शनिवार, दिसंबर 29, 2007

कट्टरपँथी और जनतंत्र

इन दिनों मेरी छुट्टियाँ चल रहीं हैं. छुट्टियों के पहले कुछ दिन ससुराल में बीते. अब वापस घर आये तो इंटरनेट पर मटरगश्ती करने का समय मिला है जो सारा साल काम की वजह से कम ही मिलता है. इसलिए देश विदेश में कौन क्या कह रहा है, क्या लिख रहा है उसे पढ़ने का मौका मिल रहा है. आज जो पढ़ा उस के बारे में लिखना चाहता हूँ. शायद यह बातें अलग अलग हैं और उन्हें इस तरह साथ जोड़ना कितना ठीक है, कितना गलत यह निर्णय आप पर छोड़ता हूँ.

मिस्री मूल के लेखक और पत्रकार श्री मगदी अल्लाम (Magdi Allam) इटली के लोकप्रिय अखबार "कोरियेरे देला सेरा" (Correire Della Sera) के वरिष्ठ सम्पादक दल का हिस्सा हैं. पिछले कुछ समय से वह इस्लामी जिहाद और आतंकवाद के विरुद्ध लिख रहे हैं जिसकी वजह से उन्हें जान से मारने की धमकियाँ मिलीं हैं और उन्हें इतालवी सरकार ने राजकीय सुरक्षा दी है. पाकिस्तानी नेता बेनज़ीर भुट्टो के खून के बारे में 29 दिसंबर की अखबार में "इस्लाम और जनतंत्र" के नाम से बहुत कठोर सम्पादकीय लिखा है. उनका कहना है किः

"इस्लाम और जनतंत्र में आपसी विरोधाभास है और यह दोनो बातें एक साथ नहीं हो सकतीं कि इस्लाम बहुमत के देश में जनतंत्र स्थापित हो. जो भी देश अपने आप को "इस्लामी जनतंत्र" का नाम देते हैं जैसे पाकिस्तान, ईरान, अफगानिस्तान आदि, वहाँ जनतंत्र है ही नहीं. इस्लामी कान्फेरेंस संस्था के 56 देशों में से कोई भी देश जनतंत्र के नियमों का पूरी तरह से पालन नहीं करता, वहाँ जनतंत्र नाम के लिए है और वहाँ विभिन्न मानव अधिकारों की अवहेलना की जाती है... आधुनिक इतिहास यही दिखाता है कि इस्लामी बहुल्य के देश के जनतंत्र तभी सही होता जब शासन में धार्मिक वर्ग को अन्य जननीतियों से अलग रखा जाये. अगर यह भेद नहीं रखा जाता तो रूढ़िवादी और कट्टरपंथी लोग आम जीवन की हर बात में अपनी दखलदाँज़ी की जबरदस्ती करते हैं. चूँकि इस्लाम में कोई एक व्यक्ति या पद नहीं जिसे सबसे ऊपर माना जाये, हर धार्मिक नेता अपनेआप को धर्म का सच्चा रखवाला कहता है और चाहता है कि उसकी बात मानी जाये. इसी वजह से, इतिहास बताता है कि अन्य धर्मों से झगड़ा करने से पहले, इस्लाम अपने भीतर ही झगड़ों में उलझा रहा है..."
कल, 28 दिसंबर के एक अन्य इतालबी अखबार "लिबेरात्स्योने" (Liberazione) में, इतालवी पत्रकार फ्राँचेस्का मार्रेत्ता का लिया हुआ पाकिस्तानी मूल के ईण्लैंड में रहने वाले प्रसिद्ध लेखक हनीफ़ कुरैशी से एक साक्षात्कार भी छपा है. उसे भी आज ही पढ़ा. उन्होंने ने भी कुछ इसी तरह की बात कही हैः

"पाकिस्तान को मुसलमानों के लिए जनतंत्र की तरह सोच कर बनाया गया था, पर मुसलमान जनतंत्र में नहीं रह सकते, क्योंकि वे धर्म को बाकी सब बातों के सामने रखते हैं. मेरा अपना व्यक्तिगत विचार है कि पाकिस्तान को अलग देश नहीं बनाना चाहिये था, उसे भारत का हिस्सा ही रहना चाहिये था."
फ़िर पढ़ा भारतीय अँग्रेजी की अखबार इँडियन एक्सप्रेस (Indian Express) में श्री अरुण शोरी का नया लेख, "हिंदुत्व तथा उग्रवादी इस्लामः जहाँ यह दोनो मिलते हैं" (Hindutva and radical Islam: Where the twain do meet). इस लेख में शोरी जी का कहना है कि "हिंदुत्व उग्रपंथी इस्लाम से कम कट्टरपंथी नहीं है" वाली बात में अतिश्योक्ति है पर साथ ही कुछ सच्चाई भी है और हर धर्म के ग्रंथों में हिंसा को सही मानने वाली बात मिल सकती है. वह गाँधी जी के हिंदू विश्वास और बाल गंगाधर तिलक के हिंदू विश्वास की विभिन्नता की बात करते हैं और कहते हैं कि भगवद् गीता से हमें हिंसा का हिंसा से उत्तर देने की शिक्षा मिलती है.

उनके लेख पढ़ कर कुछ डर सा लगा, मानो वे चेतावनी दे रहे हों कि हिंदू हिँसा बढ़ने वाली है, बढ़ रही है. उससे भी अधिक डर लगा इस बात से कि शायद वह इस हिंसा को ही उचित मान रहे हैं.

शायद आज यह समझना आवश्यक है कि उग्रवाद, रूढ़िवाद, कट्टरपन, आदि जैसी बातें किसी एक धर्म की धरौहर नहीं, हर धर्म को अपनी चपेट में ले सकती हैं, हर धर्म को निर्भीक विचारक चाहियें जो किसी भी रुप में हिंसा को उचित न स्वीकारें, जो हमेशा उसका विरोध कर सकें. जो यह माने कि कोई भी धर्म मानव से हट कर या ऊँचा नहीं, और हर धर्म में मानव को उस पर खुल कर बहस करने, उसकी आलोचना करने का अधिकार हो.

सोमवार, दिसंबर 24, 2007

बच्चे को दूध पिलाता पुरुष

अँग्रेजी जूआ खेलने वाली कम्पनी पोवरबिंगो के नये इश्तेहार ने कुछ खलबली सी मचा दी है. लंदन की अँडरग्राउड मैट्रो ने और आयरलैंड में डबलिन की बसों ने इस विज्ञापन को लगाने पर रोक लगा दी है कि क्योंकि उनका कहना है कि इस तरह के इश्तेहारों से जन सामान्य की भावनाओं को ठेस पहुँचती है.

विज्ञापन में है गोद में छोटे बच्चे को लिया हुआ एक पुरुष जिसने अपनी कमीज़ ऊपर उठा रखी है जिससे लगता है कि बच्चा उसके स्तन से दूध पीने वाला है. विज्ञापन पर लिखा है "सारी औरतें कहाँ चली गयीं?"



जब से यह बैन हुआ तब से इस विज्ञापन पर बहस चल रही है. बहुत से लोग कहते हैं कि ऐसी कोई बुरी बात नहीं है इस विज्ञापन में पर उन्हें पुरुष मोडल कोई अधिक सुंदर लड़का चुनना चाहिये था. शायद बुरा लगने वाली बात है कि विज्ञापन के अनुसार आज की नारियाँ बच्चों का ध्यान कम रखती हैं और जूआ खेलने में लगी हैं? या कि पुरुष को बच्चों का धयान रखना पड़े यह बुरी बात है? या फ़िर पुरुष के स्तन का हिस्सा दिखाना बुरी बात है?

मेरे विचार में आज नारी और पुरुष के सामाजिक रोल बदल रहे हैं और विज्ञापन इस बदलाव का लाभ उठा कर अपना संदेश देने में सफल भी होते हैं और साथ ही, समाज को मजबूर करते हैं कि वह इन बदलते रूपों पर सोचे और नये जीवन मूल्यों को बनाये.

विज्ञापन चाहे जो भी कहे, अधिकतर घरों में सच्चाई यही है कि पुरुष घर और बच्चों की जिम्मेदारी में कम ही भाग लेते हैं. चाहे वह किसी खेल में हिस्सा लेने जाने की बात हो, चाहे मित्रों के साथ शाम बाहर बिताने की, अधिकतर पुरुष ही जाते हैं. अगर बच्चों को देखने वाला कोई हो तो पुरुष के साथ नारी भी जाती है पर पुरुष घर में रहे और अकेली नारी बाहर सहेलियों के साथ घूमने जाये, यह कम ही होता है. समाज में नारी पर अच्छी माँ बनने का बहुत दबाव होता है, नौकरी की वजह से भी घर से या बच्चों से दूर रहना पड़े तो भी, अच्छी माँ न होने का अपराध बोध उसे सताता है. अच्छी माँ वही होती है जो अपने सपने भूल कर, अपनी चाहों को दबा कर, बच्चों के लिए त्याग करे और घर में रहे, यही सबक सिखया जाता है आज भी लड़कियों को. अगर कोई विज्ञापन इस बात पर ध्यान आकर्षित करे तो मेरे विचार में यह अच्छी बात है.

मैं यह नहीं कहता कि औरतों को पुरुषों की तरह होना चाहिये, पर मेरा विचार है कि आज के बदलते जीवन में पुरुष और नारी के बीच में घर की जिम्मेदारियाँ जिस तरह बँटीं हैं वे बदल रही हैं, उन्हें बदलना चाहिये.

दूसरी बात इस विज्ञापन में प्रयोग की गयी तस्वीर के बारे में है. मेरे विचार में तस्वीर में बुराई नहीं बल्कि इससे समाज के अन्य पहलुँओं पर भी विमर्श किया जा सकता है. मान लीजिये कि विज्ञापन पर लिखा होता, "अगर पुरुष भी बच्चों को दूध पिला पाते तो क्या आज इस दुनिया में युद्ध कम होते?", तो आप को कैसा लगता?


पेरिस के झाड़ूमार

फ्राँसिसी पत्रकार फ्रेड्रिक पोटे (Frédéric Potet) ने ले मोंड 2 (Le Monde 2) में पेरिस के सफाई कर्मचारियों के जीवन के बारे में एक लेख लिखा है. इसे लिखने के लिए वे दो सप्ताह तक सफाई कर्मचारियों की पौशाक पहन कर उनके साथ साथ रहे, उनके साथ काम किया ताकि उनके जीवन को ठीक से समझ सकें.

अपने अनुभव के बारे में वह बताते हैं कि जब पहले दिन वह सफाई कर्मचारियों के दफ्तर में पहुँचे तो लोगों ने उनसे पूछा, "क्या तुम्हें अखबार से निकाल दिया है? या फ़िर कोई सजा मिली है?" जब फ्रेड्रिक ने बताया कि वह लेख लिखने के लिए उनके हर रोज के जीवन का अनुभव करना चाहते हैं तो एक सफाई कर्मचारी बोला, "शायद तुमने कुछ पाप किये होंगे तभी तुम्हें यहाँ आना पड़ा".

फ्राँस में भारत की तरह से जाति के झँझट नहीं, पर लेख को पढ़ कर लगता है कि समय, जगह आदि बहुत कुछ बदल कर भी जीवन की बहुत सी बातें नहीं बदलतीं, चाहे वह भारत हो या योरोप.

फ्राँस में कूड़ा सड़के के किनारे रखे बड़े बड़े ढक्कन वाले बंद कूड़ेदानों में फैंका जाता है. कूड़ा उठाने सप्ताह में दो या तीन बार, नगरपालिका की गाड़ी आती है. कूड़ेदान उठाना, उसे ट्रक में पीछे डालना, कूड़े को दबा कर छोटा करना, सब काम मशीन से होते हैं. सफाई कर्मचारियों होने से क्या काम करना होता है? एक आदमी गाड़ी के भीतर बैठ कर मशीन को चलाता है, एक या दो व्यक्ति बाहर उतर कर मशीन को डिब्बे से जोड़ते हैं या देखते हैं कि सब ठीक से हो रहा हो, अगर सड़क पर कुछ गिरा हो उसे उठा लो. कभी कभी लोग घर के सामान, जैसे सोफा, फ्रिज, टेलिविजन आदि को कूड़ेदान के पास बाहर रख देते हैं, तो इस तरह के सामान को उठाना भी उनका काम है. बड़ी सड़कों पर गिरे पत्तों, गंदगी आदि की सफाई का काम भी मशीन से होता है पर कई जगहों पर मशीन वाली गाड़ी नहीं जा सकती और लोगों को झाड़ू ले कर पुराने तरीके से ही सफाई करनी पड़ती है.

फ्रेड्रिक सफाई कर्मचारियों के साथ बिताये इन दिनों के अनुभवों से बहुत सी बातों को समझाते हैं जिनके बारे में हम अक्सर नहीं सोचते. जैसे कि इन सफाई की मशीनों वाली गाड़ियों के शोर के बीच में रहने का असर. कई बार घर के बाहर जब सफाई की गाड़ी कुछ समय के लिए कूड़ा उठाने के लिए रुकती है तो शोर से झुँझुलाहट सी होती है, मन में आता है कि इतनी सुबह सुबह इस तरह का शोर करके हमारी नींद खराब कर देते हैं, पर यह कभी नहीं सोचा था कि इस तरह के शोर में घिर कर काम करना कितना कष्टदायक होगा और हर रोज़ कई घँटों तक शोर के बीच में रह कर उन्हें किस तरह लगता है?

सफाई कर्मचारी अपनी बातों में बार बार कूड़े, पाखाने और गन्दगी के बीच में रहने और काम करने के असर के बारे में बताते हैं, उनके घर वालों को और बच्चों को इस काम कर बारे में बताने से शर्म आती है, उनके शरीर से कपड़ों से बू आती है, जब वे सफाई कर्मचारियों की वर्दी पहने होते हैं तो लोग उनकी तरफ देखते नहीं, मन में हीन भावना आ जाती है, इत्यादि. फ्रेड्रिक से बात करते हुए एक व्यक्ति कहता है कि इस काम की सबसे बुरी बात है कि चाहे जितनी भी मेहनत करलो, गन्दगी कम नहीं होती, आप ने सारी सफाई की हो तो भी, दो मिनट बाद ही कोई और उसे गन्दा कर देगा.

अगर मशीनों के साथ काम करके यह हाल है तो भारत में जहाँ सब कुछ अपने हाथों से, बिना दस्ताने पहन कर करना पड़ता है, वहाँ लोगों के मन पर क्या असर होता होगा इसको सोचा जा सकता है.

फ्रेड्रिक के अनुसार 2007 में जब पेरिस की नगरपालिका ने 300 नये सफाई कर्मचारियों की भर्ती के लिए विज्ञापन दिया तो 4000 लोगों ने अर्जी भेजी. सरकारी नौकरी, अच्छी मासिक पगार, सुबह काम करना प्रारम्भ करो और दोपहर तक खाली हो जाओ, आदि से यह काम करना चाहनेवालों की कमी नहीं.

पेरिस के सफाई कर्मचारियों में कुछ भारतीय भी हैं. फ्रेड्रिक उनके बारे में अधिक नहीं बताते पर अगर भारत में जाति भेद का सोचें या फ़िर भारतीय समाज में छोटे बड़े काम करने वालों के बीच के भेदभाव के बारे में सोचें तो लगता है जाने क्या बताया होगा उन्होंने अपने घर वालों को कि क्या काम करते हैं वे? पेरिस में सफाई करने की सरकारी नौकरी मिले, 1200 यूरो की मासिक पगार मिले तो क्या आप क्या यह काम करना पसंद करेंगे?

सोमवार, दिसंबर 17, 2007

आज की भारतीय नारी

भारत के बड़े शहरों में घूमिये तो हर क्षेत्र में नारी आगे बढ़ते दिखती है, चाहे वह विश्वविद्यालय की छात्राएँ हों या डाक्टर वकील जैसे पैशे में जुटी नारियाँ या फ़िर हर तरह के काम में लगी नौकरी करने वाली. जब विश्व लिंग भेद रिपोर्ट (World Gender Gap Report) देखी तो सोचा कि भारत का स्थान नारी विकास के क्षेत्र में अच्छा ही होना चाहिये.

रिपोर्ट ने कुल 128 देशों में नारी और पुरुष की स्थिति को जाँचा है और इसके हिसाब से स्वीडन विश्व में पहले नम्बर पर है और भारत 114वें स्थान पर. दक्षिण एशिया के अन्य देशों की स्थिति है नेपाल 125वें स्थान पर, पाकिस्तान 126वें स्थान पर, बँगलादेश 100वें स्थान पर और श्री लंका 15वें स्थान पर.

पहले तो यह हैरानी हुई की भारत इतना पीछे कैसे हुआ, पाकिस्तान और नेपाल के पास? दूसरी हैरानी हुई बँगलादेश का स्थान हमारे देश से आगे है. पर सबसे अधिक हैरानी की बात लगी कि श्री लंका इतना आगे है जबकि अमरीका 31वें स्थान पर है और इटली 84वें स्थान पर.

यह रिपोर्ट चार क्षेत्रों में समाज में नारी का स्थान परखती है - आर्थिक उन्नति और आय, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा राजनीतिक सशक्तिकरण. अब देखें भारत के कुछ आँकणे:

जहाँ तक आर्थिक उन्नति और आय का सवाल है कमजोरी के कारण हैं समान कार्य के लिए भारत में नारियों को पगार कम मिलती है, उन्हें काम करने के मौके कम मिलते हैं, ऊँचे पद पर उनकी तरक्की कम होती है (ऊँचे पद पर स्त्रियाँ 3 प्रतिशत, पुरुष 97 प्रतिशत) और तकनीकी क्षेत्रों में वे अपेक्षाकृत स्थान नहीं पातीं. इस दृष्टि से भारत का स्थान विश्व के 128 देशों में 114वाँ हैं.

शिक्षा क्षेत्र में लड़कों के मुकाबले कम लड़कियाँ लिखना पढ़ना जानती हैं (लड़कियाँ 48 प्रतिशत, लड़के 73 प्रतिशत), प्राईमरी स्कूल में उनका अनुपात कम है, ऊच्च शिक्षा में भी उनका अनुपात युवकों के मुकाबले में कम है (ऊच्च शिक्षा में लड़कियाँ 9 प्रतिशत, लड़के 14 प्रतिशत). इस दृष्टि से भारत का स्थान 128 देशों में से 122वें स्थान पर है.

स्वास्थ्य के क्षेत्र में जन्म के समय लड़कियों और लड़कों के अनुपात में अंतर होने की विषमता भारत में बहुत अधिक है, और स्वास्थ जीवन आकाँक्षा में उनका जीवन कुछ छोटा होता है, इसलिए इस दृष्टि से देखने पर भारत का स्थान 128 देशों में से 117वें स्थान पर है.

राजनीतिक संशक्तिकरण के क्षेत्र में भारतीय संसद में स्त्री साँसद पुरुषों के सामने बहुत कम हैं (स्त्रियाँ 8 प्रतिशत, पुरुष 92 प्रतिशत) और स्त्री मिनिस्टर भी कम हैं ( स्त्री मिनिस्टर 3 प्रतिशत, पुरुष 97 प्रतिशत).

कुछ दिन पहले अखबार में पढ़ा था कि एक सर्वे हुआ जिसमें पूछा गया कि आप अपने भविष्य के बारे में क्या सोचते हैं तो निकला की भारतीय सबसे अधिक आशावान हैं कि भविष्य आज से अच्छा होगा और 2020 तक भारत एक विकसित देश होगा. पर अगर देश की स्थिति आँकणों से देखी जाये तो विकासित होने का रास्ता अधिक लम्बा लगता है. शायद इसका सबसे बड़ा कारण शहरों और गाँवों के बीच की विषमता है. शहरों में जीवन तेजी से सुधर रहा है, उन्नति के मौके बढ़ रहे हैं पर गाँवों में अभी भी बैलगाड़ी ही चलती है, पानी और बिजली जैसी आवश्यकताएँ अधूरी रह जातीं हैं. भारतीय दर्शन नारी को देवी मानता है, देवी के रुप में मंदिर में जगह देता है पर जब तक आम जीवन में नारी के साथ विषमताएँ रहेंगी, मंदिर की देवी केवल कहने की बात हो कर ही रह जाती है.

गुरुवार, दिसंबर 13, 2007

किस नाम से तुम्हें मारूँ?

जब भी दिल्ली के एशिया मानव अधिकार केंद्र का बुलेटिन (ACHR Review) मिलता है तो अक्सर मन में इस केंद्र के ज़िम्मेदार श्री सुहास चकमा की सराहना करने की इच्छा होती है. मानव अधिकारों की बात हो तो भारत के आसपास के सभी देशों के बारे में निर्भीक हो कर लिखते हैं. अपने बुलेटिन के नये अंक में उन्होंने भारत में मानव अधिकारों पर होने वाले प्रहारों की बात की है.

जब किसी देश के कानून से बाहर निकल कर लोग अपने हाथों में कानून ले लेते हैं और अगर उस देश में कानून की रक्षा करने की समर्थता या इच्छा नहीं होती तो धीरे धीरे यह बात सारे समाज को डसती है. यह बात वह ग्वाटेमाला और कोलोम्बिया के उदाहरण के साथ बताते हैं जहाँ की सरकारों ने अपने शत्रुओं के लड़ने के लिए कानून छोड़ कर कानून के बाहर निजी सैंनाओं का सहारा लिया और यही सैनाएँ काबू से बाहर निकल कर अत्याचार, खून, बदमाशी का खुला खेल खेलने लगीं.

उनका कहना है कि कलकत्ता में नंदीग्राम में सीपीआई मार्कसवादी दल द्वारा अपने गुँडों के सहारे लोगों को कुचलना जो जबरदस्ती जमीन छौने जाने का विरोध कर रहे थे, उड़ीसा सरकार द्वारा पोस्को स्टील प्लाँट का विरोध करने वालों का दमन, केरल में सीपीआई मार्कसवादी दल के लोगों द्वारा मुन्नार के आदिवासियों पर हमला, भारत में इस दिशा में बढ़ती प्रवृति का संकेत देती है और कहते हैं कि अगर सरकार इसपर रोक नहीं लगायेगी तो इसके परिणाम घातक होंगे.

सच बात है कि आज भारत में जिसमें थोड़ा सा भी दम हो, चाहे वह शिवसैनिक हों जो किसी फ़िल्म या पुस्तक या चित्र का विरोध कर रहे हों, चाहे वह रूढ़िवादी मुस्लमान हों जो किसी लेखिका का विरोध कर रहे हों, या सिख हों जो अपने धर्म का मजाक उड़ाने वाले की बात कर रहे हों, कानून क्या होता है यह नहीं जानना चाहते, सीधा दंगाफसाद तोड़फोड़ शुरु कर देते हैं, मरने मारने की धमकी देते हैं, जिसका मन करता है वह अपनी धार्मिक भावना को ठेस लगने का झँडा पकड़ कर खड़ा हो जाता है, और सरकार उन गुण्डागर्दी करने वालों के विरुद्ध कुछ नहीं कर पाती, बल्कि उनका साथी बन कर लेखों, चित्रकारों, विचारकों पर मुकदमा कर ठोक देती है कि तुमने हमारे देश की शाँती को बिगाड़ा है, आग भड़कायी है. यह सभी जानते हैं कि किसी जिले के कमिशनर में अगर दम है तो अपने इलाके में दँगा फसाद होने नहीं देता, उसे सख्ती से रोक देता है पर अधिकाँश भारत में यह हिम्मत चुक गयी है.

तुरंत लाभ के लिए, चुनावों का सोच कर या गठबँधन का सोच कर या अन्य फायदे के लिए, सभी अपने मुँह आँखों पर पट्टी बाँध लेते हैं, चाहे वह काँग्रेस हो या बीजेपी या फ़िर कम्युनिस्ट पार्टी वाले. विकास, विदेशी अंदाज के बने माल, जगप्रसिद्ध ब्राँड की चाह, से अधिकतर लोगों की आँखें शायद चुँधिया गयीं हैं जो किसी को भी इस विकास में रुकावट बनता देखती हैं उसे मसल कर कुचल देती हैं या फ़िर उसे कुचलता देख कर भी अनदेखा कर देती हैं.
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आज एक फ़िल्मी समाचार देखा जो राम गोपाल वर्मा की नयी फिल्म "सरकार राज" की बात कर रहा था जिसमें अमिताभ बच्चन, अभिशेख और एश्वर्य राय तीनों काम रहे हैं. उसमें लिखा है कि शायद यह फ़िल्म नंदीग्राम में हुए हादसे पर बनी है और नंदीग्राम में क्या हादसा हुआ उस पर लिखा है कि नंदीग्राम में एक बड़ा बाँध बन रहा है जिसका वहाँ के लोग विरोध कर रहे हैं.

सोमवार, दिसंबर 03, 2007

दुनिया मुर्गीखाना

कामेरून के कामगार यूनियन के बरनार्ड न्जोंगा (Berbnard Njonga) ने मुर्गी युद्ध का पहला दौर जीता है और दुनिया में भूमँडलिकरण के विरुद्ध आवाज़ उठाने वालों के लिए उदाहरण बन गये हैं कि छोटे से गरीब देश का छोटा सा आदमी भी अगर चाहे तो बड़ी बहुदेशीय कम्पनियों को पछाड़ सकता है. यह कहानी पढ़ी जर्मन पत्रिका डेर श्पीगल (Der Spiegel) में.

न्जोंगा की लड़ाई को समझने के लिए विश्व मुर्गा व्यापार के पीछे छिपी आर्थिक और सामाजिक जड़ों को समझना पड़ेगा. यह जड़ें शुरु होती हैं उत्री अमरीका और यूरोप के विकसित देशों में जहाँ मुर्गी का माँस खाने का शौक तो है पर मुर्गी के शरीर के हर भाग की माँग बराबर नहीं है. यूरोप और अमरीका में सुपरमार्किट में मुर्गी की छाती का माँस सबसे अधिक बिकता है, तो बाकी बिना बिके हिस्सों का क्या किया जाये? मुर्गी का माँस बेचने वालों को केवल छाती के माँस बेचने से ही बहुत फायदा हो जाता है इसलिए वे मुर्गी के बचे हुए हिस्सों को कम कीमत पर बेचने के लिए तैयार हैं. इसलिए मुर्गी की विभिन्न हिस्सों को बाजार में उनकी माँग के हिसाब से विभिन्न देशों में निर्यात किया जाता है, यानि पँजे वियतनाम, थाईलैंड जैसे देशों का रास्ता पकड़ते हैं और टाँगे अफ्रीका जाती हैं.

यही हुआ कामेरुन में, जब दो तीन साल पहले उनकी सुपरमार्किट में यूरोप से सस्ती मु्रगी की टाँगे बिकने लगीं, रातों रात कामेरुन के मुर्गी उत्पादको की बिक्री कम हो गयी. लोगों ने बैंक से पैसा उधार ले कर मुर्गी पालने के फार्म लगाये थे, पर उनकी मुर्गियों की कीमत विदेश से आयात किये माँस से अधिक थी तो लोग उनका मँहगा माँस क्यों खरीदते?

कामेरून की राजधानी याउँडे के एक मु्र्गी फार्म वाले के कहने पर न्जोंगा ने इस बात की जाँच शुरु की यह समझने के लिए यह माँस कहाँ से आता है, किसका फायदा हो रहा है. पहले कस्टम वालों को घूस दे कर उन्होंने कागज निकलवाये और देखा कि 70 प्रतिशत आयात होलैंड की एक कम्पनी से हो रहा था. फ़िर उन्हें शक हुआ कि इतनी दूर से यह माँस कैसे लाया जाता है, क्या इसे हमेशा ठँडी जगह रखने की सहूलियतें हैं और क्या माँस में कुछ खराबी तो नहीं. इसके लिए उन्होंने माँस की एक स्थानीय लेबोरेटरी से जाँच करायी, हालाँकि लेबोरेटरी वालों ने पूरी रिपोर्ट देने से इन्कार कर दिया क्योंकि इस आयात के पीछे कुछ नेता थे, फ़िर भी न्याँगा यह जानने में सफल रहे कि उस माँस में बेक्टीरिया की मात्रा अधिक थी.

इस सब जानकारी के आधार पर न्यांगा ने साथियों के साथ मिल कर पर्चे छपवाये और जनता में बाँटने लगे, सभाएँ की और लोगों को बताया कि किस तरह से कुछ लोग अपने लाभ के लिए इस माँस का आयात करवा रहे थे जिसमें बीमारियाँ फैलने की भी आशंकाएँ थीं. कोई न्जोंगा की बातों को गलत नहीं कह सकता था क्योंकि उसके पास सारे सबूत थे. जब इस बारे में जन असंतोष बढ़ा तो राष्ट्रपति को कहना ही पड़ा कि यह आयात बंद कर दिया जायेगा और आयातित माँस पर कर लगया गया जिससे उसकी कीमत स्थानीय माँस से अधिक हो गयी और न्जोंगा यह मुर्गी युद्ध जीत गये. बड़े कामरुन के बड़े नेताओं के साथ हारने वाला यूरोप भी है जो सब कुछ जान कर भी अपने उत्पादकों और कृषकों को बढ़ावा देता है कि अपने उत्पादन कम कीमत पर गरीब देशों में भेज कर वहाँ की आर्थिक स्थिति में तूफान मचा दें.

मंगलवार, नवंबर 27, 2007

पँखहीन मानव

हिंदी की मासिक पत्रिका हँस में पंकज बिष्ट की नयी लम्बी कहानी "पँखोंवाली नाव" पढ़ी, जो तीन भागों में प्रकाशित हुई है. कहानी का मु्ख्य पात्र है अनुपम, एक समलैंगिक युवक. हिंदी कथानकों में इस तरह के हाशिये से बाहर रहने वाले जीवनों के बारे में बहुत कम लिखा जाता है.

हिंदी लेखन आम तौर से यौन सम्बंधों के बारे में भी कम बात करता है. अग्रेजी साहित्य में यौन सम्बंधों के बारे में जिस तरह से स्पष्ट रुप से बात हो सकती है, हिंदी में उस तरह की बात लिखना अश्लीलता या फ़िर भौंडापन माने जाते हैं. इस तरह की सोच, यौन सम्बंध और यौन आचरण, जो जीवन अनुभव का अभिन्न अंग हैं, गम्भीर हिंदी लेखन में अनछुए से रह जाते हैं. यौन सम्बंधों और आचरण के बारे में लिखा कुछ मिल भी जाये, इस तरह की बात को समलैंगिकता के संदर्भ में सोचा भी नहीं जा सकता.

पंकज जी अपनी इस कहानी से दोनों लक्ष्मण रेखाओं को पार करने की कोशिश करते हैं और मेरे विचार में यह सराहनीय बात है.

दलित जीवनों के बारे में लिखने का हक किसे है, इस बहस में एक तरफ से कहा जाता है कि दलित स्वयं ही अपने जीवन के बारे में लिख सकते हैं क्योंकि उनका लेखन अपने जीवन के अनुभव से निकलता है और उनका इस बारे में लिखना अधिक प्रमाणिक होता है. दूसरी ओर बात है कल्पना शक्ति की, लेखक को हर बात को अपने जीवन में अनुभव हो यह जरूरी नहीं, वे कहते हैं. अगर ये बात होती तो कोई कभी खून और चोरी के, या इतिहास के बारे में लिख ही न पाता. पर जब कोई लेखक अपनी कल्पना से किसी विषय में लिखता है तो यह प्रश्न उठता है कि लेखक को यह सब बातें कैसे मालूम हुईं, केवल इस विषय में पढ़ कर या फ़िर महाश्य स्वयं भी शायद .. क्या दलित जीवन के बारे में लिखने वाले लेखकों के बारे में इस तरह की बात उठती थी यह मुझे मालूम नहीं, पर अगर आप समलैंगिकता के बारे में लिखें तो शायद उठ सकती है?

शायद यही वजह है कि पंकज की कथा का समलैंगिक नायक अनुपम स्वयं अपनी आवाज़ में अपनी कहानी नहीं सुनाता, बल्कि उसकी कहानी सुनाता है उसका मित्र विक्रम, जो अनुपम को मित्र मानता है पर साथ ही अनुपम के अपने प्रति आकर्षण से डरता है और स्पष्ट कर देना चाहता है कि उसमें स्वयं में कोई समलैंगिक भावना नहीं:

उसके शरीर से उठती पसीने की गंध से उबकाई महसूस होने लगी. किसी विदेशी डीओडरेंट ने इसे और विकृत कर रखा था. पुरुष शरीर की गंध से इस तरह की वितृष्णा मुझे शायद ही उससे पहले कभी हुई हो. यह श्रम के पसीने की नहीं बल्कि वासना और विकृति की गंध थी. और यह विकृत हिंस्र दुर्गंध मुझे कई दिनों तक परेशान करती रही.
अगर पात्र समलैंगिक है तो उसकी जीवन कथा में अलग अलग लोगों से प्रेम सम्बंधों की बात होगी, अपमान और शोषण की बात होगी, हिंसा की बात होगी, एडस या अन्य बीमारियाँ होगी, तिरस्कार और ठुकराये जाने की बात होगी, नशे और बेलगाम जीवन की बात होगी, नौकरी बदलने की विवशता होगी ही. अगर हिंदी में इस बारे में कम लिखा गया है तो नया लग सकता है पर इसमें नया क्या है? समलैंगिक जीवनों का सत्य यही तो होता है? मुझे लगता है कि समलैंगिक जीवनों का यह सत्य केवल विषमलैंगिकों द्वारा देखा हुआ सच है और समलैंगिक जीवनों के अन्य सच भी हो सकते हैं जिन्हें समझना या कहना हमें नहीं आया?

इस तरह के विषयों पर हिंदी में लिखना आसान नहीं, और यह सब बातें विदेशी प्रभाव का नतीजा हैं, इसीलिए इन्हें केवल अँग्रेजी में ही कह सकते हैं? पंकज जी की कथा के पात्र भी बहुत सी बातें केवल अंग्रेजी में कहते हैं. पर शायद इसकी वजह यह भी है कि इस बारे में बात कम होती है, और जब हो सकेगी तो शायद उसके कहने और समझने के लिए हिंदी के शब्द भी मिल जायेंगे.

सोमवार, नवंबर 26, 2007

भारतीय मित्र

प्रियंकर ने बताया था कि उनके एक पुलिसवाले मित्र यहाँ इटली में एक कोर्स के सिलसिले में आ रहे हैं. नाम है महेन्द्र कुमार पूनिया और आईपीएस अफसर होने के साथ साथ कवि भी हैं. तो कुछ अजीब सा लगा.

पहले कभी पुलिस में काम करने वाले किसी को नहीं जानने का मौका मिला था. बचपन का एक साथी इन्जीनियर की पढ़ाई के बाद वायु सेना में भरती हुआ था तो मुझे लगा था कि वह बदल गया हो और जब छुट्टियों में घर आता तो उससे बहुत बहस होती. मुझे लगता कि उसे अपने से भिन्न बात सुनने की आदत ही न हो, बस "यस सर, यस सर" की आदत हो. शायद उस याद का प्रभाव था कि पुलिसवाला शब्द को सुन कर कविता का विचार तो बिल्कुल नहीं आता मन में.

कल संदेश भेजा महेंन्द्र ने कि उनका गुट रोम से वापस विचेंजा जाते हुए हमारे शहर बोलोनिया में यहाँ के स्थानीय पुलिस की मेस में खाना के लिए कुछ देर रुकेगा और यह मिलने का अच्छा मौका होगा. तो कल रात को बेटे को कहा कि वह मेरे साथ चले क्योंकि रात को वैसे ही गाड़ी चलाना मुझे अच्छा नहीं लगता और दूसरा यह कि, वह पुलिस मेस हमारे घर से बिल्कुल दूसरे कोने में है और उस इलाके की मुझे बिल्कुल जानकारी नहीं.

महेंद्र से मिलना बहुत अच्छा लगा. दिखने में वह पुलिसवाले कम कवि ही अधिक दिखते हैं. उन्होंने कुछ अपनी कविताएँ भी पढ़ने को दीं. उनमें से एक कविता "कश्मीर" की कुछ पंक्तियाँ हैं:

क्या चिनार के पेड़ पर
एक भी पत्ता नहीं है
बलात्कृत दोशीजा का तन ढकने को?
क्यों झुक गया है
पोपलर का आकाश में तना हुआ शीश?
क्यों रो रहे हैं विलो
झेलम के किनारे सिर झुकाए हुए?
क्यों सारी की सारी काँगलिड़याँ
ठण्डी हो गयीं हो हैं
और शीतल घाटियाँ आग उगल रही हैं?

महेंद्र से सिलीगुड़ी की कुछ बातें करके बचपन के दिनों की याद ताजा करली जब सिलीगुड़ी और अलीपुरद्वार की ओर गर्मियों की छुट्टियों में मौसी के पास जाते थे. महेंद्र ने मिलवाया अपने एक साथी सत्यानारायण सबत से हैं तो उड़िया, पर रहते हैं वाराणसी में और उत्तरप्रदेश में काम कर रहे हैं. सत्यनारायण जी भी लेखक हैं, मानव अधिकार पर लिखते हैं और इस सिलसिले में मानव अधिकार कमिशन का पुरस्कार भी पा चुके हैं.

दोनो लेखकों से बात करने का अधिक मौका नहीं मिला क्योंकि खाने के बाद तुरंत उन्हें यात्रा पर निकलना था. मौका मिला कि भारत से आये बाकी दल से भी नमस्ते कहने का मौका मिले. दल में 13 लोग हैं जिनमें तीन महिलाएँ भी हैं. कोई हिमाचल से, कोई तमिलनाड से, कोई मध्य प्रदेश से, कोई उत्तरप्रदेश से, सारे भारत के विभिन्न कोनों से आये यह पुलिस और सुरक्षा के विभिन्न विभागों के लोग यहाँ संयुक्त राष्ट्र संघ के शाँति मिशन के सिलसिले में कोर्स करने आये हैं. उनमें से कई लोग पहले भी शाँति मिशन में कोसोवो, बोसनिया जैसी जगहों पर काम कर चुके हैं.

जब वे लोग बस में बैठने लगे तो विदा कहते हुए मन में थोड़ा सा दुख सा, भारत से इतने लोग आये थे अगर सब को ठीक से जानने समझने का मौका मिलता तो कितना अच्छा होता!

प्रस्तुत हैं कल रात की इस मुलाकात की दो तस्वीरें. पहली तस्वीर में बायें से हैं सत्यनारायण, मैं, महेंद्र और मेरा बेटा मारको तुषार. दूसरी तस्वीर में भारतीय दल के कुछ लोग.






बुधवार, नवंबर 21, 2007

लागा फेफड़ों मे दाग बचायें कैसे

आज के जीवन में प्रदूषण का कितना असर है इसे बड़े शहरों मे रहने वाले अच्छी तरह जानते हैं. घर से बाहर निकलो बस इसी से सब कपड़े मैले हो जाते हैं. बीस साल पहले जब दिल्ली में काम करता था तो लगता था कि प्रदूषण की वजह से साँस की तकलीफ़ वाले लोगों की सँख्या बढ़ती जा रही थी. जब दीवाली आती तो सभी दमे के मरीज कोशिश में लग जाते कि इस बार बढ़ते प्रदूषण की मार से कैसे बचा जाये. लोग घर के दरवाजों को गीले कपड़ों से बंद कर के बाहर की हवा को भीतर आने से रोकते, किसी के पास साधन होते तो वह दीवाली के दिनों में दिल्ली से बाहर चला जाता. दिल्ली छोड़ने के बाद जब भी वापस भारत जाता तो लगता कि दिल्ली का प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है. केवल पिछले कुछ सालों से जब से सभी टैक्सी, बसों और आटो को जीपीएल का उपयोग करने को बाध्य किया गया तो प्रदूषण कुछ कम हुआ लगता है पर कारों की और अन्य वाहनों की सँख्या बढ़ती जाती है तो प्रदूषण को तो बढ़ना ही है.

दो दिन पहले यहाँ बोलोनिया में भारत के आन्ध्र प्रदेश के गुँटूर शहर से मेयर श्री कन्ना नागाराजू आये. गुँटूर तथा बोलोनिया के बीच प्रदूषण कम करने का एक प्रजोक्ट चल रहा है, उसी सिलसिले में नागाराजू जी यहाँ आये हैं. वह गुँटूर में सामान्य प्रदूषण से कैसे लड़ रहे हैं इसके बारे में मैं उनका भाषण सुनने गया. 27 वर्षीय नागाराजू दो साल पहले मेयर बने, और शायद भारत में या विश्व में वह सबसे कम उम्र के मेयर हैं. मकेनिकल एनजींयर में बीटेक पास नागाराजू का कहना था कि उन्होंने गुँटूर में प्रदूषण को कम करने के लिए बहुत कुछ किया है जैसे कि पीने की पानी की जाँच ताकि घरों में स्वच्छ पानी दिया जाये, घर घर से कूड़ा इक्ट्ठा करने का नया तरीका, यातायात को सरल करने के तरीके और शहर में पेड़ों और हरियाली को बढ़ावा, नये बाग इत्यादि. उनके कहने से लगा कि गुँटूर शहर ने बहुत तरक्की की है. (तस्वीर में नागाराजु)



नागाराजू जी के कहने में कितनी सच्चाई है और कितनी राजनीतिक भाषणबाजी यह तो गुँटूर में रहने वाले ही बता सकते हैं, हालाँकि मुझे लगता है कि आज विकास और प्रदूषण दोनों साथ साथ कदम कदम मिला कर चलते हैं. गरीबों के साथ काम करने वाले कुछ मित्रों और साथियों को इस तरह के विकास के विरुद्ध बात करते सुना है पर मुझे नहीं लगता कि आज कोई यह मानेगा कि अपना सादा सरल जीवन जिसमें सदियों की चली आ रही परम्पराएँ बनी हैं, उसको बना कर रखने के लिए उद्योगिक विकास को रोकना चाहिये. यह कोशिश करना कि विकास इस तरह का हो जिसमें गरीब, कम पढ़े लिखे, दलित और अल्पसँख्यकों को भी विकसित होने का मौका मिले, यही आज सबसे बड़े सँघर्ष की बात है.

साथ ही यह चाहना कि विकास इस तरह का हो जिससे प्रदूषण न बढ़े भी महत्वपूर्ण है पर यह कहाँ तक हो पायेगा?
*****
एक नयी वेबसाईट बनी है कारमा डोट काम जहाँ दुनिया में सबसे अधिक प्रदूषण करने वाले बिजली उत्पादन के प्लाँट के बारे में जानकारी दी गयी है. दुनिया के पचास सबसे अधिक प्रदूषण करने वाले बिजली उत्पादन के प्लाँट में से 7 अमरीका में हैं, 2 जर्मनी में, 5 दक्षिण कोरिया में, 15 चीन में और 4 भारत में.

भारत के सबसे अधिक प्रदूषण करने वाले पावर प्लाँट हैं - वाराणसी के पास विंध्याचल प्लाँट जो प्रदूषण में दुनिया में छठे नम्बर पर है, उत्तरी आँध्रप्रदेश में रामागुंडम प्लाँट जो दुनिया में तीसवें स्थान पर है, तमिलनाडू में नेयवेली जो दुनिया में छत्तीसवें स्थान पर है और उत्तरी उड़ीसा में तलछेर जो दुनिया में सेंतिसवे स्थान पर है.

अच्छे कारखाने जहाँ बिजली का उत्पादन अधिक हो और प्रदूषण न के बराबार, अधिकतर पश्चिमी योरोप में हैं और कुछ एक अमरीका में. भारत में इस तरह का कोई पावर प्लाँट नहीं है.

पिछले सात सालों में विकास के साथ साथ भारत में कार्बन डाईओक्साईड की मात्रा बढ़ी है. सन 2000 में यह मात्रा थी करीब 46 करोड़ टन, आज यह मात्रा है 58 करोड़ टन और विकास की इसी दर पर भविष्य में यह मात्रा बढ़ कर हो जायेगी 148 करोड़ टन. यानि अगर आप अभी प्रदूषण का रोना रो रहे हैं तो भविष्य में यह तीन गुना बढ़ जायेगा क्योंकि विकास चाहिये तो प्रदूषण तो होगा ही और साँस की बीमारियाँ भी.

चीन में कार्बन डाईओक्साईड की वार्षिक मात्रा सन 2000 में थी 126 करोड़ टन, आज है 268 करोड़ टन और इसी दर से विकास होता रहा तो भविष्य में हो जायेगी 427 करोड़ टन. यानि भविष्य में चीन दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषित देश होगा. इसी प्रदूषण से हम अंदाजा लगा सकता हैं कि भारत चीन से कितना पीछे है.

चीन की तो इतनी जनसँख्या है पर अमरीका जिसकी जनसँख्या चीन से चार या पाँच गुना कम है आज दुनिया का सबसे अधिक प्रदूषण करने वाला देश है. अमरीका की कार्बन डाईओक्साईड छोड़ने की वार्षिक मात्रा सन 2000 में थी 276 करोड़, आज है 303 करोड़ और भविष्य में हो जायेगी 368 करोड़. इन सबके मुकाबले में अफ्रीका सबसे दुनिया में प्रदूषण करने में सबसे पीछे है. पूरे अफ्रीका महाद्वीप की कार्बन डाईओक्साईड छोड़ने की वार्षिक मात्रा सन 2000 में थी 27 करोड़, आज है 34 करोड़ और भविष्य में बढ़ कर हो जायेगी 48 करोड़.

पर क्या हमें यही विकास चाहिये जिससे जीवन बीमारियों से भर जाये? या फ़िर प्रदूषण की वजह से वातावरण और मौसम सब बदल जायें?

पर योरोप को देखें तो लगता है कि प्रदूषण कम करके भी विकास सँभव है. पूरे यूरोप में कार्बन डाईओक्साईड की वार्षिक मात्रा सन 2000 में 157 करोड़ टन थी, आज है 178 करोड़ टन और भविष्य में बढ़ कर हो जायेगी 248 करोड़ टन.

जब कोई कहता है कि दुनिया का तापमान बढ़ रहा है, समुद्रों का स्तर ऊपर जा रहा है, दुनिया को भारत और चीन के विकास से खतरा है तो मुझे गुस्सा आता है. जो देश आज सबसे अधिक प्रदूषण करते हैं वही उपदेश दे रहे हैं कि भारत और चीन को विकास की गति कम कर देनी चाहिये या विभिन्न तरह का विकास खोजना चाहिये. पर फ़िर लोगों का प्रदूषण से क्या हाल होगा यह सोच कर लगता है भारतीय वैज्ञानिकों को नये तरीके खोजने होंगे जिनसे ऊर्जा तो मिले पर प्रदूषण कम हो. विकसित देशों ने अपने विकास और समृद्धी की नीव अपनी तकनीकी को कोपीराईट के पीछे छुपा कर उससे पैसा कमा कर बनायी है, क्या भारत ऐसा कर पायेगा कि कम प्रदूषण करने वाली नयी तकनीकों का आविष्कार करे और उनसे अन्य विकासशील देशों की सहायता करे ताकि अन्य देश भी उन तकनीकों का फायदा उठा सकें?

यह तो केवल सपने हैं, पर अगर आप को प्रदूषण के विषय में दिलचस्पी है तो कारमा की वेबसाईट को अवश्य देखियेगा.

मंगलवार, नवंबर 20, 2007

अंगों की फसल की कटाई

एक मित्र ने जब डाफोह यानि डाक्टर अगेंस्ट फोर्सड हारवेस्टिंग (Doctors Against Forced Harvesting) के बारे में बताया तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ. जिस हारवेस्टिंग यानि फसल कटाई की बात वे कर रहे हैं वे मानव अंगो की है. इस एसोसियेशन में काम करने वाले वे डाक्टर हैं जो कहते हैं कि वे पैसे कमाने के लिए लोगों के अंग जबरदस्ती निकाले जाने के विरुद्ध हैं. उनका कहना है कि चीन में यह हो रहा है कि जेल में बंद कैदी या अस्पताल में दाखिल गरीब लोगों के जबरदस्ती गुर्दे या अन्य भाग निकाल कर जरुरतमंद मरीजों को ट्राँसप्लाँट के लिए बेचे जाते हैं.

कोई कोई डाक्टर जो शायद मानसिक रुप से बीमार हो, पैसा कमाने के लिए इस तरह का काम कर सकता हो पर यह बात इतनी अधिक फैली हो यह मुझे विश्वास नहीं होता. मुझे लगता है कि आजकल चीन के विरुद्ध वैसे ही बहुत प्रचार हो रहा है, उस देश की तरक्की से सारे विकसित जगत में डर सा फैल गया है और कुछ भी बात हो चीन के विरुद्ध ही बोला जाता है चाहे वह प्रदूषित रंग से बने खिलौने हों या अफ्रीका में बने चीने कारखाने. तो क्या डाफोह का यह कहना भी विकसित देशों में बसे चीन के विरुद्ध पूर्वाग्रहों का चिन्ह है और इसमें सचाई नहीं है?

अपने किसे प्रियजन की बीमारी पर उसे अपने शरीर का वह अंग देना जिसके बिना भी जी सकते हैं, चाहे वह गुर्दा हो या हड्डी की मज्जा यह तो अक्सर होता है. अपने प्रियजन की मृत्यु पर, विषेशकर जब मृत्यु जवानी में हुई हो, उसके शरीर के अंगो का दान करना यह मानवता की निशानी है. मेरे पर्स में भी एक कार्ड है जिसपर मेरे हस्ताक्षर हैं और जो मेरी अकस्मात मृत्यु पर अस्पताल को मेरे अंगदान करने की अनुमति देता है. अंगदान के विरुद्ध बहुत से लोगों के मन में धार्मिक कारणों से पूर्वाग्रह होते हैं कि शरीर का कोई अंग दे दिया तो जाने परलोक में व्यक्ति पर क्या असर हो या जब उसका पुर्नजन्म हो तो वह अपाहिज न पैदा हो, पर धीरे धीरे यह चेतना जाग रही है कि शरीर को तो जलाने या गाड़ने से नष्ट होना है, जबकि अंगदान करके आप अपने प्रियजन के शरीर को जीवित रहने का मौका दे रहे हैं. मेरा अपना विश्वास भगवत् गीता के पाठ में है कि शरीर आत्मा का वस्त्र है और जब शरीर पुराना हो जाता है आत्मा उसे त्याग देती है इसलिए मैं चाहता हूँ कि अगर मेरा पुराना वस्त्र किसी के काम आ सकता है तो अवश्य आये.

पर अगर अंग दान मानवता की निशानी है तो किसी गरीब के शरीर से उसकी गरीबी का फायदा उठा कर अंग खरीदना या जबरदस्ती उसके शरीर से अंग निकालना दानवता की निशानी है. डाक्टर जिसने मानवता की कसम खाई हो वह इस तरह के काम करे यह मुझे विश्वास नहीं होता. कोई इक्का दुक्का हो, जो मानसिक रुप से बीमार हो और इस तरह का काम करे यह मान सकता हूँ, पर डाफोह का कहना है कि चीन में यह बड़े पैमाने पर हुआ है और होता है.

भारत से भी कभी कभी कुछ छुटपुट समाचार मिलते हैं कि गरीब ने बेटी के विवाह के लिए पैसा जोड़ने के लिए अपना गुर्दा बेचना का अखबार में इश्तहार दिया. कुछ इसी तरह की बात एक फ़िल्म में भी देखी थी, पर क्या ऐसा हमारे देश में भी हो सकता है?

*****

इटली की पुलिस जिसे काराबिन्येरी (carabinieri) कहते हैं, उनके बारे में यहाँ बहुत चुटकले होते हैं, वैसा ही एक चुटकला हैः

एक अंगों के ट्राँसप्लाँट करने वाले की दुकान पर बोर्ड लगा था, "आईन्स्टाईन का दिमाग 1000 रुपये, चर्चिल का दिमाग 700 रुपये, मार्कस का दिमाग 400 रुपये, इटालवी काराबिन्येरे का दिमाग 1500 रुपये" तो उसे देख कर व्यक्ति दुकान में गया और पूछा, "भला काराबिन्येरे के दिमाग में ऐसी क्या बात है कि उसे इतना मँहगा बेचा जा रहा है?"

दुकानदार ने उत्तर दिया, "क्योंकि वह दिमाग बिल्कुल नया है, उसका कुछ प्रयोग नहीं किया गया तो कीमत तो ज्यादा होगी ही!"

रविवार, नवंबर 18, 2007

भारतीय ईसाईयों में जाति भेद

इतालवी केथोलिक पत्रिका पोपोली के अक्टूबर अंक में फादर प्रकाश लुईस का लेख है जिसमें भारत में ईसाई धर्म कें जाति भेद की समस्या को उठाया गया है.

मेरा मानना है कि जाति भेद भारत की सबसे मूलभूत समस्याओं में से है और यह स्वीकार करना कि हमारे समाज में इंसानों से अमानवीय जाति भेद होता है इस सदियों पुराने शोषण से लड़ने का पहला कदम है. इस दृष्टि से मुझे फा. लुईस का लेख महत्वपूर्ण लगा. प्रस्तुत हैं उनके इस लेख के कुछ अंश, जिनका इतालवी से हिंदी में अनुवाद मेरा हैः

भारत के 24 मिलियन यानि 2 करोड़ 40 लाख इसाईयों मे से करीब 70 प्रतिशत लोग दलित मूल के हैं. चूँकि सब सोचते हें कि सभी ईसाई समान होते हैं, धार्मिक संस्थाएँ, सरकार और समाज इस दलित ईसाईयों के साथ होने वाले भेदभाव को नहीं पहचानता. इस वजह से इस बात की गम्भीरता को ठीक से नहीं समझा जाता और भारत के बाहर इस बात की जानकारी नहीं है....सरकारी नीतियों से हिंदू, सिख तथा बुद्ध मूल के दलितों को मिलने वाले संरक्षण ईसाई दलित लोगों को नहीं मिलते. बाकी के दलित सोचते हैं कि ईसाई बनने वाले लोग दलित नहीं होते. कानून के लिए ईसाई होना और साथ ही दलित होना संभव नहीं है... ईसाई संस्थाओं में अगर दलितों की गिनती की जाये तो मिलगा कि उनमें दलित मूल के लोगों की उपस्थिति बहुत कम है. 1999 में किये गये एक सर्वेक्षण के हिसाब से ईसाई हाई स्कूलों मे दलित केवल 15.5 प्रतिशत थे और ईसाई कालिजों में केवल 10.5 प्रतिशत. यह शिक्षा संस्थाएँ अधिकतर ऊँची जाति के लोगों के काम आती हैं. ईसाईयों में जाति भेद नया नहीं है बल्कि हमेशा से रहा है. तिरुचिरापल्ली का केथेड्रल जिसका निर्माण 1840 में हुआ था, उसमें विभिन्न जातियों के ईसाई लोग अलग अलग बैठाये जाते थे. कई जगहों पर दलित ईसाईयों के अपने अलग गिरजाघर होते थे, कूछ अन्य जगहों पर वह लोग गिरजाघरों के बाहर खड़े हो कर प्रार्थना में भाग लेते थे. अगर गिरजाघर में घुस सकते थे तो उनके बैठने की जगह सबसे पीछे होती थी और प्रार्थना के अंत में पादरी के हाथ से क्मयूनियन का प्रसाद लेने वह अन्य सब लोगों के बाद ही जा सकते थे. चर्च के अधिकारी इन बातों को जानते थे पर बहुत समय तक इन बातों पर विचार विर्मश नहीं किया गया है. आज भी दलित ईसाईयों से पादरी बनने, कोई महत्वपूर्ण कार्य पद देने आदि में भेदभाव किया जाता है. तमिलनाडू में दलित ईसाई, राज्य के ईसाईयों के 75 प्रतिशत है पर दलित मूल के पादरी और नन केवल 3.8 प्रतिशत...विभिन्न जातियों के ईसाईयों के बीच में विवाह होना या केवल साथ बैठ कर खाना खाना तक संभव नहीं जैसे कि विभिन्न जाति के हिंदुओं के बीच होता है...हमें अपने धर्म में बदलाव लाना है ताकि उनकी मानव मर्यादा और गरिमा को स्वीकारा जाये, केवल अध्यात्मिक रूप में नहीं बल्कि जीवित मानव के रूप में उस धर्म के हिस्से की तरह जो बिना भेदभाव के समाज को बनाने की घोषणा करता है. जब तक हम लोग आपस में अपने शब्दों में और आचरण में सचमुच का समुदाय नहीं बनेंगे, हम कट्टरपंथियों के आरोप कि हम केवल धर्म बदवाना चाहते हैं का सामना नहीं कर सकते.


जहूर मेरे कश्मीरी मित्र कहते हैं कि भारत के मुसलमान भिन्न हैं अन्य सब देशों के मुसलमानों से, क्योंकि हमें अन्य धर्मों के साथ मिल कर रहना आता है. मुझे भारत के ईसाई समाज को करीब से देखने का मौका मिला है और मैं मानता हूँ कि भारतीय ईसाई भी बाकी सारी दुनिया के ईसाईयों से अलग हैं, उनमें विभिन्न धर्मों के साथ रहने की अपनी संवेदना है. पर इस सांझी भारतीयता का शायद यह भी अर्थ है कि चाहे हमारा धर्म कुछ भी हो, हम सबमें एक जैसी कुछ बुराईयाँ भी हैं जैसी कि जाति भेद?

पढ़े लिखे, अच्छी नौकरी करने वाले लोगों से जब मैं जाति और भेदभाव की बात सुनता हूँ तो मुझे ग्लानी भी होती है और क्षोभ भी. यह भेदभाव की जड़े हमारे दिलों में इतनी गहरी बैठीं हैं कि इनसे हम बार बार हार जाते हैं. दुर्भाग्य की बात है कि ईक्कीसिवीं सदी में भी कोई बड़ा हिंदू धर्म सुधारक नहीं हुआ जो इस बारे में खुल कर समस्त मानव जाति की समानता की बात कर सके और जाति भेद करने वालों को धर्म से बाहर घोषित कर सके. अगर अन्य धर्म वाले भी, चाहे वे मुसलमान हों, सिख हों या ईसाई, बजाय अपने धर्म के मूल संदेश को मान कर अगर हिंदू धर्म के जातिभेद को अपनाते हैं तो शोषित लोगों के लिए बाहर आने का क्या रास्ता बचेगा? इसीलिए आशा है कि ईसाई धर्म में भी फा. लुईस जैसे लोगों के हाथ मजबूत होंगे और वह अपने समाज में बदलाव लायेंगे जिससे बाकी के धर्मों को भी प्रेरणा मिल सके.

शनिवार, नवंबर 17, 2007

पड़ोसी देशों पर भारत का धार्मिक प्रभाव

आज के चीन में धर्म से जुड़ा कुछ भी आसानी से नहीं दिखता. हालाँकि लोगों ने कहा कि अगर किसी मंदिर में जाईये तो वहाँ बहुत लोग मिलेंगे और लोगों के मन में बहुत धार्मिक्ता है पर दक्षिण चीन के गाँवों में घूमते हुए मुझे इस धार्मिक्ता के बाह्य चिन्ह कुछ नहीं दिखे. 1960 में हुई माओ द्वारा की हुई साँस्कृतिक क्राँती (cultural revolution) के दौरान अधिकतर बुद्ध मंदिरों को तोड़ दिया गया था और वहाँ रहने वाले बुद्ध भिक्षुकों जेल में डाल दिया गया या कुछ कहते हैं, मार दिया गया. फ़िर पिछले बीस सालों में जो विकास हुआ तो कुछ मंदिर भी दोबारा बस गये. दक्षिण चीन के गावों में घूमते समय बहुत सी कहानियाँ सुनने को मिलीं कि उस क्राँती के समय में कहाँ पर क्या हुआ था, कैसे मंदिर तोड़े गये गये, कैसे कुछ मूर्तियाँ छुपा दी गयीं थीं और उन्हे तोड़ने से बचाया गया था. पर विकास के बाद नये बने समृद्ध गावों में कोई नया मंदिर नहीं बना दिखता. पचासों गाँव घूमने के बाद भी मैं एक भी मंदिर नहीं देख पाया.

फ़िर लूफेंग नाम के छोटे से शहर के सँग्रहालय में एक मूर्ती देखी जो दुर्गा से बहुत मिलती थी. पूछा तो बोले कि यह ताओ (Tao) धर्म की एक देवी की मूर्ती है. यह तो मालूम था कि चीन में बुद्ध धर्म भारत से पहुँचा था पर क्या हिंदू देवी देवताओं का भी कोई प्रभाव चीन में पहुँचा था, इसके बारे में कभी कुछ नहीं पढ़ा था.



बुद्ध धर्म का प्रभाव भारत से सारे एशिया में फैला था, चीन जापान, वियतनाम, कोरिया तक पर हिंदू धर्म का भी प्रभाव फैला था जिसके निशान इंदोनेशिया के बाली और कम्बोदिया के अंगकोरवाट मंदिर में दिखते हैं.

चीन यात्रा के बाद थाईलैंड आया तो वहाँ भी बुद्ध धर्म के साथ साथ हिंदू धर्म का प्रभाव दिखा. नीचे के चार तस्वीरों में हैं बैंकाक हवाईअड्डे पर बनी अमृतमंथन के दृश्य में मूँछों वाले विष्णु की मूर्ती, एक बुद्ध मंदिर में भगवान बुद्ध की प्रतिमाएँ, थाईलैंड के भूतपूर्व शासक राम तृतीय की मूर्ती, और एक सड़क के किनारे ब्रह्मा की मूर्ती.









इनको देखने के बाद मन में कई प्रश्न उठ रहे थे. बुद्ध धर्म के बारे में तो कहते हैं कि सम्राट अशोक के जमाने में बुद्ध धर्म का प्रचार हुआ पर हिंदू धर्म का प्रचार कब हुआ, किसने किया? भारतीय इतिहासकार बुद्ध धर्म के बारे में कहते हैं कि वह हिंदू धर्म के सुधारवाद का नतीजा था और जातिप्रथा आदि जैसी प्रथाओं को विरुद्ध सभी मानवों की बराबरी का संदेश देता था इसलिए हिंदू तथा बुद्ध धर्मों के बीच बहुत खिंचातानी और लड़ाई चली और बाद में बाहम्णवादियों ने बुद्ध धर्म को भारत से बिल्कुल हटा दिया, क्या अन्य देश जैसे थाईलैंड आदि, वहाँ हिंदू और बुद्ध धर्म की इस लड़ाई को कैसे देखा गया? हिंदू धर्म के साथ भारतीय जाति प्रथा क्यों अन्य देशों में नहीं फैली?

शुक्रवार, नवंबर 09, 2007

ज्योति उत्सव

जब भी कोई त्योहार आता है तो घर से दूर विदेश में होना बहुत अखरता है. बाज़ारों का शोर और धक्का मुक्की, मिठाई के डिब्बे, पड़ोसियों, दोस्तों और रिश्तेदारों से बधाई, अँधेरी रात में टिमटिमाते दिये और मोमबत्तियाँ, आज दीवाली है तो उस सब की याद आना स्वाभाविक ही है.

यहाँ तो आज एक आम दिन है, अन्य दिनों जैसा, हालाँकि हमने शाम को बाहर खाना खाने जाने का प्रोग्राम बनाया है जहाँ भरतनाट्यम नृत्य भी होगा. कल यहाँ राजस्थान के लोकनर्तकों का कार्यक्रम भी है. फ़िर हम दिल को समझाते हैं कि चलो दूरी ही अच्छी है कम से कम पटाखों के शोर और प्रदूषण से तो बचेंगे!

आज दीपावली के शुभ अवसर पर मुझे बुद्ध प्रार्थना याद आती है, तमसो मा ज्योतिर्गमय. और यही शुभकामना है मेरी कि आप के परिवार में, घर में और दिलों में ज्योति का वास हो.

नीचे वाली तस्वीरें अभी हाल में चीन यात्रा में ली ज्यांग नाम के शहर में खींचीं थीं.






मंगलवार, अक्तूबर 23, 2007

बदलता चीन

आज सुबह मुझे काम से दो सप्ताह के लिए चीन जाना है. अंतिम चीन यात्रा को बीते छह साल हो गये, जब मँगोलिया जाते समय एक दिन के लिए बेजिंग में रुका था. पर इस बार मुझे बेजिंग नहीं जाना, बेंकाक से सीधा चीन के दक्षिण पश्चिम में स्थित राज्य युनान की राजधानी कुनमिंग जाना है. पहली बार कुनमिंग 1989 में गया था और अंतिम बार 1995 में, इस बीच में वह शहर कितना बदला है यह जाने की उत्सुक्ता है.

पहली बार की बेजिंग यात्रा कुछ कुछ धुँधली सी याद है. 1988 में हवाई अड्डे से शहर जाने वाली पतली सी सड़क थी, दोनो ओर खेत और बीच में चलती साईकलें और बैलगाड़ियाँ. बेजिंग शहर के छोटे छोटे एक मंजिला पुराने तरीके के घर. सम्राट के राजमहल के अंदर घुसने के लिए चीन निवासियों के कम टिकट था और विदेशियों के लिए अधिक. विदेशियों के लिए चीनी रुपये भी अलग थे, रेनएमबी जबकि वहाँ के लोगों के रुपये थे युवान. रेनएमबी से केवल विषेश दुकानों से सामान खरीद सकते थे, जैसे कि बेजिंग का फ्रैंडशिप स्टोर जहाँ आयातित वस्तुएँ मिलती थीं और जहाँ चीनी नागरिक कुछ नहीं खरीद सकते थे. चीनी महिलाएँ और पुरुष एक जैसे काली, भूरे या नीले कोट पैंट पहनते थे, सबके एक जैसे कटे बाल, पता नहीं चलता था कि कौन नारी और कोन पुरुष? सड़क पर भीख माँगने वाला कोई नहीं था.

1989 में हाँगकाँग से मकाऊ होते हुए कानतोन यानि ग्वागज़ू गये थे, फ़िर वहाँ से कुनमिंग, कुनमिंग से सियान और अंत में बेंजिंग जहाँ तियानामेंन स्कावर्य में छात्रों का आंदोलन चल रहा था और एक बारिश भरे दिन में मैं भी छात्रों से बात करने गया था पर कोई अँग्रेजी बोलने वाला नहीं मिला था. जिस दिन बेंजिग से वापस यूरोप लौटे उसके तीन चार दिन के बाद ही छात्रों पर पुलिस ने टैंक ले कर हमला किया था.

1992 में वापस बेजिंग लौटा तो नया होटल देख कर हैरान रह गया. हवाई अड्डे से शहर जाने के लिए छह लेन वाला हाईवे बना था और हवाईअड्डे के पास ही तीस चालिस मँजिला होटल था, जिसकी खिड़की से नीचे आसपास के छोटे मोटे गरीब घर और भी गरीब लगते थे. शहर आँखों के सामने बदल रहा था. काले, भूरे कपड़ों वाले लोग कम हो रहे थे, सुंदर कपड़े पहने नवजवान बढ़ रहे थे.

1994और 1996 के बीच कई बार चीन लौटा, कभी ग्वागँडोंग, कभी ग्वाँगजी, कभी युनान, कभी बेजिंग. हर जगह मानो भूचाल आ रहा था. उन्हीं दिनो में पहली बार ग्वागज़ू के कुछ प्रोफेसरों से माओ के दिनों की कल्चरल रिवोल्यूशन के रोंगटे खड़े कर देने वाले अनुभव सुने. लोगों के मन में से सरकारी या पुलिस का डर कम हो रहा था, लोग अपने मन की बात कहने लगे थे.कुनमिंग भी बदल रहा था, छोटा सा अधसोया शहर जाग कर गगनचुँबी भवन बनाने में अन्य शहरों से पीछे कैसे रहता पर सड़कें फ़िर भी तंग थी, यातायात इस तरह का बैलगाड़ियों, कारों और साईकलों से मिला जुला.

मालूम है कि इन ग्यारह सालों में कुनमिंग का कायाकलप भी पूरा हो चुका होगा. वह छोटा सा पुराना शहर जो मेरी यादों में है, वह अब नहीं दिखेगा. पर मुझे अगले दो सप्ताहों में गाँवों मे घूमना है, यह देखना चाहूँगा कि इस बदलते चीन का गाँवों में कितना प्रभाव पड़ा है. यात्रा से आ कर उसका हाल सुनाऊँगा, तब तक पिछली चीन यात्राओं की कुछ तस्वीरें. 1989 में खींचीं यह तस्वीरें बहुत पुरानी लगतीं हैं, शायद इसलिए क्योंकि उस साल मुझे श्वेत श्याम तस्वीर खींचने का शौक चर्राया था. रंगीन तस्वीर में मैं खुद भी हूँ ग्वागँडोंग शहर के स्वास्थ्य मँत्रालय के अधिकारिओं के साथ.










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संजय नें मेधा पटकर के भाषण के बारे में पूछा है, उसकी भी रिकार्डिंग की थी पर अब तो चीन से वापस आ कर वह काम हो पायेगा.

सोमवार, अक्तूबर 22, 2007

मेधा पटकर की लड़ाई

शुक्रवार को हमारे शहर में कामगार यूनियन के द्वारा आयोजित एक सभा में मुख्य अतिथि थीं भारत में नर्मदा आंदोलन की प्रसिद्ध नेता सुश्री मेधा पटकर. मैं मेधा से कुछ वर्ष पहले एक अन्य सभा में मिल चुका था. जब वह सभा में पहुँचीं तो मुझे देख कर रुक गयीं और मुस्कुरा कर पूछा, "हरीश भाई? आप हरीश भाई ही हैं न?" (नीचे तस्वीर में मेधा और बोलोनिया कामगार यूनियन के सचिव वितोरियो सिलिनगारदी)



जब तक सभा शुरु हो, उनसे कुछ देर बात करने का मौका मिला. मेरा कहना था कि वह इतनी प्रसिद्ध हैं, बहुत सा समय सभाओं में लोगों से मिलने को जाता होगा तो यह याद रखना कि कौन कौन है, क्या नाम है, वगैरा बहुत कठिन होगा. पर उनका कहना था नहीं वह बहुत कम अंतर्राष्ट्रीय सभाओं में जातीं हैं और इस बार बहुत समय के बाद भारत से निकली हैं. इतालवी वामपंथी कामगार यूनियन चीजीएल (CGIL) के निमंत्रण पर वह यहाँ आयीं हैं और यूनियन वाले चाहते हैं कि शनिवार को वह रोम में कामगारों के एक जलूस में भाग लें. इस जलूस के बारे में वह कुछ चिंतित लगीं यह जाने के लिए कि कौन लोग आयोजित कर रहे हैं, क्या माँगें हैं उनकी इत्यादि. नहीं, मैं इस जलूस में भाग नहीं लेना चाहतीं, बोलीं.

सभा प्रारम्भ हुई तो सबसे पहले मेधा को ही बोलने के लिए कहा गया. उन्होंने बात नर्मदा आंदोलन के इतिहास से शुरु की. बीस बाईस साल हो गयें हैं उनके संघर्ष को. आज सबसे बड़ा सवाल है कि कैसे विस्थापित होने वाले लोगों को उनका हक दिला सकें. उनका कहना था कि उनकी माँग थी कि लोगों को ज़मीन के बदले में ज़मीन ही मिले, केवल कुछ पैसा दे कर उन्हें न छोड़ दिया जाये. पर राज्यसरकार के अधिकारी इस मामले में भ्रष्टाचार का फायदा उठा कर फ़िर से गरीब लोगों को ठग रहे हैं.

उन्होंने दूसरी बात उठायी विषेश आर्थिक क्षेत्रों (Special economic zones - SEZ) की और उनमें निहित विकास के विचार की. विदेशी और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को दिये जाने वाले इन विषेश आर्थिक क्षेत्रों में जमीन, पहाड़, घाटियाँ, नदियाँ सब कुछ दिया जा रहा है, उन क्षेत्रों में कामगरों के कानून, अन्य कानून भी लागू नहीं होते, उनका पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है इसकी कोई जाँच नहीं, इत्यादि. इस तथाकथित विकास में हमेशा से उनका साथ देने वाली वामपंथी पार्टयाँ भी अब रुख बदल रहीं हैं, जैसे कि पश्चिम बंगाल की सरकार ने फियट और टाटा की फैक्टरी को लगाने के लिए किया. सरकारी अफसर दो साल की छुट्टी ले कर इन्हीं कम्पनियों में मोटी तनखाह पर नौकरी पाते हैं और अपने सरकारी सम्पर्कों से कम्पनियों का काम आसान करते हैं.

मैं मेधा का भाषण अंत तक नहीं सुन पाया, किसी से मिलना था इसलिए बीच में ही सभा छोड़ कर जाना पड़ा. जितना सुना उससे लगा मेधा जी जनसाधारण के लिए अच्छा बोलती हैं, बहुत ताकत है उनके बोलने में. हर बात को सीधा सपाट बोलती हैं. बोलने का अंदाज कुछ कुछ चुनाव रैलियों की याद दिला रहा था. लगा कि अगर जनता के बीच में खड़ी हो कर जब वह बोलती होंगी तो अवश्य बहुत प्रभावित करती होंगी.


शनिवार, अक्तूबर 20, 2007

बिमल मित्र - दायरे से बाहर

बहुत समय के बाद बिमल मित्र की कोई किताब पढ़ने को मिली. बचपन में उनके कई धारावाहिक उपन्यास साप्ताहिक हिंदुस्तान पत्रिका में छपते थे, वे मुझे बहुत अच्छे लगते थे. फ़िर घर के करीब ही दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी से ले कर भी उनकी बहुत सी किताबें पढ़ीं थीं.



18 मार्च 1912 को जन्म हुआ था बिमल मित्र का. उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम.ए. की शिक्षा पायी और सौ से भी अधिक किताबें लिखीं. उनकी एक किताब पर हिंदी फ़िल्म निर्माता और निर्देशक गुरुदत्त ने "साहब बीबी और गुलाम" फ़िल्म भी बनायी. उनका देहांत 2 दिसम्बर 1991 को हुआ.

उनकी किताब "दायरे के बाहर" को दिल्ली के सन्मार्ग प्रकाशन द्वारा 1996 में छापा गया पर किताब में यह नहीं लिखा कि उसका मूल बँगला नाम क्या था या वह पहली बार कब छपी और उसके कितने संस्करण छप चुके हैं. पुस्तक का बँगला से हिंदी अनुवाद किया है श्री हंसकुमार तिवारी ने.

"दायरे के बाहर" कुछ अजीब तरह से शुरु होती है. वैसे तो यह बिमल मित्र के लिखने का तरीका ही था कि बहुत सी किताबों के शुरु में कुछ एक दो पृष्ठ लम्बा दर्शनात्मक विवेचन होता था. पर "दायरे के बाहर" के प्रारम्भ में लिखा है कि यह उनका पहला उपन्यास था जो उन्होंने द्वितीय महायुद्ध के बाद के समय में लिखा था और तब इसका नाम था "राख". फ़िर लिखा है कि पहली बार उपन्यास जिस बात पर समाप्त हुआ था उसके बाद भी और कुछ बातें हुईं जिन्हें उन्होंने इस नये संस्करण में जोड़ दिया है. कहते हैं कि पहले जब लिखा था तो इसकी भाषा भी बहुत अच्छी नहीं थी पर उसको पूरी तरह से बदलना तो नहीं हो सकता.

इन सब बातों में कितना सच है यह तो कोई उनके साहित्य को मुझसे बेहतर जानने वाला ही बता सकता है कि यह सच था या फ़िर कहानी को नाटकीय बनाने का एक तरीका.

कहानी है सुरुचि की जो द्वितीय महायुद्ध के पहले के दिनों में कलकत्ता में अपने अध्यापक पिता सदानंद और माँ मृण्मयी के साथ रहती है. उनके घर में रहने शेखर आता है जिसे सदानंद के पुराने मित्र गौरदास ने भेजा है. शेखर और सुरुचि एक दूसरे को चाहने लगते हैं और सुरुचि गर्भवति हो जाती है. शेखर ने सुरुचि से कहा है कि वह उससे विवाह करेगा पर वह अचानक गुम हो जाता है. सुरुचि माँ और बुआ के साथ दूर गाँव में रहने जाती है, सबको कहा जाता है कि मृण्मयी गर्भवति है. द्वितीय महायुद्ध छिड़ चुका है और कलकत्ता में भी बम गिरने की आशंका है, बहुत से लोग घर छोड़ कर गाँव जा रहे है. सुरुचि के बेटा होता है और थोड़े दिन के बाद मृण्मयी का देहांत हो जाता है. सुरुचि अपने बेटे राहुल को अपना छोटा भाई कहने को मजबूर है. उसे नौकरी देते हैं प्रौढ़ विधुर उद्योगपति विलास चौधरी और साथ ही उसके पक्षघात हुए पिता सदानंद का ध्यान भी करते हैं, जब वह सुरुचि से विवाह का प्रस्ताव रखते हैं तो सुरुचि न नहीं कह पाती. केवल विवाह के बाद मिलती है अपने पति की पहली संतान से, जो जेल से छूटा शेखर है, और जो अपने पिता की नयी पत्नी को देख कर घर छोड़ कर दोबारा गुम हो जाता है. तब उसके जीवन में गौरदास आते हैं, अब वह अनाथ बच्चों के लिए आश्रम चला रहे हैं. साल बीत जाते हैं. विधवा सुरुचि जानती है कि शेखर गौरदास के लिए ही काम करता है और वह जोर देती है कि शेखर को कलकत्ता बुलाया जाये ताकि वह उससे बात कर पाये.

बिमल मित्र की अन्य किताबों की तरह यह भी बहुत दिलचस्प है, एक बार पढ़ना शुरु करो जो छोड़ी नहीं जाती. पर किताब पढ़ते हुए मेरे मन दो फ़िल्मों की कहानी याद आ रही थी. एक तो श्री जरासंध के उपन्यास "तामसी" पर बनी बिमल राय की फ़िल्म "बन्दिनी". क्राँतीकारी शेखर का सदानंद के यहाँ आ कर रहना और उसका सुरुचि से प्रेम, मुझे बन्दिनी के शेखर और कल्याणी (फ़िल्म में अशोककुमार और नूतन) की कहानी से कुछ कुछ मिलता जुलता लग रहा था. दूसरी ओर शेखर और सुरुचि का प्यार और सुरुचि का अनजाने में शेखर के पिता से विवाह होना फ़िल्म एल वी प्रसाद की फ़िल्म "शारदा" की याद दिला रहा था, जिसमें शारदा का भाग निभाया था मीना कुमारी ने और उनके प्रेमी थे राज कपूर. शायद सच ही बिमल मित्र ने यह उपन्यास द्वितीय महायुद्ध के बाद लिखा था और इससे अन्य लोगों ने प्रेरणा पायी थी?

किताब का अंतिम भाग बाद में लिखा गया हो, यह कुछ कुछ लगता है. पहले भाग में गौरदास और शेखर क्राँतीकारी हैं, हिंसा और बम की बात भी करते हैं, सुभाषचँद्र बोस की आजाद हिंद फौज का हिस्सा बन कर अँग्रेजों से लड़ने की बात भी करते हैं पर बाद के हिस्से में बही गौरदास अहिँसावादी बन जाते हैं, शेखर समाजसुधारक बन जाता है, जो कि हो सकता है कि लेखक के अपने विचार बदलने का सूचक हो.

यह अवश्य है कि उपन्यास के अंतिम भाग में लेखक ने गौरदास की बातों के द्वारा अपनी आध्यात्मिक सोच को दिखाया है. जैसे कि यह सुरुचि और गौरदास की बातों को देखिये (पृष्ठ 252):

"पुरुष कहता है, कर्म जो पदार्थ है, वह स्थूल है, आत्मा के लिए बँधन है. लेकिन आदमी में जो नारी है, वह कहती है काम चाहिये, और काम चाहिये. इसलिए कि काम में ही आत्मा की मुक्ति है. वैराग्य भी मुक्ति नहीं है, अंधकार भी मुक्ति नहीं है, आलस्य भी मुक्ति नहीं है. ये सब भयंकर बंधन हैं. इन बंधनों को काटने का एक ही हथियार है, वह है कर्म.कर्म ही आत्मा को मुक्ति देता है और यह संसार ही कर्म का स्थल है. संसार को छोड़ने से तुम्हारा कैसे चल सकता है बिटिया! यदि मुक्ति चाहती हो तो तुम्हें इस संसार में ही रहना होगा."
इस किताब का यह हिस्सा मुझे सबसे अच्छा लगा.

शुक्रवार, अक्तूबर 19, 2007

आर्यों की थाली के बैंगन

जब अरुधती के भाषण का हिंदी में अनुवाद लिख रहा था तो जब उस हिस्से पर आया जिसमें वह आर्यों के भारत में आने की बात करती हैं तो लगा कि इस बात पर गर्म बहस हो सकती है. इसी विषय पर बहुत सी अन्य बहसें अंतर्जाल पर भी पढ़ चुका हूँ. दिक्कत यह है कि दोनों ओर से इस बहस में तर्कों के साथ भाव, पहचान, धर्म आदि की बहुत सी बातें जुड़ीं हैं इसलिए मुझे नहीं लगता कि दोनों में से कोई भी किसी भी तर्क के बल पर अपनी राय बदलेगा.

एक तरफ़ से मुझे लगता है कि आदि मानव का जन्म अफ्रीका में हुआ या फ़िर किसी और जगह हुआ होगा और फ़िर वहाँ से सारे मानव सारे विश्व में फैले तो इस बात पर इतना गुस्सा करना बेकार है कि कितने साल पहले क्या हुआ?

हर देश की संस्कृति अलग अलग लोगों के मिलने से ही बनी है. यहाँ इटली में दो ढाई हजार साल पहले तक एथ्रुस्क, फोनिशियन, रोमन, इतालिक और ग्रीक, स्पेनी, उत्तरी अफ्रीका आदि के लोग थे जिनके मिलने से ही इतालवी लोग बने. आज यहाँ की नोर्दर्न लीग पार्टी वाले जब कहते हैं कि दक्षिण इटली से आये, उत्तरी अफ्रीका से आये और दूर देशों से आये प्रवासियों को हमारे यहाँ से निकालो क्योंकि इटली केवल इतालवियों का है तो मुझे लगता है इन सब बातों के पीछे आर्थिक और अन्य कारण छुपे हैं और हर देश में यही बात होती है.

मैंने स्वयं लड़कपन में डा. डी. डी कोसम्बी की "प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता" पढ़ी थी और वहाँ पढ़ा तथा विद्यालय में पढ़ा पाठ कि आर्य बाहर से तीन या चार हजार साल पहले आये थे, यही बात ठीक लगती थी. पहली बार अंतरजाल पर ही पढ़ा कि यह सब बातें यूरोपीय और विदेशी पुरातत्वजनों की थीं जिनमें भारत और भारतीयों के प्रति पूर्वाग्रह थे, और फ़िर हड़प्पा तथा मोहनजोदाड़ो की मोहरों के बारे में बताया था कि किस तरह उनमें हिंदू देव देवता ही दिखते थे. पढ़ कर लगा कि वाह, आखिर किसी भारतीय पुरातत्व विशेषज्ञ या इतिहासकार ने अँग्रेजों की बात को गलत साबित कर दिखाया.

फ़िर अमर्त्य सेन का लेख पढ़ा जिसमें उन्होने लिखा था कि वह मोहरों वाली बात धोखा था, किसी ने जानबूझ कर मोहरों पर बनी आकृतियों को गलत तरह से बना कर यह साबित करने की कोशिश की थी. इस तरह यह एक तर्क, दूसरा तर्क की तरह टेबल टेनिस का मैच सा चल रहा है.

अभी कुछ समय पहले अंतरजाल पर ही एक लेख पढ़ा था जिसमें भाषा और स्वरों का विवेचन करके यह निष्कर्श निकाला गया था कि यह कहना कि भारत में आर्य चार हजार साल पहले आये थे ठीक नहीं लगता. यह बात भी मुझे बहुत दिलचस्प लगी. यानि कि इस विषय में मेरी अपनी कोई पक्की राय नहीं बन पायी है, लगता है कि थाली का बैंगन हूँ, कभी इधर लुड़कता हूँ कभी उधर.

गुरुवार, अक्तूबर 18, 2007

अरुंधती राय

6 अक्टूबर को उत्तरी इटली के फैरारा शहर में भारतीय लेखिका सुश्री अरुंधती राय ने साहित्य और पत्रकारिता विषय पर हो रही बहस में "उपन्यासकार के साहित्यिक लेखन और असाहित्यक लेखन के बीच में कौन सी जगह होती है?" प्रश्न के उत्तर में कुछ बोला था जो यहाँ प्रस्तुत है. मैंने उनके भाषण को अपने आईपोड पर रिकार्ड किया था पर कुछ जगहों पर यह रिकर्डिंग साफ़ नहीं है और वैसे भी मैंने अनुवाद में उनकी कही बात का अर्थ पकड़ने की कोशिश की है बजाय कि हर शब्द का बिल्कुल वही अनुवाद करूँ.



"साहित्य और गैरसाहित्य के बीच में क्या जगह होती है, मुझे यह नहीं मालूम पर इतना अवश्य कहूँगी कि चाहे मेरा साहित्य हो या दूसरा लेखन, दोनों ही पहले से कोई सोच समझ कर प्लेन बना कर नहीं होते.

जिस समय मैंने 1997 में "गोड आफ स्माल थिंगस" लिखी और फ़िर उसे बुक्कर पुरस्कार मिला, वह समय भारत में विषेश था. पहली बार भारत में राष्ट्रवादी, हिंदू कट्टरपंथी सरकार थी, 1998 में अणुबम्ब विस्फोटन किया गया ... उस समय मैं भारतीय मध्यम वर्ग की चहेती थी, सब कहते थे कि मैंने भारत का गौरव बढ़ाया है. मुझे लगा मेरी प्रसिद्धी ही वह मौका है जो मुझे एक मंच दे सकती है जहाँ से मैं इस सब के विरोध में आवाज उठा सकती हूँ. इस तरह मैंने अपना "कल्पना का अंत" नाम का लेख लिखा. मुझे लगता था कि हमारा संसार भयानक घटनाओं से भरता जा रहा था. उच्च न्यायालय में नर्मदा बाँध के बारे में निर्णय दिया, मैंने उस संदर्भ में बहुत यात्राएँ की और स्थिति को देखा, जाना कि कितने बड़े स्तर पर लोगों के जीवन बिखरने वाले थे. मुझे लगा कि इस कहानी को एक लेखक का इंतजार है. बहुत लोग रिपोर्ट लिख रहे थे, तथ्य गिनाते थे, कहाँ क्या होगा बताते थे पर उनका बात कहने का तरीका कुछ यूँ था कि उसे आम व्यक्ति के लिए समझना कठिन था और मुझे लगा कि इस बात को उस भाषा में कहना जिसे लोग आसानी से समझ सकें, यह जरुरी है.

इस तरह एक बात से दूसरी बात जुड़ती गयी जिन पर मैं लिखती रही. भूमण्डलीकरण, बड़ी बहुदेशी कम्पनियों का बाज़ार में आगमन जैसी बातें दिखने लगीं जिनसे मुझे लगा कि भारत में हिंसा का स्तर उस जगह पहुँच सकता था जैसा पहले कभी नहीं हुआ था और मैं सोचती हूँ कि लेखक, कलाकार, फिल्म बनाने वाले, हम सब को इसमें कुछ काम करना है ताकि लोग समझ सकें कि क्या हो रहा है. जब भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई थी तब लोगों को कुछ समझाने की आवश्यकता नहीं थी, लोगों को मालूम था कि राज करने वाला अँग्रेज ही हमारा दुश्मन था और उसके खिलाफ लड़ना था. पर आज की लड़ाई में दुश्मन कहाँ छुपा है यह समझना आसान नहीं. छाया से कैसे लड़ सकते हैं हम?

इस तरह मेरा गैर‍साहित्यिक लेखन शुरु हुआ.

बड़ी कम्पनियों का बाजार में घुसना और हर काम को अपने कब्जे में लेना, इसके बारे में तो जानते ही हैं. मीडिया, अखबार, टेलीविजन, पत्रिकाएँ आदि इस तरह बड़े कोर्पोरेट जगत के हाथ में हैं यह सबको मालूम है पर लोग नहीं जानते कि उपन्यास और साहित्य का भी वही हाल हो रहा है. बड़ी किताब बेचने वाली स्टोर चेन हैं जो फैसला करती हैं कि किस तरह का लेखन बिकेगा और वह छापने वाली कम्पनियों को कहती हैं कि उन्हें कौन सी किताबें चाहियें, उनके कवर किस तरह के होने चाहिये, वगैरा.

यहाँ जैसी सभा में आती हूँ तो मुझे लगता है सब लोग मुझसे आशा करते हैं कि मैं यह बताऊँगी कि भारत कि कितनी दुर्दशा है. यह सच है कि भारत में बहुत लोगों की दुर्दशा है पर मैं एक बात कहना चाहूँगी कि भारत में मीडिया के बारे में हमारा इतना बुरा हाल कभी नहीं हुआ जैसा कि यहाँ के (इटली के) प्रधानमंत्री के हाथ में सभी मीडिया, किताब के दुकाने आदि सब कुछ था.

अगर मुझे जेल में डालते हैं तो मुझे मालूम होता है कि किसी ने मेरे शरीर को उठा कर जेल में बंद कर दिया, पर कुछ मानसिक जेलें भी होती हैं जिनका हमें मालूम नहीं चलता कि हम कैद है. जिसे आप स्वतंत्र जीवन कहते हें वह कितना स्वतंत्र है? कौन से कपड़े पहनेगें इस साल, कौन से रंग पहनेगे, यह सब भी कोई छह महीने पहले निर्णय कर लेता है और दुकानों में आप को केवल वही कपड़े, वही रंग मिलते हैं.

मैं दो बातें और कहना चाहती हूँ, पहली बात भाषा के बारे में, और दूसरी बात जानकारी के बारे में.

भाषा के बारे में मैं आप को एक आपबीती बात सुनाती हूँ. "गोड आफ स्माल थिंगस" के बाद लंदन में बीबीसी (BBC) पर मेरा साक्षात्कार होना था. उस कार्यक्रम में मेरे साथ दो अँग्रेज इतिहासकार भी थे. तब मुझे पश्चिमी देशों का विषेश अनुभव नहीं था, उनके अंग्रेजी बोलने के तरीके को ठीक से नहीं समझती थी, और चुपचाप उनकी बात सुन रही थी जो कि ब्रिटिश राज के गौरव के बारे में थी. मुझे लगा जैसे कि मैं मँगल ग्रह से आयी हूँ, और यह लोग कह रहें हैं कि अँग्रेजी सभ्यता ही दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण सभ्यता है क्योंकि उसने दुनिया को शेक्सपियर और जाने क्या क्या दिया. विश्वास नहीं हो रहा था कि वे लोग अंग्रेजी साम्राज्यवाद का गुणगान कर रहे थे. फ़िर उनमें से एक मुझसे बोला कि आप को अँग्रेजी में लिखी किताब पर बुक्कर पुरस्कार मिलना भी इस बात का सबूत है कि अँग्रेजी राज का कितना अच्छा प्रभाव पड़ा. मैंने कहा कि देखिये यह तो वैसी ही बात हुई कि बलात्कार से जन्मी संतानों को कहा जाये कि तुम अपने पिता की वहशियत का गौरव हो.

मैं जहाँ बड़ी हुई वहाँ मलयालम बोलते थे पर मुझे मेरी माँ ने जबरदस्ती अँग्रेजी में बोलने को मजबूर किया. अगर कभी पकड़ लेती कि मैं मलयालम में बोल रही हूँ तो हजार बार लिखना पड़ता "मैं अँग्रेजी में बोलूँगी, मैं अँग्रेजी में बोलूँगी..". वह कहती कि यही वह भाषा है जो कि तुम्हें जीवन में वहाँ ले जायेगी जहाँ तुम जाना चाहती हो.

तो मैंने उस अँग्रेजी इतिहासकार से कहा, "देखो, मेरी त्रासदी यह नहीं कि मैं अँग्रेजी से नफरत करती हूँ, मुझे प्यार है, पर मैं इस भाषा में तुम्हारे विरुद्ध बोलूँगी, जब भी मौका मिलेगा, तुम्हारे खिलाफ बात करूँगी." तो वह व्यक्ति रुँआसा सा हो गया, कहने लगा कि वह तो मेरी तारीफ कर रहा था. मैंने कहा यही तो दिक्कत है, तुमने सारी सभ्यता को रौंद दिया और उसकी चीख भी नहीं सुनी, उसके टूटने की आवाज नहीं सुनी.

भारत में हमारी 18 भाषाएँ और 3000 से अधिक बोलियाँ हैं. मेरे जैसे व्यक्ति के लिए जिसके पिता बँगाली हैं और माँ दक्षिण भारत की, पूर्वी मलयालम भाषा वाले हिस्से की. मैं असम में पैदा हुई और असमिया भी बोलती हूँ, मेरी शिक्षा तमिलनाडू में हुई और तमिल भी बोलती हूँ, पहले पति गोवा से थे तो कुछ कोंकणी भी सीखी, अब पंजाबी भी..तो कौन सी है मेरी भाषा? अगर बात साम्राज्यवादी भाषा की है तो क्या हिंदी भी सवर्णों की भाषा नहीं है? हिंदी भी तो आर्यों की भाषा बन कर आयी जिसने भारत की मूल निवासियों को दबा दिया. इसलिए मैं समझती हूँ कि बात यह नहीं कि कौन सी भाषा में कहते हैं, बात है कि क्या कहते हैं. अगर दमन और साम्राज्यों को देखने लगें तो इतिहास में बहुत पीछे जाना पड़ेगा पर इसका उत्तर नहीं मिलेगा.



अंत में एक बात ज्ञान और जानकारी के बारे में भी कहना चाहती हूँ. आज जानकारी ही सम्पति है, जानकारी बढ़ाना ही सम्पत्ती बढ़ाना है और वर्ल्ड बैंक जानकारी का ही सौदा सबसे अधिक करता है और इसी जानकारी से लोगों का दमन करता है. कुछ वर्ष पहले मैंने विरोध के भूमण्डलीकरण की बात की थी, मुझे लगता था कि जानकारी देना, सारी बात को अधिक जानकारी से भर कर कहना आवश्यक है, इसलिए अपने लेखन को तथ्यों, अंको और विचारों से भर देती थी ताकि हर प्रश्न का उत्तर दे सकूँ.. पर इस बीच मैंने बहुत से लोगों को जाना है और समझा है कि यह अधिक जानकारी बोझ भी बन जाती है, लोगों को कुछ भी करने से रोकती है, हम जानकारी ही जोड़ते रह जाते हैं. पर लोगों के विरोध का दूसरा तरीका भी है. वह कहते हैं "हमें कुछ नहीं सुनना, कुछ नहीं जानना, बस एक बात है कि यह मेरी जगह है और मैं तुम्हें यहाँ घुसने नहीं दूँगी चाहे मेरी जान ही क्यों न चली जाये". उन्हें बड़ी अंतर्राष्ट्रीय सभाओं में नहीं जाना, उन्हें बड़े भाषण, तथ्य, विचार नहीं चाहिये. इस तरह के लोगों ने भी अपने संघर्ष जीते हैं.

मैं यह नहीं कहती कि सब जानकारी बुरी है या कि हम पहले कि तरह अपने कटे कटे, अलग थलग संघर्षों में लौट जायें, पर यह कहना चाहती हूँ कि अधिक जानकारी को जोड़ना, केवल यही तरीका नहीं है संघर्ष का, और भी तरीके हैं. यह जानकारी जोड़ने वाले बड़े एनजीओ (NGO), सोशल फोरम (social forum) आदि उसी जानकारी के सिस्टम का हिस्सा बन जाते हैं जिससे दमन हो रहा है तो हमें अपने संघर्ष का दूसरा तरीका खोजना है.

मैं उपन्यासकार लेखक थी और दूसरे गैरसाहित्यक वाले लेखन में आ गयी, हालाँकि मेरे कई आलोचक कहते हैं कि मेरे लेख भी कहानियाँ ही हैं, पर वह दूसरी बात है, पर मैं सोचती हूँ किसी बात के बारे में लिखने का यह अर्थ नहीं कि हम उस बारे में सब जानकारी भर कर ही लिखें, वह भी एक तरह की कैद ही होगी, और विरोध के दूसरे तरीके भी हैं. धन्यवाद."

मैं अरुँधती की इस बात को मानता हूँ भारत में हम विभिन्न भाषाओं में बटे हैं, किस भाषा को अपनी कहें, कभी कभी यह दिक्कत आती है और क्या बात करते हैं यह भी महत्वपूर्ण हैं, पर अँग्रेजी और अन्य भारतीय बातों की बहस में एक ओर बात भी जिसके बारे में अरुंधती ने नहीं कहा और वह है अँग्रेजी बालने वाले वर्ग की बाकी सब भाषाओं के मुकाबले में ताकत और ऊँचाई.

बुधवार, अक्तूबर 17, 2007

सप्ताह के दिनों के नाम

एक तरफ़ केलैंण्डर, वर्ष और महीने सब नक्षत्रों यानि सूर्य, पृथ्वी और मौसमों से जुड़े हैं. दूसरी ओर सप्ताह का नक्षत्रों, इत्यादि से कोई वास्ता नहीं लगता. कहते हैं कि विभिन्न सभ्यताओं में सप्ताह सात से कम या अधिक दिनों के भी हो सकते थे हालाँकि अपनी दुनिया के विभिन्न देशों में यात्राओं में मैंने इस बारे में कभी नहीं सुना.

सप्ताह के सात दिन होना, सात नम्बर के विषेश महत्व को दर्शाता है क्योकि सप्त ऋषी के सात तारे थे, और प्राचीन नक्षत्रशास्त्र में सात नक्षत्र थे. इस बात में कितना सच है यह कहना कठिन है.

रोमन केलैंण्डर में सम्राट कोंस्टेंटाईन ने ईसा के करीब तीन सौ वर्ष के बाद सात दिनों वाले सप्ताह को निश्चत किया और उन्हें नक्षत्रों के नाम दिये, यानि सप्ताह के पहले दिन को सूर्य का नाम, दूसरे दिन को चाँद का नाम, तीसरे दिन को मँगल, चौथे दिन को बुध, पाँचवें दिन को बृहस्पति, छठे दिन को शुक्र और सातवें दिन को शनि का नाम. आज भी रोमन संस्कृती से प्रभावित देशों में इन्हीं नामों का प्रयोग होता है.

जैसे कि सोमवार को लूना यानि चाँद का नाम दिया गया इसलिए इतालवी भाषा में उसे लुनेदी और फ्राँस में उसे लंदी कहते है. भारत में भी सप्ताह के दिन इसी परम्परा से जुड़े हैं. लेकिन पुर्तगाल जो कि लेटिन भाषा और रोमन संस्कृति का देश है, वहाँ कुछ भिन्न हुआ. वे लोग रविवार को तो सूर्य के साथ जोड़ते हैं पर सप्ताह के बाकी के दिनों को सुगुंदा फेरा, तेरसेइरा फेरा, यानि दूसरा दिन, तीसरा दिन आदि कहते हैं.

कुछ इसी तरह का हिसाब चीन में भी है जहाँ छिंगचीयी, छिंगचीएर, छिंगचीसान आदि का अर्थ पहला दिन, दूसरा दिन, तीसरा दिन आदि ही होता है. पर जापानी भाषा इससे भिन्न है. जापानी में रविवार को निचीयोबि यानि सूर्य का दिन, सोमवार को गेतसुयोबी यानि चाँद का दिन, मँगलवार को कायोबी यानि आग का दिन, बुधवार को सुईयोबी यानि पानी का दिन, बृहस्पतिवार को मोकुयोबी यानि लकड़ी का दिन, शुक्रवार को किनयोबी यानि स्वर्णदिन और शनिवार को दोयोबी यानि धरती का दिन कहते हैं.

अब देखें अग्रेजी में इन्हीं दिनो को. सण्डे, मण्डे और सेटरडे तीन दिनों के नाम रोमन नामों से मिलते हैं यानि सूर्य, चंद्र और शनि के नाम से जुड़े पर बाकि दिनों के नाम भिन्न हैं, यह कैसे हुआ? इसका कारण ईंग्लैंड का इतिहास है. रोमन साम्राज्य के बाद वहाँ पर बाहर से हमले होते रहे, कभी जर्मनी से, कभी स्केडेनेविया के देशों से, जहाँ के एन्गलोसेक्सन लोग अपने साथ अपने देवी देवता ले कर आये. नोर्वे के थोर देवता जो बादलों और तूफ़ान की गड़गड़ाहट के देवता हैं उन्होंने अपना नाम दिया बृहस्पतिवार को यानि कि थर्सडे. नोर्वे के सबसे बड़े देवता वोडन ने नाम दिया बुधवार यानि वेडनेसडे को. वोडेन देवता के पुत्र तीव ने नाम दिया मँगलवार यानि ट्यूसडे को और वोडेन के पत्नि फ्रिया ने नाम दिया शुक्रवार यानि फ्राईडे को.

इन सब बातों से यह उत्तर देना कि भारत में सप्ताह के दिन कब से शुरु हुए और कहाँ से आये, यह मुझे नहीं मालूम. नामों को देख कर लगता है कि यह नाम अँग्रेजों के आने से पहले ही आ चुके थे क्योंकि यह अंग्रेजी नामों से नहीं बल्कि लेटिन नामों से प्रभावित थे. सुना है कि नोबल पुरस्कार पाने वाले भारतीय अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने विभिन्न केलैंण्डर आदि के विषय पर शौध किया था और कोई किताब भी लिखी थी, शायद उसमें इसका कोई वर्णन हो?

अपने खेतों में काम करने वाले या रोजाना की पगार पाने वाले लोग जिन्हें छुट्टी न मिलती हो, उनके लिए सप्ताह का कब कौन सा दिन है शायद इसका विषेश महत्व नहीं, बस त्योहारों उत्सवों के दिन पता चलने चाहिये. नौकरी करने वाले लोग जिन्हें सप्ताह में एक दिन छुट्टी मिलती हो या फ़िर पगार मिलती हो, तो सप्ताह के दिन मालूम करने की बात बनती है. शुक्रवार को जापानी में स्वर्णदिन कहते हें उसका शायद यही अर्थ था कि उस दिन सप्ताह की तनखाह मिलती थी. प्राचीन काल में भारत के नक्षत्र ज्ञान को अच्छा जाना जाता था, शायद लेटिन भाषा को यह नाम भारत ने ही दिये?

मंगलवार, अक्तूबर 16, 2007

महीनों के नाम कहाँ से आये?

प्राचीन काल में रोमन केलैंडर मार्च के महीने से प्रारम्भ होता था और वर्ष में केवल दस महीने होते थे, जिनमें सर्दियों के दो महीनो को नहीं गिना जाता था क्योंकि उन दो महीनो में कोई खेती बाड़ी का काम नहीं होता था. पहले महीने मार्च का नाम युद्ध के देवता मार्स यानि मँगलदेवता के नाम पर था. इसी महीने में अक्सर युद्ध छेड़े जाते थे.

अप्रैल के महीने का नाम बना था लेटिन भाषा के शब्द आपेरीरे से जिसका अर्थ है "खुलना", क्योंकि इस माह में धरती अपना वक्ष खोल कर प्रकृति को नया जन्म देती थी.

मई के महीने का नाम देवी माया से बना था जो फ़लने फ़ूलने की तथा नवजन्म की देवी मानी जाती थी. इसी खुशी में पहली मई को लोग बाहर बागों में, खेतों में जाते थे सारा दिन प्रकृति के साथ बिताते थे. जून का नाम बना जूनोन से जो समृद्धी और धरती की उपजाऊता की देवी थी.

इसके बाद के छह महीने के नाम नहीं बल्कि उन्हें लेटिन भाषा में पाँचवा, छठा, साँतवा आदि कहा जाता था. जैसे कि जून के बाद आता था क्विनतीलिउस यानी पाँचवा महीना जिसका नाम बाद में सम्राट जूलियस सीज़र के नाम पर जुलाई रखा गया. इसी तरह सेक्तीलियस यानि छठे महीने का नाम बाद में सम्राट अगुस्तस के नाम पर अगस्त रखा गया.

सितंबर, अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर महीनों के नाम वही पुराने लेटिन शब्दों से बने हैं जिनका अर्थ है सातवाँ, आठवाँ, नवाँ और दशक. चूँकि लेटिन और संस्कृत दोनो इण्डोयूरोपीय भाषाएँ हैं यह शब्द संस्कृत के शब्दों से भी मिलते हैं इस तरह आप को इन महीनों के नाम में सात, आठ, नव और दस शब्दों की झलक भी दिखती है.

अंतिम दो महीनो को कलैंडर में जोड़ा राजा नूमा पोमपिलियो ने ईसा से सात शताब्दियाँ पहले और इन्हें नाम दिये जनवारियुस जोकि ज्यानो देवता के नाम पर था फैबरुआरियुस जो फाब्रुस शब्द से बना है जिसका अर्थ है पवित्र, निष्कलंक.

ईसा से दो शताब्दियाँ पहले यह निर्णय लिया गया कि वर्ष जनवरी से प्रारम्भ होगा न कि मार्च से, पर दुनिया के अन्य केलैंडर अब भी मार्च के आसपास बसंत के साथ ही नववर्ष को मनाते हैं.

महीनों और मौसमों की बात हुई है तो मध्य इटली के केसर्ता शहर के राजभवन से यह कुछ मौसम के प्राचीन देवी देवताओं की तस्वीरें.







रविवार, अक्तूबर 14, 2007

सिले होठों की कड़वी हँसी

मरजान सत्रापी की फिल्म "पेरसेपोलिस" को इस वर्ष के कान फिल्म समारोह में पुरस्कार मिला है. शायद इसीलिए फैरारा शहर में जहाँ लेखक, पत्रकार, फिल्म निर्देशक और फोटोरिपोर्टरों की सभा में इस फिल्म देखने के लिए इतनी भीड़ इक्ट्ठी हो गयी थी कि हाल में नहीं समा रही थी. "पेरसेपोलिस", एक कार्टून फिल्म है जिसमें मरजान ने अपनी आत्मकथा बतायी है और एक छोटी बच्ची की आँखों से ईरान में होने वाले परिवर्तनों को दिखाया है.



मरजान चित्रकथा कलाकार हैं यानि कि कोमिक्स लिखती हैं और बनाती हैं. अपनी कला के बारे में वह कहती हैं, "मैं द्विलैंगिक हूँ, यानि कि निर्णय नहीं ले पाती थी कि मुझे लिखना अधिक अच्छा लगता है या कि चित्र बनाना, अंत में यह सोचा कि मैं दोनो काम साथ साथ करूँ और इस तरह मैं चित्रकथा बनाने वाली बन गयी." बहुत से देशों में चित्रकथाओं को बच्चों के पढ़ने की चीज़ माना जाता हो, पर यूरोपीय कला और लेखन क्षेत्र में उनके काम को बहुत गम्भीरता से लिया जाता है और साहित्य से किसी भी दृष्टी से कम नहीं माना जाता.

मरजान की खूबी है जीवन की कड़वी बातों को हँस के कहना, उनका चुटकुला बना देना. ईरान के उत्तर में केस्पियन सागर के पास रश्त्त के पास पैदा हुई मरजान तेहरान में पली बड़ी हुईं. चौदह साल की मरजान कुछ सालों के लिए ओस्ट्रिया में पढ़ने आयीं जब ईरान में खोमीनी की इस्लामी रिवोल्यूशन हो चुकी थी और मुल्ला राज का प्रारम्भ हुआ था. अपने उस ओस्ट्रिया निवास की भी उनके मन में कड़वी यादें ही हैं, कहती हैं, "तब ईरान देश का नाम ही सब बुरा माना जाता था, जब भी कोई मुझसे पूछता था कि कहाँ से आयी हूँ, तो घँटों मैं यह समझाने की कोशिश करती थी कि कैसा देश है मेरा, कि वैसा नहीं है जैसा दिखाया जाता है." वापस ईरान जा कर उन्होंने तेहरान के कला विद्यालय में पढ़ाई की और फ़िर मुल्ला राज की घुटन से बचने के लिए १९९४ में ईरान छोड़ कर पेरिस में रहने का फैसला किया. उनके पति स्वीडन के हैं.

उनका कोमिक बनाने का तरीका है सीधी सादे श्वेत श्याम चित्र जिनमें ईरान में औरत होने के अनुभवों के कड़वेपन को इस तरह से कहें कि लोग हँस पड़ें. "पेरसेपोलिस" कोमिक को बहुत से देशों में विश्वविद्यलय स्तर पर अध्य्यन का विषय माना गया है और उसी कोमिक पर फ़िल्म बनी है.

मरजान को ईरान में घुसना मना है, वहाँ की सरकार कहती है कि अपने काम से उसने अपने देश से विश्वासघात किया है, अपनी सभ्यता की हँसी उड़ायी है. यह सोचना कि इस तरह का पिछड़ापन केवल ईरान जैसे देश में है गलत होगा. बहुत से देशों में अपनी आलोचना करना गलत माना जाता है, अगर अपने देश में, अपने धर्म में, अपने समाज में कोई गलत बात हो भी तो उसे भीतर ही छुपा कर रखना ही ठीक माना जाता है, इस बारे में बाहर बात करना देशद्रोह बन जाता है. जैसी बातें मरजान ने आज के ईरानी समाज के बारे में की हैं वैसी बातें भारत में करना भी खतरे से खाली नहीं. मुसलमानों या हिंदुओं के बारे में कुछ भी बोलो तो कट्टरपंथी दल आप की जान के पीछे संस्कृति, सभ्यता और धर्म के नाम पर जान से मारने की धमकी दे सकते हैं, तहस नहस कर सकते हैं.


शनिवार, अक्तूबर 13, 2007

लेखन के दायरे

सभाओं और गोष्ठियों में अपने काम की वजह से भाग लेना, मेरी मजबूरी है, विषेशकर जब यह सभाएँ स्वास्थ्य, विकलाँगता या विकास सम्बंधी विषयों पर होती हैं. हर पंद्रह बीस दिनों में किसी न किसी सभा या गोष्ठी में बोलना पड़ता है, इसलिए पिछले कुछ सालों से मैं कोशिश करता हूँ कि जहाँ तक हो सके उनसे बचूँ.

अपनी मर्जी से, बिना विषेश निमंत्रण के किसी सभा आदि में किसी को सुनने जाऊँ यह बहुत कम होता है. पर जब सुना कि हमारे शहर से करीब सौ किलोमीटर दूर, फैरारा शहर में देश विदेश के पत्रकार और लेखक जमा हो रहे हैं तो वहाँ जाने की मन में उत्सुक्ता हुई और काम से छुट्टी ले कर तीन दिन वहाँ बिताये.

शहर में कई जगहों पर फोटोपत्रकारों के चित्रों की प्रदर्शनियाँ लगीं थीं जिनमें से मुझे इतालवी फोटोग्राफर फ्राँचेस्को जुजोला के युद्ध और मृत्यू के क्षणों की तस्वीरें बहुत प्रभावशाली लगीं. शब्दों से युद्ध के कारण या हाल के बारे में लिखने वाले पत्रकार स्थूल तथ्यों की जानकारी दे सकते हैं पर युद्ध का मानव जीवन पर क्या असर हो सकता है, इसके लिए जो बात एक अच्छी तस्वीर कह सकती है वह हजार शब्द भी नहीं कह पाते, यह मेरा विचार है.



ब्राजील के सुप्रसिद्ध पत्रकार मीनो कार्ता, वेनेजुएला की पत्रकार क्रिस्तीना मरकानो और मेक्सिको के पत्रकार उगो पिपीतोने की दक्षिण अमरीका में आज के बड़े वामपंथी नेताओं के बारे में बहस बहुत दिलचस्प लगी. बहस के मुख्य विषय थे ब्राजील के राष्ट्रपति लूला और वेनेजुएला के उगो शावेज. लूला जनप्रिय हैं, कुछ अच्छा काम भी कर रहे हैं, पर वह वामपंथी नेता नहीं हालाँकि राजनीति में आने से पहले कामगारी यूनियन के नेता थे, बल्कि वह बड़े बिसनेस के फायदे के लिए ही अधिक काम कर रहे हैं, यह निष्कर्श था मीनो कार्ता का. शावेज जी तानाशाह हैं, मिलेट्री से आये हैं, वह प्रेस की स्वतंत्रता का मुख बाँध रहे हैं पर साथ ही उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य सम्बंधी नीतियों से गरीब लोगों को सहायता मिली है, यह निष्कर्श था क्रिस्तीना का.

ब्लोग और अंतर्जाल के पत्रकारिता में बढ़ते महत्व पर बहस में मुझे फ्राँस के पियर्र हस्की और चीन के विद्यार्थी नेता काई छोंगवो, जो अब चीन छोड़ कर विदेश में रहने को बाध्य हैं, की बातें अच्छी लगी. बात हो रही थी कि अगर तियानामेन स्कावयर की बात आज होती तो क्या चीन की सरकार उसे इतनी आसानी से दबा पाती? उनका कहना था कि बाजार तथा उपभोक्तावादी संस्कृति से प्रभावित उदारवादी नीति अपनाने से चीन में इंटरनेट का तेजी से विकास हुआ है पर साथ ही चीन की सरकार ने इस माध्यम को किस तरह से काबू में रखा जाये, कैसे लोगों को इंटरनेट के भीतर एक सीमा में बाँध कर रखा जाये इस दिशा में बहुत तकनीकी विकास किया है जितना अन्य किसी देश में नहीं हुआ. इसके बावजूद चीनी ब्लागर और अतंर्जाल प्रयोग करने वाले नये नये तरीके निकलते रहते हें ताकि वह बँधनों से बाहर निकल सके.



बर्मा में मिल्ट्री तानाशाहों द्वारा देश में होने वाली बातों को बाहर जाने से रोकने की कोशिश करने के बारे में उनका विचार था कि दमन की प्रशासन कुछ दिनों में ही दमन की तीव्रता कम करने को बध्य होगा और धीरे धीरे समाचार फ़िर से आने लगेगें.

डाकूमेंट्री फ़िल्मों में मुझे अमरीकी फिल्म निर्देशक जेसन दा सिल्वा की फ़िल्म "हम भूल न जायें" (Lest we forget, 2003) अच्छी लगी. द्वितीय महायुद्ध के दौरान अमरीका में रहने वाले जापानियों का दमन और सितंबर 2001 में न्यू योर्क में हुए बम विस्फोटों के बाद अरब देशों और पाकिस्तान से आये नागरिकों के विरुद्ध हुए व्यवहार के बारे में थी यह फिल्म.

उपन्यास लिखने वाले लेखकों से उपन्यास और पत्रकारिता के दायरों के बारे में बातचीत भी बहुत दिलचस्प लगी. इसमें भाग लेने वालों में से मुझे मोरोक्को की लैला लालामी, तुर्की की एलिफ शफाक और भारत की अरुँधति राय की बातें मुझे अच्छी लगीं. लैला का कहना था कि क्योंकि वह मुसलमान हैं और मध्यपूर्व के देश से हैं, इसलिए बड़ी किताब छापने वाले पब्लिशिंग कम्पनियाँ उनसे केवल मुसलमान स्त्रियों का कितना बुरा हाल है इस विषय पर लिखना माँगती हैं और उनकी किताबों पर केवल बुर्का पहनने वाली औरतों या रेगिस्तानों और ऊँटों की तस्वीरें ही लगती हैं. एलिफ ने बात की अपने विभिन्न देशों में यहाँ से वहाँ बिताये अपने बचपन की जिसकी वजह से उन्हें लगता है कि उनकी जड़ें धरती में नहीं गड़ी बल्कि वह उल्टा पेड़ हैं जिसकी जड़े हवा में हैं. उन्होंने कहा कि लेखन तो लेखक की कल्पना पर निर्भर करता है, कि अगर वह तुर्की की नारी हो कर भी नोर्वे में रहने वाले समलैंगिक व्यापरी को ले कर कहानी लिखना चाहें या अमरीकी अश्वेत पुरुष के जीवन के बारे में लिखना चाहें, उन्हें इसका पूरा अधिकार है और वह कोई भी बँधन मानने को तैयार नहीं कि उन्हें किस विषय पर लिखना चाहिये और किस तरह!

अरुँधति राय जी का बोलने का तरीका बहुत प्रभावशाली है और उनके बोलने के दौरान खचाखच भरा हाल बार बार तालियों से गूँज उठा. अपने अँग्रेजी में लिखने के बारे में उन्होने लंदन में बीबीसी टेलिविजन के बारे में हुए एक साक्षात्कार के बारे में बताया. बुक्कर पुरस्कार मिलने के बाद हो रहे इस साक्षात्कार में उनके साथ एक अंग्रेजी प्रोफेसर भी थे जिनकी सारी बात ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बने देशों को क्या फायदा हुआ और किस तरह अंग्रेजी सभ्यता ने इन पिछड़े देशों की सभ्यताओं को सही दिशा दी, फ़िर अरुँधती की ओर बोले कि उन्हें बुक्कर पुरस्कार मिलना ब्रिटिश साम्राज्य की छोड़ी धरोहर का ही नतीजा है. अरुँधती बोली कि इस तरह की बात करना कुछ वही बात हई कि बलात्कार की बाद पैदा हुई संतान को दिखा कर बलात्कार हुई औरत से कहा जाये कि देखो उस पुरुष ने कुछ ठीक ही किया था. उनकी कही बहुत सी बातों से मन में बहुत से प्रश्न उठे, पर उनके बारे में तो अलग से फ़िर कभी लिखना पड़ेगा.


बुधवार, सितंबर 26, 2007

अत्याचार की नींव

इन दिनों टेलीविज़न पर मयनमार (बर्मा) में हो रहे आंदोलन के दृष्यों को देख कर खुशी भी होती है और मन में दहशत भी. तानाशाहों के दमन से दब कर रहने वालों में जब अपनी आवाज़ उठाने का साहस आता है तो उन्हें स्वयं भी विश्वास नहीं होता. सड़क पर निकलने वाली भीड़ में खुद को पा कर कैसा लगता होगा, इसकी कल्पना मैं कर सकता हूँ.

और तानाशाह क्या करेगा? गोली चला कर आंदोलन को दबायेगा या समझ जायेगा कि हर अत्याचार की तरह, उसके अत्याचार की नींव बहुत कच्ची है, हल्के से धक्के से गिर जायेगी?

1968 के चेकोस्लोवाकिया के वसंत की याद आती है, जब अगस्त में रूसी टैंक प्राग में घुस आये थे और उस वसंत को बँदूक की ताकत से दबा दिया था.

चेकोस्लोवाकिया के वसंत के बारे में केवल पढ़ा था, जबकि 1989 में चीन में हो रहे विद्यार्थी आंदोलन को करीब से देखने का मौका मिला था. पहले सियान में पुराने जनरल सेक्रेटेरी हू याओबेंग के मृत्यु के बाद हो रहे धरनो और जलूसों को देखा फ़िर, बेजिंग में तियानामेन स्क्वायर में विद्यार्थियों का आंदोलन देखा था. कुछ आंदोलनकारी छात्रों से बात की थी. बेजिंग छोड़ने के दो दिन बाद जब टेलीविज़न पर टैंकों को उसी तियानामेन स्क्वायर पर देखा था तो बहुत दहशत हुई थी.

यँगून में जब बुद्ध भिक्षुक जलूस के आगे चलते देखा तो मन में थोड़ी सी आशा जागी, शायद बुद्ध भिक्षुकों पर गोली चलाने का साहस तो उन बहादुर जनरलों में भी नहीं होगा जिन्होंने उँग सान सू क्यी जैसे नेता को पिछले सत्रह साल से कैद में रखा है. अभी सुबह के समाचार में बता रहे हैं कि रात भर रँगून में कर्फ्यू था और सुबह बहुत जगह पुलिस तैनात है. बुद्ध विहारों के बाहर भी पुलिस खड़ी है ताकि भिक्षुकों को बाहर निकलने से रोका जाये.

क्पयूटर, इंटरनेट और टेलीफोन की नयी तकनीकों ने जनरलों द्वारा लगाये बड़े प्रतिबँधों को पार कर के बाहर दुनिया में तस्वीरें, वीडियो और विचार भेजे हैं, ताकि सबको मालूम चल सके कि बर्मा में क्या हो रहा है.

धकधक करते दिल में आशा भी है कि इस बार जन आंदोलन सफल होगा. सवाल यह है कितने लोगों का खून सींचेगा इस सफलता को?

सोमवार, सितंबर 24, 2007

भारतीय पत्नि के सपने

मेरे बेटे ने पिछले वर्ष भारत में विवाह किया. इटली में पला और बड़ा हुआ बेटा मारको तुषार, मारको अधिक और तुषार कम है, और वह किसी भारतीय लड़की से विवाह करना चाहेगा, इसका हम लोगों ने कोई सपना तक नहीं देखा था. यह बात सोचना भी अविश्वासनीय सा लगता था. यहाँ इटली में तो आज के नवयुवक विवाह बहुत देर से करते हैं, कभी कभी दस दस साल तक बिना विवाह के साथ रहने के बाद विवाह होता है और अधिकतर वह भी नहीं होता. पर हमारी होनी में यह सुख लिखा था और उसका दिल भारत यात्रा में छुट्टियों में खोया. बहू इटली आयी और हमारा परिवार पूरा हो गया. बेटे बहू का प्यार देख कर मन को बहुत सुख मिलता है.

कुछ दिन पहले बेटे का एक मित्र पियेरो हमारे यहाँ खाने पर आया था. अचानक मुझसे बोला, "मैं भी भारतीय लड़की से विवाह करना चाहता हूँ, आप का इस बारे में क्या विचार है?"

पहले मुझे लगा कि वह मज़ाक कर रहा है बोला, हाँ क्यों नहीं, कहो तो तुम्हारे लिए लड़की देखें.

पर फ़िर जब उसका गम्भीर चेहरा देखा तो अपनी हँसी को दबा कर बोला, "इस तरह के सोचने से केवल बात नहीं बनेगी, सचमुच की लड़की से शादी करनी है तो सचमुच का प्यार चाहिये. अगर तुम मारको और आत्मप्रभा, इन दोनों को देख कर अगर मन में एक छवि सी बना लोगे तो सच्चाई से नहीं, कल्पना से विवाह करोगे और जब सचमुच की लड़की का सोचना, रहना, इच्छाएँ, विचार समझ में आँयेंगे तो उनसे मेल कैसे बैठेगा?"

भारत में माता पिता द्वारा पक्के किये गये विवाह या फ़िर स्वयं अखबार या किसी एजेंसी के माध्यम से खोजे जीवन साथी से विवाह करना और साथ निभाना आसान है क्योंकि यह बात हमारी सभ्यता, हमारी सोच में बसी है. यहाँ के केवल "मैं" और "मेरा" को सबसे ऊँचा सोचने वाले व्यक्तिगत भावना वाले पश्चिमी संसार में इस तरह की सोच नहीं. यहाँ प्रेम और विचारों के मिलने के बिना विवाह करने की कोई नहीं सोचता. डर सा लगा कि अगर भावुकता में पियेरो कुछ इस तरह का कदम उठायेगा तो खुद तो दुख पायेगा ही, किसी मासूम लड़की को भी दुख उठाना पड़ेगा. यह सब समझाया उसे, पर वह अपनी बात पर ही अड़ा है कि भारतीय लड़की से ही विवाह करना है.

"अच्छा, अगले साल जब मारको और आत्मप्रभा दोनो भारत में छुट्टियों में जायेंगे, तो तुम भी साथ चले जाना. क्या मालूम तुम्हें सचमुच कोई लड़की सच में भा जाये", मैंने सुझाव दिया, "और तब तक तुम कुछ मिर्च मसाले वाला खाना खाने का अभ्यास करो, इस तरह से सूखा सादा खाना खाओगे तो कौन भारतीय लड़की तुमसे विवाह करना चाहेगी?"

तब से अगले साल की छुट्टियों की तैयारी शुरु और कहाँ जायेंगे, क्या करेंगे इसके प्लेन बनने लगे हैं. पियेरो अँग्रेजी का अभ्यास कर रहा है. वह आज कल हिंदी फ़िल्मों और हिंदी फ़िल्म संगीत से जान पहचान बढ़ा रहा है. कहता है कि रानी मुखर्जी और एश्वर्या राय सुंदर हैं. नीचे वाली तस्वीरों में जिसमें पियेरो अपने आप को मारको और आत्मप्रभा के साथ साथ अलग अलग हिरोईनों के साथ देखता है, उसने ही बनायी है.









शनिवार, सितंबर 22, 2007

फणीश्वरनाथ रेणु की "कलंक मुक्ति"

यात्रा की तैयारी कर रहा था, तो सोचा कौन कौन सी किताबें साथ पढ़ने के लिए ले जायी जायें? नज़र पड़ी फणीश्वरनाथ रेणु की "कलंक मुक्ति" पर. जनवरी में भारत यात्रा में खरीद कर लाया था, अभी तक पढ़ने का मौका नहीं मिला था. सोचा कि रेणू जी को पढ़ा जाये.



पढ़ कर कल्पना पर भारतीय लेखकों के बारे में अँग्रेजी और इतालवी भाषाओं में परिचय देने का जो काम करने का सोचा था, उसमें भी रेणु जी का बारे में लिख सकता हूँ, यह विचार भी मन में था. यह काम भी बहुत समय से अधूरा सा पड़ा है. मुझे लगता है कि अच्छा लेखक केवल अपनी भाषा के लोगों के बोलने वालों में जाना जाये और वृहद जगत में उसके बारे में कुछ भी न मालूम हो यह ठीक नहीं.

रेणु जी का नाम मेरे मानस में तीसरी कसम फ़िल्म और उसके हीरामन से जुड़ा है. उनकी कुछ किताबें, जैसा मैला आँचल और परती परिकथा पढ़े तीस पैंतीस साल हो गये थे. लड़कपन के अधकच्चे मन को कहानियाँ अच्छी अवश्य लगी थीं पर क्या कहानी थी उस सब की यादें धुँधलाई सी थीं.




"कलंक मुक्ति" की कहानी की नायिका है सुश्री बेला गुप्त, भारतीय स्वत्रंता संग्राम के जोश में गाँव छोड़ने वाली बेला गुप्त को अपने क्राँतीकारी साथी से धोखा और बलात्कार मिलता है. बेला गुप्त को शरण मिलती है अनपढ़ और साहसी मुनिया और उसकी बेटी रामरति से, और सहारा मिलता है रमला बैनर्जी से जो उसे कामकारी स्त्रियों के होस्टल में काम दिलवाती हैं. बेला गुप्त को अपने बीते जीवन का पश्चाताप करना है, वह जन साधरण की सेवा में जुट जाती हैं और निर्बल कमज़ोर युवतियों को सहारा देना ताकि वे शिक्षा के माध्यम से आत्मनिर्भर बन सकें, में जुट जाती हैं और इसके लिए किसी रिश्वतखोर या भ्रष्ट अफसर से जूझने से नहीं डरती. आँख की किरकिरी बेला गुप्त और उसकी निडर सहायिका रामरति को जेल मिलती है होस्टल में वेश्याघर चलाने और दवा के पैसे खाने के जुर्म में, और दलाली और अत्याचार करने वाले सरकारी अफसरों को कुछ नहीं होता. बेला गुप्त चुपचाप न्याय के इस अन्याय को स्वीकार रकती हैं, अपने बीते कल के पश्चाताप के लिए.

सारी कहानी को फ्लैशबैक में लिखा गया जब लेखक "अजीत भाई" की मुलाकात रात को रामरति से होती है जो बताती है कि वह और बेला गुप्त जेल से मुक्त हो गयीं हैं. अजीत भाई कौन हैं, बेला गुप्त से उनका क्या सम्बंध था यह बात उपन्यास में स्पष्ट नहीं होती. जेल से छूट कर बेला गुप्त और रामरति वेश्या बन गयीं है, प्रारम्भ के रामरति के बोलने से कुछ कुछ ऐसा लगता है पर यह बात भी स्पष्ट नहीं होती. जेल से निकल कर बेला गुप्त के पास जीवन यापन का कुछ और रास्ता नहीं था, यह बात पूरी किताब में बेला गुप्त के बनाये व्यक्तित्व से मेल नहीं खाती.

किताब छोटी सी है, कुल ११२ पन्ने (राजकमल पेपरबैक्स, मूल संस्करण का असंक्षिप्त रूप, पहला संस्करण १९८६) और कापीराइट है पद्मपराग राय रेणु का जो शायद रेणु जी के पुत्र थे. रेणु जी का देहांत १९७७ में हुआ था, यानि यह पैपरबैक्स संस्करण उनकी मृत्यु के ९ साल बाद प्रकाशित किया गया. एक बार पढ़नी शुरु की तो पूरी पढ़ कर ही दम लिया.

पुस्तक की सबसे सुंदर बात है उसकी भाषा जो शायद बिहार के उस भाग की भाषा है जहाँ रेणू जी रहते थे? भोजपुरी, मैथिली, अवधी, आदि भाषाओं में क्या अंतर है और इन सब भाषाओं को पहचानना मेरे बस की बात नहीं, पर उन्हें पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता है, शायद क्योंकि इन भाषाओं में बचपन के कई रिश्तों की यादें छुपी हैं!

कई जगह शब्दों के ठीक अर्थ पूरी तरह समझ नहीं आते पर उन्हें ऊँची आवाज में पढ़ना बहुत अच्छा लगता है. जैसे उपन्यास से लिया यह हिस्साः

जानकी देवी के उत्साहित करते ही वह गाने लगी, गुनगुनाकर. बेला गुप्त चुप खड़ी सुनती रही. ... गीत सुनते समय, एक ग्रामीण बालिका वधु की छवि उतर आयी आँखों के सामने. चंगेरी भर गेहूँ लेकर पीसने बैठी है चक्की पर. हमदर्द पड़ोसन पूछती है, "औ सुकुमारी! किस पत्थरदिल सास ने तुझे चंगेरी भर गेहूँ दिया है तौल कर, किस ननद ने तुझे अकेली नौ मन की चक्की चलाने को भेजा है. हाय हाय, चक्की का हत्था पकड़ कर, झुमाई हुई निहुरी सी, घूँघट के अंदर ही रोती है, छोटी गुड़िया जैसी दुलहिन...

के तोरा देलकउ सुन्दरि दस सेर गेहूँआ
के तोरा भेजलकउ एकसरि जँतसारे ना कि.
कौन रे निदरदो के तेहुँ रे पुतौहिया
कौन रे मुरुखवा पुरुखवा तोर भतार न कि
"हथड़ा" पकड़ि सुन्दरि झमरि...

चंगेरी, झुमाई, निहुरी जैसे शब्द समझ नहीं आते है पर पढ़ने अच्छे लगते हैं. इसी तरह की भाषा का एक अन्य नमूना हैः

गौरी बोली, "तो, सुरती सहुआइन ने तेरा क्या बिगाड़ा है, कुन्ती मौसी? ...हरिजन तो वह मुझे समझती है.
"मुझे मौसी पीसी मत कहे कोई."
"क्यों री गौरी. छोटी मेम के घर कोंहड़े के लत्तर की भाजी कैसी बनती है, सूखा या रसदार? छोटी मेम खुद बनाती है."
"उँहु! खुद नहीं बनाती है, बनाता है उनका वह डिब्बावाला ... क्या नाम है भला - कूकड़! सभी चीजें डाल देती है, एक साथ. और जब उतारती है तो भात अलग, दाल अलग, तरकारी अलग."
यही बात मुझे रेणू जी की अच्छी लगती है, सुघड़ कथान्यास की संवेदना और भाषा का सौँधापन.

गुरुवार, सितंबर 20, 2007

जननेता का मनमोहक व्यक्तित्व

करीब 25 साल पहले दिल्ली में एक पोलैंड के नवयुवक से मुलाकात हुई थी जो फ़िल्म अभिनेता से नेता बने व्यक्तियों पर शौध कर रहा था और उस पर अपनी थीसिस लिख रहा था. अमरीका में रियेगन से भी मुलाकात कर चुका था. कहता था कि यह बात केवल भारत में नहीं अन्य बहुत से देशों में है कि प्रसिद्ध अभिनेता एक दिन राजनेता बन जाते हैं. बोला, "एनटीआर जैसा जादुवी व्यक्तित्व वाला पुरुष मैंने कोई अन्य नहीं देखा. उनसे बात करके मुग्ध सा हो गया, मन में लगा कि अगर मुझे वोट करना हो तो अपना वोट अवश्य एनटीआर को ही देता."

कुछ ऐसा ही अनुभव मुझे हुआ जब उभरते इतालवी राजनेता निकी वेनदोला से मिलने का मौका मिला. एक दो बार उन्हें पहले टीवी पर देख चुका था. शुरु में उनके छोटे बाल और बायें कान में लटकती बाली देख कर कुछ अजीब सा लगा था. सोचा कि अवश्य हिप्पी किस्म के व्यक्ति होंगे. पर पिछले सप्ताह जब मिलने का मौका मिला तो राय बदल गयी.

दक्षिण इटली के बारी नामक शहर में हो रही सभा का विषय था संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा बनाया विकलाँग व्यक्तियों के मानव अधिकारों से सम्बंधित नया अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन. वेनदोला जी उस राज्य के गवर्नर हैं और सभा के उद्घाटन के लिए आये थे. सोचा था कि राजनीतिक नेता जिस तरह के भाषण देते हैं वैसी ही बात सुनने को मिलेगी, यानि बेकार की बातें और कुछ झूठमूठ के वादे. पर जब उन्होंने बोलना शुरु किया तो आश्चर्य हुआ. कोई लिखा हुआ भाषण नहीं था और अपनी बात कहते हुए उन्होंने अपने जीवन अनुभवों से, अपने विकलाँग मित्रों के जीवन अनुभवों से कई बातें बतायीं. बहुत अच्छा लगा. सुना है कि वह केवल अच्छे भाषण ही नहीं देते, काम के लिए भी उनकी सरकार लोकप्रिय है. (नीचे तस्वीर में निकी वेनदोला)



पर क्या लोगों को मंत्रमुग्ध करना ही सब कुछ होता है? क्या सचमुच मंत्रमुग्ध करने वाले नेता जनहित के लिए काम करने में सफल होते हैं?

इण्लैंड के नये प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन का समाजसेवी संस्थाओं के साथ निशुल्क काम करने वाले स्वयंसेवको के बारे में भाषण पढ़ा वह बहुत अच्छा लगा. उनसे पहले के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर में लोगों को मंत्रमुग्ध करने की शक्ति थी, पर जिस तरह के काम उन्होंने किये उससे उनका सारा जादू गायब हो गया. उनके मुकाबले में गोर्डन ब्राउन के व्यक्तित्व में कोई जादू नहीं लगता.

यूरोप में इस तरह सामाजिक कार्यों के लिए काम करने वाले स्वयंसेवकों की संस्थाएँ हर देश में मिल जायेंगी. इटली में तो हर छोटे छोटे शहर में कई कई इस तरह की संस्थाएँ होती हैं. ब्राउन जी ने कहा कि औरों के लिए निस्वार्थ काम करने वाले लोग ही ब्रिटेन को बड़ा बनायेगें और उन्होंने सरकार की ओर से इस तरह की संस्थाओं को मजबूत करने तथा सहारा देने के लिए कई कदमों की घोषणा की. उनके इस भाषण को पढ़ कर मन में उनकी जो छवि थी वह बदल गयी.

लोगों को अपने व्यक्तित्व से मंत्रमुग्ध करना तो आसान है. आसान न होता तो बुश जैसे लोग बार बार कैसे चुने जाते? पर अपनी सरकार के काम से मुग्ध करना यह शायद थोड़ा कठिन है. और भारत में आज कौन से नेता हैं जो देश की जनता को मंत्रमुग्ध कर पाने की क्षमता रखते हैं?

गुरुवार, अगस्त 02, 2007

नया संगीत और धोबी का कुत्ता

कई बार कुछ भारतीय संगीतकारों से बात करने का मौका मिला और फ्यूजन संगीत की बात चली तो उनमें से अधिकाँश का कहना था कि भारतीय शास्त्रीय संगीत को पश्चिमी संगीत से मिलाना बेकार है क्योंकि जो संगीत बनता है वह धोबी के कुत्ते की तरह होता है, न घर का न घाट का.

वैसे तो मुझे यह धोबी के कुत्ते वाली कहावत ही समझ नहीं आती. बचपन में घर के पास ही सड़क के कोने में धोबी का घर था जिसके पास एक कुत्ता भी था और उस कुत्ते की हालत में मुझे अन्य आसपास के कुत्तों से कोई भी बात भिन्न नहीं दिखी.

खैर बात संगीत की हो रही थी. कुछ दिन पहले हम लोग फ्राँस के एक संगीत ग्रुप "ओल्ली और बोलिवुड ओर्केस्ट्रा" (Olli & Bollywood Orchestra) को सुनने गये. ग्रुप के अधिकाँश सदस्य फ्राँस के ही है. ओल्ली ग्रुप के गायक और प्रमुख संगीतकार भी हैं और भारतीय और पश्चिमी संगीतों की शैलियों को मिला कर अपना संगीत बनाते हैं, पर केवल शास्त्रीय संगीत से नहीं, मुंबई के फ़िल्मी संगीत से भी.




जब ओल्ली गाते हैं तो उनके गीतों के शब्द हिंदी के होते हैं और उच्चारण फ्राँस का, कभी कभी शब्द आपस में यूँ ही जोड़ देते हैं जिनमें कर्णप्रियता तो होती है पर अर्थ नहीं पर सुनते समय अर्थ की कमी नहीं महसूस होती बल्कि शब्दों के अर्थों के बारे में भूल कर आप केवल संगीत का आनंद ले सकते हैं. अपने संगीत की धुनें भी वह स्वयं ही बनाते हैं जो जाने पहचाने गानों से नहीं ली गयीं बल्कि जिनमें हिदी फ़िल्म संगीत और पश्चिमी ओपेरा संगीत का सम्मिश्रण सा है.

संगीत के साथ साथ पीछे पर्दे पर वीडियो छवियाँ भी दिखाते हैं जो अपने आप में कला का संपूर्ण रूप हैं. वीडियो के इन छवियों में पुरानी हिंदी फिल्मों के दृष्यों का अनौखा प्रयोग होता है, कभी एक ही दृष्य को बार बार दिखा कर, कभी उनमें दूसरी छवियाँ मिला कर, कभी उन पर रंग बिखेर कर, अपने संगीत की धुन से छवियाँ के घूमने को मिला कर, अजीब सा अहसास देते हैं. शुरु शुरु में जब उन्होंने गाना प्रारम्भ किया तो शब्दों के अर्थ ने होने, या अर्थ हो कर भी उनका उच्चारण विभिन्न होने के बारे में सोच रहा था पर थोड़ी देर में ही इन सब बातों को भूळ कर केवल ध्वनि, संगीत और छवियों के मायाजाल में खो सा गया.




"सुन मामा", "मेरी तेरी दोस्ती" गीत सबसे अच्छे लगे. कंसर्ट के अंत में गाँधी जी का भजन "रघुपति राघव राजा राम" भी बहुत अच्छा लगा, जो ओल्ली जी तीन विभिन्न सुरों में प्रस्तुत करते हैं पहले सामान्य भजन के रूप में शुरु करते हैं पर जिसमें अंतिम सुर ओपेरा संगीत से लिया गया है.

इस दल में दो भारतीय सदस्य भी है, कलकत्ता की सुदेशना भट्टाचार्य जो सरोद बजाती हैं और पाँडेचेरी के प्रभु एडुआर्ड जो तबला और ढोलक बजाते हैं. दोनो ही बहुत अच्छे कलाकार हैं. कंसर्ट के बीच का हिस्सा, इन दोनो की जुगलबंदी का था और बहुत सुंदर था.




इस ग्रुप ने हिंदी फ़िल्मी संगीत, भारतीय शास्त्रीय संगीत, पश्चिमी पोप संगीत और पश्चिमी ओपेरा को मिला कर जो फ्यूजन संगीत बनाया है वह अपने आप में संदर भी है और नया भी है इसलिए शायद नयी कहावत होनी चाहिये, "धोबी का कुत्ता घर का भी और घाट का भी".

प्रस्तुत हैं इस कंसर्ट की कुछ तस्वीरें.



बाँसुरी पर सिल्वान बारो


लाल कमीज में ओल्ली (शायद उनके नाम का सही उच्चारण है ओई?)






बायें से, गिटार बजाने वाले एरवान, बाँसुरी वाले सिल्वान और तबला बजाने वाले प्रभु

बुधवार, अगस्त 01, 2007

आप बीती कहने का साहस

हिंदी की पत्रिका "हँस" कई वर्षों से दलित लेखकों को प्रोत्साहन दे रही है, शायद एक दलित विषेशाँक भी निकल चुका है. मैं इस बात से सहमत हूँ कि किसी भी बात के बारे में लिखना हो, अगर उसे वह लिखे जो स्वयं उस बात का अनुभव कर चुका है और उसके लेखन में एक अन्य ही सच्चाई आ सकती है.

कहानी लिखना या उपन्यास लिखना, आप बीती लिखना नहीं है बल्कि लेखक द्वारा कल्पना की दुनिया से विभिन्न व्यक्तित्व बनाना है. इसलिए शायद यह आवश्यक नहीं कि दलित जीवन के बारे में केवल दलित ही लिख सकते हैं, पर यह अवश्य है कि अगर दलित अपने जीवन के बारे में लिखेंगे तो वे उस जीवन के बारे में नये पहलू रख सकते हैं जिनके बारे में गैरदलित लेखकों ने सोचा भी नहीं हो. यह नहीं कि हर दलित लेखक अपने लेखन में अपने जीवन को समझने के लिए नये पहलू उठा पायेगा, पर उनके बीच में भी कुछ लोग ऐसे अवश्य होंगे जिनमें यह क्षमता हो.

मुझे इस सच्चाई का एहसास तब हुआ जब विकलाँग लेखकों के सम्पर्क में आया. विकलाँगता शरीर में किसी अंग के सामान्य न होने सा या उसके सामान्य तरीके से काम न करने पाने से होती है, यह मेरा विश्वास था पहले. विकलाँग विचारकों के सम्पर्क में आया तो समझने का मौका मिला कि विकलाँगता व्यक्ति के शरीर में देखना केवल एक तरीका है विकलाँगता विर्मश का. विकलाँगता को समाज के सोचने और काम करने की तरीके में भी देखा जा सकता है, जब व्यक्ति के आसपास रुकावटें बना कर समाज व्यक्तियों को विकलाँग बना सकते हैं.

समाज के हाशिये से बाहर हर गुट में, चाहे वह विकलाँग हों, चाहे दलित हो, या शोषित स्त्रियाँ हों, या अल्पसँख्यक भाषी या अल्पसँख्यक धर्म के लोग, कुछ सत्य छुपे हैं जिन्हें वह स्वयं ही प्रस्तुत कर सकते हैं और बृहत संसार को समझा सकते हैं.

तो बात "हँस" के दलित लेखन की कर रहा था. अधिकतर दलित लेखक मुझसे पढ़े नहीं जाते, उनके लेखन में मुझे वह सत्य नहीं दिखता जिसे गैरदलित नहीं दिखा सकते और लेखन शैली विषेश नहीं होती, पर हँस के जुलाई अंक में श्यौराज सिंह बैचेन की आत्मकथा "यहां एक मोची रहता था" ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला. एक बार पहले भी हँस में उनका लिखा पढ़ा था जो मुझे बहुत अच्छा लगा था. इस बार भी उनका लेख पढ़ने लगा तो बीच में छोड़ा नहीं गया, पूरा पढ़ कर ही दम लिया और बाद में उसके बारे में सोचता रहा. दलित जीवन क्या होता है इसकी समझ भी देते हैं पर साथ ही उनके लिखने की शैली भी ऐसी है कि पढ़ना बहुत अच्छा लगता है. जलते अँगारों जैसे शब्द हैं और उन्हें पढ़ कर आधुनिक जातपात के नाम पर होने वाले भेदभाव की अमानवीयता की समझ बनती है.

अपनी आप बीती कहना कभी आसान नहीं होता. श्यौराज जी के अपने बचपन में मोची के काम करने के दिनों के वर्णन में कोई रुमानियत नहीं बस साफ सीधे शब्दों में बात कहते हैं. मैं मानता हूँ कि अपने आप बीते को इस तरह बता सकना ही मन को शोषण की ग्रथियों से और बीते जीवन के अनुभवों की यादों की जंज़ीरों मु्क्ति दे सकता है.

इसी अंक में अभय कुमार दुबे का "कंडोम के साथ चलते हुए यौन शिक्षा का विरोध" लेख भी बहुत अच्छा लगा जिसमें उन्होंने यौन विषय की ओर हमारे समाज में व्यापित दौगली मानसिकता पर प्रश्न उठाये हैं.

दोनो लेख इंटरनेट पर भी पढ़े जा सकते हैं, अगर अब तक नहीं पढ़े हों तो इन्हें अवश्य पढ़ियेगा.

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कभी कभी कोई छोटी सी पढ़ी हुई बात मन में ठहर सी जाती है.

कुछ यूँ ही हुआ जब "हँस" के जून अंक में वंदावन के स्वामी नित्यानंद का पत्र पढ़ा. उन्होने लिखा कि



"जैसे साहित्यकार उदास हैं कि पाठक नहीं मिलते, वैसे ही वेदांत के प्रवक्ताओं के लिए श्रोताओं का अभाव है. अंत यहां करूँगा कि -
दिल खुश हुआ है मस्जिदे वीरान देख कर
मेरी तरह खुदा का भी खाना खराब है"

वेदांत के श्रोताओं की कमी की बात करते हुए स्वामी जी ने बहुत सहजता से मस्जिद और खुदा की बात कर दी, बहुत अच्छी लगी. ऐसे वेदांत दर्शन की बात करने वाले स्वामी की बात को अवश्य सुनना चाहूँगा.

हँस के इसी अंक में एक और पत्र था आजकल के बहुत से धर्मगुरुओं के विषय पर, इंदौर से डा. ओमप्रकाश शर्मा भारद्वाज का यह पत्र, वह भी मुझे बहुत सटीक लगा. बहुत देर तक उनके शब्द मन में गूँजते रहे. आधुनिक धर्म गुरुओं के बारे में उन्होंने लिखा है,



"जो आज नित्य गगन विहार कर रहा है, वही मंच से कारुणिक स्वर में श्रीराम जी के वनगमन के समय उनके तलुओं में पड़े छालों का वर्णन कर रहा है. जो आज श्रीमंतों ही आतिथ्य स्वीकार करते हुए वातानुकूलित कक्षों में डनलप के गद्दों पर जाम लेता है, वही श्रीरामसीता की पंचवटि में भूमि शयन का वर्णन कर रहा है. जो आज काजू बादाम पिस्ता केसर कस्तूरी मेवा व शुद्ध घृत का भोजन करता है वही मंच से शबरी के बेरों का, सुदामा के तंदुल का व दिदुर के सागपात के आलौकिक स्वाद का वर्णन कर रहा है. जो शरीर की क्षणभंगुरता पर दार्शनिक रूप से व्याख्यान देता है, वही अपना जन्मदिन धूमधाम से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाता है. अपनी शोभा यात्राएँ निकलवाता है. अपना पाद पूजन कराता है. जो माया मोहव धन संग्रह की आसक्ति को त्यागने का उपदेश दे रहा है, वही अपने कथा स्थल के बाहर अपने चित्र,कैसेट, ओडियो, वीडियो, पुस्तकें, पूजा का सामान, यहाँ तक मंजन, तेल, शैम्पू, साबुन, चाय, पेन, कापी, आदि बेच रहा है..."
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जीमेल को लकवा मारा?

कुछ दिनों से हमारे गूगल देवता जी नाराज हैं. जीमेल खोलो तो बिना किसी दिक्कत के खुल जाता है पर सिवाय संदेशों को कूड़े में फैंकने के कुछ और नहीं करने देता. संदेश खोल कर पढ़ने नहीं देता, न ही नया संदेश लिखने देता है. कोई भी लिंक काम नहीं करती. क्या कोई मेरी सहायता करेगा कि उनकी यह बिमारी ठीक की जा सके?

सोमवार, जुलाई 30, 2007

शाहरुख का कमाल

इटली में हिंदी सिनेमा के बारे में बहुत कम जानकारी है. एक तरफ है समानान्तर सिनेमा जो हमेशा से ही फिल्म फेस्टिवलों के माध्यम से जाना जाता है, इसकी जानकारी इटली में भी है. नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी जैसे कलाकारों को इन समाराहों में जाने वाले लोग जानते हैं, पर आम व्यक्ति को इसकी जानकारी न के बराबर है. फिल्म समारोहों में आने वाली फिल्में विभिन्न शहरों में "सिनेमा द एसाई" यानि प्रायोगिक सिनेमा नाम के कुछ सिनेमाघर होते हैं जहाँ दिखाई जाती हैं. इस तरह के सिनेमाघरों में नारी भ्रूण हत्या के विषय पर बनी "मातृभूमि" पिछले वर्ष बहुत देखी तथा सराही गयी. पर बात वहीं तक आ कर रुक जाती है, यानि थोड़े से लोग जिन्हें गम्भीर सिनेमा पसंद है वह वहाँ यह फिल्में देखते हैं.

आम लोग जो सिनेमाहाल में फिल्म देखने जाते हैं उन्हें भारतीय फिल्मों के बारे में कुछ नहीं मालूम.

इस बारे में पिछले कुछ वर्षों में कुछ बदलाव आने लगा है. कुछ वर्ष पहले शाहरुख कान की फिल्म "अशोक" वेनिस फिल्म फेस्टिवल के समय दिखायी गयी हालाँकि वह पुरस्कार प्रतियोगिता में नहीं थी. पर वेनिस फिल्म फेस्टिवल ने लोकप्रिय हि्दी फिल्मों को अभी तक नहीं अपनाया है जैसे कि फ्राँस के कान फेस्टिवल में होने लगा है. फ्राँस में हिंदी फिल्म समारोह होने लगे हैं, कुछ हिंदी फिल्में प्रदर्शित भी हुई हैं. मेरी एक फ्रँसिसी मित्र ने कुछ दिन पहले मुझे लिखा था कि उसने डीवीडी पर "कभी खुशी कभी गम" देखी जो उसे बहुत अच्छी लगी, पर इस तरह की डीवीडी यहाँ इटली में नहीं मिलती. कुछ वर्ष पहले आमिर खान की फिल्म "लगान" अव्श्य डीवीडी पर आई थी पर न ही इसका ठीक से विज्ञपन दिये गये, न ही कोई चर्चा हुई.



बोलोनिया भारतीय एसोसियेशन के माष्यम से हम लोग भी भारतीय फिल्मों को लोकप्रिय करने का प्रयास कर रहे हैं, पर यह आसान नहीं, क्योंकि फिल्मों में इतालवी के सबटाईटल नहीं होते, होते भी हैं तो शायद कम्पयूटर से भाषा का अनुवाद किया जाता है जो समझ में नहीं आते या फ़िर कई बार गलत अर्थ बना देते हैं.

कल रात को बोलोनिया में पहली बार एक लोकप्रिय हिंदी सिनेमा की फिल्म दिखाई गयी, यश चोपड़ा की "वीर ज़ारा". शहर के पुराने हिस्से में नगरपालिका भवन के सामने बहुत बड़ा खुला चौबारा है, वहाँ खुले में सिनेमा का पर्दा लगाया गया है और करीब चार हज़ार दर्शकों के बैठने की जगह है. पिछले दिनों वहाँ अमरीकी फ़िल्में दिखा रहे थे और कल रात को इस समारोह के अंतिम दिन में भारतीय फ़िल्म दिखाने का सोचा गया था. हम लोग सोच रहे थे कि इतने लोग कहाँ आयेंगे और बोलोनिया फि्लम सँग्रहालय की तरफ से हमने सब लोगों को ईमेल भेजे, टेलीफोन किये और कहा कि भारत की इज़्ज़त का सवाल है और सब लोगों को आना चाहिये.



फ़िल्म शुरु होने से दो घँटे पहले ही लोग आने शुरु हो गये. बोलोनिया में भारतीय तो कम ही हैं पर बँगलादेश और पाकिस्तान के बहुत लोग हैं, अधिकतर उनके ही परिवार थे, बाल बच्चों समेत, सब लोग सजधज कर यूँ आ रहे थे मानो किसी की शादी पर आये हों. जब फिल्म प्रारम्भ होने का समय आया तो हर जगह लोग ही लोग थे, कुर्सियाँ भर गयीं तो लोग आसपास जहाँ जगह मिली वहीं बैठ गये. अंत में करीब सात आठ हज़ार लोग थे. समारोह वाले बोले कि इतनी भीड़ तो किसी अन्य फ़िल्म में नहीं हुई थी.

भीड़ से भी अधिक उत्साहमय था लोगों का फिल्म में भाग लेना. गाना होता तो लोग सीटियाँ बजाते, हीरो हिरोईन गले लगे तो लोगों ने खूब तालियाँ बजायीं. बहुत से इतालवी लोगों में मुझसे शाहरुख खान के बारे में पूछा, बोले कि बहुत ही एक्सप्रेसिव चेहरा है, कुछ भी बात हो उसके चेहरे से भाव समझ में आ जाता है नीचे सबटाईटल पढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती. कई लोग बोले कि शाहरुख खान की कोई अन्य फ़िल्म दिखाईये!

अब हम लोग सोच रहे हैं कि अप्रैल में एक और भारतीय फ़िल्म समारोह का आयोजन किया जाये.

हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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