रविवार, फ़रवरी 26, 2012

गिद्ध, मुर्गियाँ और इन्सान


क्या आप को कभी भारतीय शहरों में गिद्धों की याद आती है? क्या आप को याद है कि आप ने आखिरी बार किसी गिद्ध को कब देखा था? शायद आप के छोटे बच्चों ने तो गिद्ध कभी देखे ही न हों, सिवाय चिड़ियाघरों में? पिछले कुछ सालों में मैं अपनी भारत यात्राओं के बारे में सोचूँ तो मुझे एक बार भी याद नहीं कि कोई गिद्ध दिखा हो.

बचपन में हम लोग दिल्ली में झँडेवालान के पास ईदगाह वाले रास्ते के पास रहते थे. तब वहाँ गिद्धों के झुँड के झुँड दिखते थे. कुछ साल पहले उधर गया था तो उस तरफ भी कोई गिद्ध नहीं दिखे थे. लेकिन पहले इसके बारे में सोचा नहीं था. कोई चीज़ न दिखे, तो समझ में नहीं आता कि नहीं दिखी, जब तक उसके बारे में सोचो नहीं.

पिछले कुछ दशकों में भारत के नब्बे प्रतिशत गिद्ध मर चुके हैं. इसके बारे में मीरा सुब्रामणियम का आलेख पढ़ा तो दिल धक सा रह गया. अचानक याद आ गया कि कितने सालों से भारत में कभी कोई गिद्ध नहीं दिखा.

बदलती दुनिया के साथ भारत भी बदल रहा है. इसके बारे में बहुत सालों से सुन रहा था, पर गिद्धों के बारे में पढ़ कर महसूस हुआ कि सचमुच यह बदलाव कितने बड़े विशाल स्तर हो रहा है. पर बदलाव कुछ छुपा छुपा सा है. कुछ अनदेखा सा. ऐसा कि उसकी ओर सामान्य किसी का ध्यान नहीं जाता.

जितनी बार दिल्ली, बँगलौर या बम्बई जैसे शहरों में जाता हूँ, हर बार लगता है कि दमे या खाँसी या एलर्जी वाले लोग कितने बढ़ गये हैं. डाक्टर होने की यही दिक्कत है कि बीमारियों के समाचार अवश्य मिलते हैं. लोग मेरा हाल चाल पूछने के बाद, अपनी तकलीफ़ें अवश्य बताते हैं. और मुझसे सलाह भी माँगते हैं कि कौन सी दवायी लेनी चाहिये? पर वातावरण में प्रदूषण के बढ़ने से होने वाली बीमारियों को दवा कैसे ठीक कर सकती हैं? यह सोच कर मैं अक्सर कहता हूँ कि दवा के साथ कुछ दिन पहाड़ पर या गाँव में घूम आईये, उससे शायद अधिक असर होगा दवा का.

पर धीरे धीरे, हमारे गाँव और पहाड़ भी उसी प्रदूषण का शिकार हो रहे हैं. कुछ दिन पहले आकाश कपूर का लेख पढ़ा था, जिसमें वह दक्षिण भारत में पाँडेचेरी के पास एक गाँव में अपने घर से दो मील दूर कूड़ा फैंकने की जगह पर जलने वाले प्लास्टिक की बदबू और प्रदूषण की बात कर रहे हैं. उन्होंने लिखा है कि "भारत में हर वर्ष शहरों में दस करोड़ टन कूड़ा बनता है, जिसमें से करीब साठ प्रतिशत इक्टठा किया जाता है, बाकी का चालिस प्रतिशत वहीं आसपास जला दिया जाता है. कुछ कूड़ा लैंडफ़िल यानि बड़े खड्डों में भर दिया है, और वहाँ पर जलता है... भारत की पचास प्रतिशत ज़मीन ऊपरी उपजाऊ सतह खो रही है, सत्तर प्तिशत नदियों का पानी प्रदूषित है, हवा के प्रदूषण की दृष्टि से भारत दुनिया में सबसे अधिक प्रदूषित है ..". वह पूछते हैं कि वह प्रदूषण से बचने के लिए गाँव में रहने आये, लेकिन अगर प्रदूषण गाँवों को लपेट में ले लेगा तो कहाँ जायेंगे?

आर्थिक विकास भारत में कैसे लाया जाये, इसके लिए उदारीकरण का मार्ग चुना गया है. इसके लिए बहुदेशी विदेशी कम्पनियाँ भारतीय कम्पनियों से मिल कर भारत में नये तरीके के बीज और उपज बढ़ाने के लिए नये तरीके की खाद और कीटनाशक स्प्रे ला रही हैं. इस सब से वह चुपचाप होने वाली एक क्राँती हो रही है. जिससे हज़ारों सालों से किसानों द्वारा खोजे और सम्भाले हुए बीज, नये लेबोरेटरी में तैयार हुए बीजों से मिल कर नष्ट हो रहे हैं. लैबोरेटरी में बने बीजों को बहुदेशी कम्पनियाँ बेचती हैं. इनमे वह बीज भी हैं जो एक बार ही उगाये जाते हैं. उन पौधों से बीज नहीं मिलते, उन्हें नया खरीदना पड़ता है. उपज बढ़ाने के लालच में किसान ऋण लेते हैं ताकि यह बीज खरीद सकें. और ऋण न भर पाने पर आत्महत्या करते हैं.

कैमिकल खाद और कीटनाशक पौधों के कीड़े मकोड़े मारते हैं. पर यही पदार्थ नयी बीमारियाँ भी बना रहे हैं. साथ ही ज़मीन के सतह के नीचे छुपे पानी को दूषित कर रहे हैं. नवदान्य संस्था की सुश्री वन्दना शिवा जैसे लोगों ने इसके बारे में बहुत कुछ शौध किया है और लिखा भी है.

अधिकतर लोग सोचते हैं कि यह सब बेकार की बातें हैं. पर्यावरण की रक्षा कीजिये, बाँध बना कर वातावरण को नष्ट न कीजिये, खानों से प्रदूषण होता है, जैसी बातों को विकास विरोधी कहा जाता है. लेकिन यही लोग जब बाज़ार में ताज़ी सब्ज़ी खरीदने जाते हैं तो कैसे जान पाते हैं कि वह सब्जी किस तरह के कीटनाशक तत्वों के संरक्षण में उगायी गयी है? या फ़िर क्या उस सब्जी को नये बीजों से बनाया गया है, जिनका शरीर पर क्या असर पड़ता है इसका किसी को ठीक से मालूम नहीं? जिसे वह लोग बेकार की बात सोचते हैं, वही बात उनके अपने और बच्चों के जीवन पर उतना ही असर करेगी. तो कहाँ जायेंगे, साँस लेने?

माँस मछली खाने वाले सोचते हैं कि शरीर में बढ़िया पोषण पदार्थ जा रहे हैं. लेकिन यह माँस मछली कहाँ से आते हैं? आजकल अधिकतर मुर्गियाँ "ब्रोयलर चिकन" होती हैं, जो पिँजरों मे पैदा होती हैं, वहीं पिँजरों में बढ़ती हैं. सारा दिन विषेश बना चारा खाती हैं. तीन महीने में चूजा मुर्गी बन कर खाने की मेज़ पर तैयार हो कर आ जाता हैं. यह चिकन बनाने की फैक्टरियाँ होती हैं जहाँ हज़ारों लाखों की मात्रा में चिकन तैयार होता है. इसकी कीमत भी सीमित रहती है ताकि लोग खरीद सकें. एक एक पिँजरे में हज़ारों मुर्गियों को साथ रखने से उन्हें पोषित चारा देना और उनकी देखभाल आसान हो जाती है. लेकिन एक खतरा भी होता है. किसी एक मुर्गी को कुछ बीमारी लग गयी तो सारी मुर्गियों में तुरंत फ़ैल जाती है, बहुत नुक्सान होता है. इसलिए उनके चारे में एँटिबायटिक मिलाये जाते हैं ताकि उन्हें बीमारियाँ न हों. चूज़ों को एँटिबायटिक देने का एक अन्य फायदा है कि उससे वह जल्दी बड़े और मोटे होते हैं. वैसे मीट के लिए पाले जाने वाले पशुओं को एँटिबायटिक के अतिरिक्त बहुत से लोग होरमोन भी देते हैं जिससे चिकन और बकरी की मासपेशियाँ सलमान खान और हृतिक रोशन की तरह मोटी और तंदरुस्त दिखती हैं.

Poultry farming for broiler chicken

जितना वजन अधिक होगा, उतनी कमायी होगी. तो मुर्गी हो या बकरी, उसे एँटीबायटिक देना, हारमोन देना, खाने में पिसी हड्डी मिलाना, सब उन्हें मोटा करने में काम आते हैं. खाने वाले भी खुश रहते हैं कि देखो कितना सुन्दर माँस खरीदा, कितना बढ़िया और स्वादिष्ट पकवान बनेगा.

बस कुछ छोटी मोटी दिक्कते हैं. दिक्कत यह कि वही एँटीबायटिक और हारमोन माँस के साथ खाने वाले के शरीर में भी आ जाते हैं. लगातार नियमित रूप से छोटी छोटी मात्रा में एँटिबायटिक और हारमोन आप के शरीर में जाते रहें इससे आप के शरीर को कितना लाभ होगा, यह तो आप स्वयं ही सोच सकते हैं. कई शोधों ने जानवरों को दिये जाने वाले होरमोन की वजह से शहर में रहने वाले लोगों के शरीर में होने वाले कई बदलावों से जोड़ा है, जिसमें कैन्सर तथा एलर्जी जैसी बीमारियाँ भी हैं. पुरुषों के वीर्य पर असर होने से पिता न बन पाने की बात भी है.

इसी बात से जुड़ा कुछ दिन पहले एक अन्य समाचार था. इस समाचार के अनुसार अमरीका ने कहा है कि वह आयात हो कर लाये जाने वाले माँस में एँटिबायटिक तथा हारमोन की जाँच करेंगे और अगर उनमें यह पदार्थ पाये गये तो उन्हें अमरीका में आयात नहीं किया जायेगा. इस समाचार से मैक्सिकों की पशुपालक कम्पनियों में हड़बड़ी फ़ैल गयी कि इसका कैसे समाधान किया जाये. पर अमरीकी, अपने देश में वह हानिकारक माँस नहीं चाहते, लेकिन साथ ही अमरीकी कम्पनियाँ पूरे विश्व में वही हारमोन और कीटनाशक बेचती हैं, उस पर कोई रोक नहीं है.

इसी से मिलता जुलता एक समाचार कुछ दिन पहले चीन से आया था. चीनी एथलीटों को डर है कि वहाँ की मर्गियों को क्लेनबूटेरोल नाम की दवा खिलायी जाती है जो कि चिकन खाने के साथ खिलाड़ियों के शरीर में आ जाती है. इसे ओलिम्पिक वाले गैरकानूनी दवाओं में गिनते हैं. यानि ओलिम्पिक में भाग लेने वाले खिलाड़ियों के शरीर में अगर यह दवा पायी जायेगी तो उन्हें खेलों में भाग नहीं लेने दिया जायेगा. इसलिए उन खिलाड़ियों ने फैसला किया है कि अपने खाने के लिए चिकन स्वयं पालेंगे ताकि उनके शरीर में माँस के साथ इस तरह के कैमिकल पदार्थ न जायें.

लेकिन जिनको किसी ओलोम्पिक खेलों में भाग नहीं लेना, क्या उनके लिए इस तरह के कैमिकल खाना अच्छी बात है? हमारे देशों में पशुओं को कौन सा चारा या दवा खिलायी जाती है, इसकी चिन्ता कौन करता है? क्या आप डर के मारे अपनी मुर्गियाँ स्वयं अपने घर में पालेंगे?

गिद्धों के बारे में अपने आलेख में मीरा सुब्रामणियम ने  अमरीका  में किये गये एक शौध के बारे में लिखा है. गिद्धों की मृत्यु का कारण है कि भारत में जिन मृत पशुओं को वह खाते हैं के शरीर में एक दवा होती है, जिसका नाम है डाईक्लोफेनाक. इस दवा का जोड़ों के दर्द के उपचार के लिए मनुष्यों और पशुओं में प्रयोग होता है. जिन पशुओं को यह दवा दी गयी हो, उनका माँस अगर गिद्ध खाते हैं तो उनके गुर्दे नष्ट हो जाते हैं. इसी वजह से भारत के नब्बे प्रतिशत गिद्ध मर चुके हैं. यानि यह दवा इतने पशुओं को दी जाती है कि इसने भारत के अधिकतर गिद्धों को मार दिया.

मीरा जी का यह आलेख पढ़िये, और सोचिये कि अभी गिद्ध मर रहे हैं, कल वही माँस खा कर बड़े होने वाले आज के छोटे बच्चे बड़े होंगे तो क्या उनको भी नयी बीमारियाँ हो सकती है?

आधुनिक प्रदूषण ट्रेफिक के धूँए से है, शोर से है, प्लास्टिक से है, इसकी बात तो कुछ होती है. लेकिन यह प्रदूषण दवाईयों से भी है, रसायन पदार्थों से भी है, नयी तकनीकों से भी हैं, इसके बारे में कितनी जानकारी है लोगों को?

पर्यावरण और जल का प्रदूषण, खाने में मिली दवायें और कीटनाशक, बदलते बीज और फसलें! यह सब सतह के नीचे छुपे दानव सा बदलाव हो रहा है. यह ऊपर से नहीं दिखता लेकिन भीतर ही भीतर से हमारे भविष्य को खा रहा हैं. जो नेता और उद्योगपति पैसे के लालच में या अज्ञान के कारण, भारत के भविष्य को विकास और आधुनिकता के नाम पर बेच रहे हैं, यह दानव उन्हें भी नहीं छोड़ेगा. उसी हवा में उन्हें भी साँस लेनी है, उसी मिट्टी का खाना उन्हें भी खाना है.

पर क्या भारत समय रहते जागेगा और इस भविष्य को बदल सकेगा?

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गुरुवार, फ़रवरी 16, 2012

छोटा सा बड़ा जीवन


हर बार की तरह इस बार भी भारत से आते समय मेरे सामान में सबसे भारी चीज़ें किताबें थीं. उन्हीं किताबों में थी नरेन्द्र कोहली की "पूत अनोखो जायो", जो कि स्वामी विवेकानन्द की जीवनी पर लिखी गयी है. छोटा सा जीवन था स्वामी विदेकानन्द का, चालिस वर्ष के भी नहीं थे जब उनका देहांत हुआ, लेकिन वैचारिक दृष्टि से देखें तो कितनी गहरी छाप छोड़ कर गये हैं!

स्वामी विवेकानन्द के बारे में भारत में कोई न जानता हो, कम से कम मेरी अपनी पीढ़ी में, मुझे नहीं लगता. पर अधिकतर लोगों को सतही जानकारी होती है. जैसा कि मुझे मालूम था कि वे स्वामी रामकृष्ण परमहँस के शिष्य थे और उन्होंने भारत भर में रामकृष्ण मिशन स्थापित किये और अमरीका यात्रा की जहाँ बहुत से व्याख्यान आदि दिये. पर अगर कोई मुझसे पूछता कि उनकी क्या सोच थी, उनका क्या संदेश था, तो मैं कुछ ठीक से नहीं बता पाता. वह कब पैदा हुए थे, कहाँ पैदा हुए थे, कब और किस उम्र में उनकी मृत्यु हुई, यह सब भी नहीं बता सकता था. इसलिए जब नरेन्द्र कोहली की किताब दिखी तो तुरंत खरीद लिया था.

इसी पुस्तक को शायद पहले विभिन्न खँडों में "तोड़ो, कारा तोड़ो" के नाम से प्रकाशित किया गया था. इस पुस्तक के दो अंश इंटरनेट पर श्री नरेन्द्र कोहली के वेबपृष्ठ पर भी उपलब्ध हैं.

Put anokho jayo book cover

करीब 650 पन्नो की मोटी किताब है जिसमें नरेन्द्र दत्त यानि स्वामी विवेकानन्द के लड़कपन से ले कर मृत्यु के कुछ साल पहले तक का जीवन है. उनके बारे में सबसे अनौखी बात लगी कि जिस नाम से उन्हें उनके घर वाले बुलाते थे यानि नरेन्द्र या जिस नाम से उन्होंने सन्यास की दीक्षा ली, यानि विविदिषानन्द, उन दोनो नामों को आज बहुत कम लोग जानते होंगे, जबकि उनका नाम "विवेकानन्द" ही प्रसिद्ध हुआ जो कि उन्हें अपने जीवन के अन्त में मिला था, शायद इसीलिए क्योंकि इसी नाम से वह अमरीका गये थे और वहाँ प्रसिद्ध हुए थे.

इन नामों के अतिरिक्त अपने सन्यासी जीवन में उन्होंने अन्य कई नामों का प्रयोग किया जैसे कि नित्यानन्द, सच्चिदानन्द और चिन्मयानन्द. उनका नाम विवेकानन्द उन्हें खेतड़ी के राजा अजीतसिंह ने सुझाया था. नामों से मोह न करना, अपने आप को ईश्वर का निमित्त समझना, सन्यासी भावना का ही प्रतीक था.

उनका कलकत्ता में पैदा होना, पिता की मृत्यु, कोलिज में कानून पढ़ना, ब्रह्म समाज में शामिल होना और मन्दिर जाने या मूर्ति पूजा में विश्वास न करना, तर्क की बुनियाद पर आध्यात्मिकता पर प्रश्न पूछना और जानने की कोशिश करना कि भगवान है या नहीं, और फ़िर काली मन्दिर में परमहँस से मुलाकात और धीरे धीरे परमहँस के साथ बँध जाना और सन्यास लेने का निर्णय, उनकी सोच में धीरे धीरे बदलाव, योग और ध्यान से आध्यात्मिक अनुभव, सब बातें किताब में बहुत खूबी से लिखी गयी हैं.

उपन्यास के प्रारम्भ का नरेन दत्त सामान्य लड़का दिखता है जिसके सपने हैं, परिवार के प्रति ज़िम्मेदारियाँ हैं, विधवा माँ, छोटे भाई बहनों की चिन्ता है. पर धीरे धीरे नरेन्द्र इन सब बँधनो से दूर हो जाते हैं और पर्वतों पर तपस्या को निकल पड़ते हैं.

सन्यास लेते समय नरेन्द्र दत्त के शपथ लेने का वर्णन इस जीवन कथा में इन शब्दों में हैः "स्मरण रहे तुमने सन्यास की विधिवत् दीक्षा ली है. अब तुम सन्यासी हो, परमहँस सन्यासी. तुम अपना श्राद्ध स्वयं अपने हाथों कर चुके. अपना पिंडदान कर चुके. अपने परिवार और समाज के लिए तुम मृतक समान हुए. तुम्हारी कोई जाति नहीं, गोत्र नहीं. तुम सामाजिक विधि निषेध से मुक्त हुए. यज्ञोपवीत से मुक्त हुए. तुम किसी भी जाति अथवा धर्म के व्यक्ति का छुआ और पकाया हुआ भोजन खा सकते हो. तुमने सामाजिक विधि  निषेध  को त्यागा, सामाजिक विधि  निषेध  ने तुम्हें त्यागा."

इस शपथ को पढ़ कर मेरे मन में बहुत प्रश्न उठे. क्या यह शपथ हर सन्यासी लेता है? इतिहासिक रूप में यह शपथ कब बनी होगी? अगर हमारे सन्यासी, ऋषि, मुनि यह शपथ लेते थे तो हमारे धर्म ग्रंथों में जातिवाद इतना गहरा क्यों फ़ैला और विवेकानन्द से पहले हमारे सन्यासियों ने भारत में जातिवाद से उठने का कार्य क्यों नहीं किया? पुस्तक में कई घटनाओं का वर्णन है जिसमें स्वामी विवेकानन्द का जाति से जुड़े अपने संस्कारों को बदलने का प्रयास है और अन्य धर्मों एवं तथाकथित "निम्न जातियों" के लोगों से निकटता के सम्बन्ध बनाने की बाते हैं, जैसे कि इस दृश्य में:
"क्या कह रहे हैं बाबा जी! आप मेरी चिलम पीयेंगे! मैं जात का भंगी हूँ महाराज!"
"भंगी?" नरेन्द्र का हाथ सहज रूप से पीछे हट गया और मन अनुपलब्धता की भावना से निराश हो कर बुझ गया... सहसा वह सजग हुआ. उसके मन में बैठा कोई प्रकाश बिन्दु उसे लगातार धिक्कार रहा था. वह कैसा परमहँस सन्यासी है, जो जाति विचार करता है और भंगी को हीन मान कर उसकी चिलम नहीं पीता? वह कैसा वेदान्ती है, जो प्रत्येक जीव में छिपे ब्रह्म को नहीं पहचान पाता?
पुस्तक में कई जगह स्वामी विवेकानन्द के चिलम, चुरुट और सिगरेट पीने की बात है, जिनसे मन में थोड़ा सा आश्वर्य हुआ. जाने क्यों मन में छवि थी कि इतने विद्वान हो कर स्वामी जी में इस तरह की आदतें कैसे हो सकती थी? इस तरह के विचार उस समय, यानि सन् 1890 के परिवेश में चिलम, हुक्का आदि पीने की सोच को ध्यान में नहीं रखते थे और उन्हें आजकल की सोच की कसौटी पर परखते थे. हालाँकि उन्नीस सौ सत्तर अस्सी के दशकों तक अस्पतालों में डाक्टरों तक का सिगरेट सिगार पीना आम बात होती थी.

वैसे तो मुझे इस किताब के बहुत से हिस्से अच्छे लगे. उनमें से वह हिस्सा भी है जिसमें नरेन के साधू बनने की राह पर अपनी माँ से बदलते सम्बन्ध की छवि मिलती हैः
"तुम क्या चाहती हो माँ?"
"अपनी पुस्तकें ले. नानी के घर जा. "तंग" में बैठ कर एकाग्र हो कर कानून की पढ़ाई कर. परीक्षा में अच्छे अंक ले कर उत्तीर्ण हो. वकील बन कर धनार्जन कर तथा माँ और भाईयों का पालन कर." ...
"तुम जानती हो माँ, तुम्हारी इच्छा मेरे लिए क्या अर्थ रखती है!"
"जानती हूँ." भुवनेश्वरी बोली, "यह भी जानती हूँ कि तेरा सुख मेरे लिए कितना महत्वपूर्ण है." भुवनेश्वरी क्षण भर के लिए रुकी, "पर यह भी सोचती हूँ कि तूने मेरे गर्भ से जन्म ले कर मुझे कितना सुख दिया है, कहीं तू अपनी तपस्या से मुझे उतना ही दुःख तो नहीं देने वाला?"
नरेन्द्र क्षण भर मौन खड़ा रहा, फ़िर उसने दृष्टि भर कर माँ को देखा, "मैं तुम्हें दुःख नहीं दूँगा माँ! पर यह भी सत्य है कि मैंने तुम्हे कभी कोई सुख भी नहीं दिया है."
भुवनेश्वरी ने कुछ चकित हो कर उसकी ओर देखा, "यह तू क्या कह रहा है रे?"
"माँ! तुम्हें सुखी किया है मेरे प्रति तुम्हारे मोह ने." नरेन्द्र बोला, "और जहाँ मोह होगा वहाँ दुःख भी आयेगा. अपने मोह को प्रेम में बदल लो माँ, मैं ही क्या तुम्हें कोई भी दुःख नहीं दे पायेगा."
भुवनेश्वरी की आँखें कुछ और खुल गयीं, जैसे किसी अनपेक्षित विराटता को देख कर स्तब्ध रह गईं हों और फ़िर बोलीं, "ईश्वर की माया भी यदि मोह में नहीं डालेगी तो यह लीला कैसे चलेगी. अब अपना कपट छोड़. ऋषियों की बोली मत बोल. मेरा पुत्र ही बना रह और जो कह रही हूँ, वही कर."
मुझे विवेकानन्द का "पव आहारी" बाबा से मिलने का दृश्य और उनकी बातचीत भी बहुत अच्छे लगेः
"ईश्वर अपने उन्हीं भक्तों को कष्ट क्यों देता है बाबा?"
"कष्ट!" बाबा मुस्कराए, "कष्ट क्या होता है भक्त? ये तो सब मेरे प्रियतम के पास से आये हुए दूत हैं. यह उसका प्रेम है. आप को क्या उसके प्रेम की पहचान नहीं है? जिनसे रुष्ट होता है, उन्हें इतना सुख देता है कि वे उसे भूल जाते हैं... कर्म के साथ कामना मत जोड़ो, उसे निष्काम ही रहने दो. एकाग्र हो कर कर्म करो. पूर्ण तल्लीनता से. जिस प्रकार श्री रघुनाथ जी की पूजा अंतःकरण की पूर्ण तल्लीनता से करते हो, उसी एकाग्रता और लगन से ताँबे के क्षुद्र बर्तन को भी माँजो. यही कर्म रहस्य है. जस साधन तस सिद्धि. अर्थात ध्येय प्राप्ति के साधनो से वैसा ही प्रेम रखना चाहिये मानो वह स्वयं ही ध्येय हों."
किताब के विवेकानन्द का जीवन मानव की ईश्वर की खोज में भटकने और रास्ता पाने का वर्णन है. जिस युवक में ठाकुर यानि रामकृष्ण परमहँस को तुरंत देवी माँ का वास दिखता है लेकिन स्वयं विवेकानन्द अपने आप को सामान्य साधक ही मानते हैं जो जीवन भर परमेश्वर की खोज में लगे रहते हैं. उनके मन में वही प्रश्न थे जो आध्यात्मिक मार्ग पर जाने वाले अन्य लोगों के मनों में होते हैं. इस यात्रा में वह अन्य धर्मों के लोगों से मित्रता बनाते हैं और उनसे ईश्वर के बारे में बहस करते हैं. जैसे कि अपनी भारत यात्रा में वह अलवर में एक मुसलमान मित्र के घर पर रुके थे, जलालुद्दीन.

एक अन्य मुसलमान मित्र फैजअली से उनकी बातचीत कि दुनिया में क्यों विभिन्न धर्म बने भी बहुत दिलचस्प हैः
"तो फ़िर इतनी प्रकार के मनुष्य क्यों बनाये? हिंदू बनाये, मुसलमान बनाये, ईसाई बनाये, यहूदी बनाये. उन सबको अलग अलग धार्मिक ग्रंथ दिये. एक ही जैसे मनुष्य बनाने में उसे क्या  एतराज़ था, ताकि लोग न बँटते और न आपस में मतभेद होता. न कोई लड़ाई झगड़ा होता."
स्वामी हँस पड़े, "कैसी होती वह सृष्टि, जिसमें एक ही प्रकार के फ़ूल होते. केवल गुलाब होता, कमल न होता. कमल होता तो गुलाब न होता, गेंदा न होता, मौलश्री न होती, रजनीगंधा का फ़ूल न होता? ...इसीलिए उसने इतनी प्रकार के जीव जंतु और मनुष्य बनाये कि हम पिंजरे का भेद भुला कर जीव की एकता को पहचानें." ...
"तो ऐसा क्यों है कि एक मजहब में कहा गया कि गाय और सूअर खाओ, दूसरे में कहा गया कि गाय मत खाओ, सूअर खाओ, तीसरे में कहा गया, गाय खाओ सूअर  मत  खाओ. इतना ही नहीं जो खाये उसे अपना दुश्मन समझो."
स्वामी हँस पड़े, "मेरे प्रभु ने कहा यह सब?"
"मज़हबी लोग तो यही कहते हैं."
"देखो! किसी भी देश प्रदेश का भोजन वहां की जलवायु की देन है. सागरतट पर बसने वाला आदमी समुद्र में खेती तो नहीं कर सकता, वह सागर से पकड़ कर मछलियाँ ही तो खायेगा. उपजाऊ भूमि के प्रदेश में खेती बाड़ी हो सकती है, वहाँ अन्न, फ़ल और शाक पात उगाया जा सकता है. उन्हें अपनी खेती के लिए गाय और बैल बहुत उपयोगी लगे. उन्होंने गाय को अपनी माता माना, धरती को माता माना, नदी को माता माना, वे सब उनका पालन पोषण माता के समान ही करती हैं. अब जहाँ मरुभूमि हो, वहां खेती कैसे होगी? खेती नहीं होगी तो वह गाय और बैलों का क्या करेंगे? अन्न नहीं है तो खाद्य के रूप में वह पशुओं को ही खायेंगे. तिब्बत में कोई शाकाहारी कैसे हो सकता है? वही स्थिति अरब देशों में है..."
जब भी विभिन्न धर्मों के लोगों की शिकायतों के बारे में पढ़ता हूँ कि उसने हमारे धर्म का उपहास किया, उसने हमारे भगवान को गाली दी या उनका अपमान किया, तो अक्सर मुझे लगता है कि यह लोग अपने मन की अपने धर्म के प्रति असुरक्षा की भावना से ऐसा कहते या सोचते हैं वरना सर्वशक्तिशाली भगवान या इष्टदेव का अपमान आम मानव करे यह कैसे संभव है? इसी विषय पर पुस्तक में विवेकानन्द के विचार हैं जो मुझे अच्छे लगेः
"मां तुम ऐसा क्यों करती हो? किसी के मन में प्रेरणा बन कर उभरती हो कि वह तुम्हारी प्रतिमा बनाये, तुम्हारा मन्दिर बनाये और कहीं और किसी के मन को प्रेरित करती हो वह तुम्हारे मन्दिर को तोड़ दे, प्रतिमा को खंडित कर तुम्हें अपमानित करे?
सहसा स्वामी का मन ठहर गया. क्या मां भी मान अपमान का अनुभव करती है? क्या अपना मन्दिर बनता देख, वे प्रसन्न होती हैं? और मन्दिर के खँडित होने पर उनको कष्ट होता है? क्या मां को भी यश की तृष्णा है? उन्हें भी सम्मान की भूख है? ऐसा होता तो उनका मन्दिर कैसे टूट सकता था? उनकी प्रतिमा कैसे खँडित हो सकती थी? यह तो मनुष्य का ही मन था कि अपने अहंकारवश स्वयं को सारी सृष्टि से पृथक मानता था, अपने मान सम्मान की चिन्ता करता था, अपना यश अपयश मानता था, स्वयं को किसी से छोटा और किसी से बड़ा मानता था."
आज जो लोग हिन्दू धर्म की दुहाई दे कर यह कहते हैं कि धर्म ग्रंथ की बात को बिना प्रश्न के मान लो और अगर रामानुज जैसे विद्वान रामायण की परम्परा पर विभिन्न रामायण ग्रंथों की विवेचना करते हैं तो उसके विरुद्ध खड़े हो जाते हैं, उनके लिए स्वामी विवेकानन्द का विदेश जाने की बात पर एक पँडित से बहस को पढ़ना उपयोगी हो सकता है.

स्वामी जी ने उसे कहा, "प्रत्येक सुशिक्षित हिन्दू का यह दायित्व है कि वह हिन्दू सिद्धांतों को व्यवहारिकता की कसौटी पर कसे. हमें अपनी भूतकालीन अंध गुफ़ाओं से बाहर निकलना चाहिये और आगे बढ़ते हुए प्रगतिशील विश्व को देखना और समझना चाहिये...समय है कि क्षुद्रजन अपना अधिकार मांगें. सुशिक्षित हिन्दूओं का यह दायित्व है कि वे दमित और पिछड़े हुए लोगों को शिक्षा दे कर उन्हें आगे बढ़ायें, उन्हें आर्य बनायें. सामाजिक समता का सिद्धांत अपनायें, पुरोहितों के पाखँडों को निर्मूल करें, जातिवाद के दूषित सिद्धांतों को समाप्त करें, और धर्म के उच्चतर सिद्धांतों को प्रकट कर उन्हें व्यवहार में लायें."

ऐसा नहीं कि मैं धर्म सम्बन्धी सभी बातों में स्वामी विवेकानन्द के विचारों से सहमत हूँ, विषेशकर पुर्नजन्म और पिछले जन्मों के कर्मों से जुड़ी बातों में मुझे विश्चास नहीं. लेकिन यह किताब पढ़ना मुझे अच्छा लगा क्योंकि इसमे उनके विचार क्यों और कैसे बने का बहुत अच्छा विवरण है.

नरेन्द्र कोहली ने यह किताब बहुत सुन्दर लिखी है और अगर आप विवेकानन्द के जीवन तथा विचारों के बारे में जानना चाहते हैं तो इसे अवश्य पढ़िये. इसे लिखने के लिए अवश्य उन्होंने कई वर्षों तक शौध किया होगा.

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मंगलवार, फ़रवरी 07, 2012

यात्रा की तैयारी


मुझे चीनी, जापानी और कोरियाई फ़िल्में बहुत अच्छी लगती हैं, और अगर मौका लगे तो मैं उन्हें देखने से नहीं चूकता. घर में सबको यह बात मालूम है इसलिए इन देशों की कोई नयी अच्छी फ़िल्म निकले तो अक्सर मेरा बेटा या पत्नि मुझे तुरंत उसकी डीवीडी भेंट में दे देते हैं. कुछ दिन पहले मेरा बेटा मेरे लिए एक जापानी फ़िल्म की डीवीडी ले कर आया जिसका जापानी नाम था "ओकूरिबीतो" (Okuribito) यानि "यात्रा के सहायक" और अंग्रेज़ी नाम था "डिपार्चरस्" (Departures) यानि "प्रस्थान".

Departures - Okuribito

जापानी लेखक आओकी शिन्मोन (Aoki Shinmon) की आत्मकथा "नोकाम्फू निक्की" (Nokanfu Nikki) पर आधारित इस फ़िल्म को सन 2008 में सबसे बढ़िया विदेशी फ़िल्म के लिए ओस्कर पुरस्कार मिला था. इस फ़िल्म का विषय है मृत शरीरों को दाह संस्कार से पहले तैयार करना. मैंने डीवीडी के पीछे फ़िल्म के विषय के बारे में पढ़ा तो चौंक गया. बेटे को कुछ नहीं कहा लेकिन मन में सोचा कि इस तरह के उदासी पूर्ण विषय पर बनी फ़िल्म को नहीं देखूँगा.

मृत्यु के बारे में हम लोग सोचना नहीं चाहते, मन में शायद कहीं यह बात छुपी रहती है कि इस डरावने विषय के बारे में सोचेंगे नहीं तो शायद मृत्यु से बच जायेंगे. इसलिए मन में यह बात भी आयी कि इस फ़िल्म का निर्देशक कैसा होगा जिसने इस तरह की फ़िल्म बनानी चाही? यह भी कुछ अज़ीब लगा कि इस विषय पर बनी फ़िल्म को इतना बड़ा पुरस्कार मिल गया और उसी वर्ष भारत की ओर से "तारे ज़मीन पर" ओस्कर के लिए भेजी गयी थी, लेकिन उसे यह पुरस्कार नहीं मिला था. यानि क्या "ओकूरिबीतो" हमारी "तारे ज़मीन पर" से अधिक अच्छी फ़िल्म थी?

इसी तरह की बातें सोच कर मन में आया कि फ़िल्म को देखने की कोशिश करनी चाहिये. सोचा कि थोड़ी सी देखूँगा, अगर बहुत दिल घबरायेगा तो तुरन्त बन्द कर दूँगा.

जिस दिन यह फ़िल्म देखने बैठा, उस दिन घर पर अकेला था. फ़िल्म शुरु हुई. पहला दृश्य धुँध का था जिसमें गाड़ी में दो लोग एक घर पहुँचते हैं, जहाँ लोग शोक में बैठे हैं, सामने एक नवजवान युवती का चद्दर से ढका हुआ मृत शरीर पड़ा है. अच्छा, जापान में कोई मरे तो इस तरह करते हैं, वह दृश्य देखते हुए मैंने मन में सोचा कि इस फ़िल्म के बहाने यह समझने का मौका मिलेगा कि जापान में मृत लोगों के संस्कार की क्या रीति रिवाज़ हैं. यह भी समझ में आया कि मृत्यु का विषय कुछ कुछ सेक्स के विषय जैसा है, यानि उसके बारे में मन में जिज्ञासा तो होती है लेकिन इसके बारे में जानने का कोई आसान तरीका नहीं होता.

अलग अलग सभ्यताओं में मरने के रीति रिवाज़ क्या होते हैं, इसके बारे में जानना बहुत कठिन है. हम किसी नयी जगह, नये देश को देखने जाते हैं तो अधिक से अधिक कोई कब्रिस्तान देख सकते हैं या दाह संस्कार या कब्र में गाढ़ने के लिए शरीर को ले जाते हुए देख सकते हैं, लेकिन सीधा मृत्यु से सामना कभी नहीं होता.
यह पहला दृश्य इतना गम्भीर था, पर अचानक फ़िल्म में कुछ अप्रत्याशित सा होता है, जिससे गम्भीरता के बदले हँसी सी आ गयी. तब समझ में आया कि यह फ़िल्म देखना उतना कठिन नहीं होगा जैसा मैं सोच रहा था, बल्कि शायद मज़ेदार हो! बस एक बार मन लगा तो फ़िर पूरी फ़िल्म देख कर ही उठा. बहुत अच्छी लगी मुझे यह फ़िल्म, हल्की फ़ुलकी सी, पर साथ ही जीवन का गहरा सन्देश देती हुई.

कथानक: फ़िल्म के नायक हैं दाईगो (मासाहीरो मोटोकी) जो कि टोकियो में शास्त्रीय संगीत के ओर्केस्ट्रा में बड़ा वाला वायलिन जैसा वाद्य बजाते हैं जिसे सेलो कहते हैं. दाईगो की पत्नी है मिका (रयोको हिरोसुए) जो कि वेबडिसाईनर है. घाटे की वजह से जब आर्केस्ट्रा बन्द हो जाता है तो दाईगो बेरोज़गार हो जाता है. वह जानता है कि सेलो बजाने में वह उतने बढ़िया नहीं हैं और संगीत का अन्य काम उन्हें आसानी से नहीं मिलेगा इसलिए वह अपनी पत्नी से कहता है कि चलो सकाटा रहने चलते हैं, वहाँ काम खोजूँगा. सकाटा छोटा सा शहर है जहाँ दाईगो की माँ का घर था जिसमें वह एक काफी की दुकान चलाती थी.

सकाटा में दाईगो अखबार में इश्तहार देखता है जिसमें "यात्रियों की सहायता के लिए" किसी की खोज की जा रही है और सोचता है कि शायद किसी ट्रेवल एजेंसी का काम है. वह वहाँ काम माँगने के लिए जाता है तो उसकी मुलाकात वहाँ काम करने वाली यूरिको (किमिको यो) और एजेंसी के मालिक यामाशीता (त्सूतोमो यामाज़ाकी) से होती है, जो उसे तुरंत काम पर रख लेते हैं. तब दाईगो को समझ में आता है कि वह मृत व्यक्तियों की शरीर की अंतिम संस्कार की तैयारी कराने वाली एजेंसी है.

प्रारम्भ में दाईगो बहुत घबराता है, लेकिन पगार इतनी बढ़िया है कि काम नहीं छोड़ना चाहता.  मिका यही सोचती है कि उसका पति किसी ट्रेवल एजेंसी में काम करता है. वे लोग करीब ही स्नान घर चलाने वाली त्सूयाको के पास अक्सर जाते है, जोकि दाईगो की माँ की मित्र थी.

Departures - Okuribito
दाईगो के काम को उसके पुराने मित्र नफ़रत की दृष्टि से देखते हैं कि वह अशुभ काम है, लेकिन दाईगो को समझ आ गया है कि मृत व्यक्ति को प्यार से अंतिम यात्रा के लिए इस तरह से तैयार करना कि उसके प्रियजन उस व्यक्ति की सुन्दर याद को मन में रखे, ज़िम्मेदारी का काम है. वह सोचता है कि शोक में डूबे परिवार के लोगों को सांत्वना देना अच्छा काम है और वह इस काम से खुश है.

मिका को जब पता चलता है कि उसका पति क्या काम करता है, उसे बहुत धक्का लगता है. वह दाईगो को यह काम छोड़ने के लिए कहती है लेकिन दाईगो नहीं मानता और मिका उसे छोड़ कर वापस टोकियो चली जाती है. घर में अकेले रह गये दाईगो को अपने साथ काम करने वाले यूरिको और यामाशीता का सहारा मिलता है. कुछ दिन बाद मिका लौट आती है, यह बताने कि वह गर्भवती है, "अब तुम्हें यह काम छोड़ना ही पड़ेगा. अपने होने वाले बच्चे का सोचो, उससे लोग पूछेंगे कि तुम्हारे पिता क्या करते हैं तो वह क्या जबाव देगा?"

इससे पहले कि दाईगो उसे उत्तर दे, मालूम चलता है कि स्नानघर वाली त्सूयाको का देहांत हो गया है. दाईगो को त्सूयाको को भी तैयार करना है, और परिवार के शोक में मिका को भी शामिल होना पड़ता है. तब पहली बार मिका और दाईगो का मित्र देखते हैं कि मृत शरीर को तैयार कैसे किया जाता है और दाईगो का काम क्या है. मिका को समझ आ जाता है कि उसके पति का काम बुरा नहीं.

टिप्पणी: शायद फ़िल्म की कहानी कुछ विषेश न लगे लेकिन फ़िल्म देखने से सचमुच मेरा भी मृत शरीर को देखने का नज़रिया बदल गया. फ़िल्म में कुछ भावुक करने वाले दृश्य हैं पर अधिकतर फ़िल्म गम्भीर दृश्य में भी मुस्कराने की कुछ बात कर ही देती है जिससे गम्भीर नहीं रहा जाता. पहले देखने में इतना हिचकिचा रहा था, एक बार देखी तो इतनी अच्छी लगी कि दो दिन बाद दोबारा देखना चाहा.

कहते हैं कि जापान के प्रधान मंत्री ने इस फ़िल्म की डीवीडी को चीन के राष्ट्रपति को भेंट में दिया था. जापान में भी मृत्यु के विषय को बुरा मानते हैं और फ़िल्म के निर्देशक योजिरो ताकिता को विश्वास नहीं था कि उनकी फ़िल्म को सफलता मिलेगी. फ़िल्म बनाने में उन्हें दस साल लगे और दाईगो का भाग निभाने वाले अभिनेता मासाहीरो ने सचमुच मृत शरीरों को कैसे तैयार करते हैं यह सीखा.

फ़िल्म में श्री जो हिसाइशी (Joe Hisaishi) का संगीत है जो दिल को छू लेता है, मुझे सबसे अच्छा लगी "ओकूरिबीतो" यानि "मेमोरी" (याद) की धुन, फ़िल्म समाप्त होने के बाद भी मेरे दिमाग में घूमती रही.

भारत में जब कोई मरता है तो उसे भी नहला कर अंतिम संस्कार के लिए तैयार किया जाता है पर यह काम परिवार के लोग करते हैं. जापान में यह काम किसी एजेंसी वाले करते हैं. स्त्री हो या पुरुष, उन्हें शोक करते हुए परिवार वालों के सामने ही शव का अंतिम स्नान करके कपड़े बदलने होते हैं लेकिन सब इस तरह कि शरीर की नग्नता किसी के सामने नहीं आये और शव की गरिमा बनी रहे. यह कैसे हो सकता है उसे समझने के लिए यह फ़िल्म देखना आवश्यक है.

जापान में मृत व्यक्ति चाहे किसी भी धर्म का हो उसे इसी तरह तैयार करके ताबूत में रखा जाता है फ़िर बुद्ध धर्म वाले उसे बिजली के दाहग्रह में जलाने ले जाते हैं जबकि इसाई उसे कब्रिस्तान ले जाते हैं. जापानी समाज में मृत्यु से सम्बधित बहुत सी छोटी छोटी बाते हैं जो कि फ़िल्म देख कर ही समझ में आती हैं.

अगर आप को मौका मिले तो इस फ़िल्म को अवश्य देखियेगा, फ़िल्म के विषय का सोच कर डरियेगा नहीं.

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रविवार, फ़रवरी 05, 2012

छोटू, नन्हे और रामू काका


एक दो दिन पहले टीवी के सीरियल तथा फ़िल्में बाने वाली एकता कपूर का एक साक्षात्कार पढ़ा जिसमें उनसे पूछा गया कि क्या आप को अपने बीते दिनों की अपनी किसी बात पर पछतावा है, जिसके लिए आज आप चाह कर भी क्षमा नहीं माँग सकती. उन्होंने उत्तर दिया कि  "हाँ, मेरे पास अम्मा के लिए समय नहीं था. उन्होंने 27 साल तक हमारी देख भाल की. जब वह मर रहीं थीं तो मैं अपने काम में इतना व्यस्त थी कि उनके पास नहीं थी."

"स्वदेश" के मोहन भार्गव (शाहरुख खान) ऐसे ही पछतावे से प्रेरित हो अपनी बचपन की कावेरी अम्मा को मिलने के लिए भारत आते हैं.

"आई एम कलाम" का छोटू भट्टी साहब के ढाबे में काम करता है. काम तो बहुत करना पड़ता है और उसे पढ़ने का समय भी नहीं मिलता, लेकिन भट्टी बुरा आदमी नहीं है, वह छोटू से प्यार से बात करता है.

साठ सत्तर के दशक में फ़िल्मों में मध्यवर्गीय बड़े परिवार होते थे जिनमें घर में काम करने वाले पुराना वफ़ादार नौकर अवश्य होता था जिसे घर के लोग अक्सर रामू काका कहते थे. मनमोहन कृष्ण, ए. के. हँगल, सत्येन कप्पू, नाना पलसीकर जैसे अभिनेता यह भाग निभाने के लिए प्रसिद्ध थे. महमूद ने भी यह भाग बहुत सी फ़िल्मों में निभाया था, पर उनके अभिनीत नौकर खुशमिज़ाज़ होते थे जिन्हें अक्सर घर में काम करनी वाली लड़की से प्यार होता था, जबकि बाकि लोगों द्वारा अभिनीत नौकरों को दुखी या गम्भीर दिखाया जाता था. नब्बे के दशक में राजश्री की फ़िल्मों में लक्ष्मीकाँत बिर्डे ने यही भाग कई फ़िल्मों में निभाये थे.

अगर उन फ़िल्मों की बात करें जिनमें घर में काम करने वाले नौकर का भाग प्रमुख था तो मेरे दिमाग में नाम याद आते हैं - ऋषीकेश मुखर्जी की "बावर्ची" जिसमें बावर्ची बने थे राजेश खन्ना और "चुपके चुपके" जिसमें नौकर-ड्राइवर थे धर्मेन्द्र , गुलज़ार की "अँगूर" जिसमें नौकर के जुड़वा भाग में थे देवेन वर्मा और इस्माइल मेमन की "नौकर" जिसमें  नौकर  बने थे महमूद लेकिन जिनकी जगह नौकर बन कर आ जाते हैं संजीव कुमार. ऋषीकेश मुखर्जी की ही फ़िल्म "मिली" में घर के पुराने नौकर के भाग में नाना पलसिकर की बेबसी ने मेरे दिल को छू लिया था, जो बचपन से पाले शेखर (अमिताभ बच्चन) के शराबी हो कर बरबाद होते देख समझ कर भी कुछ कर नहीं पाता.

आजकल की फ़िल्मों में माता, पिता, भाई बहन, के साथ साथ, घर में काम करने वाले लोग भी पर्दे से गुम से हो गये हैं, कभी कभार ही दिखते हैं.

लेकिन क्या यह फ़िल्मों वाले रामू काका या नन्हे सचमुच के जीवन में भी होते हैं? और सचमुच के घर में काम करने वालों से कैसा व्यवहार किया जाता है? पच्चीस साल पहले दिल्ली में जहाँ रहते थे वहाँ हमारे पड़ोसी प्रोफेसर साहब के यहाँ पूरन काम करता था, गढ़वाल से आया था, जब छोटा सा था. प्रोफेसर साहब ने स्वयं उसे पढ़ा कर स्कूल के सब इन्तहान प्राईवेट ही पास करा दिये थे, फ़िर सरकारी नौकरी भी लग गयी थी और अपने परिवार के साथ रहता था, लेकिन जब तक प्रोफेसर साहब व उनकी पत्नि रहे, वह दफ्तर से आ कर उनके लिए खाना बना देता था.

पर अधिकतर घरों में काम करने वाले लोग, चाहे बच्चे हो या बड़े, उन्हें इन्सान कितने लोग समझते हैं? घर के बच्चों के लिए शिक्षा, खिलौने, मस्ती, और उसी घर में काम करने वाला बच्चा सारा दिन खटता है और अपेक्षा की जाती है कि उसे अहसानमन्द होना चाहिये कि भूखा नहीं मर रहा, बस दो वक्त की रोटी जो मिल जाती है.

Servant, graphic S. Deepak, 2012
अपनी नौकरी में समय से अधिक काम करना पड़े तो ओवरटाईम की बात होती है पर घर में काम करने वाले नौकर को दिन रात कभी भी जगा दो, जितनी देर तक मन आये काम करा लो, उसके लिए न ओवरटाईम न छुट्टी. रेस्टोरेंट में कई बार देखने को मिलता है कि सारा परिवार मिल कर मज़े से खाना खा रहा है और वहीं कोने में छोटी उम्र का नौकर चुपचाप घर के छोटे बच्चे की निगरानी कर रहा है.

कई बार जान पहचान वाले लोगों के घर देखे हैं, बड़े, खुले और आलीशान पर उन्हीं घरों में घर में काम करने वाले के लिए केवल छोटी सी अँधेरी कोठरी ही होती है. बहुत से घरों में वह कोठरी भी नहीं होती, वह रात को रसोई या अन्य किसी कमरे में ज़मीन पर भी बिस्तर लगाते हैं. कई लोगों को जानता हूँ जहाँ घर के काम करने वाले घर की कुर्सी या सोफ़े पर नहीं बैठ सकते, उन्हें नीचे ज़मीन पर ही बैठना होता है.

घर में काम करने वालों का कुछ यही हाल अन्य देशों में भी है. फिल्लीपीनस् की कितनी स्त्रियाँ यूरोप और मध्यपूर्व के देशों में घरों के काम करती हैं, उनके बच्चे और पति फिल्लीपीनस् में रहते हैं और वह घर पैसा भेजने के लिए खटती मरती हैं. यहाँ इटली में फिल्लीपीनस् के अतिरिक्त, पूर्वी यूरोप की रोमानिया, मालदाविया, यूक्रेन आदि देशों से बहुत सी स्त्रियाँ भी हैं. यहाँ भी कभी कभी घर में काम करने वालों से दुर्व्यवहार की बात सुनायी देती है लेकिन यहाँ मध्य पूर्व तथा भारत के आसपास के देशों वाला बुरा हाल नहीं है.

ईथियोपिया की औरतें जो मध्य पूर्व के देशों में काम करने जाती हैं, उनके पासपोर्ट ले लेते हैं और उन्हें गुलामी की हालत में रखते हैं और उनका यौनिक शोषण भी करते हैं. समाजशास्त्री बीना फेरनान्डेज़ ने एक सर्वे किया था जिसमें निकला कि सन 2009 में बयालिस हज़ार औरते ईथियोपिया से साऊदी अरेबिया में काम करने आयीं. सर्वे में यह भी निकला कि उनसे दिन में दस से बीस घँटे काम करवाया जाता है और महीने में एक दिन की छुट्टी मिलती है.

पिछले दिनों पाकिस्तान में इस्लामाबाद से खबर आयी थी ग्यारह वर्ष के शान अली की मृत्यु की जिसको उसकी मालकिन श्रीमति अतिया अल हुसैन ने गुस्से में गला दबा कर मार डाला था. इसी रिपोर्ट में लिखा था कि पाकिस्तान में छोटे बच्चे अक्सर घरों में काम करते हैं और उनके साथ बुरा व्यावहार होना आम बात है. अन्तर्राष्ट्रीय कामगार संस्था के अनुसार पाकिस्तान में दो लाख चौंसठ हज़ार बच्चे घरों में नौकर हैं. उनका कहना कि बहुत से परिवार बच्चों को ही काम पर रखना पसंद करते हैं क्योंकि इससे उन्हें लगता है कि घर की औरतों और बच्चों को कोई खतरा नहीं होगा.

घर में काम करने वाले रखना चीन तथा मेक्सिको जैसे देशों में आम है, लेकिन वहाँ घरों में काम करने जाने वाले बच्चे आम नहीं हैं.

भारत में घरों में काम करने वालों का अनुमान लगाया गया है कि एक करोड़ हैं, उनमें से अधिकाँश औरते एवं लड़कियाँ हैं. जहाँ बड़े परिवार टूट रहे हैं और उनकी जगह माता-पिता और उनके एक या दो बच्चों वाले परिवार ले रहे हैं और जहाँ औरतें काम पर जाती हैं वहाँ घर में काम करने वाले के बिना गुज़ारा नहीं होता.

ऐसा कैसे हो कि वे "नौकर" नहीं "कामगार" माने जायें और हर कामगार की तरह उनके भी अधिकार हों?

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हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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