"२६ सितंबर, १९४४. चौदह साल का था मैं, वहाँ, उस कोने पर खड़ा था. हर पेड़ के नीचे पर एक लाश झूल रही थी", उनकी आवाज में कोई भावना नहीं झलकती. वह यह कहानी जाने कितनी बार पहले भी सुना चुके होंगे. यहाँ आने वाले पर्यटकों को. हम लोग उत्तरी इटली में एक छोटे से शहर "बसानो देल ग्रापा" में थे. शहर के प्रमुख पियात्सा (चौबारे) से घड़ी के काँटे जैसी कई सड़कें शुरु होती हैं और इस चांदाकार सड़क पर समाप्त होती हैं. लगता है जैसे किसी सिनेमा हाल की बालकनी पर खड़े हों. एक तरफ गोल घूमती सड़क और शहर की प्राचीन दीवारें और दूसरी ओर नीचे एक हरी भरी घाटी और फिर ऊँचे पहाड़. करीब ही बहती है ब्रेंता नदी जिस पर बना प्राचीन पुल द्वितीय महायुद्ध में पूरा नष्ट हो गया था पर जिसे दोबारा से अपने पुराने रुप में बनाया गया है.
जहाँ सड़क खत्म होती है और वादी शुरु होती है, वँही कतार में लगे हैं वे ३१ पेड़ जिनकी बात हमारे गाइड कर रहे हैं. हर पेड़ एक छतरी की तरह तराशा लगता है. हर पेड़ पर लगा है उस पर फाँसी चढ़ने वाले का नाम, किसी किसी की फोटो भी है. इतनी सुंदर जगह पर मौत की बात कुछ अजीब सी लगती है. "आप जानते थे, उनमें से किसी को ?", मैंने पूछा.
"जानता था ? हमारे यँही के तो लड़के थे सब. सबको जानता था", हमारे गाइड की आवाज भर्रा आयी, "बच्चे थे वे भी मेरे जैसे, सोचते थे कि जर्मन सिपाहियों और फासिस्टों से अपना देश आजाद करवाना है. जर्मन तब हारने लगे थे, फासिस्टों को डर लगने लगा था."
कुछ देर चुप रह कर वे फिर बोले, "हमारे घर के पास रहती थी एक औरत. उसने सुना कि फाँसी लगने वालों में शायद उसका भाई जिरोलामों भी है, साइकल पर आयी थी और हर पेड़ के नीचे लटकी लाश के चेहरे देख रही थी. था एक जिरोलामो फाँसी चढ़ने वालों में से, पर वह उसका भाई नहीं था. बहुत सी बातें भूल गया हूँ पर यह बात नहीं भुला पाया, उसका हर पेड़ पर लटकी लाश में अपना भाई ढ़ूंढ़ना."
बासानो देल ग्रापा के शहीद मार्ग के पेड़ और ब्रेंता नदी पर पुल
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