पिएत्रो और लूसिया हमारे पड़ोसी हैं. उनका बेटा करीब ही रहता है, बेटा और पोता अकसर दादा दादी के पास आते हैं. पति पत्नी दोनो को अच्छी पेंशन मिलती है और अपना घर है. मतलब कि कोई परेशानी नहीं है. पर पिएत्रो को उदासी यानि डिप्रेशन की बिमारी है. इन दिनो में, सितंबर के अंत और ओक्टूबर के प्रारम्भ में हर साल यह उदासी विषेश गहरी हो जाती है. पिएत्रो बातचीत करना बिल्कुल बंद कर देते हैं, अँधेरे कमरे में सारा दिन बैठे रहते हैं.
बोलोनिया के दक्षिण में पहाड़ हैं, वहीं छोटा सा गाँव है मारजाबोतो, जहाँ पिएत्रो पैदा हुए थे. १९४३ में दूसरे महायुद्ध की लड़ाई मारजाबोतो में भी आ गयी थी. इटली के शासक मुसोलीनी ने जर्मनी के हिटलर से मिल कर यूरोप के अन्य देशों पर हमला बोला था. इटली में जर्मन सिपाही फैले हुए थे क्योंकि देश में मुसोलीनी के खिलाफ बगावत हो रही थी. इस बगावत का बड़ा केंद्र था बोलोनिया, जहाँ के बगावत करने वाले स्वत्रंता सिपाही, जर्मन सिपाहियों पर मौका मिलने पर हमला करते थे.
मारजाबोतो में भी जरमन सिपाहियों का कब्ज़ा था. पिएत्रो तब पढ़ाई समाप्त कर नौकरी पर लगे थे. बगावत करने वालों में से कुछ लोगों को जानते थे, कभी कभार संदेश ले जा कर उनकी मदद करते थे. ४ ओक्टूबर को एक हमले में बगावत करने वालों ने एक जर्मन सिपाही को मार डाला. उसका बदला लेने के लिए जर्मन सिपाहियों ने गाँव के सभी लोगों को जमा करके गोली मार दी. उनमें पिएत्रो की छोटी बहन मरिया भी थी. पिएत्रो जंगल में भाग गये थे. मारिया भी उनके साथ आना चाहती थी पर उन्होंने मारिया को वापस घर भेज दिया, सोचा कि जर्मन लड़कियों को नहीं मारेंगे.
यही बात अब तक भूल नहीं पाये हैं पिएत्रो. कहते हैं "मैंने अपनी बहन को मार डाला, वो मेरे साथ आ रही थी, मैंने उसे वापस भेज दिया. क्यों मरी वह, क्यों मरे मेरे चाचा, उनके बच्चे ? क्यों बच गया मैं, मैं क्यों नहीं मरा ?"
मरने वालों में हम केवल अपनी तरफ के लोग ही गिनते हैं, दूसरी तरफ कौन मरा इससे हमें क्या मतलब ? जर्मनी में भी परिवार होंगे जो उसी लड़ाई में मरे अपने घर वालों के लिए उदास होते होंगे.
लंदन का युद्ध स्मारक केवल अपने सिपाहियों को याद करता है, उन शहरों को याद करता है जहाँ अंग्रेजी सम्राज्य ने सिपाही खोये. स्मारक पर जलंधर, अमृतसर, इम्फाल जैसे नाम देख कर झुरझरी सी आती है.
मंगलवार, अक्तूबर 04, 2005
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