मंगलवार, नवंबर 27, 2007

पँखहीन मानव

हिंदी की मासिक पत्रिका हँस में पंकज बिष्ट की नयी लम्बी कहानी "पँखोंवाली नाव" पढ़ी, जो तीन भागों में प्रकाशित हुई है. कहानी का मु्ख्य पात्र है अनुपम, एक समलैंगिक युवक. हिंदी कथानकों में इस तरह के हाशिये से बाहर रहने वाले जीवनों के बारे में बहुत कम लिखा जाता है.

हिंदी लेखन आम तौर से यौन सम्बंधों के बारे में भी कम बात करता है. अग्रेजी साहित्य में यौन सम्बंधों के बारे में जिस तरह से स्पष्ट रुप से बात हो सकती है, हिंदी में उस तरह की बात लिखना अश्लीलता या फ़िर भौंडापन माने जाते हैं. इस तरह की सोच, यौन सम्बंध और यौन आचरण, जो जीवन अनुभव का अभिन्न अंग हैं, गम्भीर हिंदी लेखन में अनछुए से रह जाते हैं. यौन सम्बंधों और आचरण के बारे में लिखा कुछ मिल भी जाये, इस तरह की बात को समलैंगिकता के संदर्भ में सोचा भी नहीं जा सकता.

पंकज जी अपनी इस कहानी से दोनों लक्ष्मण रेखाओं को पार करने की कोशिश करते हैं और मेरे विचार में यह सराहनीय बात है.

दलित जीवनों के बारे में लिखने का हक किसे है, इस बहस में एक तरफ से कहा जाता है कि दलित स्वयं ही अपने जीवन के बारे में लिख सकते हैं क्योंकि उनका लेखन अपने जीवन के अनुभव से निकलता है और उनका इस बारे में लिखना अधिक प्रमाणिक होता है. दूसरी ओर बात है कल्पना शक्ति की, लेखक को हर बात को अपने जीवन में अनुभव हो यह जरूरी नहीं, वे कहते हैं. अगर ये बात होती तो कोई कभी खून और चोरी के, या इतिहास के बारे में लिख ही न पाता. पर जब कोई लेखक अपनी कल्पना से किसी विषय में लिखता है तो यह प्रश्न उठता है कि लेखक को यह सब बातें कैसे मालूम हुईं, केवल इस विषय में पढ़ कर या फ़िर महाश्य स्वयं भी शायद .. क्या दलित जीवन के बारे में लिखने वाले लेखकों के बारे में इस तरह की बात उठती थी यह मुझे मालूम नहीं, पर अगर आप समलैंगिकता के बारे में लिखें तो शायद उठ सकती है?

शायद यही वजह है कि पंकज की कथा का समलैंगिक नायक अनुपम स्वयं अपनी आवाज़ में अपनी कहानी नहीं सुनाता, बल्कि उसकी कहानी सुनाता है उसका मित्र विक्रम, जो अनुपम को मित्र मानता है पर साथ ही अनुपम के अपने प्रति आकर्षण से डरता है और स्पष्ट कर देना चाहता है कि उसमें स्वयं में कोई समलैंगिक भावना नहीं:

उसके शरीर से उठती पसीने की गंध से उबकाई महसूस होने लगी. किसी विदेशी डीओडरेंट ने इसे और विकृत कर रखा था. पुरुष शरीर की गंध से इस तरह की वितृष्णा मुझे शायद ही उससे पहले कभी हुई हो. यह श्रम के पसीने की नहीं बल्कि वासना और विकृति की गंध थी. और यह विकृत हिंस्र दुर्गंध मुझे कई दिनों तक परेशान करती रही.
अगर पात्र समलैंगिक है तो उसकी जीवन कथा में अलग अलग लोगों से प्रेम सम्बंधों की बात होगी, अपमान और शोषण की बात होगी, हिंसा की बात होगी, एडस या अन्य बीमारियाँ होगी, तिरस्कार और ठुकराये जाने की बात होगी, नशे और बेलगाम जीवन की बात होगी, नौकरी बदलने की विवशता होगी ही. अगर हिंदी में इस बारे में कम लिखा गया है तो नया लग सकता है पर इसमें नया क्या है? समलैंगिक जीवनों का सत्य यही तो होता है? मुझे लगता है कि समलैंगिक जीवनों का यह सत्य केवल विषमलैंगिकों द्वारा देखा हुआ सच है और समलैंगिक जीवनों के अन्य सच भी हो सकते हैं जिन्हें समझना या कहना हमें नहीं आया?

इस तरह के विषयों पर हिंदी में लिखना आसान नहीं, और यह सब बातें विदेशी प्रभाव का नतीजा हैं, इसीलिए इन्हें केवल अँग्रेजी में ही कह सकते हैं? पंकज जी की कथा के पात्र भी बहुत सी बातें केवल अंग्रेजी में कहते हैं. पर शायद इसकी वजह यह भी है कि इस बारे में बात कम होती है, और जब हो सकेगी तो शायद उसके कहने और समझने के लिए हिंदी के शब्द भी मिल जायेंगे.

सोमवार, नवंबर 26, 2007

भारतीय मित्र

प्रियंकर ने बताया था कि उनके एक पुलिसवाले मित्र यहाँ इटली में एक कोर्स के सिलसिले में आ रहे हैं. नाम है महेन्द्र कुमार पूनिया और आईपीएस अफसर होने के साथ साथ कवि भी हैं. तो कुछ अजीब सा लगा.

पहले कभी पुलिस में काम करने वाले किसी को नहीं जानने का मौका मिला था. बचपन का एक साथी इन्जीनियर की पढ़ाई के बाद वायु सेना में भरती हुआ था तो मुझे लगा था कि वह बदल गया हो और जब छुट्टियों में घर आता तो उससे बहुत बहस होती. मुझे लगता कि उसे अपने से भिन्न बात सुनने की आदत ही न हो, बस "यस सर, यस सर" की आदत हो. शायद उस याद का प्रभाव था कि पुलिसवाला शब्द को सुन कर कविता का विचार तो बिल्कुल नहीं आता मन में.

कल संदेश भेजा महेंन्द्र ने कि उनका गुट रोम से वापस विचेंजा जाते हुए हमारे शहर बोलोनिया में यहाँ के स्थानीय पुलिस की मेस में खाना के लिए कुछ देर रुकेगा और यह मिलने का अच्छा मौका होगा. तो कल रात को बेटे को कहा कि वह मेरे साथ चले क्योंकि रात को वैसे ही गाड़ी चलाना मुझे अच्छा नहीं लगता और दूसरा यह कि, वह पुलिस मेस हमारे घर से बिल्कुल दूसरे कोने में है और उस इलाके की मुझे बिल्कुल जानकारी नहीं.

महेंद्र से मिलना बहुत अच्छा लगा. दिखने में वह पुलिसवाले कम कवि ही अधिक दिखते हैं. उन्होंने कुछ अपनी कविताएँ भी पढ़ने को दीं. उनमें से एक कविता "कश्मीर" की कुछ पंक्तियाँ हैं:

क्या चिनार के पेड़ पर
एक भी पत्ता नहीं है
बलात्कृत दोशीजा का तन ढकने को?
क्यों झुक गया है
पोपलर का आकाश में तना हुआ शीश?
क्यों रो रहे हैं विलो
झेलम के किनारे सिर झुकाए हुए?
क्यों सारी की सारी काँगलिड़याँ
ठण्डी हो गयीं हो हैं
और शीतल घाटियाँ आग उगल रही हैं?

महेंद्र से सिलीगुड़ी की कुछ बातें करके बचपन के दिनों की याद ताजा करली जब सिलीगुड़ी और अलीपुरद्वार की ओर गर्मियों की छुट्टियों में मौसी के पास जाते थे. महेंद्र ने मिलवाया अपने एक साथी सत्यानारायण सबत से हैं तो उड़िया, पर रहते हैं वाराणसी में और उत्तरप्रदेश में काम कर रहे हैं. सत्यनारायण जी भी लेखक हैं, मानव अधिकार पर लिखते हैं और इस सिलसिले में मानव अधिकार कमिशन का पुरस्कार भी पा चुके हैं.

दोनो लेखकों से बात करने का अधिक मौका नहीं मिला क्योंकि खाने के बाद तुरंत उन्हें यात्रा पर निकलना था. मौका मिला कि भारत से आये बाकी दल से भी नमस्ते कहने का मौका मिले. दल में 13 लोग हैं जिनमें तीन महिलाएँ भी हैं. कोई हिमाचल से, कोई तमिलनाड से, कोई मध्य प्रदेश से, कोई उत्तरप्रदेश से, सारे भारत के विभिन्न कोनों से आये यह पुलिस और सुरक्षा के विभिन्न विभागों के लोग यहाँ संयुक्त राष्ट्र संघ के शाँति मिशन के सिलसिले में कोर्स करने आये हैं. उनमें से कई लोग पहले भी शाँति मिशन में कोसोवो, बोसनिया जैसी जगहों पर काम कर चुके हैं.

जब वे लोग बस में बैठने लगे तो विदा कहते हुए मन में थोड़ा सा दुख सा, भारत से इतने लोग आये थे अगर सब को ठीक से जानने समझने का मौका मिलता तो कितना अच्छा होता!

प्रस्तुत हैं कल रात की इस मुलाकात की दो तस्वीरें. पहली तस्वीर में बायें से हैं सत्यनारायण, मैं, महेंद्र और मेरा बेटा मारको तुषार. दूसरी तस्वीर में भारतीय दल के कुछ लोग.






बुधवार, नवंबर 21, 2007

लागा फेफड़ों मे दाग बचायें कैसे

आज के जीवन में प्रदूषण का कितना असर है इसे बड़े शहरों मे रहने वाले अच्छी तरह जानते हैं. घर से बाहर निकलो बस इसी से सब कपड़े मैले हो जाते हैं. बीस साल पहले जब दिल्ली में काम करता था तो लगता था कि प्रदूषण की वजह से साँस की तकलीफ़ वाले लोगों की सँख्या बढ़ती जा रही थी. जब दीवाली आती तो सभी दमे के मरीज कोशिश में लग जाते कि इस बार बढ़ते प्रदूषण की मार से कैसे बचा जाये. लोग घर के दरवाजों को गीले कपड़ों से बंद कर के बाहर की हवा को भीतर आने से रोकते, किसी के पास साधन होते तो वह दीवाली के दिनों में दिल्ली से बाहर चला जाता. दिल्ली छोड़ने के बाद जब भी वापस भारत जाता तो लगता कि दिल्ली का प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है. केवल पिछले कुछ सालों से जब से सभी टैक्सी, बसों और आटो को जीपीएल का उपयोग करने को बाध्य किया गया तो प्रदूषण कुछ कम हुआ लगता है पर कारों की और अन्य वाहनों की सँख्या बढ़ती जाती है तो प्रदूषण को तो बढ़ना ही है.

दो दिन पहले यहाँ बोलोनिया में भारत के आन्ध्र प्रदेश के गुँटूर शहर से मेयर श्री कन्ना नागाराजू आये. गुँटूर तथा बोलोनिया के बीच प्रदूषण कम करने का एक प्रजोक्ट चल रहा है, उसी सिलसिले में नागाराजू जी यहाँ आये हैं. वह गुँटूर में सामान्य प्रदूषण से कैसे लड़ रहे हैं इसके बारे में मैं उनका भाषण सुनने गया. 27 वर्षीय नागाराजू दो साल पहले मेयर बने, और शायद भारत में या विश्व में वह सबसे कम उम्र के मेयर हैं. मकेनिकल एनजींयर में बीटेक पास नागाराजू का कहना था कि उन्होंने गुँटूर में प्रदूषण को कम करने के लिए बहुत कुछ किया है जैसे कि पीने की पानी की जाँच ताकि घरों में स्वच्छ पानी दिया जाये, घर घर से कूड़ा इक्ट्ठा करने का नया तरीका, यातायात को सरल करने के तरीके और शहर में पेड़ों और हरियाली को बढ़ावा, नये बाग इत्यादि. उनके कहने से लगा कि गुँटूर शहर ने बहुत तरक्की की है. (तस्वीर में नागाराजु)



नागाराजू जी के कहने में कितनी सच्चाई है और कितनी राजनीतिक भाषणबाजी यह तो गुँटूर में रहने वाले ही बता सकते हैं, हालाँकि मुझे लगता है कि आज विकास और प्रदूषण दोनों साथ साथ कदम कदम मिला कर चलते हैं. गरीबों के साथ काम करने वाले कुछ मित्रों और साथियों को इस तरह के विकास के विरुद्ध बात करते सुना है पर मुझे नहीं लगता कि आज कोई यह मानेगा कि अपना सादा सरल जीवन जिसमें सदियों की चली आ रही परम्पराएँ बनी हैं, उसको बना कर रखने के लिए उद्योगिक विकास को रोकना चाहिये. यह कोशिश करना कि विकास इस तरह का हो जिसमें गरीब, कम पढ़े लिखे, दलित और अल्पसँख्यकों को भी विकसित होने का मौका मिले, यही आज सबसे बड़े सँघर्ष की बात है.

साथ ही यह चाहना कि विकास इस तरह का हो जिससे प्रदूषण न बढ़े भी महत्वपूर्ण है पर यह कहाँ तक हो पायेगा?
*****
एक नयी वेबसाईट बनी है कारमा डोट काम जहाँ दुनिया में सबसे अधिक प्रदूषण करने वाले बिजली उत्पादन के प्लाँट के बारे में जानकारी दी गयी है. दुनिया के पचास सबसे अधिक प्रदूषण करने वाले बिजली उत्पादन के प्लाँट में से 7 अमरीका में हैं, 2 जर्मनी में, 5 दक्षिण कोरिया में, 15 चीन में और 4 भारत में.

भारत के सबसे अधिक प्रदूषण करने वाले पावर प्लाँट हैं - वाराणसी के पास विंध्याचल प्लाँट जो प्रदूषण में दुनिया में छठे नम्बर पर है, उत्तरी आँध्रप्रदेश में रामागुंडम प्लाँट जो दुनिया में तीसवें स्थान पर है, तमिलनाडू में नेयवेली जो दुनिया में छत्तीसवें स्थान पर है और उत्तरी उड़ीसा में तलछेर जो दुनिया में सेंतिसवे स्थान पर है.

अच्छे कारखाने जहाँ बिजली का उत्पादन अधिक हो और प्रदूषण न के बराबार, अधिकतर पश्चिमी योरोप में हैं और कुछ एक अमरीका में. भारत में इस तरह का कोई पावर प्लाँट नहीं है.

पिछले सात सालों में विकास के साथ साथ भारत में कार्बन डाईओक्साईड की मात्रा बढ़ी है. सन 2000 में यह मात्रा थी करीब 46 करोड़ टन, आज यह मात्रा है 58 करोड़ टन और विकास की इसी दर पर भविष्य में यह मात्रा बढ़ कर हो जायेगी 148 करोड़ टन. यानि अगर आप अभी प्रदूषण का रोना रो रहे हैं तो भविष्य में यह तीन गुना बढ़ जायेगा क्योंकि विकास चाहिये तो प्रदूषण तो होगा ही और साँस की बीमारियाँ भी.

चीन में कार्बन डाईओक्साईड की वार्षिक मात्रा सन 2000 में थी 126 करोड़ टन, आज है 268 करोड़ टन और इसी दर से विकास होता रहा तो भविष्य में हो जायेगी 427 करोड़ टन. यानि भविष्य में चीन दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषित देश होगा. इसी प्रदूषण से हम अंदाजा लगा सकता हैं कि भारत चीन से कितना पीछे है.

चीन की तो इतनी जनसँख्या है पर अमरीका जिसकी जनसँख्या चीन से चार या पाँच गुना कम है आज दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषण करने वाला देश है. अमरीका की कार्बन डाईओक्साईड छोड़ने की वार्षिक मात्रा सन 2000 में थी 276 करोड़, आज है 303 करोड़ और भविष्य में हो जायेगी 368 करोड़. इन सबके मुकाबले में अफ्रीका सबसे दुनिया में प्रदूषण करने में सबसे पीछे है. पूरे अफ्रीका महाद्वीप की कार्बन डाईओक्साईड छोड़ने की वार्षिक मात्रा सन 2000 में थी 27 करोड़, आज है 34 करोड़ और भविष्य में बढ़ कर हो जायेगी 48 करोड़.

पर क्या हमें यही विकास चाहिये जिससे जीवन बीमारियों से भर जाये? या फ़िर प्रदूषण की वजह से वातावरण और मौसम सब बदल जायें?

पर योरोप को देखें तो लगता है कि प्रदूषण कम करके भी विकास सँभव है. पूरे यूरोप में कार्बन डाईओक्साईड की वार्षिक मात्रा सन 2000 में 157 करोड़ टन थी, आज है 178 करोड़ टन और भविष्य में बढ़ कर हो जायेगी 248 करोड़ टन.

जब कोई कहता है कि दुनिया का तापमान बढ़ रहा है, समुद्रों का स्तर ऊपर जा रहा है, दुनिया को भारत और चीन के विकास से खतरा है तो मुझे गुस्सा आता है. जो देश आज सबसे अधिक प्रदूषण करते हैं वही उपदेश दे रहे हैं कि भारत और चीन को विकास की गति कम कर देनी चाहिये या विभिन्न तरह का विकास खोजना चाहिये. पर फ़िर लोगों का प्रदूषण से क्या हाल होगा यह सोच कर लगता है भारतीय वैज्ञानिकों को नये तरीके खोजने होंगे जिनसे ऊर्जा तो मिले पर प्रदूषण कम हो. विकसित देशों ने अपने विकास और समृद्धी की नीव अपनी तकनीकी को कोपीराईट के पीछे छुपा कर उससे पैसा कमा कर बनायी है, क्या भारत ऐसा कर पायेगा कि कम प्रदूषण करने वाली नयी तकनीकों का आविष्कार करे और उनसे अन्य विकासशील देशों की सहायता करे ताकि अन्य देश भी उन तकनीकों का फायदा उठा सकें?

यह तो केवल सपने हैं, पर अगर आप को प्रदूषण के विषय में दिलचस्पी है तो कारमा की वेबसाईट को अवश्य देखियेगा.

मंगलवार, नवंबर 20, 2007

अंगों की फसल की कटाई

एक मित्र ने जब डाफोह यानि डाक्टर अगेंस्ट फोर्सड हारवेस्टिंग (Doctors Against Forced Harvesting) के बारे में बताया तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ. जिस हारवेस्टिंग यानि फसल कटाई की बात वे कर रहे हैं वे मानव अंगो की है. इस एसोसियेशन में काम करने वाले वे डाक्टर हैं जो कहते हैं कि वे पैसे कमाने के लिए लोगों के अंग जबरदस्ती निकाले जाने के विरुद्ध हैं. उनका कहना है कि चीन में यह हो रहा है कि जेल में बंद कैदी या अस्पताल में दाखिल गरीब लोगों के जबरदस्ती गुर्दे या अन्य भाग निकाल कर जरुरतमंद मरीजों को ट्राँसप्लाँट के लिए बेचे जाते हैं.

कोई कोई डाक्टर जो शायद मानसिक रुप से बीमार हो, पैसा कमाने के लिए इस तरह का काम कर सकता हो पर यह बात इतनी अधिक फैली हो यह मुझे विश्वास नहीं होता. मुझे लगता है कि आजकल चीन के विरुद्ध वैसे ही बहुत प्रचार हो रहा है, उस देश की तरक्की से सारे विकसित जगत में डर सा फैल गया है और कुछ भी बात हो चीन के विरुद्ध ही बोला जाता है चाहे वह प्रदूषित रंग से बने खिलौने हों या अफ्रीका में बने चीने कारखाने. तो क्या डाफोह का यह कहना भी विकसित देशों में बसे चीन के विरुद्ध पूर्वाग्रहों का चिन्ह है और इसमें सचाई नहीं है?

अपने किसे प्रियजन की बीमारी पर उसे अपने शरीर का वह अंग देना जिसके बिना भी जी सकते हैं, चाहे वह गुर्दा हो या हड्डी की मज्जा यह तो अक्सर होता है. अपने प्रियजन की मृत्यु पर, विषेशकर जब मृत्यु जवानी में हुई हो, उसके शरीर के अंगो का दान करना यह मानवता की निशानी है. मेरे पर्स में भी एक कार्ड है जिसपर मेरे हस्ताक्षर हैं और जो मेरी अकस्मात मृत्यु पर अस्पताल को मेरे अंगदान करने की अनुमति देता है. अंगदान के विरुद्ध बहुत से लोगों के मन में धार्मिक कारणों से पूर्वाग्रह होते हैं कि शरीर का कोई अंग दे दिया तो जाने परलोक में व्यक्ति पर क्या असर हो या जब उसका पुर्नजन्म हो तो वह अपाहिज न पैदा हो, पर धीरे धीरे यह चेतना जाग रही है कि शरीर को तो जलाने या गाड़ने से नष्ट होना है, जबकि अंगदान करके आप अपने प्रियजन के शरीर को जीवित रहने का मौका दे रहे हैं. मेरा अपना विश्वास भगवत् गीता के पाठ में है कि शरीर आत्मा का वस्त्र है और जब शरीर पुराना हो जाता है आत्मा उसे त्याग देती है इसलिए मैं चाहता हूँ कि अगर मेरा पुराना वस्त्र किसी के काम आ सकता है तो अवश्य आये.

पर अगर अंग दान मानवता की निशानी है तो किसी गरीब के शरीर से उसकी गरीबी का फायदा उठा कर अंग खरीदना या जबरदस्ती उसके शरीर से अंग निकालना दानवता की निशानी है. डाक्टर जिसने मानवता की कसम खाई हो वह इस तरह के काम करे यह मुझे विश्वास नहीं होता. कोई इक्का दुक्का हो, जो मानसिक रुप से बीमार हो और इस तरह का काम करे यह मान सकता हूँ, पर डाफोह का कहना है कि चीन में यह बड़े पैमाने पर हुआ है और होता है.

भारत से भी कभी कभी कुछ छुटपुट समाचार मिलते हैं कि गरीब ने बेटी के विवाह के लिए पैसा जोड़ने के लिए अपना गुर्दा बेचना का अखबार में इश्तहार दिया. कुछ इसी तरह की बात एक फ़िल्म में भी देखी थी, पर क्या ऐसा हमारे देश में भी हो सकता है?

*****

इटली की पुलिस जिसे काराबिन्येरी (carabinieri) कहते हैं, उनके बारे में यहाँ बहुत चुटकले होते हैं, वैसा ही एक चुटकला हैः

एक अंगों के ट्राँसप्लाँट करने वाले की दुकान पर बोर्ड लगा था, "आईन्स्टाईन का दिमाग 1000 रुपये, चर्चिल का दिमाग 700 रुपये, मार्कस का दिमाग 400 रुपये, इटालवी काराबिन्येरे का दिमाग 1500 रुपये" तो उसे देख कर व्यक्ति दुकान में गया और पूछा, "भला काराबिन्येरे के दिमाग में ऐसी क्या बात है कि उसे इतना मँहगा बेचा जा रहा है?"

दुकानदार ने उत्तर दिया, "क्योंकि वह दिमाग बिल्कुल नया है, उसका कुछ प्रयोग नहीं किया गया तो कीमत तो ज्यादा होगी ही!"

रविवार, नवंबर 18, 2007

भारतीय ईसाईयों में जाति भेद

इतालवी केथोलिक पत्रिका पोपोली के अक्टूबर अंक में फादर प्रकाश लुईस का लेख है जिसमें भारत में ईसाई धर्म कें जाति भेद की समस्या को उठाया गया है.

मेरा मानना है कि जाति भेद भारत की सबसे मूलभूत समस्याओं में से है और यह स्वीकार करना कि हमारे समाज में इंसानों से अमानवीय जाति भेद होता है इस सदियों पुराने शोषण से लड़ने का पहला कदम है. इस दृष्टि से मुझे फा. लुईस का लेख महत्वपूर्ण लगा. प्रस्तुत हैं उनके इस लेख के कुछ अंश, जिनका इतालवी से हिंदी में अनुवाद मेरा हैः

भारत के 24 मिलियन यानि 2 करोड़ 40 लाख इसाईयों मे से करीब 70 प्रतिशत लोग दलित मूल के हैं. चूँकि सब सोचते हें कि सभी ईसाई समान होते हैं, धार्मिक संस्थाएँ, सरकार और समाज इस दलित ईसाईयों के साथ होने वाले भेदभाव को नहीं पहचानता. इस वजह से इस बात की गम्भीरता को ठीक से नहीं समझा जाता और भारत के बाहर इस बात की जानकारी नहीं है....सरकारी नीतियों से हिंदू, सिख तथा बुद्ध मूल के दलितों को मिलने वाले संरक्षण ईसाई दलित लोगों को नहीं मिलते. बाकी के दलित सोचते हैं कि ईसाई बनने वाले लोग दलित नहीं होते. कानून के लिए ईसाई होना और साथ ही दलित होना संभव नहीं है... ईसाई संस्थाओं में अगर दलितों की गिनती की जाये तो मिलगा कि उनमें दलित मूल के लोगों की उपस्थिति बहुत कम है. 1999 में किये गये एक सर्वेक्षण के हिसाब से ईसाई हाई स्कूलों मे दलित केवल 15.5 प्रतिशत थे और ईसाई कालिजों में केवल 10.5 प्रतिशत. यह शिक्षा संस्थाएँ अधिकतर ऊँची जाति के लोगों के काम आती हैं. ईसाईयों में जाति भेद नया नहीं है बल्कि हमेशा से रहा है. तिरुचिरापल्ली का केथेड्रल जिसका निर्माण 1840 में हुआ था, उसमें विभिन्न जातियों के ईसाई लोग अलग अलग बैठाये जाते थे. कई जगहों पर दलित ईसाईयों के अपने अलग गिरजाघर होते थे, कूछ अन्य जगहों पर वह लोग गिरजाघरों के बाहर खड़े हो कर प्रार्थना में भाग लेते थे. अगर गिरजाघर में घुस सकते थे तो उनके बैठने की जगह सबसे पीछे होती थी और प्रार्थना के अंत में पादरी के हाथ से क्मयूनियन का प्रसाद लेने वह अन्य सब लोगों के बाद ही जा सकते थे. चर्च के अधिकारी इन बातों को जानते थे पर बहुत समय तक इन बातों पर विचार विर्मश नहीं किया गया है. आज भी दलित ईसाईयों से पादरी बनने, कोई महत्वपूर्ण कार्य पद देने आदि में भेदभाव किया जाता है. तमिलनाडू में दलित ईसाई, राज्य के ईसाईयों के 75 प्रतिशत है पर दलित मूल के पादरी और नन केवल 3.8 प्रतिशत...विभिन्न जातियों के ईसाईयों के बीच में विवाह होना या केवल साथ बैठ कर खाना खाना तक संभव नहीं जैसे कि विभिन्न जाति के हिंदुओं के बीच होता है...हमें अपने धर्म में बदलाव लाना है ताकि उनकी मानव मर्यादा और गरिमा को स्वीकारा जाये, केवल अध्यात्मिक रूप में नहीं बल्कि जीवित मानव के रूप में उस धर्म के हिस्से की तरह जो बिना भेदभाव के समाज को बनाने की घोषणा करता है. जब तक हम लोग आपस में अपने शब्दों में और आचरण में सचमुच का समुदाय नहीं बनेंगे, हम कट्टरपंथियों के आरोप कि हम केवल धर्म बदवाना चाहते हैं का सामना नहीं कर सकते.


जहूर मेरे कश्मीरी मित्र कहते हैं कि भारत के मुसलमान भिन्न हैं अन्य सब देशों के मुसलमानों से, क्योंकि हमें अन्य धर्मों के साथ मिल कर रहना आता है. मुझे भारत के ईसाई समाज को करीब से देखने का मौका मिला है और मैं मानता हूँ कि भारतीय ईसाई भी बाकी सारी दुनिया के ईसाईयों से अलग हैं, उनमें विभिन्न धर्मों के साथ रहने की अपनी संवेदना है. पर इस सांझी भारतीयता का शायद यह भी अर्थ है कि चाहे हमारा धर्म कुछ भी हो, हम सबमें एक जैसी कुछ बुराईयाँ भी हैं जैसी कि जाति भेद?

पढ़े लिखे, अच्छी नौकरी करने वाले लोगों से जब मैं जाति और भेदभाव की बात सुनता हूँ तो मुझे ग्लानी भी होती है और क्षोभ भी. यह भेदभाव की जड़े हमारे दिलों में इतनी गहरी बैठीं हैं कि इनसे हम बार बार हार जाते हैं. दुर्भाग्य की बात है कि ईक्कीसिवीं सदी में भी कोई बड़ा हिंदू धर्म सुधारक नहीं हुआ जो इस बारे में खुल कर समस्त मानव जाति की समानता की बात कर सके और जाति भेद करने वालों को धर्म से बाहर घोषित कर सके. अगर अन्य धर्म वाले भी, चाहे वे मुसलमान हों, सिख हों या ईसाई, बजाय अपने धर्म के मूल संदेश को मान कर अगर हिंदू धर्म के जातिभेद को अपनाते हैं तो शोषित लोगों के लिए बाहर आने का क्या रास्ता बचेगा? इसीलिए आशा है कि ईसाई धर्म में भी फा. लुईस जैसे लोगों के हाथ मजबूत होंगे और वह अपने समाज में बदलाव लायेंगे जिससे बाकी के धर्मों को भी प्रेरणा मिल सके.

शनिवार, नवंबर 17, 2007

पड़ोसी देशों पर भारत का धार्मिक प्रभाव

आज के चीन में धर्म से जुड़ा कुछ भी आसानी से नहीं दिखता. हालाँकि लोगों ने कहा कि अगर किसी मंदिर में जाईये तो वहाँ बहुत लोग मिलेंगे और लोगों के मन में बहुत धार्मिक्ता है पर दक्षिण चीन के गाँवों में घूमते हुए मुझे इस धार्मिक्ता के बाह्य चिन्ह कुछ नहीं दिखे. 1960 में हुई माओ द्वारा की हुई साँस्कृतिक क्राँती (cultural revolution) के दौरान अधिकतर बुद्ध मंदिरों को तोड़ दिया गया था और वहाँ रहने वाले बुद्ध भिक्षुकों जेल में डाल दिया गया या कुछ कहते हैं, मार दिया गया. फ़िर पिछले बीस सालों में जो विकास हुआ तो कुछ मंदिर भी दोबारा बस गये. दक्षिण चीन के गावों में घूमते समय बहुत सी कहानियाँ सुनने को मिलीं कि उस क्राँती के समय में कहाँ पर क्या हुआ था, कैसे मंदिर तोड़े गये गये, कैसे कुछ मूर्तियाँ छुपा दी गयीं थीं और उन्हे तोड़ने से बचाया गया था. पर विकास के बाद नये बने समृद्ध गावों में कोई नया मंदिर नहीं बना दिखता. पचासों गाँव घूमने के बाद भी मैं एक भी मंदिर नहीं देख पाया.

फ़िर लूफेंग नाम के छोटे से शहर के सँग्रहालय में एक मूर्ती देखी जो दुर्गा से बहुत मिलती थी. पूछा तो बोले कि यह ताओ (Tao) धर्म की एक देवी की मूर्ती है. यह तो मालूम था कि चीन में बुद्ध धर्म भारत से पहुँचा था पर क्या हिंदू देवी देवताओं का भी कोई प्रभाव चीन में पहुँचा था, इसके बारे में कभी कुछ नहीं पढ़ा था.



बुद्ध धर्म का प्रभाव भारत से सारे एशिया में फैला था, चीन जापान, वियतनाम, कोरिया तक पर हिंदू धर्म का भी प्रभाव फैला था जिसके निशान इंदोनेशिया के बाली और कम्बोदिया के अंगकोरवाट मंदिर में दिखते हैं.

चीन यात्रा के बाद थाईलैंड आया तो वहाँ भी बुद्ध धर्म के साथ साथ हिंदू धर्म का प्रभाव दिखा. नीचे के चार तस्वीरों में हैं बैंकाक हवाईअड्डे पर बनी अमृतमंथन के दृश्य में मूँछों वाले विष्णु की मूर्ती, एक बुद्ध मंदिर में भगवान बुद्ध की प्रतिमाएँ, थाईलैंड के भूतपूर्व शासक राम तृतीय की मूर्ती, और एक सड़क के किनारे ब्रह्मा की मूर्ती.









इनको देखने के बाद मन में कई प्रश्न उठ रहे थे. बुद्ध धर्म के बारे में तो कहते हैं कि सम्राट अशोक के जमाने में बुद्ध धर्म का प्रचार हुआ पर हिंदू धर्म का प्रचार कब हुआ, किसने किया? भारतीय इतिहासकार बुद्ध धर्म के बारे में कहते हैं कि वह हिंदू धर्म के सुधारवाद का नतीजा था और जातिप्रथा आदि जैसी प्रथाओं को विरुद्ध सभी मानवों की बराबरी का संदेश देता था इसलिए हिंदू तथा बुद्ध धर्मों के बीच बहुत खिंचातानी और लड़ाई चली और बाद में बाहम्णवादियों ने बुद्ध धर्म को भारत से बिल्कुल हटा दिया, क्या अन्य देश जैसे थाईलैंड आदि, वहाँ हिंदू और बुद्ध धर्म की इस लड़ाई को कैसे देखा गया? हिंदू धर्म के साथ भारतीय जाति प्रथा क्यों अन्य देशों में नहीं फैली?

शुक्रवार, नवंबर 09, 2007

ज्योति उत्सव

जब भी कोई त्योहार आता है तो घर से दूर विदेश में होना बहुत अखरता है. बाज़ारों का शोर और धक्का मुक्की, मिठाई के डिब्बे, पड़ोसियों, दोस्तों और रिश्तेदारों से बधाई, अँधेरी रात में टिमटिमाते दिये और मोमबत्तियाँ, आज दीवाली है तो उस सब की याद आना स्वाभाविक ही है.

यहाँ तो आज एक आम दिन है, अन्य दिनों जैसा, हालाँकि हमने शाम को बाहर खाना खाने जाने का प्रोग्राम बनाया है जहाँ भरतनाट्यम नृत्य भी होगा. कल यहाँ राजस्थान के लोकनर्तकों का कार्यक्रम भी है. फ़िर हम दिल को समझाते हैं कि चलो दूरी ही अच्छी है कम से कम पटाखों के शोर और प्रदूषण से तो बचेंगे!

आज दीपावली के शुभ अवसर पर मुझे बुद्ध प्रार्थना याद आती है, तमसो मा ज्योतिर्गमय. और यही शुभकामना है मेरी कि आप के परिवार में, घर में और दिलों में ज्योति का वास हो.

नीचे वाली तस्वीरें अभी हाल में चीन यात्रा में ली ज्यांग नाम के शहर में खींचीं थीं.






हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

लोकप्रिय आलेख