ज्ञान, वास्तुशिल्प शैली, दर्शन आदि को कलाकार, दर्शनशास्त्री, वैज्ञानिक महत्व देने लगे थे. ऐसे में यह चित्र यह दिखा रहा था कि प्राचीन ग्रीक देवता भी पोप का सम्मान करते थे. चूँकि तब तक उन पुराने देवी देवताओं की कोई पूजा नहीं करता था और न ही समाज में उनका कोई महत्व बचा था, इसलिए पोप द्वारा अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए प्राचीन ग्रीक देवी देवताओं के प्रयोग में  कोई कठिनाई नहीं थी.

टूर के बाद वहीं पर ब्राज़ील की पशु, पक्षी तथा प्राकृतिक सम्पदा पर एक प्रदर्शनी लगी थी उसे देखने गया. प्रदर्शनी देख कर निकल रहा था तो नगरनिगम के उस कक्ष के सामने से गुज़रा जहाँ सिविल विवाह होता है. अन्दर कक्ष पर नज़र पड़ी तो वहाँ साड़ी पहनी एक युवती दिखी. मन में जिज्ञाया जागी कि किसकी शादी हो रही है. अन्दर जा कर पूछा तो मालूम चला कि वालेन्तीना नाम की युवती का विवाह था जो पाकिस्तानी युवक जहीर से विवाह कर रही थी. फ़िर वालेन्तीना को देखा तो समझ में आया कि मैं उस युवती को जानता था. वह भरतनाट्यम सीखती है और उससे कई बार मुलाकात हो चुकी थी. कुछ देर के लिए मैं भी उसके विवाह में शामिल हुआ.

Marriage of Valentina and Zaheer, Bologna, Italy - S. Deepak, 2012

Marriage of Valentina and Zaheer, Bologna, Italy - S. Deepak, 2012

वालेन्तीना और जहीर विवाह के लिए अन्दर गये तो एक अन्य इतालवी युगल विवाह करके बाहर निकला. इस बार वधु वर से कुछ लम्बी थी पर जोड़ी बहुत सुन्दर थी. बाहर प्रांगण में उनके रिश्तेदारों ने उन पर चावल फैंके, गुब्बारे छोड़े, रंगीन कागज़ के फुव्हारे छोड़े. उन सब के साथ मैंने भी थोड़ी देर उनके पारिवारिक समारोह का आनन्द लिया.

Marriage in Bologna, Italy - S. Deepak, 2012

Marriage in Bologna, Italy - S. Deepak, 2012

Marriage in Bologna, Italy - S. Deepak, 2012

नगरनिगम भवन से बाहर आया तो एक अनोखी कलाकार पर दृष्टि पड़ी. एक युवती हाथ में हारमोनिका बजा रही थी और घुटने से बँधे धागों को हिला कर कठपुतलियों से नृत्य करा रही थी. उसका नाम भी वालेन्तीना था. थोड़ी देर रुक मैंने भी उसका संगीत और कठपुतली का कार्यक्रम देखा.

Valentina with music and puppets, Italy - S. Deepak, 2012

Valentina with music and puppets, Italy - S. Deepak, 2012

आखिर में जब घर पहुँचा तो लगा कि छुट्टी के पहले दिन का प्रारम्भ बढ़िया रहा. शायद इसका अर्थ है कि अमरीका में बाकी की छुट्टी भी बढ़िया ही बीतेगी. अब तो आप से अमरीका से वापस आने पर ही मुलाकात होगी.

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बुधवार, अप्रैल 04, 2012

तस्वीरों की दुनिया

पिछले तीन-चार सौ वर्षों को "लिखाई की दुनिया" कहा जा सकता है, क्योंकि इस समय में मानव इतिहास में पहली बार लिखने पढ़ने की क्षमता का आम जनता में प्रसार हुआ. धीरे धीरे इस युग में आम जीवन के बहुत से कामों के लिए लिखना पढ़ना जानना आवश्यक होने लगा. डाक से चिट्ठी भेजनी हो, बस से यात्रा करनी हो, या बैंक में एकाउँट खोलना हो, बिना लिखना पढ़ना जाने, जीवन कठिन हो गया था. बहुत से लोगों का सोचना है कि मानव सोच और उसके साथ जुड़े वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास इसी लिखने पढ़ने की क्षमता की वजह से इस युग में तेज़ी से बढ़े.

लेकिन मानवता का भविष्य कैसा होगा और क्या आने वाले समय में लिखने पढ़ने का वही महत्व रहेगा? इसके बारे में भविष्यदर्शी वैज्ञानिकों की बहस का प्रारम्भ हो चुका है. भविष्य में क्या होगा यह जानने की उत्सुकता हमेशा से ही मानव  प्रवृति का हिस्सा रही है. जो कोई भविष्य को ठीक से पहचानेगा, वह उसकी सही तैयारी भी कर सकेगा और उसे भविष्य में समद्धि तथा ताकत प्राप्त करने का मौका अधिक मिलेगा. कुछ भविष्यदर्शियों का सोचना है कि मानवता का भविष्य लिखने पढ़ने से नहीं, तस्वीरों और वीडियो से जुड़ा होगा.

मानव जाति का प्रारम्भिक विकास, दृष्टि की शक्ति यानि आँखों से दुनिया देखने की शक्ति से ही हुआ था. प्राचीन मानव के द्वारा बनाये गये सबसे पहले निशान गुफ़ाओं में बने जीव जन्तुओं तथा मानव आकृतियों के चित्र हैं. आदि मानव सामाजिक जन्तु था, गुटों में रहता था और जीव जन्तुओं के शिकार के लिए, भोजन की तलाश के लिए, और खतरों से बचने के लिए, इशारों और ध्वनि का प्रयोग करता था जिनसे मानव भाषा का विकास हुआ. गले के ऊपरी भाग में बने वाक् कक्ष (लेरिन्कस - Larynx) के विकास से हम आदि मानव की भाषा शक्ति के विकास के क्रम को समझ सकते हैं. कुछ लोग कहते हैं कि निआन्डरथाल मानव जो कि दो लाख वर्ष पहले धरती पर आया था बोल सकता था. अन्य लोग कहते हैं कि नहीं, आदि मानव में भाषा की शक्ति करीब तीस से चालिस हज़ार वर्ष पहले ही आयी. (नीचे तस्वीर में आदि मानव की कला, मोज़ाम्बीक से)

Mozambique rock paintings - S. Deepak, 2010

भाषा विकसित होने के कितने समय बाद लिखाई का आविष्कार हुआ, यह ठीक से जानना कठिन है क्योंकि प्राचीन लकड़ी या पत्तों पर लिखे आदि मानव के पहले शब्द समय के साथ नष्ट हो गये, हमारे समय तक नहीं बच सके. मानव की यह पहली लिखाई तस्वीरों से प्रभावित थी, चित्रों से ही शब्दों के रूप बने, जैसा कि पिरामिडों में मिले तीन चार हज़ार वर्ष पुराने ताबूतों तथा कब्रों से दिखता है. पुरातत्व विषेशज्ञों का कहना है कि मानव की पहली लिखाई एतिहासिक युग के प्रारम्भ में प्राचीन बेबीलोन में हुई जहाँ आज ईराक है. इस पहली लिखाई में व्यापारियों की मुहरें थीं जिन पर तिकोनाकार निशान बनाये जाते थे. तीन हज़ार साल पहले की हड़प्पा की मुहरों का भी व्यापार के लिए उपयोग होता था, यह कुछ लोग कहते हैं और इसकी लिखाई में चित्र शब्द जैसे ही थे, जिनको आज तक ठीक से नहीं समझा जा सका है. (नीचे तस्वीर में मिस्र के एक प्राचीन ताबूत पर चित्रों की भाषा)

Egyptian hieroglyphics - S. Deepak, 2010

प्राचीन समय में किताबों को छापने की सुविधा नहीं थी. हर किताब को हाथों से लिखा जाता और फ़िर हाथों से नकल करके जो कुछ प्रतियाँ बनती उनकी कीमत इतनी अधिक होती थी कि सामान्य नागरिक उन्हें नहीं खरीद सकते थे. इसलिए लिखना पढ़ना जानने वाले लोग बहुत कम होते थे. (नीचे तस्वीर में तैहरवीं शताब्दी की हाथ की लिखी किताब)

Medieval manuscript - S. Deepak, 2010

हालाँकि वर्णमाला को जोड़ कर छपाई का काम चीन में पहले प्रारम्भ हुआ लेकिन चीनी भाषा में वर्णमाला से नहीं, चित्रों से बने शब्दों में लिखते हैं, जिससे चीन में इस छपाई का विकास उतना आसान नहीं था. 1450 में यूरोप में वर्णमाला को जोड़ कर किताबों की छपाई का काम शुरु हुआ जिससे यूरोप में किताबों की कीमत कम होने लगी और यूरोप में समृद्ध परिवारों ने अपने बच्चों को लिखना पढ़ाना शुरु कर दिया. कहते हैं कि इसी लिखने पढ़ने से ही यूरोपीय विचार शक्ति बढ़ी. दुनिया कैसे बनी हैं, क्यों बनी है, पेड़ पौधै कैसे होते हैं, मानव शरीर कैसा होता है जैसी बातों पर मनन होने लगा जिससे विभिन्न विषयों का विकास हुआ, वैज्ञानिक खोजें हुई और समय के साथ उद्योगिक क्रांती आयी.

भारत में लिखने पढ़ने का काम ब्राह्मणों के हाथ में था, लेकिन उसका अधिक उपयोग प्राचीन ग्रंथों की, उनमें बिना कोई बदलाव किये हुए, उनकी नकल उतारने या धार्मिक विषयों पर लिखने पढ़ने से था. पर यूरोप के उद्योगिक विकास के साथ, यूरोपीय साम्राज्यवाद का दौर आया, अफ्रीका से लोगों को गुलाम बना कर उनका व्यापार शुरु हुआ. इसी साम्राज्यवाद और गुलामों के व्यापार के साथ, पढ़ने लिखने की क्षमता धीरे धीरे पूरे विश्व में फ़ैलने लगी. करीब पचास साठ साल पहले, साम्राज्यवाद के अंत के साथ, पढ़ने लिखने का विकास और भी तेज हो गया.

बच्चों को विद्यालय में पढ़ने भेजना यह अमीर गरीब, हर स्तरों के लोगों में होने लगा, हालाँकि बिल्कुल पूरी तरह से सारे नागरिकों में लिखने पढ़ने की क्षमता हो, यह विकासशील देशों में अभी तक संभव नहीं हो पाया है. मसलन, 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो देश की 12 प्रतिशत जनता साक्षर थी, जब कि 2011 के आँकणो के अनुसार करीब 75 प्रतिशत जनता साक्षर है. लेकिन स्त्रियों के साक्षरता, पुरुषों से अभी भी कम है. दूसरी ओर, लंदन में 1523 में 33 छपाई प्रेस थीं, और सोलहवीं शताब्दी में लन्दन में 80 प्रतिशत जनता साक्षर हो चुकी थी जबकि उस समय ईंग्लैंड के गाँवों में साक्षरता करीब 30 प्रतिशत थी. अठाहरवीं शताब्दी के आते आते, पूरे पश्चिमी यूरोप में अधिकाँश लोग साक्षर हो चुके थे. सामाजिक शौधकर्ता कहते हैं कि इसी साक्षरता से यूरोप का उद्योगिक तथा आर्थिक विकास हुआ, जिससे यूरोप के देशों ने सारी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अपने शासन बनाये. इस तरह से भारत जैसे विकासशील देशों के सामाजिक तथा आर्थिक पिछड़ेपन का एक कारण, पढ़ने लिखने की क्षमता की कमी को माना गया है.

आज दुनिया कम्प्यूटरों तथा इंटरनेट की है. कुछ दिन पहले अमरीकी पत्रिका एटलाँटिक में मेगन गार्बर का एक आलेख पढ़ा जिसमें वह लिखती हैं कि इतिहास में पहली बार तस्वीरें हर जगह आसानी से मिलने लगी हैं. इतिहास में तस्वीर मिलना बहुत कठिन था और अच्छी तस्वीर की कीमत बहुत थी.  आज यह तस्वीरें मुफ्त की मिल सकती हैं और एक खोजो तो पचास मिलती हैं. बढ़िया कैमरे जितने सस्ते आज है, पहले कभी इतने सस्ते नहीं थे. हर किसी के मोबाइल टेलीफ़ोन में कैमरा है, लोग जहाँ जाते हैं तस्वीरें खीचते हैं, वीडियो बनाते हैं, उन्हें इंटरनेट पर चढ़ा देते हैं.

इंटरनेट अब शब्दों के बजाय तस्वीरों तथा वीडियो का इंटरनेट बन रहा है. विकीपीडिया कहता है कि हर दिन 60 अरब तस्वीरें दुनिया में इंटरनेट पर चढ़ायी जाती हैं. अकेले फेसबुक पर हर दिन 20 करोड़ तस्वीरें अपलोड होती हैं. जबकि यूट्यूब पर हर मिनट में दुनिया के लोग 60 घँटे का वीडियो अपलोड करते हैं. आज अगर हम चाहें भी तो भी यूट्यूब में चढ़ाये गये केवल एक दिन के वीडियो को नहीं देख पायेंगे, उन्हें देखने के लिए हमारा जीवन छोटा पड़ने लगा है. मेगन पूछती हैं कि इसका क्या असर पड़ेगा मानव मस्तिष्क पर और मानव सभ्यता पर? क्या एक दिन हमारे जीवन में केवल तस्वीरें तथा वीडियो ही सब काम करेंगे, लिखे हुए शब्दों की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी?

दुनिया कैसे बदल रही है यह समझने के लिए बीस साल पहले की और आज की अपनी अलमारियों के बारे में सोचिये. आज न आडियो कैसेट की आवश्यकता है न सीडी की, न डीवीडी की, न किताबों की. पहले जितनी फ़िल्मों को घर में सम्भालने के लिए अलमारियाँ रखते थे, उससे कई गुना फ़िल्में, संगीत और किताबें आप जेब में पैन ड्राइव में ले कर घूम सकते हैं. शायद भविष्य में सालिड होलोग्राम जैसी किसी तकनीक से बटन दबाने से हवा में बिस्तर, सोफ़ा, कुर्सी, घर, बनेगा, जिसपर आप बैठ कर आराम करेंगे और जब बाहर जाने का समय आयेगा तो उसे बटन से आफ़ करके गुम कर देंगे, और बटन को अपनी जेब में रख लेंगे. यह बात आप को खाली दिमाग की कल्पना लग सकती है लेकिन दस साल पहले भी कोई आप से कहता कि वीडियो कैसेट फ़ैंको, कल से एक इंच के पैन के ढक्कन जितनी वस्तु में पचास फ़िल्में रख सकोगे, तो आप उसे भी खाली दिमाग की कल्पना कहते!

इन तकनीकों की बदलने की गति के सामने मानव ही मशीनों से पीछे रह गया लगता है. कुछ ब्लाग देखूँ तो हँसी आती है कि लोग अपनी तस्वीरों पर अपना नाम कोने में नहीं लिखते, बल्कि नाम को बड़ा बड़ा कर के तस्वीर के बीच में लिखते हैं, इस डर से कि कोई उन्हें चुरा न ले. देखो तो लगता है कि मानो किसी अनपढ़ माँ ने बुरी नज़र से बचाने के लिए बच्चे के चेहरे पर काला टीका लगाने के बदले सारा मुँह ही काला कर दिया हो. एक ब्लाग पर देखा कि महाश्य ने अपने वृद्ध माता पिता और बहन की तस्वीर पर भी ऊपर से इसी तरह अपना नाम चेप दिया था मानो कोई उनके माता पिता की तस्वीर को चुरा कर, उन्हें अपने माता पिता न बना ले. वैसे भी अक्सर इन तस्वीरों के स्तर विषेश बढ़िया नहीं होते, पर आप किसी भी विषय पर तस्वीर गूगल पर खोज कर देखिये, ऐसा कोई विषय नहीं जिससे आप को चुनने के लिए इंटरनेट से आप को बीस पचास बढ़िया तस्वीरें न मिलें, तो चोरी की इतनी चिन्ता क्यों?

मुझे कई लोग कहते हें कि वाह कितनी बढ़िया तस्वीरें हैं आप की, हमें भी कुछ गुर सिखाईये. लेकिन मेरे मन में अपनी तस्वीरों के बढ़िया होने का कोई भ्रम नहीं. इंटरनेट पर खोजूँ तो अपने से बढ़ कर कई हज़ार बढ़िया फोटोग्राफर मिल जायेंगे. पर एक तस्वीर में मैं क्या देखता हूँ, क्या अनुभूति है मेरी, क्या सोच है, वह सिर्फ मेरी है, उसे कोई अन्य मेरी तरह से नहीं देख सकता, और न ही चुरा सकता है.

मैं सोचता हूँ कि आज के युग में होना हमारा सौभाग्य है, क्योंकि अपने भीतर के कलाकार को व्यक्त करना आज जितना आसान है, इतिहास में पहले कभी नहीं था. कौन मुझसे बढ़िया और कौन घटिया, किसको कितने लोग पढ़ते हैं, किसने मेरा क्या चुराया, इन सब बातों को सोचना भी मुझे समय व्यर्थ करना लगता है.

मैं सोचता हूँ कि अगर आने वाला युग तस्वीरों और वीडियो का युग होगा तो शायद इस नये युग में भारत जैसे विकासशील देशों में नये आविष्कार होगें.  हमारे गरीब नागरिकों का लिखने पढ़ने वाला दिमाग नहीं विकसित हुआ तो कोई बात नहीं, हममें जीवन को समझने की दृष्टि, विपरीत बातों को समन्वय करने की शक्ति और यादाश्त के गुण तो हैं जो इस नये युग की प्रगति का आधार बनेगें.

अगर आने वाला युग तस्वीरों और वीडियो का युग होगा तो समाज में अन्य कौन से बदलाव आयेंगे, यह मैं नहीं जानता, पर शायद भारत जैसे देश उस बदलाव में कम पिछड़ेंगे. आप का क्या विचार है इस बारे में?

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हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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