बुधवार, अगस्त 17, 2005

दे दाता के नाम

इटली की सड़कों पर कुछ नये भिखारी आये हैं. पूर्वी यूरोप से आये इन भिखारियों के बारे में अखबार में निकला था कि इन्हें बसों द्वारा हर सप्ताह लाया जाता है और हर सप्ताह नये लोग आते हैं, भीख मांगने. काम पर जाते समय एक चौराहे पर आजकल एक जवान महिला दिखती हैं भीख मांगते हुए. करीब २५ या २६ वर्ष की उम्र होगी, सुनहरे बाल और सुंदर चेहरा. कल वे गुलाबी और सफेद धारियों वाली टी शर्ट और नीचे कसी हुई जीनस् पहने थीं. देख कर लगा कि अगर इन्हें दिल्ली के भिखारी देख लें तो कभी माने ही न कि यह भी भिखारी हैं.

आम तौर पर मैं पैशेवर भिखारियों को कुछ नहीं देना चाहता पर कैसे मालूम चले कि कौन पैशेवर है और कौन मुसीबत का मारा, जिसे सचमुच जरुरत है ? रेल के डिब्बे में अक्सर नवजवान युवक और युवतियां यह कह कर पैसे मांगते हैं कि उनका पर्स खो गया है और वह घर जाने का किराया इकट्ठा कर रहे हैं. डर लगता है कि शायद यह नशे के लिए पैसे जमा कर रहे हों. पर शायद कभी कभी उनमें कोई सचमुच ऐसा भी होगा जिसका पर्स खो गया हो ? कुछ वर्ष पहले, एक बार रेल में चढ़ने के बाद मैंने पाया कि जल्दी में अपना पर्स घर ही छोड़ आया था. उस दिन डर डर कर बिना टिकट ही यात्रा की और फिर जान पहचान के किसी से पैसे मांगे, घर वापस जाने के लिए. इसलिए लगता है कि अगर कोई बेझिझक, बिना शर्म के पैसे मांग रहा हो तो अवश्य ही पैशेवर भिखारी होगा.

कभी कभी पैशेवर भिखारियों पर भी दया आ जाती है. बोलोनिया रेलवे स्टेशन पर कुछ साल पहले तक एक वृद्ध इतालवी महिला दिखती थीं. उन्हें कई मैं रेलवे स्टेशन के रेस्टोरेंट में खाना खिलाने ले गया. उन पर दया इस लिए आती थी क्योंकि उन्हें देख कर मुझे अपनी दादी की याद आ जाती थी.

आप ने अगर नोबल पुरस्कार विजेता मिस्र के लेखक नगीब महफूज़ की किताब "मिदाक गली" पढ़ी हो तो भिखारियों को देखने का तरीका ही बदल जाता है. इस किताब में उन्होंने पैशेवर भिखारियों की दुनिया का बहुत अच्छा विवरण दिया है.

कभी कभी लगता है कि भीख मांगना भी एक काम है, अन्य कामों के सहारे. समृद्ध यूरोपीय जीवन में, वयस्त जीवनों में कभी कभी बहुत सूनापन सा लगता है. अनीता देसाई ने अपनी पुस्तक "फास्टिंग, फीस्टिंग" में उपभोक्तावादी जीवन के सूनेपन को बखूबी दिखाया है. इस सूनेपन में किसी भिखारी को पैसे दे कर लगता है कि हाँ हम भी अभी मानव है, दूसरों का दर्द महसूस कर सकते हैं.

आज की तस्वीर में मुम्बई में काम करने वाली डा. उषा नायर की (बीच में हरे कुर्ते में). यह तस्वीर चीता कैम्प स्लम से है. उनके दाहिने ओर हैं उनकी दो साथी, बीबीजान और वहां के पुजारी की बेटी, वसंती. यह तस्वीर मैंने इस लिए चुनी क्योंकि, गरीबी केवल भीख नहीं, विकास की इच्छा भी हो सकती है जिसमें बिना हिंदु मुसलमान के भेद के, हम साथ काम भी कर सकते हैं.

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