सोमवार, जून 12, 2006

पुराने कपड़े

गेंद छज्जे से उछल कर बाहर गिर गयी थी. झाँक कर नीचे देखा, तो उसे घर के सामने वाले गिरजाघर की दीवार पर लगी काँटों वाली तार के बीच में फँसा पाया. पहले गिरजाघर की दीवार पर वह तार नहीं थी पर कुछ महीने पहले कोई लोग रात को दीवार से चढ़ कर अंदर घुस गये थे और खिड़कियाँ तोड़ दी थी, तो उसके बाद वह तार लगा दी गयी थी.

गिरजाघर के पादरी का बेटा मेरे साथ खेलता था, और पादरी को मैं दोस्त के पिता की हैसियत से "अंकल जी" बुलाता था इसलिए बिना सोचे बोला, "अभी मैं ले कर आता हूँ गेंद को". गिरजाघर का गेट खुलवाने में कोई दिक्कत नहीं हुई. माली ने दीवार के पास सीड़ी लगा दी और मैं दीवार पर चढ़ गया. नुकीले काँटों से बचता हुआ तारों के बीच धीरे धीरे कदम रख कर मैं गेंद तक पहुँचा. नीचे झुक कर गेंद उठायी और जब उठ लगा तो चर्र सी आवाज़ सुनी. झुकते समय तार का एक नुकीला काँटा निक्कर में फँस गया था, जब सीधा हुआ तो उस तार ने निक्कर को चीर दिया था.

सुन्न सा रह गया मैं. माँ क्या कहेगी ? काँटे से जाँघ पर भी खरोंच आयी थी और खून बहने लगा था पर उसकी कुछ चिंता नहीं थी. चिंता थी तो निक्कर की. क्या होगा, सोचा. माँ परेशान हो जायेगी. दो ही तो निक्कर थी मेरे पास. उनमें से एक न पहनने वाली हो गयी तो काम कैसे चलेगा ? मालूम था कि उन दिनों पैसे की तंगी चल रही थी. पापा की तबियत ठीक नहीं थी.

कुछ दिन पहले ही दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी में काम करने वाली एक औरत ने मुझे डाँट दिया था, बोली थी कि मेरी निक्कर बहुत छोटी और तंग थी, उसे पहन कर दोबारा लायब्रेरी गया तो वह मुझे घुसने नहीं देगी. बोली कि मैं बड़ा हो गया हूँ और अब मुझे आधी निक्कर नहीं पूरी पैंट पहननी चाहिये. फ़िर भी मैंने माँ को नहीं कहा था कि नयी निक्कर चाहिए. इसलिए फटी निक्कर ले कर डरता डरता घर वापस आया.
*****

अलमारी कपड़ों से भरी है और उसमें कपड़े रखने की जगह नहीं है. जब भी कोई नया कपड़ा खरीदता हूँ तो पत्नी कहती है, "अपने कपड़ों को ठीक से देखो, जो पुराने हैं, या फट गये हैं या ठीक से नहीं आते, उन्हें बाहर फैंको, तभी नये कपड़े लो, वरना अलमारी में कपड़ों की और जगह नहीं है."

पर मुझसे पुराने कपड़े नहीं फैंके जाते. "नहीं, यह कमीज़ नहीं, यह तो मुझे बहुत पसंद है. नहीं यह टीशर्ट नहीं, यह तो में रियो से खरीद कर लाया था, यह तो अभी बहुत अच्छी है", मैं कहता हूँ और पुराने कपड़े और चीज़ें फैंकना मेरे बस की बात नहीं. पत्नी ने भी अब सीख लिया कि अलमारी में जगह कैसे बनायी जाये. जब मैं घर में नहीं होता तो जो मन में आये वह दान में दे देती है.

कल बोली, "हमारा औरतों का समूह "मेरकातीनो" (छोटा बाज़ार) लगा रहा है, जो पैसा कमाएँगे उससे सूडान में डारफूर में शरणार्थियों के लिए भेजना है, कोई अपनी कमीज़ बगैरा दो न बेचने के लिए".

आजकल टीवी पर समाचारों में डारफूर के शरणार्थियों के बारे कई बार बता चुके हैं. मैंने अपनी अलमारी से दो कमीज़े निकाल दीं.

"अरे, यह नहीं कोई अच्छी सी दो न!" पत्नी बोली, "खुद तो पुराने, घिसे पिटे कपड़े पहने रखते हो, कम से कम दूसरों को तो अच्छे से कपड़े दो न, पुराने कपड़ों का ही दान किया तो क्या दान हुआ ?"

10 टिप्‍पणियां:

  1. प्रेमलता पांडे12 जून 2006 को 10:55 am बजे

    आपका हर जि़क्र कोई ना कोई सीख देता है। अच्छा लिखा है।
    प्रेमलता

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  2. आपकी पत्नी ने बिलकुल सही कहा !

    प्रत्यक्षा

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  3. आपका इस सादगी से लिखना और बिना कहे ही सब कुछ कह देना। इसने ही मुझे आपके ब्लाग का आदी बना दिया है।

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  4. जब भी कुछ बहुत ही अच्छा पढता हूँ तो शब्दविहीनता को प्राप्त होता हूँ, तो समझिये एक बार फिर वही हुआ है। धन्यवाद।

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  5. सुनील जी, एक बार फिर दुखती रग पर उंगली रख दी आप ने। मेरा बचपन भी कुछ ऐसे ही हालात में गुज़रा है, और एक नेकर वाला किस्सा मेरा भी है। आप के लेखन ने वह कहने की हिम्मत दी है, जो न कह सके। किसी दिन लिखूँगा।

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  6. आपकी ईमानदारी और सच्चाई ही है शायद जो हमें आपके ब्लाग को पढ़ने को विवश करती है। एक भी पोस्ट ऐसा नहीं आपका जो पढ़ा नहीं। लिखते रहें।

    -मानसी

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  7. सुनिल जी, आपके हर लेख में बहुत सादगी और मासूमियत दिखाई देती है। आप तो खुले दिल के इनसान हैं।

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  8. sayad us phati nikkar ne hi aapko us mukam tak pauchayan ki aap aaj dusroon ki madad kar sakan.

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  9. बहुत बार शब्द नहीं होते टिप्पणी के लिए, क्या लिखें?
    मैं अभावों पर लिखने कि हिम्मत न कर सका और आपने सहजता से लिख दिया. अच्छा लेख.

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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