रविवार, जनवरी 27, 2008

असली भारतीय

कौन सी पहचान है असली भारतीय की, कौन सी बोली है उसकी, यह सवाल बार बार उठते रहते हैं. इन सवालों के पीछे जो भाव छुपा होता है वह होता है कि असली भारत तो गाँवों में बसता है, असली भारतीय संस्कृति तो वह है जो विदेशी प्रभाव से बची हुई है, यानि कि गाँवों में रहने वाले उसी असली भारत की, या फ़िर पहले किसी ज़माने में होती थी हमारी असली संस्कृति, आजकल तो विदेशी फैशनों और विदेशी टीवी चैनलों ने सब बँटाधार कर दिया. शायद यह सवाल इस लिए भी उठते हैं क्योंकि अधिकाँश लोगों की स्मृतियों में वही दिन हैं जब भारत अपने आप में अधिक सिमटा हुआ था, कोई थोड़े बहुत लोग कभी सिनेमा हाल में अँग्रेजी फ़िल्म देख लेते थे पर कुछ विदेशी पर्यटकों को छोड़ कर विदेश हमारे आम जीवन का हिस्सा नहीं था. भूमण्डलीकरण और बढ़ते उपभोक्तावाद ने आज विदेशी प्रभाव को हमारे सामान्य जीवन में महसूस करना बहुत अधिक आसान कर दिया है.

अगर बात भारतीय साहित्य की हो तो यही सवाल बन जाता है कि "कौन सा साहित्य असली भारतीय साहित्य है?"

टूरिन में बोलते समय यह प्रश्न अँग्रेजी में लिखने वाले ख्यातिप्राप्त कई भारतीय लेखकों ने उठाया. शशि थरुर ने इस बारे में बहुत कुछ कहा. यानि अँग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों को भी इस प्रश्न से परेशानी होती है कि कुछ लोग उनके लिखे को "असली " भारतीय साहित्य न होने की आलोचना करते हैं जो उन्हें चुभती है.

कई बार भारत में इस बारे में बात हुई तो मुझे लगा कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने वालों में पिछले दो दशकों में अँग्रेजी में लिखने वाले भारतीय लेखकों के प्रति गुस्सा, ईर्ष्या, कड़वाहट सी बन गयी है. आज लेखक होना शायद पहले से कुछ आसान हो गया हो पर केवल लेखन के बस पर जीना आसान नहीं. बड़े, मान्यवर लेखक हो कर भी लोगों को जीने के लिए कुछ न कुछ अन्य काम खोजना पड़ता है. आज भारतीय भाषाओं में टीवी तथा मीडिया की वजह से यह हो सकता है कि लेखक को इनके द्वारा लेखन से जुड़ा हुआ काम ही मिल जाये पर बिना कुछ अन्य काम के केवल उपन्यासों के बल पर घर गृहस्थी चलाना आसान नहीं.

लेकिन अँग्रेजी में लिखने वालों पर यह नियम लागू नहीं होता. टूरिन में एक दिन सुबह अल्ताफ टायरवाला से बात कर रहा था तो यही बात मन में आयी थी. २२ साल के अल्ताफ़ ने नौकरी छोड़ कर बैंक से कर्ज लिया और अपना पहला उपन्यास लिखा, आज वह उपन्यास पच्चीसों भाषाओं में अनुवादित और प्रकाशित हो चुका है और वह अपना दूसरा उपन्यास लिखने की सोच रहे हैं. टूरिन में आने से पहले, वह एक बार पेरिस में भी एक साहित्यिक गोष्ठी में भाग ले चुके हैं. इस तरह की सफलता का हिंदी में लिखने वाले साहित्य कला अकादेमी का पुरस्कार पा कर भी नहीं पाते.

मेरे विचार में इस बहस में हम दो विभिन्न बातों को मिला रहे हैं.

एक बात है किस तरह हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में लिखे जाने वाले साहित्य को उनका सही स्थान मिले? कैसे हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने जाने वाले साहित्यकारों और अँग्रेजी में लिखने वाले साहित्यकारों के बीच की विषमता को कम किया जाये? इस विषय में बचपन में पढ़ी एक कहानी की बात पर विश्वास करता हूँ जो स्वामी विवेकानंद के बचपन के बारे में थी. जब शिक्षक ने ब्लैकबोर्ड पर बनी एक रेखा को छोटा करने के लिए कहा तो विवेकानंद नें उसके ऊपर एक बड़ी रेखा बना दी जिसकी तुलना में नीचे की रेखा अपने आप छोटी हो गयी. यानि मेरे विचार में भारतीय भाषाओं में लिखे जाने वाले साहित्य को ऊपर उठाने के काम का यह अर्थ नहीं कि अँग्रेजी में लिखे जाने वाले साहित्य को नीचे गिराया जाये, बल्कि इसके दूसरे रास्ते खोजने चाहिये.

दूसरी बात है कि क्या अग्रेजी में लिखा जाने वाला साहित्य भी भारतीय साहित्य है? मैं यह मानता हूँ कि हर लेखक की जड़ें कुछ हद तक अपने आसपास के यथार्थ में दबी होती हैं, यानि साहित्य कई तरह का होगा, शहरों में रहने वालों का साहित्य, गाँवों में रहने वालों का साहित्य, सवर्णों का साहित्य, दलितों का साहित्य, मर्दों का साहित्य, औरतों का साहित्य, हिंदी बोलने वालों का साहित्य, कन्नड़ बोलने वालों का साहित्य, अँग्रेजी बोलने वालों का साहित्य. जब यह सभी समाज भारतीय हैं तो यह सभी साहित्य भी भारतीय हैं. सवाल यह नहीं कि कौन सा असली, सवाल यह है कि कौन सा साहित्य दबा हुआ है, अविकसित है.

मुझे लगता है कि साहित्य का एक सागर है, यह अलग अलग नामों वाले साहित्य विभिन्न धाराएँ हैं जो उसी सागर का हिस्सा हैं. इस तरह हिस्सों में बाँट कर देखना शायद गलत है क्योंकि इससे मेरा, तेरा सोचने का खतरा है पर जब कोई धारा दबी हुई हो या अविकसित हो, तो हिस्सों में बाँट कर देखना भी उपयुक्त हो सकता है.

सवाल बड़े फैले हुए पेड़ को काट कर उसे छोटा करने का नहीं, सवाल यह है कि बाकी के छोटे पौधों को किस तरह पनपने की जगह मिले?

शुक्रवार, जनवरी 25, 2008

लेखकों से बातें

पिछले दिनों उत्तरी इटली के शहर टूरिन में कुछ भारतीय लेखकों के साथ समय गुज़ारा. उन्हीं दिनों की कुछ बातें मेरी यादों की डायरी से.
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रेस्टोरेंट में घुसा तो कोने में एक मेज़ पर जगह दिखी, जहाँ दो पत्रकार बैठे थे, एक थे इतालवी टेलीविज़न के जाने माने से चेहरे वाले सज्जन जिनका नाम मुझे नहीं मालूम था और दूसरीं थीं रोम की एक समाचार एजेंसी में काम करने वाली सीमा जिनसे सुबह परिचय हुआ था. उनके पास की दो कुर्सियाँ खालीं थीं, मैंने पूछा कि क्या मैं वहाँ बैठ सकता हूँ तो दोनो मुस्करा दिये. मेरे पीछे पीछे इंग्लैंड में रहने वाले लेखक निरपाल सिंह धौलीवाल भी आखिरी बची कुर्सी पर आ गये.

निरपाल ने प्रसिद्ध ब्रिटिश पत्रकार और सोशलाईट लिज़ जोनस से विवाह किया था और हाल में ही उनका तलाक हुआ था. सुना था कि लंदन के टेबलोयड उनके बारे में हर दिन नयी नयी कहानियाँ छाप रहे हैं कि कैसे उन्होंने लिज़ के साथ बुरा व्यव्हार किया, कैसे उसे धोखा दिया, आदि. उस पर उनकी नयी किताब जिसे इतालवी में "तुरिज़्मों" (पर्यटन) के नाम से छापा गया है, अपने नायक के सेक्स के लम्बे और सुक्ष्म दृष्टि से दिये विवरणों की वजह से भी बहुत चर्चित है. इस तरह की बातों के लिए प्रसिद्ध होने वाले किसी व्यक्ति को करीब से देखने और जानने का यह मुझे पहला मौका मिला था. पर साथ ही मन में इस तरह की बातें सोचने और उनसे अन्य कुछ जानने की जिज्ञासा के घटियापन पर मुझे अपनेआप पर शर्म भी आ रही थी. इसी कसमकश में और मन में उनके बारे में शर्मिंदा महसूस करने से, मैं उनसे बात करने से कतराता रहा था.

मेज़ पर साथ बैठे तो सबने अपना अपना परिचय दिया. जो जाने पहचाने से लग रहे थे, उसका रहस्य समझ में आया. ईराकी मूल के पत्रकार एरफ़ान जी इतालवी टेलिविज़न पर अक्सर आते रहते हैं, उनकी पत्नी इतालवी हैं. सीमा सिंगापुर में भारतीय मूल के गुजराती माता पिता की संतान हैं, और उनके पति भी इतालवी हैं. निरपाल सिंह भी भारतीय मूल के हैं, उनके पंजाबी माता पिता इंग्लैंड में आये जब वे छोटे से थे. साथ में मैं था, सबकी तरह देशों, संस्कृतियों और धर्मों के हिस्सों में बँटा.

अपने भारतीय मूल की साँस्कृतिक धरोहर को निरपाल और सीमा बचपन की जबरदस्ती सिखायी जाने वाली "वतन की भाषा" से जोड़ रहे थे. सीमा बोली कि जब वह छोटी थीं तो उनके माता पिता उन्हें जबरदस्ती हिंदी पढ़ने भेजा करते थे, जिससे उन्हें हिंदी से घृणा सी हो गयी थी. निरपाल बोले उन्हें भी बचपन में शनिवार को सुबह पंजाबी सीखने भेजा जाता था जो उन्हें भी पसंद नहीं था. दोनो के मन में अपने माता पिता के लिए उन जबरदस्ती की सीखी भाषा के लिए अभी तक गुस्सा है. उस पढ़ाई के बाद भी न तो सीमा को हिंदी बोलनी आती है न ही निरपाल को पंजाबी.

मुझसे पूछने लगे कि मैंने अपने बेटे को क्या हिंदी पढ़ाने की कोशिश की? मैंने बताया कि जहाँ रहता हूँ वहाँ थोड़े से भारतीय हैं और वहाँ हिंदी पढ़ना संभव नहीं फ़िर बताया कि बेटा बचपन में अपना आधा भारतीय होना स्वीकार नहीं करता था, कहता था कि वह आधा भारतीय नहीं पूरा इतालवी होना चाहता है. फ़िर उसके भारतीय लड़की से प्यार के बारे में बताया, जिससे उसने विवाह किया है और अब हिंदी सीखने की कुछ कोशिश कर रहा है और अब वह मुझसे कहता है कि जब वह छोटा था तो उसे जबरदस्ती हिंदी सिखानी चाहिये थी. तो क्या अब तुम्हें दुख नहीं होता कि तुमने हिंदी या पंजाबी नहीं सीखी, मैंने सीमा और निरपाल से पूछा तो दोनों ने उत्तर नहीं दिया.

सीमा ने बताया कि कैसे उसे अपनी भारतीय मूल से झुँझलाहट होती है जब लोग उनका नाम और चेहरा देख कर सोचते हें कि वे भारतीय हैं और उनसे हिंदी में बात करने लगते हैं. "मैं भारतीय नहीं हूँ, सिगापुर की हूँ, यह कैसे समझायें लोगों को?" बोली. मन में आया कि यह पहचान, मैं यहाँ का हूँ या वहाँ का, कितनी आसानी से बनती बदलती रहती हैं. उनके माता पिता का दिल भारत में बसता था, वे स्वयं को सिंगापुर की कहती हैं और उनके इटली में पैदा होने वाले बच्चे हो सकते हैं कि कल स्वयं को केवल इतालवी ही देखना चाहें.

कुछ साल पहले तक सीमा सिंगापुर टेलीविजन के लिए काम करतीं थीं और उसी सिलसिले में पाकिस्तान गयीं तो पाकिस्तान वालों ने उन्हें अफगानिस्तान सीमा के पास वाले इलाके में जाने से मना कर दिया. जब उन्होंने इसका कारण पूछा तो वे लोग बोले कि तुम भारतीय हो, तुम्हें वहाँ नहीं जाने दे सकते तो सीमा को बहुत गुस्सा आया, बोलीं कि देखो मेरा पासपोर्ट में क्या भारत की लगती हूँ, मैं सिंगापुर में पैदा हुई, पासपोर्ट भी सिंगापुर का है, तो उस अफसर ने कहा कि "लेकिन तुम्हारा बाप तो हिंदुस्तानी है!" यही तो पहचान का दिक्कत है, भीतर से हम कैसा भी सोचें, भाषा कोई भी बोंलें पर अन्य लोगो कि लिए हमारे चेहरे का रंगरुप, हमारे माता पिता के नाम भी उतने ही आवश्यक हिस्सा होते हैं इस पहचान का.

एरफ़न ने ईराक के बारे में बताया कि बगदाद में पत्रकार लोग जेब में दो तीन आईडेंटिटी कार्ड रखते हैं, एक शिया नाम वाला, दूसरा सुन्नी नाम वाला, एक ईसाई नाम वाला, जहाँ जिस नाम से कम खतरा हो, वही प्रयोग करो.

सुबह बँगलौर में रहने वाली, केरल के परिवार में पैदा हुई, तमिलनाडू में बड़ी हुई, बढ़िया हिंदी बोलने वाली और अँग्रेजी में उपन्यास लिखने वाली अनीता नायर से मुलाकात हुई थी, तब भी यही सोच रहा कि पहचान के बदलते रूपों के लिए भारत से विदेश जाने की आवश्यकता नहीं, अपने देश में रह कर भी वैसी ही अनगिनत जीवन कथाएँ मिल जाती हैं.
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रात को ओपेरा देखने का निमंत्रण था. हालाँकि सुबह से सारा दिन साक्षात्कार, भाषण, मिलना जुलने से थकान बहुत हो रही थी, पर मुझे मालूम था कि इस तरह की ओपेरा की टिकट बहुत मँहगी होती है और इतनी मँहगी टिकट ले कर अपने पैसों से जाने का सवाल नहीं उठेगा, इसलिए इस मौके को खोना नहीं चाहता था. ओपेरा शुरु होने का समय था रात को आठ बजे और समाप्त होने का करीब ग्यारह बजे, यानि कि वापस होटल में आते आते, आधी रात हो जाती और अगले दिन सुबह सुबह फ़िर से भाषणों, साक्षात्कारों का सिलसिला शुरु होने वाला था.

उदयप्रकाश और भगवानदास जी ने मुझसे पूछा तो मैंने यह सब बताया और यह भी कहा कि ओपेरा इतालवी में गाया जाने वाला शास्त्रीय संगीत जैसा है, अगर शब्द समझ नहीं आयेंगे तो शायद तीन घँटे बैठना आसान न हो. एक एक कर के अधिकतर लोगों ने ओपेरा जाने से मना कर दिया. इस कार्यक्रम की सचिव लड़की, कार्लोता को आश्चर्य हुआ बोली नये ओपेरा की पहली रात का निमंत्रण है, इसके लिए कितने लोग वहाँ लाईन लगा के खड़े होंगे और सौ या दो सौ यूरो की टिकट खरीदेंगे और आप सब लोग मना कर रहे हैं?

खैर जब चलने का समय आया तो बस में पाँच लोग थे. मैं, शशि थरूर, लावण्या शंकरन, निरपाल और उदयप्रकाश. उदयप्रकाश जी और निरपाल दोनों कुछ डावाँडोल से थे कि जायें या न जायें. जब बस चली तो कार्लोता को याद आया कि भारतीय दूतावास जो मुख्य सचिव आयीं हैं उन्हें तो लिया ही नहीं तो बस वापस होटल लौट आयी. उदयप्रकाश जी बोले कि यह तो भगवान की तरफ़ से संकेत है कि उन्हें जा कर बिस्तर पर आराम करना चाहिये. इस तरह वे तथा निरपाल होटल पर उतर गये.

अंत में ओपेरा हम तीन लोगों ने देखा, शशि, लावण्या और मैं. ओपेरा का नाम था रीगोलेत्तो (Rigoletto) जो कहानी है एक रंगीले दिल राजा की जो कमसिन लड़कियों के शरीरों से खेलता है. ओपेरा शुरु हुआ तो सारा हाल स्तब्ध सा रह गया. मंच पर करीब करीब २० नग्न युवक युवितयों का दृष्य था, यौन क्रीणा की रंगरेलियाँ करते हुए. सोचा कि हमारे बाकी साथियों को मालूम होता कि इस तरह के दृश्य होंगे तो सबकी नींद और थकान तुरंत दूर हो जाती. खैर दस मिनट के इस दृष्य के बाद इस तरह की कोई बात नहीं थी बल्कि सारे ओपेरा में कोई भव्य सेट या नृत्य आदि नहीं थे, क्योंकि कहानी थी उस रंगीले राजा से प्यार करने वाली साधारण युवती की और उसके पिता की, जो सब कुछ जान कर भी और राजा के लिए अपनी जान दे देती है.

मुझे ओपेरा बहुत अच्छा लगा. पहले कई बार ओपेरा सुने हैं पर अच्छा नहीं लगते, लगता है कि बेमतलब चीख पुकार हो रही है. पर जब देखा तो उस चीख पुकार में शब्द, भावनाएँ, संगीत सब कुछ बन गया. कुछ कुछ भारतीय बमबईया सिनेमा वाली बात है, रंगो से, भव्यता से, गानों से और संगीत से मानवीय भावनाओं को बढ़ाचढ़ा कर प्रस्तुत करते हैं. रात को बारह बजे वापस होटल आये तो मन में संतोष था कि अच्छा किया जो देखने चला गया.

रविवार, जनवरी 20, 2008

लेखकों से बदहज़मी

तीन दिन कैसे बीते, मालूम नहीं चला. टूरिन पहुँचते ही पहले उदयप्रकाश जी और मोरवाल जी से भेंट हुई.

उसी पहली शाम, मोरवाल जी से साक्षात्कार रिकार्ड किया. हिंदी में बात करने से बात करने का ढँग बदल जाता है और बिना "आप" या "जी" के बात करना अच्छा नहीं लगता. वहाँ मिले अँग्रेजी लेखकों से मिलते ही "यार" और "तू, तुम" कर बात होने लगी थी पर उदय जी या मोरवाल जी उस तरह बात करने की सोच कर अटपटा सा लगता. और जितनी बार मोरवाल जी को "भगवान जी" कहता वह कहते कि इस तरह न बुलाईये, अच्छा नहीं लगता! अब तक उनकी कोई किताब नहीं पढ़ी थी, अब उनसे दो किताबें पायीं हैं तो पढ़ने की उत्सुक्ता है.

उदय जी उतनी अधिक बात नहीं हुई. जब भी हुई तो लगता कि जैसे मैंने उन्हे चिढ़ाने या तंग करने की ठान ली हो, वे कुछ भी कहते उसका उल्टा ही बोलता. कुछ बार लगा कि शायद उन्हें बुरा लगा है तो स्वयं पर कुछ संयम किया पर जाने क्यों उन्हे उकसाने में मुझे आनंद आ रहा था.

कन्नड़ लेखिका गायत्री और उनके पति, कृष्णा मूर्ती से मिले तो पल में ही आत्मीयता हो गयी. दम्पत्ती, सीधे साधे भोले से थे, दोनो ही भौतिकी के स्नातक हैं और गायत्री जी ने उपन्यास आदि के अतिरिक्त बच्चों का साहित्य और विज्ञान को सरलता से समझाने के लिये भी लिखा है. इटली में रहने वाली उनकी कज़िन जया से मिलना भी सार्थक हुआ. जया जी ने स्वयं भी दो किताबें लिखीं हैं, एक हिंदू धर्म पर, और दूसरी शाकाहारी होने पर, पर साथ ही उन्होंने गायत्री मूर्ती के कन्नड़ उपन्यास "हुम्बला" का इतालवी भाषा में अनुवाद किया है.

इग्लैंड में पले बड़े हुए निरपाल सिंह धालीवाल को देखा तो थोड़ा सा अजीब सा लगा. सर्दी में भी सादा पैंट और टीशर्ट में घूमना. उनका रूखी सी बात करने का तरीका देख कर लगा कि शायद इस व्यक्ति से बात करना आसान नहीं होगा. फ़िर एक दिन खाने के समय साथ बैठे. हमारे साथ इराकी मूल के एक पत्रकार रशीद और सिंगापूर की भारतीय मूल की इटली में रहने वाली सीमा जी भी थे. एक बार बात शुरु हुई अपनी पहचान के बारे में, धर्म की सीमाओं के बारे में, विभिन्न देशों, धर्मों और संस्कृतियों के मिश्रण से बने परिवारों के बारे में, तो इतनी दिलचस्प बनी कि जब वहाँ से उठना पड़ा तो मन में दुख हुआ.

तरुण तेजपाल, एम जे अकबर, दोनो के भाषण बहुत अच्छे लगे, तरुण जी से कुछ बात करने का भी मौका मिला. अँग्रेजी में लिखने वाले अन्य भारतीय लेखकों जैसे अनीता नायर, सुधीर कक्कड़, अल्ताफ टायरवाला, लावण्या शँकरन, सभी को जानने पहचानने का कुछ मौका मिला. उनके साथ साक्षात्कार भी रिकार्ड किये. साथ ही अपने कुछ प्रिय अन्य देशों से आये लेखकों को भी मिलने का मौका मिला जैसे कि ताहार बेन जालून, लुईस सेपुलवेदा, रोज़ेत्ता लोय, पीटर श्नाईडर, ब्जोर्न लारस्सन, आदि.

लगता है कि जैसे जरुरत से ज़्यादा लेखकों के विचार, उनकी बातें दिमाग में घुसने से कुछ तूफ़ान सा आ गया हो. कुछ दिन आराम करने को मिले तो इन विचारों को तरतीब से सँवारने और शायद, समझने का समय मिले.

इन्ही तीन दिनों की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत हैं. इनमें उदयप्रकाश जी, भगवान जी, गायत्री जी, सुधीर कक्कड़ जी और मेरी वाली गोष्ठी की तस्वीरें नहीं हैं क्योंकि मंच पर होने से मैं नहीं खींच सकता था.

गुरुवार, जनवरी 17, 2008

भारतीय लेखकों की सभा

नये साल को शुरु हुए पंद्रह दिन से भी अधिक हो गये और इस बीच में एक भी चिट्ठा नहीं लिखा. कितनी बार सोचा कि इस बात पर लिखूँगा, उस बात पर लिखूँगा, पर हर बार बात मन में ही रह गयी. यह दिन भागम भाग में ही निकल गये. कुछ तो उम्र बढ़ने के साथ साथ लगता है कि समय कुछ अधिक तेजी से निकलने लगता है, पर इस बार जितनी तेजी से दिन निकले वह कुछ जरुरत से ज्यादा ही हो गया.

खैर बीते दिनों की बात छोड़ कर बात आने वाले दिनों की, की जाये. कल यहाँ इटली के उत्तर में टूरिन शहर में दो दिन की भारतीय लेखकों और लेखन पर एक सभा का आयोजन किया जा रहा है जिसमें मुझे भी निमँत्रित किया गया है. हिंदी के दो लेखकों को बुलाया गया है उदयप्रकाश जी और भगवानदास मरवाल जी. कन्नड़ की लेखिका गायत्री मूर्ती को ही बुलाया गया है.

बाकी के सभी भारतीय लेखक अँग्रेजी में लिखने वाले हैं जैसे कि शशि थरूर, लावण्या शंकर, निरपाल सिँह धालीवाल, अल्ताफ टायरवाला, एम.जे.अकबर, अनीता नायर, तरुण तेजपाल, विकास स्वरूप और सुधीर कक्कड़.

इनमें से कई लेखकों को तो मैं बिल्कुल भी नहीं जानता था, उनका लिखा कुछ नहीं पढ़ा था. इसलिए शुरु शुरु में कुछ अजीब सा लगा कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं में लोग सारा जीवन लिखते रहते हैं और उन्हें कोई नहीं पूछता और अँग्रेजी में एक किताब लिखने से प्रसिद्धि मिल सकती है.

पिछले दिनों दो नये लेखकों, लावण्या शंकर और अल्ताफ टायरवाला के उपन्यास पढ़े, दोनों ही मुझे बहुत अच्छे लगे. अब दो दिनों तक जाने माने लेखकों के साथ रहने का मौका मिलेगा, उन्हें जानने पहचानने की कुछ उत्सुक्ता भी है मन में और उनकी बात को सुनने का इंतज़ार भी है. तैयारी कर रहा हूँ कि कुछ साक्षात्कार किये जाये, सभा में देने वाले उनके भाषण रिकार्ड किये जायें, आदि.

फ़िर कुछ ही दिनों में, २७ जनवरी को भारत भी जाना है. जाने इस सभा के बारे में कुछ लिखने का कितना समय मिलेगा. अगर अभी नहीं तो फरवरी में भारत से वापस आने पर इस बारे में बात होगी.

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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