सोमवार, नवंबर 09, 2009

चुप्पी का झूठ

विकास, विश्वीकरण, उदारवाद एवं पश्चिमी उपनिवेशवाद जैसे विषयों पर लिखने बोलने वाले भारतीय विचारक, श्री यश टँडन के एक लेख में रूसी कवि येवतूशेंको की एक बात का ज़िक्र है. येवतूशेंको ने कहा, "जब सच की जगह चुप्पी ले लेती है, वह चुप्पी एक झूठ है". येवतूशेंको का प्रश्न उनसे था जिन्हें मालूम था कि क्या हो रहा है लेकिन वह लोग चुप रहे.

इस बात को देर तक सोचता रहा. कितनी बार ऐसा होता है कि रिश्तों की वजह से, जान पहचान की वजह से, किसी का दिल न दुखे यह सोच कर, या फ़िर भविष्य में होने वाले किसी फायदे का सोच कर, कितनी बार गलत बात को जान कर भी, मैं चुप रहना ही पसंद करता हूँ, इसलिए भी कि झूठ बोलने की वजाय चुप रहना अधिक नैतिक लगता है.

पर मित्रता तथा पारिवारिक रिश्तों में "सच" बोलने का अर्थ क्या उन रिश्तों में कड़वाहट नहीं भर देगा? शायद येवतूशेंको की बात तभी महत्वपूर्ण है जब ताकतवर लोग या संस्थाएँ लोगों के साथ अन्याय करते हैं, उसके सामने चुप नहीं रहना चाहिये, आम जीवन में बिना चुप्पी के रहना बहुत कठिन होगा?

2 टिप्‍पणियां:

"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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