बुधवार, मई 31, 2006

सोचने का अधिकार

किसी ने कहा था, "मैं तुम्हारी बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं पर तुम्हें अपनी बात कहने का पूरा अधिकार हो, इसके लिए जी जान से लड़ूँगा". मैं इस बात में पूरा विश्वास करता हूँ कि हम सब को अपनी बात कहने का अधिकार है, शर्त केवल इतनी है कि आप अपनी बातों से हिंसा को न भड़काईये. भिन्न सोचने और बोलने का अधिकार मानव अधिकारों का अभिन्न अंग है. इसी अधिकार का हिस्सा है कि आप अपनी बात किसी भी भाषा या माध्यम से कहिये, चाहे वह गीत हो या कला.

इस अधिकार से कट्टरपंथियों को सहमती नहीं होती. तुमने यह कैसे लिखा या बनाया या सोचा, वे पूछते हैं, क्योंकि उनके हिसाब से उनका धर्म इसकी आज्ञा नहीं देता. मानव अधिकार उनकी नजर में धर्म से नीचे हैं. अपनी बात को तलवार और डँडे के साथ कहते हैं क्योंकि तुम्हें चुप कराने के लिए, तुम्हे साथ ही सजा देना भी जरुरी समझते हैं.

गुजरात में आमीर खान के नर्मदा आंदोलन और मेधा पाटेकर का समर्थन करने के बाद भी कुछ ऐसा ही हुआ है. मेधा, आमीर या उस आंदोलन के अन्य लोग क्या कहते हैं उस पर बहस कर सकते हैं, उससे असहमत हो सकते हैं, पर किसी का मुँह बंद करने की और उसे डराने, धमकाने की कोशिश करना, कारें और दुकाने जलाना, तोड़ फोड़ करना, मेरे विचार में केवल आत्मविश्वास की कमी से जन्मी गुँडागर्दी है.

धर्म के साथ जुड़ी बातों में अक्सर इस आत्मविश्वास की कमी से जन्मी हिंसा के दर्शन होते हैं. कितने कमजोर हैं वे भगवान जो किसी की छाया से या किसी के शब्दों से या कागज पर बने चित्रों से भ्रष्ट हो जाता है! शायद लोग अपनी कमजोरी को भगवान की कमजोरी समझ लेते हैं ?

महात्ना बुद्ध के विचारों के साथ, आज से दो हजार साल पहले, भारतीय संस्कृति चीन, मंगोलिया, जापान तक पहुँची थी उसके लिए कोई युद्ध नहीं हुआ था, वह प्रेम और विचारों के माध्यम से पहुँची थी. उसके अवशेष आज भी इंदोनेशिया में बाली, कम्बोदिया में अंगकोर वात और वियतनाम के चम्पा में जीवित हैं. संस्कृति और विचारों को तलवार की ताकत की आवश्यकता नहीं, मानव अधिकारों को दृढ़ करने की आवश्यकता है.

मेरे विचार में इसका अर्थ है कि जहाँ भी धर्म के नाम पर लोगों को स्वतंत्रता और आत्मसम्मान से जीने न दिया जाये, उसका हर बार विरोध करना चाहिये. यह कहने पर मुझसे कुछ लोग कहते हैं कि यह बात तो केवल भारत में कह सकते हैं पर जब पाकिस्तान या बँगलादेश में हिंदू होने से मानव अधिकार नहीं रहते तो कोई कुछ नहीं कहता? मुझे लगता है कि अगर दूसरे कट्टरपंथी हैं और दूसरों की देखादेखी हम अपनी नैतिकता, अपने आचरण, अपनी सोच को उन जैसा बना लेंगे, तो असली जीत होगी उनकी.

रविवार, मई 28, 2006

बोलोनिया चिट्ठाकार मिलन

इटली में रहने वाले हिंदी में चिट्ठा लिखने वाले सभी लोग एक हिंदी चिट्ठाकार मिलन समारोह के लिए आज इक्ट्ठे हुए. यानि, हम तो यहाँ रहते ही हैं, कामेरीनो से मिश्र जी बोलोनिया आ गये तो सभी चिट्ठाकारों को साथ होने में क्या देर लगती. आये कुछ तरसा तरसा कर, इंतज़ार करा कर, पर आ कर थोड़ी देर में सब का मन जीत लिया.

मेरी पत्नी बोली, कैसा चौड़ा माथा है, अवश्य बहुत बुद्धिमान है! मैंने सोचा कि यूँ ही साहब अपने आप को बहुत बहादुर समझते हैं, साथ में यह भी बता दिया कि हमारी श्रीमति जी क्या कहती हैं, कहीं खुशी से इतना न फ़ूल जायें कि कोई और तकलीफ हो जाये.

खैर राम यानि आर.सी ने अपने ग्रामीण बचपन के खेलों के बारे में बहुत सी गुप्त जानकारी दी. फसलों, खेतों का उन्हें बहुत ज्ञान है. पर ऐसा नहीं कि हमने सब बातें केवल खेतों खलिहानों की ही की, कुछ हिंदी चिट्ठा जगत के बारे में भी विवेचना की, एक दूसरे के जानने वाले चिट्ठा लिखने वालों के बारे में अपने अनुभवों तथा विचारों का आदान प्रदान किया. राम ने चिट्ठे में स्लाईड कैसे लगायें, इस पर कुछ जानकारी दी.

राम के बोलोनिया में बिताये कुछ घँटे इस स्लाईड शो में देखिये और इन तीन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करियेः
तस्वीर नम्बर एक में वह किस पौधे की तस्वीर ले रहे हैं ?
तस्वीर नम्बर दो में वह किस फ़ल को पेड़ से तोड़ कर खा रहे हैं ?
तस्वीर नम्बर तीन में वह कौन सा गैर कानूनी काम कर रहे हैं ?

फुरसत के दिन

पिछले साल की कुछ छुट्टियाँ बचीं हुई थीं, उन्हें जून के अंत से पहले खत्म करना होता है वरना वह बेकार हो जाती हैं. इसलिए यह सप्ताह छुट्टी का है. कितने महीने हो गये, यहाँ से आओ, वहाँ जाओ, करते करते. इन फुरसत के दिनों का बेचैनी से इंतज़ार हो रहा था, और कल इस फुरसत का पहला दिन था. सुबह कुछ काम था और दोपहर को कुछ भारतीय मित्रों के साथ पिकनिक पर जाने का प्रोग्राम.

बोलोनिया से कुछ दूर, इदिचे नदी के पास, दो छोटी सी झीलों के किनारे एक बाग है वहाँ पिकनिक का विचार था. उस जगह पर किसी समय बालू खोदने की खानें होतीं थीं, वही खुदे हुए खड्डे ही पानी से भर कर झीलें बन गये हैं जहाँ मछलियाँ पाली जाती हैं और मछलियाँ पकड़ने के शौकीन सारा दिन झील के किनारे बैठे रहते हैं. उनका नियम है कि आप कोई भी मछली पकड़िये उसे वापस पानी में छोड़ना होगा, मार नहीं सकते, यानि खेल केवल पकड़ने का है, मछली खाने का नहीं.

पिकनिक में आग पर बारबेक्यू बनाने का विचार किया था साथियों ने पर उसमें कितना समय लगता है यह नहीं सोचा था किसी ने. खाना पकते पकते शाम के चार बज गये और भूख से सब बेहाल हो रहे थे. खैर दिन अच्छा बीता.









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शाम को घर आ कर सोचा "मैंने गाँधी को नहीं मारा" देखी जाये. फिल्म कहानी है हिंदी के रिटायर्ड प्रोफेसर उत्तम चौधरी की, जिनकी यादाश्त कम हो रही है और उनकी बेटी और बेटे की. प्रोफेसर साहब की मानसिक हालत अचानक बिगड़ने लगती है जब वह कहने लगते हैं कि उन्होने गाँधी को जानबूझ कर नहीं मारा, गलती से हो गया क्योंकि किसी ने उनके अनजाने, उनकी खेल की पिस्तौल में असली गोली भर दी थी. एक तरफ कहानी जहाँ मानसिक रोगी के परिवार पर पड़ने वाले तनाव और कठिनाईयों की बात करती है, वहाँ दूसरी और कहानी है बचपन के एक घाव की, जिसमें बच्चे के खेल को आदर्शवादी पिता से इतनी कड़ी सजा मिलती है कि वह घाव कभी भर नहीं पाता.



फिल्म सुंदर है और सोचने पर मजबूर करती है. प्रोफेसर के रुप में अनुपम खेर का अभिनय बहुत बढ़िया है. बाकी अभिनेता भी, विषेशकर पुत्री के रुप में उर्मिला मातोंडकर, भी अच्छे हैं. बस फिल्म के अंत में प्रोफेसर द्वारा दिया गया भाषण कि गाँधी जी को सिक्कों और नोटों में कैद कर उन्हें भुला दिया गया है, देखने में अच्छा दृष्य है और साथ ही थोड़ा अविश्वासनीय भी. प्रोफेसर जो एक क्षण पहले तक सत्य और कल्पना के बीच खो गये थे, अचानक तर्कयुक्त भाषण देने लगे फिल्मों में ही हो सकता है.
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आज इटली के हिंदी चिट्ठाकारों की सभा है यानि कि आर.सी मिश्र बोलोनिया आ रहे हैं. इस सभा के पूरे समाचार के लिए कल तक इंतज़ार कीजिये.

गुरुवार, मई 18, 2006

बचपन के सपने

कल बेंगलोर में रहने वाले कल्याण वर्मा का फोटोब्लाग देखा, तो उनके जँगली जानवरों एवं प्रकृति की तस्वीरें बहुत अच्छी लगीं. तस्वीरें देख कर उनके बारे में जानने के लिए पढ़ा. जनवरी २००५ में उन्होंने डाट काम की अपनी नौकरी से इस्तीफा दे कर प्रकृति के फोटोग्राफर बनने का निश्चय किया था. दिसंबर में उन्हें सबसे अच्छे प्रकृति के फोटोग्राफर का सम्मान मिला और उनकी तस्वीरों की तीन चार पुस्तकें छपने वाली हैं. पढ़ कर लगा कि ऐसा ही होना चाहिये कि वह काम करना चाहिये जिसमें मन हो.

मुझे लगता है कि भारत में हमारे परिवार पक्की नौकरी, पैसे या इज़्ज़त जैसी बातों की ओर अधिक ध्यान देते हैं और "क्या करना अच्छा लगता है ?" की बात कम होती है. घर में कह कर देखिये कि आप चित्रकार बनना चाहते हैं या साहित्य के क्षेत्र में कुछ करना चाहते हैं तो अक्सर तूफ़ान खड़ा हो जाता है.

शायद इसलिए कि हममें से बहुत से लोग सुबह ९ बजे से शाम ५ तक ऐसी नौकरी में समय बिताते हैं जो हमने अपने अपनी मर्जी से नहीं चुनी, जहाँ कुँठा से भरा सारा दिन गुज़ारना मुश्किल होता है और सोचते हें कि हमारे बच्चों को कुछ ऐसा करवाऐँगे जिसमें पैसा और इज़्ज़त हो ?

ऐसी बातें सोचते सोचते मन में बचपन के सपनों की बात आई. बचपन में मुझे जेम्स हेरिओट (James Herriot) की किताबें जैसे All Creatures Big & Small बहुत अच्छी लगती थीं. उनको पढ़ पढ़ कर मन में आया था कि मैं भी जानवरों का डाक्टर बनूँगा और किसी चिड़ियाघर में काम करुँगा. यह सपना बहुत सालों तक देखा. साथ साथ ही चित्रकला का शौक था. बचपन में मकबूल फिदा हुसैन जी को बहुत बार देखा था तो कभी सपना होता कि उनकी तरह का प्रसिद्ध चित्रकार बनूँ. कभी सपना देखता कि देश विदेश घूमूँ, कभी सोचता कि बहुत प्रसिद्ध हूँ और लोग मेरे ओटोग्राफ लेने आते हैं.

उपन्यास पढ़ना और कहानियाँ लिखनी भी अच्छी लगती थीं पर यह सपना कभी गँभीरता से नहीं देखा कि लेखक बनूँ, शायद इस लिए कि बचपन से बहुत से लेखकों को पैसे के बिना तंगी के जीवन जीते करीब से देखा था. जाने कब पढ़ते पढ़ते एक नया सपना मन में आया कि डाक्टर बनूँगा. जब घर में कहा कि बायलोजी लेने का निश्चय किया है और डाक्टर बनूँगा तो सभी को बहुत अचरज हुआ, कुछ थोड़ी सी कोशिश भी की गई कि मुझे समझाया जाये. बहुत पढ़ना पड़ता है, कठिन होगा, वगैरा, पर मैं अटल रहा.

डाक्टरी कि पढ़ाई पूरी करने के बाद कई साल तक चिक्त्सक का काम किया. अगर वही करता रहता तो सुबह से रात तक कुछ और करने का समय नहीं मिलता, रोगियों और बीमारियों में ही सारा समय निकल जाता. पर किस्मत इटली ले आई और पाँवों में घूमने के पहिये लगा दिये. फ़िर आया कम्पयूटर और इंटरनेट का इंकलाब और घर बैठे बैठे लिखने, चित्र बनाने जैसे और सपने भी पूरे हो गये.

शायद यह किस्मत की ही बात है कि सब सपने पूरे करने का मौका मिला मुझे, वरना कल्याण वर्मा की तरह पक्की नौकरी और महीनाबंद तनख्वाह छोड़ कर अपने सपने पूरे करना का साहस मुझमें नहीं था. और आप ? आप ने अपने सपने पूरे किये या नहीं ?

आज की तस्वीरें, मेरे बनाये हुए दो चित्र.




रविवार, मई 14, 2006

भूख

आजकल हर रोज़ अरुण की एक डाक्यूमेंट्री फिल्म देख रहा हूँ. अगले साल बोलोनिया के फिल्म स्कूल के साथ उसकी फिल्म का छोटा सा फेस्टिवल करने की बात हो रही है. उसके लिए चार या पाँच फिल्में चुननी हैं फिर उनके इतालवी भाषा में सबटाईटल्स बनाने पड़ेंगे.

आज देखा उसकी फिल्म १९९२ में बनी "राहत की आस में" (Waiting for a repreive) को. फिल्म मध्यप्रदेश के सतरा और रीवा जिलों में होने वाली बिमारी लैथरिसम के बारे में है. इस बीमारी का कारण है केसरी दाल जो इन जिलों में बोयी जाती है क्योंकि रूखी बँजर जमीन पर भी, थोड़े से पानी के साथ इसकी फसल उग जाती है. जहाँ अक्सर आकाल या सूखा पड़ता हो, वहाँ ऐसी फसल के बल पर ही गरीब लोग जी पाते हैं. अगर खाने में केसरी दाल की मात्रा बढ़ जाये तो खानेवालों की टाँगें अकड़ जाती हैं, धीरे धीरे बीमारी से प्रभावित लोग सीधे खड़े नहीं हो पाते और बिना डँडे के सहारे के चल नहीं सकते. और बढ़ जाये तो व्यक्ति सिर्फ घिसट घिसट कर चल सकता है.

बीमारी से बचने के तरीके हैं कि इस दाल को कम खाया जाये और अगर खानी ही पड़े तो उसे गर्म पानी में डुबो कर रखें ताकि उसका जहर निकल जाये. पर भूख से मारे लोगों के लिए दोनो बातें ही कठिन हैं. फिल्म के अंत में एक दृष्य है जिसमें एक स्त्री बैठी है, कातर स्वर में कहती है, "क्या करें, बच्चे भूख से बिलख रहे हों तो ? कभी दिन में एक बार ही खाने को मिलता है, कभी वह भी नहीं."

यह बीमारी सिर्फ भारत में ही नहीं होती. मध्य अफ्रीका के कई देशों में यह बीमारी मनिओक्का की जड़ खाने से भी होती है और उसे कहते हैं कोनज़ो. अप्रैल में जब मोज़ाम्बीक गया था वहाँ भी गाँव के लोगों ने यही उत्तर दिया था. भूख लगी हो तो कौन इंतजार करे कि दो दिन तक जड़ को पानी में डाल कर रखे ? "आज भूख से मरने से अच्छा है कि कल बीमारी से मरें." अगर बहुत अधिक खा लो जहरीली जड़ को तो लोग पेट दर्द और दस्त के साथ तड़प तड़प कर मरते हैं पर भूख के मारे खुद को रोक नहीं पाते.

एक बार ऐसी ही बात सुनी थी दक्षिण अफ्रीकी देश अँगोला में. "सुबह उठो तो पहली बात मन में आती है, आज क्या खायेंगे ? खायेंगे या नहीं ?"

ऐसी भूख क्या होती है, नहीं जानता. सोच कर ही डर सा लगता है.
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आज की तस्वीरें मोज़ाम्बीक यात्रा से.


शुक्रवार, मई 12, 2006

काने काका

दवा लेने के लिए हाथ बढ़ाया था, वहीं रुक गया. प्रतिदिन शाम को खाने के साथ रक्तचाप की दवा की आधी गोली लेनी होती है, कुछ साल हो गये, इस दवा को लेते पर दवा के नाम के अर्थ के बारे में पहले नहीं सोचा था.

दवा का नाम है "अंतकाल". सोचिये कि आप केमिस्ट की दुकान पर जाते हैं और माँगते हैं, "भाई एक पत्ता अंतकाल का दे दो". यह कैसा बेतुका नाम हुआ, सोचा. यह तो अच्छा है कि मैं वहमी या अंधविश्वासी नहीं, वरना तो इसे ऊपरवाले की चेतावनी देने का तरीका सोचता. इस दवा का काम है रक्त में केल्शियम के अणुओं का विरोध करे और उस तरह से "एन्टी केल्शियम" का सोच कर नाम अँग्रेजी में "एन्टकेल" ठीक ही बनता है, फर्क आता है इतालवी भाषा के उच्चारण से, जो उसे "अंतकाल " बना देता है.

बस यहाँ से सोचना शुरु हुआ तो सोचने लगा और कौन से शब्द हैं जिनका इतालवी में कुछ अर्थ बनता है और हिंदी में कुछ और.

इस शब्दयात्रा का प्रारम्भ करते हैं, मेरे बचपन के प्रिय मित्र राहुल से, जिसका घर का नाम था काका. और लोगों के लिए चाहे वो राहुल हो या कुछ और, मेरे लिए तो वह काका था. इटली में आ कर जब भी मैं अपने मित्र काके की कोई बात करता तो लोग मुझे अजीब सा देखते. फ़िर पत्नी ने समझाया किसी को काका बुलाना ठीक नहीं, जब उसका नाम राहुल है तो तुम उसे राहुल ही बुलाओ. काका इतालवी में पाखाने को कहते हैं.

इस शब्द यात्रा का दूसरा शब्द है, "कमीना". यहाँ आ कर कई बार लोगों को एक दूसरे को कमीना कहते सुना तो थोड़ा सा अचरज हुआ. कमीना शब्द बनता है संज्ञा "कम्मीनारे" से जिसका अर्थ है चलना. मैं कमिनो, तुम कमीनी, हम कम्मिनाआमो, वह कमीना, तुम सब कमीनाते, वे सब कम्मीनानो. किसी को चलने के लिए कहना हो तो बोलिए, कमीना.

इस यात्रा का तीसरा शब्द है काने, यानि कुत्ता. यह तो आप की मर्जी है कि आप अपने आप को काने कहलाना पसंद करेंगे या कुत्ता ?

मेरे दफ्तर में मेरे साथ काम करती थीं, श्रीमति मारा. मारा शब्द बनता है "मारे" से, यानि समुद्र और "मारा" का अर्थ हुआ समुद्र+कन्या. मैं मारा से कई बार कहता, "मारा तुझे किसने मारा ?", वह नाराज हो जाती, कहती, जाने कौन सी भाषा में मुझे गाली देता है!

यह बात नहीं कि ऐसे शब्दों के अर्थ केवल बुरे ही होते हैं. एक अच्छा शब्द है काँता जिसका इतालवी में अर्थ है "गीत गाना".

और आज की तस्वीरें हैं जलपक्षियों की - बतख और लाल इबिस



अंत में एक समाचार कल्पना के बारे में. लाल्टू जी के सौजन्य से अब कल्पना पर हिंदी दैनिक जनसत्ता के संपादक ओम थानवी के कुछ लेख उपलब्ध हैं.

गुरुवार, मई 11, 2006

प्रेरणा गीत

मेरे एक मित्र ने मुझे एक इतालवी डाक्टर लाउरा बेरतेले की एक किताब पढ़ने को दी. लाउरा उत्तरी इटली में मिलान के पास काम करती हैं और जहाँ उनका फिसियोथेरेपी का केंद्र है. इस किताब में लाउरा बात करतीं हैं संगीत के प्रयोग की, शरीर की कठिनाईयों का उपचार करने के लिए. उनके अनुसार बहुत से लोगों को जो वाचन सम्बंधी कठिनाईयाँ तथा विकलाँगता होती हैं उनका उपचार सँगीत से हो सकता है. उपचार सँगीत में उन्हें ऊँचे स्वर अधिक उपयोगी लगते हैं और वह मोज़ार्त का सिम्फोनिक सँगीत और गिरजाघर में गाने जाने वाले ग्रगोरियन सँगीत का अपने केंद्र में बहुत प्रयोग करती हैं. इसी किताब में वह कुछ भारतीय सँगीतकारों की भी बात करतीं हैं.

लाउरा का कहना है कि हमारे कानों के भीतर स्वर और शरीर तालमेल का अंग (कोकलिया) साथ साथ बने हैं. शरीर के बहुत से हिस्सों में ठीक से काम न कर पाने की वजह इन्हीं दोनो अंगों के तालमेल के बिगड़ना है. इसलिए उनके इलाज में कानों की ध्वनि का विभिन्न स्वर स्तरों का मापकरण और उसके हिसाब से सँगीत उपचार का विषेश रुप है.

बाद में लाउरा से बात करने का मौका भी मिला, तो इस बातों पर अन्य कुछ जानकारी भी उसने दी.
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फ़िर सोच रहा था सँगीत के बारे में और कैसे वह हमारे सारे जीवन में मिल जाता है. उत्तरी भारत में पैदा हो कर हिंदी फिल्मी सँगीत से आप का अनजान रहना हो ही नहीं सकता. आप अपने घर में रेडियो या टेलीविजन न भी रखें, आप के पड़ोसी या कोई भी उत्सव बिना इस सँगीत के पूरे नहीं होते. मुझे लगता है कि लता मँगेश्कर जी जैसे गायकों के गानों से बचपन से ही अपना सँगीत उपचार प्रारम्भ हो जाता है जिसे मुझ जैसे प्रवासी हर कठिनाई के क्षण में खोजते हैं!

लता जी के बहुत से गाने मुझे बहुत प्रिय हैं, विषेशकर एक गीत जिससे मुझे कठिनाई के क्षण में लड़ने की प्रेरणा मिलती है. गीत कौन सी फिल्म से है, यह मुझे ठीक से याद नहीं (इसमे शायद ईस्वामी की सहायता मिलगी, यह गीत जया भादुड़ी पर फिल्माया गया था और उनके साथ थे अनिल धवन) और गीत हैः

रातों के साये घने, जब बोझ दिल पर बने
न तो जले बाती, न हो कोई साथी
फिर भी न डर, अगर बुझे दिये
सहर तो है तेरे लिए
जब भी कभी मुझे कोई जो गम घेरें
लगता हैं होंगे नहीं, सपने ये पूरे मेरे
कहता है दिल मुझको, सहना है गम तुझको
फिर भी न डर, अगर बुझे दिए
सहर तो है तेरे लिए

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आज की तस्वीरों में हैं घोड़े


मंगलवार, मई 09, 2006

बेला महका रे महका

शाम को काम के बाद घर आ रहा था. आजकल पत्नी घर पर नहीं है, इसलिए घर पर खाने का मुझे ही सोचना पड़ता है. बेटा है घर पर, लेकिन उससे कुछ काम की उम्मीद करना बेकार है. कुछ काम कहो तो हज़ार नखरे हैं साहब के, पर यह भी है कि रसोई में कुछ करने के लिए कहो तो इतने बर्तन गंदे करता है कि बाद में मुझे ही साफ़ करने में परेशानी होती है. पत्नी जी उत्तरी इटली में वेनिस से करीब सौ कि.मी. आगे समुद्र तट पर जो हमारी साली साहिबा का घर है वहाँ सफाई करने गयी है. साली साहिबा का घर हम सब परिवार वालों का घर है और गर्मियों में बारी बारी से सब लोग वहाँ छुट्टियाँ मनाने जाते हैं. चूँकि सारा साल वह घर बंद रहता है बस गर्मियों मे तीन महीनों के लिए खुलता है इसलिए गर्मियाँ शुरु होने से पहले वहाँ जा कर सब सफाई करके उसे तैयार किया जाता है. सफ़ाई करने के बहाने, दोनो बहनें, मेरी पत्नी और साली जी, मिल कर खूब गप्प लगातीं हैं. खैर बात हो रही थी घर में अकेले रहने की और घर के काम की.

सुबह से बारिश आ रही थी. जब काम से निकला तो कुछ थम गयी लगती थी. सोचा कि घर जाने से पहले सुपर मार्किट जा कर कुछ सामान खरीदा जाये क्योकि फ्रिज में खाने के सामान की कमी हो रही थी. श्रीमति जी जाने से पहले जो विभिन्न पकवान बना कर छोड़ गयीं थी वे भी समाप्त होने को आ रहे थे. गाड़ी पार्किंग में लगायी और सुपर मार्किट जाने के लिए पेड़ों के बीच में से जा रहे एक रास्ते पर था तो देखा पेड़ की एक डाल पानी के जोर से कुछ नीचे सी आ गयी थी. उसे हटाने के लिए हाथ बढ़ाया तो ठिठक कर रुक गया. डाल पर लगे सफेद फ़ूलों से तेज खुशबू आ रही थी.

कभी कभी ऐसा होता है कि एक गँध से अचानक ढ़ेर सारी यादें अचानक बादलों की तरह घुमड़ कर छा जाती हैं. उन फ़ूलों की खुशबू से कुछ ऐसा ही हुआ. लगा राजेंद्र नगर के अपने उस घर में खड़ा हूँ जहाँ कोने में बेला और रात की रानी के पेड़ लगे थे. गर्मियों में रात में उनके पास चारपाई लगा कर सोने पर उनकी मनमोहक खुशबू चारों तरफ छा जाती थी. फ़िर मन में छवि उभरी हैदराबाद की, जब करीब पाँच बरस का था और पापा माँ के जूड़े में बेला के फ़ूलों की लड़ी बाँध रहे थे.

पल में ही सारी थकान दूर हो गयी. तब से गुनगुना रहा हूँ
मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को
बेला महका रे महका आधी रात को



शनिवार, मई 06, 2006

प्राचीन सभ्यता के बदलते हुए रँग

मिस्र की यात्रा डायरी के कुछ अँश प्रस्तुत है. अगर पूरी डायरी पढ़ना चाहते हैं तो मेरे वेब पृष्ठ कल्पना पर पढ़ सकते हैं.
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अधिकतर औरतें पूरे हाथों और नीचे तक पैर ढ़कने वाली पोशाकें पहनती हैं और सिर पर स्कार्फ बँधा रहता है. उनके साथ के पुरुष तो सब आधी बाँहों वाली कमीजें पहने थे. हालाँकि चेहरा ढ़कने वाला बुरका पहनने वाली औरतें अधिक नहीं दिखीं पर इस तरह से शरीर को छुपाने वाली औरतों को देख कर मन में कुछ घबराहट सी होती है. शायद कुवैत और दुबाई जैसी जगह रहने वालों को इसकी आदत सी हो जाती होगी.

बचपन में कई साल तक पुरानी दिल्ली की ईदगाह के सामने रहते थे जहाँ बुरके वाली औरतों को देखना आम था और उनमें से कई को जानता था. तब परदे के पीछे शरीर छुपाना अजीब नहीं लगता था और मेरे महबूब, चौदह्वीं का चाँद और पाकीजा जैसी फिल्में रोमांटक लगती थीं पर इतने साल इटली में रहने से शरीर को खुला देखना स्वाभाविक लगने लगा है और बुरका पहने या शरीर ढ़की औरतें अज़ीब सी लगती हैं.
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कुछ समय पहले सुना था कि उसकी शादी होने वाली है, पूछा तो बोली कि उसने वह रिश्ता तोड़ दिया. बोली कि इस्लाम औरतों को यह हक देता है कि अगर वह न करदें तो उनकी जबरदस्ती शादी नहीं हो सकती. जिस लड़के से रिश्ता हुआ था उसे कोलिज के दिनों से जानती थी और वह उससे प्यार भी करता था पर जेहान को उससे प्यार नहीं था और न ही उनके विचार मिलते थे, इसीलिए उसने वह रिश्ता तोड़ दिया था. फिर बात अंतरजातीय विवाह की हुई तो जेहान ने बताया कि मिस्र में मुसलमान लड़के ईसाई और यहूदी लड़कियों से विवाह कर सकते हैं पर मुसलमान लड़कियाँ अपने धर्म से बाहर विवाह नहीं कर सकतीं, उनके लिए सिविल मेरिज भी नहीं है. मेरा विचार था कि स्त्री को पुरुष से हर बात में बराबर मानने वाली जेहान को यह बात ठीक नहीं लगेगी पर वह बोली कि वह इस बात से सहमत है और अगर वह विवाह करेगी तो किसी मुसलमान लड़के से ही.

पर अगर किसी दूसरे धर्म के लड़के से प्यार हो जाये तो, मैंने पूछा तो वह बोली, उसे भी मुसलमान बनना पड़ेगा, वह भी सिर्फ कहने के लिए नहीं, सचमुच में.

अकेली गाड़ी चलाती है, रात देर तक मेरे साथ घूम सकती है, न सिर ढ़कती है न परदा करती है, पर साथ ही साथ इस तरह सोचती है, यह मुझे कुछ अजीब सा लगा. उससे कहा तो वह हँसने लगी. बोली, "मैं आधुनिक लड़की हूँ पर मुझे इस्लाम बहुत अच्छा लगता है, और मैं जानती हूँ कि मुझे अपना साथी अपने जैसे विचारों वाला लड़का ही चाहिए, और वह मुसलमान हो, तो इसें गलत क्या है ? हाँ यह अवश्य है कि इस तरह के लड़के मिलना आसान नहीं, अधिकतर पुरुष घर में रहने वाली औरत चाहते हैं जो पति की सेवा करे, बाहर काम न करे और पति से ज्यादा न पढ़ी लिखी हो. पर अगर मुझे मेरी पसंद का पुरुष नहीं मिलेगा तो मैं शादी नहीं करुँगी."
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वह बोली, "यहाँ तो बहुत सुंदर तरीके से फैशन वाले रुमाल बाँधते है, मुझे भी सीखना है और यह रुमाल खरीदने हैं. हमारे यहाँ तो सिर को ढ़कना सब औरतों के लिए आवश्यक है, चाहे वह मुसलमान हों या किसी और धर्म की. हम भी कोशिश करते हैं कि यह नियम मान कर भी अपनी मन के आकाक्षाएँ पूरी कर सकें इसलिए बहुत सी इरानी युवतियाँ आजकल छोटे छोटे रुमाल बाँधती हैं जिससे उनके बाल बाहर दिखते हैं और हालाँकि हमें मेकअप और श्रृंगार करना मना है पर युवतियाँ पूरा मेकअप करती हैं. एक चेहरा ही तो दिखा सकते हैं, कम से कम उसे तो मेकअप के साथ सुंदर बना कर दिखाएँ". मेरी मिस्री मित्र जो बिना सर ढ़के बाहर नहीं जातीं बोलीं, "मैं सिर ढ़कती हूँ क्योंकि मुझे अच्छा लगता है पर ऐसा करने की जबरदस्ती हो, यह तो बहुत गलत बात है."

हमारे एक इरानी साथी ने जब भोज में वाईन माँगी तो मैंने उनसे पूछा कि क्या इरान में वाईन मिलती है. वह बोले कि गाँवों में करीब ५० प्रतिशत पुरुष और थोड़ी सी महिलाएँ भी वाईन पीती हैं, पर वे घर में बनाते हैं, बाज़ार में नहीं मिलती.

पश्चमी देशों में मध्यपूर्व के अरब देशों की और मुसलमानों की जो तस्वीर दिखायी जाती है उसके सामने वहाँ के लोगों के विभिन्न विचार सुन कर लगा कि वह तस्वीर एक तरफा है और लोगों के विचारों की जटिलता से दूर है.
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अगर पूरी डायरी पढ़ना चाहते हैं तो मेरे वेब पृष्ठ कल्पना पर पढ़ सकते हैं.





हमारी भाषा कैसे बनी

कुछ दिन पहले मैंने जाने-माने डॉक्यूमैंट्री फ़िल्म निर्देशक अरुण चढ़्ढ़ा की १८५७ के लोक-गीतों पर बनी फ़िल्म के बारे में लिखा था। आज उन्हीं की ए...

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