शनिवार, दिसंबर 11, 2010

इच्छा मृत्यु या हत्या ?

संजय लीला भँसाली की फ़िल्मों से अन्य जो भी शिकायत हो, उनके मौलिक कलात्मक अंदाज़ को, तथा उसकी सौंदर्यपूर्ण और संवेदशनशील अभिव्यक्ति को, नहीं नकारा जा सकता. उनकी फ़िल्मों के विषयों की प्रेरणा तो अक्सर विश्व सिनेमा से मिली लगती है, लेकिन फ़िल्म को कहने का तरीका उनका अपना है.

मेरे विचार में उनकी फ़िल्मों की विशेषता है कि उनमें एक ओर मानव भावों को प्रधानता दी जाती है, दूसरी ओर उन भावनाओं की संकेतात्मक अभिव्यक्ति करने के लिए अक्सर वह कोई विशेष वातावरण बनाते हैं जिसमें प्रकृति, रंग, भवन वास्तुकला, संगीत आदि, कला के हर पक्ष को वह खोज कर गढ़ा जाता है. इस तरह उनकी फ़िल्मों का वातावरण भव्य, सुंदर और भावपूर्ण तो होता है, पर साथ ही, अगर सोच कर देखा जाये तो नकली या नाटकीय भी. यह तो उनकी कला अभिव्यक्ति की व्यक्तिगत शैली है, जो विषेशकर पिछली कुछ फ़िल्मों में गहरी हो गयी है. कोई कलाकार अपनी कला की अभिव्यक्ति के लिए किस शैली को चुनता है, यह तो उसका निजि निर्णय है, लेकिन मुझे लगता है कि बहुत से आलोचक उनकी फ़िल्मों को केवल इस शैली के मापदँड से देख कर उनकी आलोचना लिखते हैं, उसके परे नहीं जा पाते.

"खामोशी" से ले कर "देवदास", "साँवरिया" और "ब्लैक" तक, मुझे अब तक उनकी कोई फ़िल्म सिनेमा हाल में देखने का मौका नहीं मिला था, टेलीविज़न पर ही डीवीडी से देखा था, और हर बार सोचता था कि उनकी फ़िल्मों के हर दृश्य की भव्य नाटकीयता को सिनेमा हाल के बड़े परदे पर देखना अच्छा लगेगा. इसलिए इस बार भारत में था तो उनकी नयी फ़िल्म "गुज़ारिश" को सिनेमा हाल में देखने का मौका मिला, तो बहुत अच्छा लगा.

Guzaarish by Sanjay Leela Bhansali

इस फ़िल्म में भी वह अपनी कला शैली पर ही डटे हैं, यानि फ़िल्म में देखने में भव्य भी है और सुंदर भी, हर एक दृश्य जैसे चित्रकार ने तूलिका से बनाया हो. घने बादलों और बारिश के रंगों का फ़िल्म में प्रभुत्व हैं - गहरा नीला, भूरा, कत्थई, काला.

गोवा की जो सामान्य छवि मन में होती है, नीला समुद्र तट और उस पर अठखेलियाँ करते पर्यटक, या "आयेंगा खायेंगा, तुम हमको क्या बोलता" जैसी भाषा बोलने वाले मछुआरे, वे सब नहीं दिखते इस फ़िल्म में. फ़िल्म के तीनो मुख्य चरित्र, ईथन, सोफ़िया, उसकी देखभाल करने वाली नर्स देवयानी और जादू सीखने वाला शिष्य ओमार, गोवा के गाँवों के पुर्तगाली घर, वहाँ के पुर्तगाली रहन सहन, वस्त्रों आदि के साथ, भारतीय और पुर्तगाली सम्मिश्रण से रचा गया है, कुछ कुछ वैसा जैसे "ब्लैक" के लिए रचा गया था.

फ़िल्म के सभी अभिनेता अभिनेत्रियाँ, हृतिक रोशन और एश्वर्या राय से ले कर छोटे बड़े सभी चरित्र, चाहे वह डाक्टर हो या रसोई में काम करने वाली मारिया या चर्च का पादरी, हर एक को सोच कर सावधानी से रचा गया है जिससे कि सभी पात्रों हाड़ माँस के व्यक्ति हैं, केवल कहानी को बढ़ाने वाले कागज़ी चरित्र नहीं. अभिनय की दृष्टि से सभी प्रशंसनीय हैं, किसी के अभिनय के सुर में बेसुरापन नहीं लगता. हृतिक रोशन ने तो ईथन के भाग में जान डाली ही है, लेकिन बहुत समय के बाद मुझे एश्वर्य राय भी अच्छी लगीं.

भँसाली जी ने पहले भी "खामोशी" और "ब्लैक" फ़िल्मों में विकलाँगता की बात बहुत संवदेना के साथ की थी और "गुज़ारिश" में एक बार फ़िर इस विषय को छूना प्रशंसनीय है. आज के मल्टीप्लेक्स वातावरण में, व्यवसायिक प्रेम कहानियों से निकल कर, गम्भीर बातों को छूने का साहस सामान्य बात नहीं.

लेकिन जहाँ फ़िल्म एक ओर कला अनुभव के रूप में खरी उतरती है, उसकी कथा के संदेश, यानि विकलाँगता और इच्छा मृत्यु, के बारे में मेरे मन में कुछ दुविधाएँ हैं. लेकिन उन दुविधाओं के बारे में बात करने से पहले, मैं कुछ माह पहले अंग्रेज़ी साप्ताहिक पत्रिका "तहलका" में छपे एक लेख के बारे में कहना चाहूँगा जिसमें बात थी तमिलनाडू तथा दक्षिण भारत में गरीब परिवारों में, वृद्ध माता पिता को जान से मारने की.

इस लेख के अनुसार, कुछ गरीब परिवारों में वृद्ध माता पिता की जबरदस्ती तेल से मालिश की जाती है और दिन भर उन्हें नारियल का पानी पिलाया है जिससे उनके गुर्दे काम करना बन्द देते हैं और दो तीन दिनों में बूढ़े मर जाते हैं. अगर तेल मालिश और नारियल के पानी से बात न बने तो नाक बन्द करके जबरदस्ती मुँह में मिट्टी या जहर भी दिया जा सकता है. कुछ वृद्ध इसी डर से घर छोड़ कर चले जाते हैं, पर साथ ही वे अपने बच्चों को दोष नहीं देना चाहते क्योंकि वह जानते हैं कि गरीबी में बूढ़े माता पिता का ध्यान रखना आसान नहीं. कई बार इस तरह मारने से पहले, सब रिश्तेदारों को बुलाया जाता हैं ताकि मरनेवाले से मिल कर सब लोग ठीक से विदा ले सकें.

जीवन और मानव अधिकारों को बात करते हुए भी, मुझे मालूम है कि गरीब घर में भूखे प्यासे लोग जो जीवन मृत्यु के निर्णय लेते हैं, उन्हें वह लोग नहीं समझ सकते जिन्होंने स्वयं भूख न झेली हो. नैतिकता की बात करना आसान है पर जब छोटे छोटे खर्चों पर पूरे परिवार के जीने मरने का भविष्य टिका हो तो असली अनैकतिकता, गरीबी और भुखमरी हैं. अनचाही बच्चियों या विकलाँग बच्चों को मारने के लिए ज़हर या गला घोंटने की ज़रूरत नहीं, बस इतना काफ़ी है कि खाने के लिए कम दो या बीमारी में डाक्टर के पास न ले जाओ.

लेकिन आज के जीवन में, जिसमें खरीदना, दिखना, सफलता पाना ही जीवन के सबसे महत्वपूर्ण ध्येय हैं, शायद बात भुखमरी वाली गरीबी की नहीं, मनचाहा न खरीद पाने वाली गरीबी की है जिसमें बूढ़े माता पिता या विकलाँग बच्चों की जानें, हमारी आकाक्षाओं की राह में रुकावट बन जाती है और जिन्हें राह से हटाना अधिक आसान है? सचमुच स्वेच्छा से मरना चाहने वालों से, लालच में मारने वाले कई गुणा अधिक हैं और इसी लिए मानव जीवन रक्षा के कानून बने हैं. इस दृष्टि से देख कर मेरे मन में "गुज़ारिश" से कुछ दुविधाएँ उठीं थीं.

"गुज़ारिश" फ़िल्म के नायक ईथन को, 14 वर्ष पहले एक दुर्घटना की वजह से शरीर के गर्दन से नीचे के भाग को लकवा मार गया है. वह न हाथ पाँव हिला सकते हैं न शरीर पर स्पर्श का अनुभव कर सकते हैं. अपने आप वह करवट भी नहीं ले सकते और लेटे रहने की वजह से, उनकी पीठ पर घाव बन रहे हैं और उनके गुर्दे भी काम नहीं कर रहे जिससे उन्हें नियमित रूप से डायलेसिस की आवश्यकता होने लगी है. उनका जिगर भी ठीक से काम नहीं कर रहा. इन सब का अर्थ है कि उनका शरीर धीरे धीरे मृत्यु के करीब जा रहा है और वह उनके जीवन के कुछ ही महीने बचे हैं.

इस हालत में, यह जान कर कि अंत समय आ रहा है, कुछ महीनों की बात है, और घुट घुट कर मरने के बजाय, ईथन चाहता है कि उसे शान्ति से मरने दिया जाये, यह बात मेरी समझ में आती है. लेकिन फ़िल्म में ईथन के मरने की इच्छा की बात इस दृष्टि से नहीं की जाती, या की जाती है पर बहुत सीमित रूप में.

बजाय यह कहने के कि ईथन कुछ ही महीनों में मरने वाला है, और शायद वह घुट घुट के, तड़प तड़प के मरेगा, अदालत में बहस के दौरान तर्क दिये जाते हैं कि चूँकि ईथन कुछ महसूस नहीं कर सकता, अपने आप हिल भी नहीं सकता, और इसकी वजह से मानसिक तकलीफ़ में है इसलिए उसे मरने दिया जाये. लेकिन अगर इस विचार को सही मान लिया जाये तो शायद यह नहीं माना जायेगा कि जिनका आधा या पूरा शरीर लकवे से बँधा है, या जो विकलाँगता की वजह से सीमित है, उन सबको मरने दिया जाये या मार दिया जाये? वैसे "गुज़ारिश" में कई बार कहा जाता है कि बात सभी या अन्य विकलाँग व्यक्तियों की नहीं, केवल ईथन की है लेकिन ईथन के बारे में जो तर्क दिये जाते हैं वे तर्क तो अन्य व्यक्तियों के लिए भी कहे जा सकते हैं.

बोलोनिया में मेरे एक मित्र क्लाऊडियो इमप्रूदेंते का, जन्म से ही गर्दन से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त है. वह बोल भी नहीं सकते लेकिन पारदर्शी बोर्ड जिसपर ए, बी, सी, डी, लिखा हो, के माध्यम से आँखों के इशारे से बात करते हैं, लिखते हैं, मानव अधिकारों की बात करते हैं, स्कूलों में बच्चों को विकलाँगता और मानव अधिकारों की बात समझाते हैं. अगर "गुज़ारिश" के तर्कों को मान लिया जाये तो क्या यह समाज इस बात की अनुमति देगा कि क्लाऊडियो जैसे लोगों को जन्म होते ही जीवित न रखा जाये?

मैं सोचता हूँ कि जीवन की गुणवत्ता को मापने की कसौटी विकलाँगता का होना या होना नहीं है. बहुत से लोग, विकलाँगता के बावजूद जीवन को खुल कर, पूरा जीते हैं, और कुछ लोग विकलाँग न हो कर भी, जीवन को उस तरह से नहीं जी पाते.

मैं यह नहीं कहता कि हर हालत में जबरदस्ती मानव शरीर को मशीनों के सहारे ज़िन्दा रखा जाये. जीवन और मृत्यु, दोनों जुड़े हुए हैं और प्रकृति का हिस्सा हैं, बिना मृत्यु के जीवन नहीं हो सकता. मैं मानता हूँ कि जब वह समय आये जिसमें जीवन केवल पीड़ा भरी मृत्यु की प्रतीक्षा भर ही रह जाये, तो व्यक्ति को शान्ति से मरने का अधिकार चुनने की स्वतंत्रता होनी चाहिये. लेकिन मेरे विचार में "गुज़ारिश" में इस विचार को बिल्कुल ठीक ढंग से नहीं प्रस्तुत किया गया है. बजाय ईथन की विकलाँगता के तर्क दे कर, अगर फ़िल्म ईथन के सम्मान से और शांति से मर पाने के मानव अधिकार की बात करती तो वह बेहतर होता.

Guzaarish by Sanjay Leela Bhansali

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गुरुवार, दिसंबर 09, 2010

यादों के दर्पण

जुगनू जी को घर पर पहली बार कब देखा, यह ठीक से याद नहीं. पापा से जुड़े नवजवानों को हम लोग घर में "शिष्य" कहते थे, जुगनू शारदेय जी उनमें से ही थे. यह उनकी पहली तस्वीर हमारे दिल्ली के राजेन्द्र नगर वाले घर से है जो शायद 1984 में खींची गयी थी.

Jugnu Shardeya, Hindi writer, thinker

पिछले सालों में बीच बीच में उनसे मुलाकात होती रही है. पिछले वर्ष से उनकी तबियत ठीक नहीं चल रही थी, लेकिन कुछ सप्ताह पहले जब वह मिले तो उनका स्वास्थ्य कुछ ठीक लगा और बहुत अच्छा लगा. यह दूसरी तस्वीर इसी मौके से है.

Jugnu Shardeya, Hindi writer, thinker

उनको शुभकामनाओं के साथ, आज उनका एक पुराना लेख प्रस्तुत है जो उन्होंने करीब चालिस साल पहले लिखा था और "जन" पत्रिका में छपा उनका पहला आलेख था.

यादों के दर्पण में सिमटा हुआ अतीत

(आत्मकथा, ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार खाँ, हिन्द पाकेट बुक्स, शाहदरा दिल्ली)

एक सीधे साधे और सच्चे आदमी ने अपनी कहानी, अपनी ही जुबानी प्रस्तुत की है. न लाग, न लपेट, सिर्फ मन की पीड़ा, अतीत के स्मरण और भविष्य का सपना. इस इन्सान को हिन्दुस्तान की पुरानी पीढ़ी भूल गयी है और जिन्हें उसकी याद है वे विवश हैं और नयी पीढ़ी जो इतिहास कक्षाओं में पढ़ती है उसमें इस आदमी का कहीं जिक़र नहीं होता. इस इन्सान की कहानी "संयक्त भारत और बँटे हुए पाकिस्तान के लिए एक आलोक स्तम्भ है." जीवन भर संघर्षशील रहने वाले, हर जोर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज उठाने वाले खान अब्दुल गफ़्फ़ार खाँ की आत्मकथा पहली बार किसी भाषा में प्रकाशित हुई है (मुझे खुशी है वह भाषा हिन्दी है)

एक ओर जहाँ अंग्रेजों के अत्याचार का भण्डाफोड़ है वहीं दूसरी ओर खिलाफ़त आन्दोलन, मुस्लिम लीग और पाकिस्तान की हकीकत का प्रस्तुत पुस्तक द्वारा पता चलता है. उस वक्त के समाज की सही स्थिति, पिछड़ापन, गरीबी और अशिक्षा के मूल कारणों का पता चलता है. ब्राह्मणवादी परम्पराएँ किसी भी समाज की वास्तविक प्रगति में बाधक रही हैं. इसका मर्मगाही उदाहरण पुस्तक में से दे रहा हूँ. पश्तनु बच्चे जब पढ़ने पाठशाला में जाते थे तबके ब्राह्मण अर्थात मुल्ला मौलवी कहते थेः

सबक चिः द मद्रसे वाई
द पराइ द पैसे वाई.
जन्नत के बः जाए नवी,
दोजख के बः धंसे वही.

(जो लोग मदरसे में सबक पढ़ते हैं, वे पैसों के लिए ऐसा करते हैं. उनको जन्नत में जगह नहीं मिलेगी. वे दोजख में धक्के खाते रहेंगे.)

सीमान्त गांधी लिखते हैं, "इस्लाम के प्रादुर्भाव से पहले पख्तून हिन्दू थे और हमारे समाज में भी वह गलत नियम नियम प्रचलित था कि विद्या केवल ब्राह्मणों के लिए है. इस नियम के अधीन हम भी उसी तरह विभिक्त हो गये, जैसे बाकी हिन्दू अलग अलग टुकड़ों और वर्गों में थे."

पुस्तक में आत्मकथ्य के साथ सीमांत गांधी के विचारों, आस्थाओं और सिद्धान्तों का दर्शन है. पन्द्रह वर्षों तक स्वाधीनता संग्राम में जेल में रहने वाले रहबर बादशाह को पाकिस्तान की तथाकथित इस्लामी सरकार ने भी पन्द्रह वर्षों तक जेल में रखा. इस्लाम और पाकिस्तान के सम्बंध में वह कहते हैं, "... इस्लाम जिस समय इस देश में आ रहा था, उस समय आँखों में वह आध्यात्मिक आलोक, ईश्वरीय विचार, त्याग और तपस्या का भाव बाकी नहीं रहा था, जो इस्लामी पैगम्बर लाये थे या जिनका प्रचार अबूबकर और उमर जैसे महान पुरुषों ने किया था. ... इस्लाम जब हमारे देश पहुँचा, अरब राज्य साम्राज्यशाही और निरंकुशता में उन्मत हो चुके थे. उनमें धर्म प्रचार की लगन और नेकी फैलाने के भाव का अभाव हो चुका था ... इन्हीं महान व्यक्तियों के बलिदान के कारण अब पाकिस्तान स्थापित हुआ है. यह बात अलग है कि जिन पठानों ने पाकिस्तान के पूर्वजों को इस्लाम में दीक्षित किया था, उनके साथ पाकिस्तान का बर्ताव क्या है?"

मातृभाषा के सच्चे भक्त बाचाखान कने एक बार अफगानिस्तान के शाह अमानुल्ला खाँ से साफ कहा, "कितने शर्म की बात है कि आप को अन्य भाषाएँ आती हैं पर पश्तो नहीं आती. ... जाति की उन्नति अपनी भाषा से होती है." पुस्तक पढ़ने से यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि अहिंसा, विषेश तौर से सिविल नाफ़रमानी के बल पर अन्याय को खत्म किया जा सकता है. भाचाखान ने खूँखार पठानों को अपने स्नेह और प्रेम के बल पर अहिंसक बना कर सत्याग्रह का मार्ग दिखाया. (अंग्रेजों ने कहा था, "अहिंसावादी पठान हिंसावादी पठान से अधिक खतरनाक होता है.")

पुस्तक की भाषा और शब्दावली में कहीं कोई जाल नहीं, अपने मन के विचार हैं जिसके कारण कुछ लोग इसे प्रचारात्मक भी कह सकते हैं. स्थान स्थान पर बाचाखान ने, पाकिस्तान, भारत और दुनिया के अन्य मुल्कों के प्रति अपने विचार प्रस्तुत किये हैं. यहाँ कुछ बातों को मैं रखना चाहता हूँ, "मेरे निकट पाकिस्तान से दोस्ती मुमकिन नहीं, क्योंकि पाकिस्तान की बुनियाद नफरत है. पाकिस्तान की घुट्टी में नफरत, जलन, द्वेष, दुश्मनी वैमनस्य आदि दुर्भाव सने हैं. इसकी पैदाइश अंग्रेजों की कृपा से हुई है. पाकिस्तान तो शांति और मैत्री की बात सोच भी नहीं सकता. वह श्रेय साधना, सलह, सफाई का घेर विरोधी है. वह फर्जी जिहादी नारों से जनता को काबू में रखना चाहता है."

"... कांग्रेस ने, जो भारत की प्रतिनिधि संस्था थी, हमें न केवल अपने से दूर फेंक गिया, अपितु शत्रुओं के हवाले कर दिया था ..."

रहबर बादशाह के विचार, दर्शन और आस्थाएँ पुस्तक में बड़ी सच्चाई के साथ प्रस्तुत किये गये हैं, इसमें कोई प्रचार नहीं है, किसी से शिकवा शिकायत नहीं, सिर्फ सपना है स्वतंत्र पख्तूनिस्तान का, और गुस्सा है, नामर्दगी पर (चाहे वह भारत सरकार की तथाकथित तटस्थता हो अथवा पाक सरकार द्वारा निहत्थे पठानों पर गोली वर्षा) और गरीबी और अन्याय के खिलाफ एक आवाज है जिसे सुनना "कांग्रेसी" पसंद नहीं करते. पुस्तक में तीन भाषण हैं जो अत्यंत ही महत्वपूर्ण और पख्तूनिस्तान की वास्तविक स्मस्या को रखने वाले हैं.

इस पुस्तक को लिपिबद्ध करने वाले श्री कुँवर भानु नारंग और श्रीराम सरन नगीना तथा हिन्दी रूपांतरकार श्री जगन्नाथ प्रभाकर बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने यादों के दर्पण में बिखरे हुए अतीत को बाँधा है.

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मंगलवार, दिसंबर 07, 2010

चर्चा - भाषा की पूजा

कुछ दिन पहले 1967 की "जन" पत्रिका में छपा, हिन्दी लेखक और विचारक श्री रघुवीर सहाय के हिन्दी भाषा के बारे में लिखे आलेख को "भाषा की पूजा" के नाम से प्रस्तुत किया था. आज प्रस्तुत है इसी आलेख के बाद में हुई चर्चा की रिपोर्ट जिसमें हिन्दी लेखन जगत के बहुत से जाने माने नाम इस बहस पर और रघुवीर सहाय के आलेख के बारे में, हिन्दी या प्रान्तीय भाषाएँ या अँग्रेजी के विषय पर कहते हैं. इन नामों में हैं श्रीकांत वर्मा, मुद्राराक्षस, मनोहर श्याम जोशी, नेमीचन्दर जैन, इत्यादि. यह रिपोर्ट श्री रमेश गौड़ ने तैयार की थी.

चर्चा

श्री नेमिचन्द्र जैनः लेख में स्वतः सिद्ध प्रकार के वक्तव्य हैं. भावुक अभिव्यक्ति और चिन्तन का यह एक नमूना है. सभी मातृभाषाएँ इस्तेमाल की जायें तो समस्या सुलझ जायेगी, इस तरह की धारणा लगती है जो गलत है.

श्री विनय कुमारः  यह मान लिया गया है कि राजनीतिक ही अन्ततः भाषा के सम्बंध में निर्णय करेगा. भाषा की सड़न आदि के लिए केन्द्रीय सत्ता या सत्ताधारी दल को ही ज़िम्मेदार माना गया है. वास्तव में समस्या अधिक व्यापक है. सुविधा प्राप्त ऊँची हैसियत का पूरा वर्ग स्थिति के लिए ज़िम्मेदार है. अंग्रेज़ी हटाने का एहसास रखने वालों में भी चिंतन के स्तर पर अंग्रेज़ी का प्रभाव है. अंग्रेज़ी का इस्तेमाल एक तो स्वार्थ सिद्धि के लिए होता है, दूसरे दिमागी मजबूरी में. अंग्रेज़ी व्यक्तित्व के साथ जुड़ गयी है. इसलिए उसे सत्ताधारी दल तक ही सीमित नहीं करना चाहिये.

श्री भारतभूषण अग्रवालः अंग्रेज़ी जानने वाले शायद दो प्रतिशत ही नहीं हैं, आज़ादी के बाद बढ़े हैं.

श्री विनय कुमारः तीन चार साल पहले दसवें दर्जे तक अंग्रेज़ी पढ़े लोग 1.3 प्रतिशत थे, इसलिए दो प्रतिशत से अधिक नहीं.

श्री भारत भूषण अग्रवालः यह कहना आसान तरीका है कि मातृभाषा चले. लेकिन यह व्यवहारिक नहीं है. सारी अखिल भारतीय सेवाएँ केन्द्र की हैं. मातृभाषा चलने पर एक क्षेत्र के लोग दूसरे में कैसे काम करेंगे. केन्द्र में चौदह भाषाएँ चलें, यह कहना भी ठीक नहीं. करना यह होगा कि केन्द्र में हिन्दी चले और प्रान्तों में प्रान्तीय भाषाएँ, इतना ज़रूर है कि पिछले बीस सालों में मामला इतना बिगड़ गया है कि क्रांती जैसी चीज़ अब इसे सुलझा सकती है.

श्री रामानंद दोषीः भाषा सुविधा का माध्यम है. रोजमर्रा की भाषा और होती है, नौकरी आदि प्राप्त करने की दूसरी. हिन्दी या अंग्रेज़ी, कोई एक भाषा तो सीखनी ही होगी. केन्द्र में एक भाषा हो चाहे हिन्दी हो या कोई और भारतीय भाषा. चौदह भाषाओं का केन्द्र मे् चलना असम्भव है.

श्री श्रीकांत वर्माः चौदह भाषाओं की बात सही है. हिन्दी भाषी राजनीतिक और हिन्दी के लेखक, पराने तो सभी, कुछ नये भी, साम्राज्यवादी मनोवृति के हैं. लोक सभा में अन्य भाषओं के प्रयोग का विरोध हिन्दी वालों ने ही किया. वे समझते हें कि इससे हमारा नेतृत्व खतम हो जायेगा. हिन्दी भी एक क्षेत्रीय भाषा है. वह सम्पर्क भाषा है, उसे वही स्थान मिलना चाहिये, झूठी या अन्धी श्रद्धा नहीं. हिन्दी के साम्राज्यवाद की मनोवृति को खतम करना चाहिये. एकता भाषा के कारण नहीं होती. भारत की एकता का आधार पहले धर्म था, जैसे जैसे धर्म का ह्वास होता जायेगा, राजनीति उसकी जगह ले लेगी. स्वाधीनता आंदोलन में हिन्दी युद्ध के प्रचार की भाषा थी. अब वह स्थिति नहीं है. इसलिए सभी भाषाओं को उनका स्थान देना होगा. तमिलनाड में तमिल समर्थकों के जीतने से राष्ट्रीय एकता बढ़ी है. फ़िलहाल सभी भाषाओं का इस्तेमाल हो. हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृत होती है या नहीं, यह बाद की बात है.

डा. सदाशिव कारन्थः एक राष्ट्र के लिए एक भाषा की ज़रूरत नहीं. आर्थिक एकता हो तो विभिन्न भाषाएँ होते हुए भी राष्ट्र एक हो सकता है. केंद्रीय प्रशासन में एक ही भाषा होनी चाहिये, लेकिन राजनीति और हिन्दी को जोड़ने के कारण अभी यह मुश्किल है. जब तक मातृभाषा को ले कर जनता तक नहीं पहुँचते, तब तक कुछ नहीं हो सकता. पहले से ही हिन्दी को केन्द्रीय भाषा घोषित करने से उसका घोर विरोध होगा, देश टूट भी सकता है.

श्री परिमल दासः सन 1947 में ही हिन्दी को राजभाषा बना देना चाहिये था. एक भाषा होने से ही राष्ट्रीय एकता हो सकती है. जिसे हिन्दी का साम्राज्यवाद कहा जा रहा है, वह साम्राज्यवाद है नहीं, लेकिन अगर हो भी तो मैं उसे राष्ट्रहित में मानता हूँ. भाषा के प्रश्न को भौगोलिक राजनीतिक दृष्टि से देखना चाहिये, उत्तर दक्षिण, मध्य क्षेत्र और तटवर्ती क्षेत्र की दृष्टि से नहीं. गांधी जी और नेता जी ने महसूस किया था कि मध्यक्षेत्र ही कुछ करने में समर्थ हो सकता है, हिन्दी ही राष्ट्रीय एकता को बचा सकती है. लेकिन हिन्दी भाषी लोगों ने हिन्दी के प्रति प्रेम नहीं. वे नपुसंक हैं. गैर हिन्दी इलाकों के लोग ही फैलायेंगे, और राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता दिलायेंगे.

श्री वेदप्रताप वैदिकः अंग्रेज़ी ने अभिव्यक्ति, चिंतन और दफ़्तर दोनो का स्थान घेर रखा है. हिन्दी को दफ़्तर के स्तर पर तो ला सकते हैं, अभिव्यक्ति और चिंतन के स्तर पर नहीं. सारी भाषाओं का दफ़्तर के स्तर पर प्रयोग बहुत मुश्किल, लेकिन अगर अभिव्यक्ति के स्तर पर सभी भाषाओं को स्वीकार कर लिया जाये, तो छोटे मोटे दफ़्तरी कामों के लिए हिन्दी के प्रयोग का विरोध नहीं होगा.

श्री रुद्र नारायण झाः लेख में भाषा समस्या का राजनीतिक समाधान खोजा गया है. प्रान्तीय भाषाओं को प्रान्तों में पूरी छूट होनी चाहिये, लेकिन सुनने की भी तो कोई भाषा होनी चाहिये. हिन्दी ने कोई भी साम्राज्यवादी काम नहीं किया है. सभी भाषाएँ चलें लेकिन एक केंद्रीय भाषा को भी तो मान्यता देनी पड़ेगी.

श्री ओम प्रकाश दीपकः जब तक अहिंदी भाषी इलाके हिन्दी को स्वीकार नहीं करते, तब तक क्या करें?

श्री रुद्र नारायण झाः इस प्रकार तो अंग्रेज़ी केन्द्रीय भाषा बनी रहेगी.

श्री ओम प्रकाश दीपकः आप के तर्क से तो यही नतीजा निकलता है.

श्री मन्थन नाथ गुप्तः राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान एक नारा उठा था, हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान. इसमें हिन्दू की वजह से पाकिस्तान बना. अब हिन्दी से देखिये क्या हो. जब दूसरे देश कई भाषाएँ ले कर एक रह सकते हैं तो भारत क्यों नहीं रह सकता. अभी तो सभी भाषाओं को मान्यता देनी होगी. फ़िर उस स्थिति से उत्पन्न प्रभावों के फ़लस्वरूप हो सकता है कि किसी एक भाषा पर सहमति हो जाये.

श्री रामधनीः भाषा का सवाल सामाजिक और आर्थिक सवालों से जुड़ा है. राष्ट्रभाषाएँ तो सभी हैं. बहुमत की भाषा को सम्पर्क भाषा मानना होगा, लेकिन हिन्दी के लिए जेहाद करने की ज़रूरत नहीं. यह जेहाद ही साम्राज्यवाद है. अंग्रेज़ी को तो हटा ही देना चाहिये. अंग्रेज़ी का मुल्क की ज़िन्दगी में कोई स्थान नहीं है. राष्ट्रीय एकता का इस साम्राज्यवाद से लाभ नहीं, नुकसान होगा. केन्द्र में सभी प्रान्तीय भाषाओं के प्रयोग को सिद्धान्ततः स्वीकार कर लेना चाहिये, अकेले हिन्दी का आग्रह और उसके लिए आन्दोलन अंग्रेज़ी के साम्राज्यवाद के स्थान पर नये साम्राज्यवाद की स्थापना करना है.

श्री मुद्राराक्षसः धर्म या भाषा को एकता का आधार बताना इतिहास की गलत व्याख्या है. भारत जितना बड़ा आज है, पहले कभी नहीं था. और यह एकता उसे अंग्रेज़ी शासन ने दी. पाकिस्तान बनने से आज यह ज़रूरत पैदा हो गयी है कि यह एकता बनी रहे. हिन्दी को जो साम्राज्यवादी बना रहे हैं, वे किसी को भी बना सकते हैं, लेकिन इससे क्या हम हिन्दी को छोड़ दें? अगर दक्षिण और बंगाल कट जाते हें तो यह कोई दुर्घटना नहीं होगी, भला ही होगा. भाषा नहीं होगी तो विभाजन के लिए दूसरे कारण पैदा हो जायेंगे. हिन्दी को अपनी सही छोटी जगह पर लाने की बात कहना समय को गलत समझना है, यह बड़ी बात कहना है. आज की राजनीतिक स्थिति में हिन्दी के साम्राज्यवाद की बात कहने में कुछ निहित स्वार्थ हैं.

श्री ओम प्रकाश दीपकः श्री मुद्राराक्षस ने इरादों के बारे में जो बात कही है उसे गम्भीरता से नहीं लेना चाहिये..

श्री मनोहर श्याम जोशीः भाषा का सवाल देश की अधूरी क्रांति से जुड़ा है. इसलिए साम्राज्यवाद आदि के सवाल उठते हैं. जब तक यह पूरी नहीं होती, तब तक समस्या बनी रहेगी.

श्री रमेश उपाध्यायः भाषा के सम्बन्ध में इतने भाषणों, बहसों आदि के बाद भी कोई क्रांतिकारी कदम नहीं उठाया जा सका इसके लिए वे लोग ज़म्मेदार हैं जो यथास्थिति को बनाये रखना चाहते हैं, स्वयं को खतरों से दूर रखने, जो मिल रहा है और उसे लेते रहने का लालच, और बिगड़ी परिस्थिति से अधिकतम लाभ उठाने की इच्छा के कारण हिन्दी के सम्बन्ध में यथास्थिति को कायम रखना, या केवल राजनीतिक लाभ के लिए असम्भव सुझाव रखना या पूँजीवादी व्यवस्था पर आँच न आये इसलिए अंग्रेज़ी की गुलामी चालू रखना, इन तीनों दृष्टियों से एक तरफ़ तो भाषा सम्बन्धी कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं होने पाता, दूसरी तरफ़ भाषा विवाद का नशा लोगों को सामाजिक चेतना से पृथक रखता है.

श्री ओम प्रकाश दीपकः हिन्दी को हम लोक भाषा के रूप में लेते हें या अंग्रेज़ी की तरह सामन्ती राजभाषा के रूप में? मैं नहीं समझता कि हिन्दी साम्राज्यवादी हो सकती है, लेकिन हिन्दी नेताओं की दृष्टि जरूर ऐसी या संकीर्ण स्वार्थ वाली हो सकती है. बहस के लिए मान भी लें कि देश के अन्य टुकड़े होना अनिवार्य है, तो आखिर उससे भी तो हिन्दी एक क्षेत्र की ही भाषा रह जायेगी. देश की एकता के लिए मातृभाषाओं के अधिकार क्यों न स्वीकार करें? देश की एकता अंग्रेज़ों ने स्थापित नहीं की, बहुत पुरानी है, वरना बर्मा और श्री लंका के भारत से निकलने पर भी खून खराबा होता या फ़िर पाकिस्तान भी आसानी से बन जाता. लोकसभा में विभिन्न भाषाओं को मान्यता देनी ही होगी. उसी तरह केन्द्रीय सरकार का काम भी जनता के साथ उसी की भाषा में होना चाहिये. जब तक कोई एक भाषा सभी के लिए मातृभाषा जैसी नहीं होती, सभी भाषाओं का इस्तेमाल करना पड़ेगा. रह गये, केन्द्रीय सरकार के दफ़्तर. उनमें भी कोई ऐसा रास्ता निकालना पड़ेगा जो सबको मान्य हो. आगे चल कर कोई एक भाषा मान्य हो, इसके लिए भी फिलहाल सभी भाषाओं को मान्यता देना अनिवार्य लगता है. अन्ततः तो जैसा जोशी जी ने कहा है, मामला देश की अधूरी क्रांति के साथ जुड़ा है.

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