गुरुवार, अगस्त 02, 2007

नया संगीत और धोबी का कुत्ता

कई बार कुछ भारतीय संगीतकारों से बात करने का मौका मिला और फ्यूजन संगीत की बात चली तो उनमें से अधिकाँश का कहना था कि भारतीय शास्त्रीय संगीत को पश्चिमी संगीत से मिलाना बेकार है क्योंकि जो संगीत बनता है वह धोबी के कुत्ते की तरह होता है, न घर का न घाट का.

वैसे तो मुझे यह धोबी के कुत्ते वाली कहावत ही समझ नहीं आती. बचपन में घर के पास ही सड़क के कोने में धोबी का घर था जिसके पास एक कुत्ता भी था और उस कुत्ते की हालत में मुझे अन्य आसपास के कुत्तों से कोई भी बात भिन्न नहीं दिखी.

खैर बात संगीत की हो रही थी. कुछ दिन पहले हम लोग फ्राँस के एक संगीत ग्रुप "ओल्ली और बोलिवुड ओर्केस्ट्रा" (Olli & Bollywood Orchestra) को सुनने गये. ग्रुप के अधिकाँश सदस्य फ्राँस के ही है. ओल्ली ग्रुप के गायक और प्रमुख संगीतकार भी हैं और भारतीय और पश्चिमी संगीतों की शैलियों को मिला कर अपना संगीत बनाते हैं, पर केवल शास्त्रीय संगीत से नहीं, मुंबई के फ़िल्मी संगीत से भी.




जब ओल्ली गाते हैं तो उनके गीतों के शब्द हिंदी के होते हैं और उच्चारण फ्राँस का, कभी कभी शब्द आपस में यूँ ही जोड़ देते हैं जिनमें कर्णप्रियता तो होती है पर अर्थ नहीं पर सुनते समय अर्थ की कमी नहीं महसूस होती बल्कि शब्दों के अर्थों के बारे में भूल कर आप केवल संगीत का आनंद ले सकते हैं. अपने संगीत की धुनें भी वह स्वयं ही बनाते हैं जो जाने पहचाने गानों से नहीं ली गयीं बल्कि जिनमें हिदी फ़िल्म संगीत और पश्चिमी ओपेरा संगीत का सम्मिश्रण सा है.

संगीत के साथ साथ पीछे पर्दे पर वीडियो छवियाँ भी दिखाते हैं जो अपने आप में कला का संपूर्ण रूप हैं. वीडियो के इन छवियों में पुरानी हिंदी फिल्मों के दृष्यों का अनौखा प्रयोग होता है, कभी एक ही दृष्य को बार बार दिखा कर, कभी उनमें दूसरी छवियाँ मिला कर, कभी उन पर रंग बिखेर कर, अपने संगीत की धुन से छवियाँ के घूमने को मिला कर, अजीब सा अहसास देते हैं. शुरु शुरु में जब उन्होंने गाना प्रारम्भ किया तो शब्दों के अर्थ ने होने, या अर्थ हो कर भी उनका उच्चारण विभिन्न होने के बारे में सोच रहा था पर थोड़ी देर में ही इन सब बातों को भूळ कर केवल ध्वनि, संगीत और छवियों के मायाजाल में खो सा गया.




"सुन मामा", "मेरी तेरी दोस्ती" गीत सबसे अच्छे लगे. कंसर्ट के अंत में गाँधी जी का भजन "रघुपति राघव राजा राम" भी बहुत अच्छा लगा, जो ओल्ली जी तीन विभिन्न सुरों में प्रस्तुत करते हैं पहले सामान्य भजन के रूप में शुरु करते हैं पर जिसमें अंतिम सुर ओपेरा संगीत से लिया गया है.

इस दल में दो भारतीय सदस्य भी है, कलकत्ता की सुदेशना भट्टाचार्य जो सरोद बजाती हैं और पाँडेचेरी के प्रभु एडुआर्ड जो तबला और ढोलक बजाते हैं. दोनो ही बहुत अच्छे कलाकार हैं. कंसर्ट के बीच का हिस्सा, इन दोनो की जुगलबंदी का था और बहुत सुंदर था.




इस ग्रुप ने हिंदी फ़िल्मी संगीत, भारतीय शास्त्रीय संगीत, पश्चिमी पोप संगीत और पश्चिमी ओपेरा को मिला कर जो फ्यूजन संगीत बनाया है वह अपने आप में संदर भी है और नया भी है इसलिए शायद नयी कहावत होनी चाहिये, "धोबी का कुत्ता घर का भी और घाट का भी".

प्रस्तुत हैं इस कंसर्ट की कुछ तस्वीरें.



बाँसुरी पर सिल्वान बारो


लाल कमीज में ओल्ली (शायद उनके नाम का सही उच्चारण है ओई?)






बायें से, गिटार बजाने वाले एरवान, बाँसुरी वाले सिल्वान और तबला बजाने वाले प्रभु

बुधवार, अगस्त 01, 2007

आप बीती कहने का साहस

हिंदी की पत्रिका "हँस" कई वर्षों से दलित लेखकों को प्रोत्साहन दे रही है, शायद एक दलित विषेशाँक भी निकल चुका है. मैं इस बात से सहमत हूँ कि किसी भी बात के बारे में लिखना हो, अगर उसे वह लिखे जो स्वयं उस बात का अनुभव कर चुका है और उसके लेखन में एक अन्य ही सच्चाई आ सकती है.

कहानी लिखना या उपन्यास लिखना, आप बीती लिखना नहीं है बल्कि लेखक द्वारा कल्पना की दुनिया से विभिन्न व्यक्तित्व बनाना है. इसलिए शायद यह आवश्यक नहीं कि दलित जीवन के बारे में केवल दलित ही लिख सकते हैं, पर यह अवश्य है कि अगर दलित अपने जीवन के बारे में लिखेंगे तो वे उस जीवन के बारे में नये पहलू रख सकते हैं जिनके बारे में गैरदलित लेखकों ने सोचा भी नहीं हो. यह नहीं कि हर दलित लेखक अपने लेखन में अपने जीवन को समझने के लिए नये पहलू उठा पायेगा, पर उनके बीच में भी कुछ लोग ऐसे अवश्य होंगे जिनमें यह क्षमता हो.

मुझे इस सच्चाई का एहसास तब हुआ जब विकलाँग लेखकों के सम्पर्क में आया. विकलाँगता शरीर में किसी अंग के सामान्य न होने सा या उसके सामान्य तरीके से काम न करने पाने से होती है, यह मेरा विश्वास था पहले. विकलाँग विचारकों के सम्पर्क में आया तो समझने का मौका मिला कि विकलाँगता व्यक्ति के शरीर में देखना केवल एक तरीका है विकलाँगता विर्मश का. विकलाँगता को समाज के सोचने और काम करने की तरीके में भी देखा जा सकता है, जब व्यक्ति के आसपास रुकावटें बना कर समाज व्यक्तियों को विकलाँग बना सकते हैं.

समाज के हाशिये से बाहर हर गुट में, चाहे वह विकलाँग हों, चाहे दलित हो, या शोषित स्त्रियाँ हों, या अल्पसँख्यक भाषी या अल्पसँख्यक धर्म के लोग, कुछ सत्य छुपे हैं जिन्हें वह स्वयं ही प्रस्तुत कर सकते हैं और बृहत संसार को समझा सकते हैं.

तो बात "हँस" के दलित लेखन की कर रहा था. अधिकतर दलित लेखक मुझसे पढ़े नहीं जाते, उनके लेखन में मुझे वह सत्य नहीं दिखता जिसे गैरदलित नहीं दिखा सकते और लेखन शैली विषेश नहीं होती, पर हँस के जुलाई अंक में श्यौराज सिंह बैचेन की आत्मकथा "यहां एक मोची रहता था" ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला. एक बार पहले भी हँस में उनका लिखा पढ़ा था जो मुझे बहुत अच्छा लगा था. इस बार भी उनका लेख पढ़ने लगा तो बीच में छोड़ा नहीं गया, पूरा पढ़ कर ही दम लिया और बाद में उसके बारे में सोचता रहा. दलित जीवन क्या होता है इसकी समझ भी देते हैं पर साथ ही उनके लिखने की शैली भी ऐसी है कि पढ़ना बहुत अच्छा लगता है. जलते अँगारों जैसे शब्द हैं और उन्हें पढ़ कर आधुनिक जातपात के नाम पर होने वाले भेदभाव की अमानवीयता की समझ बनती है.

अपनी आप बीती कहना कभी आसान नहीं होता. श्यौराज जी के अपने बचपन में मोची के काम करने के दिनों के वर्णन में कोई रुमानियत नहीं बस साफ सीधे शब्दों में बात कहते हैं. मैं मानता हूँ कि अपने आप बीते को इस तरह बता सकना ही मन को शोषण की ग्रथियों से और बीते जीवन के अनुभवों की यादों की जंज़ीरों मु्क्ति दे सकता है.

इसी अंक में अभय कुमार दुबे का "कंडोम के साथ चलते हुए यौन शिक्षा का विरोध" लेख भी बहुत अच्छा लगा जिसमें उन्होंने यौन विषय की ओर हमारे समाज में व्यापित दौगली मानसिकता पर प्रश्न उठाये हैं.

दोनो लेख इंटरनेट पर भी पढ़े जा सकते हैं, अगर अब तक नहीं पढ़े हों तो इन्हें अवश्य पढ़ियेगा.

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कभी कभी कोई छोटी सी पढ़ी हुई बात मन में ठहर सी जाती है.

कुछ यूँ ही हुआ जब "हँस" के जून अंक में वंदावन के स्वामी नित्यानंद का पत्र पढ़ा. उन्होने लिखा कि



"जैसे साहित्यकार उदास हैं कि पाठक नहीं मिलते, वैसे ही वेदांत के प्रवक्ताओं के लिए श्रोताओं का अभाव है. अंत यहां करूँगा कि -
दिल खुश हुआ है मस्जिदे वीरान देख कर
मेरी तरह खुदा का भी खाना खराब है"

वेदांत के श्रोताओं की कमी की बात करते हुए स्वामी जी ने बहुत सहजता से मस्जिद और खुदा की बात कर दी, बहुत अच्छी लगी. ऐसे वेदांत दर्शन की बात करने वाले स्वामी की बात को अवश्य सुनना चाहूँगा.

हँस के इसी अंक में एक और पत्र था आजकल के बहुत से धर्मगुरुओं के विषय पर, इंदौर से डा. ओमप्रकाश शर्मा भारद्वाज का यह पत्र, वह भी मुझे बहुत सटीक लगा. बहुत देर तक उनके शब्द मन में गूँजते रहे. आधुनिक धर्म गुरुओं के बारे में उन्होंने लिखा है,



"जो आज नित्य गगन विहार कर रहा है, वही मंच से कारुणिक स्वर में श्रीराम जी के वनगमन के समय उनके तलुओं में पड़े छालों का वर्णन कर रहा है. जो आज श्रीमंतों ही आतिथ्य स्वीकार करते हुए वातानुकूलित कक्षों में डनलप के गद्दों पर जाम लेता है, वही श्रीरामसीता की पंचवटि में भूमि शयन का वर्णन कर रहा है. जो आज काजू बादाम पिस्ता केसर कस्तूरी मेवा व शुद्ध घृत का भोजन करता है वही मंच से शबरी के बेरों का, सुदामा के तंदुल का व दिदुर के सागपात के आलौकिक स्वाद का वर्णन कर रहा है. जो शरीर की क्षणभंगुरता पर दार्शनिक रूप से व्याख्यान देता है, वही अपना जन्मदिन धूमधाम से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाता है. अपनी शोभा यात्राएँ निकलवाता है. अपना पाद पूजन कराता है. जो माया मोहव धन संग्रह की आसक्ति को त्यागने का उपदेश दे रहा है, वही अपने कथा स्थल के बाहर अपने चित्र,कैसेट, ओडियो, वीडियो, पुस्तकें, पूजा का सामान, यहाँ तक मंजन, तेल, शैम्पू, साबुन, चाय, पेन, कापी, आदि बेच रहा है..."
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जीमेल को लकवा मारा?

कुछ दिनों से हमारे गूगल देवता जी नाराज हैं. जीमेल खोलो तो बिना किसी दिक्कत के खुल जाता है पर सिवाय संदेशों को कूड़े में फैंकने के कुछ और नहीं करने देता. संदेश खोल कर पढ़ने नहीं देता, न ही नया संदेश लिखने देता है. कोई भी लिंक काम नहीं करती. क्या कोई मेरी सहायता करेगा कि उनकी यह बिमारी ठीक की जा सके?

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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