रविवार, नवंबर 06, 2005

मानव मान

माता पिता अपने बच्चे का मल मूत्र साफ करते हैं, मल मूत्र से गंदे वस्त्र धोते हैं, इसमे उनका मान नहीं जाता. डाक्टर या नर्स आपरेश्न हुए मरीज का मल मूत्र साफ करते हैं, छूते हैं या उसकी जांच करते हैं, इसमे उनका भी मान नहीं जाता. फिर घर में पाखाना साफ करने वाले को ही क्यों समाज में सबसे नीचा देखा जाता है? शायद इस लिए कि यही उसकी पहचान बन जाती है या फिर इस लिए कि बात सिर्फ सफाई की नहीं, उस मल मूत्र को सिर पर टोकरी में उठा कर ले जाने की भी है? क्या हमारे शहरों में ऐसा आज भी कोई करने को बाध्य है?

ऐसी ही कुछ बात है रिक्शे में बैठ कर जाने की. तीन पहिये वाले रिक्शे से कम बुरा लगता है पर कलकत्ते के दो पहियों वाले रिक्शे जिसे भागता हुआ आदमी खींचे, उस पर बैठना मुझे मानव मान के विरुद्ध लगता है. आज जब साईकल का आविश्कार हुए दो सौ साल हो गये, क्यों बनाते हैं हम यह दो पहियों वाले रिक्शे? क्या बात केवल बनाने के खर्च की है?

शायद यही बात आयी थी कलकत्ता के मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य के मन में तभी उन्होंने आदेश दिया है कि यह रिक्शे कलकत्ते की सड़कों से हटा दिये जायें. इस बात पर जर्मन पत्रकार क्रिस्टोफ हाइन ने फ्रेंकफर्टर आलगेमाइन अखबार में एक लेख लिखा है. उन्होंने रिक्शा चलाने वाले के जीवन पर शोध किया है और वह कहते हैं कि इससे हजारों गरीब लोगों का जीने का सहारा चला जायेगा.

वह कहते हैं कि कलकत्ता में ६००० रजिस्टर्ड रिक्शे हैं, पर बहुत सारे रिक्शे रजिस्टर नहीं हैं और कुल संख्या करीब २०,००० के करीब है. इसे आठ घंटे की शिफ्ट के लिए रिक्शा चलाने वाला २० रुपये में किराये पर लेता है. दिन रात चलते हैं और २४ घंटों में तीन शिफ्टों में इन रिक्शों को ६०,००० आदमी चलाते हैं. बिहार से आये ये लोग दिन में सौ रुपये तक कमा लेते हैं जिसमें से हर माह करीब २००० रुपये गांव में परिवारों को भेजे जाते हैं. यह सब लोग कहां जायेंगे? क्या करेंगे?

किस लिए इन रिक्शों को हटाने का फैसला किया कलकत्ता सरकार ने? हाइन का कहना है कि रिक्शे मुख्य सड़कों पर नहीं चलते, छोटी सड़कों और गलियों में चलते हैं जहाँ पहूँचने का कोई और जनमाध्यम नहीं है, इसलिए यह कहना कि इनसे यातायात को रुकावट होती है, ठीक नहीं है.

पर शायद इस सरकारी फैसले को लागू करना आसान नहीं होगा. हाइन का कहना है कि ८० प्रतिशत रिक्शों के मालिक कलकत्ता के पुलिस विभाग के कर्मचारी हैं, जो इस फैसले से खुश नहीं हैं. शायद यही हो, तो भट्टाचार्य जी मैं कहूंगा सब रिक्शों को सरकारी ऋण दिला दीजिये जिससे वे तीसरा पहिया लगवा लें. भारत इतनी तरक्की कर रहा है और सुपरपावर बनने के सपने देख रहा है, घोड़े या गधे की तरह रिक्शा खींचने वाले लोगों को भी स्वयं को मानव महसूस करने का सम्मान दीजिये.

1 टिप्पणी:

  1. क्या इसका कोई आंकडा है कि समान भार लादे हुए दोपहिया रिक्शा और तीनपहिया रिक्शा में किसको चलाने मे अधिक बल/शक्ति/उर्जा की आवश्यकता होती है । क्या दोपहिया रिक्शा इसलिये खराब है कि इसे हाथ से खीचना पडता है ? मेरे खयाल से ऐसी सोच ठीक नही है । लेकिन यदि तीन-पहिया रिक्शे के मुकाबले में दो-पहिया रिक्शे की दक्षता ( एफ़िसिएन्सी) बहुत कम है, तो तकनीकी दृष्टि से उसे हटा लेना उचित कदम है ।

    अनुनाद

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