मंगलवार, सितंबर 06, 2005

शिक्षकों की याद

एक वह दुनिया है जहाँ हम लोग सचमुच रहते हैं और फिर अन्य कई दुनिया हैं, सपनों की दुनिया जहाँ सब कुछ सुंदर और आदर्शों से भरा हो सकता है. शिक्षकों के बारे में अनूप, जीतेंद्र और नितिन के चिट्ठे देख कर ऐसा ही अचरज हो रहा था मुझे. शिक्षक दिवस और शिक्षकों को याद करना, यह लोग सचमुच की दुनिया के लोग हैं या फिर किसी काल्पनिक, आदर्शमय दुनिया में रहते हैं ?

मैं तो सोचता था कि शिक्षकों के आदर की बात करना, कुछ मजाक सा है. कौन पूछता है और समाज में सचमुच कितना आदर है आज शिक्षकों का? क्या हममें से कोई चाहेगा कि हमारा बच्चा शिक्षक बने ? शायद मैं यह इसलिए कह रहा हूँ कि एक शिक्षिका का बेटा हूँ जो नगरपालिका के गरीब स्कूल में पढ़ाती थी.

बच्चे का भोला मन ही अपने गुरु जी के दिये ज्ञान और प्रेरणा का मान कर सकता है, पर जैसे जैसे बच्चे बड़े होते हैं दुनिया के नियम सीख जाते हैं कि पैसे से औकात मापने वाली दुनिया में शिक्षकों का स्थान बहुत नीचा है.

अनूप के बाजपेयी सर जैसे गुरु तो बहुत किस्मत से ही मिलते हैं. अच्छे गुरु के साथ आदर से बढ़ कर, पितामय स्नेह का रिश्ता बना पाना और भी कठिन है. ऐसे समाज में जहाँ पैसा ही पहला मापदंड है, आज आम स्कूलों में शिक्षक वही बनता है जिसे और कोई काम नहीं मिलता. ऐसे में शिक्षक का काम गर्व से नहीं, कुँठा से निभता है. कैसे और ट्यूशन करुँ, कैसे और पैसे बनाऊँ, यह चिंता होती है. उनमे से अगर कोई अनूप के बाजपेयी सर जैसे गुरु हों भी तो बेवकूफ कहलाते हैं, आदर्शवादी बेवकूफ जिन्हे इस समाज के नियम और इसमे ठीक से रहना नहीं आया, न खुद कुछ बनाया खाया, न औरों को खाने दिया.

शायद यह बाद बहुत कड़वी लगे पर लिखते समय मेरी आँखों के सामने एक आदर्शवादी बूढ़े का चेहरा है, गाँधी पुरस्कार मिला था उन्हें आदर्शवाद के लिए, आखिरी दिनों में एकदम अकेले रह गये थे और उनके बच्चे उनके आदर्शवाद की हँसी उड़ाते थे. शिक्षक दिवस पर उन जैसे बेवकूफ आदर्शवादी शिक्षकों के लिए ही हैं आज की तस्वीरें.


4 टिप्‍पणियां:

  1. सुनील भाई, हर व्यक्ति की सोच अलग अलग होती है, जो नि:सदेह अनुभव पर आधारित होती है.

    मै आज भी अपने अर्जित ज्ञान को अपने गुरुओ का आशीर्वाद मानता हूँ, वे ना होते तो हमे यह ज्ञान ना मिलता, इसलिये गुरुओ के हम सदैव ॠणी रहेंगे.

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  2. ये सच है कि पैसे से औकात मापने वाली दुनिया में शिक्षकों का स्थान बहुत नीचा है.यह भी सच है कि लोग अध्यापन को अंतिम विकल्प मानते हैं.तमाम परेशनियां आती हैं अच्छाइयां बरकरार रखने में भी.आपकी माताजी शिक्षिका थीं उन्हें उनका देय नहीं मिला.यह आप उनसे लगातार जुडे़ होने के नाते कह पा रहे हैं.लेकिन शायद तमाम लोग हों जिन्होंने उनसे न जाने कितना पाया होगा.और शायद् उनके प्रति श्रद्धा से नत हों.मेरे गुरुजी भी आम आदमी थे.उनके सामने तमाम मानवीय चुनौतियां थीं. वे ट्यूशन भी पढाते थे उन लड़कों को जो उनसे पढ़ने आते थे.उनकी पारिवारिक
    समस्यायें भी थीं .जिन्दगी बिता दी किराये के मकान में जब मकान बन पाया तो रहने के लिये वो नहीं थे.बडी़ लडकी विधवा हो गयी ४०-४५ की उमर में .यह् सदमा भी रहा.अपने छोटे बेटे के भविष्य को लेकर काफी चितित रहे.इन सारी आपा-धापी के बीच वे सदैव अपने मानस पुत्रों के उन्नयन के लिये निस्वार्थ् लगे रहे.दुनिया तो भेड़चाल चलती है.अच्छे लोग हमेशा अल्पसंख्यक होते हैं.यह सच है वे अल्पसंख्यक होते हुये भी बहुत
    ताकत देते हैं.मेरे गुरु मुझे आज भी ताकत देते हैं.मरने तक देते रहेंगे.तमाम दुनियावी रूप से सफल लोग पता नहीं कहां बिला गये होंगे इस बीच.आपने मेरा लिखा पढा़ ,मेरी भावनायें महसूस कीं मैं उसका आभारी हूं.

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  3. मेरे पापा भी एक शिक्षक थे. उन्होने अपना पुरा जिवन एक ग्रामीण क्षेत्र मे अध्यापन करते हुवे बिताया. मै आज जब भी उस जगह जाता हुं आस पास के २० वर्ग किलो मिटर के लोग मुझे मेरे नाम से नही मेरे पापा के नाम से जानते हैं. मुझे जो भी सम्मान मिलता है वह मेरे पापा के कारण मिलता है. एक आम भारतीय आज भी शिक्षक का सम्मान और पूजा करता है.

    आशिष

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  4. क्या कंहू ????????????????????????????????
    ठीक ही कह रहे हैं आप लोग /

    http://primarykamaster.blogspot.com/

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"जो न कह सके" पर आने के लिए एवं आप की टिप्पणी के लिए धन्यवाद.

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